SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रतिष्ठा २३ Jain Educat मिथ्याविहारवचनाशनपांशुलत्वदुर्दृष्टिदर्शनपरित्यजनेन सार्द्धं । शान्तिक्षमायमतपश्चरणाभियोगं प्रारब्धकर्मणि विशृंखलता विरच्येत् ॥ ९३ ॥ अर वो इंद्र मिध्यागमन, मिध्या वचन, मिथ्या भोजन, अर पाप कर्म अर मिध्यात्व कथन, मिथ्या दर्शन, इनका परिहारसंयुक्त शांति क्षमा यम तपश्चरण आदि योगनें ग्रहण करि प्रारंभ किया प्रतिष्ठा कर्ममें लज्जारहित हुवा थका वैराग्ययुक्त होय ॥ ६३ ॥ अथ सामिग्री लक्षणं । गंगादितीर्थोद्भववारिशीतं मुहूर्त्तमाले परिगालितं वा । सत्प्रासुकं वस्त्रवितानगूढं पावेभृतं शुद्धतरे विशुद्धं ॥ ६४ ॥ अब सामिग्रीका लक्षण कहिये है— प्रथम जल ऐसा कि, गंगादि शुद्ध तीर्थतें उत्पन्न शीत जल सो एक मुहूर्त्त कालमें छाण्या हुवा, प्रासुक अरु वस्त्रका चंदवा कर अच्छादित सुन्दर शुद्ध पात्रमें विशुद्ध भरया ऐसा होय ॥ ६४ ॥ ational कर्पूर मिश्रं मलयोद्भवं च काश्मीरयोगाभिमतं वरेण्यं । सौगंध्यहूतालिगणं सुवर्णपात्रार्पितं यत्ननिगूढमस्तु ॥ ९५ ॥ कर्पूरकरि मिश्रित, केशर करि मान्य, सुन्दर ऐसा मलयागर चंदन है सो सुगंध कर आये हैं भ्रपका समूह जामें, सुवर्ण पात्रमें स्थापित बड़ा यत्नस् गुप्त जिनप्रतिष्ठाके योग्य होहु ॥ ८५ ॥ मुक्ताफलैर्वा कलमाक्षतैर्वा हिमांशुभा तैरपखंडनैश्च । धौतैस्त्रिवारं शुचिभाजनैर्वा कुर्यात् प्रपुंजैर्विमरदभैः ॥ ६६ ॥ For Private & Personal Use Only पाठ २३ inelibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy