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________________ प्रतिष्ठा पाठ २२३.६ Rela.RANSAMACHA अरु जिनका हाथ अंगुलीनका स्पर्शत रोगको शांति होय तातें प्रापर्ष ही ओषधि है असा नाम पाया है और जिनका पवन भो स्पश करने वालोंकू रोगपीडाका नाशके अर्थि होय है तिनि मुनिवरनिको अग्रभूपिनै मैं पूजू हूँ ॥६ ॥ भों ही आमौषधिऋद्धिमाप्त भ्योऽयम् । निष्टीवनं हि मुखपद्मभवं रुजानां शांत्यर्थमुत्कटतपोविनियोगभाजां। क्ष्वेलौषधास्त इह संजनितावताराः कुर्वतु विघ्ननिचयस्य हतिं जनानां ॥ ६८६ ॥ अरु जिनका मुखकमलतें उत्पन्न हुवा निष्ठीवण रोगनिकी शांतिके अर्थि होय है ते खेलौषध हैं, तिन उत्कष्ट तपका नियोग भजनेवारे अरु सफल है जन्म जिनका ते विघ्नसमूहका निवारण मनुष्यनिका करो॥ ६८६॥ ओं ही वेलौषधिऋद्धिमाप्त भ्योऽय। ___ स्वेदावलंबितरजोनिचयो हि येषामुक्षिप्य वायुविसरेण यदंगमेति । तस्याशु नाशमुपयाति रुजां समूहो जल्लौषधीशमुनयस्त इमे पुनंतु ।। ६६०॥ अरु जिनका प्रस्व दकरि संचित रजका समूह पवनका फैलावकरि उडिकरि जिनका शरीरनै स्पश है तिनका रोगनिका समूह है सो नाशने प्राप्त होय है ते जल्लौषधि ऋदिधारी मुनींद्र मोनै पवित्र करो॥६ ॥ प्रों हों जल्लौषधिऋद्धिमाप्त भ्योऽयम् । नासाक्षिकर्णरदनादिभवं मलं यन्नैरोग्यकारि वमनज्वरकासभाजां। तेषां मलौषधसुकीर्तिजुषां मुनीनां पादार्चनेन भवरोगहतिनितांतं ॥ ६६१॥ अरु नासिका नेत्र कर्ण दांत प्रादिका मल रोगी ज्वर काश वमनवारेनिको नोरोगता करनेवारा है तिनि मलौषधि ऋद्धिको कीर्ति | भजनेवारे मुनोंद्रका पादारविंदका अर्चनकरि अतिशय रोगको हानि होय है ॥ ६॥ PLORERALASAH R A ANE Jain Education a l For Private & Personal Use Only R4 alibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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