Book Title: Nyayamanjari Granthibhanga
Author(s): Chakradhar, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ferre दलपतभा यसंस्का भारतीय अहमदाबाद CAKRADHARA'S NYAYAMANJARIGRANTHIBHANGA L.D. SERIES 35 GENERAL EDITOR DALSUKH MALVANIA EDITED BY NAGIN J. SHAH For Private & Personal Use C DEPUTY DIRECTOR L. D. INSTITUTE OF INDOLOGY AHMEDABAD-9 L. D. INSTITUTE OF INDOLOGY AHMEDABAD 9 www.jainelibrary.or Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CAKRADHARA'S NYĀYAMANJARĪGRANTHIBHANGA L. D. SERIES 35 EDITED BY NAGIN J. SHAH GENERAL EDITOR DALSUKH MALVANIA DEPUTY DIRECTOR L. D. INSTITUTE OF INDOLOGY AHMEDABAD-9 GAMES 3) L. D. INSTITUTE OF INDOLOGY AHMEDABAD 9 मदाबा Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FIRST EDITION March, 1972 PRICE RUPFES 5-0 100 Printed by Swami Tribhuvandas Sastri, Shree Ramanand Printing Press. Kankaria Road, Ahmedabad 22, and Published by Dalsukh Malvania Director L D. Institute of Indology, Ahmedabad 9. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाल भाई क Senior चक्रधरकृत : न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः अहमदाबाद संपादक नगीन जी. शाह प्रकाशक लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर अहमदाबाद- ह Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PREFACE The L. D. Institute of Indology has great pleasure in offering to the world of Sanskrit scholars the only available and hitherto unpublished commentary on the famous Nyāyamanjari of Jayanta Bhatra (900 A. D.). Its author Cakradbara (c. 10th or 11th century A. D.) explains the knotty portions of the Manjari. Hence he has given the title Nyayamanjarigranthibhanga to his commentary. He has deep kaowledge of the Buddhist, the Nyāya and the Mimamsa philosophy, The L. D. Institute of Indology is thankful to Dr. Nagin J. Shah for undertaking the editing of this invaluable work. He has spared no paias to make it useful by adding learned foot-notes and a number of indices. He has written an interesting and informative introduction to this edition. It is hoped that the publication of this important work will be of immense value to the keen students of Indian Philosophy, L. D. Institute of Indology Ahmedabad-9 16th January 1972 Dalsukh Malvania Director Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयनिर्देशः Introduction 1-14 प्रथमे आह्नि के प्रमाण मामान्यलक्षणं प्रमाणविभागश्च द्वितीये आह्निके प्रत्यक्षानुमानोपमानप्रमाणविचारः ४४-७० तृतीये आह्निके शब्दप्रमाण प्ररूपणम् चतुर्थे आह्निके वेदप्रामाण्यनिरूपणमथर्ववेदप्रामाण्यस्थापनं स्मृत्यागमादिप्रामाण्यव्यवस्था च९४-१२९ पञ्चमे आह्निके जातिनिरूपणम् १३०-१५७ षष्ठे आह्निके पदस्वरूपवर्णनम् १५८-१८१ सप्तमे आह्निके आत्मतत्त्वप्रतिपादनं क्षणभङ्गनिरासश्च १८२-१९८ अष्टमे आहिके शरीरेन्द्रियार्थबुद्धिप्रवृत्ति दोषप्रेत्यभावफलदुःखरूपाणां प्रमेयाणां निरूपणम् १९९-२०९ नवमे आहिके अपवर्गविचारः २१०-२२५ दशमे आह्निके संशय-प्रयोजन-दृष्टान्त-सिद्धान्तावयवविवरणम् २२६-२३२ एकादशे आहिके तर्क-निर्णय-वाद-जल्प-वितण्डा-हेत्वाभास-छल-विवेचन २३३-२४१ द्वादशे आह्निके जाति-निग्रहस्थानव्याख्या २४२-२४६ पत्रखण्डानि २४०-२५१ न्यायमञ्जरीप्रन्थिभङ्गगतान्यवतरणानि २५२-२६० न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गनिर्दिष्टानि प्रन्थग्रन्थकारादिनामानि २६१-२६४ न्यायमञ्जरीप्रन्थिभङ्गगता दार्शनिकशब्दाः २६५-२७६ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मा विश्वनाथ नागि। विद्या का जात्या नोगा। घादियह लो कामिविध शरीर कई बान्तु यतः श्रील ललकारण कल्पनाला परकार तालमानानति ॥दिवाना युगामा सहम याघातनिवर्ततियानाथ ने इाजिक वसगतायारितियह लेना सतायो साथमाह मई विद्यापति स्यादथापितामितिरिति यियविका विद्यावावित्यादिषु द्याव्यात निवगम क द्विषालिता॥ याया बाप काय काय स्वकाम येस्पानियादि दिश काला त्यो समय नदिकालिदा एक नालायाः समः काल नाविक मादमिर नमासाद्यति समर्थय म यदवि विशय कुहमिि निवास विश्व तथा रूपवासवानि शशश्वानयनान्या वासनापार हि परम पिकावर बसवमतिमनति व नादिपदाव यावहितथितिकारणार पालिया अवनतियतःक्ष रायः कामवमाः । कर्मविकार यासः समशिषः देववहति नवरादिरसा सावत्याद्यततिप्रसंग त ति किंवकर सलमा प्रेममा दवाव से वहस्य मिलाप कारण बेनका वारसा मम मेहतायादिना ॥ परत्वममाहित्यि काकिते याऊन माध्यामव्यय गत्यतीनामतिकरण 1948 सहितका विनानिहाय गावा मियादिन तक मिलन यशोवर्मावित्यो मायाः सिद्यतित घाद्यायानं गमकत्वं वा ये नया पालन दिवस येणादर्शनात मनवा विद्याशिवायामिति व्यायामन्या गावा विजान या सामानाधिनत्रयायायात सामावास्या का विश्वतियः कृतकत्वादि कृत कुलमिति यस्मिदशकाल वा मिस मोना शामिमियायाःया सत्यमितस्य नावासियाह (गनिक व य वा तिलका विभावर्विषादिस पूर्वका शिवाक्ष्यः सायेला घटादिवदिति। वितथ करिति विश्व विश्वतः विश्वतिम या मालमत्यस्य विश्व विवावियहीतव्येस द्यावा गुप्यादीत सवम विसेयुन निकाला मतिः सयानार्थः यतविषयक्ति उष्पवयातिरिति दर्शयतिश्मशान व दिनादिवमास्यः छेद सिपाि पाणिपादादिना ही तथा सागगगन का साथयहणखभावकथव Ms. जेo folios 69A, 70A, 71A ( see printed pp. 81-83 ) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिविशेषश्चममन्यन्त्रमाणपंचममक्लिनधावापिविरुवादिविशेषस्तनपंक थमन्पत्तथानियामान्यन्वतंष्टध्यायेत्वानामंजवेदितिापवंविधरपोद्यय्य वरलुचिनिन्नविषयावरलुस्कनावोयंयमित्रोवरजिमपियामापंचपन मयाअयसापधिराछनामिनियस्तमयमोषधालुनामियात्वममष्टया दृथ्वानिनिसंबंधाकिंन्दनापथिगछन्डालोचनाक्प्रवरातिनियमि नानन्ममेकास्पिातिअनमयकामियांपरप्पपिमित्मचकित्र माताभिनिवेत्तदाहावगतिनियमितेतिरूपमेयात्रुपक्यांमान्यूनःपथ्य रागंडानिवगम्मतोतयात्रिधमिजलेषारुपमकीपमित्वच पकाते रति निस्त्रयंफ्लेकदेवनिरयंपकं--पाहिनाशिलेदेनज लखएव------------ अन्सयामिछान्मावित्रोषनिष्टत्रा झगनोजने-होतकालेनसितिमितिा------केनेशापर्व जनानुकुले----सवरादिसूनिवेदिलेनिासवरणस्छानवर परितमानवरलानामाप्पयोगप्राधनाधिप--वाहापाकंचकराजसल चंदनगंगाटकान्नधरस्वतहवेपिनलफ्नातुति सर्ववष्टिसाहचर्या बाटाबाझामवस्छानां--पुरुषा:कटा-वारणकटवानातिवृत्ता य-राजाऽतित्रा-कता:नातवान्जाभवाव्यातुलया-व चनंतुलाचंदनंगंगावानमापोगंगाकमेनोनयुलपटा निम्ता धनापन्नत्रमापति)लाधिपत्पादयंसुरुमाऊलमियुनेस्यामा नाधिकररोपेनवाहपित्रवतततिवादविविधालगंबंधेनाम्यामा सुमावडेडमिनिष्क्रियागगनलकृष्णयामितिनाकलधुटाकाय स्पवाहीकध्यमाद्याटिईक्ष प्रतिपादयतुगिस्तापत्रयोगोनमुनाह गयांगंगवाष्टोमासामाग्छनारघरखनाक्यतयाजदर श्रावकरामनवक्रधरकृतिन्पायनेजरीयलंगेल्काप्राप्तानिजमश जानिलकत्रिकस्यवमादिस्वपियादवावादत्राकर-- साप्रकारत्न मोजयितुत्राक्यत्वादिनिायथाअहेतु:कालत्रयेप्पप्राक्कावास्यका लक्ष्यप्पनाभकत्वादहनुमाधम्यनिनिलाम्पसतात्रयमंशाधनाला नवजात्युत्तरोहीतनितिातेनहिक्रियावानात्माप्रमाणात यातुमुल्योगात्रात्यंलोष्ट क्रियान्वउपयुक्तःक्रिमावानुनथाचा मितिजाउदाहरण्यापनावाघालावलनादिकर्मयोगेनोन थानेननमायापन्निध्यतातिरयंचलत्वाचाऊयवहित्पादितेनाविक तपाबाटोनिविपताऽनिलेनदृष्टानेनाविपरीतनयालन्यातपायुधाघटान धादामपतिदित्रपतोयश्चात्यनिधर्मकलम्योपलिरिनितम्पोलेरियाय पाख्यानी एर्वमनुत्पसानवितव्यूमिनित्रउत्पन्नेरलात्मनः किमुद्दिच्यते। विमुगतानास्पत्रविमतिरिपोम्याचम्पत्निक्रियासिसितिग्नये ननित्पनानिपेनचसाधास्त्रपदपढ़याःअनिःप्रक्रियाप्रकरलामननि कृतमानप्रतिनिधिोत्पत्तोप्रकरणनितिनवितिप्रतिक्रतोनिक नोनियिनिहलनावक्विाधम्मेलतियदास्थापनावापयामी Ms. To folio no. 58 (see printed pp. 241-42 ) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION Critical Apparatus This edition of the commentary on the Nyāyamanjarı of Jayanta is based on two manuscripts - one containing the commentary upto the sixth ahnika only and the other containing the commentary on the remaining ahnikas only. Let us describe these two mamuscripts one by one. o This is a palm-leaf manuscript.1 It belongs to Jesalmera Bhaņdāra. It contains the commentary upto the sixth ahnika only. It is numbered 386 in the Catalogue prepared by Late Muni śrı Punyavijayaji. It consists of 186 folios. Nearly 18 folios are missing and some are broken. All the rematning folios are in good condition. The handwriting is uniform and beautiful. The size of the manuscript is 32.7 cms. x 6.25 cms. Each side of the folio has 5 or 6 lines and each line has 60 letters, As this is only the first half of the whole manuscript it does not contain the normal colophon which always occurs at the end of manuscripts. Of course, at the end of every ahnika there occur the words : bhattaśrıśankaratmajaśricakradharakrte nyaya. manjarlgranthibhange... It is unfortunate that the second half of the manuscript is lost to us. The manuscript belongs to c. 13th century of the Vikrama Era. g. This is a paper manuscript. It belongs to the Bhandarkar Oriental 88 Research Institute, Poona, It bears the No. Its size is 29 cms. of 1873-74 x 21.5 cms. The copyist has written on one side of the folios. It consists of 61 folios. Folio No. 25 is missing. The letters not being uniform the lines on the written side vary from 18 to 38 and the letters per line from 22 to 29. There is no colophon at the end of the manuscript. But at the end of every ähnika there occur the words : bhaffasrišankarātmajafricakradharakste nyāyamañjarigranthibhange...Thus these words are identical with those that are found at the end of every ahnika in so manuscript. Though the manuscript is not dated it seems to have been written in the 18th or 19th century A. D. It is noteworthy that this manuscript contains the commentary on the last six ahnikas (i.e. from 7th to 12th) only. The script of the manuscript is not quite legible. Moreover, the manuscript itself is very corrupt. Of the two this manuscript has been noticed by Aufrecht in his Catalogus Catalogorum. Author of the Commentary The author of the commentary on Jayanta's Nyāyamañjari, which is called Nyāyamañjarigranthibhanga and which is now being published for 1. The photocopy of this manuscript has been used for this edition, Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ the first time, is Cakradhara. In the introductory verses he has given some information about his personal history. He is a son of Sankara. And his teacher's name is Saśārkadhara. He seems to be a saiva because in several verses occurring at the beginning of some of the annikas he offers his respectful salutation to Lord Siva. Again, his pleading for the pramanya of saiva Āgamas is also very forceful. It may be noted, however, that at one place he salutes Vişnu also. Regarding his teacher Śaśānkadhara he tells us that he composed a commentary (vivarana) on the Višvarūpatīkā by Visvarüpa who, in the opinion of Prof. Anantalal Thakur, must have been a close associate of Jayanta. Cakradhara is most probably a Kashmirian. Against this some one might produce the evidence of bis having quoted four verses from the Siddhiviniscaya of Akalanka (8th century A. D.) who belonged to Manyakheţa in the South. But this evidence loses all its force if we bear in mind that Kashmirian Bhatļanārāyaṇakantha's Vitti on the Mrgendratantra, which is composed in the 10th or 11th century A. D., refers to Akalanka and his granthatritayal. As the so manuscript belongs to c. 13th century of the Vikrama Era our author must have flourished between 10th and 12th centuries of that Era, Jayanta and his Nyāyamañjari The present commentary is invaluable because it is the only extant commentary on Jayanta's famous Nyāyamañjari. Hence it will not be out of place if we say something about Jayanta and his Nyāyamañjari. Jayanta flourished in the reign of King Sankaravarman (885-902 A. D.). Jayanta in his Manjari refers to this king with respect. He describes him as dharmatattvajna' because he suppressed and uprooted the pervert practice of Nīlā mbaravrata. From his Agamadambara we know that he definitely belonged to the court of King Sankaravarman. Jayanta's son Abhinanda who has written the Kādambarīkathāsāra tells us that Jayanta's great grandfather was a minister of Lalitāditya (750 A. D.). Jayanta, being four generations removed from Lalitāditya, could not possibly have lived much later than 950 A. D. While explaining the verse -rajña tu' etc. occurring in the Nyayamanjarī Cakradhara informs us that by the order of Sankaravarman Jayanta stayed for many years in Kbasadeśa. This is really an important piece of information. At one place Udayana in his Parisuddhi remarks that the the author of Tātparyaļīkā intends in the passage to refute the view of Old Logician' Jayanta and others. This suggests Jayanta's priority to Vacaspati. At least he should be a senior contemporary of Vacaspati who has given vasu-anka-vasu (898) vatsara of an unspecified era as the date of 1. agarheat way 3766#fagylay... | Mrgendratantra, Kashmir Series, No.L, 1930 A. D. 2. Kashi Ed., p. 248, Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ composition of his Nyāyasūcinibandha. In view of Udayana's statement this vatsara cannot be held as of the Vikrama Era (898 V.S. = 842 A. D.) but it should be held as of the saka Era (898 Śaka = 976 A. D.) According to the statement of Abhinanda, Jayanta's ancestors hailed from Gauda. They settled in Kashmir. So, Cakradhara states that Gauramülaka was Jayanta's abhijanagrama. Could this place-name signify that it is a place the inhabitants of which originally hailed from Gauda ? (Gauramülaka>Gaudamülaka : gaud amūlakaḥ yatra vasanti sa grāmaḥ gaudamülakaḥ). Bhatia Jayanta's three works have so far been recovered and published. They are Nyāyakalikā, Āgamadambara and Nyāyamañjari. Nyāyakalika is a short commentary on the Nyayasūtra, Āgamadambara is a Sanskrit drama. And Nyāyamanjarı, though a commentary on the Nyāyasūtra, is of the nature of an independent Nyāya work. Jayanta's Nyāyamañjari is one of the three invaluable jewels of Indian philosophy, the remaining two being Dharmakīrti's Pramāņavārtika and Kumārila's ślokavārtika. If we acquaint ourselves with these three mature philosophical works written during the period between the 7th and 9th centuries A, D, we shall find that in that period the contest was triangular i. e. among the Buddhist, the Mimārsaka and the Nyāya-Vaiseșika. The main targets of Dharmakirti's attack are the Mimāṁsakas and the Nyāya-Vaiseșikas. Similarly, Kumarila's attacks are mainly directed agalast the Buddhists and the Nyāya-Vaiseșikas. Even Jayanta severely and mainly attacks the Buddhists and the Mimāṁsakas. These giants of Indian philophy igaore others, viz. Vedāntins (even Sankara), Sankhyas and Jaioas. This triangular contest of this period had its past history and it was to continue in the future also. Jayanta's Nyāyamañjari is a unique Nyāya work. The maturity of discussion is evident at every stage. Its Sanskrit is sweet and lucid. This is the opinion of Cakradhara also. It is written in prose and verse style. Though it is known as a commentary on the Nyāyasūtras, it is really an independent work on the Nyāya philosophy. As we have already said, in this Nyāyamañjari one finds the triangular contest among the Naiyāyikas, the Mimāṁsakas and the Buddhists. Its study gives us a clear idea of the problems of Indian philosophy and their solution offered by the three main branches of Indian philosophy. Vācaspati's teacher Trilocana had written a work entitled Nyāyamanjari wbich Vacaspati refers to in the mangala of his..Nyāyakaạikā, Jūnnaśrs in his Isvaravada clearly mentions:Trilocanaiso Manjari manjar yar Trilocanaḥ punar aha, Jñānaścımitranibandhavali, p. 236). Moreover, the Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. passages quoted by Aniruddha from Nyayamanjari in his Vivaraṇa-Pañjika are not found in Jayanta's Nyayamañjarī. This proves that there was a Nyayamanjars other than the well known Nyayamañjars of Jayanta. But unfortunately it is lost to us. Nyayamanjarigranthibhanga This commentary is important because it is the only extant commentary on the famous Nyayamanjari of Jayanta Bhatta, As the title of the commentary suggests, it explains the knotty sentences or phrases occurring in the Nynyamanjari. It is not a commentary in the usual sense of the term explaining each and every term. It is not even a running commentary. It is of the nature of an annotation. Even so it is an interesting and invaluable commentary because its author is a learned person who has a clinch of the philosophical problems. The prankas are mostly taken bodily from the text of the Nyayamañjart, though at some places we find the chayatype pratikas also. In selecting knotty sentences the author has shown his philosophical genius. He sometimes gives different readings prevalent in his days. He even records different explanations offered by others of the concerned portion of the text of the Nyayamañjart. He has rendered considerable service to the world of scholars by pointing out as to whose view Jayanta is referring to at a particular juncture in the Nyayamanjari. He has thrown a flood of light on various philosophical points. He has studied well the works of Nyaya, Buddhist and Mimamsa philosophers. Hence sometimes he clearly explains their positions, sometimes he brings out clearly the distinction between the two views upheld by opposing groups, sometimes he suggests new points, sometimes he reproduces cogent arguments and pertinent passages in support of the view in hand. His explanations of the Buddhist views referred to by Jayanta are illuminating. The subtle distinction between višesabuddhi and bhedabuddhi is clearly explained by him (see p. 89.). We cannot but have praise for him when we study the fine line of distinction drawn by him between the Buddhists and the Prabhakaras with regard to their view about abhavayyavahara (p. 41). On p. 89 he suggests that 'nanu buddhir apy eka nitya ca' applies to both the Sankhyas and the Bhattas. Such places are numerous in the commentary. Were there other commentaries on the Nyayamanjari ? There are a few suggestions in the present commentary to the effect that there existed some commentaries on the Nyayamañjari even prior to the present one. At some places Cakradhara records different explanations offered by others of the textual portions of the Nyayamañjari. The following are instances in point. On p. 2. Cakradhara explains the first verse of the mangala of the Nyayamanjari. Having given his own explanation of the compound 'sankalpasaphalabrahmastambārambhāya', he records the different Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 interpretation offered by others of this compound. His words are: "anye vyacakşate-sankalpalakṣaṇena phalena saphalaḥ saprayojano brahmastambarombho yasya...". And on p. 13 he tells us that some accept the reading 'kakodaravat' and explain it in the sense of a serpent (sarpa). Important Authors and Works referred to in the Commentary 1. UDBHATA Cakradhara refers to Udbhata on pp. 19, 43, 180, 197, 198. On p. 19 he informs us that by the term 'sub kşitacorvakas Jayanta means Udbhata and others. On p. 43 he tells us that by the term carvakad hurta' Jayanta means Udbhata, This makes it quite clear that there were not two groups of cārvākas, viz. susikşita and dhurta as both the adjectives are here applied to one and the same person. Again, here we are told that this Udbhaça has written a commentary (vivrti) on the Lokayatasutra. From what Cakradhara has said here it follows that Udbhata's interpretation of the aphorisms was novel. For instance, the first two aphorisms are explained by him quite differently abandoning the usually accepted sense. According to him the term 'tattva' occurring in the first aphorism suggests pramāṇaprameya-sankhya-lakṣaṇa-niyamāšakyakaraṇīyata'. The word 'it' occurring in the second aphorism indicates, according to him, the indefinite number of prameyas (prameyaniyama pratipadaka). On p. 197 it is said that the aphorism from the Lokayatasutra, viz. 'bhütebhyas caitanyam' is interpreted by him as bhutartham caitanyam'. Thus he means to say that caitanya which is an independent entity helps the physical elements in constructing the body (caitanyam soatantram eva Sartrarambhakabhato pakārakam iti). It is really surprising to know that there were carvakas who believed in the independent reality of caitanya. On p. 198 he is recognised as the upholder of the view that adṛsta (=dharma) is a property of the material elements. His view is quoted in his own words. The quotation is as follows: sarträrambhakakāraṇānām eva bhūtānāṁ sa kascit tadyko vicitrasukhaduḥkhopabhogado dharmaḥ svabhavavišeşa ity arthaḥ. On p. 180 Cakradhara tells us that Udbhaça himself has justified the usages of the forms like "jobha', 'ctrṇa', 'varenya'. Could we surmise that he was well versed in the science of Sanskrit Grammar also and that he wrote a work on Sanskrit Grammar ? From the above description it follows that Udbhata was a carvaka. He wrote a commentary on the Lokaуatasutra. In this commentary he interpreted the aphorisms of Lokayatasutra in such a way as even the Carvaka Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ philosophy would come under the fold of soul-believing pbilosophies of India. Moreover, he seems to have written a work on Sanskrit Grammar. Cakradhara has not given the name of Udbhata's commentary on Lokāyatasutra. No Mimāṁsā, Bauddha or Nyāya work except the present commentary refers to Udbhata or his work. But it is note-worthy that one Jaina work entitled Syādvādaratnakara not only refers to Udbhaļa but also gives long quotations from his commentary on the Lokāyatasutra, mentioning the commentary by name. This Jaina work also notes that Udbhata was a Lokāyata. It tells us that the name of his work was Tattvavịtti which is, most probably, nothing but his commentary on the Lokayatasutra. Udbhata is referred to in this Jaina work on pp. 265, 270 and 764. On p. 265 there occurs a passage which is very important in this connection. It is as follows : ___ यच्चोक्तं तत्त्ववृत्तावुद्भटेन “लक्षणकारिणा (. 1. लक्षणकाराणां) लाघविकत्वेनैव शब्दविरचनव्यवस्था, न चैतावताऽनुमानस्य गौणता, यदि च साध्यैकदेशधर्मिधर्मत्वं हेतो रूपं ब्रूयुस्ते, तदा न काचिल्लक्षणेऽपि गौणी वृत्तिः" इति । यत्तु तेनैव परमलोकायतम्मन्येन लोकव्यवहारैकपक्षपातिना लोकप्रसिद्धधूमाद्यनुमानानि पुरस्कृत्य शास्त्रीयस्वर्गादिसाधकानुमानानि निराचिकीर्षता "प्रमाणस्य गौणत्वादनुमानादर्थनिश्चयो दुर्लभः” इति पौरन्दरं सूत्रं पूर्वाचार्यव्याख्यानतिरस्कारेण व्याख्यानयता इदमभिहितं “हेतोः स्वसाध्यनियमग्रहणे प्रकारत्रयमिष्टं दर्शनाभ्यामविशिष्टाभ्यां दर्शनेन विशिष्टानुपलब्धिसहितेन भूयोदर्शनप्रवृत्त्या च लोकव्यवहारपतितया, तत्रायेन ग्रहणोपायेन ये "हेतोर्गमकत्वमिच्छन्ति तान् प्रतीदं सूत्रं लोकप्रसिद्धेष्वपि हेतुषु व्यभिचारादर्शनमस्ति तन्त्रसिद्धेष्वपि तेन व्यभिचारादर्शनलक्षणगुणसाधर्म्यतः तन्त्रसिद्धहेतूनां तथाभावो व्यवस्थाप्यत इति गौणत्वमनुमानस्य । अव्यभिचारावगमो हि लौकिकहेतूनामनुमेयावगमे निमित्तं स नास्ति तन्त्रसिद्धेष्विति न तेभ्यः परोक्षार्थावगमो न्याय्योऽत इदमुक्तमनुमानादर्थनिश्चयो दुर्लभ इति" इति । [स्याद्वादरत्नाकर पृ० २६५-२६६] On p. 270 we have the following passage : उक्तं च तन्त्र(तत्त्व ?)वृत्तौ भट्टोद्भटेन "सर्वश्च दृषणोपनिपातोऽप्रयोजकहेतुमाक्रामतीत्यप्रयोजकविषया विरुद्धानुमानविरोधविरुद्धाव्यभिचारिणः" इति । [स्याद्वादरत्नाकर पृ० २७०] On p. 764 there occurs the following passage : यत्र तु भट्टोद्भटः प्राचीकटत्-"न ह्यत्र कारणमेव कार्यात्मतामुपैति यत एकस्याकारणात्मन एककार्यरूपतोपगमे तदन्यरूपाभावात् तदन्यकार्यात्मनोपगतिर्न Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यात् । किं त्वपूर्वमेव कस्यचिद्भावे प्रागविधमानं भवत् तत् कार्यम् । तत्र विषयेन्द्रियमनस्काराणामितरेतरोपादानाहितरूपभेदानां सन्निधौ विशिष्टस्वेतरक्षणभावे प्रत्येकं तद्भावाभावानुविधानादनेकक्रियोपयोगो न विरुध्यते । यत एकक्रियायामपि तस्य तद्भावाभावितैव निबन्धनं सा चानेकक्रियायामपि समाना" इति । [स्याद्वादरत्नाकर पृ० ७६४] The author of the Syādvādaratnākara uses the epithet bhatta' for Udbhaya. Thus he calls him Bhatodbhaça. The passages reproduced here from the Syadvādaratpakara give us some idea of the nature of Tattvavịtti, Udbhaủa's commentary on the Lokāyatasūtra. On Cakradhara's showing, Jayanta refers to the views of (ārvāka Udbhara, Ard Jayatta being the author belonging to 9th century A. D. this Udbhaủa should not be placed after that date. And to our surprise we find that well known rhetorician Udbhata is assigned to the period 779-813 A. D. on the basis of the statement of Rājatarangini to the effect that Udbhata was a sabhapati of King Jayāpida .(8th Cent. A. D.) of Kashmira. Thus the date and place of these two Udbbațas are one and the same. This naturally suggests the identity of these two Udbhatas.. 2. BHĀVIVIKTA To our utmost surprise Bhavivikta turns out to be a cārvāka. He is not a Naiyāyika as we thought him to be on the basis of his words quoted in the Tattvasangraha.1 Cakradhara describes him as a cirantana. cārvāka. He seems to have written a commentary on the Lokayatasutra. And the quotations occurring in the Tattvasangraha are most probably from this commentary. Cakradhara says that Udbhata and Bhāvivikta differ widely in their explanation of aphorisms of the Lokāyatasūtra. A glaring insiance cited by Cakradhara is that of the interpretations offered by them of the sūtra 'bhūtebhyas caitanyam'. Bhavivikta interprets bhūtebhyah' in the sense of 'emerged from physical elements' whereas Udbhața interprets it in the sense of 'for (i. e. upakāraka of) physical elements'. This is an important and interesting piece of information divulged to us by Cakradhara. 3. PUŞKARĀKŞA Cakradhara refers to one Puşkarakṣa as the author of a commentary (vrtti) on the Bādarāyaṇasūtra. We are told that he was a parivrajaka. In his commentary he proved the pramanya of the Pancar atro, etc. Let us study his commentary on the sülra "vijñānādibhave vā tada pratişedhaḥ' (Brahmasutra 1.1.44]. It runs as follows "Tatryferych sicercatori Paramegi ar अप्रमाणं भवति । तदेतत् त्रिविधमपि पञ्चरात्रादिषु नास्ति । 'विज्ञानादिभावे वा' 1. Refer to foot-note 2 on p. 197 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 विज्ञानं तावत् तेभ्य उत्पद्यत इति विज्ञानानुत्पत्तिलक्षणाप्रामाण्यनिरासः । आदिग्रहम्माद्धि संशयविपर्यययोः पर्युदासः । 'वा' शब्द: पक्षान्तरनिवृत्त्यर्थः । अतस्तदप्रतिषेधः प्रामाण्याप्रतिषेध इत्यलं बहूक्त्या ।" 4. SASANKADHARA Sasankadhara, the teacher of Cakradhara, wrote commentary on Viśvarupa's Viśvarupatika which itself was a commentary on the Nyayabhasya. This must have been a very important Nyaya work but we hear of it for the first time in this commentary. Even its author, Sasankadhara, is not refered to in any other work, 5 BHATTA NARAYANA While discussing the problem of the meaning of a sentence Jayanta records a view which maintains that udyoga is the meaning of a sentence. At this juncture Cakradhara points out that this is the view of Bhatta Nārāyaṇa. He describes Bhatta Narayana as mīmāmāyāṁ tṛnyadarśanakarty. This means that he founded a third school in the Mimamsa philosophy, Kumarila and Prabhakara being the founders of the other two schools. It is supposed that Murari Miśra (c. 1200 A. D.) founded a new third school in the Mimamsa Sastra (Murares tṛtyaḥ panthaḥ). But Cakradhara informs us for the first time that even before Murari, Bhatta Narayana founded a third school in the Mimämsä Darśana. As according to Cakradhara Jayanta refers to Bhatta Narayana, he should not be placed later than 900 A. D. We know of only one Bhatta Nārāyaṇa who flourished in this period. And it is the author of Venisamhara. All the other Bhatta Narayanas we know of are later. We leave it to scholars to decide whether Bharita Narayana referred to by Jayanta could be identical with the author of Venisarihara. And we would request those who do not think so to try to find out as to who he was and what was his contribution to the Mimämsä philosophy. 6-8 ACARYAS, VYAKHYATṚS AND PRAVARAS Cakradhara has thrown a considerable light on the terms *acāryas' 'vyakhyatṛs' and 'pravaras' which Jayanta uses frequently and which have raised a controversy among scholars. He tells us that those who commented on Uddyotakara's Nyayavartika are here intended by the term "acaryas', Rucikara being the foremost among them. Further, he points out that by yakhyars' Jayanta means those who wrote commentaries on the Nyayabharya. And among these commentators Pravara is the foremost. And it is quite obvious that the followers of this Pravara are here referred to by the term 'prävaras'. This is really a very important pice of information that Cakradhara relates to us. Refer to foot-note 1 on p. 44. Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. KAȚANDI Jayanta himself refers to Kağandı. In the printed text of Nyāyamanjari iastead of "katandi' “kapatri' is printed. Nayacakravrtti refers to the Katandațīkā. The Anargharāghavanātaka tells us that the author of the Katandi is Rāvana. Kiraņāvalibhāskara, Brahmasūtrašānkarabhāşya-Ratnaprabhavyakhyā aod Prakaļārthavivarana refer to Rāvaṇabhāşya. Hence there has arisen a doubt in the minds of scholars as to whether or not the Kasandıçīka is identical with Rāvaṇabhāşya. Cakradhara removes this doubt by clearly stating that the Katandi is nothing but a particular Vajśeșikabbāşya (katandı vaiseşikabhaşyaviseşaḥ). Moreover, as Jayanta refers to the Kağandı its author should belong to a period anterior to 900 A. D. Cakradhara has referred to and quoted many known authors and works. A glance at Appendix iii on p. 262 will make readers realise the truth of this statement. I cannot but refer to one point. No non-Jaina work has quoted from, or referred to, the Siddhiviniscaya of Akalanka. But this commentary of Cakradhara quotes 4 kārikas from it and what is more important is that Cakradhara explains them in his own words (pp. 213-215). This Siddhiviniscaya is lost to us. But late Dr. Pt. Mahendra Kumpar Jain has restored it from Anastavīrya's commentary thereon. The four kārikas quoted by Cakradhara exactly tally word for word with the restored kārikas. This proves the restoration of karikas to be authentic and almost identical with the original ones. About the present edition Cakradhara first gives a pratika and then explains the phrase, sentence, paragraph or verse concerned. The pratikas are printed here in bold types, Whenever these pratikas themselves are parts of quotations which Jayanta has taken from other works, we have tried to trace their sources which are mentioned in foot-notes. Again, we have given in foot-notes pertinent similar passages in other works for the elucidation of the point oceurring in the commentary or simply for the sake of comparison. At times, we have pointed out in foot-notes the difference of readings. Moreover, at some places we have given our own conments in foot-notes. We have done all this in order to be of help to readers in understanding the text of the Nyāyamañjarigranthibhanga and also that of the Nyāyaman jari. In paragraphing we have followed the printed text of the Nyāyaman jars published in the Kashi Sanskrit Series (No. 106). At the top of every page we have given nos, of the Kashi edition and the Viziangaram edition to help the readers in finding out the original textual portion. Important readings yielded by the Granthibhaiga The present commentary can help us to some extent in correcting the printed text of the Nyāyamañjari or in preparing its critical edition. The Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 printed text of the Nyāyamanjarı is corrupt. This commentary yields important correct readings. This will be clear from the following table wherein we have compared the readings yeilded by the commentary with those yielded by the printed text. In this table we notice that there are some granthis which are missing in the printed text of the Nyāyamañjari. This means that in the printed text some passages of the text of the Nyāyamanjarī are missing. This is even corroborated by the fact that seven karikas quoted from the Nyayamanjari in the Syadvadaratnakara (pp. 62-64) are not there in the printed text of the Nyāyamañjari. Nyāyamanjari (Kashi Edition) Nyāyamanjarigranthibhanga Missing प्रमाणाद्धि भिन्नं फलम् (p.8) मनुकूळेतर (p.23) अनुकूलतदितर (13) भविवेकात् प्राप्तिः (23-24) अविवेकात् प्रवृत्तस्य प्राप्तिः (14) 'वादांश्च (24) वादाच्च (15) शब्दात्त्वतदं (33) शब्दात्त तदं (18) समग्राम (37) समप्रांश (21) नियोगव्यापरं परिगृह्य तेन वस्तुनि (44) नियोगव्यापारपरिगृहीते वस्तुनि (29) मा स्म पान्य गृहं विश (45) पान्थ ! मा मे गृहं विश (33) दृश्यादर्शनवाच्यः (46) 'दृश्यादर्शन'शब्दवाच्यः (34) अभावान्तरकरणत्वे (52) अभावान्तरकरणे (36) भैव शब्दानुसारेण वाच्यस्थितिरुपेयते (53) न वै शब्दानुसारेण वस्तुस्थितिरुपेयते (36) (असत्त्वाधीन) दृश्य (54) पिशाचादेस्तु दृश्य (38) मात्मांशावलम्बनं (54) आत्मालम्बनं (39) चित्रत्वात् (56) भिन्नत्वात् (40) अनुपलब्धेः (58) अनुपलब्धे (42) न धर्मादिशक्तित्वात् (65) न धर्मादेः शक्तित्वात् (45) एवमेवेदम् (70) एकमेवेदम् (47) भन्यदा दृष्टत्वादिति (71) अन्यदाऽदृष्टत्वादिति (47) मेत्तव्यः (78) हन्तव्यः (49) स एव विषया (80) स एव विषयो 50) कचित्त्वदर्शनाभ्यासः (83) क्वचित् कुदर्शनाभ्यासः (51) अर्थापाये (86) अर्थाभावे (54) अक्षजेक्षणात् (93) रजतेक्षणात् (57) प्रत्यक्षत्वमतो (94) प्रत्यक्षत्वमदो (57) संस्थाभ्यसनकल्पितः (97) संस्थाभ्यासोपकल्पितः (58) म तु धर्मिणः (98) न तु भ्रातुर्धर्मिणः (58) मिष्प्रतिभ (100) निष्प्रतिघ (58) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 कार्य कारणसंयोगि (106) तत्स्वभावस्तत्कार्यम् (107) कार्य कारणं etc (61) तत्स्वभावः कालः (61) षोडशविकल्पा (61) तत्र देशविशेषावच्छेदः (62) क्रियाविमर्शनम् ( 64 ) तदभावे ( 65 ) विशेषे व्याप्तिग्रहणस्य ( 66 ) वर्तमानीभवति ( 68 ) निषेधवाक्यैकवाक्यता (75) इति स्थितम् (76) यत्तु तद् विशेषज्ञानं (77) प्रयोगक्रियाभ्यावृत्ति: (78) सम्भवात् (78) 'भ्रान्तयः (79) परानुभूतेन स्मरणम् (79) Missing Missing क्रियादर्शनम् (117) तदभावात् (120) विशेष व्याप्तिग्रहणस्य (121) वर्तमानो भवति (128) निषेधैकवाक्यता (145) इति स्थितिः (154) तु विशेषज्ञानं (160) प्रयोगः क्रियाभ्यावृत्तिः ( 160 ) सत्त्वात् (164) ख्यातय: (166) परानुभूते तु स्मरणम् (168) तिमिरं तत्र विवरवत् (170) सुचेलकेभ्यः (184) सर्वजीवानां (186) शठपर्षदोsपि (186) व्यञ्जकमेद (192) नित्यत्वं तु (192) यद्वा यद्यपि वर्णात्मा (199) H तिमिरं तितउविवरवत् (79) स्तवरकेभ्यः (83) सर्वजन (83) पर्षदोsपि (83) व्यन्जनमेद (85) नित्यस्तु (85) शब्दो यद्यप्यवर्णात्मा (87) शब्दतत्त्वं (200) विशेषा न प्रतिभासन्ते (201) न च बुद्धिरेकैव नित्या च (201) शब्दब्रह्म ( 88 ) विशेषो न प्रतिभाति (89) ननु बुद्धिरप्येका नित्या च (89) दिशां (207) नियतग्रहणपूर्वं (211) समानजात्यारम्भकत्वात् (211) दिश: (92) नियतग्रहणमूलं (92) युक्तयन्तरात् (213) प्रौढिवादि (213) एव (223) Harf (230) त्रिंशद्वार्षिकं (232) आथर्वणं (232) रिष्यति (235) 'नन्ते भृग्वतिरोभ्यः (235) चैकस्या (236) समानजातीयारम्भकत्वात् (92) गत्यन्तरात् ( 93 ) प्रौढवादि (93) एवं ( 97 ) त्रादि (100) षादत्रिंशदाब्दिकं (101) आथर्वणेन (101) रिच्यते (104) नर्ते भृग्वङ्गिरोविद्भथ: (104) काम्या (104) Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधं (236) वृत्त्यै (236) स्वकर्मभ्रंशे (237) संप्राहुः (241) न च क्रोशन (245) भवतु हृदय (245) शता (245) न हि निन्दा निन्दितुम् (249) एवमन्ते (258) प्रामाण्योपयोगित्वम् (259) गुणफलोपलब्धे भवत् (265) नानाविशेषनिकर' (277) दृश्यतयैव (280) इत्थं चान्यापोहनिरात्मनि (288) अभिधानवैषम्य (295) गुणपद (298) Missing प्रेषणा (321) म सम्पत्स्यति (324) निर्विषयायाः (327) शब्दकार्यनिर्वर्तकत्व (339) विखर (343) विवृते (343) अविभागात्तु (343) यत्र पदानाम् (353) कथं स्वभावात् स्वभाव (358) शब्दाख्य प्रमाणं पृष्ठभावेन (367) चेत्तस्य (373) ज्वालायोगोपनीत (376) Missing कपत्री (386) आह कलजवत् (389) यथोपवर्णितेनैव प्रकारेण (389) मूलभूतम् (389) परास्तम् (392) भोगिमतं श्रुत° (392) Missing चतुर्णिधनं (105) धृत्यै (105) स्वकर्मभ्रेषे (107) संप्रादुः (109) न च हृदयक्रोशन (114) भवतु कामं हृदय (114) शत्रा (114) न हि निन्दा निन्द्यं निन्दितुम् (115) एवमन्तो (118) प्रमाणोपयोगित्वम् (119) गुणफलोपबन्धेनार्थवत् (125) नानाविशेषणनिकर (131) दृश्यच्छायैव (133) इत्थं चान्यापोह इति निषेधात्मनि (136) अभिधानवैशर्स (137) गुणशब्द (140) स एव समुदायेन (144) प्रेरणा (147) नम् संभत्स्यते (149) तद्विषयायाः (154) शब्दकार्यनिर्वर्तन (158) पूर्विखर (162) विधृते (162) अविभागा तु (162) यत्र पदान्तराणाम् (164) कथं भवान् स्वभाव (165) शब्दाज्यप्रमाणपृष्ठभावेन (167) वेदस्य (169) लवणोपयोगापनीत (169) क्लेशेन समास (172) कड(ट)न्दी (177) व्रीहिकलञ्जवत् (178) यथोपदर्शितेन प्रकारेण (178) मूलशास्त्रम् (178) कुतस्त्यम् (181) भोगिमतश्रुत (181) भस्मत्प्रयोगसम्मेदाच (182) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -13 त्वनयोर्नेतुमुपक्रान्तः (Pt. II p.5) विषयनिष्ठम् (5) स्मरणानवधारणात् (7) विलक्षणाश्रितत्वं (8) प्रतिसंधानस्य दृष्टत्वात् (9) भेदाग्रहवदेव (10) 'मार्गेण (11) काञ्चनाद्युपयोगेन (11) रक्तता (11) चेष्टा च दृष्टा (14) तत्संज्ञता (15) तादृशः कार्य (16) परस्परविरहस्थितानां (17) वितत एव कालः (23) उपलम्भो हि भवेन्नासत्ता (23) त्वदभिमतोऽपि मध्ये (24) उपलब्धिव्यवस्थातः (26) एकवस्तुक्षणस्यापि (26) अन्यथात्वे हि (27) कृष्णाच्छुक्ल इति (40) कुरुकुर्वी (38) सुखदुःखजन्मना (38) सुकृतफलभोगादिनिपुण (39) चिरन्तर (40) कर्मणां यदि (43) गतमतिः (44) विषयवृत्तयः (59) सातर्यवसातरि (61) अस्त्वेकेन्द्रिय (69) कारणान्तरसम्भवे (69) तीव्रसंयोग (75) अजमजरम् (76) प्रतीकारे (80) मोक्षाभ्यासम् (87) Missing वेधान्तर (98) शब्दोपप्राध्यतया (99) त्वयोन्नेतुमुपक्रान्तः (182) विशेषनिष्ठम् (182) क्रमस्यानवधारणात् (184) विलक्षणाश्रयाश्रितत्वं (184) प्रतिसंधानस्यादृष्टत्वात् (185) मेदाग्रहणादेव (185) 'न्यायेन (186) प्राकनस्याविनाशेन (186) रिक्तता (186) चेष्टा न दृष्टा (187) तत्संज्ञिता (187) तादृशकार्य (188) परस्परव्यवच्छेदव्यवस्थितात्मनां (189) पूर्ववितत एककालः (191) . उपलम्भ एव भावानां सत्त्वम् (191) त्वदभिमतेऽपि मध्ये (192) उपलब्ध्यव्यवस्थातः (192) एकवस्तुक्रमस्यापि (192) अन्यथा हि (193) कृष्णाच्छुक्लतर इति (196) कुरुकची (196) सुखदुःखजन्मनो (196) स्वकृतफलभोगादिनियत (197) चिरन्तन(197) कर्मणां ननु (198) रतमतिः (198) विषमप्रवृत्तयः (205) विज्ञातर्यध्यवसातरि (206) भस्त्येकेन्द्रिय (207) कारणान्तराभावे (207) तीवसंवेग (209) अजममरम् (209) प्रतीकारो (210) भोगाभ्यासम् (216) किं त्वया ज्ञातमधुनैव हुंकृत्या (217) वायन्तर' (219) शब्दोपप्राहितया (221) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 L नाग्रहणम् (104) अवयवविनाशो ( 11 ) संयोगस्योपमर्दकम् (123) त्रिरूपपरिग्रहेण (124) बाधोऽनुमानरूपस्य स्व (134) समानधर्मो (134) न च तद्युज्यते (139) तद्दर्शनात् (149) साधनाद्विपक्षो (153) पराकरण (158) धर्मत्वात् (158) वादिनो (162) गौणेऽपि प्रयोगे न लक्षणेत्या (यमित्य) लं ( 171 ) चलनादिकर्मयोगे न गौस्तथा तत्साधर्म्यात् (177) अविशेषसमायां जातौ यत् साधनमुक्तम् (186) कर्मकरणयोर्निग्रह (190) न समस्ति (194) गिरिशो गौरी (201) न ग्रहणग्रहणम् (222) अवयविविनाशो (225) संयोगस्य निवर्तकम् (227) त्रिपदपरिग्रहेण (227) बाधोऽनुमानसारूप्यस्व (229) समानो धर्मो (230) न चैवं युज्यते (230) जन्मोच्छेददर्शनात् (233) साधनाद् बिना पक्षो (237) निराकरण (237) धर्मकत्वात् (238) वाचिनो (239) गौणे हि प्रयोगो न लक्षणायामित्यलं (241) चलनादिकर्मयोगेन गौस्तथात्वेन तत्साधर्म्यात् (242) अविशेषसमायां च यः समाधिरुक्तः (243) कर्मकरणयोर्न निग्रह (243) न संभवति (240) गिरिशो नगरी (245) Acknowledgements For me Pt. Sukhalalji Sanghavi and Pt. Dalsukhbhai Malvaniya have remained a constant source of inspiration. I owe a profound debt of gratitude to these two savants for whatever knowledge and understanding of Indian philosophy I have acquired, And I am grateful to Muni Shri Jambuvijayaji, Dr. K. K. Dixit, Prof. V. S. Ramachandra Shastry and Pt. Bechardas J. Doshi for their valuable suggestions. Nagin J. Shah, Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्केतसूची अभि०को० अभिधर्मकोश (काशीविद्यापीठ, १९२२) अभि०को भा० अभिधर्मकोशभाष्य (काशीप्रसादजायस्वाल-अनुशीलन संस्थान, पटना) अभि०दी० अभिधर्मदीप (काशीप्रसादजायस्वाल-अनुशीलन संस्थान, १९५९, पटना) अभि०समु० अभिधर्मसमुच्चय (विश्वभारती, शान्तिनिकेतन) अर्थसं० अर्थसंग्रह (सं. S. S. Sukthankar) अर्थसं०कौ० अर्थसंग्रह कौमुदी (सं. S. S. Sukthankar) अष्टस० अष्टसहस्री (निर्णयसागर,बम्बई) आप०ी०सू० आपस्तम्बश्रौतसूत्र (चौखम्बा) आल०प० आलम्बमपरीक्षा (The Adyar library series-32) का० पाणिनीयसूत्रवृत्तिकाशिका (चौखम्बा) काव्यानु०वृ. काव्यानुशासनवृत्ति (महावीर जैन विद्यालय, बम्बई) कौ०अ० कौटिलीय अर्थशास्त्र (बम्बई युनि०) गोपथब्रा० गोपथ ब्राह्मण (बिब्लिओथेका इण्डिका, कलकत्ता, 1872) चन्द्रानन्दवृण्वै०सू० चन्द्रानन्दवृत्तिसमलंकृतं वैशेषिकं सूत्रम् (गायकवाड ओरिएण्टल सिरिम) ज०सं० जयाख्यसंहिता (गायकवाड ओरिएण्टल सिरिझ, बडौदा) शानश्री.निब० ज्ञानश्रीमित्रनिबन्धावलि (काशीप्रसादजायस्वाल-अनुशीलनसंस्थान, पटना) तत्त्वचि० तत्त्वचिन्तामणि तत्त्वसं० तत्त्वसमह, (गायकवाड ओरिएण्टल सिरिझ, बडौदा) तत्त्वस०पं० तत्त्वसमहपञ्जिका ( , ) तत्त्ववै० तत्त्ववैशारदी (चौखम्बा, १९३५) तत्त्वार्थरा० तत्त्वार्थराजवार्तिक (भारतीय ज्ञानपीठ, काशी) तत्त्वार्थश्लोवा० तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (निर्णय सागर, बम्बई) तन्त्रवा० तन्त्रवार्तिक (आनन्दाश्रमसंस्कृतप्रन्थावलि) तर्कदी तर्कदीपिका (तर्कसंग्रह, बोम्बे संस्कृत सिरिझ) ताण्डयब्रा० ताण्डयब्राह्मण (चौखम्बा) तै०आ० तैत्तिरीय मारण्यक (आनन्दाश्रमसंस्कृतग्रन्थावलि) तै०सं० तैत्तिरीयसंहिता (स्वाध्यायमण्डल, पारडी) त्रिविज्ञप्ति०भा० त्रिंशिकाविज्ञप्तिमात्रतासिद्धिभाष्य (गीताधर्मकार्यालय, बनारस) धर्मो०प्र० धर्मोत्तरप्रदीप (काशीप्रसादजायस्वाल-अनुशीलनसंस्थान, पटना) ध्वन्या० ध्वन्यालोक (निर्णयसागर, बम्बई) ध्व लोच. ध्वन्यालोकलोचन (,) नन्दिसूत्रमलयवृ० नन्दिसूत्रमलयगिरिवृत्ति (आगमोदयसमिति, बम्बई) नयचक्र (श्री जैन आत्मानन्दसभा, भावनगर) न्या०क०, न्यायक० न्यायकन्दली (वाराणसेय-संस्कृतविश्वविद्यालय) Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 न्या०णि न्यायकणिका (विधिविवेकव्याख्या) (Reprint from the Pandit, मेडिकल हाल, काशी) न्या कुमु०, न्यायकुमुद० न्यायकुमुदचन्द्र (नियसागर, बम्बई) न्या०बि० न्यायबि० (काशीप्रसादजायस्वाल-अनुशीलन संस्थान, पटना) न्या०बि०टी० न्यायबिन्दुधमोत्तरटीका न्या०बि०टी०टि० न्यायविन्दुटीकाटिप्पणी (Bibliotheca Buddhica, St. _Petersbourg, 1909) न्या०भा०, न्यायभा० न्यायभाष्य (चौखम्बा; न्यायदर्शन, कलकत्ता) जैन्या०मा०, न्यायमा० जैमिनीय न्यायमाला (आनन्दाश्रमसंस्कृतप्रन्थावलि) न्या०म० न्यायमञ्जरी (काशी), (विजयनगर) न्या०र०मा० न्यायरत्नमाला (गायकवाड ओरिएण्टल सिरिश, बडौदा) न्यायप्रवेशवृ०६० न्यायप्रवेशवृत्ति पन्जिका (गायकवाड मोरिएण्टल सिरिझ, बौदा) न्यायभू० न्यायभूषण (षड्दर्शनप्रकाशन प्रतिष्ठान, वाराणसी) न्यायरत्ना० न्यायरत्नावली न्यायलीला० न्यायलीलावती (चौखम्बा) न्यायसारख्या० न्यायसारव्याख्या (मद्रास गवर्नमेन्ट ओरिएण्टल सिरिक्ष) म्या०या०ता०; न्या०ता०टी० न्यायवार्तिकतापर्ययटीका (चौखम्बा; न्यायदर्शन, कलकत्ता) न्या०सि०दी० न्यायसिद्धान्तदीपिका न्यास०म० न्यायसिद्धान्तमञ्जरी न्या०सू०, न्यायसू० न्यायसूत्र (चौखम्बा; न्यायदर्शन, कलकत्ता) पद्मपुराणपातालखण्ड (आनन्दाश्रम) पा० पाणिनीयव्याकरणसूत्र (चौखम्बा) प्रकरणपं० प्रकरणपश्चिका (चौखम्बा) प्रज्ञापनाहरि० प्रज्ञापनाहरिभद्रवृत्ति (ऋषभदेव केसरीमल, रतलाम) प्रतिक्षायौग० प्रतिज्ञायौगन्धरायणमाटक प्रवा०, प्रमा०वा०, प्रमाणवार्तिक (सं. राहुल सांकृत्यायम) प्रमाणवा०कर्ण; प्र०वाकर्ण० प्रमाणवातिककर्णगोमिटीका (किसाबमहल, इलाहबाद) प्रमाणवा०भा०; प्र०वा०भा० प्रमाणवार्तिकभाष्य (काशीप्रसादजायस्वाल-अनुशीलनसंस्थान, पटना) प्रमाणवा०स्वो०वृ० प्र०स्वोवृ० प्रनामवार्तिकस्वोपज्ञवृत्ति (हिन्दूविश्वविद्यालय नेपाल राज्य संस्कृत ग्रन्थमाला) प्रमाणसमु० प्रमाणसमुच्चय (i) नयचक परिशिष्ट) सं० जम्बूविजयजी (ii) चन्द्रानन्दवृत्तिसहितवैशेषिकसूत्र (परिशिष्ट) सं० जम्बूविजयजी (iii) मैसूरयुनि०-प्रत्यक्षपरिच्छेद प्र०मी० प्रमाणमीमांसा (सिंघी जैन सिरिझ, बम्बई) प्र०मी०वृ० प्रमाणमीमांसावृत्ति (सिंघी जैन सिरिमा, बम्बई) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17 प्रमेयकमल० प्रमेयकमलमार्तण्ड (निर्णयसागर) प्रवचनसा० प्रवचनसार (रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला, बम्बई) प्रवचनसातत्त्वदी० प्रवचनसारतत्त्वदीपिका प्र०वा मनो० प्रमाणवार्तिकमनोरथवृत्ति (सं. राहुल सांकृत्यायन) प्र०वि० प्रमाणविनिश्चय (Osterreichische Akademie der Wissenchaffen) प्रशस्त० प्रशस्तपादभाष्य (चौखम्बा) Buddhist Logic (Th. Stcherbatsky) बृहती (मद्रासयुनि०) बृहदा० उप. बृहदारण्यक उपनिषद् बोधिचर्या० बोधिचर्यावतार (मिथिलाविद्यापीठ) बोधिच० पं० बोधिचर्यावतारपञ्जिका बौधा०धसू० बौधायनधर्मसूत्र (Leipzig 1884) ब्रह्मसू० ब्रह्मसूत्र (निर्णयसागर, बम्बई) ब्रह्मसू०शां०भा० ब्रह्मसूत्रशाङ्करभाष्य (निर्णयसागर, बम्बई) मध्यमकशा०मध्यमकशास्त्र (मिथिलाविद्यापीठ) मध्यमकवृत्ति (प्रसन्नपदा) मिथिलाविद्यापीठ मध्यान्तवि०सू०भा०टी० मध्यान्तविभागसूत्रभाष्यटीका (कलकत्ता संस्कृत सिरिझ, १९३२) मनुस्मृ० मनुस्मृति (निर्णयसागर) मनो० (प्रमाणवार्तिक-)मनोरथवृत्ति (सं० राहुलसांकृत्यायन) महाभाष्य (निर्णयसागर) महाभाष्यप्र० महाभाष्यप्रदीप (निर्णयसागर, बम्बई) माठरवृ० माठरवृत्ति (चौखम्बा, १९१२) मी०सू०; जै०सू० मीमांसासूत्र (आनन्दाश्रमसंस्कृतग्रन्थावलि) मृगेन्द्रसन्त्र (काश्मीर संस्कृत सिरिझ) मैत्रा०उप० मैत्रायणीयोपनिषद् यवा०सं० यजुर्वेदवाजसनेयीसंहिता (स्वाध्यायमण्डल, पारडी) याज्ञवल्क्यस्मृ० याज्ञवल्क्यस्मृति (निर्णयसागर, बम्बई) युक्तिदी० युक्तिदीपिका (मोतीलाल बनारसी दास, दिल्लो) योगवा० योगवार्तिक (चौखम्बा) योगसू० योगसूत्र (चौखम्बा) रत्नकीर्तिनिवरत्नकीतिनिबन्धावलि (काशीप्रसादजायस्वाल-अनुशीलनसंस्थान, पटना) लक्ष्मीतन्त्रम् (अद्यार लायब्रेरी, मद्रास) लघीयस्त्रय (अकलङ्कग्रन्थत्रय, सिंघी जैन सिरिझ, बम्बई) वाचस्पत्यम् (चौखम्बा) वादन्याय (महाबोधिसभा, बनारस) वा०प० वाक्यपदीय (पुण्यपत्तनविद्यापीठ संस्कृत-प्राकृतग्रन्थमाला) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 18 विग्रहव्या० विग्रहव्यावर्तनी (नवनालन्दा रिसर्च वोल्यूम १) वै०सू० वैशेषिकसूत्र (गायकवाड ओरिएण्टल सिरिझ, बडौडा) व्यासभा० व्यासभाध्य (चौखम्बा) व्यो० प्रशस्तपादभाष्यटीकाव्योमवती (चौखम्बा) शतपथब्रा० शतपथब्राह्मण (चौखम्बा) शा०भा०, शाबरभा० शाबरभाष्य (आनन्दाश्रमसंस्कृतग्रन्थावलि) शास्त्रदी० शास्त्रदीपिका (विद्याविलासप्रेस, काशी) श्लोकवा०; प्रलो०वा० श्लोकवार्तिक (चौखम्बा) श्लोव्वा उम्बेकटी० श्लोकवार्तिक-उम्बेकटीका (मद्रासयुनि०) सांख्यका सा० का० साङ्ख्यकारिका सप्तप० सप्तपदार्थी (ला. द. विद्यामंदिर, अहमदाबाद) सर्वदर्शन० सर्वदर्शनसंग्रह (भाण्डारकर ओरिएण्टल इन्स्टीट्यूट, पूना) सा० द० साहित्यदर्पण (निर्णयसागर, बंबई) सांख्यत० कौ० साङ्ख्यतत्त्वकौमुदी सांप्रवचनभा० सांख्यप्रवचनभाष्य (भारतीय विद्या प्रकाशन, वाराणसी) सां०सू० सांख्यसूत्र (भारतीय विद्याप्रकाशन, वाराणसी) सिद्धिवि० सिद्धिविनिश्चय (भारतीयज्ञानपीठ, काशी) सौन्दर० सौन्दरनन्दमहाकाव्य स्प०का० स्पन्दकारिका (विवृतिसहित) (काश्मिर संस्कृत सिरिझ) स्फोटसि. स्फोटसिद्धि (मद्रासयुनि०) स्याद्वादरत्ना० स्याद्वादरत्नाकर (आर्हतमतप्रभाकर, पूना) हेतुबि० हेतुबिन्दु (गायकवाड ओरिएण्टल सिरिझ, बडौदा) हेतुबि० टो० हेतुबिन्दुटीका ( , ) हेतुबिष्टी०आ० हेतुबिन्दुटीकालोक ( , ) Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृ० १ ५ १८ ३१ ४७ ७१ ९४ ९९ १०४ १०८ ११२ १२४ १४५ १५२ ९५२ पं० १७ (टि ० ) १८ ܵ ܼܵ १ २० ७ २९ (टि०) १ ११ ४ ३ ७ २४ २ १३ २० ८ ७ शुद्धिवृद्धिपत्रम् अशुद्धम् विश्वरूपटीका उपदर्श बुद्धधान प्रकृतौ १७ १४ बोघ याद्धेत्वसंभवात् °° सोप तदनुष्ठायन इत्ययुक्तम् असम्भवः ? पूर्वापर प्राधान्य नियोगमर्मो 'भिधात्रमाः ० १६८ ११२ २०४ २०६ ८ ३४ (टि० ) अधिकं तु - " यस्य सन्ताननिवृत्तौ यदुत्पद्यते तन्निवृत्तिधर्मसन्तानमुपादानमितरस्य यथा मृत्सन्ताननिरृत्योत्पद्यमानस्य कुण्डस्य मृदुपादानम् " इति धर्मोत्तरः [ स्याद्वादरत्नाकरे उद्धृतम्, पृ०७७३ ] १३५ २६ (टि०) एतट्टिप्पण्या: स्थाने एतत् पठनीयम् - 'निष्ठासम्बन्धयोरेककालत्वात्' इत्यस्य कोऽर्थः कस्य वेयमुक्तिरिति पर्यनुयोगद्वयसमाधानार्थ सद्वृत्तिकस्य नयचक्रस्य निम्नः संदर्भोऽवगाहनीयः । तद्यथा - " निष्ठासम्बन्धयो रेककालत्वात् । निष्ठा कारणसामध्यव्यापारकालः प्रागसतो वस्तुभावः निष्ठानं समाप्तिः... । सम्बन्धः स्वकारणसत्तासमवायः । तयोरेककालस्वम्, स्वकारणसत्तासम्बन्ध एव निष्ठाकालः । कुतः ? समवायस्यैकत्वात् । यस्मिन्नेव काले परिनिष्ठां गच्छत् कार्य कारणैः सम्बध्यते समवायसम्बन्धेन भयुतसिद्धिहेतुना तस्मिन्नेव काले सत्तादिभिरपि । तस्मादप्रविभागात् सदादिरनास्पदो विकल्पः । ... असत्सम्बन्धपरिहारार्थं च 'निष्ठासम्बन्धयोरेककालत्वात्' इत्येतदेव वाक्यं सभाष्यं प्रशस्तोऽन्यथा व्याचष्टे - सम्बन्धश्च सम्बन्धश्च सम्बन्धौ । निष्ठायाः सम्बन्धौ निष्ठासम्बन्धौ तयोरेककालश्वात् । निष्ठितं निष्ठा, कारकपरिस्पन्दाद् वस्तु मन्था [स्म] शुद्धम् विश्वरूपटीका विवरणं उपदर्शयितुम् बुद्धधारूढेन प्राकृतो बोध ब्रूयाद्धेत्वसंभवात् " "त्यर्थं सोम तदनुष्ठायिन इत्युक्तम् असम्भवः । पूर्वापरी प्राधान्य नियोगगर्भो 'भिधात्र्याः " मन्यथा (त्म) सन्नसन्नप्यसत् (नासन्न सन्न सदसत् ? ) Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 भावमापन्नमव्यपदेश्याधारं कार्यं निष्ठितं 'निष्ठा' इत्युच्यते, तस्य स्वकारणैः सत्तया च युगपत् सम्बन्धौ भवतः । भाष्यमपि 'परिनिष्ठां गच्छद्' 'गतम्' इत्येतमर्थ दर्शयति । यथा कारकान्तरमुत्पद्यमानं वस्तुभावमापन्नमव्यपदेश्याधारं निवृत्तं सत् स्वकारणैः सत्तया च सम्बध्यते तथा पटाख्यम् । ... तत्त्वोपनिलयनात् सदाद्यभिधानार्थं कारणसमवेतस्य वस्तुन उत्तरकालं सत्तासम्बन्ध इति बहूनां मतम् । वस्तुत्पत्तिकाल एवेति तु वाक्यकाराभिप्रायेोऽनुसृतो भाष्यकारैः । सिद्धस्य वस्तुनः स्वकारणैः सत्तया च सम्बन्ध इति प्रशस्तमतोऽभिप्रायः । पृ० ५०८-५१६ | निष्ठेत्यादि वाक्यं वाक्यनाम्नः कस्यचिद् वैशेषिकग्रन्थस्योक्तिः । वाक्यनामा ग्रन्थोऽयं भाष्येणालङ्कृत भासीत् । एतद्भाष्यं प्रशस्तपादभाष्याद् भिन्नमेव । किन्तु तद् रावणभाष्यापरनाम कटन्दीटी कातो भिन्नमभिन्नं वेति विकटसमाधानः पर्यनुयोगः । कोऽयं वाक्यनाम्नः प्रन्थस्य प्रणेता इत्यपि वयं न विद्मः । विस्तरार्थिभिः जैनमुनिश्री जम्बू विजयजी सम्पादितस्य चन्द्रानन्दवृत्त्यलङ्कृतवैशेषिकसूत्रप्रन्थस्य ( गायकवाडप्रन्थमाला, १३६ ) षष्ठं परिशिष्टं विलोकनीयम् । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरमणीतः न्या य म ज री ग्रन्थि भङ्गः ॥ नमः शिवाय ॥ नमोऽनवसितासक्तचिक्रियाशक्तिसम्पदे । विष्णवे त्रिजगद्व्यापिपरमाश्चर्यमूर्तये ॥१॥ सङ्कल्पितफलावाप्तिकल्पपादपमञ्जरीम् । स्वान्तस्तापतमश्शा[न्त्यै मातृकां] नौमि चण्डिकाम् ॥२॥ मधुरासु प्रसन्नासु ग्रन्थयोऽतिरसास्वपि । जयन्तोक्तिषु दृश्यन्ते क्वचिदिक्षुलतास्विव ॥३॥ सुकुमाराशयाः केचित् सन्ति तद्भङ्गविक्लवाः । अतस्तेभ्यो व्यधत्ते[मं भङ्ग] श्रीशङ्करात्मजः ॥४॥ प्राप्य चक्रधरश्चक्रमिव सर्वविदः श्रुतम् । 'शशाङ्कधरतोऽभेद्यप्रन्थिभेदाहितोद्यमः ॥५।। नमः शाश्वतिकानन्देति । आनन्दः सुखम् । ज्ञानम् अखिलार्थदृक् संवित् । ऐश्वर्यम् अणिमाद्यष्टगुणयोगः । शाश्वतिकानि नित्यानि च तान्यानन्दज्ञानैश्वर्याणि शाश्वतिकानन्दज्ञानेश्वर्याणि, तानि प्रकृतानि प्राचुर्येण प्रस्तुतानि यस्य स शा]श्वतिकानन्दज्ञानेश्वर्यमयः तादृगात्मा यस्य । प्राचुर्य द्विविधम्-सततावियोगो बाहुल्यं च । तदत्र सनतावियोगापेक्षया मयद । नित्यत्वं चैषाम् ईश्वरसिद्धौ वक्ष्यति । [ब्रह्म]ण आरभ्य स्तम्बपर्यन्तश्चतुर्दशविधो' भूतग्रामो ब्रह्मस्तम्बः । सङ्कल्पेन सफलः । सह १ विश्वरूपटीका भट्टश्रीशशाङ्कधरपादस्य कृतिरिति चक्रधरेण निर्देशः कृतः द्वितीयाहिकप्रन्थिभने [44 B] | २ तत्राणिमा भवत्यणुः । लघिमा लघुर्भवति। महिमा महान् भवति। प्राप्तिःअङ्गल्यग्रेणापि स्पृशति चन्द्रमसम् । प्राकाम्यम्-इच्छाऽनभिघातो भूमावुन्मज्जति यथोदके। वशित्वम् भूतभौतिकेषु वशीभवति, अवश्यश्चान्येषाम् । ईशितृत्वम् तेषां प्रभवाप्ययव्यूहानामीष्टे । यत्र कामावसायित्वम् सत्यसङ्कल्पता यथा सङ्कल्पस्तथा भूतप्रकृतीनामवस्थानम् , न च शक्तोऽपि पदार्थविपर्यासं करोति, कस्मात् ? अन्यस्य यत्र कामावसायिनः पूर्वसिद्धस्य तथाभूतेषु सङ्कल्पादिति । एतान्यष्टावैश्वर्याणि । व्यासभा० ३.४५ । ३ तत्प्रकृतवचने मयट् । पा० ५. ४. २१ । तदिति प्रथमा समर्थ विभक्तिः, प्राचुर्येण प्रस्तुत प्रकृतम् । -काशिका। ४ न्या० मं० (का०) पृ० १८४-५, (वि०) पृ० २००-१ । ५ मनुस्मृतिः, प्रथमाध्यायः १-५० पद्यानि द्रष्टव्यानि । अष्टविकल्पो दैवस्तैर्यग्योमश्च पञ्चधा भवति । मानुषकश्चैकविधः समासतो भौतिकः सर्गः ॥ सा० का० ५३ । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का०पृ०१, वि०पृ०१ फलेन स्वसंवेदनलक्षणेन वर्तत इति सफलः । सफलो यो ब्रह्मस्तम्बस्तस्य य आरम्भस्तन्निष्प[18]त्यर्थश्चेष्टाविशेषः स सफलब्रह्मस्तम्बारम्भः । सङ्कल्प एवेच्छाविशेष एवं' सफलब्रह्मस्तम्बारम्भो यस्य । न पुनरिच्छाजनितप्रयत्नपूर्वकोऽस्मदादीनामिव कार्यविशेषारम्भो भगवत इति स्तुतिर्गुणातिशयाभिधानरूपा । विचित्रसुख-दुःखसंवेदनस्य यद्यपि कर्मकृतत्वं प्राणिनां तथापीश्वरेच्छानिरपेक्षाणां तेषां न तत्र सामर्थ्य मिति वक्ष्यति । तथा चागमोऽपि-“अज्ञो जन्तुरनीशोऽयम्" इति । आरभ्यते वा येनारम्भःप्रयत्नः, सफलब्रह्मस्तम्बविषयारम्भः प्रयत्नः संकल्प एव यस्येति । न तु संकल्पादन्यः प्रयत्नस्तस्यास्ति, यद् वक्ष्यति ईश्वरसिद्धौ ‘प्रयत्नश्चास्य संकल्पविशेष एव' इति । यत् प्रयत्नेन सिद्धयति, तस्य-सत्यसंकल्पत्वाद् भगवतः-संकल्पेनैव सिद्धिरिति ततोऽन्यस्य [प्रयत्नस्य कल्पना निष्प्रमाणिकेति वक्ष्यमाणस्य तात्पर्यम् । अन्ये व्याचक्षते-संकल्पलक्षणेन फलेन सफलः सप्रयोजनो ब्रह्मस्तम्बारम्भो यस्य । स्वभावप्रवृत्तं स[कल्पमा]त्रमेव फलं प्रयोजनं प्रवर्तकं जगत्सर्गे भगवतः, पूर्णकाम' - त्वेनान्यस्यापेक्षणीयस्याभावात् । तथा चाह भगवान् व्यासः १ सङ्कल्पानुविधायो चास्य धर्मः प्रत्यात्मवृत्तीन् धर्माधर्मसञ्चयान् पृथिव्यादीनि च भूतानि प्रवर्तयति। न्यायभा० ४. १. २१. । २ तदिच्छाप्रेरितानि कर्माणि फलमादधति, तदिच्छाप्रतिबद्धानि च तत्रोदासते । न्या. मं० (का०) पृ. १८६. (वि०) पृ. २०२. ईश्वरः कारणं पुरुषकर्माफल्यदर्शनात् । न्या. सू. ४. १. १९. पुरुषोऽयं समीहमानो नावश्यं समीहाफलं प्राप्नोति, तेनानुमीयते पराधीनं पुरुषस्य कर्मफलाराधनमिति, यदधीनं स ईश्वरः । न्या०भा० ४.१.१९. । ३ अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुख-दुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा वभ्रमेव वा ॥ महाभा. वन० ३०. २८ । ४ न्या.मं. (का०) पृ० १८५, (वि.) पृ. २०१ । ५ न च प्राप्तसकलप्राप्तव्यस्यास्ति प्रापणीयं किञ्चिदीश्वरस्य । तस्मात् कृतमस्य जगन्निर्माणेनेत्यत आहआप्तकल्प चेति । मा भूदस्य भगवतः स्वार्थः, परानुग्रहार्थं जगन्निर्माणे प्रवर्त्यतीत्यर्थः । न्यावा० ता० ४. १. २१. यत् खलु केचिदेवमाचचक्षिरे-प्रेक्षावत्प्रवृत्तिरिष्टार्थाधिगमा स्यादनिष्टपरिहारार्धा वा, न चेष्टानिष्टप्राप्तिपरिहारौ ईश्वरे समस्तावाप्तकामे सम्भवतः, तेनास्य जगन्निर्माणे प्रवृत्तिानुपपन्ना। तत्रोत्तरम्-"प्राणिनां भोगभूतये" इति । परार्था सिसृक्षायां प्रवृत्तिर्न स्वार्थनिबन्धनेत्यभिप्रायः । नन्वेवं तहि सुखमयीमेव सृष्टि कुर्याद् न दुःखशवलां करुणाप्रवृत्तत्वोदित्यत्रैषः परिहारः - "प्राणिनां कर्मविपाकं विदित्वा" इति । परार्थ प्रवृतोऽपि न सुखमयीमेव करोति, विचित्रकर्माशयसहायस्य कर्तृत्वादित्यर्थः । न चैव सति करुणाविरोधः, दुःखोत्पादस्य वैराग्यजननद्वारेण परमपुरुषार्थहेतुत्वात् । यदि धर्माधर्मी अपेक्ष्य करोति नास्य स्वाधीन कर्तृत्वमित्यनी वरतादोष इत्यस्यायं प्रतिसमाधिः--"आशयानुरूपैर्धर्म-ज्ञान-वैराग्यैस्वयः संयोजयति ।" स हि सर्वप्राणिनां कर्मानुरूपं फल प्रयच्छन् कथमनीश्वरः स्यादिति भावः । न हि योग्यतानुरूप्येण मृत्यानां फलविशेषप्रदः प्रभुरप्रभुर्भवति । न्यायक० पृ. १३२-३३ । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पू०२, वि०पृ०२] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः "न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु (किञ्चन] । [2 A] नानवाप्तमवाप्तव्यं प्रवर्ते चाथ कर्मणि ॥" [गीता, ३.२२] फलस्य च प्रवर्तकत्वमग्रे प्रतिपादयिष्यते । यदि वा संकल्पेन सम्पद्यतामिदम्, इत्येवंरूपेण सत्यसंकल्पत्वाद् भ[गवतः सफलो निष्पत्तिलक्षणेन फलेन फलवान् ब्रह्मस्तम्बारम्भो यस्य । फलान्तराभिसन्धिनापि हि प्रवर्तमानानां कर्मस्वारम्भसमये समारभ्य निष्पत्तरेवेष्यमाणत्वात् फलत्वं दृष्टम् , इष्टलक्षणत्वात् फलस्य । तथाहि-कीर्त्यादिफलकामा ग्रन्थादि चिकीर्षन्तो ग्रन्थनिष्पत्तिरूपावान्तरफलनिष्पत्तये नमस्कारादि कुर्वन्तो दृश्यन्ते। स्तम्बः स्थावरस्तृण-गुल्मादिकः, तत्पर्यन्तं हि प्राणिनः कर्मवशात् संसरन्ति । तथा च स्थावरानधिकृत्याह मनुः "एतदन्तास्तु गतयो ब्रह्माद्याः समुदाहृताः। घोरेऽस्मिन् भूतसंसारे नित्यं सततयामि(यि)नि ॥" ___ इति ॥[मनुस्मृति, १.५०] ॥ यद्यपि चास्मिन् दर्शने स्थावराणामा(म)चैतन्यं तथापि चेतनावत्सहचरितत्वात् सृष्टौ चेतनावदुपचारस्तेषाम् , दण्डिनो गच्छन्ति इतिवत् । यथा दण्डरहिता अपि दण्डिसाहचर्या[ द् ] दण्डिन इत्युपर्यन्त इति । संविधानामशिक्षिता इति ण्यन्ताच्छिक्षतेः स्वकर्मणि क्तः । योगसमाधिजेति । योगो [2 B] द्विविधः-सम्प्रज्ञातोऽसम्प्रज्ञातश्च। योग एव क्रमेण समाध्यवस्थामसम्प्रज्ञातत्वलक्षणां संप्राप्तो योगसमाधिः । केवलयोगग्रहणे क्रियमाणे संप्रज्ञातेऽपि स प्रत्ययः स्यादिति समाधिग्रहणम् । समाधिशब्दे तु योगशब्दं विनोक्ते यम-नियमादियोगाङ्गाष्टकमध्यवर्तिनि योगाङ्गे समाधौ प्रसङ्गो न निवर्तत इत्युभयग्रहणेनाभीष्टार्थप्रतिपादनाद् नास्ति पौनरुक्त्यम् । योग-समाधिशब्दयोहि पर्यायतया पौनरुक्त्यमाशङ्कते, तदेवं नास्ति । यदाऽऽत्मादेर्यथाभूतेन स्वरूपेण सम्यक् प्रकर्षण ज्ञानं तदा सम्प्रज्ञातो योगः सबीजः समाधिर्मण्यते । यदा तु विपर्ययोऽभ्यासक्रमेण स्वरूपेणाप्यात्मनः सम्प्रज्ञाताभावः तदाऽसंप्रज्ञातो १. न्या. मं० (का.) पृ. ३२६-३३२, (वि०) पृ० ३५६-३६२ । २ यम-नियमासन-प्राणायाम-प्रत्याहार-धारणा-ध्यान-समाधयोऽष्टावङ्गामि ॥ योगसू०२. २९। ३ योगस० १. ४१-४६। यस्त्वेकाग्रे चेतसि सद्भूतमर्थ प्रद्योतयति......स सम्प्रज्ञातो योग इत्याख्यायते । व्यासभा०१.१। सम्यक् प्रज्ञायते साक्षात्कियते ध्येयमस्मिन्निरोधविशेषरूपे योग इति संप्रज्ञातो योगः । योगवा० १.१ । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का०पृ०३, वि०पृ०३ योगो निर्बीजः ' समाधिः । योगाङ्गस्य पुनः समाधेर्लक्षणम्- "तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः” इति [पातञ्जलयोगसूत्र, ३. ३.] । तच्छब्देनात्र सूत्रे "तत्र प्रत्ययैकता[नता] ध्यानम्" इति [पातञ्जलयोगसूत्र, ३. २.] प्राक्सूत्रनिर्दिष्टं ध्यानं पंरामृष्टम् । सर्वो हि शास्त्रार्थ इति । सर्वः काम्यनित्यादिः शास्त्रार्थः पुरुषार्थे स्वर्गप्रत्यवायपरिहारादौ पर्यवस्यति; न स्वरूपनिष्ठो यथा प्राभाकरा नित्यान् कर्तव्यत्वादेव कर्तव्यानाहुः, न पुरुषार्थहेतुत्वेन, काम्यैरविशेषप्रसङ्गः स्यादिति [3 A] वदन्तः । इतिहास-पुराणाभ्यामपीति । तयोहि वेदविहितमेव कचित् तत्प्रतिषिद्धं क्वचित् विशिष्टपुरुषाचरणद्वारेण विशिष्टफलप्रदत्वेन प्रदर्शितम् --'इदं कर्मामुना समाचरितम् , समाचरितवांश्चैवंविधे[ना]भ्युदयरूपेण फलेनासौ संबन्धमभजत; अन्येन चैतन्निषिद्धमाचरितम् , सोऽप्येवंरूपेणानिष्टेन फलेन योगं प्राप' इति वैदिक एवार्थो विशिष्टपुरुषानुष्ठानतत्फलकीर्त ने]न प्रतन्यते । यथा दशरथादेर्वेदोदितां पुढेष्ट्यादि. क्रियामनुष्ठितवतो राम-भरतादिपुत्रजन्मप्रवर्तनम् , नहुषादेश्च ब्राह्मणावगूरणादिनिषिद्धाचरणेनाजगरत्वाप्त्याद्यनिष्टफलकीर्तनम् । तथा च लोके व्याधिता न तथा वैद्योपदिष्टौषधादिसेवने. प्रवर्तन्ते यथा पार्श्वस्थोक्ताः 'इदमौषधं सेव्यताम्, अस्मिन् हि सेविते ममान्यस्य चैष व्याधिरा] श्वेव विनष्टः' इति । वेदं समुपद्व्हयेत्. [इति] । वैदिकानि विधिवाक्यानि पौराणिकैरैतिहासिकैच तत्फलपरैरुपाख्यानैर्विमिश्रयेदित्यर्थः । न च सम्यग् मदभिधेयानु[ष्ठे]यसारूप्याद् मया वेदेन करणभूतेनानुष्ठेयत्वेन प्रतिपादित इति बुद्धया गृहीत्वा प्रतरिष्यति प्रतरणेनानुष्ठाने [3 B] ............ त्रैकाल्य[सिद्धेतोरहेतुसमः । अहेतु]समादीनां प्रत्यवस्थानानां हेतुप्रतिबिम्बनरूपत्वाभिप्रायं प्रायोग्रहणम् । . निर्णेयतत्त्वाच्चे(श्चे?)ति । प्रमाणादीनां तत्त्वस्यैवात्र निर्णीयमानत्वात् तत्त्वस्य ज्ञानमिति व्यतिरेकनिर्देश एव युक्त इत्यर्थः । उपसर्जनं नोपसर्जनमिति । 'इद १ तस्यापि निरोघे सर्वनिरोधान्नि/जः समाधिः । योगसू. १. ५१ । संप्रज्ञात. कालीना साक्षात्काररूपिणी या वृत्तिः तस्या अपि वक्ष्यमाणपरवैराग्येण निरोधे जायमाने त्वसंप्रज्ञातयोग इत्यर्थः । योगवा० १.१। अतस्तस्यां विरक्तं चित्तं तामपि निरुणद्धि, तदवस्थ चित्तं संस्कारोपगं भवति, स निर्बीजः समाधिः, न तत्र किञ्चित् संप्रज्ञायत इत्यसंप्रज्ञातः । व्यासभा० १.२ । २ पद्मपुराणपाताल० ११६ । भागवत ९.२३८ । ३ महाभा० उद्योग० ११.१७ अनुशा० ११५-१५७ । भागवत ६.१८. २-३ । ४. ४-५ पत्रद्वयं नोपलब्धम् । ५ न्या० सू० ५. १. १८ । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०९,वि०पृ०१०] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः मुपसर्जनमतः पदान्तरसापेक्षं न समस्यते, इदं तु नोपसर्जनं प्रधानमतः पदान्तरसापेक्षमपि समस्यते' इति न कारणम् । विग्रहवाक्यसमासार्थ (मानार्थतेति:) वाच्यते । तर्हि विशेषतः गृह्यते निश्चीयते समासार्थः । तथाहि-राजपुरुष इत्यादौ किं 'राज्ञः पुरुषः' आहोस्वित् 'राजा पुरुषो यस्य' अथ 'राजा चासौ पुरुषश्च' इत्याद्याः शङ्काः राज्ञः पुरुषः' इत्यनेन निवर्तन्ते । तेन विग्रहवाक्येन तुल्यार्थता यत्र तत्र समासः । 'राजपुरुषः शोभनः' इत्यत्र 'राज्ञः पुरुषः शोभनः' इति विग्रहवाक्य समानार्थतया स[मासो], न प्रधानस्य सापेक्षत्वात् । 'ऋद्धस्य राज्ञः पुरुषः' इत्येतद् विग्रहवाक्यसमानार्थत्वाभाव(वा)द् 'ऋद्धस्य राजपुरुषः' इत्यसमासः, नोपसर्जनस्य सापेक्षत्वात्' । शब्दानु][6 A]शासनमित्यत्र शब्दानामनुशासनमिति समासः, केषां शब्दानामित्येतत्सापेक्षस्यापि 'शब्द'शब्दस्य, अन्यथा समासे गुणीभूतस्य केषामिति प्रत्यवमर्शो न स्यात् । अन्यज्ञानानौपयिका(क)मिति । अन्यज्ञानमनौपयिकमद्वारमनुपायो यस्य । उपाय एवौपयि कमिति स्वार्थे विनयादिपाठात् ठक् ह्रस्वश्च । अन्यज्ञानस्य वाऽनु. पायः सदपवर्गसाधनं न पुनः प्रमाणादिज्ञानमिव प्रमेयज्ञानोपायतयेत्यर्थः । उपमानं तु कचित् कर्मणि सोपयोगं गवयमालभेत' इत्यादौ । संशयमन्तरेण न्यायप्रवृत्तिरिति । यदा कार्यान्तरप्रयुक्तो देशान्तरं गच्छन् सहसैव धूमावलोकनादग्निमनुमिमीते तदा संशयं विनापि न्यायप्रवृत्तेरुपलम्भः ।। स चाशयशुद्धिमुपदर्शयतुमिति । तर्कस्य प्राङ्नीत्या यद्यपि स्वतः साधनभावो नास्ति तथाप्याशयशुद्धिं वीतरागत्वं प्रकटयितुम् । तर्कक्रमेण स्वार्थानुमानकाले यथा प्रतिपन्नः स्वयमसावर्थस्तथैव परस्य प्रतिपाद्यते, वीतरागकथात्वाद् वादस्येति । १ "अत एव च–अत्रोत्तरपदार्थप्रधानता, अत्र पूर्वपदार्थप्रधानता--इति क्वचित् क्वचित् स्थापितम् । अन्यथा सर्वत्र उत्तरपदार्थप्रधानतैव स्यात् । यस्मादेवमाकाङ्क्षायां सम्बन्धः, तस्मात् प्रयोगसिद्धयर्थवेयमुपसर्जनसंज्ञा । “प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम्" पा० १.२.४३7 इति येयमेकदेशस्योपसर्जनसंज्ञा सा पूर्वनिपातमात्रसिद्धयर्था 'उपसर्जनं पूर्वम्" इति न पनरूपमन. त्वेन पदान्तरासम्बन्धार्था । कस्मादित्याह--अर्थसम्बन्धे हि यस्मादर्थाकाङ्क्षव हेतुर्नोपसर्जनता अनुपसर्जनता वा, कस्य गुरुकुलम् ? इत्येवमादिषु उपसर्जनात्मकस्यापि दर्शनात् । गुरुकुलम .. इत्युक्ते कस्य गुरुकुलम् -- इत्याकाक्षायां गुरुविशेषणैर्देवदत्तादिभिः सम्बन्धदर्शनात्-देवदत्तस्यइति । तथा चोक्तम्--"अथ शब्दानुशासनम् । केषां शब्दानाम् ? लौकिकानां वैदिकानां च" महाभाष्य १. १. १.] इति।" ऋजुविमला पृ० ५२-९३ । २ विनयादिभ्यष्ठक । पा० ५. ४. ३४ उपायो ह्रस्वत्वं च । वार्तिक Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः का०पृ०१०,वि०पृ०१० संशयानुमानतत्वज्ञान[6B]रिति । संशये सति यद् अनुमानं तत उत्पद्यते यत् तत्त्वज्ञानम् , तद् निर्णयस्वभावमेवेति । आह च भाष्यकार इति । भाष्यकारो हि-सेयमान्वीक्षिकी प्रमाणादिपदार्थैः प्रविभज्यमानेत्येतत्सापेक्षत्वं श्लोकमिमं पपाठ-प्रदीपस्सर्व विद्यानामिति [न्या० भा० १. १. १]। सेयमान्वीक्षिकी' विद्योदेशाख्ये नीतिशास्त्रप्रकरणे [को० अर्थ० १. २] परीक्षिता । या सर्वविद्यानां मध्ये प्रदीप इव प्रदीपः, वेदप्रामाण्यकारणस्य तदर्थाधिगमोपायस्य च न्यायस्य प्रकाशनात् । उपायः सर्वकर्मणाम् । सुखावाप्ति-दुःखपरिहारार्थेषु कर्मसु प्रवृत्तिरनुमानात् तत्साधनत्वनिश्चये सति यतो भवति अतोsनुमान व्युत्पादकत्वादियं सर्वकर्मणां प्रवृत्तावुपायः। आश्रयः सर्वधर्माणाम् । धर्मस्वरूपमागमै फसमविगम्यम् । आगमः न्यायापेक्षः सम्यग्धर्मावबोधको भवति, नान्यथा । यद् आह-- आष धर्मोपदेशं च वेदशास्त्राविरोधिना । यस्तर्केणानुसंधत्ते स धर्म वेद नेतरः ॥१॥ [मनुस्मृति, १२. १०६] इत्यनतः(इत्यतः) तदधीनत्वाद् धर्मावबोधस्याश्रयः सर्वधर्माणामित्युक्तम् । अयथार्थः प्रमाणोदेश इति 'न चतुष्ट्वतिह्यार्थापत्तिसंभवाभावप्रामाण्यात्' न्या. सू० २. २. १]इत्यस्य वि[7A]भागाक्षेपसूत्रस्यावतरणिकायाम् 'अयथार्थः प्रमाणोदेशः' इति भाष्यकृद्विभागमुद्देशशब्देन व्याजहार । बोधावोधस्वभावेति । - विशेषणज्ञानादेर्बोधस्वभावस्य तत्रानुप्रवेशाद् बोधा बोधस्वभावेत्युक्तम् । चतसृषु विधास्विति । तत्त्वं परिसमाप्यते, अर्थः परिसमाप्तो भवति; नाधिकापेक्षोपयुज्यत इत्यर्थः । १ सांख्यं योगो लोकायतं चेत्यान्वीक्षिकी । धर्माधर्मों त्रय्यामर्थानथौ' वार्तायां नयापनयौ दण्डनीत्या बलाबले चैतेषां हेतुभिरन्वीक्षमाणा लोकस्योपकरोति व्यसनेऽभ्युदये च बुद्धिमवस्थापयति प्रज्ञावाक्यक्रियावैशारद्यं च करोति । प्रदीपः सर्वविद्यानामुपायः सर्वकर्मणाम् । आश्रयः सर्वधर्माणां शश्वदान्वीक्षिकी मता ॥ कौ• अर्थ०१. २. १०-१२। २ न्या०भा० पृ०२। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०१४, वि०पृ०१५] न्यायमन्जरीप्रन्थिभक्तः सन्निपत्यजनकत्वमिति । अन्यकारकव्यापाराव्यवधीयमानव्यापारत्वं सन्निपत्यजनकत्वम् । फलोत्पादाविनाभाविस्वभावो' यावन्न भवति तावत् कथमवश्यतया कार्यजनको भवेत्, तादूप्यं च सामग्रीतो नान्यस्येति । ननु मुख्ययोः प्रमातृप्रमेययोरिति । तत्कालं प्रमामकुर्वन्नपि योग्यतया यः प्रमातेति भण्यते स गौणः, यस्तु तत्कालमेव प्रमाजन्मनि व्याप्रियते स मुख्यः । एवं प्रमेयमपि । कारककलापनिष्पाद्यद्रव्यान्तराभावेऽपीति । विजातीयानां द्रव्यारम्भकत्वादर्शनादिति' भावः । तस्मात् कर्तृकर्मविलक्षणा संशयविपर्ययरहितार्थावबोधविधायिनी बोधाबोधस्वभावा सामग्री प्रमाणमिति युक्तमित्यत्र[7B] सामग्रीशब्दः समग्रप्रधानो द्रष्टव्यः। कर्तृकर्मव्यतिरिक्तं जनकं यत् तत् प्रमाणमित्यर्थः । अन्यथा ह्युपक्रमे कर्तृकर्मव्यतिरिक्तस्य कारकमात्रस्योदाहरणप्रदर्शनेन प्रमाणत्वं प्रतिज्ञायोपसंहारे सामग्रयास्त प्रतिपादनेनोपक्रमोपसंहारयोर्विरोधः स्यात् । एतच्च यथोपलब्धपाठानुसरणेन व्याख्यातम् । स्पष्टगमनिकाप्रायं चेत् पाठान्तरं कचिद्भवेत् , तत् सैव गमनिकाऽस्तु । एवमन्यत्रापि पाठानिश्चये द्रष्टव्यम् । तथा च संशयविपर्ययात्मकमिति । यदा करणसाधनेन प्रमाणशब्देन लोके व्यवहारः एवं सति फलस्य प्रमारूपस्याप्रामाण्यं सिध्यति । फलप्रमाणपक्षे पुनः संशयज्ञानस्य प्रमाणलक्षणविरहाद् यत्क्वचित् सिद्धं प्रामाण्यं 'संशयितोऽयमर्थः' इत्यादौ विशेषणत्वेन तद्धीयते । फलान्तराजनकत्वेन च यदप्रामाण्यमकारकस्य फलस्य, १ अस्मिन् संदर्भ सप्तपद्यानि स्याद्वादरत्नाकरे (पृ० ६२-६४) भट्टजयन्तक'कपल्लवत उद्धृतानि, परं च मुद्रितन्यायमजर्या नोपलभ्यन्ते । तानि च यथा--"तत्रासन्दिग्धनिर्बाधवस्तुबोधविधायिनी । सामग्री चिदचिद्रूपा प्रमाणमभिधीयते ॥१॥ फलोत्पादाऽवि. नाभावि स्वभावाऽव्यभिचारि यत् । तत् साधकतम युक्तं साकल्यान परं च तत् ॥२॥ साल्यात् सदसद्भावे निमित्तं कतृकर्मणोः । गौणमुख्यत्वमित्येवं न ताभ्यां व्यभिचारिता ॥३॥ संहन्यमानहानेन संहतेरनुपग्रहात् । सामय्या पश्यतीत्येवं व्यपदेशो म दृश्यते ॥४॥ लोचनालोकलिङ्गादेर्निर्देशो यः तृतीयया । स तद्रूपसमारोपादुषया पचतीतिवत् ॥५॥ तदन्तर्गतकर्मादिकारकापेक्षया च सा । करणं कारकाणां हि धर्मोऽसौ न स्वरूपवत् ॥६॥ सामग्यन्तःप्रवेशेऽपि स्वरूपं कर्तृकर्मणोः। फलवत् प्रतिभातीति न चतुष्वं विनरुक्ष्यति ॥७॥ २ स्थाल्या. दिषु च तुल्य जातोयानामेककार्यारम्भदर्शनाद् भिन्नजातीयानामेककार्यारम्भानुपपत्तिः । न्या० भा०३. १.३२, । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का०पृ०१५, वि०पृ०१५ वदपि न परिगृहीतं भवतीति तात्पर्यम् । ननु फलात्मकत्वेन तस्यार्थाधिगमे व्यापृतस्वात् प्रमाणत्वं भविष्यति' तन्नेत्याह-प्रमाणाद्धि भिन्न फलमिति । अन्ये तुल्यसामय्यधीनयोरिति । मजनकोऽप्यर्थः [8A] सहभाविज्ञानेन गृह्यत इति निराकारज्ञानवादिनां वैभाषिकाणां दर्शनम् । अजनकस्य च ग्राहकत्वेऽन्यस्यापि तत्कालभाविनोऽर्थक्षणस्य तद् ज्ञानं किमिति न ग्राहकमित्यतिप्रसङ्गनिवारणाय तुल्यसामग्र्यधीनयोरित्युक्तम् । एकसामग्र्युत्पन्नत्वेन तस्यैव तद् ग्राहकं नान्यस्य; यथैतद्ग्रहणे तुल्यसामग्र्यधीनत्वं तस्य नियामकमस्ति तथाऽन्यग्रहणे न किञ्चिदस्तीत्यर्थः । पूर्वभावी स्वसन्तानगतसदृशक्षण उपादानकारणम् । यदुक्तम् - __ "सभागहेतुः सदृशाः स्वसन्तानभुवो क्षणाः" इति [अभि० को० २. ५२] । तदन्यः सहकारिकारणम् । तथा चाहुः - "ततोऽन्ये कारणं हेतुः सहभूर्ये मिथःफलाः" इति [अभिध० को० २. ५०] । यत्पुनर्द्वितीयमुपादानकारणलक्षणं कृतं - 'यदुत्पत्तौ यत् सन्ताननिवृत्तिस्तत्तस्यो पादानकारणम्' इति [ ] तद् विसदृशोत्पादाभिप्रायम् । तथाहि-घटोत्पत्ती मृत्पिण्ड पन्ताननिवृत्तिः; अनुत्पन्ने हि घटे मृत्पिण्डक्षणा एव सन्तानेनोत्पद्यन्ते घटे तूत्पन्ने घटक्षणा इति । १ सव्यापारप्रतीतत्वात् प्रमाणं फलभेव सत् । प्रमाणसमु० १. ८ अत्र बाह्यानामिव प्रमाणात् फलमर्थान्तरभूतं नास्ति । तस्यैव फलभूतस्य ज्ञानस्य विषयाकारतयोत्पत्त्या सव्यापारप्रतीततामुपादाय प्रमाणत्वमुपचर्यते। प्रमाणसमु० वृ० । अत्र वाह्यानामिव प्रमाणात् फलमर्थान्तरं नास्तीति अत्रापि तादृश एव दोषो न भवति । तस्यैवेत्यादिना अयमर्थः प्रकाश्यते........ ज्ञानस्याधिगतिरूपत्वात् साध्यत्वप्रतीतिरिति फलत्वमुपचर्यते । तस्यैव च विषयाकारपरिग्रहणकर्मणा व्यापारेण च सह प्रतीतिरिति प्रमाणत्वमुपचर्यते व्यपदिश्यते इत्यर्थः । विशाला० । तत्त्वसं० का० १३४४।न्यायप्र० पृ. ७। न्या० बि०१.१८-२१ । २ विषयैकत्वमिच्छस्तु यः प्रमाणं फलं वदेत् । साध्यसाधनयो दो लौकिकस्तेन बाधितः ॥४॥ छेदने खदिरप्राप्ते पलाशे न च्छिदा यथा । तथैव परशोलों के छिदया सह नैकता ।।७५।। प्रलो. वा० प्रत्यक्षसू० । वैशेषिकाणां केनचित् संवन्धेन “आत्मेन्द्रियमनोर्थसन्निकर्षाद् यन्निष्पद्यते तदन्यत्" [वै० सू० ३. १. १३] इति सौत्रं तावद् द्रव्ये प्रत्यक्षलक्षणम् । केचित् प्रमाणात् फलमर्थान्तरमिच्छन्तोऽसाधारण कारणत्वादिन्द्रियार्थसन्निकर्ष प्रमाणं प्रतिपादयन्ति । प्रमाणसम०७० (गा०) पृ० १६९ । उपलब्धिहेतुं च प्रमाणं वदता...हेतुपहणेन सारूप्यशक्तयोः फलादभिन्नयोरपाकरणाद् हेतुहेतुमद्भावस्य तादात्म्येऽनुपपत्तेरिति । न्या०वाता०टी० पृ०२१ (१.१.१)। ग्रन्थिरियं मुद्रितन्यायमचर्या नोपलभ्यते । अतोऽत्र काचित् फल-प्रमाणभेदाभेदविषया चर्चा मुद्रितमार्या भ्रष्टाऽनुमीयते । ३ एकसामग्रीजन्यत्वे तु जहानुभवयोः प्रतिनियतं वेद्यत्वं वेदकत्वं च स्यात् । तत्प्रतिबन्धाच्च नातिप्रसङ्गः । ज्ञानश्री. निब० प्र०४२१। एकसामग्र्यधीनत्वं कार्यकारणतादि च। समाश्रित्य भवेन्नाम भाक्तं भूतस्य वेदनम् ।। तत्त्वसं० २०४३ । ४ सन्तानकारणं यत् तु तदुपादान कारणम् । तन्निवृत्तौ भवेदस्य सन्तानस्य निवर्तनम् ।। प्रमा० वा. भा० पृ० ७८ । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०१५, वि०पृ०१६] न्यायमञ्जरोग्रन्थिभङ्गः अपि च कर्मणि ज्ञानं प्रमाणमिष्यते इति । कर्म हि विषयो भण्यते, विषयश्च स भवति यमालम्ब्य भूतमभूतं ज्ञानं सत्तां प्रतिलभते; न चा[8B]यं न्यायः सहोत्पद्यमानयोरस्ति । अत्रैव सामान्येन बौद्धदर्शनमात्राश्रयणेन ज्ञापकमाहयथोक्तम् सव्यापारमिवाभातीति' । ननु च साकारज्ञानवादिनामिदं वचनम् । तथा च पूर्वमर्धम्-'दधानं तच्च तामात्मन्याधिगमनात्मना' इति । अस्यार्थःतज्ज्ञानं तामर्थरूपतां दधानं सद् यदा स्वकर्मणि स्वस्मिन् विषये ग्राह्ये नियतार्थग्रहणलक्षणेन व्यापारेण सव्यापारं नियतार्थग्रहणलक्षणव्यापारयोगौवाभाति । तस्मात् सैवार्थाकारता प्रमाणम् , तद्वशाद् 'नीलस्येदं पीतस्येदम्' इति नियतनीलाद्यर्थग्रहणवदिव ज्ञानं लक्ष्यत इति तात्पर्यम् । बौद्धमते "निर्व्यापारत्वात् सर्वधर्माणाम् 'इव'शब्दोपादानम् । एवं च वैभाषिकमत इदं दूषणं कथं सङ्गच्छते ? सत्यम् । किन्तु स्वस्मिन् विषये.ज्ञानस्य प्रामाण्यं तैरपीभ्यते, अत एव तन्मतसंवादिन एव श्लोकाकारस्योपन्यासः कृतः। अथवा वैभाषिकैरनिष्यमाणमपि बलादेतदङ्गीकार्यम्, अन्यथा निर्विषयत्वे ज्ञानस्य योगाचारदर्शनापत्तिप्रसङ्गात् । १प्रमाणचा० २.३०८ । तुलना-"सव्यापारप्रतीतत्वात् प्रमाण फलमेव सत्" प्रमाणसमु० १. ८। २ साकारज्ञानवादिनां सौत्रान्तिकानाम् । ३ अर्थसारूप्यमस्य प्रमाणम् । न्या० बि० १. १९ ।.....प्रमाणं तु सारूप्यम्.......॥१३४४॥ तत्त्वसं० । तस्मात् प्रमेयाधिगतेः प्रमाणे मेयरूपता । साधनेऽन्यत्र तत्कर्मसम्बन्धो न प्रसिध्यति ।।३०६॥ प्र० वा०२ । तस्मात् प्रमेयाधिगतेः फलभूतायाः व्यवस्थाप्यायाः साधनं प्रमाणं मेयरूपता । अथ न सारूप्यं तिविषयं भिन्नस्य सूपलक्षणत्वात् सारूप्यात् पुनरन्यत्र साधने तस्याः क्रियायाः कर्मसम्बन्धो नीलस्येयमधिगतिः पीतस्य चेत्यादि न सिध्यति । प्र० वा० मनो० । ४ निर्व्यापाराः सर्वधर्मा इति प्रमाणसमन्वृ०९। अत एवोक्तम्-निर्व्यापाराः सर्वधर्मा इति । प्र०वा०भा० पृ०३६६ । यस्मान्न पारमार्थिकः कर्तृकरणभावोऽस्ति क्षणिकत्वेन निर्व्यापारत्वात् सर्वधर्माणाम् । ज्ञानं हि विषयाकारमुत्पद्यमान विषयं परिच्छिन्ददिव सव्यापारमिवाभाति...तस्मात् साकारमेव ज्ञान प्रमाणं न निराकारम् । तत्त्वसं०पं०पृ०३९९ । ५ योगाचारदर्शने ज्ञानं निरालम्बनम् । इदानीमालम्बनप्रत्ययनिषेधार्थमाह-अन म्बन एवायं सन् धर्म उपदिश्यते । अथानालम्बने धर्मे कुत आलम्बनं पुनः ॥१०॥' मध्यमकशा० १ । यत् अन्त यरूपं बहिर्वद् अवभासते । बाह्याओं वस्तुतो नास्ति । अप्रतीतत्वात् । न दि युक्त्या विचारे नियततत्स्वरूपं बहिः प्रतीयते । यद्यपि बाह्यलक्षणं वस्तु सत् इति ते स्वीकुर्वन्ति तथापि न तत् विज्ञानालम्बन भवति, अतदाकारत्वात् न परमाण्वाकारोऽवभासते । आल०प० पृ०३७ । "नार्थो बाह्योऽस्ति केबलम्' प्र०वा. २.३३५ । नान्योऽनुभाव्यस्तेनास्ति तस्य नानुभवोऽपरः । तस्यापि तुल्यचोद्यत्वात् स्वयं सैव प्रकाशते ॥३२७॥ प्र० वा.२ । तस्माद् विभक आकारः सकलो वासनाबलात् । बहिरर्थत्वरहितस्ततोऽनालम्बना मतिः॥ अतः एव सर्वे प्रत्यया अनालम्बनाः प्रत्ययत्वात् स्वप्नप्रत्ययवदिति प्रमाणपरिशुद्धिः । तथाहि. इदमेव अनालम्बनत्वं यद् आत्माकारवेदनम् । प्र०वा०भा० प्र०२२ । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का०पृ०१५, वि० पृ० १६ अथवा अर्थो निराकारज्ञानगम्यो न भवतीत्यादिना अनुमानादर्थव्यवस्थापनेsप्यनवस्थामाह-पुनरन्योऽर्थः कल्पनीय इति [9A] | साकारस्य ज्ञानस्याकारजनकोऽर्थोऽप्रतीयमानोऽप्यनुमानेन कार्यलिङ्गरूपेण कल्प्यते, तस्य कल्प्यमानस्य यद् ग्राहकं कार्यलिङ्गजमनुमेयज्ञानं तद् निराकारं कथं ग्राहकं स्यात् ?; अतस्तत्र तेनाकारोऽर्पणीय इति पुनरपि ज्ञानाकार एव संवृत्तः । पुनश्च तेन कार्येणान्योऽर्थः कल्पनीय इत्यनवस्था' । वस्तुस्वभावस्यापर्यनुयोज्यत्वादिति । यदि ब्रूयात् - तुल्ये कारकत्वे कथमर्थस्यैव प्रतिभास्यत्वं न चक्षुरादेरिति : तत्रोत्तरम् -' वस्तुस्वभावोऽयम्' इति । तथा च भवद्भिरपि पर्यनुयुक्तैः 'तुल्ये जनकत्वे कथमर्थस्यैवाकारग्राहि ज्ञानं नाक्षाणाम्' इति वस्तुस्वभावपथ इत्येवोत्तरं देयम् । शाबरा इत्यादिना भाट्टं पक्षमुपक्रमते । ज्ञातृव्यापारमन्तरेणेति । निःसंरम्भावस्थापरिहारेण विषयौन्मुख्यलक्षणा ससंरम्भावस्थाऽत्र ज्ञातृव्यापारः । नान्यथा ह्यर्थसद्भाव इति । दृष्टत्वविशिष्टार्थ सद्भावोऽन्यथानुपपद्यमानो ज्ञानं पश्चात् कल्पयतीत्यर्थदर्शनका ज्ञानावेदकप्रमाणाभावाद नाकारद्वयोपलम्भचोयप्रसङ्गावकाशः । पश्चात् प्रमाणमुपकल्प्यते । ज्ञानग्राहकं प्रमाण [9B] * .... नाभाति स्मृतिरूपेण, प्रमोषाभावप्रसङ्गात् । न चाप्यनुभवात्मना । स्मृतेरनुभवात्मना प्रकाशे विपरीतख्यातिवादापत्तेः । धारावाहिष्विति । धारया अविच्छेदेन वहन्ति यानि तानि धारावाहीनि । चिरस्थायीति गृह्यत इति । अनिमेषदृष्टेरन्तरान्तरा त्रुट्यत्स्वभावपदार्थानबधारणात् चिरस्थायित्वग्रहः; तथा चाह - 'रजतं गृह्यमाणं हि चिरस्थायीति गृह्यते' इति [बृहट्टीका – ] | प्रामाण्यं चाह जैमिनिः । ' औत्पत्तिकस्तु शब्दस्यार्थेन सम्बन्धस्तस्य ज्ञान - मुपदेशोऽव्यतिरेक धार्थेऽनुपलब्धे तत् प्रमाणं बादरायणस्यानपेक्षत्वाद्' इति [मी० सू० १. १.५] । १ साकारताच ज्ञाने साकारज्ञानेन प्रतीयते, निराकारेण वा ? साकारेण चेत्; तत्रापि तत्प्रतिपत्ती आकारान्तरपरिकल्पनमित्यनवस्था । प्रमेषकमल० पृ०१०८ २ यदि पुनर्विषयसामर्थ्यादक्षज्ञानस्योत्पादात् तत्र प्रतिभासमाने स प्रतिभासत एवेति मत तदप्यसम्यक्, करणशक्तेरपि प्रतिभासप्रसङ्गात् । तथा हि-न केवलं विषयबलाद् दृष्टेरुत्पत्तिः, अपि तु चक्षुरादिशक्तेश्च । अष्टस० पृ०११८ । अथ हेतुत्वं व्यवस्थापकम्य एवार्थों ज्ञानस्य हेतुः स एव वेद्यो नान्य इति चेत्, म, नेत्रादेरपि वेद्यत्वप्रसङ्गात् । शास्त्रदी० पृ० १७८ । ३ श्लो० वा०शून्यवाद का०१८२ । ४ दशमं पत्रं नोपलभ्यते । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का००२२, वि०पृ०२३] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः पापणशक्तिः प्रामाण्यमिति' । यद्यपि तस्य ज्ञानस्य साक्षात् प्रापकत्वं नास्ति प्राप्तेरिच्छादिनिबन्धनत्वात् तथापि प्राङ्नीत्या प्रदर्शकत्वमेव प्रापणशक्तिः, प्राप्तौ सामर्थ्य प्रापकत्वम् । तथासति च तदेव प्रामाण्यमित्यर्थः । सन्तानमाप्तेः सन्तानाध्यवसायजननमेवेति । यो हि प्रापयितुं शक्यः स प्रवृत्तिविषयो भवति, यश्च प्रवृत्तिविषयः सोऽवश्यम् ‘इदमिदानीमिह' इत्यवसेयः; तच्चाध्यवसेयत्वं प्राप्यस्य क्षणस्य तदानीमसम्भा(म्भ)वात् तत्रासम्भवत्प्राप्यक्षणावयवभूतक्षणपरम्परा[11A]त्मके संतान' एव युज्यते इति प्राप्यत्वाकारः सन्तानाध्यवसायोऽवश्यमेषितव्यः ।। ___नन्वध्यवसायो विकल्पस्तस्य चारोपितार्थग्राहित्वात् कथं बाह्यविषयत्वम् ? उच्यते । प्रत्यक्षपृष्ठभावी हि विकल्पोऽविद्यानुभववासनावशादतव्यावृत्त्यात्मनाऽऽरोपितमाकारं गृह्णन्नुत्पद्यते, यदेव च तस्यारोपिताकारग्रहणं स एव बाह्याध्यवसायः; बाह्यस्यातव्यावृत्तेन रूपेणातव्यावृत्तिरूपविकल्पाकारसादृश्यात् । तस्मिन् गृहीते बाह्योऽध्यवसित इत्यभिमानात् प्रतिबिम्बे गृहीते मुखमवसितमितिवद् । न पुनर्विकल्पः स्वमाकारं गृहीत्वा ततो बाह्यमध्यवस्यति, क्षणिकत्वहानेः । 'कथमन्यः क्षणो गृह्यतेऽन्यश्च प्राप्यते ?' इत्यत्र सौगता एवं समर्थयन्ते । प्रत्यक्षेण यः क्षणो गृह्यते सोऽवश्यमन्यक्षणजननस्वभावो गृह्यते, यथा भवद्भिरुक्तं 'रजतं १ अस्तु पुरुषस्तथा प्रवर्तितोऽर्थस्तु न प्रापितः, तथा च व्यापारान्तरमन्याधीनमस्तीत्याहप्रापित इति । अर्थोऽप्यसावप्राप्तोऽपि शक्यप्राप्तिको दर्शित इति प्रापित उच्यते। अत एव प्रापणशक्तिरेव ज्ञानस्य प्रामाण्यम् । सा च प्राप्यादर्थादात्मलाभनिमित्तेति, यतो येन प्रवर्तते तदपि प्रापणयोग्यमेव । धर्मो०प्र० पृ०१९ । प्रामाण्यं च...तत्प्रापणे शक्तिः। रत्नकीर्तिनिब० पू० ९० । प्रापकत्वात् प्रमाणमिति चेन्न प्रापणयोग्यत्वात् प्रमाणस्य । प्रमाणवा० भा०पू०२२। २ सन्तानः समुदायश्च पङ्क्तिसेनादिवन्मृषा। सन्तानो नाम न कश्चिदेकः परमार्थसन् संभवति । कि तहि ? कार्यकारणभावप्रवृत्तक्षणपरम्पराप्रवाहरूप एवायम्, ततो व्यतिरिक्तस्य अनुपलम्भात् । तस्मादेते. षामेव क्षणानामेकपदेन प्रतिपादनाय सङ्केतः कृतो बुद्धैः व्यवहारार्थं सन्तान इति । बोधिचर्या०८.१०१। “नैव, सन्ततिशब्देन क्षणाः सन्तानिनो हि ते। सामसत्येन प्रकाश्यन्ते लाघवाय वनादिवत् ॥१८७॥ तत्वसं० । ३ नोच्यत इत्यादिना सिद्धान्तवादी त्वेवं मन्यतेसत्यं क्षणभेदेन वस्तुनो मेदोऽस्त्येव, किंतु क्षणापेक्षया न प्रामाण्यलक्षणमुच्यते, अपि तु सन्तानापेक्षया। ततश्च नीलादौ य एव सन्तानः परिच्छिन्नो नीलज्ञानेन स एव तेन प्रापितः । तेन प्रमाणं नीलज्ञानम्। न्या०बि०टी०टि० प्र०११ । नन्वेवमपि परिच्छेदकालवर्तिनः प्रापर्ण न सम्भवत्येव । सर्वस्यैव विषयस्य क्षणिकत्वात् । तथा चोपदर्शितार्थप्रापकत्वं नाम कस्यचिदपि ज्ञानस्य नास्तीत्यसम्भवितैव सम्यग्ज्ञानत्वलक्षणस्य स्यादित्याशक्याह-अमेदेति। अमेदेनैकरूपत्वेन तदेवेदमित्याकारेणाध्यवसायात् । उपादानोपादेयकृतक्षणप्रबन्धः सन्तानस्तद्गतस्तदाश्रितः। धर्मो० प्र० पू०२७ ।। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणोतः [का०पृ०२२,वि०पृ०२३ गृह्यमाणं हि चिरस्थायीति गृह्यते' इति [बहट्टीका-] ; तदेवं वर्तमानक्षणग्रहणकालेऽनागताः क्षणा अगृहीता अपि तेन क्षणेनाऽऽक्षिप्ता इति नास्त्यगृहीतप्राप्तिः । अपरे वाहुः-सन्तानगतस्य क्षणविवेकस्यार्वा[11B]ग्दर्शनेन कर्तुमशक्यत्वान्नीलं यदा सन्तानान्तरव्यावृत्तेन रूपेण सामान्येन गृह्यते तदा सर्व एव क्षणा गृहीता भवन्ति,' सर्वेषां सन्तानान्तरव्यावृत्तत्वेनाविशेषात् । अनुमानात्तु विशेषः; अनुमानं विजातीयव्यावृत्तिमात्रविषयम्, इदं तु सजातीयविजातीयव्यावृत्तविषयमित्यास्तां तावदिदम् । अनुमानस्य त्वारोपितार्थविषयत्वेऽपीति । अनुमानग्राह्यस्य सामान्याकारस्य वक्ष्यमाणनीत्या प्रत्यक्षग्राह्यक्षणवद् बहिरसत्त्वादारोपितत्वं वह्निप्रतिबद्धधूमप्रदर्शनद्वारेणोत्पत्तेर्मूलभूतवस्तुक्षणपारम्पर्यप्रभवम्, मणिप्रभामणिबुद्धिवत् । तदुक्तम् मणिप्रदीपप्रभयोर्मणिबुद्धयाऽभिधावतोः । मिथ्याज्ञानाविशेषेऽपि विशेषोऽर्थक्रियां प्रति ॥ [प्र. वा. २.५७] लिङ्गलिङ्गिधियोरेवं पारम्पर्येण वस्तुनि । प्रतिबन्धात् तदाभासशून्ययोरप्यवञ्चनम् ॥ इति [अ० वा० २.८२] अध्यवसितस्यावस्तुत्वेऽपीति । प्रत्यक्षेणाध्यवसितो यः सन्तानः सोऽवस्तु यद्यपि तथापि तदध्यवसायजनकं दर्शनं वस्तुभूतस्वलक्षणप्रभवम् , अनुमेयाकाराध्यवसायश्च वस्त्वात्मकमूलभूता[12A)ग्निप्रतिबद्धधूमक्षणदर्शनप्रभव इति । अनुमाने तावत् प्रदर्शनमेव नास्ति, वस्तुतोऽवस्तुविषयत्वात् तस्येति शेषः । यथाध्यवसायमतत्त्वादिति । यथा अभ्यवसायः स्थितस्तथा पदार्थतत्त्वं न स्थितम्, अध्यवसायस्यावस्तुविषयत्वात्, यथा च सजातीयविजातीयव्यावृत्तं तत्त्वं स्थितं १ तत्र यद्यपि वस्तुस्थित्या परिच्छिन्न-प्राप्ययोर्नानात्वं तथापि व्यवहारो निरन्तरापरापरोत्पत्तरविद्यावशाच्च हेतुफलरूपं क्षणप्रचयं तदेवेदमित्येकत्वेनाधिमुञ्चन्ति ततः परिच्छेदकालभाविनः प्रापणं सम्भवत्येव । धर्मो०प्र० पृ०२७ । तत्र प्रथमाक्षसन्निपाते एकक्षणावस्थायि वस्त्वसाधारणरूपं सजातीयेतरब्यावृत्तं स्वलक्षणसंज्ञितं प्रत्यक्षस्य ग्राह्यम् । गृहीतसन्तानश्च प्रत्यक्षपृष्ठभाविमो विकल्पस्याध्यवसेयः । प्रापणीयश्च प्रत्यक्षस्य सन्तान एव । क्षणस्य प्रापयितुमशक्यत्वात् । सन्तानशब्देन चाव्यक्तगृहीतवस्तुनः सदृशापरापरक्षणप्रबन्ध उच्यते । न्यायप्रवेशवृ०५० पृ०७४ । २ अनुमानं च लिङ्गसम्बद्ध नियतमर्थ दर्शयति । न्या०बि० टी० १.१ अनुमानस्य त्वर्थाविनाभावित्वं पारम्पर्येण द्रष्टव्यम् । धर्मो०प्र० पृ०४० । अर्थस्यासम्भवेऽभावात् प्रत्यक्षेऽपि प्रमाणता । प्रतिबद्धस्वभावस्य तद्धेतुत्वे समं द्वयम् ॥ प्रमाणवा० भा० ४११७३ द्र० टि०२पृ०११ ४ यो हि भावो यथाभूतः स तालिङ्गचेतसः । हेतुस्तज्जा तथाभूते तस्माद् वस्तुनि लिङ्गिधीः॥प्रमाणवा०२.८१॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०२३, वि०पृ०२५] न्यायमञ्जरोग्रन्थिभङ्गः तथा अध्यवसातुमशक्यमित्यर्थः । संवृत्या प्रमाणलक्षणमिति । सदृशक्षणसन्ततेरदृष्टान्तरालायाः समुत्पादात् तदेकत्वग्राहिणी बुद्धिस्तत्त्वसंवरणात् संवृतिः । सांव्यवहारिकस्य लोकव्यवहारप्रयोजनस्य, तेनैव तत्त्वव्यवस्थायाः कर्तुं शक्यत्वात् । यत्नसाध्यद्वयाभावादिति । यत्नेन हानं यत्नेन चोपादानं यत्नसाध्यद्वयम् । उभयस्य तुल्यकालहानोपादानस्य । न धीश्छत्रादिवदिति । छत्राख्यः शाकभेदः । काकोद(दुम्ब ?)रः कपिकच्छुः । अन्ये तु काकोदरवदिति पठन्तः काकोदरं सर्प व्याचक्षते । ननु यावान्प्रमाणस्य व्यापार इत्युपेक्षणीयमङ्गीकृत्याह । अनुकूलतदितरविकल्पोपजन[न]तदनुत्पादभेदादिति । अमुकूलविकल्पज१ गतिश्चेत् पररूपेण न च भ्रान्तेः प्रमाणता ॥ अभिप्रायाविसंवादादपि भ्रान्तेः प्रमाणता । गतिरप्यन्यथा दृष्टा पक्षश्चायं कृतोत्तरः ॥ प्रमाणवा० २.५५-५६। वस्तूत्पत्तेर. भ्रान्तिरिति चेत् । न । अतत्प्रतिभासिनस्तदध्यवसायात् । मणिप्रभायां मणिभ्रान्तिदर्शनेन व्यभिचारात । भ्रान्तरवस्तुसंवाद इति चेत् । न । यथोक्तेनैव व्यभिचारात् । वितथप्रतिभासो हि भ्रान्तिलक्षणम् । तन्नान्तरीयकतया तु संवादो न प्रतिभासापेक्षी । प्रमाणवा० स्वोवृ० पृ०३२ । २ असदूपपदार्थालम्बना हि संवृतिः तत्त्वसंवरणात् । प्रमाणवा० भा० प्र०२०३ पररूपं स्वरूपेण यया संवियते धिया । एकार्थप्रतिभासिन्या भावानाश्रित्य मेदिनः ॥ तया संवृतनानार्थाः संवृत्या मेदिनः स्वयम् । अमेदिन इवाभान्ति भावा रूपेण केनचित् ॥ बुद्धिः खलु तदन्यव्यतिरेकिणः पदार्थानाश्रित्योत्पद्यमाना विकल्पिका स्ववासनाप्रकृतिमनुविदधती भिन्नमेषां रूपं तिरोधाय प्रतिभासमभिन्नमात्मीयमध्यस्य तान् संसृजन्ती संदर्शयति । सा चैकसाध्यसाधनतया अन्यविवेकिनां भावानां तद्विकल्पवासनायाश्च प्रकृतिः यदेवमेषा प्रतिभाति । तदुद्भवा सा चेयं संवृतिः संव्रियतेऽनया स्वरूपेण पररूपमिति । प्रमाणवा०स्वो०० पृ०२४ संनियते आवियते यथाभूतपरिज्ञानं स्वभावावरणादावृतप्रकाशनाच्च अनयेति संवतिः । अविद्या मोहो विषयोस इति पर्यायाः । बोधिच०५० पू०१७० । प्रमाणमन्तरेण प्रतीत्यभिमानमात्र संवृतिः । प्रवा०भा० ३४ ३ प्रामाण्यं व्यवहारेण.. प्रमाणवा० १.७। सांव्यवहारिकस्येदं प्रमाणस्य लक्षणम् । संव्यवहारश्च भाविभूतरूपादिक्षणानामेकत्वेन संवादविषयोऽनवगीतः सर्वस्य । साध्यसाधनयोरेकव्यक्तिदर्शने समस्ततज्जातीयतथात्वव्यवस्थान संवादमवधारयन्ति व्यवहर्तारः । तदनुरोधात् प्रामाण्यं व्यवस्थाप्यते । तत्त्वतस्तु स्वसंवेदनमात्रमप्रवृत्तिनिवृत्तिकम् । मनो० १. ७ । ततो व्यवहारप्रसिद्धमवयविन एकत्वं समाश्रित्य यदेव दृष्टं तदेव प्राप्तमिति व्यवसायात् प्रमाणताव्यवहारः । स चैकत्वाध्यवसायो देशकालायभेदात् । तदभेदोऽपि तत्सामर्थ्यस्य सामग्रीजननात् । एवं भाविभूतयोरपि तदेकसन्तानपतितत्वेन समानार्थक्रियातश्चैकत्वाभिमानः । प्रमाण वा०भा०पू०२६। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का०पृ०२३. वि०पृ०२५ ननात् प्रमाणम् ,' तदितरस्य अननुकूलस्य विकल्पस्य ज[12 B]ननादप्रमाणम् , अजननात् प्रमाणं न भवति । अप्रमाणमिति पर्युदासवृत्त्या प्रमाणविरुद्धं गृह्यते, धर्मप्रतिषेधेनाधर्मवत् ; प्रमाणं न भवतीति तु प्रसज्यप्रतिषेधसमाश्रयणेन प्रमाणरूपताया एव निषेधः । स्थैर्य तु तदप्रमाणं विपरीतावसायकलुषितत्वादिति । क्षणिकताग्राहिप्रमाणेन क्षणिक इति योऽवसायो जन्यते तदपेक्षयैवमुक्तम् । दृश्यविकल्प्यावर्थावेकीकृत्येति । एकीकरणं कैश्चिदभेदग्रहणं व्याख्यातम् ; तद्ग्राहकमानाभावात् तषयित्वापरैर्भेदाग्रहणं दृश्य विकल्प्ययोरेकीकरणमुक्तं तदनेन सूचितम्-यदि वा अविवेकात् पतस्य प्राप्तिरिति । [दूरतस्तस्या इति] दर्शनं ततो व्यवसायस्तत इच्छा, अन्यानि च मध्ये ज्ञानानि ततः प्राप्तिरिति प्राप्तेरतिदूरगत्वं प्रमाणस्य । अर्थप्रतीतिरेव प्रमाणकार्याऽवधार्यत(ते) यतस्ततः सैव तस्य प्रमाणस्य विशेषणं युक्तम् 'अर्थप्रतीतिजनकं प्रमाणम्' इति, प्राप्तेस्तु प्रमाणकार्यत्वाभावात् १ तस्मादध्यवसायं कुर्व देव प्रत्यक्षं प्रमाणं भवति । न्या.बिल्टी १.२१ । प्रत्यक्षं सन्निहि तरूपादिमात्रग्राहि विकल्पान्तरेणै कत्वाध्यवसाये सति प्रवर्तकम् । प्रमाणवा. भा० पृ० २१६ व्यवस्थापयतीति व्यवस्थापकः । स च तद्बलोत्पन्नोऽप्यनुरूपो द्रष्टव्यः । अननुरूपविकल्पेन व्यवस्थापितयोरपि व्यवस्थाप्यव्यवस्थापनयोरननुपपत्तेः । यथा मरीचीदृष्ट्वा तद्बलोत्पन्नेन विकल्पेनावस्थाप्यमानयोजलसारूप्यज्ञानयोने तथाभावः। धर्मोत्तरप्र. पृ०८४ २ नञ्समासे अब्रामागमानयेत्यत्र पूर्वपदे नव्युत्तरपदार्थसम्बन्धिनि क्षत्रिये लक्षणा । अघटः पट इत्यादौ पर्युदासार्थे नश्यपि सामानाधिकरण्याद् अभाववल्लक्षणा । व्यासेऽपि-न घटः पट इत्यादौ । यथा शुक्लपट इत्यत्र शुक्लवल्लक्षणा। न पचतीत्यादी क्रिया सम्बन्धे, भूतले न घट इत्यादौ प्रसज्यप्रतिषेधे तु नजो मुख्यार्थता । 'यजतिषु ये यजामहं करोति, नानुयाजेषु' इत्यत्र पर्युदासे नञ् । तेनायमर्थःनानुयाजेषु (अनुयाजव्यतिरिक्तेषु) यजतिषु, 'ये यजामह' इति मन्त्रं करोति, इति । तत्वचि. ४। प्रतिषेधपर्युदासयोः स्वरूपमुक्तमभियुक्तैः-प्रतिषेधः स विज्ञेयः क्रियया सह यत्र नञ् । पर्युः दासः स विज्ञेयो यत्रोत्तरपदेन नञ् । न्या०सि०म०प्र०४ पृ०४८ । ३ द्रष्टव्यम् वाचस्पत्यम प्र०४४९६४ व्याख्यातार एवं विवेचयन्ति, न तु व्यवहारः। ते तु स्वालम्बनमेवार्थक्रियायोग्य मन्यमानाः दृश्यविकल्प्यावावेकीकृत्य प्रवर्तन्ते । प्रमाणवा० स्वो०वृ० पृ०२५ । दृश्योऽर्थः स्वलक्षणम् । विकल्प्योऽर्थः सामान्यप्रतिभासः । तो एकीकृत्य स्वलक्षण मेवेदं विकल्पबुद्धया विषयोक्रियते शब्देन चोद्यत इत्येवमधि मुच्यार्थक्रियाकारिण्यर्थे प्रवर्तन्ते । प्रमाणवा०कर्ण० ती प०१७० । तथापि विकल्पज्ञानाद् बाह्याभिमुखी प्रवृत्तिस्तदथिनां न स्यात् । तस्मादलीकबाह्यमेषां विषयः । बाह्यमेदाग्रहश्चास्य बाह्यत्वं न पुनर्बाह्यामेदग्रहः, विकल्पगोचरे वाहो सदभेदग्रहस्थाशक्यत्वात् । तस्मान्निर्विकल्पकपृष्ठभाविनो विकल्पाः तदुपनीतबाह्यस्वलक्षणमेदं स्वग्राह्यालीकस्यागृह्णन्तः तदभिमुखं प्रवर्तयन्ति व्यवहर्तृन् अर्थिनः, पारम्पर्येण तत्सम्बन्धात् प्राप्तेन विसंवादयन्ति लोकम् । तेषां च विकल्पविषयाणां न तैरेव विकल्पैः परस्परतो भेदो गृह्यते नापि विकल्पान्तरैरिति मेदाग्रहादमे दमभिमन्यते पुरुषः । न्या० ता० टी० २.२.६५ (पृ. ८४५) । द्र० Buddhist Logic Vol. 1 पृ०४०३ । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०२६,वि०पृ०२८] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः कथं तद्विशेषणत्वं 'प्रापकं प्रमाणम्" इत्युक्तमित्यर्थः । अतोऽर्थप्रतीतिजनकं प्रमाणम् नार्थप्रापकमिति । विषयाकारपरिणतेन्द्रिये[13A]ति । विषयाकारपरिणतानामिन्द्रियाणां या वृत्तिर्विषयनिर्भासः प्रतिभासः, स च निर्भासो निर्विकल्पकरूपः, तदनुपातिनी तन्निर्भासा या बुद्धिवृत्तिनिश्चयात्मिका [सा] सविकल्पकज्ञानरूपा । यो हि जानाति बुद्धयत इति । ज्ञानबोधाध्यवसायानां साङ्ख्यैर्बुद्धिवृत्तिरूपतयाऽभ्युपगमात् । तथाहि-धर्मादिगुणाष्टकमध्येऽतीतविप्रकृष्टादिविषयोऽवगम आत्मविषयो वा बुद्धिगतो ज्ञानशब्देन निरुक्तः, अध्यवसायशब्देन चार्थनिश्चयः, बोधशब्देन चाध्यवसायजनको व्यापार इति । अचेतनत्वान्महत इति । अचेतनत्वं च विकारित्वादिसमनुगमात् । पुंसो बुद्धिवृत्त्यनुपातिता अवस्थाया धारित्वम् । साकार ज्ञानवादाच्चेति । अ[त्रा]पि बुद्धिवृत्तेविषयाकारनिर्भासपरिणामलक्षणाया अभ्युपगमात् । समाख्यानिर्वचनसामर्थ्यसहितादिति । समाख्यायाः समनुगताया आख्यायाः प्रमाणमित्यस्या यन्निर्वचनं 'प्रमीयतेऽनेन' इति व्युत्पत्तिस्तस्य यत् सामर्थ्य शक्तिविशेषस्तत्सहितात् सापेक्षाद् । राजा स्वाराज्यकाम इति । स्वेनात्मना राजते अन्यानभिभूयेति स्वराट् तस्य त(तद्?)[13B]विधीयते द्रव्यदेवतात्मककारकसम्पाद्यत्वाद् यागस्य । परस्परविरुद्धविध्यनुवादादिरूपापत्ते....[तस्मा]द्धि स्वाराज्यं प्रति यागस्य विधानाद् विधेयत्वम् , तत्सिद्धयर्थमुपादानादुपादेयत्वम् , तदर्थत्वेनावगमाद् गुणत्वम् । यदा तु गुणः तत्र विधी १ नन्वर्थ क्रियाप्रापकत्वात् प्रमाणम् । प्रामाण्यं च किमर्थक्रियाज्ञापकमथ कारकम् ? न तावत् कारकत्वात् प्रमाणम्, करणं हि तदा स्यात् । अथ ज्ञापकत्वात् प्रमाणमुच्यते, तदप्ययुक्तम्, साधनज्ञानमन्तरेणापि अर्थक्रियोपलब्धा । प्रमाणवा०भा० पृ०२६। भर्थोऽप्यसावप्राप्तोऽपि शक्यप्राप्तिको दर्शित इति प्रापित उच्यते । अत एव प्रापणशक्तिरेव ज्ञानस्य प्रामाण्यम् । धर्मोत्तरप्र० पृ० १९ । प्रामाण्यं च......तत्प्रारणे शक्तिः । नन्वस्तु प्रापणे शक्तिः प्रामाण्यम् परमसौ नार्थादुत्पद्यते । रत्नकीर्तिनि० प्र० ९० । यस्मात् प्रापर्क विज्ञानं प्रमाण मिष्टमस्माभिः तस्मात् सा च प्रापणशक्तिरर्थपरिच्छित्तिरेव नार्थादुत्पत्त्यादिकमिति । न्या०बिष्टी.टि. पृ०४० । २ रूपादिषु पञ्चानामालोचनमात्रमिष्यते वृत्तिः । सांख्यका० २८ । उभयात्मकमत्र मनः सङकल्पकम्...। सांख्यका. २७ । आह भवतु तावद् ग्रहणमात्रमिन्द्रियवृत्तिरप्रत्यया । ग्रहणप्रत्ययप्रकाशानामिदानी को भेदः? उच्यते-विषयसम्पर्कात् ताद्रूप्यापत्तिरिन्द्रियवृत्तिग्रहणम्, तथा विषयेन्द्रियवृत्त्यनुकारेण निश्चयो गौरयं शुक्लो धावतीत्येवमादिः प्रत्ययः । युक्तिदी० पृ. १०३ । आलोचितमिन्द्रियेण वस्तु 'इदम्' इति सम्मुग्धम् 'इदमेवं नैवम्' इति सम्यक् कल्पयति विशेषणविशेष्यभावेन विवेवयतीति यावत् । सांख्यत कौ० २७ । ३ मुद्रितमार्या तु वादांश्च इति पाठो वर्तते । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का०पृ०२७, वि०पृ०२९ यते तदा [ यागस्यानुवा]] दादनूद्यमानत्वम्, गुणस्य विधातुमुद्दिष्टत्वादुद्देश्यत्वम्, तदर्थत्वेन गुणस्यावगमात् प्रधानत्वम् । तदेवं विधेयत्वमुपादेयत्वं गुणत्वमिति त्रिकमनुद्यमानत्वं निर्देश्यवं प्रधानत्वमिति त्रिकेण विरुध्यते' । तन्त्रेणाऽऽवृत्त्या वेति । यत्र द्वावर्धिनावर्थे युगपदेकं शब्दं प्रयोक्तुं प्रभवतस्तत्र तन्त्र्यवहार: यथैकं दीपं युगपद् बहवश्चिन्तकाश्छात्राः प्रयुञ्जते, यत्र तु युगपत् प्रयोक्तुम म सा) मा (म) तत्र तन्त्रप्रत्यनीकभूता आवृत्तिः, यथा असहभोजिनामेकं पात्रं युगपद्भुजि[ 14A] क्रियायामधिकरणभावमप्रतिपद्यमानं क्रमेण प्रतिपद्यते । आवृत्तौ हि पूर्वार्थसिद्धि सापेक्षत्वादुत्तरार्थसिद्धेयु(यु) गपत् प्रयोक्तृत्वाभावः । तदुक्तम् — अनलार्थ्यनलमिति । अनलस्यापि तत्र प्रतिभासान्न तिष्ठेदन्यस्यापि च प्रतिभासान्न प्रतिष्ठेत न गच्छेत् अनलार्थिनस्तदन्यप्रतिभा से कथं प्रस्थानं स्यादिति । इतरथा व्यवहाराभावादिति । यावत् तदितरव्यवच्छेदेन जलेऽजलरूपताया अभावेन जलमेवेति विकल्पेन न निश्चीयते तावत् तदर्थिनां तत्र प्रवृत्तिरूपो व्यवहारः कथं स्यादिति । उत्प्रेक्षामात्रनिष्ठितशक्तय इति । बहिरसन्नप्याकारोऽविद्योपप्लवाद विकल्पैरुत्प्रेक्ष्यते समुल्लिख्यते । तावत्येव च विकल्पानां व्यापारपरिनिष्ठा दृष्टा न पुनर्वस्तुदर्शनेऽपि । तथाहि - समस्तेन्द्रियवृत्तिव्यापारनिरोधे विकल्पयन्त उत्प्रेक्षामह इति वक्तारो भवन्ति न तु पश्याम इति । ज्ञायते बधिरादिष्विति । सति श्रवणेन्द्रिये ग्रहणाच्छ्रावणः शब्दो बधिरादिषु च श्रवणेन्द्रियवैकल्यादसति श्रवणे ग्रहणाभावादिति । अप्रत्यक्षोपलम्भस्य नार्थदृष्टि [ 14B] : प्रसिद्धयति । अप्रत्यक्ष उपलम्भो यस्यार्थस्य तस्य दृष्टिदर्शनं न प्रसिद्ध्यतीत्यर्थः । सापेक्षेणाप्यर्थशब्देन गमकत्वात् समासः । 6 १ यजेत वाजपेयेन स्वाराज्यार्थीत्यसौ गुणः । नाम वा, गुणता तन्त्रयोगाद् गुणफलद्वये ॥ साधारणयजेः कर्मकरणत्वेन तन्त्रता । त्रिकद्वयं विरुद्धं स्यात् तन्त्रतायां फलं प्रति ॥ उपादेय-विधेयत्व-गुणत्वाख्यं त्रिकं यजेः । उद्देश्यानूक्तिमुख्यत्वत्रिकं तस्य गुणं प्रति ॥ न्यायमा० १.४. ६ । २ हेतुबि० पृ० ६७ । ३ व्यवहारेऽप्यन्यपरिहारेण प्रवर्तनात् । प्र०वा०स्वो० पृ०३८ । ४ दर्शनं चार्थसाक्षात्करणाख्यं प्रत्यक्षव्यापारः । उत्प्रेक्षणं तु विकल्प व्यापारः । तथाहि -परोक्षमर्थं विकल्पयन्त उत्प्रेक्षामहे न तु पश्याम इति विकलव्यापारमनुभवादध्यवस्यन्ति । न्यायबि०टी० पृ०८६ । ५ श्लोकवा • अनु० ६० । ६ प्र० वि० पृ० ९६ । चियाsतद्रूपया ज्ञाने निरुद्धेऽनुभवः कथम् । स्वं च रूपं न सा वेत्तीत्युसन्नोऽनुभवोऽखिलः ॥ धियाऽतद्रूपयाऽग्राह्यज्ञानस्वरूपया निरुद्धे ग्राह्ये ज्ञाने कथमनुभवः ? स्वकाले ज्ञानं न वेद्यते ग्राहककाले प्रायस्यैवाभाव इति कथं बुद्धिवेदनम् ? स्वं च रूपं स्वन्मते सा बुद्धिर्न वेत्तीत्यनुभवोऽखिलोऽर्थस्य ज्ञानस्य चोत्सन्नः स्यात् । ज्ञानप्रकाशो ह्यर्थप्रकाशः । स च स्वपरकालयोर्नास्तीति प्रकाशो न स्यात् सर्वस्य । प्र०वा० मनो २. ४२७ । तुलना - अप्रसिद्धोपलम्भस्य नार्थवित्तिः प्रसिध्यति । तत्त्वसं ०२०७४ ७ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ० ३१, वि०० ३४] न्यायमञ्जरीग्नन्थिभङ्गः दर्शनसमनन्तरोत्पत्त्यवाप्तदर्शनच्छायेति । यथाऽर्थजत्वाद् दर्शनं देशकालाद्यवच्छिन्नस्य इदन्तयाऽर्थस्य ग्राहकं तथा दर्शनानन्तरमुत्पद्यमानो विकल्पोऽपि तच्छायाधारित्वादर्थप्रतिभासी भवन् प्रत्यक्षायते, यथा लाक्षानुरक्तस्फटिकशकलसमनन्तरवृत्ति स्फटिकशकलान्तरमपि लाक्षानुरक्तमिव प्रतिभासते तथा अर्थनिर्भासार्थजदर्शनाव्यवहितोत्पत्तिर्विकल्पोऽप्यर्थनिर्भास इवेत्यर्थः' । सामान्याकारप्रविष्ट इति । विकल्पारोपितयोरेव ह्याकारयोः प्रतिबन्धग्रहस्तादृशस्यैव चानुमेयतेति ।। अन्यत्र प्रतिबन्धो वस्तुनोः । अन्यत्र तद्ग्रहणोपायोऽन्वयव्यतिरेकलक्षणः विकल्पारोपितधूमसामान्यस्य तदारोपितेनैव वहन्याकारेण, तयोर्गृहीतुं शक्यत्वात् । न धूमस्वलक्षणस्याग्निस्वलक्षणेन, तयोरन्यत्रावृ[15A]त्तेः । अन्यत्र प्रवृत्तिमाप्ती, बाह्ये बाह्योन्मुखतया प्रवृत्तेस्तस्यैव च प्राप्तेः । कैतवं द्यूतकारवृत्तमसमीक्ष्याभिधानात् । १ भधिगते तु स्वलक्षणे लत्सामर्थ्य जन्मा विकल्पस्तदनुकारी...। हेतुबि० पृ. ५३ । 'अधिगते तु स्वलक्षणे' आलोचनाज्ञानेन 'तत्सामर्थ्यजन्मा' स्वलक्षणाधिगमबलभावी 'विकल्पस्तदनुकारी' साक्षादनुत्पत्तेर्दर्शनसंस्काराधेयवशाच्च स्पष्टनीलस्वलक्षणाकारामुकारी दृश्यविकल्प्ययोश्चैकीकरणादेवमुत्त्यते । हेतुबि टी० पृ. ३३ । सर्व एव हि विकल्पोऽस्पष्टस्वलक्षणाभः । नौलादि पश्यतस्तु निर्विकल्पयतो यः स्पष्टार्थप्रतिभासाभिमानः स तद्विकल्पसमसमयजन्मनो निर्विकल्पस्य प्रसादात् । हेतुबि. टी.आ. प्र. २८७ । २ ननु लिङ्गमपि लिङ्गिवत् सामान्यमेव । तथा धूमः कृतकं वेत्येव न लिङ्गम् । कि तहि? वह्निकार्यतयाऽनित्यत्वव्याप्यतया च गृहीतम् । न च विशेषे व्याप्तिग्रहः । सामान्य च नाध्यक्षगम्यम् । विकल्पमात्रेण तत्प्रतीतावनाश्वासः । नैष दोषः । प्रत्यक्षेण कारणकार्ययोर्ध्यावृत्तिद्वयविशिष्टयोहीतयोविजातीयव्यावृत्त्याश्रयेणोत्पन्नविक. ल्पेन कचिदनुमानेन व्याप्तिं गृहीतवतः पश्चाद् धूमकृतकत्वादिदर्शनात् ताद्रूप्ये कार्यव्याप्यबुद्धिर्लिगबुद्धिः । सा च तत्प्रतिबन्धादनुमानमेवेति नास्त्यनाश्वासः। प्र०वा मनो०२.८१ । ३ तथाऽनुमानमपि स्वप्रतिभासेऽनर्थे ऽर्थाध्यवसायेन प्रवृत्तेरनर्थग्राहि । स पुनरारोपितोऽथों गृह्यमाणः स्वलक्षणत्वेनावसीयते यतः, ततः स्वलक्षणमवसितं प्रवृत्तिविषयोऽनुमानस्य । अनर्थस्तु ग्राह्यः । न्याय बि० टी०प्र०७२ । ननु च तथाविधं सामान्य विकल्पगोचरोऽवस्तु । तद्विषयत्वेऽनुमानस्य कथं बाह्य प्रवर्तकत्वं तत्प्रापकत्वं च, यतः प्रामाण्यमस्य स्यादिति चेत्। उच्यते,विकल्पाः खल्वेतेऽनाद्यविद्यावशात् स्वप्रतिभासमनग्निव्यावृत्तमवस्यन्तो बाह्योऽप्यनग्निव्यावृत्त इति तदध्यवसानमेव बायो बह्निरध्यव. सित इति मन्यन्ते । अनग्निव्यावृत्ततया बाह्यसदृशवन्यध्यवसाय एव बाह्यवहून्यध्यवसायः । तयोविवेकाप्रतिपत्तेः । अत एव ते विकल्या दृश्यविकल्प्यावर्थावे कीकृत्य बाह्य लोक प्रवर्तयन्ति ।... बाह्यसम्बद्धत्वाच्चानुमानविकल्पः संवादकः, अध्यवसेयापेक्षया च प्रमाणम् । तदाह न्यायवादी-"भ्रान्तिरपि सम्बन्धतः प्रमा' इति। धर्मोत्तरप्र० प्र०७८ । अनुमानस्य स्वर्थाविनाभावित्वं पारम्पर्येण द्रष्टव्यम् । धर्मोत्तरप्र०पृ०४० । लिङ्गविकल्पस्य च स्वलक्षणदर्शनाश्रयत्वात् परम्परया वस्तुप्रतिबन्धादविसम्बादकत्वम् मणिप्रभायामिव मणिभ्रान्तेः ।...न हि धूमस्व लक्षणस्य लिङ्गताऽवस्थापयितुं युक्ता, तस्यासाधारणस्य सपक्षे वृत्त्यभावात्...हेतुबि०दी. पृ०२४। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का००३२, वि००३४ बुद्धयारुढत्ववर्णनादिति । “सर्व एवायमनुमानानुमेयव्यवहारो बुद्धयारुढेन धर्मधर्मिन्यायेन सिद्धयति'' इति' वर्णनात् । बुद्धिरत्र विकल्पज्ञानमभिप्रेता। द्वितीयलिङ्गदर्शनम् । सम्बन्धग्रहणकालापेक्षया पर्वतादौ । ननु क्षणिकत्वेन विनष्टत्वात् कथं स एव प्रत्यक्षः परोक्षो भवेदिति । तन्नेत्याह-क्षणभङ्ग निषेत्स्याम इति । यथा दर्शनविषयीकृतस्य स्वलक्षणस्य प्राप्यस्य चान्यत्वेऽपि सन्तानापेक्षयैकत्वमभ्युपगम्य प्रदर्शितप्रापकत्वं प्रत्यक्षस्य भण्यते, तद्वत् क्षणिकत्वेऽप्येकसन्तानापेक्षयैकविषयत्वं प्रत्यक्षानुमानयोः किमिति नेष्यत इति भावः । शब्दात्तु तदवच्छिन्ना वाच्ये सजायते मतिरिति वक्ष्यमाणप्रवरमतेनाह। १ स्वभावप्रतिबन्धे हि सत्यर्थोऽर्थ न व्यभिचरति, तदात्मत्वात् । तदात्मत्वे साध्यसाधनमेदाभाव इति चेत् । न । धर्मभेदपरिकल्पनादिति वक्ष्यामः। तथा चाह-"सर्व एवायमनुमानानुमेयव्यवहारो बुद्ध्यारूढेन धर्मधर्मिन्यायेन" इति । मेदो धर्मधर्मितया बुद्धथाकारकृतो मार्थोऽपि, विकल्पभेदानां स्वतन्त्राणामनर्थाश्रयत्वात् । प्र०वा स्वो वृ० पृ०२ । आचार्य दिग्नागेनाप्येतदुक्तमित्याह-तथा चेत्यादि । सर्व एवेति यत्रापि साध्यसाधनयोरग्निधूभयोर्वास्तवो भेदस्तत्रापि स्वलक्षणेन व्यवहारायोगात् । अनुमीयतेऽनेनेत्यनुमान लिङ्गम् , अनुमेयः साध्यधर्मी साध्यधर्मश्च, तेषां व्यवहारो नानात्वप्रतिरूपः बुद्धयारूढेन धर्मधर्मिणोर्भेदस्तेन, बुद्धिप्रतिभासगतेन भिन्नरूपेण मेदव्यवहार इति यावत् । यदि तर्हि बुद्धिपरिकल्पितो धर्मधमिव्यवहार एवं तहि कल्पिताद्धेतोः साध्यसिद्धिः प्राप्ता । ततश्च हेतुदोषो यावानुच्यते स सर्वः स्यात् । तदाह भट्टः--यदि वा विद्यमानोऽपि मेदो बुद्धिप्रकल्पितः । साध्यसाधनधर्मादेव्यवहाराय कल्प्यते ॥ ततो भवत्प्रयुक्तेऽस्मिन् साधनं यावदुच्यते । सर्वत्रोत्पद्यते बुद्धिरिति दूषणता भवेत् ॥ इति ॥ [ लो०वा निराल. १७१-७२] अत्राह-भेद इत्यादि। एतदाह-अर्थ एवार्थ गमयति केवलम् । धर्मधर्मितयाऽयं धर्मोऽयं धर्मीति यो मेदो नानात्वम् , अयमेव बुद्धयाकारकतो बया परिकल्पितो नार्थोऽपि न लिङ्गमपि बुद्धयाकारकृतम् । विकल्पनिर्मितादेव लिङ्गात् कस्मादर्थप्रतिपत्तिर्न भवतीत्याह-विकल्पेत्यादि । विकल्पमेदानां विकल्पविशेषाणामिच्छामात्रानु. रोधित्वेन स्वतन्त्राणामनर्थाश्रयादर्थाप्रतिबद्धत्वे साक्षादनुत्पत्ते लम्बनत्वादित्यर्थः । प्रवा० कर्ण पृ०२४। २ लिङ्गदर्शनानि तावत् त्रीणि । तानीमानि-यदा प्रथम दृष्टान्तरूप उपात्ते महानसादौ यद् धूमदर्शनं तत् प्रथमं लिङ्गदर्शनम्, यदा तु अन्यत्र पर्वतादौ यद् धूमदर्शनं तद् द्वितीयम्, यदा पुनः ‘वहिव्याप्यधूमवानयं पर्वतः' इतिरूपो यो लिङ्गपरामर्शस्तत् तृतीयम् । अस्मिन् सन्दर्भ न्यायभाष्यं द्रष्टव्यम् (१.१.५)-"तत्पूर्वकमित्यनेन लिङ्गलिङ्गिनोः सम्बन्धदर्शन लिङ्गदर्शनं चाभिसम्बध्यते । लिङ्गलिङ्गिनोः सम्बद्धयोर्दर्शनेन, लिङ्गस्मृतिरभिसम्बध्यते । स्मृत्या लिङ्गदर्शनेन चाप्रत्यक्षोऽर्थोऽनुमीयते ॥" ३ न्या०म०(का०)द्वि०भा०पृ०२५, न्या० मं०(वि०)पृ०४५३ ४ कोऽयं प्रवरो नाम इति चिन्तनीयम् । न्यायसूत्रकारगौतमस्य विशेषणरूपेण 'प्रवर' इति शब्दः वार्तिककारेण वृत्तिकारेण च प्रयुक्त इति । यथा-'यदक्षपादः प्रवरो मुनीनां' (वाति क. पृ०२); 'एषा मुनिप्रवरगोतमसूत्रवृत्तिः' (वृत्ति०)। किन्तु अत्र विवक्षितः प्रवरः न्यायसूत्रकाराद् भिन्नः । प्रवरो भाष्यविवरणकारः इति चक्रधरस्य मतम् [39B] | Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि०पू०३७] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः રે स्तनयित्नुशब्दश्रवणात् तद्धेतोर्वाय्वभ्रसंयोगविभागादेः परिज्ञानम्'। [15B] सुशिक्षितचार्वाका उद्भटादयः । तस्य तज्ज्ञानग्राह्यत्वेति । तस्य गोपिण्डस्ये तज्ज्ञानग्राह्यत्वमुपमानज्ञानग्राह्यत्वम् । तदन्यथानुपपत्येति । वाचकशक्तिरेव नित्यत्वं विना नोपपद्यते, सम्बन्धज्ञानकालगृहीतस्य व्यवहारकालेऽसत्त्वात् । का० पृ०३५, प्रमेयानुप्रवेशप्रसङ्गादिति । जीवतो यो गृहाभावः स लब्धात्मभावः पक्षधर्मवासादनद्वारेण हेतुतां प्रतिपद्यते, तस्य तु गृहाभावस्य जीवनविशिष्टस्य बहिर्भाव विनात्मलाभ एव नास्ति, तदाऽक्षेपेणैवात्मलाभात्; इत्यनुमानप्रमेयस्य --- लिङ्गग्रहणसमय एव - तद्ग्रहणं विना लिङ्गग्रहणाभावाद् गृहीतत्वेन प्रमेयानुप्रवेशिता । इमामेवोत्तरग्रन्थेनाभिव्यनक्ति । प्रमाणद्वयसमर्पितेति । प्रमाणद्वयेनागमाऽभावाख्येनैकदेवदत्तविषयो यौ भावाभावो विरुद्धौ समर्पितौ तयोः समर्थनार्थमविरोधेनावस्थानार्थम् । प्रमेयद्वयं परामृषत्येवेति । प्रमेयद्वयमागमाभावसम्बन्धि भावाभावात्मकं परामृशत्युपपादकत्वेन, यः अभावः स गृहे, यस्तु भावः स बहिरिति । अन्यथा तत्संघटनायोगादिति । १ द्रष्टव्यम् न्यायभाष्यम् (२.१.३) । २ न ह्यदृष्टार्थसम्बन्धः शब्दो भवति वाचकः ॥ तथा चेत् स्यादपूर्वोऽपि सर्वः सर्व प्रकाशयेत् । सम्बन्धदर्शनं चास्य नाऽनित्यस्योपपद्यते ॥ सम्ब न्धज्ञान सिद्धिश्चेद् ध्रुवं कालान्तर स्थितिः । अन्यस्मिन् ज्ञातसम्बन्धे न चान्यो वाचको भवेत् ॥ गोशब्दे ज्ञातसम्बन्धे नाऽश्वशब्दो हि वाचकः । श्लो०वा०शब्दनि०२४१-४४ । नित्यस्तु स्याद् दर्शनस्य परार्थत्वात् । नित्यः शब्दो भवितुमर्हति । कुतः ? दर्शनस्य परार्थत्वात् । दर्शनमुच्चारणं तत्परार्थ परमर्थ प्रत्याययितुम् । उच्चरितमात्रे हि विनष्टे शब्दे न चाऽन्योऽन्यार्थं प्रत्याययितुं शक्नुयात् । अतो न परार्थमुच्चार्येत । अथ न विनष्टस्ततो बहुश उपलब्धत्वादर्थावगम इति युक्तम् । शाबरभा० १.१.१८ । अर्थप्रतिपत्त्यन्यथानुपपत्त्या तु नित्यस्वमेव युक्तम् । न हि प्रत्युच्चारणमन्यस्यान्यस्य क्रियमाणस्यार्थप्रत्यायकत्वं संभवति सम्बन्धप्रहणासम्भवात् अगृहीतसम्बन्धस्य चाप्रत्यायकत्वात् । न चान्यस्मिन् गृहीतसम्बन्धेऽन्यस्य प्रत्यायकत्वं सम्भवति । शास्त्रदी० पृ०५५९ ३ गेहाभावत्वमात्र तु यद् स्वतन्त्र प्रतीयते । म तावता बहिर्भाव चैत्रस्यैवावधार्यते ॥ सिद्धे सद्भावविज्ञाने गेहाभावधियात्र तु । गेहादुत्कालिता सत्ता बहिरेवावतिष्ठते ॥ तेनात्र निरपेक्षस्य व्यभिचारो मृतादिना । यस्य त्वव्यभिचारित्वं न ततोऽन्यत् प्रतीयते । तस्मात् प्रत्यक्षतो गेहे चैत्राभावे ह्यभावतः । ज्ञाते यत् सत्त्वविज्ञानं तदेवेद बहिः स्थितम् ॥ पक्षधर्मात्मलाभाय बहिर्भावः प्रवेशितः । तद्विशिष्टोऽनुमेयः स्यात् पक्षधर्मान्वयादिभिः ॥ श्लो०वा० अर्थापत्ति०२३-२७ । न चैत्रमात्रेण विशेषित गमयति, मृतेऽपि भावात् । नापि जीवनमात्रेण, चैत्रबहिर्भावाभावेऽपि देवदत्तवहिर्भावे सद्भावादित्यर्थः । उभयविशेषितस्य तु गृहाभावस्य बहिर्भावसाधकत्वम्, तस्य चोपपत्तिर्बहिर्भावावगतिपूर्विकेति न तदवगतौ तस्य लिङ्गत्वम् । उम्बेकटीका ० श्लो०वा० अर्थापत्ति० २५-२६ । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्रणातः भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ জায়ূo৪৭, বিor০২৩ एकवस्तुविषययोर्भावाभावयोः संमीलनायाः अभावादित्यर्थः । एवमर्थापत्तेापारं प्रदर्य फलतस्तु तस्य नियमांश एव पर्यवसानमिति दर्शयितुमाह-अतश्च येयमागमादिति । पूर्वं ह्यनियतदेशतया प्रतिप[ 16A ]त्तिरभूत् , गृहाभावे तु कुतश्चित्प्रमाणादवगते संविन्नेति नियतदेशतयोत्पादात् । एवं च सति यद्यपि जीवतो गृहाभावेनात्मलाभसमय एवाऽऽक्षिप्तो बहिर्भावस्तथापि नियमस्य पूर्वमनवगतस्यावगमादस्ति पृथक् प्रमेयलाभः, आक्षिप्तबहिर्भावस्य लब्धात्मलाभस्य गृहीतेर्बहिरस्तीति नियमावगतिपर्यन्तत्वात् । तदतो वैलक्षण्यादिति । न ह्यनुमाने गमकं गम्याक्षेपपूर्वकमात्मानमासाद्य नियमांशे व्याप्रियते इत्यर्थः । तदुक्तम् – 'धूमावगमवेलायां नाग्न्यधीनं हि किञ्चन' इति' [श्लो० वा० अर्थापत्ति० २०] । न च विभावरीभोजनलक्षणोऽर्थ इति । एकस्मिन् क्रियापदे प्रयुक्ते सर्वकारकाक्षेपसिद्धिः, कारकपदे वा प्रयुक्त एकस्मिन् सर्वक्रियाक्षेपात् कारकपदं क्रियापदं च कारकान्तरक्रियान्तरव्यावृत्तय उपादीयते । यथा 'गामानय' इति गामित्यनेनैव क्रियामात्राक्षेपाद् आनयेति बधानेत्यादिव्यावृत्त्यर्थं कल्प्यते । तस्माद् भेदो वाक्यार्थ इति भेदवाक्यार्थवादिमतम् । न च परस्परासंसृष्टावन्यतो भेत्तुं शक्यौ । अतः संसर्गप्रतीतिस्तत्राऽऽर्थी । साकाङ्क्षाणां वा परस्परसम्बन्धात् संसों वाक्यार्थः; अर्थान्तरादभिन्नयोश्च संसर्गों नोपपद्यत इति भेदप्रतीतिस्तत्राऽऽर्थी । विनियोक्त्री श्रुतिर्यत्र कल्प्या प्रकरणादिभिस्तत्र व्याप्तिबोधोऽपि दुर्घट इति सम्बन्धः । प्रकरणादिभिरिति लिङ्गादिप्रमाणपञ्चकपरिग्रहः । कश्चित्तु 'वीही16B] नवहन्ति' इति द्वितीयाश्रुतितोऽपि 'बीह्यर्थोऽवघातः' इति श्रुत्यन्तरकल्पनमिच्छति । लिङ्गेन श्रतिकल्पनं यथा 'बर्हिर्देवसदनं दामि' इति[मै०सं०१.१.२] मन्त्रस्याभिधानसामर्थ्यलक्षणेन लिङ्गेन बहिर्लवनमनेन मन्त्रेण कर्तव्यमिति श्रुतेः परिकल्पनम् । तथाहि देवाः सीदन्त्यस्मिन्निति देवसदनं बर्हिर्दामि लुनामीत्यभिधानसामर्थ्यम् । वाक्याद् यथा 'अरुणयैकहायन्या सोमं क्रीणाति' इति [तै०सं० ६.१.६.७] १ श्लोव्वा०अर्था० २० । मुद्रिते तु श्लोकवाति : 'न तद्ग्रहणवेलायां' इति पाठो वर्तते । २ द्र० शा०भा० ३.३.७.१४ । एतस्य विधेः सहकारभूतानि षट्प्रमाणानिश्रति-लिङ्ग-वाक्य-प्रकरण-स्थान-समाख्यारूपाणि ।...तत्र निरपेक्षो रवः श्रुतिः ।...सेयं श्रुतिलिङ्गादिभ्यः प्रबला ।...शब्दसामर्थ्य लिङ्गम् ।...तदिदं लि वाक्या दिभ्यो बलवत् ।...समभिव्याहारो वाक्यम् ।...तदिदं वाक्यं प्रकरणादिभ्यो बलवत् ।...उभयाकाक्षा प्रकरणम् ।... इदं च स्थानादिभ्यो बलवद् ।...देशसामान्य स्थानम् ।...तच्च स्थानं समाख्यातः प्रबलम् । ...समाख्या यौगिकः शब्दः । अर्थसं० प्र० २४-५१ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ का००३७, वि००४०] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः श्रुत्या क्रयार्थयोररुणैकहायन्योक्यिादेकक्रियासम्बन्धनिबन्धनादेकहायनीद्रव्यारुणगुणयोः परस्परसम्बन्धावगमकश्रुतिपरिकल्पनम् । प्राभाकरास्तु वाक्योदाहरणम् 'अरुणया क्रीणाति' इत्येवमाहुः; क्रीणातिपदारुणपदसम्बन्धात्मकाद् वाक्यादस्मादेवारुणायाः क्रयार्थत्वं प्रतीयते, न तृतीयया श्रुत्या । सा हि कारकमात्रे अक्रियाशेषेऽपि दृष्टा । यथा 'गोदोहनेन' पशुकामस्य प्रणयेत्' इति [आप०ौ० १.१६.३] फलार्थत्वादप्रणयनार्थस्यापि गोदोहनस्य कारकतयैव प्रणयनेन सम्ब[17A ]न्धः, न प्रणयनशेषतया । यथा च शाल्यर्थ कुल्यानां प्रणीतानां य आचमनपानादिना सम्बन्धो नासावाचमनादिशेषतया अपि तु कारकत्वेन, एवं तृतीयाया अतच्छेषभूतेऽपि प्रयोगदर्शनान्न ततः शेषत्वनिश्चयः, किन्तु पदान्तरसम्बन्धात्मकवाक्यादेव । अतोऽत्र 'अरुणया क्रीणाति' इति न तृतीययैव शेषत्वप्रतिपत्तिः, अपि तु क्रीणातिपदसमभिव्याहारात्मकाद् वाक्यादेवेत्याहुः । प्रकरणात् 'समिधो यजति' [शतपथब्रा० २.६.१.१.]इत्यादीनां प्रयाजादीनां दर्शपूर्णमासप्रकरणे श्रवणात् तादर्थ्यप्रतिपादकश्रुतिकल्पनम् । स्थानाद् यथा 'दब्धिर्नामास्य दब्धोऽहं भ्रातृव्यं दभेयम्' इति तै०सं० १.६.२.४.] मन्त्रस्योपांशुयाजस्य स्थाने क्रमे सन्निधावाग्नातस्य प्रकरणात् सकलदर्शपूर्णमासार्थत्वे प्राप्ते स्थानाद् देशसाम्यादुपांशुयाजार्थभावगमकश्रुतिपरिकल्पनम् । अनाम्नातकर्तृकेषु पुरोडाशादिषु पदार्थेष्वाध्वर्यवमित्यादिसमाख्ययाध्वांदिकर्तृ[17B]कत्वप्रतिपादयितृश्रुतिकल्पनं यत् तत् समाख्यायाः । भावाभावोभयधर्मकस्येति । यदाहनासिद्धे भावधर्मोऽस्ति व्यभिचार्युभयाश्रयः । धर्मो विरुद्धोऽभावस्य सा सत्ता साध्यते कथम् ॥ [प्र० वा० ३.१९०]इति । वाक्याथै हि समग्रांशे । वाक्यार्थो हि देवदत्तस्य पीनताख्येन धर्मेण कालविशेषावच्छिन्नस्वकारणभूतभोजननिषेधसहितेन संसर्गः । स यदि रात्रौ न भुङ्क्ते कदा तर्हि भुङ्क्ते ?, भोजनं विना च कथं पीन इति सापेक्षत्वाद् दुःस्थितो न समप्रैरपेक्षितैरशैः परिपूरितः, यदा सुस्थितो निराकाङ्क्षो भवति तदाऽसौ वाक्येन प्रतिपादितो भवति । भावतस्तु निराकाङ्क्षस्य प्रतिपादकं वाक्यमुच्यते । यदाहुः साकाङ्क्षावयवं भेदे परानाकाङ्क्षशब्दकम् । क्रियाप्रधानं गुणवदेकार्थ वाक्यमुच्यते ॥ [वाक्यप० २.४] १ गौयतेऽस्मिन्निति गोदोहनम् । यस्मिन् पात्रे गृहे प्रतिदिनं गौर्दुह्यते तत् पात्र गोदोहनशब्देनोच्यते । २ दधिर्धातुकमायुधम् । जै०न्या०मा०३.३.५। ३ दभेयम् हिंस्याम् । १ मध्वर्यवमिति समाख्यातानि कर्माण्यध्वर्युणा कर्तव्यानि । हौत्रमिति च होत्रा। शा०भा० ३.३.६.१३। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः कापृ०३७, वि०पृ० ४० समग्रांशपरिपूरणदुःस्थित इति तु पाठे समग्रांशानां परिपूरणाय परिपूरयितुं परिपूरणनिमित्तं दुःस्थित इति व्याख्येयम् । समग्राङ्गपरिपूरणेति तु पाठे स्पष्ट एवार्थः । या मन्त्रैरष्टकालिङ्गैरिति । यां जना अभिनन्दन्ति' रात्रिं धेनुमिवाऽऽयती[म्] । संवत्सरस्य या पत्नी सा नो अस्तु सुमङ्गली] ॥ [18A] [अथव० ३. १०] अष्टकायै सुराधसे स्वाहा । इत्यादयो मन्त्रा अष्टकादिकर्मविशेषप्रकाशका दृश्यन्ते, न चाविहितस्य प्रकाशनमस्ति; विहितानां कर्मणां प्रयोगकाले मन्त्रैः प्रकाशनात् । अतो मन्त्रप्रकाशनान्यथानुपपत्तितः 'अष्टकाः कर्तव्याः' इति [आश्व० गृ.] वैदिक विधिपरिकल्पनम् । श्रुतिलिङ्गादिभिर्या चेति प्राग्व्याख्यातम् । विश्वजित्यधिकारश्चेति । 'विश्वजिता यजेत'इति [तांब्रा० १९.४.५] हि तत्र श्रयते । यजेत यागः कर्तव्य इति । स च निष्फलः, कथं कर्तव्य इति ? तत्कर्तव्यतासिद्धये फलाक्षेपः, तच्चाधिकारनिमित्तत्वादधिकारशब्देनोक्तं फलम् । अथवा 'विश्वजिता यजेत' इति केवला प्रेरणा श्रूयते । सा च प्रेयं विना कस्येति तस्या अनुपपत्त्या स्वर्गकाम इति प्रेर्यसमर्पकपदपरिकल्पनम् । यागस्य कर्तव्यता तद्विषयप्रेरणावशाद् भवति । अधिक्रियत इत्यधिकारैः स्वर्गकामः प्रेर्यस्तस्य कल्पना । 'सौर्य चकै निर्वयेत् ब्रह्मवर्चसकामः' इति तै०सं० २.३.२.३] अत्र ब्रह्मवर्चसं प्रति सौर्यस्य चराविधानं श्रूयते । न चानवगतस्वरूपस्यात्र विधानं सम्भवति । अतोऽधिकारविध्यन्यथानुपपत्त्या कर्मस्वरूपावगमकस्योत्पत्तिविधिकल्पनम् । दर्शपूर्णमासयोः हि 'आग्नेयोऽष्टाकपालो भवति' तै०सं० २.६.३.३] इत्यादिवाक्येभ्योऽवगतस्वरूपयोः स्वर्ग प्रति 'दर्शपूर्णमासाभ्यां यजेत स्वर्गकामः' [ ] इति विधानात् । 'ऐन्द्राग्नं चरं निर्वपेत् [18B] . १ मुद्रिताथर्ववेदे तु 'प्रतिनन्दन्ति' इति पाठः। ननु नोपलभन्त एवंजातीय प्रन्थम् । अनुपलभमाना अध्यनुमिमीरन्, विस्मरणमप्युपपद्यत इति । तदुपपन्नत्वात् पूर्वविज्ञानस्य त्रैवर्णिकानां स्मरतां विस्मरणस्य चोपपन्नत्वाद् प्रन्थानुमानमुपपद्यत इति प्रमाणं स्मृतिः । अष्टकालिझाश्च मन्त्रा वेदे दृश्यन्ते 'यां जनाः प्रतिनन्दन्ति' इत्येवमादयः । तथा प्रत्युपस्थितनियमानामाचाराणां दृष्टार्थत्वादेव प्रामाण्यम् । शा० भा० १.३.१. । ३ कर्मजन्यफलस्वाम्यबोधको विधिरधिकारविधिः। कर्मजन्यफलस्वाम्यं कर्मजन्यफलभोक्तृत्वम् । अर्थसं०, पृ०७२। ४ सौर्यचरौ चरुः स्थाली किं वाऽन्न लौकिकोक्कितः । स्थाल्यस्या श्रपणं योग्यं कपालविकृतित्वतः ॥ विद्वच्छतिप्रसिद्धयाऽन्नं देवता तद्धितोक्तितः। योग्यत्वेन प्रदेयं तत्पुरोडाशहविर्यथा ॥ जैन्या०मा० १०.१.१० । ५ तत्र कर्मस्वरूपमात्रबोधको विधिरुत्पत्तिविधिः । अर्थसं० पृ० २० । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का० पृ०४१ वि००४५ ] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः २३ [प्रजा ? ] कामः' इत्यादौ कार्यमात्रं भावनामात्रं करणम्, फलं च- आग्नेयेन चरुणा भावयेदिति निर्दिष्टम् । कथमंशस्तु नोपदिष्टः । न चानुपकृतं करणं भवतीति करणरूपतान्यथानुपपत्त्या 'प्रकृतिवद् विकृतिः कर्तव्या' इति 'कल्प्यते । उपदिष्टेतिकर्तव्यता कं कर्म प्रकृतिः, अनुपदिष्टेतिकर्तव्यताकं तु विकृतिः । विध्यन्त इतिकर्तव्यता | स्वभावताविवेति । वृक्षोऽयं शिशपात्वादित्यत्र यावदेव शिंशपाख्यो भावो गृहीतः तावदेव वृक्षत्वमपि तत्स्वभावो गृहीत एव । तद्ग्रहणे तस्याग्रहणात् तत्स्वभातैव न स्यादित्यर्थः । भाष्यमप्येवं योजयन्तीति । दृष्टः श्रुतो वाऽर्थोऽर्थकल्पना अर्थस्य कल्पकः, कस्यार्थस्येत्यपेक्षायां योऽन्यथा नोपपद्यते तस्येति योजना प्राभाकरपक्षे । ननु समासान्तर्गतेनार्थशब्देन कथमन्यथा नोपपद्यत इत्यस्य सम्बन्धः, तत्र गुणीभूतत्वादर्थशब्दस्य; नैवं, कल्पनाशब्देनापि सम्बन्धेऽन्यथा नोपपद्यत इत्यस्यायमेवार्थो लभ्यते यतः । इदमेवाह-यतः सा कल्पना प्रमेयद्वारिकेति । प्रमेयद्वारिका प्रमेयमुखेनान्यथा नोपपद्यते । प्रमेयस्यान्यथानुपपद्यमानत्वात् 'साऽन्यथा नो [ 19A ] पपद्यते' इत्युच्यते न साक्षादित्यर्थः । तदेवाह - 'कल्प्यमानोऽर्थोऽन्यथा नोपपद्यते' इति । उदाहरणमन्यत् तु व्यत्त (त्य) येन प्रदर्शितमिति । तथाह"गृहद्वारि स्थितो यस्तु बहिर्भावं प्रकल्पयेत् । यदा तस्मिन्नयं देशे न तदाऽन्यत्र विद्यते ||" [ श्लो० वा० अर्था० ३४] १ विकृतौ सर्वार्थः शेषः प्रकृतिवत् । जै० सू० ३.४.३४ । यत्र समग्राङ्गोपदेशः सा प्रकृतिः यथा दर्शपूर्णमासादिः । तत्प्रकरणे सर्वाङ्गपाठात् । यत्र न सर्वाङ्गोपदेशः सा विकृतिः यथा सौर्यादिः । तत्र कतिपयाङ्गानामतिदेशेन प्राप्तत्वात् । अर्थसं० पृ० ३७ । २ स्वभावहेतु निरूपणम् न्या०बि० ३.९-२० । ३ अर्थापत्तिरपि दृष्टः श्रुतो वाऽर्थोऽन्यथा नोपपद्यत इत्यर्थकल्पना । शा० भा० १.१.५. । ४ ननु " दृष्टः श्रुतो वाऽर्थः अन्यथा नोपपद्यते" इति गमकस्यान्यथानुपद्यमानतां दर्शयति । अप्रन्थज्ञो देवानांप्रियः - "दृष्टः श्रुतो वाऽर्थोऽर्थंकल्पना” इति किमिदमर्थकल्पनेति ? दृष्टः श्रुतो वार्थोऽर्थान्तरस्य प्रमाणमित्यर्थः । "अन्यथा नोपपद्यते' इति केन सम्बध्यते ? प्रमित्येति वदामः, अन्यथानुपपद्य मानतामापादयन् अर्थान्तरं गमयति । बृहती पृ० ११३ । स्यादेवम् - यद्यनुपपन्नं गमकं स्यात् । इह तु यन्मोपपद्यते तदेव गम्यम् - गृहाभावेन हि विना बहिर्भावो नोपपद्यते । किमिदानीमुपपादकादनुपपन्ने बुद्धिरर्थापत्तिः ? को दोषः ? न खलु कश्चिद् दोषः, किन्त्वसौ नैवास्ति न ह्युपपादकदर्शनादनुपपनार्थे बुद्धिर्भवति, यदि स्यात्, वृक्षत्वदर्शनाच्छिंशपात्वं कल्प्येत, वृक्षत्वेन विना शिशपात्वस्यानुपपत्तेः, तस्मादनुपपन्नमेव गमकं नोपपादकम् । शास्त्रदी० पृ० २९०-९१ । एकदेशी प्रभाकरः प्रथमं मनोभिलषितरीत्या परिहरति — स्यादेवमिति । शास्त्रदी०प्र०१०२९० । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ भट्टभोचक्रधरप्रणीतः [का०पृ०४१,वि०पृ०४५ इति वार्तिकं भाष्योदाहृतार्थापत्तेः प्रत्यक्षेणापि हि बहिर्भावं प्रतिपद्य गृहाभावेन सह सम्बन्धग्रहणादर्थापत्तिपूर्वकत्वाभावादनुमानेऽन्तर्भावमाह । इमं चाऽन्तर्भावमनिराकृत्यैवोदाहरणान्तरं चित्ते विधायाह "तदाप्यविद्यमानत्वं न सर्वत्र प्रतीयते । न चैकदेशनास्तित्वात् व्याप्तिहेतोभविष्यति ॥” इति [श्लो० वा० अर्था० ३५] गृहव्यवस्थितं चत्रमुपलभ्य तस्मिन्नेव काले तदन्यथानुपपत्त्यैव सर्वत्राभावमुपलभ्य तस्य गृहव्यवस्थितदेवदत्तभावेनाविनाभावग्रहणे तत्रापत्तिपूर्वकत्वमेव सम्बन्धग्रहणस्य । 'ननु चैत्राधिष्ठितदेशव्यतिरिक्तसमीपदेशे चैत्रस्याभावेनाभावं प्रतिपद्याभावेनाविनाभाव. ग्रहणात् किमुच्यतेऽर्थापत्तिपूर्वकत्वमित्याशङ्कयाह-'न चैकदेशनास्तित्वात्' इति । चैत्राधिष्ठितव्यतिरिक्तानन्तदेशगतो ह्यभावो भावस्य सम्बन्धी, न सन्निकृष्टव्यतिरिक्तदे[19B]शगत एव । तस्य च प्रमाणान्तरेणाभावेनाप्यवगमाभावादापत्तिपूर्वकत्वम् । दृश्यस्य ह्यनुपलब्धिरूपेणाभावेनाभावः सिद्धयति । न च विप्रकृष्टदेशे दृश्यताऽस्तीति एकदेशनास्तित्वमात्रात् केवलान्न हेतोरुत्तरकालमभावानुमापकस्य गृहसद्भावस्य व्याप्तिग्रहोऽस्तीत्यर्थः । इत्थमेतदुम्बेकादिदृष्ट्या वात्तिकव्याख्यानम् , तदनुयायिना ग्रन्थकृतापि तदेवानुसृत्योक्तम् । तत्त्वतस्तु 'तदाप्यविद्यमानत्वम्' इति वार्तिकं व्याख्यायमानं प्रकृतोदाहरणसमर्थनेऽपि सङ्गच्छते । तदा ह्ययमर्थः- तदापीत्यस्य यदापि द्वारि स्थितस्तदापि दृश्यानुपलम्भादभावो गृहे सिध्यतु, न पुनः सर्वत्र प्रतीयते, दृश्यत्वाभावात् , अतः सर्वत्राभावनिश्चयेऽर्थापत्तैरेव व्यापारः । अयं भावो-गृहे यदा, न तदा बहिरित्येवं व्याप्तौ गृहीतायां गृहादर्शनाद् बहिर्भावः सिद्धयति, न चैवमर्थापत्ति विना व्याप्तिग्रहः सम्भवति, दूरदेशे अभावस्याप्यवगन्तुमशक्यत्वात् ; अतोऽर्थापत्त्या एकदेशभावान्यथानुपपत्तिरूपया देशान्तरेऽप्यभावकल्पनेति । ननु मावस्याभा[20A ]वेन [सह] सम्बन्धग्रहणाद् भावलिगे)नैवाभावावगतिरित्याह-'न चैकदेशनास्तित्वाद् गृहाभावाद् गृहीतात् कारणात् सर्वाभावैहेंतोर्लिङ्गस्य व्याप्तिसिद्धिः' । अयमर्थः-भावाख्यं लिङ्गमभावावगतौ येन सह गृहीतसम्बन्धं तस्यैव गमकं भवितुमर्हति, गृहाभावेन च तस्य सम्बन्धग्रहो वृत्तोऽतस्तस्यैव गमकं भवतु; न च १ 'ननु'त आरभ्य 'अर्थापत्तिपूर्वकत्वम्'पर्यन्तो भङ्गभागः उम्बेकटीकायां (श्लोक ३५) शब्दशो लब्धः । २ मुद्रितोम्बेकटीकायां तु 'सम्बन्धी न' स्थाने 'सम्बन्धिनः' इति पाठः। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०४३,वि०पृ०४६] न्यायमञ्जरीप्रन्थिभङ्गः गृहाभावेन सह व्याप्तिर्गृहीता या सर्वाभावैः सह व्याप्तिः सिद्धयति, अतिप्रसङ्गादिव्यलमप्रकृताभिधानेन । मम त्वदृष्ट(ष्टि)मात्रेणेति । अस्य पूर्वमर्धम्-'यस्य वस्त्वन्तराभावो गम्यस्तस्यैव दुष्यति' इति' [श्लो० वा०अर्था० ४०] । अस्यार्थः- यस्य वादिनो बौद्धस्य वस्त्वन्तराभावोऽनग्निव्यावृत्तिलक्षणोऽनुमानगम्यस्तस्य तत्तद्देशा नव]गमरूपो दोषः । यावत् सर्वानग्निव्यावृत्तान् देशान् [नाव]गच्छति तावद् व्यतिरेकग्रहो न सिद्धयतीत्येवंरूपः । ननु चाग्न्याद्यभावेऽपि धूमादिव्यतिरेकि[ 20B]........[ 21A]* त्र वाक्यस्यैव तत्प्रतिपत्तिहेतोापारः । कार्य हि तेन प्रतिपाद्यम् । निराकाङ्क्षस्य च तस्य प्रतिपादने तत्प्रतिपादितं भवति इति तात्पर्यम् । [दुराविदूरेति] दूरव्यवस्थिता गुणीभूता अङ्गभूता याः क्रियाः, [अदूरव्यवस्थिता] अगुणभूताश्च प्रधानक्रियाः । दूरव्यवस्थितत्वं भिन्नवाक्योपादानत्वम् । तथाहि'आग्नेयोऽष्टाकपालो भवति' तै०सं० २.६.३.३]इत्यादिभिर्वाक्यैः प्रधानक्रिया उपात्ताः ‘समिधो यजति'[ श० ब्रा० २.६.१.१. ]इत्यादिभिस्तु गुणक्रियाः। एतत्तु 'दर्शपूर्णमासाभ्यां यजेत स्वर्गकामः' इत्यधिकारवाक्यापेक्षयोत्पत्तिवाक्यानामुक्तम् । क्वचित्तु अदूरव्यवस्थिता एकवाक्योपात्ता गुणाऽगुणक्रियाः । तद्यथा “एतस्यैव रेव. तीषु वारवन्तीयमग्निष्टोमसाम कृत्वा पशुकामो ह्येतेन यजेत" इति तां. ब्रा० १७. ७.१] । अथ हि वारवन्तीयकरणं गुणक्रिया अन्यस्योत्पत्तिवाक्यस्याभावात् , यागश्च प्रधानक्रियाऽनेनैवोपात्ता | आदिग्रहणाद् द्रव्य-देवता-तद्विशेषणादीना[21B]मवरोधः । एवमादिनानेकेन कारककलापेनोपरक्तः कार्यान्तराद् [व्य]वच्छिन्नः कार्यात्मा यो वाक्यार्थः । अथवा गुणक्रिया द्रव्यं प्रति गुणत्वेन स्थिता द्रव्यचिकीर्षकत्वेन व्यवस्थिता या अवघातादयः, याश्चागुणक्रिया नियोगार्थाः समिदादयस्ताः। दूरव्यवस्थिता विकृतिषु प्रकरणान्तरोपात्तत्वेन, अदूरव्यवस्थिताश्चैकप्रकरणत्वेन प्रकृतिषु; अन्यत् समानम् । कारकत्वं तु क्रियाद्रव्यादीनां साक्षात् पारम्पर्येण च; नियोगसंपत्तेस्तदधीनत्वात् , न पुनर्घटादाविव मृदादीनां प्रवृत्तिविषयत्वेन कारकत्वम् । प्रवृत्तिप्रयोजनं हि नियोगो, न प्रवृत्तिविषय इति प्राभाकराः तत्सिद्धये हि धात्वर्थे प्रव १ मुद्रितश्लोकवार्तिके 'गम्यः'स्थाने 'प्रमेयः' इति पाठो वर्तते, 'एव' तु नास्त्येव । २ अवाच्यानि सर्वाण्यक्षराणि एतत्पृष्ठस्थानि । ३ तानि द्वधं गुणप्रधानभूतानि । यैस्तु द्रव्यं चिकीर्घ्यते, गुणस्तत्र प्रतीयेत, तस्य द्रव्यप्रधानत्वात् । यैस्तु द्रव्यं न चिकीयंते, तानि प्रधानभूतानि, द्रव्यस्य गुणभूतत्वात् । पू०मी०सू०-२. १. ३. ६-८ । क्रियारूपाणि च द्विविधानि-गुणकर्माणि प्रधानकर्माणि च । एतान्येव सन्निपत्योपकारकाणि आरादुपकारकाणीति चोच्यन्ते । अर्थसं० पृ० ५२ । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भश्रीचक्रधरप्रणीतः कापू०४३. वि०पृ.॥ तर, न तु तन्नोति । तदनुवर्तीनि तु पदानि तस्मिन्नैमित्तिके निमितानि भवन्तीति ह्यस्यायमाशयः- यदि पदानां वाक्यार्थावधृतौ सामर्थ्यमन्यतोऽवधृतं स्यात् तदा तदनुसारितया वाक्यार्थप्रत्ययोऽपि भवेत् : यदा पुनर्वाक्यार्थस्य कार्यरूपस्य प्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणेन व्यवहारेणावगमात् तत्रावापोद्वापाभ्यां पदानां निमित्त. त्वमवगम्यते तदा यथावगत[निमित्त नैमि[22A)त्तिकानुसरणादेव । यथा पदानां निमित्तत्वं सङ्गच्छते तथा अवगन्तव्यम् । अत एव वाचकत्वादन्यन्निमित्तत्वम् । वाचकत्वं सम्बन्धग्रहणसापेक्षत्वेन, निमित्तत्वं पुनस्तस्मिन्निरपेक्षत्वेन वाक्यार्थावगमं प्रति। अन्यथा प्रथमश्रुताद् वाक्यादर्थप्रतिपत्तिर्न स्यात् । नैमित्तिकानुकूल्यपर्यालोचनयेति । नैमित्तिक नियोगानुकूल्यम् , अधिकारिणि सति तस्य सम्पत्तिसिद्धेः । क्वचिपछयमाणान्यपीति । दर्शपूर्णमासयोः 'ऐन्द्रं दधि, ऐन्द्रं पयः' इति प्रधानं हविर्द्वयं विधायोक्तम्-'यस्योभयं हविरातिमाछेत् स ऐन्द्रं पञ्चशरावमोदनं निर्वपेत्' इति तै० ब्रा० ३.७.१.७] । यस्य हविरातिमाछेत्-हविर्यागायोग्यतां व्रजेदिति । हविरातिगमननिमित्ता पञ्चशरावौदनकर्तव्यता प्रतीयते । हविषश्चार्तिङ्गतस्य विधेयपञ्चशरावप्रवणत्वेन प्रतीतस्योभयविशेष्यत्वाश्रयणे तु स्वार्थत्वपरार्थत्वलक्षणं विरुद्धं रूपद्वयं प्रसज्यते । हविश्चेदार्तिमाछेत् तच्चोभयमित्युभयपदेन च विशेष्यत्वे हविषोऽभिधानावृत्तिलक्षणो वाक्यभेदः' प्रसज्यते । हविरातिमा,दि[22B]त्येकवारमुच्चारितं हविरिति तच्चेद्धविरुभयमिति पुनरुच्चारयितव्यं प्रसज्यते । तत उद्देश्यत्वाद् ग्रहाधेकत्ववद् विशेषणाविवक्षा । तस्माद्धविरार्तिगमननिमित्तैव पञ्चशरावौदनकर्तव्यता । उभयपदं तु श्रुतमपि न विवक्षितम् । उभयमुभयात्मकं यदेतद्धविः प्रक्रान्तमित्यनुवाद १ भिन्नाविमावी, उभयाभिधाने वाक्यं भिद्येत । शाबरभा० १. २.७ । आवृत्त्या उभयविधावावृत्तिलक्षणो वाक्यमेदः ।...एकवाक्यस्य प्रत्येकमुभयपदार्थे व्यापारमेदेनोभयविधायकत्वे वाक्यभेदो भवति ।....विधेयस्योभयत्वे तद्विधायकवाक्यस्यापि व्यापारमेदेनेव तद्विधायकत्वं सम्भवति, नान्यथा । अर्थसं० कौ० प्र० १८-१९ । २ दर्शपूर्णमानाभ्यां स्वर्गकामो यजेतेति श्रूयते । तत्रेदमस्ति वचनं, यस्योभयं हविरातिमादैन्द्र पञ्चशरावमोदनं निपेदिति । तत्र संदेहः। किमुभयस्मिन्नार्ते पञ्चशरावो निर्वप्तव्य उतान्यतरस्मिन्निति । किं प्राप्तमिति चेत् पश्यसि, एवंजातीयक एकस्याऽऽामिति । तत्र ब्रूमः । उभयोरिति । कुतः । यथाश्रति भवितुमर्हति । यच्छ्रयते तदवगम्यते । उभयोश्चाऽऽर्ती भ्रूयते । श्रयमाणं च विवक्षितुं न्याय्यम् । इतरथा यावदेव हविरिति तावदेवोभयं हविरिति स्यात् । तस्मादुभयोरा पञ्चशराव इति । नैतदेवम् । उपपातो हि, आर्तिसम्बद्ध द्रव्य, तत्कारणम् । तस्य लक्षणं हविरार्तिः । तद्वयस्तं समस्तं च निमित्तम् । न ह्यभयशब्देन शक्यं विशेष्टुम विशेष्यमाणे हि वाक्यं भिद्येत, हविष मातौ पञ्चशरावः । स चोभयस्य हविष इति । शाबरभा०६.४.६.। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ htoपृ०४४, वि०पृ०४७] न्यायमञ्जरीप्रन्थिभङ्गः मात्रतयैव समन्वयो न विवक्षितत्वेनेति यावत् । यथा यावेतावुभौ चाण्डालौ गच्छन्तौ पश्यसि तौ न स्प्रष्टव्यौ, यदि स्पृशेः तत् स्नायाः इति अत्रैकचाण्डालस्पर्शेऽपि स्नानादुभावित्यस्याविवक्षा । यथा च यद्येतावुभौ व्याधितौ स्यातां तदौषधं देयमित्येकस्यापि व्याधितत्वे ओषधदानम् । कचिदन्यथा स्थितानीति । 'प्रयाजशेषेण हवींष्यभिधारयेत्' [ ] इत्यत्र शेषवाचोयुक्त्यैव प्रयाजशेषस्य कर्मान्तरं प्रति गुणत्वं न सम्भवति, प्रयाजार्थत्वेन गृहीतस्याज्यस्य यच्छेषं तदपि प्रयाजार्थमेव, अतस्तस्याज्यार्थताकरणस्यासम्भवात् प्रतिपत्तिकमतैवै न्याय्या। प्रतिपत्तिकमत्वे च प्रयाजशेषस्य प्रतिपाद्यमानत्वात् प्रधानत्वेन द्वितीयानिर्देश एव युक्तः । 'कृष्णवि[23A]षाणां चात्वाले प्रास्यति' इति [ कृष्णविषाणाया इव हविषां चाधारस्वेन सप्तमीति निर्देश एव युक्तश्चात्वाल इतिवत् । तेन प्रयाजशेषं हविष्ष्वभिधारयेदिति प्रतिपत्तिकर्मत्वेन वाक्यार्थानुगुण्यात् समन्वयो युक्तः । प्रतिपत्तिरेव हि तदा प्रयाजशेषस्याज्यस्य दृष्टार्था । अतः परं हि जुह्वामाज्याभागार्थमाज्यं ग्रहीत. व्यम् , तत्परार्थेनाज्येनामिश्रितं कर्तव्यमवश्यं तच्छेषं परित्यक्तव्यम् । परित्याग एव च विशिष्टेन रूपेण प्रतिपत्तिः, यथेश्वरशिरोधृतस्य मालादेविशिष्टे प्रदेशे त्यागो न यत्र तत्र । समिदादयः पञ्चाङ्गयागाः प्रयाजाख्याः । अत एव च न सोपानव्यवहितमिति । श्रुतार्थापत्तिरत्र सोपानम् । न यजौ म(क)रणविभक्तिमिति । 'स्वर्गकामो यजेत' इत्येतावत् तावच्छ्यते, न तु यागः करणम्, स्वर्गः फलमिति; तथापि वाक्यार्थभूतनियोगसामर्थ्यलभ्यमेतद उभयो रूपं । तथाहि-स्वर्गकामो यागानुष्ठाने नियुज्यते । स च तत्रान्यदिच्छत्यन्यत् करोतीति न्यायात् कथं प्रवर्तेत ? न च यागेऽप्रवृत्ती नियोगः सम्पत्तिं लभत इति नियोग एव स्वसि[23B]द्धये यागस्य करणत्वं स्वर्गस्य च फलत्वं व्यवस्थापयति; सोऽयमाधिकारिक एवानयोः सम्बन्धो न श्रूयमाणविभक्तिकृत इति । नियोगगर्भत्वाच्च विनियोगस्येति । योऽयं विनियोगः शेषभावः श्रुत्यादिना प्रमाणेनावघाता १ अभिधार्य प्रयाजानां शेषेण हविरत्र किम् । शेषधारणतत्पात्रे कार्ये नो वाऽभिधारणम् ॥ मान्यथा तेन ते कार्ये न कार्ये प्रतिपत्तितः । प्राजापत्यवपायाश्च न कोऽप्यर्थोऽभिधारणात् ॥ जैमिन्या० मा० ४.१.१४ । २ प्रतिपत्तिकर्म चात्वालकृष्णविषाणप्रासने. डाभक्षणादिकमुपयुक्तकृष्णविषाणपुरोडाशा दिसंस्कारकं । उपयुक्तस्याऽऽकीर्ण करस्यावशिष्यमाणद्रव्यादेविहितदेशे संस्कारविशेषहेतुः प्रक्षेपः प्रतिपत्तिकर्म । अर्थसं०कौ० पृ० ५४ । ३ अङ्गप्रधानसम्बन्धबोध को विधिर्विनियोगविधिः । यथा दध्ना जुहोतीति, स हि तृतीयया प्रतिपन्नाअभावस्य दध्नो होमसम्बन्धं विधत्ते, दन्ना होमं भावयेदिति । अर्थसं० पृ. २२-२३ । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ [ का०पृ०४४, वि०पृ० ४७ दीनां प्रतिपाद्यतेऽत्यन्तपारार्थ्य लक्षणस्तादर्थ्येनानुष्ठानपर्यन्तः स नियोगगर्भो नियोगापेक्षाकृतः, न पुनः श्रुत्यादीनामेव तथाविधे तस्मिन् सामर्थ्यम् । 'सक्तून् जुहोति [ ] इत्यादौ होमकृतस्य सक्तुसंस्कारस्य नियोगेनानपेक्षितत्वात् सत्यपि द्वितीया श्रुतिर्न होमस्य सक्त्वर्थतामनुष्ठानपर्यन्तां दर्शयति । 'गोदोहनेने पशुकामस्य प्रणयेत्' इति [आप० श्र० १. १६. ३] प्रणयनं प्रति श्रुतापि गोदोहनस्य करणता नियोगेन तथानपेक्षणात् फलं प्रति नीयते । 'कृष्णलमवहन्ति' इत्यत्र तु प्रत्युतावघातार्थता कृष्णलस्य नियोगवशादेव । नियोगेन च स्वसाधनसंस्कारकत्वेनावघातस्यापेक्षणात् । यवेष्वश्रुतोऽप्यवघातः क्रियते । अत एव द्वारतादर्थे श्रुत्यादीनां व्यापारमाहुः । नियोगेन स्वसिद्धयर्थमाक्षिप्तानामवघातादीनां श्रुत्यादयो द्वारमुपा [24A] यं प्रदर्शयन्ति, अवघातेन चेन्नियोगस्योपकर्तव्यं तत्तदीयत्रीह्युपकारद्वारेणोपकुर्विति । नियोगव्यापारपरिगृहीते वस्तुनीति | नियोगस्य व्यापार उपादानात्मा, तत्प्रयुक्ताक्षेपापरपर्यायग्राहकव्यापारेण परिगृहीतं सर्वं नियोगार्थत्वेन व्यवस्थापितम् । अयं भावः । अनुष्ठानसिद्ध्यर्थं वा प्रयाजादीनां प्रकरणादिभिः श्रुत्यन्तरकल्पनं तादर्थ्यसिद्धये वा ? न तावद् अनुष्ठानसिद्धयर्थं नियोगव्यापारपरिग्रहादेव तत्सिद्धेः । अथ तादर्थ्यसिद्धये तदपि न, विनापि श्रुत्यन्तरकल्पनं श्रुत्यादिभिरर्थानामेव शेषशेषिभावप्रतिपादनस्य कर्तुं शक्यत्वादिति । भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः गौण लाक्षणिकादिभिरिति । अभिधेयाविनाभूतः पदार्थों यदा कार्ययोगित्वेन विवक्ष्यते तदा अभिधेयाविनाभावाल्लक्षणात आगतो लाक्षणिको, यथा 'गङ्गायां घोषः प्रतिवसति' इति घोषप्रतिवसनलक्षणेन कार्येण तट एव लक्ष्यमाणः सम्बध्यते । 'सिहो माणवकः' इत्यादौ तु सिंहजात्याभिधेयया लक्ष्यमाणो यः शौर्यलक्षणो [ 24B] गुणः, सगुणोऽर्थः अवच्छेदकोऽन्यस्य; अत एव गुणादवच्छेदकादायातो गौण इत्युच्यते । अत्र हि तेन गुणेन शौर्यलक्षणेन लक्ष्यमाणेन योऽवच्छिद्यते देवदत्तः स कार्ययोगी, न पुनर्गुणः, लक्षणायां तु लक्ष्यमाण एव कार्ययोगीति विशेषः । अत एव यस्यासावच्छेदकत्वेन गुणो विवक्ष्यते तस्य विशेष्यस्य देवदत्तादेरवश्यं प्रयोगो गौणे; न तु लक्षणायां तटेन लक्ष्यमाणेनान्यदवच्छिद्यते, अत एव तत्रावच्छेद्यस्याप्रयोगः । यथाह""गौणे हि प्रयोगो न लक्षणायाम्" इति [ ] प्रभाकरोपाध्यायः । गौणलाक्षणिका - दिभिरित्यादिग्रहणं लक्षितलक्षणाद्यर्थम् । श्रुतिलिङ्गादिमानानामिति श्रुतिलिङ्गयो I १ द्र०ट०१ पृ०११ । २ अभिधेयाविनाभूतप्रतीतिर्लक्षणोच्यते । लक्ष्यमाणगुणैर्योगाद् वृत्तेरिष्टा तु गौणता | काव्यप्रकाशे (२.१२) कारिकेयमुद्धृता । । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पू०४४, वि०पृ०४७] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः विरोधे यथा 'निवेशनः सङ्गमनो वसूनाम्' इति[मै० सं० २. ७. १२]मन्त्रो लिङ्गादभिधानसामर्थ्यादिन्द्रप्रकाशनसमर्थ इति यावदिन्द्रोपस्थाने विनियुज्यते तावच्छृत्या 'ऐन्द्रया गार्हपत्यमुपतिष्ठते' इति[ मै० सं० ३.२.४ ] गार्हपत्ये विनियोगाल्लिङ्गं बाध्य[25A] ते, क्लप्तस्य कल्प्यमानापेक्षया बलवत्त्वात् । उपतिष्ठत इति 'उपान्मन्त्रकरणे' इति [पाणिनि १. ३. २५] आत्मनेपदप्रयोगादभिधानं विवक्षितम्, तत्प्रत्येव मन्त्रस्य करणत्वात् । तेनोपतिष्ठेताभिदध्यात्. स्तुवीतेत्यर्थः । लिङ्गवाक्ययोर्विरोधे यथा 'स्योनं ते सदनं कृणोमि, घृतस्य धारया सुशेवं कल्पयामि, तस्मिन् सीद अमृते प्रतितिष्ठ, व्रीहीणां मेध सुमनस्यमानः' इति तै० ब्रा० ३.७.५] मन्त्रं प्रति संशयः-किं सकलोऽयं मन्त्रः पुरोडाशार्थे बर्हिष उपस्तरणे पुरोडाशासादने च प्रयोक्तव्यः, उत कल्पयाम्यन्तः उपस्तरणे 'तस्मिन् सीद' इत्यादिः पुरोडाशासादन इति ? सर्वेषां पदानामस्मिन् मन्त्रे साकाङ्क्षत्वादेकवाक्यत्वादुभयत्र प्रयोग इति वाक्यसामर्थ्यात् प्राप्तः, लिङ्गस्याभिधानसामर्थ्यस्य बलीयस्त्वात् कल्पयाम्यन्तस्योपस्तरणे विनियोगोऽपरस्यासादने । 'तस्मिन् सीद' इत्यादेरप्येकवाक्यत्वाद् यावदुपस्तरणप्रकाशनसामर्थ्य कल्प्य[25B]ते तावत् क्लप्तसामर्थ्येन कल्पयाम्यन्तेनोपस्तरणस्य प्रकाशितत्वान्न कल्पनां लभते; एवं 'स्योनं ते सदनं कृणोमि' इत्यादेरप्येकवाक्यताबलाद् यावत् पुरोडाशासादनप्रकाशनसामर्थ्य कल्प्यते तावत् 'तस्मिन् सीद' इति क्लुप्तपुरोडाशासादनप्रकाशनसामोपहतत्वान्नैव कल्पनासम्भवः । एकवाक्यतया ह्यभिधानसामर्थ्य यावत् कल्प्यते तावत् क्लुप्तेन बाधितत्वाद् विप्रकर्षः । वाक्यप्रकरणयोर्विरोधे यथा-'अग्निरिदं हविरजुषतावीवृधत महो ज्यायोsक्रात, अग्निषोमाविदं हविरजुषेतामवीवृधेतां महो ज्यायोऽकाताम्, इन्द्राग्नी इदं हविरजुषेतामवीवृधेता महो ज्यायोऽक्राताम्' [तै० ब्रा० ३.५.१०.३, आश्व० श्री. १.९.९] इत्यादि सूक्तवाकनिगदः । तत्र पौर्णमासीदेवता अमावास्यादेवताश्च समाम्नाताः परस्परेणैकवाक्यता नाभ्युपयन्ति । तत्र लिङ्गसामर्थ्यात् पौर्णमासीप्रयोगादिन्द्राग्नीशब्दः उत्क्रष्टव्योऽमावास्यायां च प्रयोक्तव्यः पौर्णमास्यामिन्द्राग्न्योर्देवतयोरभावात् कं प्रकाशयत्वेष शब्दस्तत्र प्रयुज्यमान इति । इतिकृत्वा तत उत्कृष्य तत्र तयोर्देवतयोरभा[26A][वादसान्नाय्ययाजिनः सम्भवात् तत्रामावास्यायां प्रयोत्तव्यः । तस्य यः शेषः 'अवीवृधेतां महो ज्यायोऽक्राताम्' इति स किं यावत्कृत्वः समाम्नातः तावत्कृत्व उभयोः पौर्णमास्यामावास्ययोः प्रयोक्तव्यः प्रकरणस्य बलवत्त्वात्, अथ येनेन्द्राग्नीशब्देन सहैकवाक्यतां प्राप्तो यत्रासौ तत्रैव प्रयोक्तव्यो वाक्यस्य बलीयस्त्वादिति ? तत्र प्रकरणवशाद् यावत् सर्वैः सहैकवाक्यता कल्प्यते तावदिन्द्राग्नीशब्देन क्लुप्तयैकवाक्य Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः का००४५, वि०१०४८ सया प्रकरण बाध्यत इति विप्रकर्षः । क्रमप्रकरणयोविरोधे यथा, राजसूयप्रकरणेऽभिषेचनीयस्य क्रमे शौनःशेपाद्युपाख्यानमाम्नातम् , तम्कि प्रकरणवशात् सर्वार्थमाहोस्वित् क्रमाम्नानादभिषेचनीयार्थमिति ! तत्र क्रमाम्नातेन यावत् सन्निधानबलोद्भूताकाङ्क्षाकृतैकवाक्यताऽभिषेचनीयेन सहास्य कल्प्यतेऽभिषेचनीयस्य पृथक्प्रयोजकशक्तिबललब्धप्रकरणभाव कल्पनया तावत् सप्तयैवाधिकारविधेः प्रकरणशक्त्यैकवाक्यतेति विप्रकर्षः । क्रमसमाख्ययोर्विरोधे यथा पौरोडाशिकमिति समा[26B ]म्नाते काण्डे सान्नाय्यक्रमे 'शुन्धध्वं दैव्याय कर्मणे' इति तै० सं० १.१.३.१] शुन्धनार्थो मन्त्रश्चाम्नातः । स किं समाख्यासामर्थ्यात् पुरोडाशपात्राणां शुन्धने विनियोक्तव्योऽध सान्नाय्यपात्राणां सन्निधेरिति ? तत्र यावत् पौरोडाशिकमिति समाख्याबलात् पुरोडाशसन्निधिं धर्माणां कल्पयित्वा पुगेडाशार्थत्वं प्रतिपाद्यते तावत् कृप्तसान्नाय्यसन्निधानबलेनैव सान्नाय्यार्थत्वस्य प्राप्तत्वान्न समाख्यया सन्निधिकल्पनाद्वारेण पुरोडाशार्थत्वकल्पनमिति विप्रकर्षः। सान्नाय्ये दधिपयसी । अथ तत्कल्पने तेषां विरान्तिकवृत्तितेति । लिङ्गं हि साक्षादेव श्रुति कल्पयति, वाक्यं पुनलिङ्गमभिधानसामर्थ्यमकल्पयित्वा न श्रुतिकल्पनायां प्रभवतीति दूगन्तिकवृत्तिता; एतच्च प्राक् स्पष्टीकृतमेव । वैकृतस्य विधेः काचिदाकाङ्क्षति । 'प्राकृतविधिना दृष्टादृष्टसाधनोपकारवता सम्पन्नम् , अहमपि च विधिः, मयापि च तथाविधसाधनोपकारवता सम्पत्तव्यम्' इति याऽऽकाङ्क्षा सा चो[27A]दको धर्माक्षेपकः पदार्थः । यथोपदेश कार्यमिति । अस्यार्थः-किं धर्मा यथोपदेशं ये यत्सम्बन्धेन इत्यादिभिः प्रमाणैर पदिष्टास्ते तैः सम्बन्धमनुभूय पश्चात् कार्येण नियोगेन सम्बध्यन्ते आहोस्विद् यथाकार्यमुपदेशः प्रथमं कार्येण नियोगेन सम्बध्य पश्चाच्छ्रत्यादिकृतस्तेषां परस्परसम्बन्ध इति । अनेन च किं यजिप्रयुक्ता धर्मा उतापूर्वप्रयुक्ता इति भाष्यकृता यः संशयः सप्तमाघे [७.१.१] कृतः स व्याख्यातः । तत्र यदि यथोपदेशं कार्यमिति पक्षः तदा प्रथमं तावद् यजिना सर्वे धर्माः सम्बन्ध्यन्ते तत्सम्बन्धविधानार्थं च यजि १ ऐतरेयब्राह्मणे पञ्चमाञ्चिकायां हरिश्चन्द्रोपाख्यानरूपोऽयमितिहासः स एव शौनश्शेर इत्याख्यायते । २ द्र० बलाबलाधिकरणम् (तन्त्रवा० ३.३.७)। ३ उपदेशो हि प्रन्यसन्दर्भः । स चार्थान्तरान्वितं विध्यर्थ कार्यतया प्रतिपादयति । स तावत्तथाभूत एवौपदेशिकः । तेनापि यदपर्यवस्यताऽऽक्षिप्यते तदप्यौपदेशिकम् । तेन विकृतावपि विध्यबैंकल्पित्तस्योपकारस्य भवत्यौपदेशिकत्वम् । न्या०र०मा०प्र० २६५-६९। ४ तत्रेद विवामंते, कि यजिप्रयु का एते धर्माः-कथं यजिर्गुणवान् स्यादित्येवमर्थमाम्मायन्से-माहोस्विदपूर्वप्रयुकाः-कमर्व स्यादिति । शाबरभा० ७.१.१. । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Frago४५, वि०४८] न्यायमारम्भिक रुदेश्यो यजिस्वमात्रेण, न तु विशिष्टमियोगसाधनत्वविशिष्टः, परार्थस्य सतः प्राधान्येनोद्देष्टुमशक्यत्वाद् विशिष्टानुवादे वाक्यभेदप्रसङ्गाच्च । तस्माद् यथोदेश(स्य.)स्या महादेरेकत्वस्याविवक्षा प्रागवद् विशेषश्चोद्देश्यत्वादेवोभयपदविशेष्यत्वाभावः । तथा च निर्विशेषणं यजिमात्रमु[27B ]दिश्य प्रयाजादिधर्मविधानम् । तच्च यजिमात्रं प्राकतवैकृतेषु सर्वयागेषु समानमिति सर्व'.... .... .... व्येत्यतिदेशकल्पनया विकृतिषु धर्मप्राप्तिश्चिन्तनीया । अतश्च नारब्धव्य उत्तरः षदकः । अथ नु .... .... न तदा प्रतिकरणमपूर्वशब्दाभिधेयानां कार्याणां नियोगानां भेदाद् ये धर्मा येन कार्येण .... शब्दान्तरादिप्रमाणवशासादित भेदत्वेन भिन्नत्वात् । अतश्च दर्शपूर्णमासकार्यसम्बन्धित्वेन ते .... व्यः उत्तरः षट्कः अतिदेशतश्च प्राप्तौ । उक्तम्-'प्रकृतिवद् विकृतिः कर्तव्या' इति । तत्र यजौ श्रयन्ते .... त्वाच्चापूर्वस्य तेनैव प्रथमं धर्माणां सम्बन्धः स एवास्मानं साधिकारं साधयितुं करणमि .... [28 A] त्यादिकृतः पश्चात् परस्परसम्बन्ध इति किं यथोपदेश कार्यमथ यथाकार्यमुपदेश इ[ति]. .... शयः । यथाकार्यमुपदेशे हि व्यवस्था धर्माणां तत्र यत्र न विहितास्तत्र कार्योपकाराकाक्षिा] .... इति चोदकस्तं पदार्थमसावाक्षेप्तुमर्हति येन कार्यस्योपकारः कश्चित् कर्तुं शक्यते न च .... लकृतेनावघातेन कश्चिदुपकारो जनयितुं शक्यते प्रकृताविव दृष्टस्य तुषकणविमो [क] .... णाः कृष्णलास्तेषामवघातेन किमिव क्रियेत ? अतः प्राप्त्यभावादेव कृष्णलेष्वर्थलोपादक[रणम् ?] ... भावे कीदृशी बाधना । अस्खण्डमण्डलविध्यन्त[काण्ड?]पाप्तेन ह्यशांशिकया चोदकः प्रवर्सत इति । म.....[28 B] [अखण्डमण्डलविध्यन्त[काण्ड]प्राप्तेरिति तत्र ग्रन्थकृता तावद नेनैवामिप्रायेणातिप्रसङ्गमाशय अलमनयेत्यादिनोपसंहृतम् । इदं त्वत्रोत्तरम-प्रकृतौ विधिदृष्टादृष्टोपकारवत्साधनसिया सम्पन्नस्तत्रायमपि वैकृतो विधिरुपकारमेबापेक्षते न तु तज्जनकान् पदार्थान् , प्राकृतस्य विधेरुपकारापेक्षित्वदर्शनात् । स च प्राकृत उपकारोऽपेक्षासमये विभागेनापेक्षितुं न शक्यते । उपकारजनका हि विभक्ताः, न तु सैजन्यते यो महोपकारः । अतस्तेन महोपकारेणाविभक्तेन कथं विभागेन पदार्था आक्षेप्तुं पायेन्ते ? यथा वनशब्दादविमागेन वृक्षाणां प्रतीतौ न धवानथिना तत्प्रतीतिसमये धवत्यागः शक्यक्रियः; एवमविभक्तोपकारापेक्षातो धर्माणामाक्षेपे नानुपयुक्तानां परित्यागः शक्यकिय इति । इममेव चार्थ हृदि विनिवेश्याह-न ह्यशांशयिक(शांशिक)या चोदकः प्रवर्तत इति । १ अष्टाविंशतितमं पत्रमत्र खण्डितमस्ति । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का.पृ०४५, विपृ०४८ एतेन पण्डितमन्य इति आनन्दवर्धनाचार्य ध्वनिकारं परामृशति । स हि यस्मिन् काव्यप्रभेदे वाच्यवाचकौ प्रकरणादिसहायौ' वाच्यदशोत्तीर्णस्य प्रतीयमानस्य प्राधान्येन स्थि[21A]तस्य व्यञ्जकता प्रतिपद्यते तं काव्यप्रभेदं ध्वनिमाह । यथा च व्याकरणमूलत्वात् सर्वविद्यानां प्रथमैर्विद्वद्भिर्वैयाकरणैः श्रूयमाणेषु वर्णेषु स्फोटाभिव्यञ्जकत्वात् ध्वनिशब्दः प्रयुक्तस्तथाऽमुनापि तादृशे प्रभेदे व्यञ्जकत्वसामान्याद् ध्वनिशब्द एव प्रयुक्तः । आह च “यत्रार्थः शब्दो वा तमर्थमुपसर्जनीकृतस्वार्थी । व्यक्तः काव्यविशेषः स ध्वनिरिति सूरिभिः कथितः" ॥इति ॥ [ध्वन्या० १.१३] अस्योदाहरणं-भम धम्मिा इत्यादि । भम धम्मिअ ! वीसत्थो सो सुणो अज मारिओ तेण । गोलाणइकच्छकुडङ्गवासिणा दरिअसीहेण ॥ [गाथासप्तशती, २.७५] भ्रम धार्मिक ! विश्रब्धः स शुनिकोऽद्य मारितस्तेन । गोलानदीकच्छलताकुञ्जवासिना दृप्तसिंहेन ॥ कच्छः कूल भागः । कुडङ्ग लतागहनम् । अत्र च यद्यपि कदाचिदविनयवत्या चौर्य सुरतक्रीडासु प्रच्छायतया सर्वस्वभूतानि गोदावरीकुलवर्तीनि लतागेहानि प्रत्यहं पुष्पावचयार्थमागतेन धार्मिकेण चोर्यमाणसौभाग्यानि रक्षन्त्या वैदग्ध्याद् भयोपन्यासपूर्व । तत्र तस्य भ्रमणपरिहारायैवमुक्तम्, तथाप्यञ्जसा प्रव्रजितस्य शुनो भय[29B]माशङ्कमानस्य सिंहेन तस्य व्यापादनमुपन्यस्य भयनिवृत्ति कृत्वा भ्रमणं विधीयत इति विधेर्वाच्यता । अथ च विधिरूपवाच्यार्थोत्थापनाङ्गभूतेन दृप्तसिंहकर्तृकश्वव्यापादनलक्षणेन वाच्येनार्थात्मना वाक्येनैवमर्थाभिधानव्यवधानेन व्यञ्जकेनामुना सम्भूय द्वाभ्यां प्रकरणाभिधातृतिपत्तिविशेषपर्यालोचनसहायाभ्यां 'तत्र मा भ्रमीः' इति निषेधावगतिः क्रियते, विधि १ संसों विप्रयोगश्च साहचर्य विरोधिता । अर्थः प्रकरणं लिङ्ग शब्दस्यान्यस्य संनिधिः ।। सामर्थ्यमौचिती देशः कालो व्यक्तिः स्वरादयः । शब्दार्थस्यानवच्छेदे विशेषस्मृतिहेतवः ॥ वा०प० २.३१५-१६ । २ यत्रार्थों वाच्यविशेषः वाचविशेषः शब्दो वा तमर्थ व्यक्तः, स काव्यविशेषो ध्वनिरिति । अनेन वाच्यवाचकचारुत्वहेतुभ्य उपमादिभ्योऽनुप्रासादिभ्यश्च विभक्त एव ध्वनेविषय इति दर्शितम् । ध्वन्या० १.१३ । ३ तुलना'प्रथमे हि विद्वांसो वैयाकरणाः, व्याकरणमूलत्वात् सर्वविद्यानाम् । ते च श्रयमाणेषु वणेष वनिरिति व्यवहरन्ति । तथैवान्यैस्तन्मतानुसारिभिः सूरिभिः काव्यतत्त्वार्थदर्शिभि च्यवाचकम्मिश्रः शब्दात्मा काव्यमिति व्यादेश्यो व्यजकत्व जाम्याद ध्वनिरिति उक्तः । ध्वन्या० पृ०१४१-१४२ । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ० ४५, वि०वृ० ४८ ] निषेधयोश्च युगपद् वाच्यदशोपारोहाऽसम्भवादेकस्य वाच्यत्वमपरस्य प्रतीयमानत्वम् । अत्र च यद्यपि स्वत एव भ्रमणप्रवृत्तेरप्रवृत्तप्रवर्तनात्मकविध्यर्थाभावान्न मुख्यं विधित्वं तथापि स्वरससिद्धाया अपि भ्रमेः श्रभयान्निवृत्तायास्तन्निवारणेन यः प्रतिप्रसवः स एव विधिशब्देन निर्दिष्टः । न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः ‘तरुण्येकाऽहमेवास्मि सार्धं दृक्छ्रुतिहीनया । श्रश्वा चिरगतो भर्ता' इत्येवंप्रायश्लोकैकदेशोऽयं 'पान्थ ! मा मे गृहं विश' । इति एतद् एतेनेत्यादिना निराकुरुते । अयमाशयः । वेदे शब्दनिबन्धनत्वादर्थव्यवस्थायास्तत्र यथाशब्दमर्थ - व्यवस्थाऽस्तु, लोके पुनर्ज्ञातमर्थे परं प्रतिपादयितुं शब्दान् प्रयुञ्जते ज्ञानं [30A] च प्रमाणान्तरात् । तत् शब्दप्रतिपादितं वस्तु यदि प्रमाणान्तरेण न विरुध्यते तद्यथावगतमेव ग्राह्यम्, विरोधे तु न, यथाऽविरोधो भवति तथा तस्यार्थो व्यवस्थाप्यः । तथाहि-यथा “गङ्गायां घोषः" इति लक्षणायां स्रोतोरूपस्यार्थस्याधारत्वानुपलम्भात् प्रमाणान्तरानुगुण्येन तटप्रतिपादन एव पर्यवस्यति शब्दव्यापारः, यथा च गौणे. ‘सिंहो माणवकः' इत्यादौ द्वयोरपरजात्योर्विरुद्धयोरेकत्र समावेशासम्भवाद् गुणविशेष एव शौर्यलक्षणे प्रतिपादनशक्तिः सिंहशब्दस्य, एवमत्र यद्यपि विधावभिधानशक्तिः पर्यवसिता तथापि तात्पर्यशक्तेरपर्यवसानाद् विधौ च पदार्थानन्वयाद् मा भ्रमीरिति निषेध एव झगिति वाक्यार्थतयाऽवभासते । ततोऽत्र यद्यपि वव्यापादनोपन्यासेन भयनिवृत्तिं कृत्वा भ्रमणमेव विधीयते तथापि दृप्तपदविशेषितसिंहपदार्थपर्यालोचनायां सदर्पपश्ञ्चाननबाधिताध्वप्रतिपादनेन सुतरां भय हेतूपन्यासाद् विरुद्धकारणोपलम्भाद् भ्रमणविधिर्न वाक्यार्थतामुपगन्तुमलम्, प्रत्युत तन्निषेधस्यैवोद्भूतनिमित्तत्वमि[30B]ति तस्यैव वाक्यार्थतोपारोहः । यद्यपि साक्षाल्लोटा प्रतिपाद्यमानो विधिः श्रूयते तथाप्यनन्वयवलाद् भ्रमेत्यनेन विपरीतलक्षणया भ्रमणनिषेध एव प्रतिपाद्यते । दृश्यते च विपरीत लक्षणयापि व्यवहारः । तथाहि - चन्द्रदर्शस्वभावाममावास्यां दर्श १ अत्र विस्रब्धो भ्रमेति विधिवाक्ये तत्र निकुञ्जे सिंहस्तिष्ठति त्वं च शुनोऽपि बिभेषि तस्मात् त्वया तस्मिन् न गन्तव्यमिति निषेधः प्रतीयते । काव्यानु०वृ० १.१९ । द्र०ध्व० लोच० । २ एतन्नैयायिकानां मतम् । तस्य खण्डनं साहित्यदर्पणे ( ४.३ ) कृतमस्ति । "अत्र भ्रम धार्मिकेत्यतो भ्रमणस्य विधिः प्रकृते अनुपयुज्यमानतया भ्रमणनिषेधे पर्यवस्यतीति विपरीतलक्षणाशङ्का न कार्या 1 विधि - निषेधात्पद्यमानावेव निषेध-विध्योः पर्यंवस्थतः तत्रैव तदवसरः । यत्र पुनः प्रकरणादिपर्यालोचनेन विधिनिषेधयोर्निषेधविधी अवगम्येते तत्र ध्वनित्वमेव । " ५ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂક भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का० पृ०४५. वि०पृ० ४८ शब्देन विपरीतलक्षणया प्रतिपादयन्ति । अपि च, अस्ति तावदेवंप्रायाद् वाक्यादित्थम्भूतनैमित्तिकावगतिः, अस्यां चावगतौ यथा निमित्तानां निमित्तत्वमवकल्प्यते तथा कल्प्यमिति । एतदेव चेतसि निधाय 'एतेन पण्डितंमन्यः' इत्यत्र 'एतेन' इति सर्वनाम प्रयुक्तम् । युक्तं च प्रतीयमानार्थप्रतिपत्तेः शाब्दत्वमेव, अन्यथेदृशमर्थमवगम्य प्रति'पत्तुः 'उत्प्रेक्षितो मयाऽयमर्थो न तु शब्दात् प्रतिपन्नः' इति प्रतीतिः स्यात्, अस्ति च शाब्दत्वेन प्रतीतिः, अतः शाब्द एवायम् । यस्य तु यथाश्रुतग्राहिणो विधिमात्रप्रतीत्यैव संतोषः सोऽनवधारितवाक्यार्थ एव । यदाहु: - ' गन्तव्यं दृश्यतां सूर्यः' इत्युक्ते बहिर्निःसृत्य प्रविश्य यो ब्रूयाद् 'दृष्टः सूर्यो निर्मलः प्रकीर्णरश्मिः' इति, न तेन यथोक्तं कृतमित्युच्यते, कालविशेषोपलिप्सानिबन्धनत्वाद् वाक्यस्येति । तथा काकेभ्यो रक्ष्यतां सर्पिरिति बालो - [31A]sस्य चोदितः । उपघातपरे वाक्ये न वादिभ्यो न रक्षति || [ वाक्यप० २. ३१२] एवं चैवमादौ सर्वत्र नैमित्तिकावगतिपूर्वकत्वेन निमित्तानां निमित्तत्वव्यवस्थापनान्न निमित्तस्वरूपमात्राश्रयणेन व्यवहारः प्रवर्तनीयः । आह च- स्तुतिनिन्दाप्रधानेषु वाक्येष्वर्थो न तादृशः । पदानां प्रविभागेन यादृशः परिकल्प्यते ॥ [ वाक्यप० २. २४७ ] | तदित्थस्थिते न्यायस्य समानत्वाद् यथा 'रसायनोपयोगादमृतो जायते' 'दध्युपयोगात् पृथिव्यां निमज्जति' इत्यत्र 'दीप्ताग्निर्मन्दाग्निश्च भवति' इत्ययमर्थस्तात्पर्य शक्तया वाक्यार्थस्तथा सर्वत्र व्यङ्गयाभिमतोऽर्थात्मा वाक्य तात्पर्यशक्तिकोडीकृतत्वाद् वाक्यार्थ एव । ' पान्थ ! मा मे गृहं विश' इत्यत्र निषेधं प्रति कारणोपन्यासो यः कृतः स विरुद्धत्वात् विधिमेव पर्यवस्थापयतीति विधिरेव वाक्यार्थ इत्यलमतिप्रसङ्गेन । तत्र तत्र लक्षणादौ । तथा तथा तेनैव प्रकारेण लक्षणाद्यात्मकव्यापारसमाश्रयेण । दृश्यादर्शनशेब्दवाच्य इति । दृश्यस्य दर्शनयोग्यस्य यददर्शनं तच्छन्दा भिलप्यः । सात्मनोऽपरिणामो वेति' । घटज्ञातृतालक्षणावस्थाऽनाविर्भावोऽत्रापरिणामो विवक्षितः । १. मम हि दृश्यादर्शनमभावज्ञानकारणम्, अदर्शनं च दर्शनाभावः । शास्त्रदी० पृ० ३२८ । २ श्लो०वा० अभावप्र० ११ । सा प्रत्यक्षादेरनुत्पत्तिः निषेध्याभिमतघटादिपदार्थज्ञानरूपेण परिणतं साम्यावस्थमात्मद्रव्यमुच्यते, घटादिविविक्तभूतलज्ञानं वा । तस्वसं ० पं० पृ० ४७१ । तत्र कुमारिलेन त्रिविधोऽभावो वर्णितः । आत्मनोऽपरिणाम एकः, पदार्थान्तरविशेषज्ञानं द्वितीयः, “सात्मनोऽपरिणामो वा विज्ञानं वाऽन्यवस्तुनि" इति वचनात् । प्रमाण निवृत्तिमात्रात्मकस्तृतीयः । तवसं०पं० पृ०४७३ । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०५०, वि००५३] न्यायमञ्जरीप्रन्थिभङ्गः गृहीत्वा व[ 31 B]स्तुसद्भावम्' । वस्तुनः शुद्धस्य भूतलस्य सत्ताम् । स्मृत्वा च प्रतियोगिनं घटम् । निमीलिताक्षस्यापि भावात् सतोऽप्यक्षस्यानपेक्षणम् ।। गौरमूलकमुपलब्धवत इति । गौरमूलकाख्यो ग्रन्थकृदभिजनग्रामः। अनैकान्तिकत्वात् सत्यपि घटे भूतलस्योपलम्भात् । __ अनुमानान्तरनिबन्धने तु तद्ग्रहणेऽनवस्थेति । येनापि हि लिङ्गेन घटाभावं गृहीत्वा तस्य घटाभावस्य घटादर्शनेन सह सम्बन्धो गृह्यते, तेनापि घटाभावेन सह गृहीतसम्बन्धेनैव सता घटाभावः प्रतिपाद्यः, अतस्तस्याप्यनुमानान्तरगृहीतेनाभावेन सह सम्बन्धो ग्राह्यः, तस्याप्यनुमानान्तरगृहीतेनेत्यनवस्था । सम्बद्धमपि न सर्व चाक्षुषमिति । चक्षुरश्मीनां मूर्तत्वादवश्यंभाव्याकाशेन संयोगः, सर्वमूर्तद्रव्यसंयोगित्वात् तस्य । तदिदमसिद्धमिति । मीमांसकानां हि समवायोऽसिद्धः, स कथं तेषां दृष्टान्तीभवेत् । तथाहि त आहुः-- "न चाप्ययुतसिद्धानां सम्बन्धित्वेन कल्पना । नानिष्पन्नस्य सम्बन्धो निष्पत्तौ युतसिद्धता ॥” इत्यादि । [श्लो०वा०प्रत्यक्ष का०१४६] चक्षुरूपसन्निकर्षेऽपि समानो दोषः। रसेनापि सह चक्षुषः संयुक्तसमवायसम्भवात् । योग्यता वे[ 32 A ]ति । नियतार्थविज्ञानहेतुरतीन्द्रियो नियतविज्ञानात्मककार्यानुमेयो योग्यतात्मकः सम्बन्धः ।। नास्त्येवेत्येष वोच्यताम्-नास्त्येवैष इति वोच्यतामिति सम्बन्धः । मेचकबुद्धयेति । मयूरग्रीवाया वर्णे यथा व्यक्तितिरस्कृतानेकवर्णसम्भवे मेचकव्यवहार एवं व्यक्तितिरस्कृताखिलाभावग्राहिण्यामपि बुद्धौ मेचकतामात्रग्रहणेन तदन्या १ प्रलोव्वाअभाव०२७। २ न चैतदनुमानत्वं सम्भाति । कथं हि घटेनापि सह दृष्टं भूतलमनेकान्तिकत्वात् तदभावमनुमापयेदिति । न्यायरत्ना०३३। न भूतलम् ; सत्यपि घटे प्रसङ्गात् । शास्त्रदी० पृ०३२५ । ३. ...निवृत्तेश्चाभावात्मिकाया न प्रत्यक्षेण प्रहण सम्भवति। निवृत्त्यन्तरेण तदनुमाने तदपि निवृत्तिरूपत्वाद् निवृत्त्यन्तरेणानुमातव्यम् , तदपि तथेत्यनवस्थापत्तिः । शास्त्रदी० पृ०३४२ घटानुपलब्धिस्तहि लिङ्गमस्तु... । अथ घटोपलब्ध्यभावोऽनुपलब्धिः तस्याप्यभावस्यानुमानवेलायामन्वयग्रहणवेलायां चाऽनुपलब्ध्यन्तरापेक्षा, तस्यामपि तथेत्यनुपलब्ध्यानन्त्यादनवस्था, तथाऽन्वयवेलायां लिङ्गयभावेऽपि । एवं चावीतहेतुरपि निराकर्तव्यः, दर्शननिवृत्त्या हि दृश्यनिवृत्तिरनुमातव्या, दर्शननिवृत्तिरपि अभावरूपत्वाद् निवृत्त्यन्तरेणानुमातव्या, इत्यनवस्था । न्यायरत्ना० ३८-४१ । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ___भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का०४०५०, वि०पृ०५३ भावग्रहणसिद्धिरिति । यदि ह्यन्येऽपि पदार्था दृष्टाः स्युः तदा कथं स्वरूपमात्रेण दृष्टः स्यात् । न ह्यन्यैः सह दृष्टः स्वरूपमात्रेण दृष्टो भवति । नैष वस्त्वन्तराभावसंवित्त्यनुगमाद् विनेति' । यावद् वस्त्वन्तराभावसंवित्तिमसौ नानुगच्छति नापेक्षते तावदसौ न भवतीत्यर्थः । अभावान्तरकरणे त्वनवस्थेति । तदपि ह्यभावान्तरं क्रियमाणं घटविरोधित्वात् किश्चित्करमभ्युपेतव्यं, तच्च य[प]भावान्तरं कुर्यात् तदाऽनवस्थेति ।। अथाप्यनवरात्माऽसौ कृतं प्रलयहेतुभिः, नित्यस्य नाशयितुमशक्यत्वात् । मूर्तिरात्मनीति महत्परिमाणादन्यत् परिमाणान्तरम् । भावो भावादिवान्यस्मादिति । यथा भावोऽन्यस्माद् भावादितरेतराभाववशाद भिधते तथा इतरेतराभावा[32 B][द्भिद्यते भावो न वा ? न भिद्यते चेद् भावाभावसङ्करप्रसङ्गः । अथ भि[द्यते] [स्वतः], अभावान्तरवशात् [वा] । स्वतश्चेद् भावानामपि स्वत एवास्तु [भेदः] । अभावान्तरवशाच्चेदन[वस्था]। [अ] सङ्कीर्णाभाववशाद् भावानामसङ्करस्तद्वशाच्चाभावासङ्कर इत्याशङ्कयाह-भवेदन्योन्यसंश्रयमिति । अभावान्तरजन्यत्वे च परस्परम[न्या]सङ्करस्य, तस्याप्यभावान्तरजन्या [असङ्करता] चेदनवस्था दुरुत्तरेति । तदेवाह-अभावान्तरजन्या चेदनवस्था दुरुत्तरेति । न वै शब्दानुसारेण वस्तुस्थितिरुपेयते शब्दानामर्थासंस्पर्शित्वात् । स्वभावानुपलब्धिरिति । घटस्य प्रतिषेध्यस्य दृश्यस्य यः स्वभावः आत्मीयं रूपं तस्यानुपलब्धिः । अत्र च दृश्यस्येति विशेषणं कर्तव्यमन्यथा सन्तमसव्यवस्थितस्य घटादेरनुपलब्धिमात्रेणाभावव्यवहारः स्यात् स्वभावासिद्धेः । कार्यानुपलब्धिरिति । ननु च नावश्यं कारणानि कार्यवन्ति भवन्तीति वह्निश्च[33 A] स्याद् धूमश्च न भवेदिति तन्नेत्याह-निरपवादेति धूमजन्मन्यप्रतिहतसामर्थ्या इत्यर्थः । १ प्रलोभ्वा०अभाव० १५ । २ प्रलोभ्वा०अभाव० ५। मूर्तिः काठिन्यम् । तत्त्वसं०पं० पृ०४७२ । ३ तुलना-"किञ्च भावाभावयोर्भेदो नाभावनिबन्धनोऽमवस्थाप्रसङ्गात् । भथ स्वरूपेण भेदः, तथा भावानामपि स स्यादिति किमभावेन कल्पितेन ।" प्रमाणवा. कर्ण० पृ०३१ । “यदि चेतरेतराभाववशात् घटः पटादिभ्यो व्यावर्तेत तर्हि इतरेतराभावोऽपि भावादभावान्तराच्च प्रागभावादेः किं स्वतो व्यावर्तेत, अन्यतो वा?" प्रमेयक प्र०२०८ । स्या०र० पृ०५८१ । न्यायकुमुद० पृ०४७४। ४ तत्र वाच्येषु पुरुषायत्तवृत्तीमा शब्दानामवस्तुसंदर्शिनां यथाभ्यास विकल्पप्रबोधहेतूनां प्रवृत्तिचिन्ता, तदरशाद वस्तुव्यवस्थापनं च केवलं जाड्यख्यापनम् । प्रमाणवा०स्वो०वृ० पृ०२३ । ५ स्वभावानुपलब्धियथा-नात्र धूम उपलब्धिलक्षण प्राप्तस्यानुपलब्धेरिति। न्यायबि० २.३१ । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०५३, वि०पृ०५७] न्यायमञ्जरीग्रन्थिमङ्गः तादृशश्च धूमानुपलम्भेनावश्यमभावसिद्धेः' । व्यापकानुपलब्धिरिति । शिशपास्वरूपप्रतिबद्धो धर्मो वृक्षत्वाख्यस्तस्य व्यापकस्तस्यानुपलम्भाच्छिशपाया अभावः । स्वभावविरुद्धोपलब्धिरिति प्रतिषेध्यस्य शीतस्पर्शस्य स्वभावेन स्वात्मना यो विरुद्धोऽग्निस्तस्योपलब्धेः शीतस्पर्शाभावः । स्वभावविरुद्धकार्योपलब्धिरिति । [नि] ध्यस्य शीतस्पर्शस्य स्वभावेनात्मना यो विरुद्धोऽग्निस्तस्य कार्य धूमस्तदुप[लम्भा]च्छीतस्पर्शाभावः । विरुद्धव्याप्तोपलब्धिरिति । ध्रुवभावित्वस्य निषेध्यस्य [विरुद्धं हे]त्वन्तरापेक्षित्वम् तेन व्याप्तस्य नाशस्योपलम्भाद् ध्रुवभावित्वाभावः । ध्रुवभावि त्वस्य हेत्वन्त]रापेक्षित्वं .विरुद्धम् । न हि लाक्षादिद्रव्यान्तरापेक्षो [वर्णो ध्रुवो] भवतीति । ध्रुवमवश्यं भवतीति ध्रुवभावी भूतस्यापि कृतकस्यापि यस्यावश्यं [33 B] ........ १ कार्यानुपलब्धिय॑था-नेहाप्रतिबद्धसामर्थ्यानि धूमकारणानि सन्ति, धूमाभावादिति । न्या०बि० २.३२ । यथेति । इहेति धर्मी । अप्रतिबद्धम् अनुपहतं धूमजननं प्रति सामर्थ्य येषां तान्यप्रतिबद्धसामर्थ्यानि न सन्तीतिसाध्यम् । धूमाभावादिति हेतुः । कारणानि च नावश्यं कार्यन्ति भवन्तीति कार्यादर्शनादप्रतिबद्धसामर्थ्यानामेवाभावः साध्यः, न त्वन्येषाम् । न्या०बि०धर्मो०टी० २.३२ । २ इयमप्यनुपलब्धिाप्यस्य शिशपात्वस्यादृश्यस्याभावे प्रयुज्यते । उपलब्धिलक्षण प्राप्ते तु व्याप्ये दृश्यानुपलब्धिर्गमिका । तत्र यदा पूर्वापरावुपश्लिष्टी समुन्नतौ देशौ भवतः, तयोरेकस्तरुगहनोपेतोऽपर चैकशिलाघटितो निवृक्षकक्षकः । द्रष्टापि तत्स्थान् वृक्षान् पश्यन्नपि शिशपादिभेदं यो न विवेचयति, तस्य वृक्षत्वं प्रत्यक्षम् अप्रत्यक्षं तु शिशपात्वम् । स हि मिवृक्ष एकशिलाघटिते वृक्षाभावं दृश्यत्याद् दृश्यानुपलम्भादवस्यति । शिशपात्वाभावं तु व्यापकस्य वृक्षत्वस्याभावादिति । तादृशे विषयेऽस्या अभावसाधनाय प्रयोगः । न्या०बि०धर्मो०टी० २.३३ । ३ इयं चानुपलब्धिस्तत्र प्रयोकव्या यत्र शोतस्पर्शोऽदृश्यः, दृश्ये दृश्यानुपलब्धिप्रयोगात् । तस्माद् यत्र वर्णविशेषाद् वहिर्दृश्यः, शीतस्पर्शो दूरस्थत्वात् सन्मप्यदृश्यः, तत्रास्याः प्रयोगः । न्या०बि०धर्मोन्टी० २.३४ १ विरुद्धव्याप्तोपलब्धिर्यथा-न ध्रुवभावी भूतस्यापि भावस्य विनाशः, हेत्वन्तरापेक्षा णादिति । न्या०बि०२.३६। प्रतिषेध्यस्य यद् विरुद्धं तेन व्याप्तस्य धर्मान्तरस्य उपलब्धिरुदाहर्तव्या । यथेति । ध्रुवम् अवश्यं भवतीति ध्रुवभावी, नेति ध्रुवभावित्वनिषेधः साध्यः । विनाशो धर्मी । भूतस्यापि भावस्येति धर्मिविशेषणम् । भूतस्य जातस्यापि विनश्वरः स्वभावो नावश्यंभावी, किमुताजातस्येति अपिशब्दार्थः । जनकाद्धेतोरन्यो हेतुः हेत्वन्तरं मुद्रादि । तदा पेक्षते विनश्वरः । तस्यापेक्षणादिति हेतुः । हेत्वन्तरापेक्षणं नामाध्रुवमावित्वेन व्याप्तं यथा वाससि रागस्य रन्जनादिहेत्वन्तरापेक्षणमध्रुवभावित्वेन व्याप्तम् । ध्रुवभावित्वविरुद्धं चाध्रुवभावित्वम । विनाशश्च विनश्वरस्वभावात्मा हेत्वन्तरापेक्ष इष्टः । ततो विरुद्धव्याप्तहेत्वन्तरापेक्षणदर्शनाद् ध्रवभावित्वनिषेधः । न्या०बि०धर्मो०टी० २.३६ । ५ पत्र ३४ नोपलभ्यते । अन्याश्चानलब्धयो न्यायबिन्दौ यथा-"कार्यविरुद्वोपलब्धिर्यथा-नेहाप्रतिबद्धसामर्थ्यानि शीतकारणानि सन्ति वोरेति । व्यापकविरुद्धोपलब्धियथा -नात्र तुषारस्पर्शो वहेरिति । कारणानुपलब्धिर्यथा-नात्र धूमो वन्यभावादिति । कारणविरुद्धोपलब्धियथा-नास्य रोमहर्षादिविशेषाः, सन्निहितदहनविशेषत्वादिति । कारणविरुद्धकार्योपलब्धिर्यथा -न रोमहर्षादिविशेषयुक्तपुरुषवानयं प्रदेशः, धूमादिति ।" न्या०बि० २.३७-४१. तासां विस्तारस्तु धर्मोत्तरटीकातो विज्ञेयः। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०५४,वि०पृ०५७ भश्रीचक्रधरप्रणीतः - [अनुपलब्धेरभावात्मकत्वादिति यथा घटाभावोऽभा]वत्वादनुपलब्ध्या परिच्छिद्यते तथा अनुपलब्धिरप्यभावत्वादेवानुपलब्ध्यन्तरेण परिच्छेद्येति'। उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्येति । उपलब्धेर्लक्षणं जनिका सामग्री, तां प्राप्तो जनकत्वेन तदन्तःप्रविष्ट उपलब्धिलक्षणप्राप्तो दृश्य इत्यर्थः । तत्कालमदृश्यत्वेऽपि एकज्ञानसंसर्गिणो भूतलादेदृश्यत्वाद् योग्यतया च दृश्यत्वसमारोपः । यदि दृश्यस्यानुपलब्ध्या अभावनिश्चयः, नादृश्यस्य, तदा नभःकुसुमादेरदृश्यत्वादनुपलब्ध्या अभावनिश्चयो न स्यादित्याशङ्कयाह-एकान्तानुपलब्धि(ब्धे?)ष्विति । तेष्वपि दृश्यत्वयोग्यताया योगाद् युज्यमानत्वादितरकुसुमवदित्यर्थः । पिशाचादेस्तु दृश्यत्वयोग्यता. ऽनवधारणादिति । तदनवधारणं तु स्वभावविप्रकृष्टत्वेन पिशाचादीनाम् । त्रिविधा चाऽदृश्यता भवति-स्वभावविप्रकर्षेण यथा पिशाचादीनाम् , देशविप्रकर्षेण यथा मेादीनाम् , कालविप्रकर्षेण यथा रामादीनाम् । अतो नास्तित्वनिश्चयस्तत्र कर्तुमशक्यः, संदेह एव तत्रेत्यर्थः । यदि तर्हि अदृश्यस्यानुपलब्ध्या अभावनिश्चयो न सिद्धचति, तदा 'अपिशाचोऽयं चैत्रः' इत्यस्यामपि प्रतीतावभावनिश्चयो न स्यात् , अदृश्यत्वात् पिशाचस्य, ततश्च[35 A] पिशाचापिशाचरूपतया चैत्रं प्रति संदेह एव स्यादित्याशङ्कयाहतत्रापि त्वपिशाचोऽयमिति । अयमाशयः-यत्र पदार्थस्य स्वरूपेणासत्त्वं साध्यते . १ नन्वयमनुपलम्भः प्रतीतो वा स्यादभावज्ञाने हेतुरप्रतीतो वा ? न तावत् प्रतीतोऽनवस्थानातात् । सोऽपि ह्युरलम्भाऽभावरूपत्वादनुपलम्भान्तरेण प्रमातव्यः, एवमनुपलम्भान्तरमपीत्यनवस्थानात् । न्यायकणिका पृ०६९ । अत्रानुपलब्धेलिङ्गादसत्तायामुपलब्धेर. भावोऽप्यन्यया अनुपलब्ध्या साध्य इत्यनवस्थानादप्रतिपत्तिः स्यात् । प्र० वा स्वो वृ० पृ० ३। २ अविद्यमानोऽपि च घटादिरेकज्ञानसंसर्गिणि भूतले भासमाने समग्रसामग्रीको ज्ञायमानो दृश्यतया संभावितत्वात् प्रत्यक्ष उक्तः ।...केवलमेकज्ञानसंसर्गिणि दृश्यमाने घटो यदि भवेद् दृश्य एव भवेदिति दृश्यः संभावितः । न्या०बि०धर्मो०टी० २.२८ । उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्येति, उपलब्धिर्ज्ञानं तस्या लक्षणानि कारणानि चक्षुरादीनि । तैपिलब्धिलक्ष्यते जन्यत इति यावत् । तानि प्राप्तो जनकत्वेनोपलब्धिकारणान्तर्भावादुपलब्धिलक्षणप्राप्तो दृश्य इत्यर्थः । स्याद्वादरत्ना० ३.९२। (प्र०६१०)। ३ अन्यथा चानुपलब्धिलक्षणप्राप्तेष देश-काल-स्व. भावविप्रकृष्टेष्वर्थेष्वात्मप्रत्यक्षनिवृत्तरभावनिश्चयाभावात् । न्या०बि०२.२७। ४ पिशाचादीनां हि स्वभावो नोपलभ्यतेऽथ च ते नास्तित्वेनावगन्तुं न शक्यन्ते । कथं पुनर्यो घटादिर्नास्ति स उपलब्धिलक्षण प्राप्तस्तत्प्राप्तत्वे कथं तस्यासत्त्वमिति चेत् । उच्यते । आरोप्यैतद्रपं निषिध्यते । सर्वत्रारोपितरूपविशेषत्वान्निषेधस्य। यथा नायं गौर इति। न ह्यत्रैतच्छक्यं वा सति गौरत्वे न निषेधो निषेवे न वा गौरस्वम् । नम्वेवमहश्यमपि पिशाचादिकं दृश्यरूपतयारोप्य प्रतिषिध्यतामिति चेत् । नैवम् । आरोपयोग्यत्वं हि यस्यास्ति तस्यैवारोपः । यश्चार्थों विद्यमानो नियमेनोपलभ्येत स एवारोपयोग्यो न तु पिशाचादिः । स्याद्वादत्ना० ३.९२ (पृ० ६१०) Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०५४,वि०पृ०५८] न्यायमञ्जरीप्रन्थिभकः तत्रानुपलब्धिमात्रस्य व्यभिचारात् सविशेषणया तया साध्यम् , अन्यस्य मानान्तरस्य तथाविधासत्त्वसिद्धाकव्यापारात्; यत्र तु पररूपेणासत्त्वं साध्यते तत्र यदेव प्रत्यक्षं प्रमाणं परस्य रूपं निश्चिनोति चैत्रादेस्तदेव पिशाचादिरूपतामपि तस्य व्यवच्छिनत्ति । यो हि पदार्थो येन रूपेणोपलभ्यते तदेव तस्य रूपम् , चैत्रश्च स्वेन रूपेणोपलभ्यमानः कथं पिशाचः स्यात् ; अतः प्रत्यक्षमहिमत एव तस्यापिशाचरूपत्वसिद्धेः किं दृश्यत्वविशेषणापेक्षया' । यत्र तु संयोगित्वेन विवक्षा 'चैत्राधिष्ठिते प्रदेशे पिशाचो नास्ति' इत्यादौ तत्र संदेह एव युक्तः, परमाण्वादिवददृश्यपदार्थसम्बन्धेऽपि प्रदेशप्रतिपत्तेरविशेषदर्शनात् , न विह तथा । यो ह्यतदात्मा प्रत्यक्षेणोपलभ्यते कथमसौ तदात्मा स्यात् । यथा नीलवस्तु पीतं न भवतीत्यत्र नानुपलब्धेापारः, प्रत्यक्षत एव तत्सिद्धेः । पीतसम्बन्धाभावे तु तस्य निश्चयेऽनुपलब्धेरेव व्यापारः, तथा प्रकृतेऽपीति । [पिशाचेतररूप इति] पिशाचादित[35B]रदूपं स्वभावो यस्य । किंफलं तद्विशेषणम्तदनुपलब्धेर्विशेषणं दृश्यत्वं किंफलं न कचिदुपयुज्यते इत्यर्थः । __ अनालम्बनम् असदाकारनिष्ठत्वाद् यथाह धर्मोत्तरः । आत्मालम्बनम् स्वाकारालम्बनं यथाह धर्मकीतिः । भेदाभेदे न चिन्त्या चेति । यथा प्रदेशाद् घटविविक्तता किं भिन्ना आहोस्विद् अभिन्ना तद्वद् घटादपि सा किं भिन्ना विविक्तता आहोस्विद् अभिन्नेति । कामं विधिविकल्पानामपि मा भूत् प्रमाणतेति । दर्शनानां प्र(प्रा)माण्यदायिनो विकल्पा न स्वतः प्रमाणमिति बौद्धाभिप्रायः । तत्राप्याह नैयायिकः प्रामाण्यं दर्शनानां चेदिति । १ न्या०बि०धर्मोण्टीका(२.३६.)गतेयं चर्चास्मिन् संदर्भे रसावहेति मत्वाऽवतायंते यथा-"...परस्परपरिहारवतोयोर्यदैकं दृश्यते तत्र द्वितीयस्य तादात्म्यनिषेधः कार्यः । तादात्म्यनिषेधश्च दृश्यतयाऽभ्युपगतस्य संभवति ।...वस्तुनोऽप्य दृश्यस्य पिशाचादेर्यदि दृश्यघटा. त्मकत्वनिषेधः क्रियते दृश्यात्मकत्वमभ्युपगम्य कर्तव्यः । यद्ययं घटो दृश्यमानः पिशाचात्मा भवेत् पिशाचो दृष्टो भवेत् । न च दृष्टः । तस्मात् न पिशाच इति । दृश्यात्मत्वाभ्युपगमपूर्वको दृश्यमाने घटादौ वस्तुनि वस्तुनोऽवस्तुनो वा दृश्यस्यादृश्यस्य च तादात्म्य प्रतिषेधः। द्र०न्यायकणिका पृ०१२८ । २ ननु यदि कैवल्य प्रदेशस्वरूपं तत्तर्हि सघटेऽपि प्रदेशे विद्यत इति तत्रापि तस्य प्रत्ययस्य सद्भावप्रसङ्गः । अधातिरिक्तः मुखान्तरेणाभाव एवाभ्युपगतो भवतीति चेत्... । रत्नकी०नि० प्र.६७। घटविविक्तता हि भूप्रदेशाद् भिन्ना वा स्यादभिन्ना वा? उम्बेकटी. प्र.४१२। ननु च भोः किं भूतलमेव कैवल्यं किं वा तदतिरेकि ? न्यायसारव्या० पृ० ५६ । द्र० प्रकरणपञ्चिका पृ०११८-१२४ । ३ तस्मादध्यवसायं कुर्वदेव प्रत्यक्ष प्रमाणं भवति । अकृते त्वध्यवसाये नीलबोधरूपत्वेनाऽव्यवस्थापितं भवति विज्ञानम् , तथा च प्रमाणफलम Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भानीयकपरप्रणीतः [फा००५५, वि००५९ लाक्षणिक विरोधमिति । लक्ष्यते व्यावृत्तत्वेन वस्तु वस्त्वन्तराद् येन तल्लक्षणमसाधारणं पदार्थानां स्वरूपम् , तत्प्रयोजनं यस्यासौ लाक्षणिकः परस्परपरिहारस्थिततालक्षणो विरोधः;' तद्वशाद्धि पदार्थानां परस्परासंकीर्णस्वरूपलाभः । "सदसती तत्त्वम्' इति सच्चासच्चेत्यविपरीतरूपेण गृह्यमाणं तत्त्वमित्यर्थः । प्रामाण्यं वस्तुविषयमिति । द्वयोरपि प्रत्यक्षानुमानयोर्वस्तुप्राप्तिपर्यन्तप्रमाणव्यापारत्वाद् वस्तुविषयत्वम् । ग्राह्यभेदस्तहि कथमुक्त आचार्यदिग्नागेनेत्याहअ[36A]र्थभिदां ग्राह्यभेदं जगौ कथितवानाचार्यो दिग्नागः । कथम् ! प्रतिभासस्य भिन्नत्वादिति । प्रतिभासत इति प्रतिभास आकारस्तस्यार्थक्रियाकारित्वेनार्थक्रियाकारित्वाभावेन च प्रत्यक्षग्राह्यस्यानुमानग्राह्यस्य च स्फुटास्फुटत्वे भिन्नत्वात् । एकस्मिन् पुनर्ग्राह्ये तयोः स्फुटास्फुटयोराकारयोरयोगाद असम्भवादिति । यद्यपि वस्तुनिष्ठत्वमुभयोस्तथापि ग्राह्याकारभेदाद् विषयभेदः, एकस्य हि स्वलक्षणं ग्राह्यमपरस्य सामान्यम् । अधिगमरूपत्वमनिष्पन्नम् , अतः साधकतमत्वाभावात् प्रमाणमेव न स्यादु ज्ञानम् । न्या.बि. धों.टी. १.२१ । अविकल्पकमपिज्ञानं विकल्पोत्पत्तिशक्तिमत् । निःशेषव्यवहाराचं तद्वारेण भवत्यतः ॥ तत्त्वसं०१३०६ । प्रत्यक्ष सन्निहितरूपादिमात्रग्राहि विकल्पान्तरेणकत्वाध्यवसाये सति प्रवर्तकम् । प्रवा०भा० प्र०२१६ । १ तस्मान्न स एव विमष्टोऽपि तु परो नोत्पन्नः कारणाभावात् । तदनुपलब्धौ स नष्ट इत्यभिमानमात्रकम् । तेनवंभूते विषये सहानवस्थानलक्षणविरोधव्यवस्था । परमार्थतः कारणभावविशेष एव विरोधः । परस्परपरिहारस्थितलक्षणो विरोध एवमेव । यः क्षणिकं जनयति स नित्यस्वभावं जनयितुमसमर्थः । तेन नित्यत्वस्थानुत्पत्तिरेव । यथा चानित्यत्वमपि [अमिश्रितं?] नित्यत्वेन तथा नीलस्वादयोऽपि परस्परमिति नानयोर्विशेषः । नानयोः परमार्थतः परस्पर विरोधयोर्विशेषः । ततः परस्परं विलक्षणत्वमेव विरोधः कारणवशात् । स च पदार्थस्वरूपमेवान्यथा स्वरूपाभावात् । प्र. वा०भा०प्र०२३४ । २ तुलना-किं पुनस्तत्त्वम् ? सतश्च सद्भावोऽसतश्चासद्भावः । सत्सदिति गृह्यमाणं यथाभूतमविपरीतं तत्त्वं भवति । असच्चाऽसदिति गृह्यमाणं यथाभूतमविपरीत तत्त्वं भवति । न्यायभा०प्र०२। ३ तत्र प्रत्यक्षमनुमान च प्रमाणे द्वे एव, यस्माद् लक्षणद्वयं प्रमेयम् , न हि स्वसामान्यलक्षणाभ्यामन्यत् प्रमेयमस्ति । स्वलक्षणविषयं हि प्रत्यक्षम् , सामान्य लक्षणविषयमनमानमिति प्रतिपादयिष्यामः । प्रमाणसमु०७० १.२ । ४ मानं द्विविधं विषयद्वविध्यात् शक्त्यशक्तितः । अर्थक्रियायां ... ॥ प्र०वा २.१। ५ विशदप्रतिभासस्य तदार्थस्या विभावनात् । विज्ञानाभासमेदश्च पदार्थानां विशेषकः ॥ प्र०वा २.१३० । इन्द्रियगोवरोार्थों विशदप्रतिभासः । प्र०वा०भा०पू०२४७ । न विकल्पानुविद्धस्यास्ति स्फुटावभासिता। प्र०वा० २.२८३। स्फुटाभत्वादेव च निर्विकल्पकम् । विकल्प विज्ञानं हि सङ्केतकालदृष्टत्वेन वस्तु गृह्णच्छन्दसंसर्गयोग्यं गृह्णीयात् । सङ्केतकालदृष्टत्वं च सङ्केतकालोत्पन्नज्ञानविषयत्वम् । यथा च पूर्वोस्पन्नं विनष्टं ज्ञानं संप्रत्य सत् , तद्वत् पूर्व विनष्टज्ञानविषयत्वमपि संप्रति नास्ति वस्तुनः। तदसद्रूप वस्तुनो गृह्णाद् भसंनिहितार्थप्राहित्वाद् अस्फुटाभं विकल्पकम् । ततः स्फुटाभत्वानिर्विकल्पकम् । न्या०वि०धर्मो टी० १.११ । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का पृ०५८, वि०पृ०६२] न्यायमञ्जरीप्रन्थिभङ्गः प्रतिबन्ध इवेति । प्रतिबन्धो गम्यस्य गमकायत्तता । क्रियया कर्वस्थयेति । 'देवदत्तेन गम्योऽयं प्रामः' इत्यादौ । 'कुशूलभेत्ताऽयं चैत्रः' इत्यादौ तु कर्मस्थया । यैस्तु मीमांसकैः सद्भिरिति प्राभाकरान् निर्दिशति । से हि ज्ञान च सालम्बनमिच्छन्ति, शब्दं च बाह्यार्थविषयम् , अथ च नास्तीति प्रत्ययं शब्दं च निर्विषयमाहुः । ___ घटो हि न प्रतीयत इति । घटस्यादर्शनमात्रमेव तत् केवलम्, न पुनघंटाभावस्यात्र प्रतिभास इत्यर्थः । अदर्शनादेव चास्तित्वासिद्धिः । यैव चास्तित्वासिद्धिः सैव नास्तित्वसिद्धिः' । कः पुनरस्य बौद्धपक्षात् प्राभाकरस्य पक्षस्य विशेषः ? अयं विशेषः–बौ[36B]द्धपक्षेऽनुपलब्ध्या अभावव्यवहारः साध्यः, स च सविकल्पकज्ञानस्वभावः, विकल्पप्रतिभासि च न बाह्यमिति तेषां मतम् ; प्राभाकराणां तु विकल्पस्य बाह्यवस्तुविषयत्वात् तथाविधे व्यवहारेऽनुपलब्ध्याऽभ्युपगम्यमाने बलाद् अभावालम्बनत्वमायातीति तेषां व्यवहारो भूतलघटयोर्वैविक्त्यस्थापनामयः, पुरुषेच्छाकृतः, केवलभूतलदर्शने घटस्मरणे च सति पश्चाद् 'भूतलमेव प्रत्यक्षेण गृहीतं न घटः' इत्येवंरूपो यो भवति, स एव विवक्षितः, न ज्ञानस्वभाव इति । दर्शनादर्शने एवेति । 'घटो हि न प्रतीयते, न तु तदभावः प्रतीयते'' इत्येवं वदद्भिरेवमभ्युपगतं भवति 'घटानुपलम्भव्यतिरेकेणान्यद् घटस्यासत्त्वं नास्ति, स एवासत्वम्' इति । खपुष्पस्य पिशाचस्येति । खपुष्पस्य दृश्यत्वाद् अनुपलब्ध्या अभावनिश्चयः, पिशाचस्य मृदन्तरितवारिणश्च दृश्यत्वाभावान्नास्त्यभावनिश्चय इति व्यवस्था । सा अनुपलब्धिमात्रान्नास्तिताव्यवहारिणां भवतां मते विघटते । मृदन्तरितवारिणः सर्व १ किमनेन प्रमीयते ? उक्तम्-नास्ति इत्ययमर्थः । किं च तन्नास्ति ? प्रमीयमाणस्य प्रमेयता; अतश्चाप्रमितेः प्रमाणतेत्यलौकिकमिव प्रतिभाति । बृहती० पृ०११९ । अदर्शनमभावो हि तन्मात्रानुभवात्मकम् ॥५२॥ तन्मात्रानुभवश्चाय यददर्शनरूपितः। विमृश्यते भूतलादौ तदभावोऽपदिश्यते ॥५३॥ तन्मात्रानुभवश्चायं न मेयः फलभावतः । किश्च स्वयं प्रकाशोऽसाविति न्यायविदो विदुः ॥५४॥ नास्तीति शब्दस्तत्रैव स्वसंवेद्ये प्रवर्तते । तेन नास्तीति विज्ञानभ्यायेम न समागतम् ॥५५ । मेयाभावे ततो मानमभावाख्यं कथं भवेत् । घटसत्ता न लभ्या हि भासत्ता चोदितात् क्रमात् ॥५६॥ प्रकरणपं० अमृत० । २ तस्मान्नास्तीति व्यपदेशोऽप्रमीयमाणतामात्राऽऽलम्बनो न पुनरभाव विग्रहवन्तं गोचरयति । तथा च घटो नास्ति, न प्रमीयत इत्यर्थः । न्यायकणिका पृ०६४ । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का०पृ०५८, वि००६२ दाऽनुपलम्भाऽभावात् कथमविशेष इत्याह-सर्वदाऽनुपलम्भोऽपीति । एतदुक्तं भवतिकिल भव[37A] तैवमुच्यते-'सर्वदा यो नोपलभ्यते तस्याप्रतीतिमात्रेण नास्तित्वनिश्चयो भवति, मृदन्तरितवारिणश्च कदाचिदुपलम्भेन सर्वदाऽनुपलम्भासिद्धेः तस्याप्रतीतिमात्रान्नास्तित्वनिश्चयः कथं सिध्येदित्यतः सर्वदाऽनुपलम्भस्तस्य नास्तीति तस्य न नास्तितानिश्चयः' इति, तदयुक्तम् , अनेन क्रमेण पिशाचस्यापि नास्तितानिश्चयप्रसक्तेरिति । भवत्विति चेत् । तन्नेत्याह-आगमाद् युक्तितश्चापीति । आगमादवगतो नियतशरीरावच्छिन्नो यः पिशाचस्तेनावश्यमदृश्येन नियते क्वचिद् देशे भाव्यम् । अयमपि च विवादास्पदं देशो नियतदेश एव, अत्रापि पक्षे तस्यावस्थितिः सम्भाव्यत इति सम्भावनायुक्तिः । अनुपलब्धे पुनरनुपलब्धिरेवेति एवमस्याष्टीकाया अवतरणम्-सतोपि घटादेरनुपलब्धिदर्शनात् कथमीश्वरादेरनुपलब्धिमात्रान्नास्तितानिश्चयः, अतः संदेह एव युक्तः । न च 'इह घटो नास्ति' इतिवदुपलब्धि[ल]क्षणप्राप्तत्वं तस्य, येन नास्तितानिश्चयः स्यात् , तस्मान्नास्तितासंदेह एव तस्य प्राप्त इत्याशङ्कयाह-'उपलब्धिविषये ह्यनुपलब्धिः कारणान्तरमपेक्षते, अनुपलब्धे पुनरनुपलब्धिरेवानु[37B]पलब्धिः' इति । अस्यार्थः । सतोऽपि घटस्यानुपलब्धिदर्शनादुपलब्धघटादिविषयाऽनुपलब्धि स्तितानिचये कारणान्तरमुपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वमपेक्षते, अनुपलब्धे पुनरीश्वरादौ याऽनुपलब्धिः सैवानुपलब्धिः, सैव नास्तिताव्यवहारसाधनी, न तत्र दृश्यत्वादेः कारणान्तरस्यापेक्षोपयुज्यत इति यावत् । ननु यदि सर्वदाऽनुपलम्भादपि न नास्तितानिश्चयः पिशाचादेस्तहिं खपुष्पादेरपि न प्राप्नोतीत्याशङ्क्याह-खपुष्पादेस्त्विति । नानुपलब्धिमानं केवलं तत्र व्याप्रियत इत्यर्थः । - उपेक्षितश्च भाष्यार्थ इति । 'अभावोऽपि प्रमाणाभावो नास्तीत्यस्यासन्नि. कृष्टस्यार्थस्य' इति [शाबरभा० १.१.५] भाष्यस्याभावात्मकप्रमाणप्रमेयप्रतिपादकत्वात् । स हि वस्त्वन्तरोपाधिरिति । यदा स्वकारण एवानुत्पत्तिस्तदा प्रागभावः, यदा तु स्वकारणादन्यत्रानुत्पत्तिः तदेतरेतराभावः, 'इह देशे काले वा इदं नास्ति' इत्यपेक्षाऽभावः । स्वकारणाद्धि वस्त्वन्तरमुपाधिरवच्छेदकमितरस्माद् यस्य । आख्यायि 'खार्या खलु द्रोणः सम्भवति' इति । आख्यायि आख्यातं केनचित् । अत आगमात् सम्बन्धग्रहणमत्र । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०६०,वि०६४] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः आप्तग्रहणं सूत्र' इति[38A] तत्र ह्युपदेश इत्युक्ते लक्षणम विनिश्चितं स्यात् । न ह्युपदेशमात्रस्याव्यभिचारादिविशिष्टप्रमाजनकत्वं सम्भवतीति कथं तस्यैवंरूपता निश्चीयेतेत्यविनिश्चितत्वमायातं लक्षणस्य, आप्तग्रहणं तु तद्विनिश्चयाय कृतम् , अस्त्याप्त सम्बन्ध्युपदेश एवरूप इत्येवमर्थम् , न लक्षणायेति । चार्वाकधूर्तस्त्विति उद्भटः, स हि लोकायतसूत्रेषु विवृतिं कुर्वन् 'अथातस्तत्त्वं व्याख्यास्यामः' 'पृथिव्यापस्तेजोवायुरिति' सूत्रद्वयं यथाश्रतार्थत्यागेनान्यथा वर्णयामास । प्रथमसूत्रे तत्वपदेन प्रमाणप्रमेयसङ्ख्यालक्षणनियमाशक्यकरणीयतामाह, द्वितीयसूत्रमपि प्रमेयानियमप्रतिपादकं तेन व्याख्यातम् । तत्र हि 'पृथिव्यापस्तेनोवायुरिति' य इतिशब्दः स एवंप्रायप्रमेयान्तरोपलक्षणत्वेन तस्याभिमतः । न हि तत्करस्थं तत्रैवेति । न हि चक्षुः स्वगोलक एव प्रतीति जनयेदित्यभिप्रायः । व्यापित्वादकुशलमिन्द्रियमिति । अस्यार्थः-न हि त्वगूगतमेवेन्द्रिय तत्रैव त्वचि प्रतीतिमादधाति इति ब्रूमो येन चक्षुषि तथा अदर्शनादयुक्ततोच्येत, किन्त्वन्तर्गतं व्यापि यदिन्द्रियं तद् बहिस्त्व[38B] गगतस्य वक्राङ्गुलित्वादेः क्रियाविशेषावगमं जनयद् ग्राहकम् । नन्वन्तर्गतस्य त्वगिन्द्रियस्य ग्राहकत्वं क्व दृष्टमित्याहआनाभेस्तुहिन जलमिति । ननु द्रव्यान्तरेण संयोगोऽङ्गुलीनामन्तस्त्वगिन्द्रियेण गृह्यता नाम अन्तःप्रविष्टेनेवोदकेन, विरलाङ्गुलित्वं तु संयोगाभावः कथं गृह्यतेत्याह-संयोगबुद्धिश्चेति । यथा संयुक्ता अमुल्य इमा इति चाक्षुषी बुद्धिरेवं विरला अमुल्य इति, चक्षुष एव तत्रापि व्यापाराविशेषात् । एवं सन्तमसे यथा अङ्गुलिसंयोगग्राहि त्वगिन्द्रियं तथा तत्संयोगाभावरूपविरलताग्राह्यपि तदेव भविष्यतीत्यर्थः । माकुञ्चितत्वस्य तर्हि वक्रत्वापरपर्यायस्य कथं तेन ग्रहणमिति । तत्राप्याह-क्रियाविशेषग्रहणादिति । तस्मात् त्वगिन्द्रियादेव क्रियाविशेषस्याङ्गुलिगतस्याकुञ्चनाख्यस्य कर्मविशेषस्य विशेषणभूतस्यावगमः । आकुञ्चिता अमुल्य इति विशेष्यज्ञानं यत् तत् तज्जमेव । यथा चक्षुषा चैत्रगतं चलनमुपलभ्य चलत्ययं चैत्र इति विशेष्यज्ञानं चाक्षुषमेवमिदमपीति सिद्धम् । भट्टश्रीशङ्करात्मजश्रीचक्रधरकृते [39A] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गे प्रथममाह्निकम् ॥ १ आप्तोपदेशः शब्दः न्या०सू०१.१.७ । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ द्वितीयम् आह्निकम् ॥ घोरे जगज्जलनिधौ भवतो ययाऽमी मज्जन्ति न स्मृतिपथप्रतिपन्नयाऽपि । सा काऽप्यचिन्त्यचरितस्य विचित्ररूपा शक्तिर्जयत्युडुपखण्डभृतो भवस्य॥ प्रज्ञोन्मेषपटु प्रपञ्चय वचो बौद्ध ! त्वमप्युद्भटाश्चार्वाक ! स्वविकल्पजालजटिलाः स्वैरं गिर[:] स्फारय । रे मीमांसक ! साङ्ख्य ! जैन ! भवतां यत् सम्मतं ब्रूहि तत् स्वातन्त्र्यान्मम रोचते न हि न हि त्र्यक्षाहतेऽन्यः प्रभुः ।। ॐ नमः शिवाय । अतथाविधस्वरूपस्येति । संशयविपर्ययात्मकस्येत्यर्थः । अव्याप्तिश्च तदवस्थैवेति । संशयादेस्तथाविधफलजनकत्वेऽप्यप्रामाण्यप्रसक्तेः । अत्राचार्यास्तावदिति । वक्ष्यमाणव्याख्यातृमतापेक्षया तावच्छब्दप्रयोगः । इह च सर्वत्राचार्यशब्देन उद्द्योतकरविवृतिकृतो रुचिकारप्रभृतयो विवक्षिताः, व्याख्यातशब्देन च भाष्यविवरणकृतः प्रवरप्रभृतय इति । यदा ज्ञानं प्रवृत्तिरिति । भाष्यकृता हि "अक्षस्याक्षस्य प्रतिविषयं या वृत्तिः सा प्रत्यक्षम्" [न्या० भा० १. १. ३] इत्यभिधाय "वृत्तिस्तु सन्निकर्षों ज्ञानं वा" [न्या. भा० १. १. ३] इत्युक्तम् , "यदा ज्ञानं वृत्तिः” न्या० भा० १. १. ३] इत्याद्यभिहि[39B]तम् । इन्द्रियस्य हि विषयं प्रति वृत्तिापारः, कदाचित् तेन सन्निकर्षोऽथवा तद्विषयज्ञानजननमिति । स्मृत्या च तस्य विनश्यत्ता, स्मृतेर्ज्ञानरूपत्वाज्ज्ञानस्य च ज्ञानान्तरविरोधित्वात् । उपलभ्यानुवादेनेति । स्मरणानन्तरं परामर्शानभ्युपगमे धूमज्ञानस्य विनष्टत्वात् स धूमोऽग्निमानित्युपलब्धधूमानुवादेन प्रतीतिः स्यात् नत्वयं धूमोऽग्निमानित्युपलभ्यमानधूमानुवादेनेत्यर्थः । यदा धूम एवाग्निमत्तया साध्यते तदैवम् , यदा तु पर्वतस्तदापि स धूमवान् प्रदेशोऽग्निमानिति स्यान्न त्वयमिति । ननु वह्विज्ञानानन्तरं धूमपरामर्शस्मरणम्, ततोऽग्नौ सुखसाधनत्वस्मरणम् , १ कस्तावदभिप्रेतः जयन्तभहस्य 'भाचार्याः'इतिपदेन । प्रश्नोऽयमने कैश्चर्चितः । चौखम्बाप्रकाशितन्यायमञ्जरीसम्पादक-म०म०गङ्गाधरशास्त्रिमतेन 'आचार्य'पदं तात्पर्यटीकाकारपाचस्पतिमिश्राणां द्योतकम् (न्याम्म पृ०६२टिप्पणी)। तत्पदेन जयन्तभट्टस्य बुद्धिस्थाः व्योमशिवाचार्या इति डाक्टर-पं०महेन्द्रकुमारेण प्रमेयकमलमार्तण्डस्य प्रस्तावनायां(पृ.१८) सूचितम् । तत्पदद्वारा जयन्तभट्टेन स्वगुरुपरम्परापन्नः कोऽपि पूर्वाचार्यो निर्दिष्टः इति म०म० पं०श्रीफणिभूषणाः (न्यायदर्शन पृ०१०७) मन्यन्ते । उपकृता वयं चक्रधरेणात्र संदर्भ विशिष्टवार्ताप्रदानेन। २ रुचिटीकातो विस्तृतमुद्धरणं धर्मोत्तरप्रदीपे (पृ.१७५) उपलभ्यते । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ० ६६, वि०पृ०७०] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः तेन धूमपरामर्शस्मरणस्य विनश्यत्ता, ततो विनश्यदवस्थपरामर्शसहितात् सुखसाधन त्वस्मरणादग्नौ तज्जातीयत्वपरामर्शः, तस्माद् विनश्यदवस्थाच्च सुखसाघनत्वानुस्मरणात् सुखसाधनत्वनिश्चयो भविष्यतीति आशङ्कयाह-न च धृमलिङ्गानुमितदहनज्ञानानन्तरमिति । किमनेन शिखण्डिनेति । अकिञ्चित्करत्वं परामर्शस्याह । यथा भीष्मवधः किरीटिनैव सम्पादितो मध्ये त्वकिञ्चित्करः शिखण्डी' कृत इति । पुनःसम्बन्धग्रहणापेक्षणादनवस्थेति । तज्जातीयत्वस्य लिङ्गस्य तेन सह गृहीत. सम्बन्धस्य तद्गमकत्वम् । न च सुखसाधनत्वस्यान्यथा ग्रहणं सम्भवतीति पुनस्तस्मादेव लिङ्गात् तदवगमे ताव[40A]त्सम्बन्धग्रहणापेक्षित्वं यावज्जातमात्रस्य सुखहेतुत्वावगमः । तत्रापि जन्मान्तरे लिङ्गलिङ्गिनोरविनाभावग्रहणे जातमात्रस्यापि तस्मादेव लिङ्गादवगतिः, जन्मान्तरेऽप्येवमेवेत्यनवस्था । न खल्वतीन्द्रिया शक्तिरिति । ननु यद्यतीन्द्रिया नाभ्युपगम्यते शक्तिः कथं तदृष्टस्य शक्तित्वमिति । तत्राह-न धर्मादेः शक्तित्वादतीन्द्रियत्वमिति । इत्थं च प्रमाणफले न भिन्नाधिकरणे भविष्यत इति । अनेन लोकप्रसिद्वयानुगुण्यमस्य पक्षस्य दर्शयति । लोके हि परशुनिपातस्य करणस्य छिदेश्च फलस्यैकवृक्षगतत्वेन दर्शनात् , इहापि तत्रैव ज्ञाने करणत्वं फलत्वं चेति । सव्यापारमतीतत्वादिति । नियतार्थाधिगमे सव्यापारस्य नियतार्थपरिच्छेदाख्यव्यापारवतः १ शिखण्डी-स्वयैवरे वृतेन भीष्मेणापाकृता काचिद् अम्बानाम्नी राजकन्या तपसा पुरुषत्वं प्राप्ता । सैव शिखण्डीति संज्ञया व्यवजहे । स च स्त्रीपूर्वत्वान्निन्दास्पदम् । ततो भारते युद्धे तं पुरस्कृत्यार्जुनो भीष्मं जघान । सोऽपि च शिखण्डी पश्चादश्वत्थाम्ना हतः । २ न तावद मीमांसकवदतीन्द्रिया शक्तिरस्माभिरभ्युपेयते । न्यायवान्ता०टी० पृ०१०३ । ३ ननु पुरुषवर्ती बोधः कथं चित्तगताया वृत्तेः फलम् । न हि खदिरगोचरव्यापारेण परशुना पलाशे छिदा क्रियत इत्यत आह "अविशिष्टः” इति । तस्वै० १.७ । तदेव च प्रत्यक्षं ज्ञानं प्रमाण फलम् । न्या०बि० १.१९ । भिन्नप्रमाणफलवादिनं प्रति बौद्धेनोक्तम्-यदि प्रमाणफलयोर्भेदोऽभ्युपगम्यते तदा भिन्नविषयत्वं स्यात् प्रमाणफलयोः । न चैतद् युक्तम् । न हि परश्वादिके छेदने खदिरप्राप्ते सति पलाशे छेदो भवति । तत्त्वसं०६० पृ०३९९ । अत्र बाह्यानामिव प्रमाणात् फलमर्थान्तरभूतं नास्ति । प्रमाणसमु०वृ. ८। ४ प्रमाणसमु०१.९ । उद्धृतेय पङ्क्तिः प्रमाणवार्तिकालङ्कारे (पृ. ३४९) सन्मतिवृत्त्यां च (पृ. ५२५) तुलना-प्र०वा. २.३०१-३१९: तत्त्वसं०का० १३४४, न्यायबि० १.१८-१९, साङ्कख्यकारिकायुक्तिदीपिका०का०५ (पृ०३५); "उभयत्र तदेव ज्ञानं फलम्, अधिगमरूपत्वात् । सव्यापारवख्यातेः प्रमाणत्वम्” न्यायप्रवे०पृ०७; "तस्मिन्नधिगमरूपे फळे सव्यापारप्रतीततामुपादाय प्रमाणोपचारः" तत्त्वार्थरा० पृ०५६ । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः का०पृ०६६, वि०पृ०७० प्रतीतत्वादुपलब्धत्वात् फलमेव सत् प्रमाणमिति भण्यते । इदमेव हि दात्रादेः करणस्य करणत्वं यत् क्रियायां व्यापृतत्वम् । नन्वर्थपरिच्छेदात्मकत्वाज्ज्ञानस्य कथं स्वात्मन्येव व्यापृतत्वोक्तिः ? अस्त्येतत् , किन्तु यदा अर्थाकारानुकारि ज्ञानमुत्पद्यते तदैवमुपचर्यते । यथा पितृसदृशमपत्यमुपलभ्य पितुरनेन रूपं गृहीतमिति लोको व्यपदिशति, अथ च नानेन किञ्चिद्रूपं गृहीतम् ; एवं नियतार्थाकारं ज्ञानमुपलभ्यार्थग्रहणे व्याप[40B]तत्वमर्थोऽनेन गृहीत इत्येवं कल्पयति' । यदाह यथा फलस्य हेतूनां सदृशात्मतयोद्भवात् । हेतुरूपग्रहो लोकेऽक्रियावत्त्वेऽपि दृश्यते ॥ इति ॥ [प्र० वा० २.३०९] कृतिः करणमिति । यथा भावे सिद्धयतोऽपि करणशब्दस्य, न कारकस्याधिकारे ग्रहणमिति भावः । विषयाधिगमाभिमानः इति । अधिगतोऽयं मया घट इत्येवरूपोऽत्राभिमानो विवक्षितः । यदाभासं प्रमेयं तदिति । आभासत इत्याभासो ग्राह्याकारः । य आभासो यस्मिंस्तद् यदाभासम् ; यस्तत्र ज्ञाने ग्राह्याकारः प्रतिभाति तत् प्रमेयमित्यर्थः । इन्द्रियगत्यनुमानमप्यस्तीति । न हि गोलकस्थस्येन्द्रियस्यासत्यां गतौ बाह्येन विषयेण सन्निकर्ष उपपद्यत इति सन्निकर्षात् तद्गत्यनुमानम् । घ्राणादीन्द्रियधर्मवैलक्षण्यादिति । नित्यत्वानियतविषयत्वादिना वैलक्षण्यम् । तदतद्रूपिणो भावा इति । तदपिणस्तद्रूपवन्तः शाल्यकुराः, अतदूपिणश्चातद्रूपवन्तो यवाकुराः[41A] । शाल्यकुरा यवाङ्कुराश्च कथमेकरूपा अनेकरूपाश्चेत्यर्थः । एवं गूढाशयेन पृष्टे स्पष्टमुत्तरमाह-तदतद्रूपहेतुजाः । तद्रूपैरेकरूपैः शालि १ यथा लोकेऽपि हेतूनां सदृशात्मतया सदृशरूपतया उद्भवात् फलस्या क्रियावस्वेऽपि हेतुरूपग्रहणव्यापाराभावेऽपि हेतुरूपग्रहः कथ्यते पितू रूपं गृहीतं सुतेनेत्यादि । प्र०या०मनो० पृ०२११ । तद्यथा पितृसदृशः पुत्र उत्पत्तिमान् पितृरूपं गृह्णातीति व्यपदिश्यते लोके विनापि ग्रहणव्यापारेण, तथा ज्ञानेऽपि व्यपदेश इति को विरोधः । प्र०वा.भा. पृ०३४४ । २ प्र०समु. १.१०। आह चेत्यादिना प्रमेयादिव्यवस्थां तां दर्शयति य आभा. सोऽस्येति विग्रहः । स्वांशप्रमाणत्व साधनात् अत्र विषयाभासो ग्राह्यः । प्रमेयं तदिति स विषयाभासः प्रमेयः। प्रमाणफलते पुनः प्राहकाकारसंवित्ती (पृ०३५A)इति । विशाला० । ३ प्र०वा.२.२५१ । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पू०७२, वि००७६ ] न्यायमञ्जरी ग्रन्थिभङ्गः बीजैरतद्रूपैर्भिन्नरूपैश्च यवबीजैर्जनिता इति । परः स्वाभिप्रायमाह - तत्सुखादि किमज्ञानं विज्ञानाभिन्नहेतुज मिति' । एकमेवेदमिति । हर्षविषादादिरनेकाकारो विवर्तः परिणामो यस्य । न स्वभावभेदेन संशयवदिति । यथा संशयरूपत्वेनोभयको टिस्पृश्यस्वभावेनानुभयकोटिस्पृशो ज्ञानान्तराद विशिष्यते 'संशयात्मकमेतज्ज्ञानं न व्यवसायात्मकम्' इति तथा न सुखज्ञानम्, अपि तु विषयकृत एव तस्य भेद: 'सुखस्य ज्ञानम्' इति । 1 २ तच्च न स्वच्छमिति । यदि हि विषयानुरागरहितस्य बोघमात्रस्यानुभवनं स्यात् तदाऽऽत्मीयेन सुखात्मनापि स्वरूपेण तस्यानुभवो युज्येतेत्यभिप्रायः । अन्वयव्यतिरेकाभ्यां चेति । अयं भावः । सुखादयो ग्राह्याः, न च ग्रा[41B] ह्यरूपमेव ग्राहम् । यदि हि ग्राह्यरूपमेव ग्राहकं स्यात् तदा घटो मया ज्ञातोऽधुना पटं जानामीत्यादौ ग्राह्यरूपानुवृत्तिवद् ग्राहकरूपानुवृत्तिरपि नोपलभ्येत, उपलभ्यते च बोधरूपोऽनुवर्तमानो ग्राहकाकारः, ततोऽवसीयते ग्राह्येणोपरक्तमेव ज्ञानं न ग्राह्यरूपमिति । सत्यपि घटे कदाचिदभावादसत्यपि च तस्मिन् पटादौ भावात् ततो व्यावृत्तरूपादन्यैव विलक्षणबोधरूपता प्रतीयत इति । अन्यदाऽदृष्टत्वादिति । यदि सुखमेव ज्ञानं स्यान्न सुखस्य ज्ञानं तदा तदनन्तरभाविनि ज्ञाने बोधरूपतावत् सुखरूपताऽप्यनुवर्तेत । 'अन्यदा वा दृष्टत्वात् ' - प्राङ्नीत्या यदा ग्राह्याद् भिन्नं बोधस्वभावं ज्ञानमुपलब्धं तद्वदत्रापि भवतु, अस्यापि ग्राह्यत्वात् । योग्यतालक्षण एवेति । नियतसुखादिकार्यगम्यः कश्चित् सम्बन्धविशेषो योग्यताख्यः । विलक्षणा हि दृश्यन्त इति । समवायिकारणानां परमाणूनामग्निसंयोगस्य चासमवायिकार्[42A]णस्याभेदेऽपि रूपत्वरसत्वादिनिमित्तकारणभेदात् पाकजानां रूपरसादीनां वैलक्षण्यं भेदः । ४७ १ तत् तस्मादिमं न्यायमुल्लङ्घ्य विज्ञानेन सहाभिन्न एको हेतुरिन्द्रियविषयमनस्कारसामग्रीलक्षणस्तस्माज्जातं सुखादिकं कस्मादज्ञानम् ? द्वयमपि ज्ञानं स्यान्न वा किञ्चित् प्र०वा० मनो० २.२५१ । ..... सिद्धा ज्ञानस्वभावा सुखादयः । तत्रसं० पं० पृ०३२७ । २ बाह्येन्द्रियैर गृहीत सुखादिप्रायान्तरभावाच्चान्तःकरणम् । प्रशस्त० पृ०४११ । तथा सुखादयः करणपरिच्छेयाः ग्राह्यत्वाद् रूपादिवत् । व्यो० पृ०४२५ । अर्थप्रवणस्वभावाच्च संवेदनादत रूपस्य सुखादेरध्यक्षेण भेदग्राहिणा बाधितविषयत्वात् अभेदसाधनस्य । सुखादौ ज्ञानप्रतिमासानुवृत्त्यभावेन च तद्विशेषानुपपत्तेः सर्वथा तदभिन्नहेतुजत्वस्यासिद्धेः । न्यायकलानिधि० पृ०१६७ | 'सुखं ज्ञानात्मकम्' इति बौद्धमतस्य निराकरणमनेकेन कृतमस्ति । द्रष्टव्यम् – अष्टस० पृ० ७८; स्या रत्ना० पृ०१७८, न्यायकुमु० पृ०१२९, तात्पर्य० पृ०१२३ । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का०पृ०७२, वि० पृ०७६ क्वचित् तु सङ्कल्पोऽपीति । यत्र भाविनं रूयादिसङ्गमं चित्ते सङ्कल्पयति । आनन्दस्वभावमपि विषयं व्यभिचरत्येवेति । सुखजनकमन्त्र विषयत्वेन विवक्षितम्, सुखस्य तदालम्बनत्वेनोत्पादात् । ४८ I प्रत्यक्षं प्रत्यक्षमित्येतावन्मात्रमभिधेयमिति । सामान्यलक्षणापेक्षित्वाद् विशेषलक्षणस्य । अक्षं प्रति गतं जन्यत्वेन प्रत्यक्षम् । तत्र यतः प्रमाणात् फलमुत्पद्यते तत् प्रमाणं प्रत्यक्षम् । तच्च फलं ज्ञानमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं च भविष्यति तथाविधफलजनकस्यैव प्रमाणत्वस्य सामान्यलक्षणे प्रतिपादितत्वात् । शब्दकर्मतापन्नं ज्ञानमिति । 'रूपज्ञानम्' इत्यादेः शब्दस्य कर्मतामभिधेयतामापन्नम् । नन्दिकुण्डमिति । तीर्थविशेषाख्या । यथा दण्डीति शुक्ल इति । केवलपुरुषपटप्रत्ययापेक्षयाऽत्र सातिशयत्वम्। [42B]। ननु वाचकः स उच्यते यो वाचकत्वेन गृहीतः, सङ्केतकालभावी च वाचकवेन गृहीतः, स चेदानीं नास्तीत्याह - ननु सङ्केतावगमसमय इति । 'संज्ञित्वं केवलं परम्' इति । “यथा रूपादयो भिन्नाः प्राक्छब्दात् स्वात्मनैव तु । गम्यन्ते तद्वदेवेदं संज्ञित्वं केवलं परम् ॥” इति परिपूर्णं वार्त्तिकम् [ श्लो० वा० प्रत्यक्ष ० १७५] । यद्वद्रूपादयः सम्बन्धग्रहणात् पूर्वं विविक्ततया शब्द विविक्तेन रूपेणोपलभ्यन्ते तद्वद् गोत्वाद्यपि, सविकल्पकज्ञाने केवलं संज्ञित्वं प्रतिभासत इति वार्तिकार्थः । अनेन तु " संज्ञित्वमिति वदता 'वाचकविशिष्टवाच्यप्रतिभासः सविक १ भयं तु तेषामाशयः रूपादिविषयग्रहणाभिमुखं हि तदक्षजं ज्ञानं प्रमाणं वा फलं वोच्यते; यदा तु तदेव शब्देनोच्यते 'रूपज्ञानम्, रसज्ञानम्' इति तदा रूपादिज्ञानविषयग्रहण व्यापारलभ्यां प्रमाणतामपहाय शब्दकर्मतापत्तिकृतां प्रमेयतामेवावलम्बत इति न तस्यां दशायां तत्प्रमाणमिति । न्या० मं(का० ) पृ०८२, (वि०) पृ०८७ । यावदर्थ वै नामधेयशब्दास्तैरर्थं सम्प्रत्ययः, अर्थ सम्प्रत्ययाश्च व्यवहारः । तत्रेदमिन्द्रियार्थसन्निकर्षादुत्पन्नमर्थज्ञानं 'रूपम्' इति वा, 'रसः' इत्येवं वा भवति, रूपरसशब्दाश्च विषयनामधेयम् तेन व्यपदिश्यते ज्ञानं--रूपमिति जानीते, रस इति जानीते, नामधेयशब्देन व्यपदिश्यमानं सत् शाब्दं प्रसज्यते । अत आह--अव्यपदेश्यम् । न्यायभा० १.१.४. न्यायभाष्यकारः मतस्यास्य पुरस्कर्ता इति म०म० फणिभूषणा अपि मन्यन्ते । F Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०७८, वि०पृ० ८३] न्यायमञ्जरीप्रन्थिमङ्गः ल्पकज्ञानजन्यः' इत्यभ्युपगतं बलाद् भवति" इत्यभिप्रायेण ज्ञापकतयोपन्यस्तम् । कृत-तद्धित-समासेषु सम्बन्धाभिधानम् । 'पाचकत्वौपगवत्वराजपुरुषत्वादौ कृत्तद्धित-समासेषु सम्बन्धाभिधानमन्यत्र रूढचभिन्नरूपाव्यभिचरितसम्बन्धेभ्यः' इति' परिपूर्ण वार्तिकम् [ ] । तेन सत्यपि कृच्छब्दत्वे कुम्भकारत्वमित्यादौ न सम्बन्धाभिधानम् , जातिरेव तत्र स्वत्ययाभिधेया; रूढिशब्दत्वात् संज्ञाशब्दत्वादस्य । शुक्लगुणव्याप्तः शुक्ल इति मत्वर्थीय[43A]प्रत्ययलोपपक्षे शुक्लस्य भावः शुक्लत्वमिति न गुणसम्बन्धाभिधानम् , अपि तु द्रव्यादभेदरूपेणास्य शुक्लशब्दस्य प्रवृत्तेर्गुणमात्रवाचित्वमेव । एवं सतो भावः सत्तेत्यत्र पदार्थानां सत्तासम्बन्धेनाव्यभिचारान्न तत्सम्बन्धोऽभिधेयोऽपि तु सत्तैव । भोः साधो ! चक्षुरेवैनं ग्रहीष्यतीति कथं न ब्रप इति । अनेन वरं चाक्षुषत्वमस्याभ्युपगम्यतां न त्वत्यन्तासम्बध्यमानं शाब्दत्वमिति । प्रौढवादितया स्वयं शब्दविशिष्टार्थप्रतिभासम्-अभ्युपगमेनापि-प्रतिपादयति । निर्विकल्पकविज्ञानविषये न च तद्ग्रहः । निर्विकल्पके शब्दविशिष्टस्यार्थस्य तद्वाच्यस्याप्रतिभासात् , चक्षुषः शब्दाविषयत्वात् । शाब्दज्ञानेन तबोध इति । शब्दात् तदनुरक्तार्थप्रत्यये तेनार्थेन शब्दस्य सम्बन्धग्रहणम् , गृहीतसम्बन्धश्च शब्दोऽर्थ प्रत्याययतीतीतरेतराश्रयता । प्रत्यक्षास्त्रेण हन्तव्य इति । अयं भावः । 'यदि अर्थासंस्पर्शिनः शब्दास्तत्प्रत्यक्षमप्यर्थासंस्पर्शि प्राप्तम्, तत्समानविषयत्वाच्छब्दानाम्' इत्युक्ते प्रत्यक्षस्यार्थासंस्पर्शित्वानभ्युपगमान्निवतेत बौद्धः। तत्र निर्विकल्पकं तावा43B] समानविषयं न भवति वाच्यताविशिष्टार्थप्रतिभासस्य भवन्मते शब्दजत्वात् , तादृशस्य चार्थस्य निर्विकल्पकाविषयत्वात् ; सविकल्पकं च न प्रत्यक्षं तवेति । ___ अनेन वर्त्मनाऽवतरन्तं शब्दाध्यासमिति । किल सति गौरयमित्यादिके शब्दोल्लेखेनोत्पद्यमाने ज्ञाने सामान्यादयोऽवभासन्ते, असति तु शब्दोल्लेखेन ज्ञाने नावभासन्ते; अतः शब्दवशादवभासमानास्ते कथं न शब्दाकाराः स्युः । १ उद्धृतमिदं न्यायकणिकायाम् पृ०२७)। तुलना-एतेन सर्वे यौगिकाः कृत्-तद्धितसमासेषु व्याख्याताः । सर्वत्र हि भावप्रत्ययः सम्बन्धमभिधत्ते । राजपुरुषत्वमौपगवत्वं पाचकत्वमिति । तन्त्रवा० ३.१.६। २ द्र. वाक्यप० १.११.१२३। ये यदाकारानुस्यूताः ते तन्मयाः ...."शब्दाकारानुस्यूताश्च सर्वभावाः इति स्वभावहेतुः । यतः प्रत्यक्षत एव सर्वार्थानां शब्दाकारानुगमः सिद्धः । तथाहि-शब्द एव प्रत्ययोऽर्थेषूपजायमानः शब्दोल्लेखानुगत एवोपजायते । यथोक्तम्-'न सोऽस्ति वर्तते ॥इति॥ ज्ञानाकारनिबन्धना च वस्तूनां स्वभावप्रज्ञप्तिः । अतः सिद्धमेषां शब्दाकारानुस्यूतत्वं तस्सिद्धौ च तन्मयत्वमपि सिद्धमेव, तन्मात्रभावित्वात् तन्मयत्वस्येति । तत्वसं०५० पृ०६७-६८ । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भश्रीचक्रधरप्रणीतः [का००७९, वि०पू०८४ मतः शब्दाकारा एवामी सामान्यादयोऽर्था अध्यस्ताः प्रतिमासन्ते न पुनर्बहिः सन्ति । यथा रक्तः स्फटिकमणिरिति प्रतीतिः सति लाक्षासन्निधाने समुत्पपतेऽन्यथा नेति तद्वशाल्लाक्षारूपाध्यारोपः स्फटिके कल्प्यते । एवं शब्दवशात् समुत्पद्यमानानां सामान्यादिप्रत्ययानां शब्दाकारसामान्यादिरूपाध्यारोपोऽर्थे कल्प्यतामिति पर्यनुयुक्तैभवद्भिरिदमेवोत्तरं वक्तुं शक्यम् -- "सविकल्पके ज्ञाने शब्दरहितस्यार्थस्यावसासनम् , शब्दस्तु तत्र चक्षुरादिवदुपाय एव, न तु सोऽपि तत्र प्रतिभासतेऽतः प्रतिभासमानानां सामान्यादीनां कथमप्रतिभासमानशब्दाकारताकल्पना[44A] सम्भवति" इति तदिदानीमित्थं शब्दविशिष्टार्थप्रतिभासेऽङ्गीक्रियमाणे विघटते । कथम् ? अर्थवच्छब्दस्यापि यदि प्रतिभासोऽभ्युपगम्यते तदानीं शब्दस्याप्रतिभासमानत्वे यच्छब्दाकारत्वनिराकरणं सामान्यादीनां कृतं तन्नैव कर्तुं शक्यत इति । पुनरनेन मार्गेणावतरत् केन वार्यते शब्दाध्यास इति । एवं चेदं शब्दाध्यासपक्षावतरणं विश्वरूपटीकातो' व्यपदेश्यपदं व्याचक्षाणैः भट्टश्रीशशाङ्कधरपादैर्व्याख्यातम् । ग्रन्थकारस्त्वपवर्गाह्निके स्वाभिप्रायेण शब्दाध्यासस्वरूपं प्रपञ्चयिष्यति । शब्दाकारस्य सामान्यादेरर्थे न्यासः समारोपः शब्दाध्यासः । चयस्त्विषामिति । विभुर्हरिरम्बरात् खादवतरन्तं मुनि क्रमान्नारद इत्यनेन विशेषेणाबोधि बुद्धवान् । यः पूर्व दूरतया स्पष्टग्रहणाभावे सति त्विषां चयस्तेजसा पिण्ड इत्यवधारितः, पुनः किञ्चिन्निकटतया शरीरितया ज्ञाताकारम् , ततोऽपि नैकट्यादवयवविभागावबोधात् पुंस्त्वेन नितिम् , ततोऽप्यतिनैकट्यान्नारद इत्येवमबोधि । स एव विषयोऽवभासते अविशिष्ट एव भासत इत्यर्थः । निःसन्धिबन्धनस्य शुद्धपुरुषप्र[44B]त्ययप्रतिभास्यादविभक्तस्वरूपस्य । प्रैषानुवचनस्य वचनान्तरतः प्राप्तेरिति । 'मैत्रावरुणः प्रैष्यति चानु चाऽऽह' इति वचनान्तरेण यत् प्राप्तं प्रैषानुवचनं तदनूद्य दण्डित्वं विधीयते, यत् प्रैषानुवचनं मैत्रावरुणेनविजा कर्तव्यं तद् दण्डिना यजमानतः प्राप्तदण्डहस्तेन कर्तव्यम् । पशुयागेऽध्वयुणा अग्नये छागस्य वपाया मेदसः प्रेष्येति, एवं प्रेषितो मैत्रावरुणो यत् 'होतर्यज' इति प्रतिप्रेषणं करोति तत् प्रैषानुवचनम् , तदेव 'श्रेष्यति चानु चाऽऽह' इति अत्र प्रेष्यतीत्यनेन विहितम्, न केवलमेवंभूतं प्रैषानुवचनमसौ करोति इति यावदनु चाऽऽह अन्वाह च अनुवाक्यामप्यसावेव पठतीत्यर्थः । प्रकृति १ धर्मोत्तरप्रदीपे (पृ.१७५) विश्वरूपटीका उद्धृता सा न्यायभाष्यटीका इति प्रदीपकारदुर्वेकमित्रेण तत्र स्पष्टीकृतम् । २ शिशुपालवधे १.३ । ३ द्र० शा०भा० ३.७.२१. । जै०न्या०मा० ३.७.२१. ।। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०८४, वि०पृ०८९] न्यायमञ्जरोग्रन्थिभङ्गः वद्भावेन प्राप्तानामिति । सोमप्रकृतित्वाद् एवं भूतानामव्य [ 45A]क्तयागानां श्येनादीनां प्रकृतिवद्भावात् षोडश ऋत्विजः प्राप्ता एव; तान् प्राप्ताननूय लोहितोष्णीषता तेषां विधीयत इति । संज्ञाकर्मोपदेशीति । संज्ञासंज्ञिसम्बन्धक्रिया संज्ञाकर्म' । गत्यन्तरमपि सम्भवतीति । यत्र वृद्धोक्तं वाक्यमुपलभ्य परः प्रवर्ततेऽन्यश्च तटस्थ एवं शब्दार्थे व्युत्पद्यते - अमुष्माच्छन्दादवगतादत्रायं प्रवृत्तः, तन्नूनमस्यायमर्थ इत्यादिप्रकारेण । एवमस्त्विति चेच्छान्तमिति । शान्तम् मा भूदेवममङ्गलमेतदित्यर्थः । तत्राप्यनेन न्यायेन शाब्दता न निवर्तत इति । तत्रापि यस्मादन्यं वृद्धं प्रत्युदीरिताद् वृद्धवाक्याद् यत्रार्थे तस्य व्युत्पत्तिर्ज्ञाता, तदर्थग्रहणकाले तस्य वाक्यस्य स्मरणात् । सम्बन्धस्त्रिप्रमाणक इति । शब्दवृद्धाभिधेयांस्तु प्रत्यक्षेणैव प[45B]श्यति । श्रोतुश्च प्रतिपन्नत्वमनुमानेन चेष्टया ॥ अन्यथानुपपत्त्या च वेत्ति शक्ति द्वयाश्रिताम् । अर्थापत्यावबुध्यन्ते सम्बन्धं त्रिप्रमाणकम् || इति || [ श्लो० वा० सम्बन्धाक्षेपपरिहार, १४०-४१] ५१ चेष्टया प्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणयाऽनुमानेनानुमानभूतया । प्रमाणत्रयावगम्यत्वेऽपि सम्बन्धस्यार्थापत्तेः साक्षाद् व्यापारादितरयोस्तदुपकारत्वेन 'अर्थापत्त्याऽवबुध्यन्ते' इत्युक्तम् । कर्तृकरणव्यतिरिक्तं ज्ञानजनकमिति । ज्ञानजन्मनि कारकत्रयव्यापारोपलम्भाच्छुक्तिकायाः कर्तृकरणरूपतानन्वयादवश्यं कर्मतया विषयत्वेनाऽऽलम्बनत्वेनान्ययो वाच्य इति । क्वचित् सदृशविज्ञानमिति । यथा मरीचिषु जलज्ञाने । कामशोकादयः पुरोऽवस्थितस्त्र्यादिदर्शने । कुदर्शनाभ्यास बौद्धादिदर्शनाभ्यास आत्मादौ नास्तिताज्ञाने । चक्षुषस्तिमिरं द्विचन्द्रादिज्ञाने । निद्रा स्वप्नज्ञाने । चिन्ता यमर्थ चिन्तयति तत्प्रत्यक्षतया पुरोऽवस्थितमिव गृह्णाति । धातूनां पित्तादीनां विकृतिः शर्करादेस्तिक्ततादिज्ञाने । ननु जाततैमिरिकस्येहजन्मनि घटादिगतस्य द्वित्वस्याऽननुभवात् स्मरणाभावाद् द्विचन्द्रादिज्ञानानुत्पाद इत्याशङ्क्याह- अलक्ष्यमाणे तद्धेताविति । इदमेवोत्तरश्लोकेन 'बालस्येन्दुद्वयज्ञानमस्ति नास्ति' इत्यादिना व्यनक्ति । यद्यपीहज१ संज्ञाकर्म त्वस्मद्विशिष्टानां लिङ्गम् । प्रत्यक्षपूर्वकत्वात् संज्ञाकर्मणः । वै० सू० २.१.१८-१९ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का०पृ०८४, वि०पृ०८९ न्मनि[46A] नानुभवस्तथापि जन्मान्तरानुभूतस्य' अदृष्टवशादनुस्मरणमिति तात्पर्यम् । अलक्ष्यमाणे वा स्वशिरश्छेदादावनुभवाभावाददृष्टस्य कारणता। ननु जाततैमिरिकस्यापि तिमिरमेव मिथ्याज्ञाने हेतुः । सत्यम्, तत्तु तिमिरं द्वित्वस्मरणद्वारेण जनकम् , तस्य स्मरणं चानुभूते भवति, न च जातमात्रस्येहजन्मन्यनुभवोऽस्ति । अथ तिमिरमेव जन्मान्तरानुभूतस्मरणहेतुः कस्मान्न कल्प्यते । न, दृष्टस्य हेतोर्जन्मान्तरानुभूतस्मरणसामर्थ्यकल्पनायामननुभूतरजतस्यापीहजन्मनि शुक्तिकायां सादृश्यजनितजन्मान्तरानुभूतरजतस्मरणे सति रजतज्ञानं स्यात् , न च दृश्यते । अतः अदृष्टमेव जन्मान्तरानुभूतस्मरणजनकत्वेन कारणं कल्प्यम् , यत्र कार्यं च दृश्यते न च तदनुगुणकारणं तत्र सर्वत्रादृष्टस्यैव कारणत्वात् , अग्नेरू ज्वलनादौ । नन्विदमत्र कारणमिदं चात्रेत्यत्र किं प्रमाणम् ? तदाह-नूनं नियमसिद्धयर्थमिति । यदि हि अजनकं प्रतिभासेत तदजनकत्वाविशेषाद् यत्किञ्चित् प्रतिभासेत; शुक्तिकायां घटोऽपि प्रतिभासेत, रजतवत् तस्याप्यजनकत्वादिति । स्मृत्यनुमानागमेति । स्मृत्यादीनां बाह्य करणव्यापारोपरमेऽप्युपलम्भात् , अकरणस्य चात्मनस्तज्जन्मनि बाह्यविष[46B] यज्ञान इव सामर्थ्यादर्शनात् करणं कल्प्यम् , तच्च मन इति । योगरूढिस्तु नसम्मतैवेति । या पङ्कजादिषु कैश्चिदभ्युपगता तस्या दूषणं स्वयमप्याह-यत्रापि हि द्वयं दृश्यत इत्यादिना । अव्ययीभावव्याख्यानमिति । अक्षमक्षं गतं प्रत्यक्षमिति वीप्सायामव्ययीभावः । 'प्रत्यक्षेण प्रत्यक्षादिति १ जन्मान्तरागतं व्युत्पन्नसङ्केतं मनोऽस्ति बालानाम्...मनो०२४३। इतिकर्तव्यता लोके सर्वा शब्दव्यपाश्रया । यां पूर्वाहितसंस्कारो बालोऽपि प्रतिपद्यते ॥१.१२३॥ वा० प० । भतीतभवनामार्थभावना वासनान्वयात् । सद्योजातोऽपि यद्योगादितिकर्तव्यतापटुः ॥१२१६॥ तत्त्वसं० । २ अग्नेरूर्वज्वलनं वायोश्च तिर्यकूपवनमणुमनसोश्चार्य कर्मेत्यदृष्टकारितानि । वै० सू० ५. २. १४.। विभुत्वं चात्मनो वझेरूद्धज्वलनाद् वायोस्तिर्यग्गमनादवगतम् । ते ह्यदृष्टकारिते।...यस्य कर्मणो गुरुत्वद्रवत्ववेगा न कारणं तस्यात्मविशेषगुणादुत्पादः, यथा पाणिकर्मणः परुषप्रयत्नात . ऊवज्वलनतिर्यकपवनादीनां कर्मणां गुरुत्वादयो न कारणमभावात्, तत्सत्कार्यविपरीतत्वाच्च । तस्मादेतेषामपि आत्म विशेषगुणादेवोत्पादो न्याय्यः । न्या. कं० प्र०२१३-२१५। ३ न्यायभा० १.१.१५। ४ यत्र योगार्थान्वितरूढयर्थावबोधः तत्र सर्वत्र योगरूढिः; यौगिकार्थबुद्धिरूपसहकारिलाभात् विशिष्टार्थोपस्थापकावं रूढेोगरूढित्वम् । न्या. सि० दी० पृ० ४८ । ५ पङ्कजादिपदानां योग एव इत्येके वदन्ति, रूढिः इत्यपरे वदन्ति, रूढिः इति गौतमीयाः आहः । न्या. सि. दी० प्र० ४२ । ६ अक्षस्याऽक्षस्येति भाष्यमनुभाष्य तात्पर्यमाह-अयं च सूत्रविवक्षायामिति । अक्षमक्षं प्रति वर्तत इति विगृह्याव्ययीभावे कृते सर्वेन्द्रियावरोधो भवति । ननु यदीडशो विग्रहः कस्मात् पुनर्भाष्यकारेणाऽक्ष. Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०८६, वि०पृ०९२ ] न्यायमज्जरी ग्रन्थिभङ्गः दर्शनात्' इति नापपाठ: एतयोरव्ययीभावेऽपि सम्भवात् । 'अपञ्चम्याः' इति पञ्चम्या अमादेशप्रतिषेधात्, 'तृतीयासप्तम्योर्बहुलम्' इति [ पाणिनि २ ४ ८४] च तृतीयासप्तम्योर्बहुलवचनात् । अतः 'प्रत्यक्षस्य प्रत्यक्षयोः' इत्यादि पठनीयम् । ननु च प्रतिगतमक्षं प्रत्यक्षम् ' अत्यादयः क्रान्ताद्यर्थे द्वितीयया' इति [वार्तिक १. ४. ७९] तत्पुरुषाश्रयणात् परवल्लिङ्गतायां प्रत्यक्षो बोध इत्यादि न स्यात् । उच्यते--‘द्विगुप्राप्तापन्नालंगतिसमासेषु परवल्लिङ्गतानिषेधादभिधेयलिङ्गतैव भवति, प्राप्तो जीविकां प्राप्तजीविक इतिवत् । ५३ अभिलापसंसर्गेति । अभिलप्यतेऽने[47A] न ह्यभिलापः शब्दस्तेन संसर्गः सम्बन्धस्तयोग्यः सामान्याकारः प्रतिभासतेऽस्यामित्यभिलापसं सर्गयोग्यप्रतिभासा । बालों हि यदा स्तनं पूर्वोपलब्धस्तनैक्येन न गृह्णाति न तदा रोदनादिपरिहारेण तत्र मुखमर्पयति, अतः शब्दसंसर्गाभावेऽपि तद्योग्यत्वात् प्रतिभास्यस्य तद्ग्राहिज्ञानस्य कल्पनात्वसिद्धये योग्यग्रहणम् । तमन्तरेणापि भावात्, आभोगादाविति शेषः; आभोगादौ हि इन्द्रियसम्बन्धं विनापि नानार्थकल्पना जायन्ते । 3 यः प्रागजनक इति । योऽर्थः प्रथमेन्द्रियसन्निकर्षकाले सविकल्पकस्य न स्याsक्षस्येति विगृह्यत इत्यत आह- अन्यथा तु वस्तुनिर्देश इति । अर्थमात्रमनेन प्रतिपाद्यते न पुनः समास इत्यर्थः । न्या०वा०ता०टी० पृ० १०१ । १ 'नाव्ययीभावात् अतः अम् तु अपsaम्याः' पाणिनि २. ४. ८३ । २ 'द्विगुप्राप्तापन्नालं पूर्व गतिसमासेषु प्रतिषेधो वाच्यः' वार्तिक २.४.२६। ३ अभिलापसंसर्गयोग्यप्रतिभासा प्रतीतिः कल्पना । न्या०बि० १.५ । तत्र चित् प्रतीतिरभिलापसंसृष्टाभासा भवति । यथा व्युत्पन्नसङ्केतस्य घटार्थकल्पना घटशब्दसंसृष्टाभासा भवति । काचित्तु अभिलापेनासंसृष्टापि अभिलापसंसर्गयोग्याभासा भवति । यथा बालकस्यान्युत्पन्नसङ्केतस्य कल्पना ||... बालोऽपि हि यावद् दृश्यमानं स्तनं ' स एवायम्' इति पूर्वदृष्टत्वेन न प्रत्यवमृशति तावन्नोपरतरुदितो मुखमर्पयति स्तने । पूर्वदृष्टापरदृष्टं चार्थमेकीकुर्वद् विज्ञानमसंनिहितविषयम्, पूर्वदृष्टस्यासंनिहितत्वात् । असंनिहितविषयं चार्थनिरपेक्षम् । अनपेक्ष च प्रतिभासनियम हेतोरभावादनियत प्रतिभासम् । तादृशं चाभिलापसंसर्गयोग्यम् । न्या०बि०टी० १. ५. । तुलना — उत्पन्नमात्रस्य हि बालकस्य स्तनं दृष्ट्वा प्राग्भवी प्रस्तज्जातीयापेक्षितानुभवजनितः संस्कार आविरस्ति । ततश्च स्मरणम्, ततोऽपेक्षितोपायतानुमानम्, ततः प्रवृत्तिः, ततः तस्याः सामर्थ्यम् । न्या०वा०ता०टी० पृ० १३ । ४ चित्तस्याभोगो मनस्कारः पूर्वानुभूतादिसमन्वाहारस्वरूपः । अभि० दी० पृ० ७० । मनस्कारश्चेतस आभोगः । आभुजनमाभोगः । आलम्बने येन चित्तमभिमुखीक्रियते । स पुनरालम्बने चित्तधारणकर्मा । चित्तधारण पुनस्तत्र आलम्बने पुनः पुनश्चित्तस्याssवर्जनम् । त्रिशिकावि० भा० ३ । मनस्कारः कतमः ? चेतस आभोगः । आलम्बनचित्तधारणकर्मकः । अभि० समु० पृ० ६ । ५ प्र० वि० पृ० ४२ । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः का०पृ०८६, वि०पृ०६२ जनकः स पश्चादप्यजनक एव । तस्य हि तज्जन्मन्युपयोगो योग्यदेशावस्थितत्वम् , स च प्रागप्यस्ति; प्राक् चेदजनकः स पश्चादप्यजनक एव । अतोऽर्थाभावेऽपि नेत्रधीः। नेत्रघोरूपतया भवदभिमता सविकल्पिका बुद्धिर्भवेदिति । अर्थोपयोगेऽपीति' । अर्थस्योपयोगेऽपि योग्यदेशा[47B]वस्थितत्वेऽपि यदि स्मर्यमाणशब्दसंपर्कमपेक्षेत तज्ज्ञानम् , तदा सोऽर्थो व्यवहितो भवेत् । स्मरणजन्मन्येव तस्य व्यापृतत्वात् तज्जन्मनि पुनरव्यापरणं व्यवधानम् । लौकिकी स्थितिमिति । हस्तस्थदण्डे दण्डी न पादाद्याक्रान्तेऽपीति सङ्कल्प्य संयोज्यैकत्र तथा प्रत्येति दण्डीति उच्यते । ननु तथाविधे दण्डीत्यादौ कल्पनाज्ञाने यदुपलब्धं रूपम् कीदृक् तदुपलब्ध. मित्याह-सकेतस्मरणोपायमिति । दृष्टसंकलनात्मकं पूर्वदृष्टस्य दृश्यमानेन सह संयोजनात्मकम् । एकस्यार्थस्वभावस्येति । एकस्य निर्भागस्य । प्रमाणैरिति । सविकल्पकैः प्रत्यक्षर्भवदभिमतैरनुमानैश्च । यदि हि प्रत्यक्षेणैवानित्यत्वादिसकलविशेषच्छुरितः शब्दो गृहीतस्तत् 'अनित्यः शब्दः कृतकत्वात्' इत्यनुमानेन किं कार्यमित्यर्थः ।। जातिजातिमतोभदो न कश्चिदिति । न व्यक्तेर्व्यतिरिक्ता जातिरुपलभ्यते, तदुक्तम्-'अयं गौः' इति हि लौकिकाः प्रतिपद्यन्ते, न 'इदं गोत्ववद् द्रव्यम्' इति भेदेन । आत्मानं नो दर्शयति, एषोऽहमस्माद् व्यतिरिक्त इति । ननु ज्ञानानां निर्विषयत्वाभावाद् भिन्नसामान्याभावे कथं सामान्याका[48A] रज्ञानादय इत्याशझ्याह-व्यक्तिविषया एवैत इति । न तमे(तेनै ?)कश्चोधो भवति । नासौ दोष एकस्य वाच्यः । इन्द्रियालोकमनस्कारेति । मनस्कारः समनन्तरप्रत्ययः । न शब्दोऽस्यामर्थारूढोऽवभासते इत्यध्यासपक्षः । स्वरूपादप्रच्युतस्यासत्याकारोपग्रहो विवर्तः - स्वप्न इत्यविज्ञातस्य स्वापाकारापरित्यागेनासत्यगजाश्वाकारोपग्रहः । १ प्र० वि० पृ० ४२। २ प्र० वा० २.१४५ । ३ प्र० वा०२. १७४ । ४ प्र० बा० ३. ४२। ५ द्र. टि०४. पृ०५३। ६ समश्चासौ ज्ञानत्वेन, अनन्तरश्चासौ अव्यवहितत्वेन, स चासौ प्रत्ययश्च हेतुत्वात् समनन्तरप्रत्ययः । न्या०बि०टी० पृ०५९ । धर्मो०प्र० पृ०५' । मनस्कारो हि विज्ञानस्योपादान कारणम् । हे०बि०टी० पृ०९४ । 'समनन्तर'शब्दः समश्चासौ बोधरूपत्वेनानन्तरश्चापवहितेनेति व्युत्तस्यापि प्रकृतत्वान्मनस्कार एव द्रष्टव्यो न स्वागमसिद्धयाश्रयणेनोपादानमात्रे, उपादानलक्षणस्यैवाभिधानात् शकन्भ्वादिपाठाच्च दीर्घत्वाभावोऽवसेयः । हे०बिष्टी०आ० पृ० ३३३ । चित्तचैत्ता अचरमा उत्पन्नाः समनन्तरः। अभि० को० २.६२ । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ९९२, वि०पू०९९] न्यायमञ्जरीनन्थिमङ्गः महासामान्यमन्ये विति' । ब्रह्मविदां हि सद्रूपतायाः सर्वत्राव्यभिचारात् सैव पारमार्थिकी प्रत्यक्षमाह्या न भेदाः, तेषामपारमार्थिकत्वात्, यथा घटादौ मृदूपतैव सत्यं न विकाराः, तेषामादावन्ते चासत्त्वेनासद्भिस्तुल्यत्वात् । तथा च श्रुतिः 'वाचारभ्भणं नामधेयं विकारो मृत्तिकेत्येव सत्यम्' इति [छादोग्य उप०६.१.४.] । मृद्रूपतापि यदाऽपगच्छति तदा सन्मात्रमनुग्लिखितविशेषमवतिष्ठत इति तदेव सन्मानं सत्यम् , न च भेदः प्रत्यक्षस्य विषयः, तस्येतरेतराभावरूपत्वेन प्रत्यक्षाविषयत्वात् तदुत्तरकालभाविनां तु विशेषग्राहिणां विकल्पानामप्रामाण्यात् । वाक्तत्त्वमपर इति । यथा हि ब्रह्मविदां सर्वत्र सद्रूपताया अव्यभिचारेण परमार्थसत्त्वा[48B]न्निर्विकल्पकग्राह्यत्वमभिमतं तथैव शाब्दैरपि सर्वत्र प्रत्यये शब्दरूपताया अनुगमात् तस्या एवासत्याकारोपग्रहरूपविवर्तरूपत्वाद् रूपादीनां परमार्थासत्त्वादि] वाक्तत्त्वं शब्दतत्त्वं सैव प्रत्यक्षविषयत्वेनोक्ता । तथाहि भेदानां तद्विवर्ततया तैरसत्यत्वं प्रतिपादितम् । यदाहुः अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतत्त्वं यदक्षरम् । विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः ॥ [वाक्य० १. १] यथा विशुद्धमाकाशं तिमिरोपप्लुतो जनः । सङ्कीर्णमिव मात्राभिश्चित्राभिः प्रतिपद्यते ॥ तथेदममलं ब्रह्म निर्विकारमविद्यया । कलुषत्वमिवापन्नं भेदरूपं प्रतीयते ॥ [ बृहदा ०भा०वा० ३.५. ४३-४४] विजातीयपरावृत्तिविषया यदि कल्पनेति । अयं भावः-सजातीयविजातीयव्यावृत्तिरूपं हि स्वलक्षणम् , तन्नागृहीतायां सजातीयविजातीयव्यावृत्तौ प्रत्यक्षेण गृहीतं भवति । गृहीतं चेद् विजातीयव्यावृत्तिरपि सामान्यरूपतया भवदभिमता गृहीतैवेति कथं स्वलक्षणैकविषयं निर्विकल्पकम् ? शबलं वस्तु निर्विकल्पकग्राह्यं ये मन्यन्ते तान् प्रत्याह-चित्रतापि पृथग्भूतैरिति । नित्यं तत्त्वानुपग्रहात् । 'गोगों[59A]त्वम्' इत्याद्यपि दर्शनात् । अथ तादात्म्येऽपि धर्मधर्मिणो बुद्धया निष्कृष्य पृथक्कृत्य अंशा धर्मा व्यपदिश्यन्ते 'गोगोत्वम्' इत्यादौ तदाह-अंशनिष्कर्षपक्षे विति । न ह्यसति भेदे निष्कर्षः कर्तुं शक्यतेत्यभिप्रायः । अथ मन्येत केनांशनिष्कर्षपक्षोऽभ्युपगत इति तदाह १ महासामान्यभन्यैस्तु ...। प्रलो वा प्रत्यक्ष. ११४ । वेदान्तवादिनस्तु महासामान्य निर्विकल्पकस्य विषयमाहुः। उम्बेकटी०। २ तुलना-न ह्यन्यतः स्वार्थमव्यवंच्छिन्दत् प्रत्यक्ष परिच्छिनत्ति....। सिद्धिवि० पृ० १४७ । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ यस्य यत्र यदोद्भूतिरिति । भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः यस्य यत्र यदोद्भूतिर्जिघृक्षा वोपजायते । वेत्यतेऽनुभवस्तस्य तेन च व्यपदिश्यते ॥ [ श्लो० वा० अभाव० १३ ] इति भट्टश्लोकः । तत्रोद्भवः प्रमेयधर्मः, जिवृक्षा प्रमातृधर्मः । यदा सजनं गृहमसकृदुपलब्धवतो निर्जनगृहदर्शनं तदा 'नास्यत्र कश्चित्' इत्येवंरूपज्ञानजननयोग्यस्याभावांशस्योद्भवः, यदा त्वपूर्वमेव प्रदेशविशेषं पश्यति तदा 'कोऽत्रास्ते' इति एवंरूपप्रतीतिसमर्थस्य भावांशस्योद्भवः । अयमसौ भावाभावांशयोः प्रमेयधर्मयोरुद्भवः । जिघृक्षा तु यदा निर्जनप्रदेशार्थी तदा अभावांशस्य ग्रहणम्, यदा तु शीताद्यात गृहं मृगयते तदा भावांशस्येति । चेत्यतेऽनुभवस्तस्यैवांशस्य, तत्प्रकटताया एवोद्भवात् ; तेनैव चांशेनासौ पदार्थों व्यपदिश्यत इति । [ का०पृ०९२, वि० पृ०९९ तिमि [49B] राशुभ्रमणेति । संक्षोभो वातादिसम्बन्धी ज्वलत्स्तम्भादिदर्शनहेतुः । तिमिराशुभ्रमण नौयानसंक्षोभैराहितो विभ्रमो यत्र । भवतु मतिमहिम्न इति । भवतु आस्तां तावत् । यदेतंम् न्यायमार्ग तुलारूढं जगदेकत्र यन्मतिः । जयेत् तस्य क गम्भीरा वाचोऽहं जडधीः क च ॥ [ हे०बि० टी० पृ० १ ] इत्यादि स्तुतिवाक्यैरर्चटादिरचितैर्जगदभिभवधीरं चेष्टितं धर्मकीर्तेः सम्बन्धिनो मतिमहिम्नः कथ्यते तदेतद् दृष्टमिति योजना, न किञ्चिदेतदिति तात्पर्यम् । साम्यान्न यस्येति । तैरप्यविकल्पिकेत्यभिहितत्वात् । 'चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः' [मी० सू० १. १. १.] इति प्रकृतप्रतिज्ञा - सङ्गत्य - भावादिति । चोदनैव धर्मे प्रमाणं न प्रत्यक्षादि, यतः तदेवंलक्षणकं प्रसिद्ध मित्येवंलक्षणानुवादेन प्रकृतसङ्गतिर्भवेन्न लक्षणविधानेन ' एवंरूपं यत् तत् प्रत्यक्षं बोद्धव्यम्' इति । ' एवं सत्यनुवादत्वं लक्षणस्यापि सम्भवेत्' [ श्लो०वा० प्रत्यक्ष-सू० ३९ ]; एवंसति 'सम्यगर्थे हि संशब्दो दुःप्रयो | 50A ]गनिवारण:' [ श्लो० वा० प्रत्यक्षसू० ३८ ] इत्यादिप्रकारप्रतिपादने । १ प्रत्यक्षं कल्पनापोढमभ्रान्तम् । तया रहितं तिमिराशुभ्रमणनौयान संक्षोभाद्यनाहितविभ्रमं ज्ञानं प्रत्यक्षम् । न्या०बि०१.४,६ । २ द्र० शाबरभा० १.२.३-४ । केचिदेतत्सूत्रं द्विधा कृत्वा "सत्संप्रयोगे" इत्यादि "तत्प्रत्यक्षम्" इत्येवमन्तं प्रत्यक्षलक्षणपरत्वेनव्याचक्षते, “अनिमित्तं विद्यमानोपलम्भनत्वात्” इतीदं तस्य धर्म प्रत्यनिमित्तत्वपरत्वेन । भाष्यकारेण तु सकलमेवेद सूत्रमनिमित्तत्वपरत्वेन व्याख्यातम् । तत्र पूर्वप्रस्थानपरित्यागे कारणमाह वार्तिककारः - वर्ण्यत इति । यः प्रत्यक्षलक्षणपरमिदं सूत्रं व्याचष्टे, तेनास्य सूत्रस्य "चे दनालक्षणोऽर्थो धर्मः " इत्यन्या प्रतिज्ञया सह सम्बन्धो वक्तव्यः; न चासावस्तीत्यभिप्रायः ॥ श्लो वा० उम्बे ० टी० प्रत्यक्षस्० १ । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०९६, वि०पृ०१०३] न्यायमञ्जरीप्रन्थिमनः निरालम्बनविभ्रमाः स्वप्नादिज्ञानानि । अथ सति संप्रयोग इति 'सति'सप्तमीपक्ष एवेति । संप्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्मेति क्रियमाणे संप्रयोग इति किं सप्तम्यधिकरणे उभयस्य च भावेन भावलक्षणमिति सन्देहः स्यात् । अधिकरणसप्तमीपक्षे हि संप्रयोगविषयं यद् ज्ञानं तत् प्रत्यक्ष स्यान्न संप्रयुज्यमानघटादिविषयमिति, तन्निवृत्त्यर्थः सच्छब्दोपादानम् । सति संप्रयोगे सम्प्रयोगे सतीत्यर्थः । तथा चाह सप्तम्यैव हि लभ्येत सदर्थः कल्पना पुनः । परेषां वारणीयेति यत्नो जैमिनिना कृतः ।। (श्लो०वा०प्र०सू० ३७) इति । शुक्तिकायोगो दुष्टत्वात् 'सं'शब्देन वार्यते। कथं तस्य दुष्टत्वमिति चेत् तदाहरजतेक्षणादिति । यदप्यत्रभवानिति । अत्रभवान् पूज्यो वृत्तिकार उपवर्षः, तत्कृतसत्तच्छब्दव्यत्ययपक्षे सच्छब्दः शोभनपर्यायः 'सत्प्रत्यक्षं शोभ[50B] नं प्रत्यक्षम्' इत्यर्थः । धर्मश्च त्रिकालाऽनवच्छिन्न इति । यजेतेत्यादौ हि विधिर्भावनायाः कार्यत्वमवगमयति, तेन च कार्यात्मना रूपेण सैव भावना धर्मः, तच्चास्याः कालत्रयासंस्पृष्टं रूपम् । अयजत यजते यक्ष्यत इति धर्मे कालत्रयासंस्पर्शन तत्प्रतीतेः । न च खपुष्पादिवत् कालत्रयासंस्पर्शाद् असत्त्वम् आशङ्क्यम् , यतो न खपुष्पादीनां कालत्रयासंस्पर्शकृतमसत्त्वम् अपि तु उपलम्भकप्रमाणाभावनिबन्धनम् । प्रत्यक्षत्वमदो हेतु: शेषहेतुप्रसिद्धये इति । अस्य परमर्द्धम् -'अस्मदादौ प्रसिद्धत्वाद्योग्यर्थमभिधीयते' इति । [श्लो० वा० प्रत्यक्ष० २१] उन्दुरवैरिणो मार्जाराः । रामायणे श्रूयते इति । रामायणोक्त्या प्रामाणिकत्वमस्यार्थस्य दर्शयति, तस्य च प्रमाणत्वं प्रमाणभूते भारते तदर्थसंकीर्तनात् । शिष्टैश्च शिष्टस्मृतित्वेन परिग्रहादिति । तारतम्यसमन्वित इति । तथाहि-ये तारतम्यसमन्वितास्ते परातिशययोगिनो दृष्टा, यथाऽणुत्वमहत्त्वादयः परिमाणविशेषाः परमाणुत्वपरममहत्त्वलक्षणे परस्मिन्नतिशये प्रकर्षे विश्रान्ताः । १ असामर्थ्य च मत्वाऽस्य धृत्तिकारेण लक्षणे । तत्संप्रयोग इत्येवं पाठान्तरमुदाहृतम्॥१३॥ प्रलो. वा०प्र० सू० । किं तहि प्रत्यक्षम् ? तत्संप्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म सत्प्रत्यक्षम् । यद्विषयं ज्ञानं तेनैव संप्रयोगे इन्द्रियाणां पुरुषस्य बुद्धिजन्म सत्प्रत्यक्षम् । यदन्यविषयज्ञानमः न्यसंप्रयोगे भवति न तत् प्रत्यक्षम् । शाबरभा० १.१.५. । २ अस्ति काष्ठाप्राप्तिः सर्वज्ञबीजस्य सातिशयत्वात् परिमाणवदिति । योगभा० १. २५. । प्रज्ञातिशयविश्रान्त्यादिसिद्धेस्तसिद्धिः । प्रमो० १.१.१६. । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का० पृ०९६, वित्पृ० १०४ यत्राप्यतिशय इति । सोऽतिशयः स्वार्थानतिलङ्घनात् स्वार्थ स्वविषयमनतिलङ्घ्य दूरगं सूक्ष्मं वा स्वार्थं गृह्णातु न पुना रूपे ग्रहणं श्रोत्रव्यापारादित्यर्थः । वृषदंशो मार्जारः । सम्पातिः गृध्रराजः । 1 कामशोकभयोन्मादेति । कामशोकभयैर्यो जनित उन्मादश्चित्तवैकृत्यम् । स च चौरस्वप्नश्च तदादिभिरुपपलु [51A]ताः । यत्र स्वप्ने चौरं दृष्ट्वा सहसैव प्रबुद्धः शस्त्राण्युयच्छति स चौरस्वप्न इति धर्मोत्तरो व्याचष्टे । संस्था भ्यासोपकल्पित इति । एकस्यैव पदादेर्दशकृत्व आयुच्चारणमभ्यासार्थः, संस्था अध्येतृप्रसिद्धा । निष्प्रतिकाशमिति । निर्गतं प्रतिकाशमन्यसादृश्यं यस्मात् तन्निष्प्रतिकाशम्-अनन्यसदृशमित्यर्थः । प्रत्यूहभावनाभ्यासेति । रागादीनां मिथ्याज्ञानमूलानां प्रत्यूहो मूलविरोधित्वेन विरुद्धो यः तत्त्वज्ञानाख्यः तस्य । प्रमाणमिदमिष्यतामिति । एवंभूतस्य भवद्भिः प्रमाणतयाऽभ्युपगमात् । तदुक्तम् — "तत्रा पूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाधवर्जितम् । अदुष्टकारणारख्धं प्रमाणं लोकसम्मतम् ॥” [ प्रमाणवा० भा० पृ०२१] इति ॥ न भ्रातुर्धर्मिण इति । तत्र देशे भ्रातुरसत्त्वम्, न स्वरूपेणेत्यर्थः । अत एव नानियत निमित्तकमिति । अनियत निमित्तकत्वान्निर्निमित्तत्वम्, अतश्चाप्रामाण्यं प्रातिभस्येति तेषामभिप्रायः । ननु च आर्षाख्यस्य ज्ञानविशेषस्य प्रत्यक्षादिविलक्षणस्य धर्मविशेषाद् ऋषीणां कदाचिच्चास्मदादीनामुत्पद्यमानस्य प्रतिभात्वमुक्तम्, अतस्तस्याः कथं प्रत्यक्षत्वमित्याह-न चार्षज्ञानमिति । केचित् सि [51B] - द्धानां योगिज्ञानवद् ज्ञानविशेष उत्पद्यते तत् प्रतिभेत्याहुः, तदपि न, अस्मदादीनामसिद्धानामपि प्रतिभाया दर्शनादित्याह - - न च सिद्धदर्शनमिति । चिरस्थायीति गृह्यते इति । चिरस्थायित्वं हि भाविकालसत्त्वम्, तत् कथं प्रत्यक्षेण गृह्येति भावः । [निष्प्रतिधयुक्तिरिति ] निष्प्रतिघा युक्तिर्निर्बाधमनुमानम् । “आत्मेन्द्रियमनोऽर्थसन्निकर्षाद् यद् उत्पद्यते ज्ञानं तदन्यद् अनुमानादिभ्यः प्रत्यक्षम् " इति [वै० सू० ३ १.१३] वैशेषिकोक्तं प्रत्यक्षलक्षणम् । तत्र आत्मा मनसा संयुज्यते, मन इन्द्रियेण इन्द्रियमर्थेनेति यः सन्निकर्षः तस्मात् । इन्द्रियगति १ श्लो०वा०चोदना० ११४ । २ प्र० वि० पृ० ७४ प्र० वा० २ २८२ । . ३ प्रमाणविनिश्चयटीकायाम् । ४ आर्ष सिद्धदर्शनं च धर्मेभ्यः । वै० सू० ९ २४ । ५ बृहट्ठीका – । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ० १०३, वि०पृ०११२] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः ज्ञानमानुमानिकं यत् तथा 'अयं पनसः' इति वोभयजं ज्ञानं]' प्रत्यक्ष प्रसज्यत इति तद्व्यवच्छेदाय 'अन्यदनुमानादिभ्यः' इति विशेषणम् । राजा व्याख्यातवानिति । राजा राजवातिककारः । सामान्यविहितस्येति अध्यवसायमात्रस्य प्रत्यक्षत्वे उत्सर्गत्वात् प्राप्ते लिङ्गशब्दजाध्यवसायस्य लिङ्गशब्दविषयत्वेन प्रतिपादनात् तदितरस्य प्रत्य[52A]क्षतेति तात्पर्यम् ॥छ।। बाधाऽविनाभावयोविरोधादिति । अविनाभावेन साध्यप्रतिबद्धं साधनं ख्याप्यते, बाधया तु साध्यं विनापि साधनस्य सद्भाव इति ज्ञाप्यत इति विरोधः । एवं च सत्याक्षेपवाचोयुक्तिरिति । अन्यथा हि परामर्श एव स्यान्नाक्षेपः । अप्रतीयमानस्य हि कल्पनमाक्षेप इति । तदभावात् सुतरां तत्रावृत्तिरिति । तथा चाहतस्माद्वैधर्म्यदृष्टान्ते नेष्टोऽवश्यमिहाश्रयः । तदभावेऽपि तन्नेति वचनादपि तद्गतेः ॥ इति ।। [प्र. वा० ३. २५] । ननु वस्तूनामद्विरूपत्वादिति । कथं हि यत् साध्यधर्माधिकरणतया लब्धसपक्षव्यपदेशं तद्विपर्ययेण चासादितविपक्षभावं तदेव तथाविधं पक्षव्यपदेशं लभेतेत्यर्थः । संदिग्धविपक्षवृत्तेरिति । श्यामोऽयं तत्पुत्रत्वादिति संदिग्धविपक्षवृत्तिः । यद्यपि दृश्यमानेषु तत्पुत्रेषु श्यामत्वदर्शनात् सपक्षवृत्तित्वमस्य तथाप्यदृश्यमानेषु १ तथा ह्यकृतसमयो रूपं पश्यन्नपि चक्षुषा रूपमिति न जानीते, रूपमिति शब्दोच्चारणानन्तरं प्रतिपद्यत इत्युभयजं ज्ञानम् । व्योम०पू०५५५। २ कोऽयं राजा? कीथ-होल-आदिमहोदया राजा तु धारापतिर्भोज इति मन्यन्ते। किन्तु तेषां मतं न सङ्गतम् । न्यायमञ्जर्यामुद्धृतं राजवचनं युक्तिदीपिकायामुपलभ्यते – 'प्रतिराभिमुख्येन वर्तते' (यु दी० का०५) । सांख्यतत्त्वकौमुद्यां ये द्वे कारिके वाचस्पतिमिश्रेण राजवार्तिकत उद्धते ते अपि युक्तिदीपिकायामाद्यपञ्चदशकारिकासु प्राप्ते । अतो युक्तिदीपिकैव राजवार्तिकम् इति मे मतिः । कोऽयं युक्तिदीपिकाकार इति न विद्मः । एतद्विषये विशिष्टं संशोधनमपेक्ष्यते । ३ तुलना-तत्र अबाधितविषयत्वं तावत् पृषग् लक्षणं न भवति, बाधाऽविनाभावयोविरोधात् । हेतुबि.पृ०६८। ४ बाधाया अविनाभावस्य च विरोधादिति । तथाहि-सत्यप्यविनाभावे यथोक्ते बाधासम्भवं मन्यमानैरबाधितविषयत्वं रूपान्तरमुच्यते, सा चेयं तत्सम्भावना न सम्भवति बाधाया अविनाभावेन विरोधात् सहानवस्थानलक्षणात् । तमेव विरोधं साधयन्नाह-अविनाभावो हि इत्यादि । सत्येव हि साध्यधर्म भावो हेतोरविनाभाव उच्यते, प्रमाणबाधा तु तस्मिन्नसति। यदि हि सत्येव तस्मिस्तदभावविषयं प्रमाणं प्रवर्तेत तदास्य भ्रान्तत्वादप्रमाणतैव स्थादिति कुतो बाधा? ततः स हेतुस्तल्लक्षणः साध्याविनाभावो धर्मिणि स्यात् । अत्रं च साध्यधर्मः कथं न भवेत् यतो बाधावकाशः स्यात् । तस्मादविनाभावस्य प्रमाणबाधायाश्च सहानवस्थानम् , अविनाभावेनोपस्थापितस्य च तदभावस्य परस्सरपरिहारस्थितिलक्षणतया विरोधेन एकत्र धर्मिण्यसंभवादिति । हेतुबि टी०पू०२०६। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का०पृ०१०३, वि०पृ०११२ कदाचिदश्याम[52B]ष्वपि तत्पुत्रत्वं भवेदिति तत्पुत्रत्वस्य विपक्षे अश्याम च वृत्तिः सन्दिग्धा । व्यतिरेकवानेवायं हेतुरिति । न सन्दिग्धविपक्षवृत्तिरित्यर्थः ।। - व्यवहारो हि नान्यथेति । यत्ने क्रियमाणेऽपि यन्नोपलभ्यते तच्चेन्नास्तितया निश्चीयते तदा सर्पाद्यभावनिश्चयनिबन्धनो व्यवहारो न स्यात् । अत एव विरुद्धाव्यभिचारीति । अत एव वस्तुनोऽद्विरूपत्वादेव परैरिष्टोऽपि भवद्भिर्विरुद्धाव्यभिचारी' नेष्यत इति । विपरीतसमारोपव्यवच्छेदार्थमिति । यो हि शघीयसीषु शिशपासु प्रवृत्तवृक्षव्यवहारो लव्यां शिंशपायामवृक्षत्वमारोपयति तस्यासौ आरोपोऽनेन व्यवच्छिद्यते 'वृक्षोऽयं शिंशपात्वात् " शिंशपात्वप्रतिबद्धं वृक्षत्वं न द्राधीयस्त्वादिप्रतिबद्धमित्यर्थः । अथ विद्यदाचनित्यत्वादिति । यदनित्यत्वं प्रयत्नान्तरीय[क]त्वप्रतिबद्धं न तत् ततोऽन्यत्र विधुदादाविति नास्ति तस्य ततोऽन्यत्र वृत्तिरिति । अनित्यत्वमिति भावाभिधायीति । 'तस्य भावस्त्वतलौ' [पाणिनि ५.१.११९] इति त्वप्रत्ययस्य भावाभिधायित्वम् , न चाभावस्याभावस्तीति(स्य भावोऽस्तीति ? ) विरुद्धम् । तस्मा[53A]दुभयान्तेति । प्रागभावप्रध्वंसाभावविशिष्टवस्त्वाधारा सत्ता उभयान्तपरिच्छिन्नेत्यभिधीयते । विनाशेनास्तु तादृशा भाविना। विनाशी शब्दः अनित्यः शब्द इति । 'यस्य गुणस्य हि भावाद् द्रव्ये शब्दनिवेशस्तदभिधाने त्वतलादयः' इत्यत्र द्रव्यशब्देन विशेष्यमुक्तम्, गुणशब्देन तु १ अनेकान्तिकः षट्प्रकारः-साधारणः, असाधारणः, सपक्षकदेशवृत्तिविपक्षव्यापी, विपक्षकदे. शवृत्तिः सपक्षव्यापी, उभयपक्षकदेशवृत्तिः, विरुद्धाव्यभिचारी चेति ।......विरुद्धाव्यभिचारी यथाअनित्यः शब्दः कृतकत्वात् घटवत् , नित्यः शब्दः श्रावणत्वात् शब्दत्ववदिति । उभयोः संशयहेतुत्वाद् द्वाषप्येतावेकोऽनकान्तिकः समुदितावेव । न्यायप्रवे०पू०३-५ । प्रमाणसमुच्चयेऽपि परार्थानुमानपरिच्छेदे दिङ्नागेन निरूपितोऽयं विरुद्धाम्यभिचारी। स्वलक्षणयुक्तयोर्हेत्वोरेकत्र धर्मिणि विरोधेनोपनिपाते सति विरुद्धाव्यभिचारी। हेतुषि०पृ०७० । विरुद्धाव्यभिचार्यपि संशयहेतुरुकः। स इह कस्मान्नोक्तः ? अनुमानविषयेऽसंभवात् । न हि संभवोऽस्ति कार्य-स्वभावयोरुकलक्षणयोरनुपलम्भस्य च विरुद्धतायाः । न्या०बि० ३.११०-११२ । २ यावन्तोऽस्य परमावास्तावन्त एव यथास्वं निमित्तभाविनः समारोपा इति तद्व्यवच्छेदकानि भवन्ति प्रमाणानि सफलानि स्युः। प्र०वा स्वो०० पृ०१७। तस्मादपोहविषयं लिङ्गमिति प्रकीर्तितम् । प्र०वा.३.४६....इत्यारोपितव्यवच्छेदार्थ साधनं....संप्रवर्तते। मनो०३.४४।३ तुल. नार्थ द्रष्टव्या न्या०बि०धर्मोन्टी०२.१६ । ४ या उभयान्तपरिच्छिन्नवस्तुसत्ता सा अनित्यतेति। न्या०वा०२.२.१२ (पृ०५९३)। ५ तुलना-यस्य गुणस्य योगाद् यस्मिन्नर्थे शब्दनिवेशस्तदभिधाने स्वतलौ। न्या०या०२.२.१२ (पृ०५९३)। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ का पृ०१०८, वि०पृ०११८] न्यायमञ्जरीप्रन्थिभङ्गः तत्र शब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तमात्रमुक्तमिति मन्यते, तच्चाभावेऽपि किश्चिदस्ति यदशादभावत्वमिति भवति। तच्च भाववैलक्षण्यादि किश्चिदवश्यकल्प्यमित्यभिप्रायः। धर्मिण एव तदवच्छेदो भवत्विति । कारणोत्पादावच्छिन्नो धन्येव कृतकः, तस्य च यः कारणत उत्पादस्तदेव कृतकत्वमिति । एक एव धर्म इति । उत्पादाख्यो विनाशाख्यश्च । न सूत्रकारेण सामान्यग्रहणं कृतमिति' । 'उदाहरणसामान्यात् साध्यसाधनं हेतुः' इति हि क्रियमाणे न घटाख्योदाहरणसामान्यघटत्वं शब्देऽस्तीत्यहेतुत्वं स्यात् । कार्य कारणमित्यादि । 'मस्येदं कार्य कारणं संयोगि समवायि विरोधि चेति लैङ्गिकम्' इति सूत्रम् [वै० सू० ९. १८]। [53B] अस्यार्थः- अस्येदं कार्यमिति कार्यदर्शनाद् यत् कारणे ज्ञानमुत्पद्यते तल्लैङ्गिकमानुमानिकम् ; एवं कारणादिदर्शनात् कार्य-कारण-संयोग्यन्तर-समवाय्यन्तर विरोध्यन्तरेषु यज्ज्ञानं तल्लैङ्गिकम् । कार्यात् नदीप्रादुपरि देशे वृष्टेरनुमानम् , कारणाद् विशिष्टाया मेघोन्नते विन्या वृष्टेः । संयोगिनो धूमादग्नेः, समवायिन उष्णस्पर्शाद वारिस्थस्य तेजसः, विरोधिनो विस्फुर्जनविशिष्टाहेर्नकुलस्य । . अतश्च तत्स्वभावः काल इति । सूर्यास्तमयादिः कालोऽत्यासन्नतारकोदयस्वभाव इति भावात् स्वभावानुमानात् स्वभावहेतुतेति त आहुः। तादात्म्यतज्जननयोरपीति । वृक्षत्वशिशपात्वयोरग्निधूमयोश्च यत् तादात्म्य तदुत्पत्तिश्च ते किंकृते इति । अत एवेति । अविनाभावस्मृति विनाऽनुमेयप्रतीतेरनुत्पादाद्धेतोः । नन्वविनाभावसम्बन्धस्मरणस्यानुमानत्वे केवलसंस्कारजन्यस्यापि [हे!]तुत्वप्रसङ्ग इत्याशङ्क्याह-प्रत्युत्पन्नकारणेति । प्रत्युत्पन्नं वर्तमानम् । धूमस्य सन्निहितस्य दर्शनाद् उत्पन्नाऽविनाभावस्मृतिः 'यत्र धूमस्तत्राग्निः' [54A]इत्येवंरूपा 'इहैव च धूमोऽतोऽत्रै. वाग्निना भाव्यम्' इत्यस्यां प्रतीतौ पर्यवस्यति, न तु केवलसंस्कारजनितेत्यभिप्रायः। षोडश विकल्पा इति । तथा चोक्तम्सर्वोऽनिर्धारितः पूर्वः शैलस्थोऽग्निश्चतुर्विधः । प्रत्येकं साध्यते सर्वपूर्वानिर्धारिताद्रिभिः ॥ [ ] १ द्र० न्या०सू०१.१३४ । २ एके तावद् वर्णयन्ति लिङ्गलिङ्गिसम्बन्धस्मृतिरनुमानमिति । न्यावा०१.१.५। अत्राचार्य देशीयमतमाह-एके तावदिति । सत्स्वपीतरेषु स्मृतेरभावादनुमितेरनुत्पादेन स्मृतिरेवानुमानम् , इतरे तदनुग्राहका इत्यर्थः । न्यावा ता० टी० । ३ प्रन्थिरयं मुद्वितन्यायमार्या नोपलभ्यते । - Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का०पृ० १०८, वि०पृ० ११८ विशिष्ट इति । एवं चत्वारोऽग्नयः प्रत्येकं चतुर्धा भिद्यमानाः षोडश भवन्ति । तत्रैते पञ्चदश पक्षाः । तत्र प्रथमः पक्षः - ' सर्वोऽग्निरग्निमात्रं सर्वत्र यत्र कचन विद्यते ' इति सिद्धसाध्यतया इष्टम्, विनाऽपि धूमदर्शनमस्यार्थस्य लाभादिति, अत्र हि सर्वशब्दः प्रकृतापेक्षः । 'अनिर्धारितः पूर्वोपलब्ध इहोपलभ्यमानश्च यः स सर्वः सर्वस्मिन्ननिर्धारिते देशे पूर्वत्रेह भवत्येव' इति द्वितीये तृतीये चतुर्थे प्रत्यक्षादिविरोधः; न हि सर्वोऽग्निः शशशृङ्गवदनिर्धारित एकस्मिन् देशे, पूर्वानुभूते रसवत्याख्ये, समुपलभ्यमाने चाद्रौ सम्भवति । पञ्चमः प्रत्यक्षविरुद्धः, 'अनिर्धारितोऽग्निः सर्वत्र देशे विद्यते ' इति । न ह्यनिर्धारितस्य कस्यचिदग्नेरव्यापकत्वात् [ 54B] सर्वत्रावस्थानसम्भवः, रसवत्यादौ च निर्धारितस्यापि दर्शनात् । षष्ठे च ' अनिर्धारितोऽग्निरनिर्धारितदेशे विद्यते' इति सिद्धसाध्यतयैव [इष्टम् ], कस्यचिदग्नेरवश्यं क्वचिद्देशे भावात् । 'अनिर्घारितोऽग्निः पूर्वत्र रसवत्यां विद्यते' इति सप्तमे तथा 'अनिर्धारितोऽग्निरिह पर्वते विद्यते ' इति अष्टमे च प्रत्यक्षविरोधः, उभयत्र निर्धारितस्य दर्शनात् । 'पूर्वोऽग्निः सर्वत्र विद्यते ' इति नवमेऽपि प्रत्यक्षविरोध एव तस्य तदेशं प्रत्यागमनाभावादव्यापकत्वात् सर्वत्र वृत्त्यभावात् । तथा 'पूर्वोऽग्निरनिर्धारित देशे विद्यते' इति दशमेऽपि प्राग्वत् प्रत्यक्षविरोध एव । 'पूर्वोऽग्निः पूर्वत्र विद्यते' इति एकादशे सिद्धसाध्यता, अवश्यं यस्तत्र स तत्र भवतीति । एतत् तु अचिरदृष्टाभिप्रायेणोक्तम्, न तु पूर्वोऽग्निरवश्यं सर्वदा वा तत्र सम्भवतीति । 'पूर्वोऽग्निरिहाद्रौ विद्यते' इति द्वादशे असर्वगतत्वात् तस्यान्यत्र वृत्त्यसम्भवात् प्रत्यक्षविरोधः । एवं 'शैलस्थोऽग्निः सर्वत्र विद्यते' इति त्रयोदशेऽपि द्वादशवत् प्रत्यक्षविरोध एव । स एव शैलस्थोऽग्निरनिर्धारिते क्वचिदेशे विद्यते ' इति चतु [55A]र्दशे स एव । स एव पूर्वस्मिन् देशे विद्यते' इति च पञ्चदशे तस्याग्नेर सर्वगतत्वेनान्यत्र सञ्चाराभावात् प्रत्यक्षादिविरुद्धतैव । ६२ तत्र देशविशेषावच्छेद् इत्यादि' । अयं भावः । स्वरूपेण गृहीतस्योत्पलादेलादि अवच्छेदकम् । न च देशग्रहणमन्तरेणाग्निग्रहणं समस्तीति देशग्रह उत्पलग्रह इव प्राकूपश्चादग्निग्रहो नीलत्वग्रहवदिति बलादायातमग्नेरेव विशेषणत्वम् । न ह्यग्रहीत उत्पले तस्य नीलत्वसम्बन्धः प्रतिपादयितुं शक्यते । विशेष्यत्वेन हि ग्रहणं विशेषणग्रहणात् परतः, स्वरूपेण तु पूर्वमेवेति । [प्रमाणस्यागौणत्वादिति ] | प्रमाणं प्रत्यक्षादि अगौणम्, उपचारानाश्रयणेन तल्लक्षणपदानां व्याख्यांनात् । १ ग्रन्थिरयं मुद्रितन्यायमञ्जर्या' नोपलभ्यते । २ लोकायतसूत्रमिदं संभाव्यते । तथापि कर्णगोमिटीकायाम् ( पृ०२६) अस्य सूत्रस्योपयोगः 'भ्रान्तं ह्यनुमानम्' इति सौगत सिद्धान्तस्य पूर्वपक्षस्थापनाय कृतः, तथा - 'अथ प्रमाणस्यागौणत्वाद् अभ्रान्तत्वाद् अनुमानस्य तु भ्रान्तत्वाद् भप्रामाण्यमित्युच्यते ।'। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का००१पृ०९, वि० पृ० १२० ] न्यायमज्जरीग्रन्थिभङ्गः सामान्ये सिद्धसाधनादिति' । व्याप्तिग्रहणसमय एव धूममात्रस्याग्निमात्रेण व्याप्तिग्रहणादत्रापि धूममात्रमग्निमात्रेण व्याप्तं गृहीतमेव इति स्मृतिमात्रमिदानीं न स्वपूर्वं किञ्चिदित्यर्थः । अवस्था देशकालानामिति । गुडूच्यादेरभिनवजातस्यान्या शक्तिरन्या चिरजातस्य, तथा वत्सदेशजातस्यानूपदेशप्रभवाच्छक्तिभेदः, वसंता [55B] दिगृहीतस्य च शरदाघृत्वन्तरोद्भूतात् । अनुमानविरोधो वा यदीति । यत्र बलीयसा दुर्बलस्य विषयोऽपह्रियते तत्रानुमानविरोधव्यवहारः, यत्र तूभयोः प्रयोगः समकक्षतया संशयापादकस्तत्र विरुद्धाव्यभिचारिता, यत्पुनः प्रयुक्तं सदभिमतं धर्मं विहन्ति तदिष्टविघातकृत् यथा 'चक्षुरादयः परार्थाः संघातत्वात् शयनादिवत्" इत्यत्र शरीररूपसंघातपरार्थत्वेन शयनादीनां दर्शनादिष्टासंहतरूपात्मार्थत्वासिद्धेरिष्टविघातकारित्वम् । ૬× " १ 'विशेषेऽनुगमाभावः सामान्ये सिद्धसाधनम्' इत्यपि लोकायतसूत्रमिति कर्णगोभिना सूचितम् । “मस्तत्रापि स एव पर्यनुयोग इत्येवं सर्वत्र पर्यनुयोगपराण्येव सूत्राणि । तथा च सूत्रम् 'विशेषे... ' (कर्ण० पृ०२६) । २ कारिकेयं वाक्यपदीये (१.३२) उपलब्धा । तत्र तु 'कालादिमे 'स्थाने 'कालानां " इति पाठः । सेयं कारिका तत्त्वसङ्ग्रहेऽपि प्राप्ता (१४६० ) | श्री सोमानन्दनाथेन शिवदृष्टि. ग्रन्थे वाक्यपदीया कारिकेयं निर्दिष्टा, टीकाकार- उत्पलदेवेन तु सा उद्धृता व्याख्याता च । “न चापि भवतोऽनुमानं सम्यग्ज्ञानमिष्टम् “अवस्था देशकालानां... अतिदुर्लभा" इति "हस्तस्पर्शादिवान्धेन...न दुर्लभः ॥” इति चान्यच्च वदन्तः । न हि वस्तुव्यवस्थापने शक्ततायां प्रत्यक्षात् न्यूनता तस्य स्यात् । अशक्तायां तु अप्रामाण्यमेव ॥' उत्पलदेवटीका ३३ । अर्चटेनापि हेतुबिन्दौ ( पृ० १५४) उद्धृतेयं कारिका । तत्त्वसङ्ग्रहपञ्जिकाकारेण कृता व्याख्या अत्रावतार्यते - " अवस्थादेशकालमेदेन पदार्थानां शक्तयो भिन्नाः । अतो न शक्यतेऽनुमानात् तद्भावनिश्चयः कर्तुम् । न ह्येवं शक्यतेऽनुमानात् प्रत्येतुम् देवदत्तो भारोद्वहनसमर्थो न भवति, देवदत्तत्वात् बालावस्थदेवदत्तवदिति । अत्र हि अवस्थामेदेन शक्तिभेदसम्भवाद् व्यभिचारः । तथा देशभेदेन आमलकीखर्जूरादीनां रसवीर्यविपाकभेदो दृश्यते । तत्र नैवं शक्यते वक्तुम् - सर्वाssमलकी कषायफला अनुभूयमानामल की वदिति । तथा कालमेदेन कूपोदकादीनां शीतोष्णादिभेदः सम्भवति । तत्र सर्वा आपः शीता इति न शक्यते निश्चयः कर्तुम् । इत्येवमादि अवस्था देशकालानामिति भेदादित्यपेक्ष्य षष्ठी । भावानामिति प्रसिद्ध्यपेक्षया ॥ १४६० ॥ ३ 'ननु च तृतीयोऽपोष्ट विघातकृद् विरुद्धः । यथा परार्थाश्चक्षुरादयः सङ्घातत्वाच्छ्यनासनाद्यङ्गवदिति । तदिष्टासंहतपारार्थ्यविपर्ययसाधनाद् विरुद्धः । स इह कस्मान्नोक्तः । अनयोरेवान्तर्भावात् । न्या०बि० ३.८६ - ९० । 'भयं च विरुद्ध आचार्यदिग्नागेनोक्तः । स कस्माद् वार्तिककारेण सता त्वया नोक्तः ? धर्मो०टी०पृ० २१३ । ४ आत्मन अस्तित्वसाधनाय सांख्येनोक्तमिदमनुमानम् । सङ्घातपरार्थत्वात्... पुरुषोऽस्ति ... ॥१७॥ सां०का० । इह संवाताः परार्था दृष्टा । तद्यथा शयनासनरथचरणादयः । अस्ति चायं शरीरलक्षणः संत्रातः । तस्मादनेनापि परार्थेन भवितव्यम् । योऽसौ परः स पुरुषः । यु०दी ० । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ महावीचक्रधरप्रणीता [का०पू०११०, वि०पृ०१२१ यद् यस्य (तर्कस्य ?) यावान् विषय इति। पूर्वोक्तमेव दृढयति-यद् यस्माद् यस्य युक्त्यादेर्यावान्नियमो विषयः स युक्तयात्मा तावदिष्टविषये निरूप्यते प्रवर्त्यते । न च प्रतिभामात्रमिति । बाह्यनिमित्तानियन्त्रिता प्रतिभासमाना सद्भूताकारा प्रज्ञा प्रतिभा। यौक्तिकम् युक्तिबलात् कल्प्यम् ।। तयोरेवान्वयस्तत्रेति । यथा 'नास्त्यत्र धूमोऽग्न्यभावात्' इति यत्र यत्र आन्य[56A]भावस्तत्र तत्र धूमाभाव इत्यन्वयः । यत्र तु धूमस्तत्राग्निरिति व्यतिरेकः । विरुद्धानुमानविरोधयोरिति । धर्मविशेषाणां विपर्ययहेतवोऽत्र विरुद्धाः, यथा यदि कार्यत्वाच्छब्दस्य पराश्रितत्वं सिद्धयति, रूपादिषु तथादर्शनात्, तदा तेषु तथादर्शनादेव नित्यसर्वगताश्रितत्वाभावोऽपि सिद्धयेदिति । इष्टविघातकृत् पुनः साध्यस्यैव धर्मस्य विहन्तेति विशेषः । सद्वितीयप्रयोगास्त्विति । अनित्यः शब्दः कृतकत्वाद् घटवदिति प्रयुक्ते परः सद्वितीयप्रयोगेण प्रत्यवतिष्ठते-'अस्तु तत्साध्यधर्माधिकरणत्वशून्यधर्मिघटान्यतरसद्वितीयो घटोऽनुत्पलत्वात् कुड्यवत्' इत्यादिना । उत्पन्ना स्वत एव तर्काभ्यासनिरपेक्षेण प्रतीतिर्यतस्तदुत्पन्नप्रतीति । यत्राप्यनुमितादिति' । प्रभाभेदेनानुमिताद् देशान्तरप्राप्तिरूपाल्लिङ्गिनि सूर्यगत्यादौ । मौलिकम् मूले भवं प्रभाभेदरूपम् । __ भावधर्मस्य हे[56B]तोरसिद्धत्वमिति । यावत् तस्य सत्ता न सिद्धा तावत् धर्मों हेतुः कथं भावधर्मो भवेत् । अभावधर्मस्य विरुद्धत्वम् , न ह्यभावधर्मेण भावः साधयितुं शक्यते प्रत्युत तस्याभावसाधकत्वात् । हेतुना यः समग्रेणेत्यैस्योत्तरमर्धम् -- 'अर्थान्तरानपेक्षित्वात् स स्वभावोऽनुवर्णितः' इति ॥ धृमस्यान्यैश्च कल्पिता सा प्रमेयता 'अग्निमानयं धूमः' इति । रोलम्बो भ्रमरः । गवलं महिषशङ्गम् । क्रियावमर्शन मिति । उत्पन्नामन्त्यतन्तुक्रियां यदाऽवमृशति 'अन्त्यतन्तुक्रि १ प्रलोभ्वा० अनु०१७० । २ तत्र यदि भावधर्मों हेतुरुच्यते, स कथमसिद्ध सत्ताके स्यात् । प्र. वा.स्वो वृ० पृ०६३ । ३ अभावधर्म भावमात्रव्यापिनोऽर्थस्य व्यवच्छेदं हेतुं सत्तायां वदतोऽस्य बिरुद्धो हेतुः स्यात् , तस्य भावे क्वचिदसंभवात् , अभाव एव भावव्यवच्छेदस्य भावात् । । प्र०वा० स्वो०वृ० पृ०६४। १ प्रवा०३.६। ५ मुद्रितन्यायमञ्जर्या तु क्रियादर्शनमिति पाठः। स च न समीचीनः । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ० १२१, वि०पृ०१३३] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः येयम्' इति तदा तदनन्तरमसकृत् पटोत्पत्तिदर्शनादविनाभावसम्बन्धस्मरणम्' । धुनी नदी। [आवर्तेति]आवर्तानां या वर्तनाः सम्पादनास्ताभिः शालि लाध्यशीलं यदुदकम् । . रोधोपघातेत्यनेन पूर्वपक्षसूत्रं 'रोधोपघातसादृश्येभ्यो व्यभिचाराद् अनुमानमप्रमाणम्' इति[न्या०सू० २.१.३७.] सूचितम् । यदि नदीपूराद् वृष्टयनुमानं तदसौ रोधात् सेतुभङ्गादपि भवति; यदि पिपीलिकाण्डसञ्चाराद् भविष्यवृष्टयनुमानं तदसौ रथाद्युपघातादपि भवति ; यदि च केकारवाद् मयूया(रा)नुमानं तदसौ पुरुषेणानुक्रियमाणोऽपि तत्सदृशो भवतीति । देशान्तरेण शैलादिना संयोगः सम्भ[57A]वतीति । अतिदूरवर्तित्वात् सूर्यस्येति भावः । स एव भावप्रत्ययेनोक्तः। तत्र दर्शनशब्दप्रयोगे सति 'तच्छब्दवाच्योऽयम्' इति शब्दप्रयोगात् । तदभावे कथं वतिः। "तेन तुल्य क्रिया चेद्वतिः" [पाणिनि ५. १. ११५] इति क्रियातुल्यत्वे वतेः स्मरणात् । अपरे पुनरिति प्राभाकराः । अदृष्टं स्खलक्षणं स्वरूपं यस्य क्रियादेस्तददृष्टस्वलक्षणम् अनवधृतस्वरूपमित्यर्थः । तथाहि-यथा सत्यपि बीजे सलिलाद्यभावाद् अङ्कुरोऽभवन् बीजव्यतिरिक्तकारणान्तरापेक्ष इति गम्यते एवं सत्यपि देवदत्ते संयोगविभागौ कदाचिद् भवन्तौ कदाचिच्चाभवन्तौ देवदत्तव्यतिरिक्तकारणान्तरापेक्षाविति गम्यते । तस्य हीत्थमस्तित्वमात्रेणावगतिः, 'अस्ति किञ्चित्कारणान्तरम्' इत्येवंरूपेण क्रियादेरनुमानात् , अत एवादृष्टस्वलक्षणत्वम् । तथा च तट्टीका-''अत्र केचिन्नीतिज्ञमन्या [अन]वधृतस्वलक्षणमेव कचिदनुमानेन सामान्यतो गृह्यते इति मन्यन्ते, तद्भमापनयायेदमुक्तम्-'तत्तु द्विविधया(धम्)' इति । अदृष्टस्वलक्षणविषयमप्यनुमानमस्ति क्रियादिषु । कथं पुनरदृष्टस्वलक्षणे सम्बन्धिदर्शनम् ? [57B]उत्पत्तिमतः फलस्य दर्शनात्" इत्यादि १ तुलना- भपि चान्त्यतन्तुसंयोगानन्तरं पटो जायते तत्रापि शक्यं कारणात् कार्यानु. मानम् । यदा खल्वयमन्यत एवोदबुद्धसंस्कारो व्याप्तिस्मृतिमान् अविचलेवितरेषु तन्तुषु अत्यन्तानुत्पन्नायां क्रियायामिन्द्रियसन्निकर्षात् प्रथममेव परामृशति-तथा चेयमिति, तदेव क्रियातो विभाग इत्येकः कालः, अथ यदा विभागात् पूर्वसंयोगनाशस्तदा परामर्शादवश्यंभाविपटविशिष्टेयं क्रियेत्यनुमानोत्पाद इत्येकः कालः, अथान्त्यस्य तन्तोः तन्तुसंयोगोऽथ पटोत्पादोऽतस्तत्र रूपायत्टादः, अथ प्रत्यक्षदर्शनमित्यनुमानोत्पादस्य परस्ताच्चतुर्थे क्षणे प्रत्यक्षम् । यदि तु क्रियोत्पादानन्तरमा लोचनमिष्यते तथापि तृतीये क्षणे प्रत्यक्षस्योत्पादान्नानवसरमनुमानम् ।' न्याव्वाता०टी० १.१.५ (पृ०१७५)। २ मुद्रितमञ्जर्या 'धुनी' शब्दस्य प्रयोगः नास्ति । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भश्रीचक्रधरप्रणीतः [का०पृ०१२१, वि०पू०१३३ [बृहती १.१.५]। ननु मीमांसकभाष्यकृता देवदत्तस्य देशान्तरप्राप्ति गतिर्विका दृष्ट्वा आदित्येऽपि देशान्तरप्राप्त्या साक्षाद् विशेषरूपेणैव क्रियानुमानमुक्तम्, अतः कथमेवमुच्यते इत्याशङ्कयाह-न तु विशेषविषयमिति । विशेषे व्याप्तिग्रहणस्यासम्भवादिति । गतेनिन्यपरोक्षत्वान्ने कदाचित् प्रत्यक्षेण देशान्तरप्राप्त्या सह सम्बन्धग्रहणं तस्या इति । अदृष्टस्वलक्षणानुमाने तु सम्भवति सम्बन्धग्रहः; यथा अङ्करादि कार्य सत्यपि बीजे कदाचिद् दृश्यमानं बीजातिरिक्तकारणान्तरापेक्षमिति दृष्टम् एवं संयोगादि सत्यपि देवदत्ते कदाचिद् दृश्यमानं तदतिरिक्त कारण पेक्षीति भवति सम्बन्ध ग्रहः । शक्तावपि दाहादेः कादाचिकत्वात् कार्यत्वम् , कार्य च कारणं विना न सम्भवति, दृष्टस्य चाग्निस्वरूपस्य मन्त्रादिसन्निधाने व्यभिचारात् अदृष्टस्य कारणत्वकल्पना कार्यत्वबलादेव, इति कार्यमात्राच्छवस्यनु[58A]मानम् । कार्यविशेषाच्च संयोगादेः क्रियानुमानम् । अथवा यथा भाट्टैयाख्यातम्-'यत्र तेनैव धूमेन तस्यैवाग्नेरनुमानं तत् प्रत्यक्षतो दृष्टसम्बन्धम् , यत्र तु अन्येन विशेषेण सम्न्धग्रहोऽन्यस्य चाव- : गमस्तत् सामान्यतोदृष्टम् तदनेन 'न तु विशेषविषयम्' इत्यादिना निराक्रियते । यो विशेषोऽनुमीयते तेन सह व्याप्तिन गृहीता, न चान्येन व्याप्ती गृहीतायामन्यस्यानुमितिः, अतिप्रसङ्गादिति । विततालोकावयवीति । आकाशते आ समन्तात् प्रकाशत इति व्युत्पत्त्याऽऽलोकावयविन एवाकाशत्वम् । साङ्ख्यानां तु कुतोऽनुमानघटनेति । तेषामुपादानरूपा जातिः, यथाघटादीनां मृदुपादानम् , सर्वेषु घटादिषु मृद्रपतानुवृत्तेः, सैव तेषां जातिः सामान्यम् । १ प्रत्यक्षेण गच्छति द्रव्ये, संयोगविभागातिरिक्तविशेषानुपलब्धेः । यस्त्वयं गच्छतीति प्रत्ययः, स संयोगविभागानुमितक्रियालम्बनः । प्रकरणपं० अनु० पृ०२१७ । शास्त्रदीपिकायास्तकंपादे लोकवार्तिकव्याख्याने न्यायरत्नाकरे च भाट्टसम्मतं कर्मण: प्रत्यक्षत्वं समर्थयामास पार्थसारथि नन्दीश्वरस्त प्रभाकरविजयस्य नवमे प्रकरणे पार्थसारथिनोक्तं दुषणमपास्य प्रभाकरसम्मतं कर्मणोऽ नुमेयत्वं व्यवस्थापयामास । २ सर्वभावानां शक्तिरदृष्टस्वलक्षणापि कार्येणानुमीयते. भग्नेयथाभूतादेव दाहो दृष्टः, तथाभूतादेवाग्नेमन्त्रौषधिप्रणिधाने कार्य न दृश्यते। न तत्र दृष्टमेव स्वरूपं कारणम् । यद्धि दृष्टं कारणं तस्याजनकावस्थातो विलक्षणत्वाभावात् कार्यानुदयप्रसङ्गात्। प्रकरणपं०अनु०पृ०२१८ । ३ यदि धयन्तरापेक्षा तत्र सामान्यदृष्टता। स्यादमिधूमयोः सैव तस्मादेवं प्रचक्षते ॥१४०॥ प्रत्यक्षदृष्टः संबन्धो ययोरेव विशेषयोः गोमयेन्धनतज्जन्यवि. शेषादिमतिः कृता॥१११॥ तद्देशस्थेन तेनैव गत्वा कालान्तरेऽपि तम् । यदाग्नि बुध्यते तस्य पूर्वबोधात् पुनः पुनः ॥१४२॥ संदिह्यमानसद्भाववस्तुबोधात् प्रमाणता । विशेषदृष्टमेतच्च लिखितं विन्ध्यवासिना ॥१४३॥ प्रलो०वा अनु। द्र० तन्त्र०वा०पृ०३६ । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०१२७, वि०पृ०१३९] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः यस्तु 'अयं घटोऽयं घटः' इत्यादिक एकाकारप्रत्ययः स तेषां मते सादृश्यनिबन्धनो न सामान्यनिबन्धन इति । यदुक्तम्-'पिण्डसारूप्यमे[58B]व सामान्यम्" इति; सारूप्यावच्छिन्नः पिण्ड एवानुगतप्रत्ययहेतुरित्यर्थः। तच्चोपादानं प्रतिविकारमन्यच्चान्यच्चाभ्युपगन्तव्यम् ; अन्यथा विकाराः परस्परं भिन्नास्तदुपादानं यद्यभिन्नमुपेयते तदा चाऽभिन्नात्मन्युपादाने भिन्नात्मनो विकारस्य कथं सम्भवः । तत्र [पादाने योऽशो नास्ति स चेद् विकारेऽभ्युपगम्यते तदाऽसत उत्पादात् सत्कार्यवादहानापत्तिः । तद्भिन्नात्मनो विकारस्य भिन्नात्मैवोपादानमभ्युपेयम् । प्रचितां काचिदाश्रित्येति । क्रियाक्षणपरम्परायाः प्रचितत्वेन वृद्धया 'चिरेण कृतम्' इति प्रत्ययः । . मुहूर्तयामाहोरात्रेति । 'मुहूर्तेन कृतम्' इत्यादिविकल्पानामपि कार्यमात्रालम्बनत्वम् ; यथा सामान्यविकल्पस्य व्यक्तिमात्रालम्बनत्वं तद्वदेषामिति भावः । प्रावरं मतमुपसंहृत्य 'अन्ये मन्यन्ते' इत्यादिनाऽऽचार्यमतमाह । [दृष्टः परापरत्वस्येति । दूरस्थोऽपि युवा अपरोऽप्रकृष्टकालत्वात् कालापेक्षया, दिगपेक्षयाऽत्र पर एवासौ; निकटस्थो[59A]ऽपि स्थविरः प्रकृष्टकालत्वात् कालापेक्षया तु परो दिगपेक्षया त्वपर एव सन् । उत्पत्तिस्थितिनिरोधेति । उत्पत्तियोग्युत्पद्यमानम्, स्थितियोग्युत्पन्नम्, निरोधयोगि प्रागभावाक्रान्तं यत् फलम् । अतश्च यदुच्यत इत्यनेन 'वर्तमानाभावः पततः पतितव्यपतितकालोपपत्तेः' इति सूत्रं न्या०सू० २.१.३९] सूचयति । अतिक्रान्ते १ तुलना-स्वलक्षणानामात्मभूतमेव सादृश्यमाकृतिः, तदेव सामान्यम्, तस्य वादः, स यस्यास्तीति । तद्वा वदितं शीलं यस्य सारख्यस्य। प्रवा०कर्ण०प्र०२१३। २ म कालो नाम कश्चित् पदार्थोऽस्ति । किं तर्हि ? क्रियासु कालसंज्ञा। यक्तिदीका०५०। स्यान्मतम्-क्रियामात्रमेव कालः ।...सर्वोऽयं कालव्यवहारः क्रियाकृतः । क्रिया हि क्रियान्तरपरिच्छिन्ना अन्यक्रियापरिच्छेदे वर्तमाना कालाख्या भवति। योऽपि समयो नाम भवद्भिरुच्यते स परमाणुपरिवर्तन क्रियासमय एव कालसामानाधिकरण्यात् । न समयपरिमाणपरिच्छेदकोऽन्यः ततः सूक्ष्मतरः कश्चिदस्ति कालः । तत्समयक्रियाकलाप आवलिका, तत्प्रचय उच्छवास इत्यादि समयक्रियाकलापपरिच्छिन्ना आवलिका उच्छवासपरिच्छेदे वर्तमाना कालाख्या। एवमुत्तरत्रापि योज्यम् । लोकेऽपि गोदोहेन्धनपाकादिरन्योऽन्यपरिच्छे दे वर्तमानः कालाख्य इति क्रियैव काल इति...। तत्वा०राज०पृ. ४८२। ३ अपरस्मिन् परं युगपदयुगपच्चिरं क्षिप्रमिति काल लिङ्गानि । वैसू० २.२.६ ।तत्र परेण दिकप्रदेशेन संयुक्ते यूनि परत्वज्ञाने जाते स्थविरे चापरेण दिक्प्रदेशे संयुक्तेऽपरत्वज्ञानोत्पत्तौ कृष्णकेशादिवलीपलितादिपर्यालोचनया येन निमित्तेन यूनि अपरत्वज्ञानं स्थविरेच परत्वज्ञानं जायते स कालः ।...। चन्द्रानन्दवृ०व०सू०२.२.६. । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का०पृ० १२७, वि० पृ० १४० नाध्वना यः सम्प्रयुक्तोऽतीतकालः, अनागतेनाध्वना यः सम्प्रयुक्तस्तच्छेषः, तृतीयस्याध्वनोऽभावात् किंसम्प्रयुक्तो वर्तमानः स्यादित्यध्वव्यङ्ग्यकालवाद्यभिप्रायः । ६८ आयामियामिनीति । आयामी दीर्घो यो यामिनीनां रात्रीणां भोगः विस्तरस्तेन हेतुना सफलः सप्रयोजनः आभोगविभ्रमः परिणाहाश्रयो गुणविशेषो येषाम् । प्राग्भागो यः सुराष्ट्राणामित्यस्य 'प्राग्भागः पुनरेतेषां तेषामुत्तरतः स्थितः ' इति शेषः । सुराष्ट्रवासिनो यदा पूर्वदिग्रेखात उद्यन्तमादित्यं पश्यन्ति तदा मालवा दक्षिणदिक्संस्थं पश्यन्ति; सुराष्ट्रो [59B]त्तराद् अवस्थितत्वान्मालवानाम् । स एव वर्तमानभवतीति । उक्तम् अयमेव हि ते कालः पूर्वमासीदनागतः । अवश्यंभाविनं नाशं विद्युः सम्प्रत्युपस्थितम् ॥ [ ] इति ॥ भाष्याक्षराणीति । भाष्यकारो हि तत्र तत्र वाक्यमेवोपमानशब्देनाह“यथा गौरवं गवय इत्युपमाने प्रयुक्ते" इत्यादौ [न्या० भा० १.१.६] । अथ सोपप्लवा अनिराकाङ्क्षा | श्यामलापि तादृश्येव । सू० अत्यन्तप्रायेति । 'अत्यन्तप्रायैकदेशसाधर्म्यादुपमानासिद्धि:' [ न्या० २.१.४४] इति सूत्र लक्षयति । अत्यन्तसाधर्म्यादुपमानं न सिद्ध्यति, न हि भवति यथा गौरवं गौरिति प्रायः साधर्म्यादपि न हि भवति यथाऽनड्वांस्तथा महिष इति, एकदेशसाधर्म्यं तु सत्तापेक्षया सर्वेष्वस्तीति । तस्य तु ज्ञप्तिर्गृहीते प्रतियोगिनीति । अमुकस्यायं सदृश इति द्वयोः ग्रहणसापेक्षत्वात् सादृश्यप्रत्ययस्येति । Tara सादृश्यमिति । न हि गोः पक्षीकृताया गवयगतं [ सादृश्यं धर्मः, ] तस्य गवयधर्मत्वात् । नापि गोगतमिति । गोगतं यद् गवयसादृश्यं ' गवयसदृशी सा' इति बुद्धिनिमित्तम् तत् प्रागुपमानयापारादसिद्धम् । प्रतिज्ञार्थैकदेशत्व [60A ] नापि कल्प्यमानं ग्रहणम् । .... १ श्लो०वा०शब्द नित्यता १६३-६४ २ तुलना - " अत्यन्त साधर्म्यादुपमानं न सिध्यति । न चैवं भवति यथा गौरव गौरिति । प्रायः साधर्म्यादुपमानं न सिध्यति, न हि भवति यथाऽनड्वानेव महिष इति । एकदेशसाधर्म्यादुपमानं न सिध्यति, न हि सर्वेण सर्वमुपमीयत इति "न्या० भा० २.१.४४ । ३ गवये गृह्यमाणं च न गवामनुमापकम् । श्लो०वा० उपमान० ४४ । ४ न तावद् गोगतस्य, उपमानज्ञानोत्पत्तेः प्रथममप्रतीतेः तत्प्रमेयत्वात् तस्य । उम्ब्रेकटी० उपमान०४४। १ प्रतिज्ञार्थैकदेशत्वाद् गोगतस्य न लिङ्गता ॥ ४४ ॥ श्लो०वा० उपमान० । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०१३५, वि०पृ०१४९] न्यायमञ्जरीप्रन्थिमङ्गः अत्र भवतैवात्मनः प्रतिकूलमभिहितमिति । भूयोऽवयवसामान्ययोगो यद्यपि मन्मते । सादृश्यं तस्य तु ज्ञप्तिर्गृहीते प्रतियोगिनि ॥ इति वदता भवता सादृश्यस्य सत्त्वं तावदभ्युपगतम्, ग्रहणं तु सामान्यवद् भविष्यतीत्येतदेव 'सामान्यवच्च' इत्यादिना[श्लोवा० उप०३५] व्यक्तीकृतम् । भूयोऽवयवसामान्ययोगस्य सादृश्यलक्षणस्य इष्टतामासेव्य प्रभाकरेण तल्लक्षणं कृतम्"सादृश्यमिति सादृश्यम्"[बहती० १.१.५.]; (सादृश्यम्] अनेनास्य', 'अमुना सदृशोऽयम्' इति यतो बुद्धिरुत्पद्यते तत् सादृश्यम् । चित्रादावव्याप्तिरिति । चित्रे रेखारूपे हि न खुरत्वादिसम्भवः, प्राणिस्थखुराद्यवयवव्यङ्ग्यत्वात् तेषां खुरत्वादीनाम् । 'अथ त्वधिकता काचित्' इत्यस्योत्तरमर्धम्-'यावद्धीन्द्रियसम्बद्धं तत् प्रत्यक्षमिति स्थितम्' इति[ग्लोवा० उप० ९] । यमयोरिति । युगपदेकस्मिन् गर्भे सम्भूतौ यमौ । सामान्ययोगोऽन्योऽन्यच्चेति । सत्यपि सामान्ययोगे प्राण्यन्तरेषु सदृशप्रत्ययानुत्पादात् । - अपरीक्षामिषेणापीति' । न परीक्षितव्यानि प्रत्यक्षादीनि प्रमाणानीति मिषेण व्याजेन । आग्नेयो[60B]ऽष्टाकपाल इति । अयं हि दर्शपूर्णमासप्रधानयागषट्कान्तःपातित्वाद् विहितसकलेतिकर्तव्यताकः । विध्यादिरस्तीति । यद्वाक्यमुपलभ्य पुरुषः कस्मिंश्चिदर्थे प्रवर्तते कुतश्चिद् विनिवर्तते स विधिः; विधीयतेऽनेनार्थ इति, यथा लोके 'देवदत्त गामभ्याज शुक्लाम्' इति, तस्य 'अभ्याज' इति आदिः, इतरोऽन्तः; वेदेऽपि 'दर्शपूर्णमासाभ्यां यजेत' इति विध्यादिः, विध्यन्तोऽप्रधानविवर्जितं कृत्स्नं पौरोडाशिकं ब्राह्मणम्, तेन सहितोऽयं विध्यादिविशिष्टापूर्वनिर्वृत्तं प्रति पुरुषं प्रवर्तयति' इति विध्यादिविध्यन्तयोर्लक्षणम् ।। भिन्नानुमानादुपमेयमुक्तेति । अग्न्यादियुतं 'आग्नेयोऽष्टाकपालो भवति' इत्यादिसम्बद्धं यत् प्रयाजादिकमितिकर्तव्यताजातम् । सौर्यादिवाक्यैः 'सौर्य चरुं निर्वपेद् ब्रह्मवर्चसकामः' तै०सं० २.३.२.३]इत्यादिभिः । असहापि दृष्टं तैः सहाश्रुतमपि, तद्गतत्वेन कथं प्रत्याययेदुपमेति ? नोऽस्माकमुपयुज्यते । कथं च प्रत्याययितुं शक्नुयादित्याह-सादृश्यतः तत्सदृशत्वादाग्नेयादेः । १. प्रलो०वा शब्दलक्षण०७। २ प्रतौ तु ... प्रवर्तयति । तस्मात् सो भू इति...' इस्येवरूपः पाठो लब्धः । ३ प्रलोभ्वा०उप०५२ । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०. भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः का०पृ९१३५, वि०पृ०१४९ तदपचारे तेषां व्रीह्यादीनां विहि[61A]तानामपचारे परिहारादिकृते 'असम्भवे प्रतिनिधिः' इति नीवारजातौ नीवारजातेः प्रतिनिधिर्मुख्यस्थाने विनियोगः । प्रतिविहित मिदमिति । 'मैवं, गवयसादृश्यस्यापि पूर्व ग्रहणात्' इत्यादिना प्रतिविधानात् । प्रतिनिधिरपि चैवं नास्ति नीवारजातेः'। कथं नास्ति । तदाह-न हि भवदुपमानाद् 'नोहिसदृशा नीवाराः' इति सादृश्यबुद्धिः । कीदृशी तर्हि बुद्धिरित्याह-भवति तु मतिरेषेति ॥ भश्रीशङकरात्मजश्रीचक्रधरकृते न्यायमञ्जरीग्रन्थिभगे द्वितीयमाह्निकम् ॥ ७ श्लोवा० उप० ५३॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयम् आह्निकम् ॥ ॥ ॐ नमः शिवाय ॥ लक्षणविनिश्चयार्थमिति । अव्यभिचारादिविशिष्टार्थोपलब्धिजनकत्वं प्रमाण लक्षणम् । तद् दृष्टे विषय उपदेशस्य प्रमाणान्तरसंवादसम्भवान्निश्चीयेतापि, अदृष्टे तु विषये प्रमाणान्तरसंवादासम्भवात् कथं तद्विनिश्चय इति तदर्थमाप्तग्रहणम् । आप्तस्योपदेशो दृष्टे विषयेऽव्यभिचारादिविशेषणार्थोपलब्धिजनकत्वेन दृष्टः, अदृष्टेऽप्याप्तोपदेशरूपत्वात् तथाविधो भवत्येवेति । यथा नियतगन्धाधुपलब्धिजनकत्वं लक्षणं घ्राणादीनां कथं विनिश्ची[61B] येतेति तद्विनिश्चयाथ 'भूतेभ्यः" इति पदम् । विशिष्ट. भूतप्रकृतिकत्वाद् भवति नियतार्थोपलब्धिजनकत्वं लक्षणमिति । एवं हि ऐतिह्यस्येति । 'इह वटे यक्षः प्रतिवसति' एतदुपदेशरूपं न त्वाप्तोपदेशः, एतदुपदेष्टुराप्तस्यानिआता(ना)त् । - बुद्धयादिपदवदिति । यथा 'बुद्धिरुपलब्धिः' इत्यत्र पर्यायाणामेव ल[क्ष]णत्वमुक्तम् । बिम्बस्यापीति । बिम्बस्य प्रतिबिम्बे दृष्टे देवदत्तस्यैतत्पदमिति प्रतीतेः । न वर्णेभ्योऽर्थप्रतिपत्तिरपि तु वर्णाभिव्यक्तात् स्फोटादिति पक्षं निराकर्तुमाहश्रोत्रग्राह्यस्य वर्णराशेरित्यादिना । ___ आप्तिं दोषक्षयमाचक्षते । 'क्षीणदोषोऽनृतं वाक्यं न याद् हेवसम्भवात्' इति [माठरवृ० ५] , तदुपदेशः सत्य एवेति । हस्तसंज्ञादिलिङ्गेऽपीति । यदेत्थमगुल्यस्तदेदं बोद्धव्यमिति । अश्व इत्यादिशब्दवदिति । अश्व इति घोटकाभिधायि प्रातिपदिकम् , आख्यातं तु श्वयतेः चङि सिपि “विभाषा धेट्श्व्योः ” (पाणिनि ३.१.४९] इति श्वेः अडि 'श्वयतेरः' [पाणिनि ७.४.१८] इत्यत्वेऽडागमे च कृते यत् सिद्धयति तद् बृंह(हि)[त]वांस्त्वमित्यर्थे । १ न्या०सू० १.१.१२। २ भूतेभ्य इति। नानाप्रकृतीनामेषां सतां विषयनियमः, नैकप्रकृतीनाम् । सति च विषयनियमे स्वविषयग्रहणलक्षणत्वं भवतीति । न्या भा० १.१.१२ । ३ इति होचुरित्यनिर्दिष्टप्रवक्तृकं प्रवादपारम्पर्यमै तिह्यम् । न्या० भा० २.२.१। ४ बुद्धिरुपलब्धिर्ज्ञानमित्यनान्तरम् । न्या०स० १.१.१५। ५ वर्णानां प्रत्येक वाचकत्वे द्वितीयादिवों. च्चारणानर्थक्यप्रसङ्गात् । आनर्थक्ये तु प्रत्येकमुत्पत्तिपक्षे योगपद्ये नोत्पत्त्यभावात् । अभिव्यक्तिपझे तु क्रमेणवाभिव्यक्त्या समुदायाभावात् एकस्मृत्युपारूढानां वाचकत्वे सरो रस इत्यादी अर्थप्रतिपत्त्यविशेषप्रसङ्गात् तद्व्यतिरिकः स्फोटो नादाभिव्यङग्यो वाचकः। महाभाष्यप्र० प्र०१६ । ६ आगमो ह्याप्तवचनमाप्तं दोषक्षयाद् विदुः । क्षोणदोषोऽनृतं वाक्यं न यात्विसंभवातू ।। माठरवृ. ५. । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्ट श्रीचक्रधरप्रणीतः [ का०पृ० १४० वि०पू० १५३ आप्तवादाविसंवाद सामान्यादिति । यथा धूमसामान्यादग्निसामान्यनिश्चय ए[62A]वमाप्तवादसामान्या [द] विसंवादित्वसामान्यनिश्चय इत्यर्थः । आप्तवा दानां वा अविसंवादः सामान्यं रूपम्, यो य आप्तवादः स सोऽविसंवादीत्यर्थः । पदात्तु विशेषणावगतीति । गोशब्दाद् गोत्वविशिष्टपिण्डावगतेः । सा देशस्येति । प्रमेयता, पूर्वस्मिन्नर्थे 'तस्माद्धर्मविशिष्टस्य धर्मिणः स्यात् प्रमेयता' इति [ श्लो० वा० अनु० ४७] तस्या एव प्रक्रान्तत्वात् । गत्वादिसामान्यात्मकस्य हेतोरिति । गकारऔका रविसर्जनीयव्यतिरेकेणान्यस्य भिन्नस्य गोशब्दस्याभावात् तेषां च क्षणिकत्वेनान्यत्रान्वयाभावेन गमकत्वाभावात् तत्सामान्यानामेव हेतुत्वमिति । 9 ७२ तत्पूर्ववति । अन्वयग्रहणे सति अर्थबुद्धिः, अर्थबुद्धौ सत्यामन्वयप्रहणमिति । एतेन व्यतिरेकग्रहणमिति । किमर्थ बुद्धावुत्पन्नायाम् 'यत्रेयमर्थबुद्धिर्नास्ति तत्र शब्दबुद्धिरपि नास्ति' इत्यादि । तत्र योऽन्वेति यं शब्दमिति । तथाहियथा 'घटं करोति' इत्यत्र कर्मशक्तिः प्रतीयते तथा घटशब्दापाये 'पटं करोति' इत्यत्रापि प्रतीयमाना 'अम्' प्रत्ययवाच्यत्वमात्मनो निश्चाययति; एवं 'घटं करोति' इत्यत्र घटप्रातिपदिकार्थो योऽवगतः स स [ 62B] त्यप्यम् - प्रयोगे 'पटं करो [ति]' इत्य. त्राप्रतीयमानः प्रकृत्यर्थ इति निश्चीयते । समयनियमार्थाविति । प्रकृतिप्रत्ययात्मकत्वाच्छब्दस्य कस्य कस्मिन्नंशे समयः कृत इत्ययमंशोऽस्य शब्दांशस्य वाच्योsयमस्येति प्रागुक्ताभ्यामन्वयव्यतिरेकाभ्यां निश्चीयते । नैवावगतिपूर्विकेति । न हि येन पूर्वे धूमादग्निरवगतः स एव धूमादग्निं प्रतिपद्यतेऽपि तु येनापि न प्रतिपन्नोऽग्निना सह भूयोदर्शनेन धूमस्य गृहीतः सम्बन्धः सोऽति प्रतिपद्यत एव ततोऽग्निम् | शब्दस्तु येन तदर्थवाचकत्वेनावगतः स एव ततोऽर्थ प्रतिपद्यते नान्यः । १ धर्मकीर्तेः प्रमाणवार्तिकगतकारिका (३.२१९ ) जयन्तेन सूचिता । सा यथा - आप्तवादाविसंवाद सामान्यादनुमानता । बुद्धेरगत्याभिहिता परोक्षेऽप्यस्य गोचरे ॥ २ अथ 'गौः' इत्यत्र कः शब्दः ? कारौकार विसर्जनीया इति भगवानुपवर्षः शा० भा० १.१.५ । ३ श्लो०वा०वाश्या० १६० । तत्र योऽन्वेति यं शब्दमर्थस्तस्य भवेदसौ । अन्यथाऽनुपपत्त्या हि शक्तिस्तत्राऽवतिठते ॥ इति परिपूर्ण पद्यम् । ४ अन्वयव्यतिरेकाभ्यामप्यर्थो गम्यते तयोः । अमाद्युपजनाऽपाये वृक्षार्थो ह्यनुगम्यते ॥१५७॥ वृक्षं वृक्षेण चेत्यत्र वृक्षत्वं तावदेव हि । कर्मत्वं हीयते पूर्व कर णत्वं च जायते ॥ १५८ ॥ तथा वृक्षं घटं चेति कर्मत्वमनुगम्यते । वृक्षत्वं हीयतेऽन्या च घटधीरुपजायते ।।१५९ ।। श्लो०वा०वाक्या० । चक्रधरेण एतत्कारिकाव्याख्यानं कृतमस्ति । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०१४४, वि०पृ०१५६] न्यायमञ्जरीग्रन्थिमनः ७३ तत्रापि प्रतीतिरेवेति । यद्यपि पूर्वमर्थमन्येन ततः प्रतिपन्नं ज्ञात्वा स्वयं न प्रतिपद्यतेऽपि तु परप्रतीति विनैव स्वयमेव प्रतिपद्यते तथापि परेण वक्त्रा 'अरमा च्छब्दादयमों भवता प्रतिपत्तव्यः' इति वदता 'अस्यार्थस्यास्माच्छब्दात् प्रतीतिः' 'अयं शब्द एतदर्थवाचकः' इति तदर्थप्रतीतिरेव तस्य शब्दस्य वाचकत्वे कारणत्वेन निर्दिष्टा । अतस्तत्रापि तादृशाद् वाक्याद् 'यत एतस्यास्माच्छब्दा[63A]देतदर्थप्रतीतिरस्ति एतदर्थवाचकोऽयमतोऽहमप्यस्मादमुमर्थ प्रतिपद्ये' इति भवत्यवगतिपूर्विकैवावगतिः । यत्तु पूर्ववर्णक्रमेति । यथाह भट्टः पूर्वसंस्कारयुक्तान्त्यवर्णसंस्कारकल्पना । विवक्षादि च धूमादी नास्तीत्येतेन भिन्नता ।। येरुक्ता तत्र वैधर्म्यविकल्पसमजातिता । ध्मानित्यविषाण्यादि]विशेषान्न हि भिन्नता ॥ त्रैलक्षण्यपरित्यागो यावन्न प्रतिपाद्यते । तावद्विशेषमात्रेण वदतो जातिता भवेत् ॥ [श्लो०वा ०शब्दप०१६-१८] न हि यद्धमादग्नेरनुमानं यच्च कदाचिदनित्यत्वात् कृतकत्वस्य विषाणित्वाचतुष्पा[द]त्वस्य तदनुमानतया परस्परं भिद्यते । जन्माधिकोपयोगीति' । अनुमायामनुमाने यस्त्रिलक्षणो हेतुः स न जन्माघिकोपयोगी, ज्ञानजन्मनो ज्ञानोत्पादादधिके कार्य न व्याप्रियते । ज्ञानजन्मन्येव तस्य व्यापार इत्यर्थः । त्रिलक्षणशब्देनात्र हेतुरुक्तः । अर्थोपग्रहवर्जिता नियतार्थविषयत्वहीना । नियमात् अवश्यंभावात् , अवश्य हि जीवन् विवक्षति । नियोगभावनाभेदेति । भेदः संसगों वा वाक्यार्थ इति वैयाकरणाः केचित् । [63B] आदिग्रहणाद् भेदसंसर्गौ वाक्यार्थ इत्यपि संगृहीतम् , तथा क्रिया वाक्यार्थ १ प्रलो०वा०वाक्य० २४६ । २ अथवा समर्थाधिकारोऽयं वृत्तौ क्रियते । सामर्थ्य नाम भेदः, संसर्गों वा । अपर आह भेदसंसर्गौ वा सामर्थ्य मिति । कः पुनर्भेदः संसर्गो वा ? इह राज्ञ इत्युक्ते सर्व स्वं प्रसंक्तम् , पुरुष इत्युक्ते सर्वः स्वामी प्रसक्तः। इहेदानी 'राजपुरुषमानय' इत्युक्ते राजा पुरुषं निवर्तयत्यन्येभ्यः स्वामिभ्यः, पुरुषोऽपि राजानमन्येभ्यः स्वेभ्यः । एवमेतस्मिन्नुभपतो व्यवच्छिन्ने यदि स्वार्थ जहाति कामं जहातु न जातुचित् पुरुषमात्रस्यानयनं भविष्यति । महाभाष्य २.१.१. (पृ०३३०)। तत्र भेदः संसर्गाविनाभावित्वादनुमीयमानसंसर्ग: सामर्थ्यम् , संसर्गो वा भेदाविनाभाव्यनुमेयभेदः। उभौ वा यौगपद्यनाश्रीयमाणो सामर्थ्यमित्यर्थः ।...तत्र मैदपक्षे राजा पुरुषं स्वाम्यन्तरेभ्यो निवर्त्य स्वार्थ जहाति। पुरुषस्तु अजहदपि स्वार्थ स्वान्तरेभ्यो राजानं निवर्तयति । ..एवं संसर्गेऽपि योज्यम् । महाभा०प्र० २.१.१.। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का पृ० १४४, वि०पृ० १५६ इत्यपि । नियोगभावनावादिमते नियोगस्य' भावनाया" वा संसृष्टाया वाक्यात् प्रती. यमानत्वात् तयोरेवैकतरस्य वाक्यार्थत्वम् , न संसर्गस्य भेदस्य वा तत्प्रतीत्युत्तरकालं प्रतीयमानस्य । व्यतिषक्तार्थमिति] तदुक्तम्-"व्यतिषक्ततोऽवगतेय॑तिषङ्गस्य" इति [बृहती. १. १. ७] परस्परविरुद्धाश्चेति । नाथवादाधागमा अशुचिलक्षणादिप्रतिपादका ईश्वरप्रणीततयाऽभिमताः केषाश्चित् , तदपेक्षयेदमुक्तम् । व्याघातः यथा-'उदिते जुहोत्यनुदिते जुहोति' इत्यादौ । पुनरुक्तता यथा'त्रिः प्रथमामन्वाह त्रिरुत्तमाम्' इति । सकृदुच्चारणेनैव कर्मस्वरूपप्रकाशसिद्धेः पुनरुच्चारणं पुनरुक्तम् । फलस्यानुपलम्भ:-कृतायामपि पुत्रकामेष्टावनन्तरं पुत्रस्यानुपलम्भात् । विषर्ययः अन्त्येष्ट्याम्-तत्र हि पात्रचयं विधायाह ‘स एष यज्ञायुधी यजमानोऽञ्जसा स्वर्ग लोकं याति' इति, स्वर्गफलविपरीतस्य भस्मीभावस्योपलम्भात् । यजमानशरीरावयवेषु यज्ञपात्राणां विशिष्टेन रूपेण विरचनं पात्रचयः। अर्थवादानाम विरुद्धार्थाभिधायिनाम् । 'धूम एवाग्नेर्दिवा ददृशे नार्चिः, अचिरेवाग्नेर्नक्तं ददृशे न [64A] धूमः' इत्यादीनाम् । मन्त्राणाम् च कीदृशोऽन्वयो विधायकत्वेनाभिधायक १ कोऽयं नियोगो नाम ? निशब्दो निःशेषार्थः योगार्थो युक्तिः निरवशेषो योगः नियोगः । निरवशेषत्वात भयोगस्य मनागप्यभावात् , अवश्यकर्तव्यता हि नियोगः । नियोगप्रामाणिका हि नियोगप्रतिपत्तिमात्रतः प्रवर्तन्ते । प्र०वा०भा० पृ०१४ । नियुक्तोऽहमनेन वाक्येनेति निरवशेषो योगः नियोगः, तत्र मनागप्ययोगाशङ्कायाः संभवाभावात् । तत्त्वार्थश्लो पृ०२६१ । अष्टसहस्री पृ०५ । २ तेन भूतिषु कर्तृत्वं प्रतिपन्नस्य वस्तुनः । प्रयोजकक्रियामाहुः भावनां भावनाविदः ॥ तन्त्रवा० २.१.१. । भाव्यभावनसमर्थो हि व्यापारो भावना । भावनावि० ६। भावना नाम भवितुर्भवनानुकूलो भावयितुर्व्यापार विशेषः । अर्थसं० पृ०७ ३ द्र. कल्याणी मल्लिककृत 'नाथसम्प्रदायेर इतिहास दर्शन ओ साधनप्रणाली' ।। तदप्रामाण्यमनृतव्याघातपुनरुक्तदोषेभ्यः । न्यान्सू० २.१.५७ । विहितव्याघातदोषाच्च हवने 'उदिते होतव्यम् अनुदिते होतव्यम् समयाध्युषिते होतव्यम्' इति विधाय विहितं व्याहन्ति - 'श्यावोऽस्याहुतिमभ्यवहरति य उदिते जुहोति, शबलोऽस्याहुतिमभ्यवहरति योऽनुदिते जुहोति, श्यावशबलावस्याहुतिमभ्यवहरतो यः समयाध्युषिते जुहोति' । न्या.भा. २.१.५७ । ५ पुनरुकतादोषाच्च । अभ्यासे देश्यमाने 'त्रिः प्रथमामन्वाह त्रिरुत्तमाम्' इति पुनरुक्कदोषो भवति । पुनरुक्तं च प्रमत्तवाक्यम् । न्या०भा० २.१.५७ । ६ अनृतदोषात् , पुत्रकामेष्टौ । 'पुत्रकामः पण्या यजेत' इति नेष्टौ संस्थितायां पुत्रजन्म दृश्यते। न्या०भा०२.१.५७ । ७ शाबरभाष्ये (१.१.५) उद्धृतम् । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ० १५२, वि०पृ०१६६] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः त्वेन वा । नामधेयादिपदानाम् उद्भिदादीनां किं गुणार्थत्वेन समन्वय उत कर्मनामधेयतयेति । जीविकोपायबुद्धयेति । यथोक्तम् अग्निहोत्रं त्रयो वेदास्त्रिदण्डं भस्म मुण्डनम् । बुद्धिपौरुषहीनानां जीविकेति बृहस्पतिः ॥ इति ॥' विकल्पयोनयः शब्दा इति । 'अमुमथै प्रतिपादयामि' इत्येवमात्मकविकल्पोपारूढार्थप्रतिपादनाय शब्दप्रयोगात् शब्दाच्च 'अयमर्थोऽवगतः' इत्येवंरूपविकल्पोदयात् । निषेधवाक्यैकवाक्यतैव न स्यादिति । अननुभूतार्थं न प्रयोक्तव्यं यथा किमिति शब्दपरत्वे भवत्येकवाक्यता, अर्थपरत्वे तु यथा किमित्यपेक्षायामगुल्यग्रहस्तियूथशतयोराधाराधेयसम्बन्धरूपोऽर्थो न सङ्गच्छते ।। तदुक्तमिति । प्राभाकरं वचो ज्ञापकत्वेनाह-'प्रमाणान्तरदर्शनम्' इति । वक्ता यद्वशेन परस्मै अर्थ प्रतिपादयति तदस्य प्रमाणान्तरदर्शनशब्देन विवक्षितम् , तच्च कदाचिदज्ञानमोहाद्यपि भवति । तत्तथ्यमपि भवतीति । पौरुषेयं वच इति प्रकृतम् । पीठबन्धः भूमिकारचनम् । अप्रामाण्यमवस्तुत्वादिति । अप्रामाण्यं ध[64B]मि, कारणदोषतो न स्यादिति साध्यम् , अवस्तुत्वादिति हेतुः । 'वस्तुत्वात्तु गुणैस्तेषां प्रामाण्यमुपजन्यते' इस्युत्तरमर्धम् [श्लो०वा०चोदना० ३९] । [चक्रकेति] त्रियन्त्र्यादीनां परस्परसापेक्षाणां चक्रवद् भ्रमतां चक्रव्य[प]देशः। __ अर्थान्यथात्वेति । अर्थान्यथात्वज्ञानात् 'शुक्तिकेय न रजतम्' इत्यादौ, हेतू. स्थदोषज्ञानात् कारणदोषज्ञानाद् द्विचन्द्रज्ञानादौ । चमसेनापः प्रणयन्तीति । चमसेन यज्ञपात्रविशेषेण अपः प्रणयन्ति विशिप्टेन मन्त्रेण प्राङ् नयन्ति, गार्हपत्यदेशादाहवनीयदेशं नयन्ति । पिष्टसंयवनाद्यर्थ ताभिस्संयुते पिण्डीकृते पिष्टे पुरोडाशनिर्वृत्तिद्वारेणाग्नेयोऽष्टाकपालो भवतीति प्रधानयागनिवृत्तेः क्रतूपकारकत्वात् क्रत्वर्थश्चमसः । १ बृहस्पतेः धृतं सर्वदर्शनसमहे । २ (संभवतः दिग्नागस्य) प्रसिद्धबौद्धकारिकेयमनेकान्थेषूद्धृता यथा स्याद्वादरत्नाकरे पृ० ७०१, सिद्धिविनिश्चयटीकायां पृ. ४४९, ६२०, नयचक्रटीकायां प्र. २४३। 'एतदत्राकूतम्-विकल्पयोगयो हि शब्दाः . ...' न्यावा० ता०टी०पृ०४.३। ३ बृहती १.१.२ । ४ शा०भा० १.२.२ । ५ तल्लक्षणम्"स्वापेक्षणीयापेक्षितसापेक्षत्वनिबन्धनः प्रसङ्गश्चक्रकः" वाचस्पत्यम पृ० २८३६ । ६ श्लोक वा०चोदना० ५३ । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का पृ०१५२, वि०पृ०१६६ गोदोहनेन पशुकामस्य प्रणयेदिति । यः पशुकामो यजमानस्तदर्थ गावो दुह्यन्ते यस्मिन् पात्रे तेनाध्वर्युरपां प्रणयनं कुर्यात् ; अत्र गोदोहनमिष्टपशुसम्पादकत्वेन पुरुषेणार्थ्यमानत्वात् पुरुषार्थम् , क्रतोस्तु चमसकृतेनैव प्रणयनेनोपकारसिद्धेः क्रतुनाऽनपेक्षमाणत्वान्न क्रत्वर्थम् । तदेवमनयोः क्रत्वर्थपुरुषार्थत्वेन भिन्नविषयत्वेऽपि गोदोहनं प्रणयनमकुर्वन्न फ[65AJलाय प्रभवति, क्रियामनाश्रित्य कारणस्य शुद्धस्य फलं जनयितुमसामर्थ्यात् ; अतस्तेन प्रणयनमवश्यं कार्यम् ; तेन चेत् प्रणयनं क्रियते कृतत्वात् प्रणयनस्य तेनैव संयवनादिकार्यसिद्धेराच्चमसो निवर्तते । नन्वत्रास्त्वेककार्यस्वान्निवृत्तिः, दार्टान्तिके तु द्विचन्द्रज्ञानदोषज्ञानादौ कीदृश्येककार्यता ? उच्यते । एकस्मिन्नर्थे तथात्वातथात्वप्रदर्शनेन व्यापार एककार्यत्वम् । दोषज्ञानम् 'दुष्टं मे चक्षुः' इति ज्ञानम् दोषाणामयथार्थज्ञानजननद्वारेण द्विचन्द्रज्ञानप्रतिभासिनोऽर्थस्यातथात्वं ज्ञापयति, द्विचन्द्रज्ञानम् तु तथात्वमेव स्वप्रतिभास्यस्यार्थस्यावेदयते; न वै तत् तथात्वमतथात्वं चैकस्य वस्तुनः सम्भवतीत्यर्थाद् बाध इत्यर्थः । त्रिचतुरज्ञानजन्मनो नाधिकेति' । जन्मन इति पञ्चमी। वक्त्रधीन इति स्थितमित्यस्यापरमर्धम्-'तदभावः कचित्तावद् गुणवद्वक्तृकत्वतः' इति [श्लो०वा०चोदना० ६२] । वक्तभावाल्लघीयसी" अयत्नसिद्धा। तत् प्रमाणं बादरायणस्येति । तत् शाब्दं बादरायणस्याचार्यस्य मतेऽनपेक्षत्वात् प्रमाणम् , अन्यानपेक्षं प्रमाणं स्वत एव प्रमाणमित्यर्थः । एवं मीमांसकदृष्ट्या स्वतः प्रामाण्यं प्रति[65B]पाद्य वेदस्य तदप्रामाण्ये धर्मकीर्तेः। श्लोकद्वयम् गिरां मिथ्यात्वहेतुना दोषाणां पुरुषाश्रयात् । ___ अपौरुषेयं सत्यार्थमिति केचित् प्रचक्षते ॥ [प्र०वा० ३.२२४] इत्येकं मीमांसकमतानुवादतया व्यवस्थितमपरं च तत्प्रतिषेधायगिरां सत्यत्वहेतूनां गुणानां पुरुषाश्रयात् । अपौरुषेय मिथ्यार्थं किन्नेत्यन्ये प्रचक्षते ॥ [प्र०वा० ३.२२५] इति व्यत्ययेनेति-तदिदानी यथा पठितुं युज्यते तथा पठितुमाह-गिरां मिथ्यात्वहेतूनामित्यादिना। १ श्लोव्वा०चोदना. ६० । २ प्रलो०वाञ्चोदना० ६८। . ३ मी० सू० १.१.५ । vvwww Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०१६०, वि०पृ०१७३] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः ७७ अस्ति कूपे जलमिति । एतद् ज्ञानमुभयकोटिस्पृक्त्वेनानुत्पद्यमानमपि संवादविसंवादाभावात् संशय इति कल्प्यते । संवादे सम्यग् ज्ञानं स्यात् विसंवादे तु मिथ्या, संशयविपर्ययसम्यग्ज्ञानातिरिक्तस्य चतुर्थस्य ज्ञानात्मनोऽनभ्युपगमात्तु संशय एव । यदि तावत् स्पष्टते[ति] । सत्यरजतवदर्थान्तरविवेकेन यत्रार्थः प्रतिभासते से स्पष्टः । समनन्तरमेव विरुद्धज्ञानान्तरानपसार्यमाणस्वभावो निष्कम्पः । अनाश्वासस्थानं यो न भवति संभाव्यमानार्थत्वात् [66A]स निर्विचिकित्सः। अभिशापपरम्परा 'संशयात्मा विनश्यति' [भगवद्गीता ४.४०] इत्यादिका। पूर्वप्रत्ययापेक्षेति । व्यभिचारिता हि ज्ञानस्य दोषहेतुका, ते च सन्निकर्षविप्रकर्षापेक्षाः कारणं मिथ्याधियः । तत्र यदा विप्रकर्षाद् दोषेभ्यः मिथ्याधीस्तदाऽसौ सन्निकर्षान्निवर्तते, मरीचित्रिव दूराज्जाता जलधीः सन्निकर्षात्तु मरीचिधीरेव; यत्र पुनः सन्निकर्षविप्रकर्षयोरपि तथात्वं तत्र सम्यक्त्वमेव । इतीयं सा पूर्वप्रत्ययापेक्षोत्तरा संवित् । संशयो हि साधर्म्यनिबन्धनो ज्ञाने विशेषदर्शनान्निवर्तते स्थाणाविव करपादादिविशेषदर्शनादित्यभिप्रायेणोक्तम्-विशेषदर्शनं वेति । नातीव हृदयङ्गममिति । उत्तरस्या अपि संविदः कदाचिदसत्यर्थे समुत्पादाशङ्कासम्भवाद् विशेषदर्शनस्य चासत्यपि विशेष इति । तथा च विशेषदर्शनेऽपि संशीतिः कचित् कराद्यवयवावलोक[66B] रूपे, तथाहि -'तस्याः पाणिरयं न कोमलदलश्चलत्यत्राङ्गुलिपल्लवः' इत्यादौ संशय्य पश्चान्निश्चिनुते । विषयस्य चलत्वेति । चलत्वं मरीचिकादौ, सादृश्यं शुक्तिकादौ । अतः पूर्वमव्यभिचारित्वदर्शने सिद्ध इति । किञ्चित् फलज्ञानमव्यभिचारि दृष्टम् किञ्चिच्च व्यभिचारि यदा तदा तृतीये ज्ञाने संशयः । तत्र यदव्यभिचारि दृष्टं तस्य यथाऽव्यभिचारित्वग्रहस्तथाऽस्यापि इति भावः । यत्त तद्विशेषज्ञानमपीति । अर्थक्रियायां यद्विशेषज्ञानांशे चाचमनादिकायकलापज्ञानं प्रागुदाहृतं तदपि ज्ञानत्वादन्यतो निश्चितप्रामाण्यमिति तन्निश्चायकस्याप्यन्यतः प्रामाण्यनिश्चय इत्यनवस्था' । अर्थक्रियाज्ञानप्रामाण्याद्वा तत्प्रामाण्यनिश्चये इतरेतराश्रयत्वम् , तत्प्रामाण्यादर्थक्रियाज्ञान[प्रामाण्यमर्थक्रियाज्ञान प्रामाण्याच्च तत्प्रा १ यदि हि सर्वमेव ज्ञानं स्वविषयतथात्वावधारणे स्वयमसमर्थ विज्ञानान्तरमपेक्षेत ततः कारणगुणसंवादाऽर्थक्रियाज्ञानान्यपि स्वविषयभूतगुणाद्यवधारणेऽपरमपेक्षेरन् , अपरमपि तथेति न कश्चिदर्थो जन्मसहस्रेणाप्यध्यवसीयेतेति प्रामाण्यमेवोत्सीदेत् । शादी०पू०७८ । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का०पृ०१६०, वि०पृ०१७३ माण्यम् । एतदेव 'अमतिपत्तिमहतताकथनं वा' इत्यनेनोक्तम् , इतरेतराश्रयत्वे हि एकाप्रतिपत्तावितराप्रतिपत्तिरिति । प्रमाणतोऽर्थप्रतिपत्ताविति'। प्रमाणादर्थप्रतिपत्तिस्ततः प्रवृत्तेश्च सामर्थ्य फलाभिसम्बन्धस्ततोऽर्थवत् प्रमाणं ज्ञायते, अर्थसहकारित्वेन ज्ञायते प्रमाणतया[67A] ज्ञायत इत्यर्थः । प्रयोगक्रियाभ्यावृत्तिरिति । यथा 'द्विभुक्तः' इति भोजनस्य या प्रयोगक्रियाऽनुष्ठानसम्पादनं तस्याभ्यावृत्तिः पौनःपुन्यम् । परीक्षितैस्तु तत्परीक्षाकरणमिति । यैः प्रमाणैः परीक्षितैः परीक्षा क्रियते तेषामपि परीक्षितानां प्रमाणानां परीक्षाकारीणि प्रमाणानि अप्रमाणानि वा। अप्रमाणैः परीक्षाकरणमयुक्तम् , प्रमाणैश्चैतेषामपि प्रामाण्यपरोक्षणमन्यत इति अनवस्था । प्रामाण्यमस्य निरणायि निश्चितम् । सुशिक्षितास्त्विति प्राभाकरान् निर्दिशति । इयमस्मि कृत्या सीता संवृत्तेति । कृत्यारावणाख्यनाटकोक्तं वस्तूपहासपरत्वेन निर्दिशति । तत्र हि जातवेदसा रावणवधाय कृत्योत्थापिता सा रावणागमनसमये स्वरूपतिरोधानेन सीतारूपा संवृत्ता 'इयमस्मि कृत्या सीता संवृत्ता' इत्यभिधाय । __ भवत्वित्यादि । अनाद्यविद्यायाता असत्यरूपप्रदर्शनशक्तिर्विज्ञानस्य वासना यत्सम्बन्धादात्मानं प्रदर्शयद् विज्ञानमसन्तमपि बाह्याकारं दर्शयतीति बौद्धाः । यदन्त यरूपं हीत्यस्योत्तरम्-'सोऽर्थो विज्ञानरूपत्वात् तत्प्रत्ययतयापि वा' इति । तदेव विज्ञानं प्रत्ययः [67B] कारण यस्यासौ तत्प्रत्ययः, तस्य भावः तत्यत्ययता, तया । बहिबुद्धेरसम्मवादिति । बहिष्प्रतिभासस्तावदवश्याभ्युपेयः, बहिश्च बुद्धिर्नास्तीति बलादसख्यातिवादापत्तिः । तस्मात् प्रमुषितामेनां स्मृतिमिच्छन्ति तार्किकाः । अभ्यस्ते विषयेऽविनाभावस्मृतिवदिति योजना । सर्वेण सर्व सर्वात्मना । सामानाधिकरण्येन केचिदिति । “यदा वैयधिकरण्यानवभासस्तदा सामानाधिकरण्यभ्रमः, तन्निबन्धनः परामर्शोऽपि 'तथा चेदं रजतजातीयम्' इति यदि १ न्या० भा० पृ० १ । २ सामर्थ्य पुनरस्याः फलेनाभिसम्बन्धः । न्या०भा० पृ०२ । ३अन्य यदि प्रमाणः प्रमाणसिद्धिर्भवत्यनवस्था । विग्रहव्या० ३२। ४ आलम्बनप० ६। ५ प्राभाकराः । ननु शुक्तिकायां रजतज्ञानं 'स्मरामि' इति प्रमोषात् स्मृतिज्ञानमुवतं, युक्तं रजतादिषु । बृहती० पृ०६८ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पू०१७३, वि०पृ०१८८] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः ७९ भवेत्तथाऽपि नास्मत्पक्षक्षतिः: प्रवृत्त्यादिव्यवहारवत् सोऽपि भवतु यद्यनुभूयते" इति केचित् प्राभाकराः । रजतज्ञानानन्तरं तदुपकारितास्मरणम् , ततः परामर्शः । एतेन पीतशङ्खादिभ्रान्तय इति । कामलोपहतं चक्षुः स्वगतं पीतत्वं गृह्णच्छङ्खगतं शुक्लत्वं ग्रहीतुं न शक्नोति स्वगतं च पीतत्वं स्वगतत्वेन न गृह्णाति । ___अनुभूतताग्रहणं हीति । वस्तुगताऽनुभूतता यदा ज्ञानेन गृह्यते परामृश्यते 'ज्ञातः स' इत्यादिना रूपेण तदा स्मरणम् ; अनुभूयमानतया तु ग्रहणम् 'अयम्' इत्यादिना रूपेण ।। विरुद्ध विशेषाः शुक्तिरूपापेक्षया ये विरुद्धा रजतत्वादयः । एकीकृ[68A]त्य प्रवर्तते इत्यस्यापि 'तयोर्भेदमगृहीत्वा प्रवर्तते' इत्ये वरूप एवार्थों यतः' । परानुभूतेन स्मरणमिति । भवताऽपि स्वप्ने स्वशिरश्छेदानुभवः स्मृतिरूप एवाभ्युपगतस्तत्र च स्वानुभवासम्भवात् परानुभूतस्यैव स्मरणमवश्याभ्युपेयम् । मनोदोषनिबन्धनेषु मानसनिद्रादिदोषजेषु स्वप्नादिज्ञानेषु । तिमिरं तितउविवरवदिति । तितउ* परिपवनम् । संयजत्रैरङ्गानि इति । “सं ते वायुर्वातेन गच्छतां सं यजत्रैरङ्गानि समाशिषा यज्ञपतिः” मै० सं० १. २. १५] । वायुस्ते तव सम्बन्धी वातेन सङ्गच्छतां सम्बन्ध्यताम्, अङ्गानि यजत्रैर्देवैः सङ्गच्छताम् , यज्ञपतिर्यजमान आसि(शि)षा सङ्गच्छतामिति पशुविशसनमन्त्रस्यार्थः । अत्र प्रकृतस्य 'गच्छताम्' इत्यस्यैकवचनत्वात् 'यजत्रैरङ्गानि' इत्यत्र 'गच्छन्ताम्' इति लौकिको वाक्यशेषः कार्यः संशब्दस्तु श्रूयमाणः स्थित एव । न वा मीमांसका इति । विपरीतख्यातिरत्याज्यत्वाद् भार्यास्थानीया । नैसर्गिकशक्त्यात्मकेति । वाच्यवाचकशक्त्योः परस्परनियतत्वं शक्त्यात्मकः सम्बन्धः । १ ग्रहणस्मरणे चेमे विवेकाऽनवभासिनी ॥३३॥ सम्यग् रजतबोधात् तु भिन्ने यद्यपि तत्त्वतः। तथापि भिन्ने नाऽभातः भेदाऽग्रहसमत्वतः ॥३४॥ सम्यग् रजतबोधश्च समकाथंगोचरः । ततो भिन्ने अबुद्धवा तु स्मरणग्रहणे इमे ॥३५॥ समानेनैव रूपेण केवलं मन्यते जनः । व्यवहारोऽपि तत्तुल्यः ततः एव प्रवर्तते ॥३७॥ समत्वेन च संवित्तः भेदस्याऽग्रहणेन च । प्रकरणपं०। २ तितउ परिपवनं भवति ततवद्वा तुन्नवद्वा तिलमात्रतुन्नमिति वा । निरुक्त ४.९ । सक्तवः परिपूयन्ते येन द्रव्येण तत् परिपवनमुच्यते । ततेन चर्मणा मदं 'तितउ'। तुन्नैर्वा छिद्रः तद्वत् तितउ । तिलमात्राणि वा तुन्नानि तस्मिन्निति तितउ । दुर्गव्याख्या । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का०पू०१७४, वि००१८९ अन्वेषणीयं तहिं प्रामाण्यकारणम् महाजनपरिग्रहादि । क्लेशकर्मविपाकादि इति । क्लेशा रागादयः 68B] | कर्माणि शुभाशुभानि । विपाको जात्यायु गाः । आदिग्रहणाद् आशयः संस्कारो धर्माधर्माख्यः । तदुक्तम्'क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेषः ईश्वरः' इति (पातञ्जलयोगसूत्रः १. २४] कर्तुर्दृश्यत्वमिति अशरीरस्य कर्तृत्वानुपपत्तेः सशरीरत्वे चेतरकर्तृवद् दृश्यत्वम्, दृश्यस्य चानुपलब्धिरभावं साधयत्येवें । युज्यतेऽतिप्रसङ्गत इति । अकिश्चित्करस्य सत्त्वमात्रेण कारणत्वकल्पनायां चैत्रस्य व्रणरोपणे स्थाणोरपि कारणत्वं प्रसज्यते । तदुक्तम् शस्त्रौषधादिसम्बन्धाच्चैत्रस्य व्रणरोपणे । असम्बद्धस्य किं स्थाणोः कारणत्वं न कल्प्यते ।। इति ॥ [प्रमाणवा०१.२४] ब्राह्मण मानेनेति । दैविकानां युगानां तु सहस्र परिसङ्ख्यया । ब्राह्ममेकमहज्ञेयं तावती रात्रिरेव च ॥ इत्यादिना [मनुस्मृति १. ७२] ॥ तत्परत्वमसाम्प्रतम् । तत्परत्वे हि नित्यत्वव्याघातः, तेनैव कर्तुः प्रतिपादनात् । तदुत्पत्तिप्रकारेति । तस्योत्पत्तौ यः प्रकार इतिकर्तव्यता, उत्पन्नस्य च प्रयोजनम् । येषामप्यनवगतोत्पत्तीनामिति । शब्दाधिकरणे[69AJ भाष्यं शब्दस्य कारणाभावाद्धेतोः कारणविनाशात् कारणसंयोगविनाशाद्वा विनाशाशङ्काप्रतिषेधपरम्-'येषामनवगतोत्पत्तीनां द्रव्याणां भाव एव लक्ष्यते, तेषामपि केषाञ्चिः दनित्यता गम्यते, येषां विनाशकारणमुपलक्ष्यते, यथाऽभिनवं पटं दृष्ट्वा, न चैनं क्रियमाणमुपलब्धवान्, अथवाऽनित्यत्वमस्याध्यवस्यति रूपमेव हि दृष्ट्वा । तन्तुव्यतिषङ्गजनितोऽयं तद्वयतिषङ्गविमोचनात् तन्तुविनाशाद्वा विनयति १ अविद्याऽस्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पञ्च क्लेशाः । यो० सू० २.३ । २ कुशलाकुशलानि कर्माणि । व्या०भा० १.२४ । कुशलाकुशलानि धर्माधर्माः तेषां च कर्मजत्वाद् उपचारात् कर्मत्वम् । तत्ववै० १. २४ । ३ सति मूले तद्विपाको जात्यायु गाः । यो. सू०२.१३। ४ क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः । यो. सू. २. १२। चित्तभूमौ शेरत इत्याशया वासनाः, ताश्च विपाकानुगुणाः तत्कारणानि, यतस्तत्तच्छरीरसाध्यभोगवासनामदोध्यैव कर्मणा विपाको दीयत इति । योगवा० १, २४ । ५ स चायं जगन्ति सृजन सशरीरोऽशरीरो वा स्यात् । सशरीरोऽपि किमस्मदादिवद् दृश्यशरीरविशिष्ट उत पिशाचादिवददृश्यशरीरविशिष्टः । स्याद्वादन ०. पृ. २४ ।। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०१७९,वि०पृ०१९५] न्यायमञ्जरोमान्थभङ्गः इत्येवमवगच्छन्ति । न चैवं शब्दस्य किञ्चित्कारणमुपलभामहे यद्विनाशाद् विनङ्. क्ष्यतीत्यवगम्यते" इति भाष्यम् [शाबरभा. १.१.६.२१] । ननु कृतकत्वादनित्यत्वानुमानं न पुनरनित्यत्वात् कृतकत्वानुमानम् , एवंसत्यनित्यत्वात् प्रयत्नानन्तरीयकत्वानुमानमपि स्यादित्याह-वस्तुगतयोश्चेति । समव्याप्तिकतया 'यद् यत् कृतकं तत् तदनित्यं, यद् यदनित्यं तत् तत् कृतकम्' इति । नैव [समव्याप्तिः] प्रत्यत्नानन्तरीयकत्वानित्यत्वयोः, 'यद् यदनित्यं तत् तत् प्रयत्नानन्तरीयकम्' इति कर्तुमशक्यत्वात् , विद्युदादौ व्यभिचा[69B]रात् । वस्तुगतयोरिति वस्तुग्रहणेनाभावगतयोाप्त्यभावमाह; प्रध्वंसो हि कृतकोऽपि नानित्यः, प्रागभावश्चानित्योऽपि न कृतक इति । तेन यत्राप्युभौ धर्मों इत्यस्य अन्त्यमधम्-'तत्रापि व्याप्यतैव स्यादङ्गं न व्यापिता मितेः' इति [श्लो० वा ०अनु० ९] । यद्यपि कामचारेण व्याप्यव्यापकभावः सिद्धयति तथापि व्याप्यत्वेन गमकत्वं वाच्यं न व्यापकत्वेन; " 'विषाण्ययं गोत्वात् न 'विषाणित्वाद् गौः' " इत्यादिषु व्याप्यत्वेनैव गमकत्वस्य दर्शनात् । तदुक्तम् विस्पष्टं दृष्टमेतच्च गोविषाणित्वयोर्मितौ। व्याप्यत्वाद् गमिका गावो व्यापिका न विषाणिता ॥ [श्लो०वा०अनु० ८] व्याप्यव्यापकयोश्च लक्षणम् - यो यस्य देशकालाभ्यां समो न्यूनोऽपि वा भवेत् । स व्याप्यो व्यापकस्तस्य समो वाऽभ्यधिकोऽपि वा ॥ इति ॥ [-लोवा०अनु० ५] यः कृतकत्वधूमादिर्यस्यानित्यत्वाग्न्यादेशकालाभ्यां समो 'यत्र देशे काले वा अनित्यत्वं तत्रावश्यं कृतकत्वम्' इति, न्यूनस्तु 'यस्मिन् देशे काले वाऽग्निस्तत्र धूमो नावश्यम्' इति स व्याप्यः; व्यापकस्तु अनित्यत्वाख्यः समः कृतकत्वेन, अभ्यधिकश्च धूमादग्निः, असत्यपि धूमे तस्य भावात् । सिद्धं यानिति । कन्वयव्यतिरेकानुविधायि यादृक् सन्निवेशविशेषादि दृष्टं[70A] तस्माद् यदनुमीयते कर्तृजातं तद् युक्तमिति तात्पर्यार्थः । शब्दसाम्याद १०वा० १.१३ । भसन्निवेशव्यावृत्तं सन्निवेशमात्र तु सदपि न तत्कार्यतया प्रत्यक्षमुपस्थापयति। प्रत्यक्षव्यापार विवादे च पटुप्रचारा व्यवहारिण: शरणम् । न हि कश्चिद् व्यवहारी घटं पुरुषकृतं पश्यन् शरावादि पर्वतादिकं वा तत्कृतमवधारयति । यदा तु शरावादीनपि तत उदयमासादयतः पश्यति तदा तानपि तत्कृतानवैति । अतः सन्निवेश विशेष पुरुषकार्य दृष्टवतः सन्निवेशमात्रात तदनुमानमयुक्तम् । मनो०१.१३। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्री बक्रधरप्रणीतः [ का०पृ०१७९, वि० पृ० १९५ भेमि इति' । सन्निवेशशब्दसाम्याद् घटादिसन्निवेशात् कर्तुरनुमितिरयुक्ता, यथा धूपोऽपि पाण्डुर्भवतीति तच्छन्दसाम्यादन्येनापि पाण्डुद्रव्येण नाग्नेरनुमानम् । व्यभिचाराणामपीति । तथाहि प्रमेयत्वादयोऽप्यनित्यत्वसिद्धये उपादीयमाना येन येन नित्येन व्यभिचारदर्शनादनैकान्तिकतां प्राप्यन्ते तस्य तस्य पक्षीकरणात् सम्यग्धेतुतां व्रजेयुः । अदृश्यस्य च कर्तुरनुपलब्धितो नास्तित्वनिश्वयानुपपत्तेरिति । पिशाचादिवदिति भावः । तत्समर्थनम् परलोकसमर्थनम्, तस्मिन् समर्थित एव ते निराकृता भवन्ति । तावतैव नास्तिकताऽभ्युपगमस्तेषामपाकृतो भवति, परलोकानभ्युपगम एव हि नास्तिकत्वं यतः । वस्तुनो द्वैरूप्यानुपपत्तेरिति । यथा यस्य नित्यत्वं स नित्यो यस्य तु तदभावः सोऽनित्यो न पुनर्नित्यानित्योऽन्यः क्वचिदस्ति, एवं यस्य साध्यसम्बन्धः स सपक्षो यस्य तु तदभावः स विपक्षो न पुनस्तृतीयः कश्चिदपि राशिविंद्यत इति भावः । अथास्य लिङ्गाभासत्वमिति पूर्वार्धेन परमतमाशङ्क्योत्तरार्धं ‘ननु तं दे [70B]शमासाद्य' इति समर्थयति । यदपि विशेषविरुद्धत्वमिति । असर्वज्ञकर्तृपूर्वकाः क्षित्यादयः कार्यत्वाद् घटादिवद् इति । विश्वतश्चक्षुरिति । विश्वस्मिन् विश्वतः । विश्वस्मिन् यानि चक्षूंषि तानि चक्षूंषि यस्य स विश्वतश्चक्षुः । एवं विश्वसम्बन्धीनि मुखान्येव मुखं यस्य, विश्वसम्बन्धिनो बाहव एव बाहू यस्य तत्यादा एव पादौ यस्येति विप्रहीतव्यम् । स द्यावापृथिवी जनयन् बाहुभ्यां बाहुसाध्येन व्यापारेण द्विपदं मनुष्यादीन् संघमति संयुनक्ति, अनेकार्थत्वाद् धातूनां संपूर्वी धमतिः संयोजनार्थः । पतत्रिणः पक्षिणस्तु पक्षैः पक्षव्यापारेण संघमति संयुनक्ति । तदधीना द्विपदां चतुष्पदां स्वस्वव्या[पा] रे 1 १ प्र० वा० १. १४ । वस्तुभेदे घटे प्रसिद्धस्य पुरुषपूर्वकत्वस्य सन्निवेश इति शब्दसाम्याद् अमेदिनः सन्निवेशमात्रात् पर्वतादौ न युक्ता अनुमितिः पाण्डुद्रव्यादिवद् हुताशने । यथा पाण्डुविशेषस्य धूमस्य कारणत्वेन दृष्टे वह्नौ पाण्डुशब्द साम्याद् अभेदिनो यतः कुतश्चित् पाण्डुद्रव्याद् धूमादेरनुमानमनुचितमतो यत्तद् बुद्धिमव्याप्तं सन्निवेशादि तद्धर्मिणि नास्तीस्यसिद्धिर्हेतूनाम् । मनो० १. १४ । २ न ईश्वरानभ्युपगमः नापि वेदानभ्युपगमः नास्तिकत्वं भारतीय दर्शनपरम्परायाम् । द्र० पाणिनि ४ ४ ६० सूत्रस्य नारायणोपनिषद् ३.२ । 1 भाष्यम् । ३ तै० आ०१० । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०१८६,वि०पृ.२०३] न्यायमञ्जरीप्रन्थिभङ्गः प्रवृत्तिरिति दर्शयति । अत्र संशब्देन व्यवहितेनापि धमतीत्यस्य सम्बन्धः, "छन्दसि परेऽपि" "व्यवहिताश्च" इति [पाणिनि १.४.८१-८२] स्मरणात् । अपाणिपादो जवन इति । स्वतः पाणिपादरहितोऽपि जवनो ग्रहीता पादसाध्यवेगगमनयुक्तो हस्तसाध्यग्रहणयुक्तश्च; चक्षःश्रवण [71A]रहितश्च तज्जन्यदर्शनश्रवणयुक्तः; स वेत्ति वेद्यममनस्कोऽपि सर्वज्ञत्वात् , न च तस्यास्ति वेत्ता ततोऽधिको यस्मात् । तमाहुरग्र्यं प्रधानं कारणम् , महान्तं विभुम् । क्रियाशक्तिः प्रकाशशक्तिश्चेतरात्मनां करणद्वारिका, भगवतः पुनः स्वत इति दर्शयति । अथ ‘एवंभूतोऽयं रौद्रश्चरुः प्रशस्तो यस्यैवंविधो रुद्रो देवता' इति देवतास्तुतिद्वारेण कर्मस्तुतिपर्यवसायित्वादेवप्रायाणां मन्त्रार्थवादानां कथं स्वार्थनिष्ठतेति ? तत्राप्याह--न च कार्ये एवार्थे वेदः प्रमाणमित्यादि। न चेतरेतराश्रयमिति । सतीश्वरे कर्तर्यस्य प्रामाण्यम् , सति चैतत्प्रामाण्ये ईश्वरकर्तृकत्वसिद्धिरिति । स्तवरकेभ्य इवेति । पट्टसूत्रनिर्मितचि(श्चि)त्ररूपः पट स्तवरक उच्यते । अक्षरः परमात्मा, कूटस्थोऽविचलरूपतया नित्य इत्यर्थः । लोकत्रयमाविश्याधिष्ठातृत्वेनाभिव्याप्य । द्वा सुपर्णा इति । द्वौ क्षेत्रज्ञपरमात्मानौ, सुपर्णी शोमनगती, सह युज्येते नियम्यनियन्तृभावेनेति सयुनौ[71B] परस्परसम्बद्धौ, समानं ख्यानं प्रसिद्धिर्तृित्वामूर्तत्वादितुल्यधर्मयोगेन ययोस्तौ सखायौ तुल्यख्याती, समानं वृक्षमिव वृक्ष शरीराख्यं परिषस्वजाते समाश्रित्य प्रवर्तेते; तयोरेकः पिप्पलमिव पिप्पलं स्वकर्मफलं स्वादु मिष्टं स्वादु च कृत्वा भुङ्क्ते, अनश्नन्नन्यः कर्माभावेन तत्फलस्याभावात्, अभिचाकशीति सर्वमभिपश्यन्नास्ते । यथा सुपी पक्षिणावेकं वृक्षं समाश्रयत इत्युपमयैवमभिहितम् । संसार्यात्मनां तु सुगतित्वानुवादो बाहुल्यापेक्षया, न तु सर्वदा संसार्यात्मानः सुगतय इति । द्वा इत्यत्र औकारस्य छान्दसो डादेशः । कर्मभिः सर्व बीजानामित्यस्य पूर्वमर्धम्-'कस्यचिद्धेतुमात्रस्य यद्यधिष्ठातृतोच्यते' इति । कर्मभिस्तत्सिद्धरधिष्ठातृत्वसिद्धेः। बीजकार्यत्वाद् बीजशब्देन कार्यमत्रोच्यते, उपभोगसाधनत्वाद्वा कार्य बीजमुक्तम् , कर्मद्वारेण चात्मेच्छापूर्वकत्वात् सर्वकर्मणामात्मेच्छाधिष्ठातृत्वसिद्धिर्विवक्षिता । मठच्छात्राणां भिन्नाभिप्रायाणामपि कचित् कार्ये सङ्गानेऽपि नास्ति सर्वत्रैकमत्यमिति प्रदर्शयितुमाह--मठपर्षदोऽपीत्यादिना। . १ श्वेताश्वतरोपनिषद् ३.१९ । २ भगवद्गीता १५.१६ । ३ भगवद्गीता । मुण्डकोपनिषद् ३.१। ५ प्रलो० वा० सम्बन्धाक्षेपपरिहार ७५। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का पृ०१८७,वि०पृ०२०३ त[72A]स्मादधवदेवेति'। समस्तक्षयजन्मभ्यां समस्तक्षयजन्मनी आश्रित्य । अतीतः कालः धर्मी समस्तक्षयजन्मयुक्तो न भवति, कालत्वात् , अद्यतनकालवदिति दृष्टान्तः । न प्रयोजनानुवति प्रमाणमिति । प्रमाणात् तथाविधं तदैश्वर्यमवगम्यते, यदि तन्निष्प्रयोजनं तत्प्रमाणं किं करोति । न हि लोष्ठदर्शनस्य निष्प्रयोजनत्वात् सुवर्णदर्शनं तदिति कल्प्यते । नित्यमबुद्धमुदिताय । नित्यो यः प्रबोधो ज्ञानं, नित्यश्च यो मोदः सुखं तद्युतो यः ।। सादृश्याद् दध्यत्रेति इ-कारवद् य-कारस्यापि तालव्यत्वात् । स्मृतेाकरणलक्षणाया "इको यणचि"[पाणिनि ६. १. ७७] इत्यादिकायाः । प्रयोगाभिप्रायश्चेति । 'शब्दं कुरु' 'शब्दप्रयोगं कुरु' इति, अतो न 'शब्दमुत्पादय' इति; यथा 'गोमयान् कुरु' संस्कारार्थो न करोत्यर्थो न तूत्पादयेति । सिद्ध हि शब्देऽर्थे इति । सिद्धे नित्य इत्यर्थः । तदुक्तम् -'सिद्धे शब्दार्थसम्बन्धे लोकतोऽर्थप्रयुक्त शब्दप्रयोगे शास्त्रेण धर्मनियमः क्रियते' इति [पाणिनिवा० १. १. १] । तहि यत्सहशमसौ प्रयुक्त इति । यतः येनार्थः प्रतिपन्नः सोऽपि साक्षादर्थवान् न भवति सम्बन्धाभावात् तेनार्थनाभिनवोत्पन्नत्वेन तस्याप्यर्थ[72B] वत्सादृश्येन गमकः । मूलसादृश्याविनाशादिति । यथाहि-पितृसदृशः पुत्रस्तत्सदृशः तत्पुत्रो मूलपितुः सादृश्याद् दूरीभवन् दृश्यते यावद् अन्येऽपि तत्पुत्रतत्पुत्रास्तत्सादृश्यं मनागपि न स्पृशन्तीति । १ श्लोवा० सम्बन्धाक्षेपपरिहार ११३। २ अपि च दध्यत्रेत्यत्रेकारः प्रकृतिर्यकारो विकृत्तिरित्यपदिशन्ति । यद्विक्रियते तदनित्यम् । इकारसाहश्यं च यकारस्योपलभ्यते तेनापि तयोः प्रकृतिविकारभावो लक्ष्यते। शाबरभा०१.१.६.१० । ३ यदपरं कारणमुक्त शब्दं कुरु मा कार्षीरिति व्यवहर्तारः प्रयुञ्जते । यद्यसंशयं नित्यः शब्दः, शब्दप्रयोग कुर्विति भविष्यति । यथा गोमयान् कुर्विति संवाहे । शाबरभा० १.१.६.१४ । ४ अर्थवत्सादृश्यादर्थावगम इति चेत् । न कश्चिदर्थवान् सर्वेषां नवत्वात् । शाबरभा० १.१.६.१८ । अर्थवान् कतरः शब्दः श्रोतुर्वकत्रा च कथ्यताम् ॥ यदा पूर्वश्रुतं शब्दं नाऽसौ शक्नोति भाषितुम् । न तावदर्थवन्तं स ब्रवीति सदृश वदेत् ॥ नार्थवत्सदृशः शब्दः श्रोतुस्तत्रोपपद्यते । अर्थवद्ग्रहणाभावान्न चासावर्थवान् स्वयम् ॥ बक्तुः श्रोतृत्ववेलायामेतदेव प्रसज्यते । एवं च सर्ववतणां न शब्दः कश्चिदर्थवान् ॥ प्रलो० वा० शन्दनित्यता० २६०-२६३ । ५ अथ तत्कालजैः पुंभिस्तस्मिन् शब्देऽवधारिते । प्रवृत्तेरनुमीयेत तत्सादृश्यपरम्परा ॥२६५॥ तत्र सम्बन्धमार्गेण पूर्वोक्तेन प्रसज्यते । स्मार्य तन्मलसादृश्यं तदधीनाऽर्थनिश्चयात् ।।२६६॥ वस्तुन्युत्पत्तिभिन्ने च दूरादारभ्य कल्पितम्। स्तोकस्तोकविशेषेण साहश्यं विप्रकृष्यते ॥२६७ । प्रलो०वा० शब्दनित्यताधि० । किञ्च, स्वभावविलक्षणेषु वस्तुषु सत्यामपि सादृश्यपरम्परायां स्तोकस्तोकभेदेनैव दूरस्थस्य मूलसादृश्यमत्यन्तमेव नश्येत् विशेषतस्तु शब्दे स्तोकविशेषादेवाऽर्थाऽन्यत्वं भवति, स्वरभेदादेव बहुव्रीहितत्पुरुषार्थ मेदात्, कि पुनर्व्यम्जनमात्राक्रमादिभेदादित्याह वस्तुनीति सार्धेन । न्यायरत्नाकर० । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०१९४,वि०४०२१२] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः भिन्नैर्वक्तृमुखेति । स्थानं ताल्वादि, प्रयत्न ईषत्स्पृष्टतादिः, करणं जिह्वा. मूलादि । शब्दत्वं व्यभिचारीति । सर्ववर्णेषु भावान्नियतार्थप्रतिपत्तेरभावात् । व्यजकभेदाधीनमिति । यथैकमपि मुख खड्गादिव्यञ्जकभेदान्नानेवोपलभ्यते । न भिन्नत्वमेषितव्यमिति । अन्यथा अभिन्नप्रत्ययानिर्वाहात् । व्यजनभेदप्रत्ययवदिति । यथा व्यञ्जनानां हलां भेदप्रत्यय उपाधिकृत इति । यत्पुनरष्टादशेति । हस्वदीर्घप्लुतभेदेन त्रयोऽकारास्ते च प्रत्येकं सानुनासिक निरनुनासिकत्वेन षट् सम्पद्यन्ते ते च षट् प्रत्येकमुदात्तानुदात्तस्वरित भेदेनाष्टादश सम्पद्यन्ते । अवर्णकुलमिति । व्यञ्जकभेदमनुवर्तमानानां वर्णानामेककण्ठादिस्थानाव. च्छेदेन समुदायवाची कुलशब्दो यथैकदेशाद्युपाधिको वृक्षेषु वनशब्दः । विकृतो दीर्घप्लुतरूपो वर्णः । संवृताद् हस्वाद् वर्णा[73A]त् । नित्यस्तु स्यादिति' । दर्शनस्योच्चारणस्य परार्थत्वादर्थप्रति पत्त्यर्थत्वात् , न चागृहीतसम्बन्धोऽथ प्रत्याययतीति नित्यः । नित्यस्तु स्यादिति सूत्रे तुशब्दः पूर्व पक्षव्यावृत्त्यर्थः । आरब्धकार्या अनारब्धकार्याश्चेति । आरब्धं कार्य पटलक्षणं यैस्त आरब्धकार्याः साक्षात् पटस्यारम्भकास्तन्तवः, अंश्वादयस्तु साक्षात् पटस्यानारम्भकत्वादनारब्धकार्याः, अंशुभिर्हि तन्तवः साक्षाद् आरभ्यन्त न पटः एवम् अश्वारम्भकैरप्यशवो न तन्तवो यावत् परमाणव इति । तिरोहिते भावादिति । तिरोहिते विनष्टे शब्दे प्रत्यभिज्ञानस्य भावात् , तस्य निर्विषयत्वे शब्दाविनाशितायां न प्रामाण्यमित्यर्थः। अनेनोपोदघातेन प्रस्तावेन । स्तिमितसमीरणेति । स्तिमितो निश्चलो यः श्रोत्रवर्ती समीरणः । न हि तस्याधारद्वारक इति । यद्यपि शब्दो व्यापी तथापि तदाधाराणामव्यापितत्वात् तद्वारेण यः संस्कारः स कथं सकलदेशावस्थितशब्दसंस्कार इति शङ्कामनेन निराकरोति ।। १ मी०सू० १.१.६.१८ । २ सा हि स्याच्छब्दसंस्कारादिन्द्रियस्योभयस्य वा। तत्र सर्वैः प्रतीयेत शब्दः संस्क्रियते यदि ।।५२॥ निर्भागस्य विभोर्न स्यादेकदेशे हि संस्किया। न चाऽस्याSsधारभेदेन संस्कार नियमो भवेत् ॥५३॥ यतः शब्दो निराधारो व्योमाऽऽत्मादिवदेव च । अधायाकाशमाधारस्तत्राऽनवयवेऽसति ॥५४॥ न स्यात् प्रदेशसंस्कारः कृत्स्नशब्दमतेरपि । न हि सामस्त्यरूपेण यावद्व्योम व्यवस्थितः ॥५५॥ शक्यते सकलो बोधुमेकदेशेन संस्कृतः । ग्लो०वा०शब्दनित्यता। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ काल्पृ०१९४,वि०पृ.२१५ आकाशवदनाश्रितत्वात् केषाञ्चिन्मीमांसकानामाकाशवदनाश्रितः शब्द इति । यदि वा नैव गृह्णातीति' । मन्दोच्चारिते नैव वा गृह्यते, गृह्यते चेत् स[73B] कल ए[व] वर्णो गृह्यते न तु तस्य भागा गृह्यन्त इत्यर्थः । क एवमाह सहस्राक्ष इति । यस्य वि सहस्रमणां सः यद्येवं वक्तुं शक्नुयात् 'न दृष्टः' इति, न पुनरल्पदर्शी द्विदृगिति । योग्यतालक्षणो नियतविषयग्रहणरूपकार्यानुमेयः । तथा च भर्तमित्रेति । भर्तृमित्राख्यस्तन्त्रशुद्धयादिप्रकरणकृन्मीमांसकः 'कर्णशष्कुल्यां पवनजनितः संस्कारः श्रोत्रम्' इत्याहै, तदन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वाच्छब्दग्रहणस्य । न दृष्टस्तेषु बुद्धिवदिति । यथा लिङ्गादिबुद्धिलिंङ्ग्यादिबुद्धिमारभमाणा दृश्यते तथा न शब्दः शब्दान्तरमित्यर्थः । मूर्तिमत्त्व क्रियायोगेति । वीच्या हि मूर्तिमत्त्वादिना वीच्यन्तरकारणजातस्य प्रेरणं क्रियते, तस्मिन् हि सति वीच्यन्तरनिष्पत्तेः । तथा चोक्तम्- "देशान्तरगतं कार्य नामूर्तस्यानभिध्नतः" [लो वा० शब्दनित्यता० ९२] इति । ___ पारतन्त्र्याद् गुणत्वं रूपादिवत् सेत्स्यतीत्याशङ्कयाह-न शब्दः पारतव्येणेति । कापिलास्तु ब्रुवत इति। श्रोत्रस्याहङ्कारिकत्वाद् व्यापकत्वेन गमनासम्भवः, शब्दाभिघातेन तु या तस्य वृत्तिरुदेति सा शब्ददेशं गच्छतीति केषाञ्चित् साङ्ख्यानां[74A] मतम् । सा शब्देन विक्रियते स्वनिर्भासा संपाद्यते । गच्छन्त्याः प्रतिकूलो हीति । यस्यां दिश्युत्पन्नः शब्दस्तत्र श्रोत्रवृत्तिर्यान्ती तदिगागतेन वायुना प्रतिहन्येत । १ प्रलो० वा० स्फोटवाद १० । २ कुमारिलभट्टेन स्वानभिमत भर्तृ मित्र सिद्धान्तोऽयं प्रलो. वा० शब्दनित्यता० १३०-१३१ कारिकाद्वये निर्दिष्टः । तथाहि-इममेव च संस्कार शब्द. ग्रहणकारणम् ॥ केचित् तु पण्डितंमन्याः श्रोत्रमित्यभिमन्वते। ३ तत्र ये तावदिच्छन्ति प्राक्सयोगविभागतः ॥८८॥ शब्द उत्पद्यते तस्मादन्यस्तत्सदृशः पुनः । तदनन्तरदेशेऽभ्यस्तादृगन्यस्ततः परः ।।८९॥ वीचितरङ्गवृत्त्यैवमन्त्यः श्रोत्रेण गृह्यते । प्रलो० वा. शब्दनित्यता ४ तुलना-'गुणानां परतन्त्रत्वात्...'प्रलो० वा. आत्मवाद १०२ । गुणस्य द्रव्यपरतन्त्रत्वात् ..। हेतुबि० पृ० ५८ ५ जैनकापिलनिर्दिष्टं शब्दश्रोत्रादिसर्पणम् । “लोवा०शब्दनित्यता० १०६। 'मादिशब्देन श्रोत्रवृत्तेरूपासनम्' न्या. रत्ना। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पू० १९९, वि० पृ०२१७ ] न्यायमज्जरोग्रन्थिभङ्गः यत्र शब्द उत्पन्नस्तत आगच्छन् शब्दानुकूलो वातोऽनुवातः शब्ददेशं पुनगच्छन् प्रतिवातः । सूक्ष्मैः शब्दपुद्गलैः' शब्दपरमाणुभिः । निबद्धा न च केनचिदिति । उदकादिना कृतमीलना इत्यर्थः । प्राप्त एवेति । महाभूतक्षोभजैः शब्दस्तत्रस्थ एव गृह्यते श्रोत्रेण श्रोत्रस्य हि तद्गुणादेव तादृशी शक्तिः कल्प्यते; यथा अयस्कान्तमणेर्दूरस्थस्याप्ययसः समाकर्षिका शक्तिदर्शनादेव कल्प्यते तद्वदस्येति भावः । ८७ शब्दो यद्यप्यवर्णात्मेति । अयमाशयः । यथा गादयो वर्णा वर्णान्तरविलक्षणेन प्रातिस्तिकेन रूपेण श्रोत्रप्रत्यये प्रतिभासन्ते नैवं भेर्यादिषु शब्देषु शब्दत्वमाव्यतिरेकेणान्यस्य कस्यचिद् उपलब्धिरिति । या त्वनैकान्तिकत्वोक्तिरिति । पञ्चकृत्वो गोशब्द उच्चरित इत्यादि यत् प्रत्यभिज्ञानमुक्तं तन्न नित्यत्वसाधनायानुमानत्वेनापि त्वनित्यत्ववादिनाऽमुना प्रत्यभिज्ञारूपेण प्रत्यक्षेण विरुद्धतोद्भाव्य [74B]ते; अनैकान्तिकत्वादयश्चानुमानदोषा न प्रत्यक्षे उद्भावयितुं युज्यन्त इति भावः । अथ मा भूत् प्रकृते दूषणम्, यथा पुनरनुमानं प्रत्यभिज्ञाबाधितत्वाच्छन्दानित्यत्वसाधकं प्रत्यक्षविरुद्धत्वेन न प्रमाणम्, तथा बुद्धिकर्मणोरप्यनुमानमनित्यत्वसाधकं प्रत्यभिज्ञाबाधितत्वादप्रमाणं कस्मान्नेष्यते । एवं च तयोरपि नित्यत्वं प्राप्नोतीत्याशङ्क्याह – सिद्धान्तान्तरचिन्तेति । १ सहो सो पोग्गलो चित्तो । प्रवचनसा० २.४० । शब्दस्यापीन्द्रियग्राह्यत्वाद् गुणत्वं न खल्वाशङ्कनीयम्, तस्य वैचित्र्यप्रपञ्चितवैश्वरूपस्याप्यनेकद्रव्यात्मकपुद्गलपर्यायत्वेनाभ्युपगम्यमानत्वात् । गुणत्वे वा न त वदमूर्तद्रव्यगुणः शब्दः गुणगुणिनोरविभक प्रदेशत्वेनैकवेदन वेद्यत्वादमूर्त द्रव्यस्यापि श्रवणेन्द्रियविषयत्वापत्तेः । पर्यायलक्षणेनोत्खातगुणलक्षणत्वान्मूर्त द्रव्यगुणोऽपि न भवति । पर्यायलक्षणं हि कादाचित्कत्वं गुणलक्षणं तु मित्यत्वम् ।... ततोऽस्तु शब्दः पुद्गलपर्याय एवेति । प्रचचनसा० तत्वदी० । २ " अप्राप्तान्यक्षिमनः श्रोत्राणि" अभि० को० १.४३ "चक्षुःश्रोत्रमनोऽप्राप्तविषयमुपात्तानुपात्तमहाहेतुः शब्द इति सिद्धान्तात् ” तत्वसं० पं० पृ० ६०३ । ३ महाभूतसंक्षोभजः शब्दः इत्यन्ये । न्या० भा० २.२.१२ । बौद्धराद्धान्तमाहमहाभूतसंक्षोभन इति । न्या०वा०ता०टी० २.२.१२ । ४ मुद्रितन्यायमञ्जर्या तु 'यद्वा यद्यपि वर्णात्मा' इति पाठः । ५ 'अयं भावः । नायं कृत्वसुच्प्रत्ययप्रयोगः स्वरूपेणैव शब्दाभेदे लिङ्गतयोच्यते येनानैकान्तिकत्वमुच्येत । किन्तु प्रायेण प्रत्यभिज्ञा साहचर्यं कृत्वसुच्प्रत्ययस्यास्तीति तादृशप्रत्यभिज्ञाज्ञापनार्थोऽयं कृत्वसुजुपन्यास इति । तन्त्रवा० १.१.६.२० । ६ स्यदेतत्- बुद्धिकर्मणी अपि ते प्रत्यभिज्ञायेते ते अपि नित्ये प्राप्नुतः । शा० भा० १.१.६.२० । ननु प्रत्यभिज्ञारूपलिङ्गेन यदि शब्दे नित्यत्वं साध्यते तदाऽनित्यत्वेनाभिमतयोर्बुद्धिकर्मणोरपि प्रत्यभिज्ञायमानत्वादनैकान्तिकत्वं हेतोरिति शङ्कते - स्यादेतदित्यादिना । तन्त्रवा० । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का० पृ० १९९, वि० पृ०२१७ निर्बाधं प्रत्यभिज्ञानमिति । अयमाशयः । शब्द आनुमानिक्यनित्यता, प्रत्यक्षेण च प्रत्यभिज्ञानात्मना नित्यत्वमिति प्रत्यक्षस्य बलीयस्त्वान्निर्बाधा सा प्रत्यभिज्ञा । धीकर्मणोः पुनरानुमानिकी प्रत्यभिज्ञा, अनित्यताऽप्यानुमानिकी; ततश्च तुल्यबलत्वात् तत्रानुमानयोर्नास्ति निर्बाधता प्रत्यभिज्ञायाः । बुद्धौ कर्मणि चातीन्द्रियद्रव्याधारे अप्रत्यक्षत्वादनुमानात् प्रतीतिः प्रत्यत्य ( भि) ज्ञाया आनुमानिकत्वमुक्तम् । अनित्यत्वमप्यानुमानिकमेव, सर्वेदा कार्यानुपलब्धिगम्यत्वात् तस्येति । पश्यतां तार्किकाणां पश्यतस्तार्किकान् अनादृत्येत्यर्थः । अर्थापत्तिः पूर्वयुक्ता च तस्मिन् 'दर्शनस्य परार्थत्वात्' इति । अनु[75A ]वदति यद् ध्रुवां वाचं वाचा विरूपनित्ययेत्यादिकम् । शिक्षाविदस्त्वति । ते हि मन्यन्ते वाय्ववयवा एव बहिर्निःसृताः शब्दात्मना स्थूलीभवन्ति । काष्ठेभ्य एव निःसृता धूमावयवाः सूक्ष्माः स्थूलधूमावयविजनकतया सम्पद्यन्त इति । ८८ येsपि स्थूलविनाशेति । योऽयं घटादेर्मुद्गरादिभ्यो असभागसन्ततिरूपः स्थूलो विनाशः प्रत्यक्षमुपलभ्यतेऽसौ विनश्वरस्वभावस्यावश्याभ्युपेयोऽविनश्वरस्वभावस्य ? [ अविनश्वरस्वभावस्य ] तदभ्युपगमे गगनादेरपि विनाशित्वप्रसङ्गात् । विनश्वरस्वभावत्वे चापेक्षणीयाभावात् प्रतिक्षणमेव विनाशकल्पनेति । सर्वदाऽभिव्यक्तस्योपलम्भादन्ताभावः ॥ शब्दब्रह्म वैयाकरणवदिति । यथा वैयाकरणानां उपलभ्यमाना अपि भिन्ना वर्णा निरवयवं शब्दतत्त्वं न भिन्दन्ति व्यञ्जकत्वेन तत्स्वरूपानुप्रवेशाभावात् तेषाम्, एवं भवतोऽपि मीमांसकस्य परोपाधित्वाद् वर्णभेदः शब्दस्वरूपं नानुप्रविशेदिति । १ नित्यस्तु स्याद् दर्शनस्य परार्थत्वात् । मी०सू० १.१.६.१८ । २ लिङ्गं चैवं भवति, 'वाचा विरुरनित्यया' इति । शाबरभा० १.१.७.२३ । विरूपा च सा नित्या चेति विग्रहः । रूपयतीति रूपं कर्ता । विगतं रूपं यस्या इति कर्तृरहितेत्यर्थः । अत एव नित्या वागित्यर्थः । इयं च श्रुतिरग्निस्तुतिपरा सती वाचो नित्यत्वं योतयतीति लिङ्गं भवतीति । तन्त्रवा० । ३ 'ननु वायुकारणकः स्यादिति वायुरुद्वतः संयोगविभागैः शब्दो भवतीति । तथा च शिक्षाकारा आहुः - 'वायुरापद्यते शब्दताम् इति” । शाबरभा० १.१.७.२२ । ४ द्र० प्र०वा० ३.९२-१९६, ३. २६९-२८३। न प्राग् नित्यो भूत्वा पश्चादनित्यः स्यात् एकस्वभावत्वात् । स तर्हि भावः विनाशम नाविशन् कथं नष्टो नाम । नित्यस्वभाव- विनाशयोर परस्पर रूपत्वात् । यत एवं यदि अवश्यंभावी विनाश इष्यते तदा तेन विनाशस्वभावेन भवितव्यम् तथापि विनाशहेतुः व्यर्थ इत्युक्तम् तस्माद् विनाश प्रत्यनपेक्षो भावः तद्भावनियतः । ततो यः सन् स विनाशी । नश्वरताया मिवृत्तौ सत्त्वनिवृत्तिरिति भन्वयव्यतिरेकसिद्धिः । हेतुबि० ६३ । ५ ६० श्लो०वा०स्फोटवाद २४-२५ । 1 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पू०२०१,वि.पृ०२२०] स्यायमञ्जरीप्रन्थिभङ्गः तदपि वा भिन्नमित्येक इति । एक इति वैशेषिकाः, पाकजोत्पत्तिन्यायेन य आशुतरं शरीरस्यारम्भविनाशावाहुः, साङ्ख्या वा परिणामवादिनः, बौद्धा वा क्ष[75B] णिकवादिन इति । ___ अन्या च विशेषबुद्धिरिति । विशेषबुद्धिर्यत्र पदार्थानां प्रातिस्विको विशेषः प्रतिभाति स्पष्टतया यथा गबुद्धौ यकारादिव्यतिरिक्तवर्णस्वरूपावभासः। अन्या च भेदबुद्धिर्यत्र प्रातिस्विकविशेषाप्रतिभासेऽपि वैलक्षण्यमात्रप्रतिभासो भिन्नवक्तृतयोचारितयोरिव गकारयोः । कथं पुनरसति विशेषोपलम्भे पदार्थानां भेदग्रह इत्याहविशेषाप्रतिभासेऽपीति । [विच्छेदेनेति विच्छेदेनान्यत्वेन प्रतीतिदर्शनादिति । गव्यक्त्यन्तराद् विच्छिन्ना-भेदेन न प्रतीयत इत्यर्थः । प्रतिसिक्थं विशेषो न प्रतिभातीति । तिलादीनां हि ये सिक्थगुलकास्ते तुल्यजातयो अनभिलक्ष्यगुणक्रियागतविशेषाश्च । अतो जात्यादिकृतस्तावत् तेषां विशेषो नोपलभ्यते । नापि यथा नित्यानां परमाण्वादीनामन्त्यविशेषसम्बन्धस्तथा तेषामस्ति, अनित्यत्वात् तेषाम् । एवं च विशेषानुपलम्भेऽपि यथा तत्र दृष्टत्वाद् भेदबुद्धिर्दुरपहवा तथेहापि भविष्यतीति भावः । [76A] यत्ने सतीत्यादिनाऽवयवसन्निवेशकृतविशेषदर्शनेन गुणस्य " भेदकत्वमाहू, कश्चिद् गुलकस्त्रिकोणः कश्चिच्चतुरन इति । अवयवसन्निवेशस्य च त्रिकोणस्वादेः संयोगविशेषत्वात् । ननु बुद्धिरप्येका नित्या चेति साङ्ख्याभिप्रायेणाह अथवा भट्ट[]ष्ट्या यथाह भट्टः बुद्धीनामपि चैतन्यस्वाभाव्यात् पुरुषस्य नः । नित्यत्वमेकता चेष्टा भेदस्तु विषयाश्रयः ॥ स्वरूपेण यथा वह्निनित्यं दहनकर्मकः । उपनीतं दहत्यर्थ दाह्यं नान्यं तु नान्यदा ॥ यथा वा दर्पणः स्वच्छो यथा वा स्फटिकोऽमलः यद्यन्निधीयते योग्यं तच्छायां प्रतिपद्यते ॥ , तत्र पुनर्जठरामलसम्बन्धात् कललारम्भकपरमाणुषु क्रियाविभागादिन्यायेन कललशरीरे मष्टे समुत्पनपाकजैः कललारम्भकपरमाणुभिरदृष्टवशादुपजातक्रियैराहारपरमाणुभिः सह सम्भूय शरीराभतरमारभ्यत इत्येषा कल्पना शरीरे प्रत्यहं द्रष्टव्या । न्या०कं० पृ०८५ । २ प्रलोवा० स्फोरवाद २२। ३ मुद्रित लोकवार्तिके तु 'चान्यथा' इति पाठः । १२ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का०पृ०२०२,वि०पृ०२२० तथैव नित्यचैतन्याः पुमांसो देहवृत्तयः ।। गृह्णन्ति करणानीतान् रूपादीन् धीरसौ च नः ॥ तेनोपनीतसम्बन्धभङ्गित्वाद् भङ्गिनी मतिः । न नित्यं दाहको वह्निर्दाह्यासन्निधितो यथा ॥ [लो० वा० शब्दनित्यता० ४०४-४०८] इति । अहो रसमारूढो भट्ट इति । तथाहि गुणनित्यतां प्रत्यप्यसावाह एतयैव दिशा वाच्या[76B] शुक्लादेरपि नित्यता । संसर्गिभेदमात्रेण स्यात्तत्रापि हि भेदधीः ॥ स्वरूपं तु तदेवेति को जातीः कल्पयिष्यति । इत्यादि । [श्लो० वा० शब्द नित्यता० ४११-४१२] अद्वैतस्य च नातिदवीयानिति । उपलभ्यमानभेदनिराकरणद्वारेण । गत्ववदिदानी विवादास्पदीभूतत्वादिति । यथा भेदाधिष्ठानं गत्वं गव्यक्तिभेदस्यौपाधिकत्वेन स्वतो गवर्णस्य भेदाभावान्निराक्रियते तद्वत् शाबलेयादिभेदप्रतिभासस्याप्यौपाधिकत्वेन पिण्डभेदस्य स्वतोऽसम्भवाद् भेदाधिष्ठानगोत्वाभावः। चक्षु ापारभेदादप्युपपत्तेरिति । यथैकोऽपि वर्णो ध्वनिभेदाद् भिन्नः प्रतिभासते तथैकोऽपि गौः पुनः पुनश्चक्षुषा दृश्यमानः शाबलेयादिभेदेन प्रतिभासत इत्यर्थः । अत्वाभ्युपगमे अगमनशब्दवदागमनेऽप्यकारप्रत्यभिज्ञाने तुल्यार्थताशङ्कानिवारणायाह-यः पुनरकारेऽपीति । मरुतामपि तथा व्युत्पत्तेरिति । यथा व्यञ्जकवशाद् अकार एव दीर्घतया प्रतिभाति तथा अगमन-आगमनादौ भेदप्रतीतिदर्शनात् तथैव व्युत्पत्तिः । अपर आहेति प्रभाकरः। व्यक्त्यन्तरानु[77A]सन्धान मिति । व्यक्यन्तरे दृष्टे पूर्वानुभूतस्य गव्यक्त्यन्तरस्य यत्रानुसन्धानं परामर्शः । तत्कृतं हि तत् । यत् कस्याश्चिद् व्यक्तेर्व्यक्त्यन्तरेऽनुसन्धानं न सर्वासां तत् सामान्यकृतमित्यर्थः । गवयग्रहणसमये गोपिण्डानुसन्धानवदिति । अनेनानुसन्धानस्य परामर्शकत्वात् स्मरणस्वभावाभेदात् सादृश्यदर्शनमेव हेतुत्वेन कल्प्यते न सामान्यानुभव इति । पिण्डसारूप्यकारित पिण्डसादृश्यजनितमित्यर्थः । १ मुद्रित लोकवार्तिके तु 'तेनोपनेतृ' इति पाठः। २ मुद्रित लोकवार्तिके तु "सन्निधिना' इति पाठः । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०२०७, वि०पृ०२२६] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः एतेन ब्राह्मणत्वादीति । एतेन श्रवणग्राह्यत्व कृतशब्दः 'शब्द' इत्यभेदप्रत्यनिराकरणेन । ' ब्राह्मणो ब्राह्मणः' इत्यादिरप्यभेदप्रत्ययो विशिष्टानुष्ठानाद्युपाधिकृत इति हि आहे । गिरिशृङ्गमारुह्येति । सापेक्षतया सक्लेशतया तदपेक्षया दृष्टान्तः । एतेन सर्वत्र यौगपद्यादिति । सर्वत्र सर्वगवीषु गोशब्दादुच्चारिताद् युगपत् प्रत्ययदर्शनादाकृतिवचनत्वं गवादेः शब्दस्यावगम्यते, व्यक्तिवचनत्वे हि नियतैकव्यक्तिप्रतिपत्तिः स्यात् । तत्र च द्रव्यत्व-सत्तायाकृतीनां बह्वीनामपि सम्भवान्नियताकृतिवचनत्वमन्वयव्य [77B] तिरेका म्याम सकृत्प्रयोगान्निश्चीयते, असकृत्प्रयोगश्च नित्यत्वं विना न घटत इति 'सर्वत्र यौगपद्यात्' [मी० सू० १.१.६.१९] इति सूत्रार्थः । एतदपि गत्वादिजात्युपलक्षितानां भिन्नानामपि प्रयोगे सिद्धयत्यनित्यत्वपक्षेऽपीत्यनेनाभिप्रायेणोक्तम् – पञ्चकृत्वो ब्राह्मणा भुक्तवन्त इति । अत्र भुजिक्रियावद् भोक्तृणामप्यन्यत्वम् । यदपि ‘सङ्ख्याभावात्' [मी०सू० १.१.६.२० ] इति सूत्रम् शब्दे सङ्ख्याया अभावान्नित्यत्वमित्यस्यार्थः । सङ्ख्याया अभावाच्च यथा नित्यत्यं तथाऽऽह भाष्यकारः- - " अष्टकृत्वो गोशब्द उच्चरित इति हि वदन्ति नाष्टौ गोशब्दा इति । किमतो यद्येवम् ? अनेन वचनेनावगम्यते प्रत्यभिजानन्तीति” [ शाबरभा० १.१.६.२०] । इदमेव चेदृशं भाष्यं चेतसि निधायाह - यदपि प्रत्यभिज्ञानं तद्द्वारकमुदाहृतमिति । तद्द्वारकं कृत्वसुप्रयोगद्वारकमित्यर्थः । नियमो ननु किंकृत इति । विनाशधीरेव बाधिका न प्रत्यभिज्ञा इत्येवंरूपः । मै विनाशिताबुद्धिरिति । प्रत्युच्चारणं हि शब्दा भिन्ना उपलभ्यन्ते, सति चैक्ये भेदबुद्धिर्नानुगुणेति भेदबुद्धिर्विनाशावगमस्योपो [78A ] द्वलिका । सा चेयमिति यथा प्रत्यभिज्ञा सादृश्यादिनाऽप्युपपद्यत इत्यन्यथासिद्धा नैवं विनाशधीरित्यर्थः । ये पुनरत्र गन्धा उदाहृता इति । यथा दग्धभुवो जलसम्पर्काद् गन्धाभिव्यक्तिस्तैलस्य चातपयोगादिति । भन सोपहासमेष दूषित इति । यथाह भट्ट : - अमुमेव च संस्कारं शब्दग्रहण कारणम् ॥ केचित्तु पण्डितंमन्याः श्रोत्रमित्येव मन्वते । संज्ञासश्चारणादेष बहुमानः स्वचेतसि ॥ १ योऽपि चायं शब्दशब्दः, सोऽपि श्रोत्रग्रहणोपाधिलब्धप्रवृत्तिरिति न जातु जातिकल्पनाये विभवति ।.......अनयैव दिशा ब्राह्मणत्वादिजातिरपि निवारिता । प्रकरण पं० पृ० १०१ । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का-पृ०२०७,वि०पृ०२२६ मुधैषां बहुमानोऽयं वस्त्वनुत्पाद्य किश्चन । [श्लो० वा०शब्दनित्यता० १३०-१३२] संस्कारव्यतिरिक्ते च सर्वलोकस्य वस्तुनि ॥ श्रोत्रशब्दः प्रसिद्धोऽयं स्वाच्छा(च्छ)न्येनापनीयते । [ग्लो०वा०शब्दनित्यता० १३६-१३७] ततो वेदानुसारेणेति' । 'दिशः श्रोत्रम्' इति [ ] वेदानुसारेण । दिशः कार्यान्तराक्षेपादिति । कार्यान्तरेण पूर्वापरादिप्रत्ययेन दिगाक्षिप्यते सत्तया व्यवस्थाप्यत(ते) । आकाशस्य तु शब्दव्यतिरेकेणान्यत् कार्यान्तरं नास्तीति । आगमस्य चाऽन्यपरत्वम् । अनेन हि 'सूर्य ते चक्ष(क्षु)र्गमयताद् दिशः श्रोत्रम्' [ ] इत्यादिना पशुसंज्ञपनकाले शमिता प्रोत्साह्यते 'ते तव पशोः सम्बन्धि [78B] चक्षुरयं शमिता सूर्य गमयतात्' इति; न च भवता शमित्राऽस्य पशोरपकारः क्रियते प्रत्युतोपकार एव, एतच्छरीरावयवानां देवमूर्तिप्राप्तिहेतुत्वाद् भवतः । पशुनिहन्ताऽध्वर्युकर्मकरः मितेत्युच्यते । प्रदेशान्तरे च सैव कार्यमारभत इति । गच्छतो धूमादिदर्शनादविनामावसम्बन्धग्रहणद्वारेण यत्र धूमदर्शन जातं ततो देशान्निःसृतस्य देशान्तरे वह्नयादिबुद्धिदर्शनादिति । सीदत्सचिवेति । सचिवाः सहकारिणः, सीदददर्शनवद् यत् सामर्थ्य तत् सापेक्षतया मन्दा वृत्तिः स्वसामर्थ्यमिति यस्य । अद्रव्यं वा भवति द्रव्यमिति । न विद्यते जनक द्रव्यं यस्य । अनेकद्रव्यं जनकं यस्येति च विग्रहोऽनेकद्रव्यमित्यत्र । आश्रिताः षडपीष्यन्ते पदार्थाः कणभोजिनेति । तदुक्तम्-"षण्णामाश्रितस्वमन्यत्र नित्यद्रव्येभ्यः" [प्रशस्त०भा० पृ० ११६] इति । नियतग्रहणमूलमिति । नियतदेशं यदेतच्छब्दस्य ग्रहणमस्य कार्यत्वमेव मूल हेतुः, नित्यत्वपक्षे हि मद्रेष्वभिव्यको गोशब्दः कश्मीरेषु श्रयेतेत्यादिना नियतदेशतया ग्रहणाभावः प्रतिपादितः। न समानजातीयारम्भकत्वादिति । समानजातीयारम्भकत्वेनाकर्मत्वसाधने हीतरेतराश्रयत्वं स्या[79A]दिति भावः । आदिमत्त्वादिति । आदिः अनुत्पन्नस्योत्पादः । न प्रयत्नानन्तरीयकत्वम् अनेकान्तिकमिति । अभिव्यङ्ग्येऽपि भावादिति । यदुक्तम् आवरणानुपलब्धेश्चेति १ श्लो० पा० शब्दाधि० १५० । २ न्या.सू. २.२.१४ । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०२१३,वि०पृ०२३२] न्यायमञ्जरीप्रन्थिंभङ्गः सुत्रावयवम्' 'न हि स्तिमिता वायवः' इत्यनेन व्याख्यातुमाह । वार्तिककृतापीति उद्योतकरेण। ____ एकार्थसमवायेन इत्यस्योत्तरमर्धम्-'आधारत्वमथोच्येत नामूर्ताऽऽधीयते ह्यसौ' इति[श्लो॰वा०शब्दनित्यता० ३४०] । एकस्मिन् गवादावर्थे समवेता या सत्ता गोत्वेन सह, तया जातिमत्ता गोत्वेन सह, तया जातिमत्ता गोत्वादीनाम् । वस्तुसन्मात्रबन्धनमिति । जातिमत्त्वादिना वस्तुनः सन्मानं सत्तामात्रं साधयितुं शक्यते, न पुनरनित्यत्वादिविशेष इत्यर्थः ।। न्याये प्रत्युक्ते किंफलस्तत्प्रयोग 'न्यायोक्ते लिङ्गदर्शनम्' [मी० सू० ३.८.२१.४१]इति भवद्भिरेव व्यवस्थापितत्वात् । न च शब्दनित्यत्वसिद्धौ न्यायोऽस्ति अतो निष्फलो 'वाचाविरूपनित्यया' इत्यादिलिङ्गदर्शनोपन्यासः । सत्त्वाद्यदीति । न हि बौद्धानां स्थूलविनाशदर्शनमेव क्षणिकत्वे हेतुर[79B] पि तु सत्त्वाद्यपीत्याह । गत्यन्तरादनित्यत्वेऽर्थप्रत्यायकत्वानुपपत्तिलक्षणात् । शक्त्यन्तरादिति वा पाठे शक्त्यन्तरादर्थप्रत्यायनसामर्थ्यलक्षणात् । किं प्रौढवादिबहुमानपरिग्रहेण । मत्पक्षो युक्तो यावद् भवत्पक्षः सर्वथैव नोपपद्यत इति वादेन यः प्रौढवाद्यहमिति बहुमानस्तदाश्रयणेन । कविः कान्तदर्शनः ॥ भट्टश्रीशङ्करात्मजचक्रधरकृते न्यायमञ्जरीप्रन्थिभङ्गे तृतीयमाह्निकम् । १ न्या.सू. २.२. १८ । २ प्रलोवा० अनु० २१। ३ द्र० पृ०८८ टि०२ । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थम् आह्निकम् ॥ जटाजूटभरस्यन्दद्गङ्गाम्बुघनदुर्दिने । उल्लसच्चन्द्रकं वन्दे नीलकण्ठस्य ताण्डवम् || [80A] | ॥ ॐ नमः शिवाय ॥ प्रकरणचिन्ता हेतोरिति । यत एव प्रकरणे पक्षे चिन्ता संशयः । अविगीता अविप्रतिपत्त्या स्थिता | ननु सृष्टिकाले कर्तृदर्शनं स्मृतेर्मूलं भविष्यतीत्याह -- न च मूल इति प्रथमत इत्यर्थः । तस्मात् पौर्वापर्य पर्यालोचनेति । विधायकवाक्यानङ्गत्वेन केवलानां मन्त्रार्थवादानां विश्वतश्चक्षुरित्यादीनां अदर्शनाद् 'रौद्रं चरुं निर्वपेत्' इत्यादिविधिवाक्यैकवाक्यतया व्यवस्थितानपि तान् पृथग् गृहीत्वा भ्राम्यन्ति । यथा 'घृतघटीमानय, यावद् आपणाद् घृतं गृह्येत' इत्येतद्वाक्यैकवाक्यतया 'घृतघटीमानय' इति स्थितं रिक्तघृतघटीसंप्रत्यायकं पृथक् क्रियमाणं पूर्णघृतघटीभ्रमं जनयति । नामाख्यातेति । नाम्नामभिनवत्वं सूचयति कृतणत्वस्याग्निशब्दस्य कचित् प्रयोगः । आख्यातस्याभिनवत्वं 'होता यजतु' इत्यत्रार्थे 'होता यक्षत्' इति प्रयोगे । उपसर्गस्य 'सं ते वायुर्वातेन गच्छताम्' [ मै० सं० १. २.१५ ] इत्यादौ व्यवहितस्य प्रयोगः । स्तुतिः' प्रशंसा यथा - 'सर्वजिता वै देवाः समयजन् सर्वस्याप्त्यै सर्वस्य जित्यै सर्वमेवैतेनाप्नोति सर्वं जयति' इत्यादि । अनिष्टफलवादो निन्दा । स एष वाव प्रथमो [ यज्ञो] यज्ञानां यज्ज्योतिष्टोमो य एते [ 81B] नानिष्ट्वाऽन्येन यजते सत्यमेवैतज्जीर्यते वा प्रमीयते वा' इत्यादि । अन्यकर्तृकस्य व्याहृतस्य विधैर्वादः परकृतिः । "हुत्वा वपामेवाग्रेऽभिघारयन्ति अथ पृषदाज्यं तदु ह कठचरकाध्वर्यवः पृषदाज्यमेवाग्रेऽभिघारयन्ति [ अग्नेः ] प्राणा वै पृषदाज्यमिति बदन्तः" इत्यादि । ऐतिह्यसमाचरितो विधि ः पुराकल्पः । " तस्माद्वा एतेन पुरा ब्राह्मणा बहिष्पवमानं सामस्तोममस्तौषन् योने यज्ञं प्रतनवामहे " इत्यादि । न्यायभाष्योक्तानि स्तुत्यायुदाहरणानि । विशिष्टनामधेयकर्तृसम्बन्धनिर्वर्त्यकर्मप्रतिपादकसामान्यकर्तृमात्रनिर्वर्त्यकर्मप्रतिपादकयोरर्थद्वारेण वाक्ययोस्तु मीमांसकाः परकृतिपुराकल्पतामाहुः । आदिग्रहणमनुवादादिपरिग्रहार्थम् । शाखान्तरोक्तिसापेक्षेति । तुलना विधेः फलवादलक्षणा या प्रशंसा सा स्तुतिः सम्प्रत्ययार्था स्तूयमानं श्रधीतेति । प्रवर्तिका च फलश्रवणात् प्रवर्तते "सर्वजिता वै देवाः सर्वमयजन् सर्वस्याप्त्यै सर्वस्य जित्यै सर्वमेवैतेनाऽऽप्नोति सर्व जयति" इत्येवमादि । न्या० भा० २.१.६४ । २ तुलना -अनिष्टफलवादो निन्दा वर्जनार्था निन्दितं न समाचरेदिति । स एष वाव प्रथमो यज्ञो यज्ञानां यज्ज्योतिष्टोमो य एतेनानिष्ट्वाऽन्येन यजते गर्ते पतत्ययमेवैतज्ञ्जीर्यते वा प्रमीयते बा" इत्येवमादि । न्या० भा० २.१.६४ । ३ न्या०भा० २.१.६४ १ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०२१७, वि००२३७] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः शाखान्तरोक्तिसापेक्षत्वेन विक्षिप्तो योऽर्थः । तथाहि सामवेदे 'एष वाव प्रथमो यज्ञानां यज्ज्योतिष्टोमः' इति ज्योतिष्टोमस्य प्राथ [ 82A ] म्यविधायकं वाक्यम् । न च तत्र ज्योतिष्टोमो विहितोऽस्ति, अतः शाखान्तरविहितसापेक्षता । बबरः प्रावाहणिरकामयतेति पशुमान् स्यामिति । स एतामिष्टिमपश्यत् सतां निरवपत् स पशून् प्रत्यपद्यतेत्यादि वाक्यशेषो "बबरः प्रावाहणिरकामयत" [तै० सं० ७.१.१०] इत्यस्य शाखान्तरप्रसिद्ध इत्याहु: । प्रवाहणस्य राज्ञोऽपत्यं प्रावाहणिः । उद्दालकस्यर्षेरपत्यमौद्दालकिः । पुरूरवो मा मृथा इति । पुरूरवो मा मृथा मा प्र पप्तो मा त्वा वृकासो अशिवास उ क्षन् । न वै स्त्रैणानि सख्यानि सन्ति सालावृकाणां हृदयान्येताः । [ऋग्वेद १०. ९५.१५] इति । उर्वशी वियोगे कृतमरणाध्यवसायं विहितप्रपातपातस्थं निश्चितहिंस्रप्राणिशरीरप्रदानं राजानं पुरूरवसं मुनिर्निषेधति - हे पुरूरवः मा मृथाः प्राणान् मा त्याक्षीः, मा च पतपातपातं मा च कृथाः, मा च पतितं सन्तं त्वां वृका हिंस्राः प्राणिनः अशिवा भीषणाः क्षन् वधिषुः, यतः स्त्रीकृते भवतैतत् स [82B]र्वं क्रियते न च तासां स्त्रीणां सम्बन्धीनि सख्यानि प्रीतयः सन्ति । न स्थिरस्नेहा योषित इत्यर्थः । सालावृकाणां मर्कटानां हृदयं चित्तमिव चला ह्येता इति । प्रपप्त इति सिबू- अङि "पतः पुम्" [ पाणिनि ७.४.१९] इति पुमागमे च रूपम्, उ इत्यनर्थः को (र्थको ) निपातः; क्षन्निति हन्तेर्घश्लादेशे लुडि च्छान्दसं रूपम् । एवं चादिमतः पूर्वमनु [ष्ठि] तस्यार्थस्याभिधानाद् वेदस्याप्यादिमत्त्वम् असत्यर्थे तदभिधानासंभवात् एवंविधार्थपश्चाद्भावत्वं वेदस्येति । तेषामन्यथा व्याख्यानं त्विति । तथा च प्रावाहणिरित्यस्य व्याख्यान्तरं कृतम् । प्रवहतीति प्रावाहणिर्वायुरुच्यते स च नित्य एवेति । तदुक्तम् - " परं तु श्रुतिसामान्यमात्रम् [मी० सू० १.१.८.३१] इति । "" अनुपलब्धिरियमनेनेति । न चेत् स्मर्यते नास्ति तस्योपलब्धिः, अतोऽनु पलब्धेरभावस्तस्य ॥ , , १ " प्रवहणाद्यपत्यानां बबरादीनाम् .. " तन्त्रवा०१.१.८.२८ । २ उद्दालकस्यापत्यं गम्यते औद्दालकिः । शाबरभा० १.१,८.२८ । ३ यच्च प्रावाहणिरिति । तन्न । प्रवाहणस्य पुरुषस्यासिद्धत्वान्न प्रवाहणस्यापत्यं प्रावाहणिः । प्रशब्दः प्रकर्षे सिद्धो वहतिश्च प्रापणे । न त्वस्य समुदायः क्वचित् सिद्धः । इकारस्तु यथैवापत्ये सिद्धस्तथा क्रियायामपि कर्तरि । तस्माद् यः प्रवाहयति स प्रावाणिः । शाबरभा - १.१.८.३१ । ९५ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः का०पू०२१८,वि०पू०२३८ मन्त्रार्थवादमूलत्वमिति । विश्वतश्चक्षुरित्यादेमन्त्रार्थवादादन्यथागृहीतादीश्वरसत्तां गृहीत्वा स्मरन्तीति । उपोबलनमिष्यत इति । उद्गतं बलमुबलग(म)धिकमुद्बलमुपोबलं तस्य करणम् उपोदबलनं तेन । चित्रजगत्कार्येति । चित्रं जगल्लक्षणं यत् कार्य तद् यैः गुणैः समाहर्तुं [83A] शक्यते सर्वज्ञतादिभिस्तेषामाशयः स्थानम् । हौत्रं होतृकर्मयाज्यानुवाक्यापाठादि । आध्वर्यवमध्वर्युकर्म पुरोडाशादिकरणं होमश्च । औद्गात्रमुद्गातृकर्म स्तोत्रादिपाठः । सर्वशाखापत्ययमिति । सर्वशाखाधीनः प्रत्ययः प्रतीतिर्यस्य । न ह्ये कस्यां शाखायां निरपेक्षं कर्म प्रतीयते । काव्यसमस्यापूरण इति । यत्रैकः पादः कविना रच्यते द्वौ वा शिष्टमन्यैः पूर्यते सा काव्यसमस्या । यथा 'समुद्राद् वह्निरुत्थितः' इति 'सीताऽसमागमासह्यादाकर्णाकृष्टधन्वनः । राघवस्य शराङ्गारैः' इति पादत्रयेण पूरयन्ति । विश्ववमुकाव्यम् "जरद्गवः कम्बलपादुकाभ्यां द्वारि स्थितो गायति मत्तकानि" इत्यादिकम् । प्रसिद्धपदार्थापेक्षयाऽनन्वितार्थमिति वर्णयन्ति, मीमांसकभाष्यकृताऽस्यैवानन्वितार्थोदाहरणत्वेन प्रदर्शनात् । प्रकृष्टाध्ययननिवन्धनो भविष्यतीति । प(क)ठेनासाधारण्येनैवैषा शा [83B] स्वा प्रोक्ता शिष्येभ्यो निगदिता । भवद्भिरप्युक्तम् । 'वेदांश्चैके सन्निकर्षम् पुरुषाख्या' [मी०सू०१.१.८.२७] इति पूर्वपक्षयित्वा 'आख्या प्रवचनात्' इति [मी० सू० १.१.८.३०] सिद्धान्तयद्भिः । तत्किं कार्यकारणेति । कार्यकारणलक्षणः सम्बन्धो बीजाङ्कुरयोरिव, निमित्तनैमित्तिकलक्षणः कुविन्दपटयोरिव, आश्रयाश्रयिभावलक्षणस्तु कुण्डबदरयोरिव। आदिग्रहणात् कार्योत्पादेऽप्यनिवृत्तः कारणविशेषयोनिस्तत्कृतः सम्बन्धः पितापुत्रयोरिव । प्रत्ययनियमहेतुत्वादिति । विशिष्टार्थविषयप्रत्ययस्तेनासम्बन्धान्नोपपद्यत इति भावः । १ अरद्गवः कम्बलपादुकाभ्यां द्वारि स्थितो गायति मत्तकानि। तं ब्राह्मणी पृच्छति पुत्रकामा राजनरुमायां लशुनस्य कोऽर्थः ॥इति।। उद्धृतं तन्त्रवार्तिके (१.१.८.३२). २ 'जरद्गवो गायति मत्तकानि' कथं नाम अरद्गवो गायेत् । शाबरभा० १.१.८.३२. ३ प्रकर्षेण वचनमनन्यसाधारणं कठादिभिरनुष्ठितं स्यात् तथाऽतिहि समाख्यातारो भवन्ति । शाबरभा० १.१.८.३० संषसम्बन्धमभिप्रेत्योच्यते कार्यकारणनिमित्तनेमित्तिकाश्रयाश्रयियोमादयः सम्बन्धाः शन्दस्यार्थेनानुपपन्ना एवेति। शबरभा०१.१.५। ५ तुलना-शब्दार्थव्यवस्थामादप्रतिषेधः । न्याम्सू० २.१.५४। शब्दादर्थप्रत्ययस्य व्यवस्थादर्शनादनुमीयते अस्ति शब्दार्थसम्बन्धो व्यवस्थाकार णम् । न्या०भा०। शब्दो संबद्धमर्थ प्रतिपादयति प्रत्ययनियमहेतुत्वात् प्रदीपवत्...न्यायवा। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०२२४, वि०पृ०२४४] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः नियोगेति] व्यवस्थया नियोगो नियोजनम् । शब्दार्थाभेदवादिनां हीति । शब्द उच्चरिते शब्दाकारतया प्रथमं बुद्धिविवर्तते, सा तथा विवृत्ता सती ततोऽर्थाकारतया विपरिणमते, तस्यां च तथाभूतायां बुद्धौ शब्दस्वरूपमेवाकारतया निर्वृत्तमवगम्यत इत्यादि युक्त्युपन्यासपूर्वकं शब्दार्थयोरभेदमाहुः शाब्दाः' । संश्लेष इति] संश्लेषरूपसम्बन्ध इति, प्रागुक्तनीत्या शब्दसंसृष्टस्यैवार्थस्यावगमात् । सांसिद्धिक एवेति । स्वाभाविक एव शक्तिद्वयनियमलक्षणसम्बन्ध इत्यर्थः [84 A] | उदघोतादयः प्रदीपादयः ।। एवं प्रतीयते 'धमोऽग्नि विना न भवति' इति न पुनः 'धूमादग्निः प्रतीयते' इत्येवम् । यदि प्रत्यायकत्वं शब्दस्य स्वाभाविकं तत् प्रथमश्रुत एव कस्मान्न प्रत्याययेदित्याशङ्कानिवारणायेदं शाबरं भाष्य "प्रत्यायक इति प्रत्ययं दृष्ट्वा" इति [शाबरभा० १.१.५] । मृणिरङकुशः । कार्यभेदस्यान्यथाऽप्युपपत्तेः समयभेदेनाप्युपपत्तेः । न च वाच्यं कथमेकस्य शब्दस्य नानार्थतेति, यतो दृष्टमेतदक्षादिषु शब्देषुः तदाह-अक्षादिवदिति । यथा बिभीतकादित्रयवाचिनो अक्षशब्दस्य युगपत् त्रयवाचित्बासम्भवाद् विकल्पेन त्रयवाचित्वेऽपि प्रकरणादिवशात् क्वचिदेव व्यवस्थिते नियते विषये वृत्तिः । एवं देशान्तरे अन्य]स्मिन्नन्यस्मिन् स्वार्थे प्रयुक्तानां शब्दानां विकल्पेनानेकार्थवाचित्वेऽपि देशवशान्नियतपदार्थे वृत्तिर्भविष्यति । ततश्च 'यब'शब्दमार्या दीर्घशूकेषु प्रयुञ्जते, म्लेच्छास्तु प्रियङ्गुषु, तत् म्लेच्छप्रसिद्धिं बाधित्वा दीर्घशूकेश्वयं यवशब्दः प्रयोक्तव्यो न प्रियगुष्विति न वाच्यम् , उभयवाचकत्वेऽपि देशवशाद् व्यवस्थायाः सिद्धेः । पिकनेमतामरसादिशब्दा[84B] नामिति । पिकनेमाधिकरणे हि "चोदितं तु प्रतीयेताविरोधात् प्रमाणेन" [मी० सू० १.३.५.१०] इत्यत्रैतचि(च्चि)न्तितम् । भवतु यवादिशब्दानामार्यप्रसिद्ध एवार्थः, ये तु पिकनेमतामरसादयः मार्न कचित् प्रयुञ्य(ज्य)ते(नते) तेषां किं म्लेच्छप्रसिद्ध एवार्थ उत व्याकरणादिव्युत्पत्ति १० वाक्यपदीय १. १.। २ एकशब्दमनेकार्थ शिष्टैराचर्यते यदा । विगानेम तदा तत्र कोऽर्थः स्यात् पारमार्थिकः ॥ यववराहवेतसशब्दाः प्रियङ्गुवायसजम्बूष्वपि किल क्वापि देशान्तरे प्रयुज्यन्ते । ...... बिभीतकेऽक्षशब्दो हि यद्यप्यल्पैः प्रयुज्यते । तथाऽपि वाचकस्तस्य ज्ञायते शकटाक्षवत् ॥ तन्त्रवा० १.३.४.८ । ३ एकस्यापि हि शब्दस्य देशादिभेदेन प्रतिनियतः सङ्केतो ऽनुभूयते, यथा गुर्जरादौ चोरशब्दस्य तस्करे द्राविडादौ पुनरोदने इति । स्था० र० पृ०७०३। एकस्यापि हि शब्दस्य देशादिभेदेने प्रतिनियतः सङ्केतोऽनुभूयते, यथा मालवकादौ कर्कटिकाशब्दस्य फलविशेषे, गुर्जरादौ तु योन्यामिति । न्यायकुमुद० पृ० ५४० । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का०पृ०२२४, वि० पृ०२४५ समाश्रयणेनार्थान्तरं कल्पनीयमिति । तत्राशिष्टाचारत्वान्म्लेच्छ व्यवहारस्य वरं व्याकरणादिनैवार्थकल्पनेति पूर्वपक्षयित्वोक्तम् "अशिष्टैरपि यच्चोदितं शिष्टानवगतं तदपि प्रतीयेत प्रत्येतव्यं प्रमाणेनाविरुद्धं सत् न चात्र म्लेच्छप्रसिद्धयाश्रयणे कश्चित् प्रमाणविराधः" इत्यर्थः' “चोदितं तु प्रतीयेत" इति सूत्रस्य [ मी० सू० १-३-५-१०] । पिकः कोकिलः । नेमोऽघ (र्ध) म् । तामरसं पद्मम् । अवेष्टयधिकरणे चेति । ' अष्टौ यज्ञसंयोगात् क्रतुप्रधानमुच्यते " [मी० सू० २.३.२.३] इत्यत्रावेष्ट्यधिकरणे । अत्र हीयं चिन्ता कृता । 'राजा राजसूयेन स्वाराज्यकामो यजेत' इत्यत्र नानापशुसो - मेण्टसमुदायात्मक राजसूयाख्ययागमध्येऽवेष्टिर्नामेष्टिराम्नाता । " आग्नेयमष्टाकपालं निर्वपति हिरण्यं दक्षिणा [85A]. ऐन्द्रमेकादशकपालमृषभो दक्षिणा, वैश्वदेवं चरुं पिशङ्गी पष्ठौही दक्षिणा, मैत्रावरुणीमामिक्षां वशा दक्षिणा, बार्हस्पत्यं चरुं शितिपृष्ठो दक्षिणा" [तै. सं. १.८ १९] इति पञ्चेष्टिसमुदायात्मिका । तामेतामवेष्टिमधिकृत्याह-एतयान्नाद्यकामं याजयेदिति । पुनश्च तामेवाधिकृत्य श्रूयते - “यदि ब्राह्मणो यजेत बार्हस्पत्यं मध्ये निधायाहुति माहुति हुत्वाऽभिघारयेत्, यदि वैश्यो वैश्वदेवम्, यदि राजन्य ऐन्द्रम्" इति [ मै. सं. ४ ४ ९] तत्र संदेह: - किं राज्यस्य कर्ता राजेति व्युत्पत्तिसमाश्रयणेन जनपदपुरपरिपालनरूपराज्यकर्तृत्वेन ब्राह्मणवैश्ययोरपि राजशब्दयोगसम्भवाद् राजसूयेऽधिकाराद् बार्हस्पत्यादिमध्यनिधानादिलक्षणस्य गुणस्य विधौ ब्राह्मणत्वादिजातिनिमित्तत्वेनोपादानम्, आहोस्विद् अ ( आ )न्ध्रेषु क्षत्रियजातौ राजशब्दप्रयोगात् तदाश्रयणेन ब्राह्मणवैश्ययोरप्राप्तत्वाद् एतयान्नाद्यकामं याजयेदिति विशि[85B]ष्टफलकामयोस्तयोर पूर्वोपदेश इति । तत्र पूर्वपक्ष:- आर्यप्रसिद्धयनुग्रहात्, राज्यकर्तरि राजशब्दप्रयोगसामर्थ्यानिमित्तार्थत्वेन ब्राह्मणाद्युपादानं समर्थितम्, सिद्धान्ते तु अ (आन्ध्रप्रयोगाश्रयणेनाप्यार्यप्रसिद्धेर्बाधात् तत्समाश्रयणेन क्षत्रियजातावेव राजशब्दप्रयोग इति निश्चित्यापूर्वविधिरेवेति स्थापितम् । सूत्रार्थस्तु अवेष्टौ ब्राह्मणादिप्रतिपादनं क्रतुप्रधानमप्राप्तमेव तयोर्यज्ञकर्म विधातुम्, कुतः ? यज्ञसंयोगात्, राज्ञो हि क्षत्रियस्य राजसूययज्ञेन संयोगः सम्बन्धो न तयोः, अतोऽप्राप्तविधिरेवायं ब्राह्मणवैश्ययोरित्यर्थः । ૨ ९८ यथा १ अथ यान् शब्दान् आर्या न कस्मिंश्चिदर्थे आचरन्ति म्लेच्छास्तु कस्मिंश्चित् प्रयुञ्जते पिक नेम सत- तामरसादिशब्दास्तेषु संदेहः - किं निगमनिरुक्तव्याकरणवशेन धातुतोऽर्थः कल्पयितव्य त यत्र म्लेच्छा आचरन्ति स शब्दार्थ इति । .... चोदितमशिष्टैरपि शिष्टानवगतं प्रतीयेत यत् प्रमाणेनाविरुद्धं तदवगम्यमानं न न्याय्यं त्यक्तुम् । शाबरभा० १.३,५०१० । १ ६० शाबरभाष्यं तन्त्रवार्तिकं च (२.३.२.३) । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का पृ०२२९, वि०पृ०२५०] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः तव शक्तिपर्यन्ता व्युत्पत्तिरिति । व्युत्पत्तिः शक्तिद्वयनियमलक्षणसम्बन्धावगम इति । यथोक्तम्-"अन्यथानुपपत्त्या च वेत्ति शक्ति द्वयाश्रिताम्" [श्लो० वा. सम्बन्धाक्षेपपरिहार १४१] । अन्यथाप्युपपत्तेरित्युक्तत्वादिति । 'अयमस्य वाचकः अयं च वाच्यः' इत्येतावन्मात्रव्युत्पत्तावप्युपपत्तेः । शब्दब्रह्म इति । शब्दब्रह्मणोऽनादिनिधनस्यायमाद्यो विवर्ती वेदाः न पुनः केनचित् कृता इति वैयाकरणा यदाहुः-त्रयीरूपेण तज्ज्योतिः प्रथमं परिवर्तते" [वाक्यप० १. १ स्वोपज्ञ०] इत्यादि तदिदमपवर्गाहिनके निराकरिष्यते । अतिरभसोज्जिहानेष्विति । अतिरभसेन साटोपमुपगच्छत्सु । अर्धजरतीयं [86A]स्यादिति । यथा जरत्या अर्घ जघनमेव कामयतेऽर्धे न वदनादि । अथवाऽन्नादिसंस्कारचातुर्येण तां कामयते भद्रिका प्रतिपद्यते न तूपभोगेनेत्यर्घजरतीयम् । तत्परिमाणानामिति । अस्य द्रव्यस्येयान् भागोऽस्येयानिति । यथा 'कर्षः कर्षोऽर्धपलं पलत्रयं स्यात् , तथार्धकर्षश्च । मरिचस्य पिप्पलीनां दाडिमगुडयावकशूकानाम्' इत्यादौ परिमाणविशेषः संयोगविशेषश्च । न च स्मृतावन्धपरम्परादोषः कस्यचित् साक्षाद् द्रष्टुरभावादिति । यथा कुम्भं करोतीति कुम्भकार इत्यत्र “कर्मण्यण" [पाणिनि ३.२. १] तथा हिमवन्तं शृणोतीत्यत्र कस्मान्न भवतीति चोदिते सत्याह-इह न भवत्यनभिधानादिति । ते तु प्रत्यक्षेणैव सर्व विदितवन्तो न पुनरनुमानागमाभ्यामपीति । अविदुषामुपदेशो नावकल्पत इत्यनया युक्त्या विद्वांसः कल्पन्तां नामेति । एवं फलवेदादा[वि]ति । फलवेदः शस्यपालशास्त्रम् । तद्व्याप्तिग्रहणं जने यदीति । लोके सत्यार्थमाप्तप्रणीतं वचो दृष्टम् , वचनमपि च सत्यार्थम् , तस्मादाप्तप्रणीतमिति । मृषाऽऽयुर्वेदसङ्कीर्तनम् । येन १ 'पृथक्तीर्थप्रवादेषु दृष्टिभेदनिबन्धनम्' इत्यस्यापरमर्धम् । २ एवमपि यथैव पारम्पर्येणाविच्छेदादयं वेद इति प्रमाणमेषां स्मृतिरेवमियमपि प्रमाणं भविष्यतीति । नैतदेवम् । प्रत्यक्षे. णोपलब्धत्वाद् ग्रन्थस्य नानुपपन्नं पूर्व विज्ञानम् । अष्ट कादिषु त्वदृष्टार्थेषु पूर्वविज्ञानकारणाभावाद् न्यामोहस्मृतिरेव गम्यते । तद्यथा कश्चिज्जात्यन्धो वदेत् स्मराम्यहमस्य रूपविशेषस्येति । कुतस्ते पूर्वविज्ञानमिति च पर्यनुयुक्तो जात्यन्धमेवापरं विनिर्दिशेत् । तस्य कुतः ? जात्यन्धान्तरात् । एवं जात्यन्धपरम्परायामपि सत्यो नैव जातुचित् संप्रतीयुर्विद्वांसः सम्यग्दर्शनमेतदिति । शाबरभा. १.३.१.१. । ३. शबरभा० १. १. २।४ मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्यवञ्च तत्प्रामाण्यमाप्तप्रामाण्यात् । न्या०सू०२.१.६८। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का०पू०२२९, वि० पृ०२५० तस्याप्तप्रणीतत्वं सिद्ध्यति तेनैव वेदस्य सेम्यतीति । अकथि कथितम् अनपेक्षतया' न वेदवाचामिति । नित्यत्वेन पुरुषगुणापे [ 86B]क्षाया अभावादित्यर्थः । १०० अधर्मे धर्मरूपेवेति । विचित्रं धर्माधर्माख्यं कारणमात्रमर्थापत्त्याऽवगम्यते, न पुनर्विभागेनार्थापत्तितोऽवगतिरस्ति, अमुष्मात् कर्मणोऽनुष्ठिताद् इदमिष्टं फलमवाप्य - तेऽमुष्मात्त्विदमनिष्टमिति । कोपयुज्यतेऽनुष्ठानानौपयिकत्वात् । पदद्वये वस्तु | विरुद्धानेकपर (कमकार) त्वादिति । विरुद्धो घूकचटकन्यायेन हिंसा धर्म इत्येवमादिरूपोऽनेकप्रकारो यस्याः । गुरुदारगमनादौ च विपर्ययात् । निषिद्धत्वेनाधर्म रूपेऽप्युपकारापेक्षया धर्मत्वप्राप्तेः । इष्टादीति । इष्टयो दर्शपूर्णमासाद्याः सत्राणि द्वादशाहादीनि । युगपदखिलसर्गेति । अस्माकमप्यनादिरेव संसारः कदाचित् तु युगपत् सर्व प्रलीय पुनरुद्भवति, भवतां तु क्रमेण सृष्टिप्रलयाविति विशेषः । अकथि च रचनानां कार्यता कथितेत्यर्थः । नेश्वरस्य युक्ता [ 87A] स्मृतिरिति । स्मृतिर्हि परोक्षे भवति, 1 तस्य च सकलदर्शित्वात् तदानीमनुभव एवं वैदिकानां शब्दानां वक्तव्यः । अनुभ वाश्रयणे च वर्तमानकालविशिष्टस्यानुभवोऽङ्गीकार्यः तत्कालविशिष्टस्य वा । ता (तत्कालविशिष्टस्यानुभवे वर्तमाने सर्गे प्राणिनां वेदाग्रहणं स्यात्, वर्तमानकालविशिष्टस्य त्वनुभवे प्राक्तनादन्यत्वात् प्राङ्नीत्या शब्दानिनि (ब्दानित्यत्वादवश्यम पूर्वकरणमेवायाति । संस्काराच्च ज्ञाने विनष्टे कालान्तरे संस्कारप्रबोधात् स्मृतिर्भवति, नित्यज्ञानत्वाच्च भगवतः कथं स्मृतिसम्भव इति । अनपेक्षत्वलक्षणप्रामाण्यपक्षेऽपीति । मीमांसकपक्ष इत्यर्थः । होत्रध्वय्र्वादिव्यापाराणां व्यतिषङ्गः परस्परसम्बन्धः । प्रजापतिरकामयतेति । बहुः स्यामेको वर्तमानोऽनेकः स्यामित्यर्थः । कथं च तथात्वमित्याह - प्रजायेयेति भूतात्मनोत्पद्येत्यर्थः । स तपोऽतप्य [त ] इति [87B] तप इव तप इति 'तपः' शब्देन सङ्कल्पोऽभिहितः । सत्यसङ्कल्पत्वात् परमेश्वरस्य, तपसा यदाप्यते तस्य सङ्कल्पमात्रेणैव सिद्धेः । उक्तं च- "यस्य ज्ञानमयं तपः " [ ] इति । तपोऽतप्यत सङ्कल्पमकरोदित्यर्थः । तांल्लोकानभ्यतपत् सारोद्धरणायालोचयत् । १ तस्मात् तत् प्रमाणम् । अनपेक्षत्वात् । न ह्येवंसति प्रत्ययान्तरमपेक्षितव्यं पुरुषान्तरं वाऽपि । शाबरभा० १.१.५। २ श्लो०वा० प्रत्यक्ष० १०५ । ३ सर्वदैव चानुभवसद्-भावात् स्मृतिसंस्कारावपि नासाते इत्यष्टगुणाधिकरणो भगवानीश्वर इति केचित् । न्यायकं • पृ. १४२ । ४ शतपथब्रा० ११.४.११ । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०२३४, वि०पृ०२५४] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः पात्रिंशदब्दिकमित्यस्योत्तरमर्धम् - "तदपिकं पादिकं वा ग्रहणान्तिकमेव वा” इति[मनु. स्मृति ३. १] । ब्रह्मचारिणा चर्य चरणीयं ब्रह्म । क ? गुरौ गुरुगृहे । किमर्थम् ? त्रैवेदिकं त्रिवेदग्रहणार्थम् । किंकालावच्छिन्नम् ? तदाह-'घाट्त्रिंशदब्दिकम्" षट्त्रिंशतोऽब्दाना समाहारः षत्रिंशदब्दं तत्र भवं षात्रिंशदब्दिकम् । “ग्रहणान्तिकमेव वा" इति यावता कालेन वेदत्रयं ग्रहीतुं शक्नोति तावन्तं कालमित्यर्थः । 'आथर्वणेन न प्रज्यात्' इति आथर्वणेन कर्मणा त्रय्युक्तं कर्म न प्रवृञ्ज्यान्न मिश्रयेदिति ब्राह्मण उपदेशः । ___ यदि यज्ञोपयोगित्वमिति' । "क्रीतराजकभोज्यान्न” इत्येतद् वाक्यमथर्ववेदेऽस्ति । "अग्नीषोमीये संस्थिते दीक्षितस्य गृहे नाश्नीयात्" इत्येतच्च त्रय्यां श्रूयते । अथर्ववेदस्य यज्ञोप[88A]योग्य(ग)शून्यत्वेन प्रामाण्यमेव नास्त्यतः कथमस्य त्रयीगतेन "अग्नीषोमीये संस्थिते दीक्षितस्य गृहे नाश्नीयात्" इत्यनेन सह विरोध इत्याशङ्क्य तन्त्रटीकायामुक्तम् क्रीतराजकभोज्यान्नवाक्यं चाथर्ववैदिकम् । न च तस्याप्रमाणत्वे किश्चिदप्यस्ति कारणम् ॥ तन्त्रवा० १. ३. २] । यज्ञानुपयोगः कालमि(कारणमिति चेन्नेत्याह-यदि यज्ञोपयोगित्वमिति । आत्मीयगोचरा इति । आत्मीयः स्वसम्बन्धी पदार्थो गोचरो विषयो यासाम् । यः पदार्थों यस्मिन् वेद उत्पन्नः स पदार्थस्तस्य वेदस्यात्मीयः, अतस्तेन वेदेन तत्पदार्थविषयाः क्रियाः- यथाऽसौ पदार्थः क्रियतेऽनुष्ठीयते तथा प्रमीयते प्रतिपाद्यते-नान्यपदार्थगोचराः । यथा यजुर्वेद उत्पन्नयोर्दर्शपूर्णमासयोः क्रिया यजुर्वेदेन प्रतिपाद्यते न सामवेदोत्पन्नस्य श्येनादेरिति । एकब्रह्मत्विगाश्रिता इति । ऋत्विगन्तरनिरपेक्षेण ब्रह्मणैव निवर्त्यन्ते याः। __ अश्वमेधे पारिप्लवोपाख्यान इति । तत्र राजानमभिषिञ्चतीति राज्ञोऽभिषेकसमयेऽभिषेचनीयेष्टिक्र[88B]मे आख्यानानि सन्तीति । हरिश्चन्द्रोपाख्यानं शौनकोपाख्यानं विशिष्टर्षिराजचरितसम्बन्धा ग्रन्थविशेषाः पाठ्यत्वेन चोदिताः, तत्र च पारिप्लवोपाख्यानस्याथर्वे(व)[वे]दतया स्तुतिः क्र(कृ)ता । तथा येऽस्य प्रत्यञ्चो रश्मय इति । तत्रादित्यो वै देवमध्विति प्रकृते येऽस्य देवमध्वात्मन आदित्यस्य । मधुनाड्यो नु मधुधारिण्यः ऋच एव पुष्पं मधुजनकम् । अथर्वाङ्गिरस इत्यथर्ववेदमन्त्राणामाख्या । अथर्वाङ्गिरस एव मधुकृत १ तन्त्रवा० १.३.२. (पृ. १८९)। २ तन्त्रवा० १.३.२ (पृ० १८९)। ३ तन्त्रवा. १.३.२ (पृ.१८९)। ४ शतपथ १३.३.७.। ५ छान्दोग्योपनिषद् ३.३। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का पृ०२३३, वि०पृ०२५४ इत्यत्रेतिहासपुराणं पुष्पमिति ग्रन्थशेषः । मनोमय इति' । आशुगतित्वाद् । पुरुषविधतां रूपयित्वा तदवयवविभागमाह--यजुरेव शिर इत्यादि । आदेशः “आदित्यो वै ब्रह्म" इत्यादिको [छन्दोग्योपनिषद् ३. १९. १] रहस्यविधिरूपो अंशविशेषः । प्रतिष्ठेति । पुच्छे हि सति लब्धप्रतिष्ठो भवति । ब्रह्मयज्ञविधिपक्रम इति । ब्रह्मयज्ञो यत्र वेदाध्ययनमेव विशिष्टयेतिकर्तव्यतया क्रियते । तत् क्रियमाणं यज्ञशब्दवाच्यम् । वामग्ने पुष्करादिति । "त्वा[89A]मग्ने पुष्करादध्य[थ]र्वा निरमन्थत । मूनों विश्वस्य वाघतः” इत्यग्निनिर्मथने मन्त्रः । अत्राथर्वशब्देनाथर्वविद् ब्रह्माऽभिहितः । हे अग्ने त्वां पुष्करादरणिषु शिरारूपादाकाशाद् अथर्वा अथर्वविद् ब्रह्मा निरमन्थत निर्मथितवानुदपादयत् । अरणिस्पर्शनरूपव्यापारवत्त्वेन तत्कर्मणि तस्य मुख्यत्वात् । कथं च निरमन्थत ? अधि आधिपत्येन युक्तः, ऋत्विगन्तराणामनुज्ञादानेन तस्य प्रशास्तृत्वात् । तदनन्तरं तु विश्वस्य म्ों मूर्धानः प्रधानभूता वाघत ऋत्विजोऽग्निं निर्मथितवन्तः, होत्रादयः वाघत ऋत्विजः, 'ऋत्विजो भरताः कुरवो वाधतः' इति ऋत्विङ्नामसु पाठात् । अत्र ब्रह्मण ऋत्विक्त्वेऽपि मुख्यत्वेन पृथगनिर्देशो 'ब्राह्मणा आगता वशिष्ठाश्च' इतिवत् । श्रुतीरथर्वाङ्गिरसीरित्यस्यात्य(न्त्य)मर्धम्-'वाक्छस्त्रं ब्राह्मणस्य तेन हन्यादरीद्वि(रीन् द्वि)जः' इति[मनुस्मृति ११. ३३] । वागत्राभिचाररूपा विवक्षिता । अथर्वमन्त्रैराभिचारिकैः शत्रुन त्रून)भिचरेदित्यर्थः । कुर्यात् प्रयुञ्जीत । अगोरप्यस्य विज्ञानादिति न केवलम् , [अपि तु]न हायनैर्न[89B]पलितैर्न वित्तेन न बन्धुभिः । ऋषयश्चक्रिरे धर्म योऽनूचानस्स नो महान् ॥इति। 'वर्षादिकृतज्यैष्ठ्यव्यतिरेकेण साङ्गवेदाध्ययनबललब्धानूचानव्यपदेशो नोऽस्माकं महान् ज्यायान्' इत्येवम् ऋषयो धर्ममर्यादां कृतवन्तः; यावदस्य पूर्वोक्तस्य गादेः सम्बन्धिनोऽणोरपि स्वल्पस्यापि अर्थद्वारेण विज्ञानादपि यो लब्धानचा नव्यपदेशः सोऽपि नो महानिति ऋषयो धर्म चक्रिर इत्यर्थः । नैष्ठिको ब्रह्मचारी यो ब्रह्मचर्येणैव शरीरं निष्ठाम्-अन्तं नयति । पश्चाग्निः १ तैत्तिरीयब्रह्मोपनिषद् २.३.। २ शतपथ ११.३.८ । ३ तैत्तिरीयसंहिता ३.५. ११। ४ शातातपस्मृतिः। ५ तुलना-"आ समाप्तेः शरीरस्य यस्तु शुश्रूषते गुरुम्" [मनुस्मृति २.२४ ४] इत्यनेन नैष्ठिकब्रह्मचर्यमुक्तम् । मेधातिथि ३.१ । ६पञ्चामिविद्या नाम छान्दोग्योपनिषदि विद्याऽऽम्नायते (५.१०९) "स्तेनो हिरण्यस्य'' इत्यादि यस्याः फलं तदध्ययनसम्बन्धात् पुरुषोऽपि पञ्चाग्निः पूर्ववत् । अन्ये तु पञ्चायो यस्य त्रयस्त्रेताऽग्नयः सभ्यावसथ्यौ च द्वौ पञ्चाग्निः । मनुस्मृ० मेधा० ३.१८५ । गार्हपत्यः, आहवनीयः, दक्षिणाग्निः इत्यग्नित्रयस्य त्रेता इति संज्ञा । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०२३४, वि०पृ०२५६] न्यायमञ्जरीग्रन्थिमनः सभ्यावसथा(थ्या)भ्यां सह त्रेतया। वेदाधिकरण इति । यत्र "वेदांश्चैके सन्निकर्ष पुरुषाख्या” इति [मी. सू. १.१.८.२७] कठादिकृतत्वेन काठकादिसमाख्यावशात् कृतकत्वेन वेदानां पूर्वपक्षः कृतः, वेदांश्चैके सन्निकर्ष सन्निकृष्टकालभवं वाक्यज्ञानं मन्यन्ते । यतः पुरुषैः काठकादिभिस्त[90A]स्य आख्येति ततः सिद्धान्तितम् "आख्या प्रवचनात्" इति [मी. सू. १. १. ८. ३०] । प्रवचननिमित्ताऽप्याख्या भवति न केवलं कर्तृनिमित्ता यतः कठेन प्रकर्षणाध्ययनमस्य कृतमतः काठकमित्यभिधीयते, "तेन प्रोक्तम्' इति[पाणिनि ४. ३.१०१] प्रोक्तेऽपि तद्धितस्मरणात्। सर्वशाखाधिकरणेऽपीति । सर्वशाखाधिकरणं यत्र प्रतिशाखं श्रयमाणानि अग्निहोत्रादिकर्माणि किमन्यान्यन्यानि आहोस्विद् एकमेव तत्कर्मेति चिन्त्यते । तत्र काठकं कालापकमित्याधभिधानाद् भेदः, कचिदग्नीषोमीय एकादशकपालः श्रयते कचिद् द्वादशकपाल इत्यादिरूपभेदादिभ्यश्च भिन्नत्वं [इति] पूर्वपक्षमाशङ्क्य सर्वशाखास्वेकतया प्रत्यभिज्ञायमानत्वात् सर्वशाखापेक्षोत्पत्तिकं सर्वशाखाप्रत्ययमेकं कर्मेति व्यवस्थापितम् । अधिकरणान्तर इति । “सङ्खचायुक्तं क्रतोः प्रकरणात्" [मी० सू० ३.३.१२.३२]इत्यत्र । अत्र हि "ए[90B]ष वाव प्रथमो यज्ञानां यज्जयोतिष्टोमः" इति वचनसमाश्रयणेन ज्योतिष्टोमस्य प्रथमयज्ञत्वं पूर्वपक्षे व्यवस्थाप्य सिद्धान्ते प्रथमप्रयोगाभिप्रायेण प्रथमयज्ञशब्दो निरूपितः 'प्रथमं प्रयुज्यमानो यज्ञः प्रथमयज्ञः' इति । अत्र प्रसङ्गे चेदमुक्तम्-"न चैतदस्ति यज्ञस्यैष वाद इति । चतुर्वपि वेदेषु न प्रथमयज्ञ इत्येवंसंज्ञकः कश्चिद् यज्ञोऽस्ति" इति [शाबरभा० ३.३.१२.३३] । न त्रयीप्रत्ययमिति त्रयीप्रत्ययं त्रयीप्रतिपाद्यम् । तत्सम्बद्धम् त्रयीप्रत्ययसम्बद्धम् । इष्टिपश्चिति । इष्टयः दर्शपूर्णमासाद्याः । पशवोऽनबन्ध्याद्याः। एकाहा ज्योतिष्टोमादयः । अहीना अहर्गणद्विरात्रादयः । सत्राणि द्वादशाहादीनि । त्रय्युपदिष्टेऽपि कर्मणि अथर्ववेदादिति । तस्माद् ब्रह्मा पुरस्ताद् होमसंस्थितहोमैर्यज्ञं परिगृह्णीयादित्यनारभ्य वाक्यमिष्टिपशुसोमादिष्वाथर्वणं पुरस्ताद्धोमं संस्थितहोमं च ब्रह्मणा क्रियमाणं दर्शयति, अथर्ववेद एव तयो)मयोराम्नानादिति । वेदानुवाच कं वो होता!मित्यत्र कं किंज्ञमिति व्याख्येयम्, उत्त[91A]रे ऋग्विदमित्यादिश्रवणात् । वः युष्माकं मध्यात् किंज्ञ १ नामरूपधर्मविशेषपुनरुक्तिमिन्दाशक्तिसमाप्तिवचनप्रायश्चित्तान्यार्थदर्शनाच्छाखान्तरेषु कर्ममेदः स्यात् । मी०सू० २.४.२.८ । २ एकं वा संयोगरूपचोदनाख्यविशेषात् । मी०सू० २.४.२.९ । न चैतदस्ति, यदुक्तं शाखान्तरेषु कर्ममेद इति । सर्वशाखाप्रत्ययं सर्वब्राह्मणप्रत्ययं चैकं कर्म । शाबरभा• । ३ ताण्डयवा० १६.१.२ । १ गोपथना० पूर्वभा०प्र० २ (पृ.४०)। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का०पृ०२३५, वि००२५६ वृणोमीत्यर्थः । पुरस्तादेवैषां यज्ञो रिच्यते प्रथमत एव रिक्तो भवति । यज्ञे यनमिति' । ऊनमङ्गैरसम्पूर्णम् । विरिष्टं विशेषेण रिष्टं, हिंसितमसम्यकृतमन्त्रादिप्रयोगम् । यातयाम निर्वीर्यम् । अथर्वणां मन्त्राणाम् । नर्ते भृग्वाङ्गिरोविद्भय इति । यावद् भृग्वशिरोविद ऋत्विजो ब्रह्माख्या न भवन्ति तावदन्यवेद विदि सत्यपि ब्रह्मणि सोपपानाधिकारो नास्तीत्यर्थः । योगसिदध्यधिकरणन्यायेनेति । योगसिद्ध्यधिकरणे हि-"एकस्मै वा कामायान्या इष्टय आहियन्ते, सर्वेभ्यो दर्शपूर्णमासौ, एकस्मै वाऽन्ये क्रतवः कामायाऽऽहियन्ते सर्वेभ्यो ज्योतिष्टोमः" इति श्रुतिवाक्यमुदाहृत्य चिन्तितम् 'किं सकृत्प्रयोगे सर्वे कामा उत पर्यायेण इति । तत्र सकृत्प्रयोगेणेति पूर्व पक्षितम् , सर्वनिमित्तत्वेन श्रवणात्; कः खलु विशेषोऽयं भवत्ययं न भवतीति । तथा चाह"तत्र सर्वे अविशेषात्” इति [ मी० सू० ४. ३. १०. २७ ] । ततः सिद्धा[91 B]. न्तितं "योगसिद्धिर्वाऽर्थस्योत्पत्तियोगित्वात्" [ मी०सू ० ४.३.१०.२७] इति । अस्यार्थः-न वा सर्वे कामा युगपत, पर्यायेण योगसिद्धिः कामसम्बद्धसिद्धिः । यदा यदा यः कामस्तदा तदा तस्य सिद्धिरित्यर्थः । अर्थस्य कामस्य युगपदुत्पत्तेरसम्भवाद्विरोधाच्च । न हि आयुष्कामना-मरणकामनाद्याः सर्वा युगपत् उत्पत्तमर्हन्ति, तथाविधानां विरुद्धानामिच्छानां युगपदुत्पादादर्शनात् । यज्ञाथर्वाणं वै काम्या इष्टयः 'चित्रया यजेत पशुकामः' [तै०सं०२. ४. ६. १.] इत्याद्याः। यज्ञा अथर्वयज्ञा रहस्ययज्ञा इत्यर्थः । न सर्वशब्दः सङ्कोचितो भवति । अशेषवेदवृत्तेरेकपरिहारेण वृत्तिः सङ्कोचः । पूर्वोत्तरब्राह्मणे यत्र 'ऋग्वेदः किं वेद' इति पूर्वमभिधाय 'हौत्रं वेद' इत्युत्तरम् । ब्रह्मौदने श्रूयत इति । ब्रह्मौदनाख्ये चरौ स हि ऋत्विगुदेशेन क्रियते, न देवतान्तरोद्देशेन, 'यद् ऋत्विजः प्राश्नन्ति तद् ब्रह्मौदनस्य ब्रह्मौदनत्वम्' इति वचनाद् ऋत्विक्संस्कारार्थत्वं तस्य न यागद्रव्यत्वम् ; अतश्चतुःशरावनिर्वापेष्टौ हुत्वा ऋत्विज उद्देश्याः । ब्रह्मणे [92A] त्वा प्राणाय जुष्टं निर्वपामि, ब्रह्मणे त्वा व्यानाय जुष्टं निर्वपामि, ब्रह्मणे त्वाऽपानाय जुष्टं निर्वपामि ब्रह्मणे त्वा समानाय जुष्टं निर्वपामीत्यभिधायाह-श्रुता या देवतास्तासामेवैतज्जुष्टं निर्वपति; ऋचो वै ब्रह्मणः प्राणाः, ऋचामेवैतज्जुष्टं निर्वपति; यजूंषि वै ब्रह्मणो व्यानो, यजुषामेवैतज्जुष्टं १ गोपथब्रा० पूर्वभा० प्र० १ (पृ. ११)। २ गोपथब्रा० पूर्वभा० प्र० १ (पृ. १५) । ३ मी० सू० ४. ३. १०. २५:-२८. ४ उद्धृतं शाबरभाष्ये Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०२३६, वि०पृ०२५८ ] न्यायमञ्जरीप्रन्थिभङ्गः निर्वपति; सामानि वै ब्रह्मणोऽपानः, साम्नामेवैतज्जुष्टं निर्वपति; अथर्वाणो वै ब्रह्मणः समानः, अथर्वणामेवैतज्जुष्टं निर्वपति" इति [काठकशताध्ययन] । ततश्चतुःशरावो भवतीत्याह । यतश्च मूलं ब्रह्मणो वेदाः, वेदानां मूलम् ऋत्विजोऽतो यद् ऋत्विग्भ्यो दत्तं तद्वेदेभ्यो दत्तं भवतीत्यत आह-'चतुःशरावो भवति' इति । चत्वारो हीमे वेदास्तानेव भागिनः करोतीति । स्तुतिरियं, तस्य प्रतिवेदमेकैकशरावापेक्षया यश्चतु:शराव उक्तः । चत्वारः शरावा वीहीणामत्र निरुप्यन्ते-व्रीहिपूर्णाच्छकटादुद्धियन्ते, जुष्टं सेवितम् , तदुदेशेन निरुप्यते । पृष्ठयस्य चतुर्थेऽहनीति । द्वादशाहेन प्रजाकामं याजयेदिति । द्वादशाहमध्ये पृष्ठ्यः षडह आम्नातः, पृष्ठयः पृष्ठयाख्यस्तोत्रविशेषो[92B]पलक्षितः । तथा च द्वादशाहेऽहः क्लप्तिः, प्रायणीयोऽतिरात्रः, पृष्ठ्यः षडहः, त्रयश्छन्दोमा(गा !), अविवाक्यमहरुदयनीयोऽतिरात्र इति । आर्भवे पवमान इति । तृतीयसवनभाविनि पवमानाख्ये स्तोत्रविशेषे । चतुर्णिधनं चत्वारि निधनानि गानभक्तिविशेषा यत्र । चतूरात्रस्य षडहसम्बन्धिनोऽनुष्ठितस्य । धृत्य प्रतिष्ठायै । चतुष्पदानुष्टुभा चतुष्पादानुष्टुप्छन्दोऽत्र प्रयुज्यते । यदत्र कर्मण्याथर्वणं भवति तद् भैषज्यमेव । यज्ञे तन्निर्वहणमेव करोति यतो भेषजं वा । भाथर्वणानीति । यागभैषजान्येतानि यदाथर्वणानि कर्माणीत्यर्थः । ननु "नर्ते भृावङ्गिरोविद्भयः सोमः पातव्यः" [गोपथब्रा०: १. १]इत्यस्याथर्ववेदविदं ब्रह्माणं विना न सोमः पातव्य इत्यर्थों व्याख्यातो, भृग्वगिरोरूपाणां मन्त्राणामथर्ववेद एव पाठादिति । तच्चायुक्तम्, ऋग्वेदे यजुर्वेदे च भृग्वगिरा नाम कश्चिद् ऋषिस्तेन दृष्टानां मन्त्राणां दर्शनादिति । "नैतदेवम् , 'ऋग-यजुः-सामान्युपक्रान्ततेजांस्यासंस्तत्र महर्षयः परिवेदयांचक्रः'' इत्यारभ्य नर्ते[93A] भृग्वङ्गिरोविद्भयः सोमः पातव्यः' इत्यनेनाभिधानात् ; गोबलीवर्दन्यायेन भृग्वशिरोमन्त्रा अथर्वमन्त्रेष्वेव वर्तन्ते” इत्याक्षेपप्रतिसमाधाने वक्तव्ये सतीत्थं किमिति नोक्तम् । तथा “यदेतत् त्रय्यै विद्यायै शुक्रम्" [शतपथब्रा० ११.४.१४] इत्यस्य यथाश्रुतचतुर्थ्यन्तस्य व्याख्यानान्तरमपि कुर्वन्ति । शुक्रं सारभूतोऽयमथर्ववेदो ब्रह्मवेदस्तेन ब्रह्मत्वं कुर्यात् । किमर्थ(थ) ? 'त्रय्यै त्रयीगतभ्रेषनिबर्हणाथ(थ)म्" इत्याद्यन्यदपि बहुवक्तव्यमत्रास्ति, तत्कथं ग्रन्थकृता नोक्तमित्याशङ्क्याह-एतच्च शास्त्रान्तरे विस्तरेणेति । १-७ ताण्डवाः १२.९. ८-१० । ८-९ गोपथब्रा० पूर्वभा० प्र १ (पृ. ११-१५)। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का०पृ०२३६, वि०पृ०२८ वेदविरुद्धमित्यनाहतम् । कल्पसूत्राणां वेदविरोधे दुर्बलत्वान्मीमांसकैश्चाविरोधेऽपि तेषां प्रामाण्यानभ्युपगमात् । अनारभ्यवादपक्ष इति । 'अनारभ्याधीतानां प्रकृतिगामित्वम्' इति यद्यपि प्रकृतौ निविशते तथापि प्राङ्नये नाविदो ब्रह्मत्वप्रतिपादनादथर्वविहितेन कर्मणा सम्पर्को दुष्परिहर इति नियतकमैकदेशविषयतया तद् व्याख्येयमिति तात्पर्यम् ।। तेषाम् ऋगिति'। अर्थवशेन तथा 'अग्निमीळे पुरोहित[93B]म्' इति [ ऋग्वेद १. १]अत्र क्रियाकारकलक्षणार्थपरिसमाप्तेः पादव्यवस्था । ननु तर्हि "अग्निः पूर्वेभिर्ऋषिभिः' [ऋग्वेद १.१]इत्यत्र क्रियापदाश्रवणात् पादव्यवस्था न प्राप्नोति । उक्तमत्र भाष्यकृतैवार्थग्रहणम्-अत्रानुवादो वृत्तवशेनापि भवतीति । गीतिषु सामाऽऽ ख्येति । यस्याम् ऋचि सामोत्पन्नं सा शुद्धा पठ्यमाना न सामशब्दव्यपदेशं लभते । तच्च साम ऋगन्तरेऽपि गीतं तच्छब्देन व्यपदिश्यते । तथाहि-रथन्तरमनेन श्लोकेन गीतमिति व्यवहारस्तदेवमन्वयव्यतिरेकाभ्यां गीतेरेव सामत्वं न ऋग्विशेषस्य । [शेषे यजुरिति ]या न गीतिः न च ऋक् तत्र 'यजुः'शब्दः । मेदसा तर्पयेदिति । योऽथर्वाङ्गिरसः पठति तेन देवा मेदसा पितरश्च मधुसर्पिा तर्पिता भवन्तीत्यर्थः । . सम्प्रदायो गुरुमुखाद् विशिष्टेन रूपेण ग्रहणम् , तत्प्रयोजनं यस्याविघ्नार्थस्य 'अस्यां तिथावध्येयम्' 'अस्यां न' इत्येवंरूपस्य धर्मजातस्य, तत् साम्प्रदायिकम् । ब्रह्म ह वा इति । एतद् ब्राह्मणवाक्यमध्ये “सोऽपः स्पृष्ट्वा तासु स्वां छायामपश्यत् , तां चेक्षमाणस्य [94A]स्वं रेतोऽस्कन्दत् तदप्सु प्रत्यतिष्ठत्" इति प्रक्रम्य "ताभ्यः श्रान्ताभ्यः तप्ताभ्यः संतप्ताभ्यो यद् रेत आसीत् तदभृज्यत, तस्माद् भृगुः समभवत् , तत्भगो गुत्वम्" इत्युक्त्वा "तदथर्वाऽभवत्" इति भृगोरेवाथर्वतामभिधायाह 'तमाथर्वणम्' इति [गोपथब्रा० पूर्वभाग प्र०१] । अभ्यश्राम्यदभ्यत पत् समतपदिति । गायत्र्यादिच्छन्दसां पुनः पुनः प्रयोगात् तदभिमानिनीनां देवतानां पीडातः श्रमः, गायत्र्याघभिमानिनीनां च देवतानां श्रमादथर्ववेदाभिमानिनीनामपि देवतानां श्रमः, गायत्र्यादिदेवतासम्बन्धात् तासाम्; अतोऽनेन द्वारेणाथर्वाणमभ्यश्रा म्यदखेदयत् । अन्तर्भूतण्यर्थाः प्रयोगा अमी; अभ्यतपत् विशिष्टफलनिष्पत्तये समालोचयत् प्रावर्त्तयद्वा । श्रमजननादेव च समतपत् समतापयद् उत्पन्नसन्तापमकरोत् । तस्मात् तथाश्रान्तादत एव तप्तात् संतप्तात् । यथा सम्बन्धिपीडया पीडिताः १-३ मी०सू० २.१. ३५-३७ । शाबरभा० २.१. ३७ । ४ याशवल्क्य स्मृ० १.४४. । ५-७ गोपथब्रा० पूर्वभा०प्र० १ (पृ. २, ४)। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०२३८, वि०पृ०२६० ] न्यायमञ्जरीग्रन्थिमन सन्तप्ता मनस ऊर्ध्वमुत्क्रान्तिं कुर्वते तथा तस्मादक्षरमूर्ध्वमुत्क्रान्तमित्यर्थः । यथा च लोके तस्करैः पीड्यमाने बालकादौ तत्सम्बन्धिनोऽतिस्नेहात् प्राणोत्क्रान्तिं कुर्वन्ति तस्करेभ्यश्च सारभूतं सर्वस्वं प्रय[94B]च्छन्ति तथाऽथर्ववेदाद् अप्रियाद् भीत्या तथाविधावस्थाप्राप्तात् सारभूताक्षरनिःसृतिरिति तात्पर्यम् । तथा महाव्याहृतीनामिति । तथाहि "प्रजापतिर्वा इद मन आसीत्" इत्युपक्रम्याऽऽह-"स इमांस्त्रीन् वेदानभितताप । तेभ्यस्तप्तेभ्यस्त्रीणि शुक्राण्यजायन्त भूरिति ऋग्वेदाद् भुव इति यजुर्वेदात् स्वर इति सामवेदात् [तद्] ऋग्वेदेनैव हौत्रमकुर्वत यजुर्वेदेनाध्वर्यवं साम वेदेनौद्गात्रं यदेव त्रय्यै विद्यायै शुक्रं तेन ब्रह्मत्वम्" इति [शतपथब्रा० ११. ४. १४] पृथग् ब्रह्मवेदप्रतिपादकेन शुक्रशब्देन व्याहृतीनां निर्देशादथर्ववेदादुत्थानमिति दर्शयति। तथा च "मन एवाक्षरमूर्ध्वमुदगात्" इत्यस्यावसान आह "स य इच्छेत् सर्वस्वाथभिश्चाणैश्च कुर्वीतेत्येतयैव तं महाव्याहृत्या कुर्वीत' इत्यादि [गोपथब्रा० १.१]। अनेन प्रागुक्तोत्पत्तिकानामाथर्वणत्वं दर्शितम् । वृहदित्यादीनां बृहज्जनः तपः महः सत्यमित्यासाम् । स्वकर्मभ्रेषे प्रायश्चित्तमिति । तथाहि [95A]-यदि ऋक्त आर्तिमाछैद् भूरित्येव जुहुयात् ;यदि यजुष्टः, भुव इत्येव; यदि सामतः, स्वर इत्येवेत्यथर्वविहितं प्रायश्चित्तम् । न च तदान हतमित्यनेन मीमांसकैर्यदस्याप्रामाण्यमापादितं तदाशङ्कते । उपक्रमविरोधात् । सामान्येन वेदब्रह्मचर्यमिति सर्ववेदविषयत्वेनोपक्रमात् । तेन वेदान्तराध्ययनकृत इति । योऽयं 'षत्रिंशदाब्दिकम् [मनुस्मृति ३. १]इत्यस्य 'अष्टाचत्वारिंशतं वर्षाणि' इत्यनेन विकल्पः स वेदत्रयकृते द्वादशकत्रये सति चतुर्थे द्वादशकेऽथर्ववेदापेक्षया निर्दिष्टे तावत्सङ्ख्यासद्भावादिति स्थितः, न पुनः प्रतिवेदं द्वादश षोडश वा वर्षाणीत्येवम् । अनादरोऽप्यस्यामिति । अष्टचत्वारिंशतं वर्षाणि ब्रह्मचर्ये कृते' दारसङ्ग्रहापत्योत्पादनादावन्यो बहुकालो यात्यतः कथं कृष्णकेशतेति विरोधः । अथर्ववेदाध्ययनपर्युदासमेवेति । अथर्ववेदाध्ययनपर्युदासमथर्ववेदादन्ये[95 B]षु देध्वेवं व्रतं चरणीयम् , न पुनरथर्ववेदः सर्वथैव नाध्येतव्य इति तात्पर्यम् । दर्शितं च अथर्वशिरोऽध्ययनेति । यदुक्तम्त्रिनाचिकेतो विरजाश्छन्दोगो ज्येष्ठसामगः । अथर्वशिरसोऽध्येता चत्वारः पङ्क्तिपावनाः ॥ इति ॥ [यमस्मृति] यत्त ज्येष्ठसामग इति तदुक्तम् १ अष्टचत्वारिंशद्वर्षाणि पौराणं वेदब्रह्मचर्यम् । बौधायनध० सू० १.२.१ । २ कृष्णकेशोऽग्नीमादधीतेति श्रुतिः । बौधा ध० सू० १. २. ६ । ३ पराशरस्मृतिमाधवाचार्यव्याख्यायां यमस्मृतेः उद्धृतम् । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ मिति । भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का०पृ०२३८, वि०पृ०, २६० अग्याः सर्वेषु वेदेषु श्रोत्रियो ब्रह्मवित्तमः । वेदार्थविज्ज्येष्ठसामा मधुत्रिसुपर्णकः ॥ इति ॥ [ याज्ञवल्क्यस्मृति १.२१९] ज्येष्ठसाम-त्रिमधु-त्रिसुपर्णानि व्रतानि तदनुष्ठा । यनस्तच्छब्दैरुकाः । तदनुकल्प एष वै प्रथमः कल्पः प्रदाने हव्यकव्ययोः । अनुकल्पस्त्व[यं] यज्ञे सदा सद्भिरनुष्ठितः ॥ [मनुस्मृति ३.१४७] इत्यभिधाय ज्येष्ठसामगादयोऽनुकल्परूपतया दर्शिताः । वैहारिकीति । विहार आहवनीयादिरग्निस्त्रेता तत्र भवा वैहारिकी दर्शपूर्णमासादिका । पाकयज्ञ अष्टकादयो गृह्याग्निनिर्वर्त्यः | वृत्ती प्रकारौ । इत्यभूमिज्ञोक्तिरेषा । उभयासामपि तत्रैवोपदेशद· र्शनादिति । तुल्यप्रभावद्धति । तुल्यप्रभावर्द्धि माहात्म्यसम्पत्त्या प्रत्यहं वर्धमानः अधिकीभवन् उचितो योग्यः स्तवो येषां भुजानां वेदानां च । जपक्षे भगवद्भुजानां [96 A ] कर्मणि सव्येतराणां विशेषाभावात् तुल्यप्रभावर्द्धित्वम् । भुजपक्षे विबुधा देवा वेद क्षे विद्वांसस्तेषामुपायप्रदर्शनद्वारेण फलसम्पादकत्वम् । चतुःस्कन्धोपेत इति । वेदपक्षेऽवयवैविध्यर्थवादमन्त्रनामधेयादिवाच्यैः पृथगर्थैः प्रवर्तनास्तुतिप्रयोगप्रदर्शनादिप्रतिपादकैरत एव परस्परसंबद्धैः । वृक्षपक्षेऽवयवैर्मूल-स्वक्-पत्रादिभिः, तेsपि पृथगर्थाः पृथक्प्रयोजनाः । तथाहि - कस्यचिद् वृक्षस्य मूलादयो भिन्नकार्यकर्तृत्वेनोपलभ्यन्ते ते च परस्परसम्बद्धा एव भवन्ति । शाखापक्षे कुसुमफले, वाक्यवाक्यार्थी वेदपक्षे । [ वेदपक्षे] द्विजैर्ब्राह्मणैः पीत आस्वादित उत्तमो रस उपनिषदर्थो यासाम्, वृक्षपक्षे द्विजैः पक्षिभिः । परेष्वेवं ब्रुवाणेषु । यथा भवद्भिर्वेदानां प्रामाण्यं साध्यत ईश्वरप्रणीतत्वेन तन्त्राऽऽगमान्तराणामपि तथैव प्रतिपादयत्सु । तदर्थानुप्रविष्टेति । वेदार्थेऽनुष्ठेयेऽनुप्रविष्टानि 'आचान्तेन' कर्तव्यम् 'शुचिना कर्तव्यम्' इत्यादीनि यानि शौचाचमनादीनि कर्माणि । अन्धपरम्परास्मरणतुल्यत्वमिति यथाऽन्धः [ 96B ] रूपविशेषोपलम्भं प्रति पृष्टोऽन्धान्तरोक्तं स्मृत्वा कथयति 'तेन ममैवमाख्यातम्' इति । 2 भ्रान्तेरनुभवाद्वेति । एभ्यः सकाशान्मूलत्वेनाश्रीयमाणा चोदनैव लघीयसी कल्पनारहिता । दृष्टानुगुण्यसामर्थ्यादित्यत्र दृष्टानुगुण्यसाध्यत्वादिति पाठान्तरमन्ये वदन्ति, व्याचक्षते च दृष्टानुगुण्यं साध्यं यस्याः सा दृष्टानुगुण्यसाध्या २. तन्त्रवा० १. ३. १.२ । १ शाबरभा० १.३. १. १. 1 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०२४१ वि० पृ० २६४ ] " न्यायमञ्जरी ग्रन्थिभङ्गः १०९ तद्भावस्तत्त्वम् । यदेतद् दृष्टं वेदविदनुष्ठानं तदानुगुण्यं चोदनामूलत्वे सति साध्यं भवति सिद्धयतीत्यर्थः । परिदृश्यमानमन्त्रार्थेति । "यां जना अभिनन्दन्ति" इति [ अथर्ववेद ३.११] मन्त्रार्थवादात् " अष्टकाः कर्तव्याः" इति स्मृतेः; "धन्वन्निव प्रपा असि त्वमग्ने" इत्यतः "प्रपाः प्रवर्तयितव्याः" इत्यस्याः स्मृतेरुत्थानम् । विप्रकीर्णशाखामूलत्वमिति' । विप्रकीर्णा याः काश्चित् क्वचिदेव देशे पठ्यन्ते न सर्वाः सर्वत्र अतस्तदर्थस्यैकत्र ढौकयितुमशक्यत्वात् स्मृत्युप निबन्धस्तदर्थ संकलनानिमित्तकः । उत्सन्नशाखेति । याः शाखा अन्यैः कैश्चिन्न पठ्यन्ते ता एव तु स्मृतिकाराः पठन्ति, सैरन्याख्यात्रभावेनोत्सादमाशङ्कमानैस्तदर्थं ग्रन्थोपनिबन्धः [97A] कृतः । आचमनादि[स्मार्त] पदार्थेति । 'आचान्तेन कर्तव्यम्' 'शुचिना कर्तव्यम्' इति स्मार्त्तपदार्थमिश्राणां वेदिस्तरणादीनां दर्शनात् । उपदेशेन मन्त्रान् संप्रादुः उपदेशेन शिष्योपाध्यायिकया अपरेभ्यः अवरकालीनेभ्यः शक्तिहीनेभ्यः मन्त्रान् ग्रन्थतोऽर्थतश्च संप्रादुः संप्रत्तवन्तः । अर्थतश्च मन्त्राणां ज्ञानाद् धर्मोऽपि ज्ञातो भवति, कर्मणां विशिष्ट फलप्रदत्वस्य मन्त्रैः प्रकाशनादिति । बृहद्रथन्तरविध्योरिव 'वृहत्पृष्ठं भवति' ' रथन्तरं पृष्ठं भवति' इत्यनयोः । वेदमूलत्ववादिभिरपि कैश्चिद्विकल्पो व्याख्यात एवेति । अयं तेषामाशयः - किल भवद्भिः प्रत्यक्षया श्रुत्याऽऽनुमानिकी श्रुतिर्वाध्यत इत्यभिधीयते । तत्र ब्रूमः - सा श्रुतिर्मन्वादीनां प्रत्यक्षा अप्रत्यक्षा वा ? न तावदप्रत्यक्षा, मन्वादीनामाप्तत्वहानेः एवं चातिविरोधेऽप्यप्रामाण्यप्रसक्तिः । अथ प्रत्यक्षा, तदानीमिदानीन्तनप्रत्यक्षत्वं कोपयुज्यते तेषां प्रत्यक्षत्वेन तस्याः प्रामाण्यसिद्धेः प्रामाण्यं चेद् बृहद्रथन्तर श्रुत्योरिव विरोधे विकल्पः केन वार्यत इत्यादि । विषयविभागेन वा विकल्पो व्याख्या[97B] स्यत इति यथा प्राजापत्यां तु कृत्वेण्ट सर्ववेदसदक्षिणाम् । आत्मन्यग्नीन् समारोप्य ब्रा[ह्मणः प्रव्रजेद् गृहात् ] ॥ इति सप्तमाधे प्राभाकरटीका तात्पर्यम् । ननु यथाकार्यमुपदेश इति अयमापतत्सत्रमित्यनेन सह विरोधे विषयविभागो दर्शितः । यः परिपक्वकषायः विगता.... रूपाच्चोदकात् प्राप्तिः सा हि चोदयत्याक्षिपति पदार्थानुपकारसिद्धयघितार्थि त्वः तं प्रति जागमयं वाद इति । न च श्रुतिस्मृतिविरोधोदाहरणमिति । 'प्राजापत्यं शतकृष्णलं चरुं निर्वपेदायुष्कामः ' इत्यादौ कार्यस्य कृष्णलता १ शाखानां विप्रकीर्णत्वात् तन्त्रवा० १. ३. १. २ । २ शाबरभा० १.३.२.३ । ३ * एतचिह्मान्तर्गत सर्वमस्पष्टम् । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का०पृ०२४१ वि०पू० २६४ " प्रतिपादकानि तानि परस्परविरुद्ध श्रुत्युदाहरणान्येवेति भट्ट आचष्टे । तथा......... लक्षणस्य तत्रोपकारस्य दर्शनान्नियतपरिमाणा हि हेमकनुस्मृतिरिति भाष्यकृतोदाहृतम् अनयोश्च विरोधे हि सर्वा वेष्टितार. .मैत्यादिबाघाप्रकरणारम्भवैफल्य स्वरसत एवाप्राप्तत्वात् ; साङ्ख्यायने ब्राह्मण एतत् पठ्यत इति हि स आह एवमन्योदाहरणेष्वपि । अत एव नुचोदको येन येनानार्थी तं तमेवाक्षेप्स्यति । किमिदमुच्यते [98A] सोत्प्रासमाह । सदाचारस्याप्यनिबद्धस्य विवाहे कङ्कणबन्धनादेः । विक्षिप्त.............यागानामुपदेशेनैव धर्मविधानमिति न प्रकृतिवद् विकृतिः कर्त [ व्या]' इति । ११० कानिचित् तदविरोधेनेति । न हि शैवादौ वैदिकानुष्ठाननिन्दाद्वारेण स्वकीयचरीयानुष्ठानप्रशंसा । प्रथमं कार्येण धर्माः सम्बन्ध्यन्ते । यथाकार्यमुपदेश इति पक्षश्रवणेऽत्र वैदिवयास्तस्याश्च व्रतचर्याया युगपदनुष्ठानासम्भवाद् गृह ईश्वरवद्विकल्पो भवि । सम्बद्धास्ते तस्यैव न कार्यान्तरस्य । दर्शपूर्णमा - सकार्याद् ऐन्द्राग्नसपर्यादीष्ट्यनुष्ठानाद् वृष्टिदर्शनात् संवाद एवमिहापि विशिष्टमन्त्रजपादितो विषाद्यपा........ .. तेषां विहितत्वाद् । ऐन्द्राग्नादिष्ट (ष्टो ) पदेशतः प्राप्त्यभावात् प्राप्तिसिद्धयः । (मी) मांसकदृष्ट्याऽस्मद्दृष्ट्या वा स्मृतीनां प्रामाण्ये यो न्यायः सोऽत्रापि मा वाऽभूत् तथापि प्रथमतस्तेनैव प्रथमं सम्बध्यन्त पूर्वपक्षयित्वा निष्फलत्वाद्यजेः सफलादीनां प्रामाण्यं कथं निर्वहति । उच्यते, स्मृतीनामेव तावन्मीमांसकस्य प्रामाण्यं ........ . इतिकर्तव्यतां चाक्षिपति । प्रथमतस्तदाक्षिप्तानां द्वारमात्रप्रदर्शनपर [98B] श्रुतेः । यथैवाष्टकादिवाक्येभ्यो बाधारहिता कार्यावगतिरुत्पद्यते स्वतः प्रामाण्यं च स्थितम् अतो वेदमूलत्वकल्पना, तथेहापि भविष्यति * अथाष्टकादिस्मृतीनां वेदमूलत्वमुपलभ्यते नैषाम्' इति अष्टकादिस्मृतीनामपि कुतो वेदमूलत्वसमुपलम्भ: ? । प्रत्यक्षादिमानान्तराणामस्मिन् विषयेऽनाशङ्कनादनुमानमर्थापत्तिर्वा । 'तस्मिन् विषये प्रमाणमनुमानमस्तु' इति चेन्न, लिङ्गाभावात् । ‘अष्टकादिकार्यप्रतिपत्तिस्मृतिर्लिङ्गमिति चेत्; मनुष्टकाः कर्तव्या इति स्मरति, न चाप्रतिपन्नस्याष्टकादेः कार्यतया स्मरणं संभवति, कार्यप्रतिपत्तिश्च पुंसोऽतीन्द्रियार्थे दृष्टत्वाभावाद् वेदं विना न सम्भवतीति वेदमूलत्वकल्पनम्' इति । तन्न; सर्ववेष्टनादिना व्यभिचारात् । तथाहि 'उदुम्बरी सर्वां वेष्टयेत्' इति स्मरति न च तत्स्मरणस्य वेदमूलत्वं भवद्भिरङ्गीकृतम् । अथ तत्र "औदुम्बरीं स्पृष्ट्रोद्गायेत्" इति श्रुतिबाधितत्वान्मूलान्तरकल्पनाया अभावान्मिथ्यात्वम्, न चैवमष्टकादावपीति वाच्यम्, श्रुतिबाधाया अनुपलम्भात् । तेषु तत्सामान्येन च मिथ्यात्वाशङ्कायां स्वप्नज्ञानसाध Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०२४१, वि०पृ०२६४] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः [99A]म्र्येण जाग्रज्ज्ञानस्यापि मिथ्यात्वाशङ्का स्यात् । अथ तत्र “दोषज्ञाने त्वनुत्पन्ने नाशङ्का निष्प्रमाणिका" [श्लो०वा.चोदनासू०६.] इत्याशङ्कानिरासः, ताँवं मन्वादिस्मृतावपि भविष्यति । न, नियमासिद्धेः । यदि हि वहन्यभावे क्वचि. दपि धूमो दृश्येत तदा किं शक्येत वक्तुं यत्रैव धूमो दृष्टस्तत्रैव वह्नि विना भवत्वन्यत्र पुनर्वहनावेव धूम इति; एवं यत्र स्मरणं वेदमूलत्वं विनोपलब्धं सर्ववेष्टनादौ तत्र वेदमूलत्वं व्यभिचरतु नाम, अन्यत्र तु वेदमूलत्वाव्यभिचारि स्मरणमिति । यतो नियमस्याविनाभावस्य निश्चयोऽनुमानस्य मूलम् , तस्य चासिद्धिः । विपर्ययसम्भाबनायामपि, किं पुनर्विपर्ययदर्शनेऽपि ? विपर्ययश्च दर्शितः । यत् पुनः "दोषज्ञाने स्वनुत्पन्ने" इति तत् प्रत्यक्षाभिप्रायेण, यतो न प्रत्यक्षं लिङ्गवनियमनिश्चयापेक्षं स्वविषयं परिच्छिनत्ति । कि तहिँ ? बोधस्वभावत्वादेव । अतस्तत्र सत्यामप्याशङ्कायां न नियमासिद्धिः । निश्चितनियमस्य गृहीताविनाभावस्य तु लिङ्गस्य लिङ्गत्वात् कथं विपर्ययदर्शनेऽपि लिङ्गत्वम् ? अथार्थापत्तितो मन्वादिस्मृतीनां वेदमूलत्वनिश्चयः [99B] | स्मृतिदाढर्चमन्थथाऽनुपपद्यमानं वेदमूलत्वं कल्पयति इति' । तन्न, सर्ववेष्टनादावन्यथाप्युपपत्तेईष्टत्वाद् भट्टपक्षे, प्राभाकरैरेवंविधाऽर्थापत्त्यनभ्युपगमाच्च । 'ननु कल्पयित्वा मन्वादीनां प्रतारकत्वमन्यथाऽप्युपपत्तेरिति वक्तुं न शक्यते, तादृशां च महात्मनां दोषवत्त्वकल्पनायां बहुदुष्टकल्पना प्राप्नोति' । न । संसारिणां रागादिवहुलत्वेन दृष्टत्वात् पुरुषविशेषानभ्युपगमाच्च न काचित् कल्पना । तदुक्तम्-'सर्वदा चापि पुरुषाः प्रायेणानृतवादिनः' इति । [श्लो०वा.चोदनासू०१४४] । अथैवं वेदमूलत्वानभ्युपगमेऽष्टकादिवाक्येभ्योऽवगतेमिथ्यात्वं प्राप्नोति, कारणाभावात् । तन्न कारणाभावनिश्चये भवतः प्रमाणाभावात् , अनिश्चिते च कारणाभावेऽष्टकादिवाक्येभ्यः प्रतिपत्तेरुद्भवन्त्या अप्रतिपत्तित्वासिद्धिः । यदि प्रतिपत्तेरप्रतिपत्तित्वं नेष्यते भवता तदस्याः प्रतिपत्तेर्भवतः किं जनकं प्रमाणमिति चेद् , वाक्यमेव । मम हि प्रत्यक्षपक्षपातिनो नियमनिश्चयानपेक्षाद् वाक्यादवगतिरुत्पद्यते । न च परेण मूलकारणाभावो निश्चेतुं शक्यते, संभवाद् वे[100A]दसंयोगस्य त्रैवर्णिकानाम् । त्रैवणिका हि मन्वादयः, तेषां च त्रैवणिकत्वादेव वेदसंयोगः सम्भाव्यते । सम्भवमात्रेण चाभावनिश्चयो निरसितुं शक्यते । उक्तं च-'सम्भवमात्रनिरसनीयश्चाभावो प्रमाणं स्मृतिः। विज्ञानं हि तत् किमित्यन्यथा भविष्यति पूर्वविज्ञानमस्य मास्ति, कारणाभावदिति चेत्। अस्या एव स्मृतेदृ ढिम्नः कारणमनुमास्यामहे । तत्तु नानुभवनम् , अनुपपत्त्या । म हि मनुष्या इहैव जन्मन्येवंजातीयकमर्थमनुभवितुं शक्नुवन्ति । जन्मान्तरानुभूतं च न स्मयते। प्रन्धस्त्वनुमःयेत, कर्तृसामान्यात् स्मृतिवैदिकपदार्थयोः । तेनोपपन्नो वेदसंयोगस्त्रैवर्णिकामाम् । शाबरभा० १.३.१.२। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का०पृ०२४२, वि० पृ०२६४ नाशङ्कितसिद्धिमपेक्षते ।' [ ] एवं परोते कारणाभावनिश्चये निरस्ते निष्प्रतिपक्षावगतिः प्रमाणम् । न च कारणसद्भावनिश्चयाभावात् कारणाभावोऽपि सम्भवतीति सम्भवमात्रेणानुभवविरुद्ध कारणाभावः शक्यते वक्तुं यथा उक्तम्- 'दोषज्ञाने त्वनुत्पन्ने' इति । अन्येनाप्युक्तम्- 'बाधके सति स न्यायः, नानुभूतं त्यक्तव्यम्' [ ] । लिङ्गे पुनर्नियम निश्चयापेक्षावगतिरिति नायं नयः समस्ति । अत एव प्राङ्नयेन वेदमूलत्वनिश्चयाभावाद भाष्यकृता "सम्भवाद् वेदसंयोगस्य " इत्ययुक्तम्, अन्यथा निश्चयो वक्तव्यः, न सम्भवमात्रम् । अत एव न वाच्यं 'वेदसंयोग एव वेदमूलत्वे प्रमाणं भविष्यति' इति, अनिश्चये प्रमाणत्वासिद्धेः । अत्र शास्त्रे स्मृत्यधिकरणे प्रभाकरटीका सर्वत्रोपयुज्यते ग्रन्थगौरवभयात् तु न प्रदर्शिता । तदेवं यथा स्मृत्यादिवाक्येभ्योऽवगते रुत्पद्यमानाया [100B] मूलकारणाभावेन परैर्मिध्यारूपता शङ्किता सा त्रैवर्णिकानां वेदसम्बन्धस्य सम्भवमात्रेण कारणाभावनिश्वयनिराकरणेन निरस्ता । भवन्ति हि मन्वादयस्त्रैवर्णिकत्वाद् वेदेऽधिकृताः, अस्ति तेषां वेदेन सम्बन्धः, तत्कदाचिद् वेद एव मूलकारणं सम्भवतीति, एवं चेत् कथमेकान्तेन कारणाभावनिश्चय इति, तथा शैवादिशास्त्रेभ्योऽप्यवगते रुत्पद्यमानाया अयमेव न्यायः, तत्कर्तॄणामपि वेदसंयोगः केनापहूनूयते । अतस्तत्रापि मूलकारणाभावनिश्चयः सम्भवमात्रेण निरसनीय एव । तथा च पञ्चरात्रादौ भगवत्सङ्कर्षणादयस्त्रवर्णिका अविच्छेदेन कर्तारः स्मर्यन्त एव । न च विद्वज्जनानादरस्तेषाम्, विद्वद्भिः परिव्राजकवरैरपि तदादरणात् तुर्ये च ज्ञानकाण्डे भगवद बादरायणसूत्रवृत्तिकृता भगवत्पुष्कराक्षेण परिव्राजकमुख्येन पञ्चरात्रादेर्वेदमूलत्वमङ्गीकृतम् । तत्सूत्रकृतोऽपि 'विज्ञानादिभावे वा तदप्रतिषेध:' [ ब्रह्मसूत्र २.२.४४ ] इति वदतस्तत्प्रामाण्यमभिप्रेतमिति लक्ष्यते । अस्य सूत्रस्यार्थमाहुः - " ज्ञानानुत्पत्तिकृतं संदेहनिबन्धनं विपर्य - यहेतुकं वा अप्रमा [101A]णं भवति । तदेतत् त्रिविधमपि पञ्चरात्रादिषु नास्ति । 'विज्ञानादिभावे ' विज्ञानं तावत् तेभ्य उत्पद्यत इति विज्ञानानुत्पत्तिलक्षणाप्रामाण्यनिरासः । आदिग्रहणाद्धि संशयविपर्यययोः पर्युदासः । वाशब्दः पक्षान्तरनिवृत्त्यर्थः । अतस्तदप्रतिषेघः प्रामाण्याप्रतिषेध इत्यर्थः इत्यलं बहूक्कया ।" येsपि वेदविदामय्या इति । तथा हि भारते ११२ पञ्चरात्रं च साङ्ख्यं च वेदाः पाशुपतं तथा । ज्ञानान्येतानि राजेन्द्र ! विद्धि नाना मतानि च ॥ इति ॥ [ शान्तिपर्व ० ३३७.५९ ] Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०१४३, वि०पृ०२६६] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः ११३ ज्ञायतेऽनेनेति व्युत्पत्त्या विद्यापर्यायेण ज्ञानशब्देन वेदसमकक्षतया निर्दिशन् पञ्चरात्रादीस्तेषां वेदवत् प्रामाण्यमभ्यनुजानाति । तथा द्रोणपर्वणि पितृवधामर्षितमश्वत्थामानं स्वयमेव सान्त्वयितुं "भवता लिङ्गमूत्यै [तिः] शिवो नार्चितो यथा केशवार्जुनाभ्यां प्राग्भवेऽर्चितः, अतो न पराजेतुं शक्यो भवता । विरम्यतामतोऽसद्ग्रहात्" इति भङ्ग्या शैवशास्त्र प्रसिद्धलिङ्गार्चनस्तुति वदता तच्छास्त्रप्रामाण्यमनुमन्यते । दानधर्मेषु च तच्छास्त्रप्रसिद्धां दीक्षामुपमन्युना कृष्णाय प्रतिपादितां दर्शयंस्तदेव शैवशास्त्राणां प्रामाण्यं स्फुटीचकार । मो[101B]............'त्यथर्वशिरसि मूलमन्त्रभृतोऽप्युपलभ्यत [एव] । बौद्धादीनां तु त्रैवर्णिकानादराद् बेदमूलत्वानभ्युपगमाच्च नायं नयः समस्तीति । तदेवं मीमांसकदृष्टया नैयायिकमताश्रयणेन व्यासादिवेदव(वि)दृष्टया च स्मृतिवच्छवादिशास्त्रप्रामाण्यमिति सिद्धम् । संसारमोचका' इति । ये घूकचटकन्यायेन प्राणिवधं धर्ममिच्छन्ति । निषिद्ध सेवनप्रायमिति । यदुक्तम् विनधारा मृतं चैव मेदो रुधिरमेव च । पवित्रं भैरव तन्त्रे साधकानां न संशयः ॥इति।। ततो यद्यपि सिद्धिः स्यादाकाशगमनादिका । निरस्ते हि जातिवादावलेप इति । ब्राह्मणोऽस्मीति यो जातिबादस्तत्वतोऽवलेपो दो जातिवादावलेपः । यदाह वेदप्रामाण्यं जातिवादावलेपः ।। तीथे स्नानेच्छा कस्यचित्कतवादः । स(सं)तामा(पा)रम्भः पापहानाय चेति १. १०० पत्रं नोपलभ्यते । २. संसारमोचकादेश्च हिंसा पुण्यत्वसंमता। प्रलो० वा. औत्पत्तिकसू० ५। अधर्मनिबन्धने प्राणिवधे धर्मनिबन्धनबुद्धिविपर्ययः संसारमोचकानाम् । स्याद्वादरना० प्र० १०३। एतेन संसारमोचकाना व्यापाद्योपकृतये दुःखितसत्त्वव्यापादनमुपदिशतामकुशलमागप्रत्तत्वमावेदितं द्रष्टव्यम् यतस्त एवमाहुः- यत् परिणामसुन्दरं तदापातकटुकमपि परेषामाधेयं, यथा रोगोपशमनमौषध, परिणामसुन्दरं च दुःखितसत्त्वानां व्यापादनमिति, तथाहि-कृमिकीटपतङ्गमशकलावकचर ककुष्ठिकमहादरिद्रान्धपवादयो दुःखितजन्तवः पापकर्मोदयवशात् संसारसागरमभिप्लवन्ते, ततस्तेऽवश्यं तत्पापक्षपणाय परोपकारकरसिकमानसेन न्यापादनीयाः, तेषां हि व्यापादने महादुःखमतीवोपजायते, तीवदुःखवेदनाऽनुभवतः प्रारबद्धं पापकर्मोदोर्योदीर्यानुभवन्त: प्रतिक्षिपन्ति...। नन्दिसूत्रमलय० वृ० पत्र १३ । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का०पृ०२४३, वि०पृ०२६६ ध्वस्तप्रज्ञानां पञ्चलिङ्गानि जाड्ये ॥इति।। [धर्मकीर्तेः] येऽप्यन्ये केचिदिति । नाथवादादयः । यथाहुःमाता च भगिनी चैव तथाऽन्या या स्वगोत्रजा । गम्याऽपरा त्वगम्येति नाथ एवं किलाब्रवीत् ॥इत्यादि।। वैदिकानर्थानन्तरान्तरे[103A]ति । वैदिकान् भूतदयादीन् । केचिद् विप्लावयन्त्यपि । यथा प्रतिपादितं 'कोऽयं महाजनो नाम' इत्यादि । पुरुषशीर्षेति । पुरुषशीर्षमुपदधाति, सुराग्रहं गृह्णाति, गामालभत इत्यादिषु । वचनान्तरविरुद्धम् । “नारं स्पृष्ट्वाऽस्थि सस्नेहम्" इत्यादिविरुद्धम् । एकत्र ते श्रेयसीति । निःश्रेयसे, सर्वेषां तदर्थत्वात् । कूटस्थनित्यत्वेति । आत्मा कूटस्थोऽविचलदूपः सन् नित्यः, ज्ञानसन्तानस्तु अविच्छेदेन प्रवहत्प्रवाह इति ।। कचिद्वा तद्भावेऽपीति । यथा नित्यानन्दस्यात्मनोऽवस्थानं मोक्ष इति केचित् , अन्ये चितिमात्रस्य परिशुद्धस्य चित्तसन्तानस्य, इतरे विशेषगुणवियुक्तस्यात्मन इत्युपेये भेदः । न च हृदयक्रोशनेति । हृदयक्रोशनं विचिकित्सा । , अन्यदर्शनाभ्यासेति । पुनः पुनः यदभ्यस्तं 'नारं स्पृष्ट्वाऽस्थि सस्नेहम्' इत्यादिदर्शन तत्संस्कारवासितान्तःकरणानाम् । भवतु कामं हृदयोत्कम्पः, तस्यां हिंसायां विधेरख्यापारात् । कथमव्यापा रश्चेत् तदाह-करणांशोपनिपातिनी हीति । 'श्येनेनाभिचरन् यजेत'इत्यत्र हि श्येनयागाभिचारयोरुपायोपेयतापरिज्ञानमात्रेऽधिकारे विधेापारः, प्रवृत्तौ तु तत्र विधिरुदास्ते लिप्मातस्तत्र प्रवृत्तिसिद्धेः । तदुक्तम्-'यस्मिन् प्रीतिः पुरुषस्य तस्य लिप्सार्थलक्षणा' इति मी० सू० ४. १. २.] । क्रत्वर्थः पुनः क्रतूपकारको योऽग्नीषोमीयपश्वालम्भादिस्तस्य फलं प्रति करणत्वस्य साक्षादनवगमात् तत्र लिप्सातः प्रवृत्तेरभावः, प्रवृत्ती चासत्यां सेतिकर्तव्यताकस्य क्रतोरनिर्वाहात् । तत्र शास्त्रविधिरेव प्रवर्तकः । तदुक्तं भाष्यकृता "ऋत्वर्थो हि शास्त्रादवगम्यते" इति [शाबरभा० ४. १. २.] । अतोऽसावभिचारोऽवैधः शास्त्राविहित इति । तथाऽप्यधिकारिभेदेनेति । यस्तज्जन्यफलकामस्तदपेक्षया । शत्रा लडिन्तनिषेधमिति । अभिचरन्निति हि शतृप्रत्ययो लक्षणे । लक्षणं च पूर्वसिद्धं भवति । 'शयाना भुञ्जते यवनाः' इति शयनस्य पूर्वसिद्धस्य लक्षण Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०२४९, वि०पृ०२७३] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः स्वात् । मरणकामस्य सर्वस्वार इति । 'सर्वस्वारेण मरणकामो यजेत' । [आयुष्कामेति । 'शतकृष्णलं चरुः(5) प्राजापत्यमायुष्कामो निर्वपेत्' इति । 'मन्वादिचोदनान्यायः स यद्यपि [104A] न विद्यते' इति शैवादिप्रामाण्यसमर्थनावसरे यत् किचित् सृष्टं तदिदानीं सर्वागमप्रामाण्यप्रतिपादनावसर उद्घाटयति - अपरे पुनर्वेदमूलत्वेनेति । अजामेकामिति । "अजामेकां लोहित कृष्णशुक्लां बहीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः । अजो ह्येको भजमानोऽनुशेते जहाति चैनां भुक्तभोगामजोऽन्यः ।" श्वेता उप० ४. ५] इति । अत्र लोहितशुक्लकृष्णग्रहणेन रजःसत्त्वतमोरूपतां तस्या आह । अनुशेते पुनः पुनस्तया सम्बन्धं भजते । मुनयो वातरशना इति' । वात एव रशना वासो ग्रन्थनं येषां ते वातरशना अतो वाससोऽभावादेव वातस्तेषां रशना मत एव निर्ग्रन्था भण्यन्ते । रसना इति तु पाठे रस्यत आस्वाद्यत इति रसनं वात एव रसनं येषां वायुभक्षा इत्यर्थः । एवं रक्तपटपरिग्रहेति । तथाहि रक्तपटदर्शनसंस्थोपनिषदाक्यमुदाहरति- "पोल्कसोऽपौल्कसश्चाण्डालोऽचाण्डालो ब्राह्मणोऽब्रामणः श्रमणोऽश्रमणः" इत्यादि [यह ० उप० ४. ३. २२] तद्दर्शयति । प्रसिद्धामलमार्गप्रवृत्तं श्रमणमाचक्षते, 'श्रामण्यममलो मार्गः' इति हि ते आहुः [104B]............।' .... .... च निषेधेन निवर्त्यते तथा निन्दयाऽपीति समा वृत्तिः । इतरप्रशं. सार्थमपि निन्दा भवति यथा 'प्राप्य गाण्डीवधन्वानं विद्धि कौरव तान् स्त्रियः' इति न केवलं प्रतिषेधायेति यो मन्येत तमपि प्रत्याह-न हि निन्दा निन्धं निन्दितुमि त्यादि। त्रिः प्रथमामिति । सामिधेन्यः समिधामग्नौ प्रक्षेपणमन्त्राः, तस्य प्रक्षेपणाख्यस्य कर्मणो हि प्रकाशकोऽसौ मन्त्रः, तच्च सकृदुच्चारितेनापि तेन शक्यते क प्रकाशनमिति त्रिरुच्चारणं पुनरुक्तम् । एकादश च ते मन्त्राः पठ्यन्ते, 'पश्चदश सामधेनीरनुक्र(ब)यात्' इति च श्रूयते, अतः प्रथमोत्तमयोस्त्रिरुच्चारणं पश्चदशसस्यासम्पत्त्यर्थ क्रियते । १. मुनयो वातरशनाः पिशङ्गा वसते मला । ऋग्वेद १०.१३६.२ । वातरशना: वातरशनस्य पुत्राः । मुनयः अतीन्द्रियार्थदर्शिनो जूतिवातजूतिप्रभृतयः । सायणमा० । २. पत्र १०५ नोपलभ्यते । ३. शाबरभा० २. ४. २. २१ । ४ प्रकृतावभ्यासेन सख्या पूरिता, त्रिः प्रथमामन्वाह त्रिरुत्तमामिति । कथम् ? पञ्चदश सामिधेन्य इति श्रतिः । एकादश च समाम्नाताः । तत्राभ्यासेनाऽऽगमेन वा सङ्ख्यायां पूरयितव्यायामभ्यास उत्तः । त्रिः प्रथमामन्वाह, त्रिरुत्तमामिति । अनेन नियमेन प्रथमोत्तमयोरभ्यासः वर्तव्य इति । शाबरभा० १०.५.८.२७ । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का०पृ०२५०, वि० पृ०२७३ कर्मकर्तृसाधनवैगुण्यादिति । इष्टया पितरौ संप्रयुज्यमानौ पुत्रं जनयत इति । इष्टः करणं साधनम्, कर्तृलक्षणं पितरः, तत्सम्प्रयोगः कर्म, त्रयाणामपि गुणसंयोगात् पुत्रजन्म, वैगुण्याद् विपर्ययः । इष्टयाश्रयं तावत् कर्मवैगुण्यं समीहाभ्रेषः; कर्तृवैगुण्यम् अविद्वान् प्रयोक्ता कपूयाचरणं वा; साधनवैगुण्यं हविर्न संस्कृतमुपहृतमिति, मन्त्रा न्यूनाधिकाः स्वरवर्णहीना इ[106 A]ति, दक्षिणा दुरागता हीना निन्दिता वेति । उपजनाश्रयं कर्मवैगुण्यं मि[थ्यासम्प्रयोगः ], कर्तृवैगुण्यं योनिव्यापादो बीजोपघातश्च; साधनवैगुण्यमिष्टयामभिहितम्, कपूयाचरणः कुत्सिताचारः, मिथ्यासम्प्रयोगः पुरुषायितत्वादिना सम्प्रयोगः । ११६ भूतस्वभाववाद श्वेति । शरीरारम्भकाणि यानि भूतानि तेषामीहक् कश्चित् स्वभावविशेषो यत् कानिचिदेव पश्वादिभिः सम्बध्यन्ते कानिचिन्नेति । तच्चैव हि कारणम् इति । शाबरं भाष्यम् " यच्च कालान्तरे फलस्यान्यत् प्रत्यक्षं कारणमस्तीति । नैष दोषः " इति [ शाबरभा० १. १. ५ ] अतः परं स्थितम् । यद्यपि प्रत्यक्षतः सेवादीनां कारणत्वमवगम्यते तथापि शब्दात् चित्रया यजेत पशुकाम:' [तै० सं० २.४.६.१] इत्यादेश्चित्रादीनामपि कारणत्वावगमः; यथा प्रत्यक्षं प्रमाणं तथा शब्दोऽपीत्यर्थः । कर्मादिवैगुण्यग्रहणमिति । यथा कर्मादिवैगुण्यात् फलं न भवत्येवं तीव्रप्राग्भाविकर्मान्तरप्रतिबन्धादपीति । ननु कथमेवंप्रायाः कल्पनाः स्थाप्यन्ते, किमाभिरित्याशङ्क्याह-न तु वेदस्याप्रामाण्यकल्पनेति । साद्गुण्ये कर्मण इति । अरणिनिर्मथनसाद्गु [106B]ण्येन कृतादग्न्युत्पत्तिदर्शनादन्यथा चादर्शनादिति । नाविशेषप्रवर्तिनीमिति । 'चित्रया पशुकामो यजेत' [ तै०सं० २.४. ६.१] चित्रातः पशवो भवन्तीत्येतावत्येवाविशेषेण चोदनैषा स्थिता, न पुनरनन्तरं भवन्तीति विशेषेऽपीत्यर्थः । वार्ताविद्यायां । कृषिः पाशुपाल्यं वाणिज्या ( ज्यं) च वार्ता | मृद्नतो मर्दनकर्तुः । एवं वीर्यकामादिष्विति । उत्तरश्लोकार्थापेक्षया । तदुक्त[म् ] 'राज्ञो बलार्थिनः षष्ठे वैश्यस्यार्थार्थिनोऽष्टमे' [ मनुस्मृति २. ३७] इति । कर्त्रा दिवैगुण्येति । कर्त्रादिवैगुण्यं फलादर्शने कारणमननुमोदमानाः । १. न्या०सू० २.१.५६ । ६० २ श्लो०वा० चित्राक्षेपपरिहार, ४ | # Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०२५६, वि०पू०२८०] न्यायमारोग्रन्थिभङ्गः ११७ ___ सर्वाङ्गोपसंहारेणेति । यदा सर्वाङ्गान्युपसंहत्ते शक्नुयात् तदा काम्यं कुर्यादिति व्यवस्थापनात् । भवग्रहे वर्षप्रतिबन्धे । श्वोभूते जुहुयाद । द्वितीये दिने होमशेष समापयेत् । ननूपनयनादेब्रह्मवर्चसादिफलात् कर्मणः पशवो भविष्यन्तीत्याशङ्क्याह-न हि ब्रह्मवर्चसफलादिति । सपत्ययप्रवर्तन मिति । सचेतनो हि कथं निष्फले प्रवर्तेतेति । क्षीणं तत्रैव जन्मनि । 'न च स्वर्गफलस्येह कश्चिदंशोऽनुवर्तते' [लो. वा० चित्राक्षेपपरिहार, १५] इति शेषः । यो वृष्टिकाम इति' । यो वृष्टिकामः [107A] स सौभरेण स्तोत्रविशेषेण स्तुवीतेत्येतावदेवोक्तम् । तत्र 'यदि न वर्षेत्' इत्यादि नोक्तम् । यदि कामयेतेति। सदो यत्र होत्रादयः ऋत्विजो याज्यानुवाक्यास्तोत्रादिपाठव्यापारमुपविष्टाः सम्पा दयन्ति, तन्नीचैमिनुयात्. अनुच्चाः स्थूणास्तत्र निदध्यादित्यर्थः । यथाश्रुतमेव स्वर्गादिफलापेक्षयैव शेषत्वमिति । प्रदर्शितो भाष्यकारेणेति । 'कर्मकर्तृसाधनवैगुण्यात्' इति [न्या सू०२. १. ५६ ] सूत्रव्याख्याने प्रदर्शितः, तथैव प्राक् प्रतिपादितोऽस्माभिः । कापिलास्त्विति । यागब्रह्महत्यादिक्रियाभिनिष्पन्नसंस्कारो योऽभिव्यज्यमानः प्रकाशरूपबुद्धिवृत्तिस्वरूपो विशिष्ट फलहेतुर्धर्माधर्माविति साङ्ख्याः । [पुण्यपुद्लेति । पुण्यपुद्गलाः पुण्यपरमाणवः । निराधारस्यापूर्वस्येति । ते हि क्रियानित्य क्रियाभिव्यङ्ग्यम् आश्रितमेवापूर्वमाहुः । ननु व्यापकत्वादात्मनां यज्ञायुधीति कथमेकस्यैव व्यपदेश इत्याह-यज्ञायुधसम्बन्धोऽपीति । व्यवस्थया यस्य तानि यज्ञायुधानि तस्यैव उपकारकाणि नान्येषाम् । [पञ्चदशेति] पञ्चदशसड्न्ख्यासम्पत्त्या वज्रभूतया । १ ताण्डयबा. ८. ८. १८ । २ साङ्ख्यका० २३; तदेवं बुद्धिं लक्षयित्वा विवेकज्ञानोपयोगिनस्तस्या धर्मान् सात्विकतामसानाह- 'धर्मो ज्ञान विराग ऐश्वर्य सात्त्विकमेतद् रूपं, तामसमस्माद् विपर्यस्तम्' इति । धर्मोऽभ्युदयनिःश्रेयसहेतुः, तत्र यागदानाद्यनुष्ठानजनितो धर्मोऽभ्यदयतः अष्टाङ्गयोगानुष्ठानजनितश्च निःश्रेयसहेतुः.......तामसास्त तद्विपरीता बुद्धिधर्माः-अधर्माज्ञानावैराग्यानेश्वयोभिधानाश्चत्वार इत्यर्थः ।२३॥ सांगत०कौ०।३ पुद्रलवर्म शुभं यत् पुण्यमिति जिनशासने दृष्म् । यदशुभमथ तत् पापमिति भवति सर्वज्ञनिर्दिष्टम् ॥ अभिधानराजेन्द्र भा० १ पृ०५२० । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः का०पृ०२५६, वि०पृ०२८० सोऽरोदीदिति' । स [107B]............... ......... उदखिदत् उदहरत् । प्रागृह्णात् प्राक्षिपत् । तूपरः शृङ्गरहितः पशुः । [देवयजनेति] देवा इज्यन्ते यस्मिंस्तद् यज्ञस्थानमस्मिन्नस्माभिर्यष्टव्यमित्यध्यवसाय निश्चित्य । तथात्वनिश्चयाभावादिति । रोदनादि हि प्रमाणान्तरग्रहणयोग्य वस्तु, सिद्धत्वात् ; सिद्धं हि वस्तु लोके प्रमाणान्तरग्राह्यमेव 'राजा याति'वत् शब्देन प्रतिपाद्यमानं दृष्टम, अतो वेदेऽपि तथैव भवितुमर्हति । न च प्रमाणान्तरेण रुद्रादिरोदनग्रहणसम्भवः । रोदनस्य ग्रहणाभावादेव प्रमाणान्तरविरुद्धत्वम् । वपोखेदनादीनां तु विपर्ययग्रहणात् । को ह वै तद्वदेति । को वै तद्वेद, नैव कश्चिज्जानाति परलोके फलमस्ति न वेति । गर्गत्रिरात्रब्राह्मणमिति । गर्गत्रिरात्राख्यस्याहीनस्य क्रतोः प्रतिपादकं ब्राह्म[108A]णं गर्गत्रिरात्रव्राह्मणम् ।। आधानान्ते होमविशेषः पूर्णाहुतिः । यश्चैवं वेद यश्चाश्वमेधमन्त्रब्राह्मणार्थ जानाति । न पृथिव्यामग्निरिति । अग्न्याधारभूतानामिष्टकानां विशिष्टेन सन्निवेशेन स्थापनमग्निचयनम् । तासामाधारभूतो दर्भ(र्भः) प्रस्तरणम् । अग्निहोत्रं जुहोति । केन द्रव्येणेत्यपेक्षायामाह-पयसाऽग्निहोत्रमिति । का च तत्र देवतेत्ययाह-यदग्नये चेति । व्रीहीन् अवहन्तीति । दृष्टेतिकर्तव्यतातण्डुलनिष्पत्त्यर्थमपेक्षणात् । प्रोक्षणं तदृष्टोपकारार्थमनपेक्षणाददृष्टेतिकर्तव्यता । केषाश्चिन्मते मीमांसकानां ।। [वायव्यमिति) वायुमेव स्वेन भागधेयेनोपधावति वायवे देयो यः पशुः स वायोः स्वं भागधेयम् , तेन वायुपधावति उपसर्पति स्वाभिमुखं करोति । क्रियया सम्बन्धः द्रव्यदेवतादिः । एवमन्तो विध्युद्देशः । विधिरनुबन्धद्वयानुबद्ध उद्दिश्यते येन । अङ्गविधिवत् । अङ्गविधयः प्रयाजादिविधयः । प्रती[108B]त्यङ्गत्व मिति । केवलाद् विध्युद्देशात् स्तुतिरहितस्य विषयस्य प्रतीतिः सार्थवादकात्तु सस्तु १ तै०सं०१.५.१ । २ पत्रं खण्डतमस्ति । ३ तै० सं० २.१. । । तै सं० ६१.५. । ५ तै०सं० ७.२.२ (शाबरभाष्ये-१.२.२. पृ.१०-उद्धृतम् ) ६ ते०सं० २.११ । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०२६०, वि.पृ०२८४] न्यायमञ्जरीग्रन्थिमङ्गः । ११९ तिकस्येति सस्तुतिकविषयप्रतीतावङ्गमर्थवादाः । दारा इत्यादौ बहुत्ववद्वा प्रतीत्यङ्गबहुत्वयुक्तं द्रव्यं प्रतीयते केवलम् , कार्ययोगः पुनरेकस्यैव; एवं सस्तुतिको विषयः प्रतीयत एव, अनुष्ठीयते तु शुद्ध एवेति । अत एव प्रमाणोपयोगित्वमिति । शब्दतः प्रतिपन्नाऽपि स्तुतिः प्रमाणस्य लिङादेः प्रत्ययस्य कर्तव्यतावबोधं प्रति साहाय्यकरणात् प्रमाणोपयोगिनी । अत एव प्राभाकरा वेदोऽर्थवादा न तु वैदिकाः इत्याहुः; वेदोऽवबोधका न वैदिकाः प्रमेया इत्यर्थः । न प्रमेयोपयोगित्वम् । प्रमेयं तादृगेव स्तुतं चास्तुतं चेति । स्वानुभवसाक्षिक इति । स्तुतिवाक्यमेव विधिवाक्यम् , स्तुतित एव विव्यर्थावगमात् । न तत्रान्यस्य विधिवाक्यस्य कल्पनमुपयुज्यत इत्यनुभवसाक्षिकमेतत् । यद् विधिवाक्यात् प्रतीयते तत् स्तुतिपदेभ्योऽपि प्रतीयत इत्यत्रानुभवः साक्षी। तथापि केचित् कल्पनमिच्छन्ति । यथा 'यो ब्राह्मणायावगूरेत् तं शतेन यातयात्' [तै०सं० २.६.१०.२.] [109A] इत्यर्थवादाद् ब्राह्मणावगूरणं न कर्तव्यमिति निषेधविधिवाक्यकल्पनम् । आदित्यः मायणीयश्चरुरिति । प्रयन्ति प्रारभन्तेऽनेन यज्ञमिति प्रायणीयोऽदितिदेवताकश्चरुः । दर्शपूर्णमासकर्मसम्बद्धस्य होमिकस्य वह्नेः कर्मसमूहस्योपस्थानात् किं कथं कर्तव्यमिति कर्मक्रमाद्यनवधारणरूपो यो भ्रमः सोऽनेन चरुणा निवर्त्यते, अवकास(श)दानात् । अत्र प्रवृत्त्या हि अवकाशं लभन्ते 'इदं कृत्वा इदं क्रियते' इति । [यथा दिङ्मोहेति] दिङ्मोह इव दिङ्मोहः, यथा दिङ्मोहे सति न कचित् प्रवर्तितुं शक्यत एवं कर्मक्रमाद्यनवधारणेऽपीति । अपि दिङ्मोहस्य किं पुनः दिङ्मोहस्येत्यर्थः । वृत्तान्तज्ञानं पुरैवमासीदिति । यस्त्वरुदति रुद्र इति । अरुदति प्रमाणान्तरादनुपलभ्यमानरोदन इत्यर्थः । अनश्रुपभवेऽपीति । प्रमाणान्तराद् रजताकाराद् रजतप्रभवदर्शनात् । एवं स्तेनं मन इनि । सोममाने श्रूयते 'हिरण्यं हस्ते भवत्यथ गृह्णाति' इति हिरण्यं हस्ते गृहीत्वाऽथ सोमं मातुं गृह्णातीत्यर्थः । ननु अहिरण्यहस्त एव कस्मान्न गृह्णाति तदाह-रतेनं मनोऽनृतवादिनी वागिति । हिरण्यहस्तेन यत् कृतं तत् सत्यं न मनसा वाचा वेति हिरण्यस्तुत्यर्थ तयोर्निन्दा[109B] .... । १ ताडनार्थ दण्डोद्यमोऽवगोरणमिति खण्डदेवाशयः। अवज्ञामात्रमिति माधवाशयः । २ शाबरभा० १.२.१.१० । ३ शाबरभा० १. २. १. ११.१ ४ ११० पत्रं मोपलब्धम् । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का०पृ०२६०, वि० पृ०२८५ १ . ब्राह्मणा वेति संशयरूपमज्ञानम्, अब्राह्मणोऽप्यनेन ब्राह्मणो भवतीति स्तुतिः । को ह वै तद्वेदेति यदुच्यते तद् दृष्टफलं कर्म स्तोतुमुच्यते । 'दीक्षितशालायामुपभद्रादिप्रचारकाले 'दिक्ष्वतीकाशान् कुर्यात्' इति श्रूयते । अतीकाशा धूमनिर्गमनविवरप्रदेशाः । किमिति कुर्यादित्याकाङ्क्षायां वाक्यशेषः 'को ह वै तद्वेद' । ' को हि तदन्यत् स्वर्गादि फलं जानाति यदमुष्मिंलो (ल्लो) के भवति वा न वा' इति । एतत्त्वतीकाशकरणं दृष्टफलमेव, दृष्टेन धूमनिर्गमनलक्षणेन फलेन फल [वत् ? ]त्वादस्येति स्तुतिः । १२० विद्यामशंसा गर्गत्रिरात्रब्राह्मणज्ञानस्तुतिः । सर्वत्वं प्रकृतापेक्षमिति । पूर्णा - हुत्या सर्वान् कामानवाप्नोति । सर्वकामफलस्य दर्शपूर्णमासादिकर्म समूहस्य निमित्त आहवनीये प्राप्यमाणे पूर्णाहुत्या सर्वान् कामान् अवाप्नोतीति स्तुतिः । एवं तहिं अन्तर्घानादिफला [111A ]नामपि कर्मणामाहवनीयो निमित्तं प्राप्त इत्याह प्रकृतापेक्ष - मिति । प्रकृतानि यान्यग्निहोत्रादिकर्माणि तेषां निमित्तं पूर्णाहुत्याऽऽहवनीयः प्राप्यते, तस्मिन् प्राप्ते प्रस्तुतानि कर्माण्यनुष्ठीयन्ते अग्निहोत्रादिकानि ततस्तत्तत्फलमिति । दृष्टश्च प्रकृतापेक्षः सर्वशब्दः 'सर्वमनेन भुक्तम्' इतिवत् । अश्वमेधाध्ययनेऽपीति आस्तां तावदश्वमेधानुष्ठानं योऽपि वेद सोऽपि मृत्युं तरतीत्यश्वमेधानुष्ठानस्यैव स्तुतिः । अब्जने सति घृतादिना । तत्कार्यकारित्वाद् यज्ञनिर्वर्तकत्वाद् यजमानकार्यकारित्वं प्रस्तरस्य । ऐन्द्रया गार्हपत्योपस्थानमधिरुद्धमिति इन्द्रप्रतिपादकानां पदानां 'कदाचन स्तरी रसि नेन्द्र सश्चसि दाशुषे ' [ऋग्वेद ८.५१] इत्यस्यामैन्द्रयामृचि ऐश्वर्यादियोगाद् गौण्या वृत्त्या गार्हपत्येऽपि प्रवृत्तिरविरुद्धा | परकृतिपुराकल्पस्वरूपाः पूर्वं दर्शिताः, यथा चात्र [ 111B] दाल्भ्य आह माषानेव मह्यं पचतेति परकृतिरूपोऽर्थवादः, तस्मादारण्यानेवाश्नीयादित्येतद् विधिशेषैः | उल्मुकैर्ह स्म पुरा समाजग्मुरिति च पुराकल्परूपोऽर्थवादैः । तस्माद् गृहपतेरेव निदध्या ( निर्मथ्या ! ) ग्निषु स पचन् पचमि (चेदि ?) त्येतच्छेषः । विशिष्टनामधेयतया ज्ञातकर्तृक कर्मसम्बद्धोऽर्थवादः परकृतिः, अविज्ञातकर्तृकर्मसम्बद्धस्तु पुराकल्प इर्ति । ४ १ गोपथब्रा० पूर्वभा० ५.२१. २ मी०सु० १.२.१.१५ । ३ सर्वत्वमाधिकारिकम् । मी०सू० १.२.१.१६ । भसर्वेषु सर्ववचनमधिकृतापेक्षम् । शाबरभा० । शाबरभा० ६.७.१२.२६ । ५ शाबरभा० ६. ७.१२.३० । ६ शाबरभा० ६.७.१२.२६ । ७ शाबरभा० ६.७.१२.३० । अन्यप्रकारेण परकृतिपुराकल्पयोर्भेदः प्रदर्शितः तयथा - एकपुरुषकर्तृकमुपाख्यानं परकृतिः, बहुकर्तृकं पुराकल्पः । ८. Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का० पृ०२६२, वि० पृ०२८७] न्यायमज्जरीग्रन्थिभङ्गः १२१ प्रतितिष्ठन्ति ह वेति । त्रयस्त्रिंशद्रात्रमुपेयुरित्येतावन्मात्रं श्रूयते, किंकाम इति तु न श्रूयते । फलमात्रेयो निर्देशादिति' । 'प्रतितिष्ठन्ति ह वा' इत्यादि किं फलार्थवादमाश्रमुत फलविधिरिति संशये फलार्थवादमात्रमित्यत्र पूर्वपक्षे सूत्रम् "ऋतौ फलार्थवादङ्गवत् काष्र्णाजिनिः' इति [मी०सू० ४.३.८.१७ ] क्रतावस्मिन् रात्रिसत्रे फलमर्थवादतया कार्ष्णाजिनिराचार्यो मेने, यथा यस्य खादिरः स्रुवो भवति च्छन्दसामेव सरसेनावद्यतीत्यत्राङ्गविधावर्थवादमात्रं फलनिर्देशः । ततः सिद्धान्तसूत्रं 'फलमात्रेयो निर्देशादश्रुतौ ह्यनुमानं स्यात्' इति [मी०सू० ४.३.८.१८] । आत्रेय आचार्यः । फलविधिमेव मन्यते सः । [112A] फलं ह्यवश्यं कल्प्यं तच्च निर्दिष्टमेव, अश्रुतौ ह्यनुमानं कल्पना भवतीति । अत्र चार्थवादविचारे पूर्वपक्षावस्थायां सोऽरोदीदित्याचा उदाहृताः, सिद्धान्ते तु वायुर्वै क्षेपिष्ठेत्यादयः, तत्र कोऽभिप्रायः । उच्यते । तेषु स्वार्था - सत्यत्वाशङ्का विद्यते, अमीषु तु स्वार्थासत्यत्वाशङ्काया अभावः । एषां चैकवाक्यत्वं विधिना साधयितुं पारितं तदनेनैव न्यायेन तेषामपि सेत्स्यतीति । किमर्थप्रकाशनद्वारेणेति । प्रयोगकाले योऽयं मन्त्राणां पाठः स किं प्रयोज्यान् पदार्थान् प्रकाशयितुं तेषां स्मरणाय उतादृष्टार्थमुच्चारणमात्रमिति । उरुप्रथा उरु प्रथस्व । त्वं पुरोडाश उरुप्रथाः उरु कृत्वा प्रथस्व इति । उरुप्रथाः प्रथः शब्दः सान्तः । अत उरु विस्तीर्ण कृत्वा प्रथस्व विस्तारं भजेति । प्रथयति पिण्डरूपं सन्तमपूपरूपं सम्पादयति । अग्नीदग्नीन् विहरेति मन्त्रेणाग्नीघोऽग्निविहरणं कर्तव्यं प्रकाश्यं, तच्चाग्निविहरणमसावनेन वचनेनाप्रकाशितमपि कर्मपाठकमवशादेव जानन् करोति । अस्मिन् ह्यवधौतस्या [112B] ग्निविहरणं पठ्यते । ग्रहैकत्वप्रतीतिवदिति । 'ग्रहं सम्माष्टि' [ ] इत्यत्र ग्रहं निर्दिश्य सम्मार्गों विधीयते । निर्देशस्तु वचनान्तरनिर्ज्ञातस्य भवति, वचनान्तरेण च नवसंख्योऽसौ विहित इत्येकत्वाविवक्षा" । सोमाव सेकः सोम ( मा) वलेपः । अपेक्ष्यमाणश्चेति । यथा बर्हिर्देवसदनमित्यस्य द्रव्यप्रकाशनं योऽर्थः स विधिनाऽपेक्ष्यते । सर्वस्य वेदस्याविवक्षितार्थत्वं स्यादिति । 'ननु कथमविवक्षितार्थत्वं, स्वाध्यायाध्ययनविधेः ‘‘स्वाध्यायोऽध्येतव्यः" इत्यस्यार्थज्ञानपरत्वादित्याह - अक्षरग्रहणमा १ मी०सू० ४.३.८.१८ । २ अथेदानीं किं विवक्षितवचना मन्त्रा उताविवक्षितवचनाः । किमर्थ प्रकाशनेन यागस्योपकुर्वन्ति, उतोच्चारणमात्रेणेति । शाबरभा० १.२.४. ३१ । ३ य०वा०सं०] १.२ । ४ शतपथब्रा० ४.२.४.११, आप० श्र०सू० १२. १७.२० । ५ शाबरभा० ३.१.७.१३-१५ । १६ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૨ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः का०पृ०२६२, वि०पृ०२८७ त्रविधानात्' इति । 'स्वाध्यायोऽध्येतव्यः' तै०आ०२.१५.१] पाठेनाऽऽमुखीकर्तव्य इति हि तस्यार्थः । दृष्टो हि तस्यार्थ : कर्मावबोधनमिति । अक्षरग्रहणमात्रस्य निष्फलत्वादवश्यं विधिना प्रवर्तकशक्त्यविधाताय फलान्तरं कल्प्यम् । यावच्च कल्प्यते तावद् दृष्टमेवार्थावबोधनं लध्वित्यादि प्रथमाह्निकारम्भ एव प्रप[113A]श्चितमिति । ननु 'यद् ऋचोऽधीते घृतकुल्या भवन्ति, यद् यजूंष्यधीते मधुकुल्या भवन्ति' इति [ ] ऋगायध्ययनात् फलान्तरश्रवणात् कथमर्थावबोध एव फलमिति । अतिप्रसिद्धोऽयमर्थः, प्रथमसूत्र एव मीमांसायामस्य विचारणादत एवाह-एतच्च शास्त्रान्तर इति । 'अन्यार्थत्वे स्वाध्यायस्यावगते तेषामर्थवादतयैव समन्वयः' इत्याद्युत्तरमत्र । तद्विधायकम् उरुप्रथा इति पुरोडाशं प्रथयतीति । प्रतिपन्नार्थविषयं तु तदित्यनेन निरालम्बनत्वकृतमनर्थकत्वं परिहरति, अर्थवादार्थम् वेत्यनेन त्वनुवादमात्रत्वम् । कचित्तु गुणार्थविधानमिति । सन्न्यादानसमर्था मन्त्रा 'देवस्य त्वा' [तै०सं०५.१.१] इत्यादयः, तान् पठित्वाऽऽह 'तां चतुर्भिरादत्ते' इति[ते०सं०५.१.१] । तामित्यभिं; वेद्यर्थ मृत् वन्यते यया सा अभ्रिः । तत्र तदादानप्रकाशनसामर्थ्यादेव मन्त्रेण तदादाने लब्धे पुनस्तां चतुर्भिरादत्त इति वचनं निष्फलमाशङ्क्य समुच्चितैश्चतुर्भिरादानं कार्य नैकैके[113B]नेति समुच्चयलक्षणगुणस्य विशेषस्य विधानार्थम् । यद्यपि समुच्चयो न वाच्यः तथाप्यसमुच्चितैरेकैकश आदानं क्रियमाणं कथं चतुर्भिरादानं कृतं स्यादिति फलतः समुच्चयलाभः । एवमग्नी[दग्नी]न विहरेति । अत्र यद्यपि तस्य ज्ञानं स्थित मयैतत्कर्तव्यमिति तथापि प्रयोगकालेऽवश्यं स्मर्तव्यं तत्, उपायान्तरेण स्मरणप्रतिषेधार्थ मन्त्रेण स्मृतं कर्तव्यमिति मन्त्रस्योपयोगः । अन्यथा करणे चास्येति । बहुभ्योऽध्येतृभ्यो निवारणम् , एवं मा पठीरिति। सवनानि प्रातःसवन-माध्यंदिनसवन-तृतीयसवनानि । छन्दांसि गायत्र्यादीनि । कल्पो यज्ञसूत्रम् । कामान् स्वर्गादीन् । स एवंभूतो महो देवो महान् देवो यज्ञो मान् मनुष्यान् आविवेश, तेषामेव यज्ञेऽधिकारात्। चत्वारि शृङ्गास्त्रिधा बद्ध इत्यनयोरथर्ववेदभक्या स्वव्याख्यानं कृतवान् ग्रन्थकारः, भाष्यकारस्तु चत्वारो होत्राः शङ्गाणीवास्येति, त्रिधा बद्धस्त्रिभिदैर्बद्ध इति च व्याचचः । होत्रा इति ऋत्वि- १ तुलना-अर्थवादो वा । मी०सू० १.२.४.३५ । २ तुलना--गुणार्थेन पुनः श्रुतिः । मी सू० १.२.४.३३ । ३ शतपथब्रा० ४.२.४.११; आप०ौ•सू० १२.१७.२० । १ प्रलो० वा० चोदनासूत्र १५० । ५ ऋग्वेद ४. ५८. ३। ६ शाबरभा० १.२.४.३८ । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०२६४, वि०पृ०२८८ ] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः १२३ विशेषाणां ब्रह्मन्-आच्छंसि-पोत-नेष्ट्रलक्षणानां चतुर्णामभिधानं, तेषां यज्ञमुखप्रदेशवर्तित्वाच्छृङ्गतुल्यत्वम् । [114A] ___ ओषधे त्रायस्वेति' । पशुसंज्ञापनकाले पशुपरित्राणार्थमध्वर्युदर्भमाह- ओषधे त्रायस्वेति । तस्या अचेतनायाश्चेतनवत्त्वसमारोपः स्मृ(स्तु)तिः । मातरनुवाकस्तुतिरिति प्रातरनुवाकाख्यः श(शास्त्रविशेषः ऋग्वेदप्रसिद्धः। यदचेतना ग्रावाणोऽपि शृणुयुरित्यस्य किं पुनविद्वांसो ब्राह्मणा इति शेषः । यत्तु केषाश्चिन्मन्त्राणामों न ज्ञायत इति । तत्र 'अम्यक् सा त इन्द्र ऋष्टिरस्मे सनेम्यन्वं मरुतो जुनन्ति अग्निश्चिद्धि मातसे शुशुकानापो न द्वीपं दधति प्रयांसि' इति [ऋग्वेद १.१६९.३] तावन्मन्त्रस्यायमर्थः । अगस्त्योऽमरत्वं प्रार्थयमान इन्द्रमाह - हे इन्द्र सा ते भवत्सम्बन्धिनी ऋष्टिरायुधविशेषः अस्मे अस्माकं स्थितैव, किंविशिष्टा ? अम्यक् अमिशब्दः सहार्थे अमि सह अञ्चतीत्यम्यक् या तव सहचारिणीत्यर्थः। अग्निः चित् हि स्म अग्निरिव हि अतसे शुष्कतृणे, शुशुक्कान् दीप्तवान् शुष्कतूणप्रज्वलिताग्नितुल्या या लक्ष्यत इत्यर्थः । येऽप्येते मरुतः सनेमि पुराणमभ्वं तोयं जुनन्ति वृष्टिरूपेण प्रक्षरन्ति । अत एव प्रयांस्यन्नाद्यानि दधति धारयन्ति तव सखाः तेऽप्यस्माकमेव कथं [114B]........ तावच्छब्दौ प्राङ्नीत्या प्रहरणहिंसापरौ सति च प्रहर्तव्ये तत्परत्वमनयोनान्यथाऽश्विनोश्च देवभिषजोर्जरणमरणे एव प्रहर्तव्यहिसितव्ये च नान्यत् । अत उक्तम्-जरणमरणनिमित्ताविति । यत एव च जरामरणयोः प्रहर्तारौ हिंसितारौ चाश्विनावत एव ताभ्यामजरत्वममरत्वं च प्रार्थितवानगस्त्य इति । 'एकया प्रतिधाऽपिबत् साकं सरांसि त्रिंशतम् । इन्द्रः सोमस्य काणुका' इति [ऋग्वेद ८.७७.४] मत्रे(न्त्रे)णेन्द्रः स्तूयते । एकया प्रतिधा एकेन प्रयत्नेन साकं युगपत् त्रिंशतं सरांसि पात्राणि सोमस्य पूर्णानीन्द्रोऽपिबत् । काणुका कामयमानः सन् । ___ अग्निवृत्राणीति । अग्निर्वृत्राणि पापानि जङ्घनदत्यर्थ हतवानित्यर्थः । हिरण्यपर्णेति । न हि लोके वनस्पतीनां हिरण्मयपर्णत्वमित्यर्थान्यत्वम् । वाराही उपानहीं १ य०वा सं. ५.४२, तै०सं० १.३.५ । २-३ शाबरभा० १.२.४.३८ । . द्र० निरुक्त ६.१५, तन्त्रवा० १.२.४.४१। ५ ११५ पत्रं नोपलभ्यते । ६ अधोनिर्दिष्टऋग्मन्त्रस्यैषा व्याख्या-मृण्येव जभरी तूफरीतू नैतोशेव तुर्फरी पर्फरीका । उदन्यजेव जेमना मदेरू ता मे जराय्वजरं मरायु ॥ [१०. १०६. ६] अस्य व्याख्यार्थ द्रष्टव्यम्-(१) तन्त्रवा० १.२.४.४१; (२) सायणभा०। ७. तन्त्रवा० १.२.४.४१, निरुक्त ५. १०; सायणभा०। ८ ऋग्वेद ६. १६.३४ । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ भट्टैत्रीचक्रधरप्रणीतः का०पृ०९६४, वि०पृ०२८८ वराहचर्मनिमि(मि)ते । वैतसे कट इत्यश्वमेधे श्रूयत एतत् । वेतसनिर्मिते कंटें प्रजापतिदेवताकान[116A]श्वादिनाना पश्ववयवान् सञ्चिनोति सहचरयति । शिष्टप्रसिद्धया शास्त्रवित्प्रसिद्धया । तथाहि-"यवमयेषु करम्भपांत्रेषु' विहितेषु वाक्यशेष यत्रान्या ओषधयो म्लायन्ते तत्रैते मोदमाना इवोत्तिष्ठन्तीति" शाबरभा० १. ३.४.९]; न चैवरूपता प्रियङ्गुषु सम्भवति, साषधिसाधारणे शेरसमये तदुद्भवात् ; यवानां तु ग्रीष्मे समुद्भवः, अतस्तेष्वेव प्रत्ययस्तस्माद् । 'वराहं गावोऽनुधावन्ति' इत्यतस्तु वाक्यशेषात् सूकरे वराहशब्दो न कृष्णशकुनी का; न हि तं गावोउनुधावन्तीति । 'अप्सुजो वेतसः' इत्यमुष्माच्च वाक्यशेषाद् वजुले वेतसशब्दों न जम्ब्वाम् । [निगमेति] निगमा निघण्टवः, अस्येयन्ति नामानीत्येवंप्रायाः । मन्त्रार्थप्रदर्शनपराणि वेदवाक्यान्येव यानि, यथा 'युञ्जानः प्रथमं मनः'[ तै० सं० ४.१.१.१] इत्यस्य मन्त्रस्य 'प्रजापति, युञ्जानः' इत्यादिको व्याख्यारूपो निगम उच्यते । व्युत्पत्पाऽर्थप्रतिपादनं येन क्रियतें तन्निरुक्तम् । तत्र किमिति] उद्भि[116B]घते मृत् खन्यते येन तदुद्भित् कुद्दालादि, तेन ‘उद्भिदा यजेत' इति [तां० ब्रा० १९.७ २.३] गुणविधिः, यवैर्यजेतेतिवत् । गुणश्च तस्मिन् वाजपेयाख्य इति । वाजमन्नं वाजं च तत् पेयं चेति यवागूरुच्यते, स गुणः, तेन यागः कर्तव्य इति । रूपसाम्यादिति । तदेव यकारा(यागा)धात्मक रूपमुभयत्रापि सम्बध्यमानस्य, अतस्तन्त्रेणोभयत्र सम्बध्यत इति । प्रधान चेति । अन्येनोपक्रियमाणत्वात् प्रधानम् । तस्माद भावार्थमाप्ताविति । वैदिकानि तावद् विधायकानि सर्वाण्येव गुणविधाने पर्यवसितानि सर्वाणि हि सोपपदानि, उद्भिदा यजेतेतिवत् । तच्छुद्धस्य यागस्य विधायकमवश्यमन्यत् प्रमाणान्तरं मृग्यम् . अतश्च प्रमाणान्तरसव्यपेक्षत्वादप्रमाणमिति प्रभाकरमतम् । तथा च स आह-तस्मात् कर्मविधानासम्भवादप्रामाण्यम् । कथम् ! लौकिककर्माश्रयणात् । अवश्यं हि गुणविधिपरे वाक्ये लौकिकं कर्माश्रयणीयम् । वैदिके न खलु बाधा दोषः किन्तु असम्भवः ? कथमसम्भवः ? सर्वत्रोपपदश्रुतेः । एवमपि किमित्यप्रामाण्यम् । धात्वर्थेऽन्यतः प्रवृत्तिर्मुग्या। [117A]आ(अ)न्यतश्चेत् सापेक्षत्वप्रसङ्गः, सापेक्षत्वाच्चाप्रामाण्यं प्रसक्तम्" इत्यादि [ ] । १-३ शाबरभा० १.३.४. तन्त्रवा० । ४० शाबरभा० १.४.१.१. । ५ वाजपेयं यवागू स्यात् । तन्त्रवा०१. ४.५.८ । ६० शाबरभा० १.४.५. ७ यजेते. त्येतदुभाभ्यां सम्भन्त्स्यते । कथं सकृदुच्चारित सम्बन्धमुभाम्यामेष्यतीति । रूपामेदात् । शाबरभा० १.४.५.८। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को०पृ०२६५, वि०पृ०२९०] न्यायमञ्जरोग्रन्थिभङ्गः १२५ . गुणविधिपक्षस्पृश इति । फलं प्रति विधेयत्वाद् धात्वर्थस्य, नामविधिं प्रति चोद्देश्यत्वात् । संज्ञासंज्ञिसम्बन्धमिति । कार्यपरत्वाद् वेदस्येति भावः । योगेन केनचिदित्यादिना नामधेयस्यानूद्यमानत्वं दर्शयति । योगेन पशूनामुद्भेदनेन फलभूतानां प्रकाशनेन यत् सिद्धमुद्भित्त्वं तदनेनानूद्यते न विधीयत इत्यर्थः । येनानेन यागविशेषेण पशुकामो यजते भवत्येवासावुद्भित् पशूनामुद्भेदनादित्यर्थः' । गुणफलोपबन्धेनार्थवदिति । तत्सम्बन्धित्वेन गुणफलयोर्विधानादित्यर्थः । आग्नेयोऽष्टाकपाल इति । अच्युत इत्युभाभ्यामपि दर्शपूर्णमासाभ्यां न च्यवत इति । अत्र हि अष्टकपालेषु यः संस्कृतः साऽष्टाकपाल आग्नेयो भवनि, तस्य पुरोडाशस्याऽऽग्नेयता विधीयते; न ह्यविधीयमान आग्नेयो भवति । स पुनरष्टाकपाल एवमाग्नेयो भवति यदानये संकल्प्य दीयते, संकल्पमन्तरेणाऽऽग्नेयत्वाभावत् । संकल्पितस्य या[117B]गेन विनाऽर्थवत्ता नास्तीत्येवमनेन प्रकारेण तद्धितान्तनिर्देशान्यथानुपपत्त्या यागो विहितः। स चैवं द्रव्यदेवतासम्बन्धात्मको यागो विधीयमानो न शक्यः सम्बन्धिनावग्निपुरोडाशावन्तरेण विधातुमिति सगुणस्य कर्मणो यागस्य विधानम् । तथा च जैमिनिः-"तद्गुणास्तु विधीयेर. न्नविभागाद्विधानार्थे न चेदन्येन शिष्टाः" इति [मी. सू.१.४.६.९.] । यथा वा एतस्यैवेति । "समेषु कर्मयुक्तं स्यात्" [मी०सू०२.२.१२.२७] इत्यत्रैतच्चिन्तितम् । त्रिवृदग्निष्टुदग्निष्टोमस्तस्य वायव्यास्वेकविंशमग्निष्टोमसाम कृत्वा ब्रह्मवर्चसकामो यजेतेति । ततः पुनरुक्तम् । एतस्यैव रेवतीषु वारवन्तीयमग्निष्टोमसाम कृत्वा पशुकामो ह्येतेन यजेतेति । तत्र प्रथमं त्रिवृत्स्तोमकोऽग्निष्टुन्नामको यागः स चाग्निष्टोमोऽग्निष्टोम संस्थस्तस्य वायव्या या ऋचः तास्वेकविंशमेकविंशत्या स्तोत्रीयाभिऋग्भिनिर्वयोऽग्निष्टोमाख्यः स्तोत्रविशेषः [118A] । पश्चादेतस्यैवेत्याह । अत्र विशेषः रेवत्याख्यासु ऋक्षु वारवन्तीयाख्यस्याग्निष्टोमसाम्नो विधानम् । तत्र संदेहः । किं पूर्वप्रकृतस्याग्निस्तुतोऽग्निष्टोमस्य यो गुणो वारवन्तीयाख्यस्तस्मिन् पशवः फलम् अथवा एतेन यजेतेति कर्मान्तरविधानमिति । तत्र पशुकामो यदि यजेतानेन यदेवं कृत्वेति सम्बन्धादेतस्यैवेत्यनेन तस्यैव परामर्शात् तस्यैव गुणविधिरिति पूर्वपक्षिते “समेषु कर्मयुक्तं स्यात्''इति मी०सू० २.२.१२.२७] सिद्धान्तः । समेष्वेवंजातीयेषु रेवत्यादिवाक्येषु कर्मयुक्तं फलमपूर्वात् कर्मणः फलं न पूर्वस्यैव गुणविधिरित्यर्थः । कथम् ! गुणविधिपक्ष वाक्यभेदात् तस्य तावत् प्रकृतस्य रेवत्यो न सन्ति ता विधेयास्तासु चाग्निष्टोमसाम नास्ति पूर्वसिद्ध १ शाबरभा० १.४.१.२ । २ तैः सं. २.६. ३. । ३ ताण्डयवा० १७.६.१ । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ भदृश्रीचक्रधरप्रणीतः [का पृ०२६५, वि०पृ० २९० तदपि विधेयम् । सिद्धान्ते तु रेवत्याधारवारवन्तीयस्तोत्रनिर्वृत्तिपूर्वकत्वविशिष्टो यागो विधीयते । तदा च विशेषणानामविधाने कर्थ[118B] तद्विशिष्टस्य यागस्य विधिरिति बलात् सगुणस्य कर्मणो विधानमायाति । यदा चैवं न्यायस्तदा एतस्येत्येवं. धर्मकस्येति व्याख्येयम् । अत्र च 'यागप्रवृत्तौ सत्यां साम्नः करणमुपपद्यते न तु पूर्वम्' इत्याक्षिप्य प्राभाकरैः 'प्रतीतिपौर्वापर्ये क्त्वाश्रुतिर्न प्रयोगपौर्वापर्ये' इत्यादि समर्थितमित्यास्तां तावदेतत् । अत एवानेनाप्युक्तम्-अलं शास्त्रान्तरेत्यादि । समुच्चारणे सहोच्चारणे । प्रतिपत्तिकर्तव्यताविधानस्य निष्फलत्वादिति । यथा भुजी प्रवृत्तः तृप्ति प्रति न नियुज्यते स्वत एव भावादेवं शब्दश्रवणादेव प्रतिपत्तेः सिद्धत्वात् 'प्रतिपत्ति कुरु' इति प्रतिपत्तिकर्तव्यताविधानं निष्फलम् । किञ्च लौकिकेष्विति । अत्र किञ्च लौकिकेष्विति आरभ्य अनुवा दमानं विधिवचनमिति एवंवदतां कार्यप्रामाण्यवादिनामिति समन्वयः । [हिताहितेति] हिताहितप्राप्तिपरिहारयोर्यत्साधनं सिद्धिस्तत्र सामर्थ्यमवगत्य प्रामगमनादेस्तत्र ग्रामगमनादौ प्रवृत्तेः । विनियोगनिष्ठ एव । 'ग्रामं गच्छ ग्रामगमनाद्वितं भवति' इति हितप्राप्तिप्रा[119A]मगमनयोर्यः साध्यसाधनसम्बन्धलक्षणो विनियोगस्तन्निष्ठ इति । अनुवादमात्रमिति । प्रवर्तनाभिधानद्वारेण हि प्रवृत्तौ तात्पर्य लिङादेः, सा चान्यतः सुखसाधनत्वावगमनादेर्या प्राप्ता तामसावनुवदति नापूर्वी विदधाति । ये तु भूतार्थवादिष्विति । 'निधिमानय प्रदेश:' 'प्रतिरोधकवानयमध्वा' इत्यादिषु 'गृहाण' 'मा गमः' इत्यादि कल्पयन्ति । तत्राश्रुतः कल्पयितव्य इति . कल्पयित्वाऽप्यनुवादीकर्तव्यः, तद् वरमकल्पनैवेत्यभिप्रायः । न च कल्पनामपि विना काचित् क्षतिरित्याह-प्रवृत्तौ विति।। एवमयं पुरुषो वेदेति । एवमस्य ज्ञानमस्तीत्यर्थः । न हि सर्वात्मनाऽभिधात्रीमिति । पदानां हि पदार्थेऽभिधात्रीः शक्तिः, पदार्थसंसर्गात्मके वाक्यार्थे तात्प र्यशक्तिः, पदार्थाभावे च कथं तत्संसर्गात्मकवाक्यार्थलाभः । उपाये पूर्वमेवेति । पुत्रजननाद यदुत्पद्यते सुखं तस्य पुत्रजननात्मको व्यापार रपायः। वित्तषणाव्युत्थितस्य धनाभिलाषनिरपेक्षेण वर्तमानस्य । गोविन्दस्वामिन इव 119B] इति । भगवान् गोविन्दस्वामी हि धनाहरणाय पुरा किं कि(किं) न व्यधत्त १ शाबरभा० १.१.२, (पृ. १६)। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०२७०, वि०पृ०२९५] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः १२७ तथापि कृतयत्नातिशयो न कामपि यदा धनमात्रामाससाद तदा कालेन महद्वैराग्यमस्य प्रादुरभूत् , तथाविरक्तश्च कदाचिन्निधिमुपलभ्य तदुपरि मूत्रपुरीषोत्सर्गमकरोदिति श्रूयते । प्रतिपत्तिकर्तव्यतापि कुन इति । प्रतिपत्ति(त्ति) कुर्वित्युपदिश्यते, सा चेच्छब्दाद्भवति तदा कर्तुं शक्या । पदार्थान्तराणाम् । शुक्लैीहिभिर्यजेतेत्यादिषु द्रव्यगुणादीनां वाक्यीयः परस्परसम्बन्धः साकाङ्क्षाणां सन्निधानकृतः । विभक्त्या तृतीयया । कार्यपारतन्त्र्यापादिका विभक्तिरिति । तृतीयया हि द्रव्यगुणयोः क्रयकार्य प्रति पारतन्त्र्यं प्रतिपादितम् , अतस्तत्रैवोपक्षीणाऽसौ । वीहीन् मोक्षतीति । प्रोक्षणस्य भव्यस्यापि व्रीह्यर्थत्वात् । ननु दर्शपूर्णमासप्रकरणादपरित्यक्तपारार्थ्यानामेव व्रीहीणामसौ[120A] संस्कार इत्याशङ्क्याह-अलं वेति । कर्म किञ्चित्साध्यं प्रधानमिति । दर्शपूर्णमासप्रधानकर्मोपदेशात् तादर्थ्य व्रीह्यादीनां नैवमत्र ज्ञानमेव प्रधानं कर्म भविष्यति । तत्र साध्यगुणत्वेनैवात्मनो द्रव्यस्य सम्बन्ध इति चेन्न । साधिकारं हि प्रधानं कर्म भवति, न चात्राधिकारः श्रूयते । न चाधिकारकल्पना भवति; सा ह्यनुष्ठानाय क्रियते, अनुष्ठानं च वक्ष(क्ष्य)मा. णनीत्याऽपि सम्भवतीत्यभिप्रायः । ननु कर्मप्रवृत्तिसिद्धयर्थ नित्यत्वेनात्मनो ज्ञानोपदेशात् पारार्थ्यमेव, तन्नेत्याह- न च कर्मप्रवृत्तीति । 'अथात्मा ज्ञातव्यो निदिध्यासि. तव्यः' इत्याधुपक्रम्य 'एवं वर्तयन् यावदायुषं ब्रह्मलोकमभिसम्पद्यते न स पुनरावर्तते' [छान्दो० उप० ८. १५. १]इत्यादेरथेवादाद पुनरावृत्तिकामोऽधिकारी लभ्यते । तन्नेत्याह-अर्थवादस्त्विति । आत्मस्वरूपनिष्ठत्वमेवेति । आत्मा ज्ञातव्यः, अपहतपाप्मत्वादिगुणवत आत्मनः साक्षात्कारो यथा भवति तथा कुर्यात् , [120B] न पुनस्तज्ज्ञानेनान्यदिति । तस्मादपहतपाप्मादीति । “एष आत्माऽपहतपाप्मा विजरो विमृत्युर्विंशोको विजिघस्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसङ्कल्पः' [छान्दो० उप० ८. १.५]इत्यादिग्रहणेन श्रुतिपरिग्रहः। यदि न तेनान्यत् साधयेत् तर्हि तत्स्वरूपमात्रप्रतिपत्तौ निष्फलायां किमर्थ प्रवर्तेतेत्याह--तस्मिन्नवगत इति। स एव झुत्तमः पुरुषार्थः, तथाविधावस्थाया एव कैवल्यशब्दवाच्यत्वात् । यदि तादृगसौ तहिं स्थित एव तेन रूपेणेति किमर्थं तदुपासनादियत्नविशेष इत्याह-यत्नस्त्विति । प्रतिपत्तिकर्तव्यतापरोऽयमिति । अयमर्थः । आत्मा ज्ञातव्यः' इति नायं विधिरपहतपाप्मत्वादिविशिष्टात्मस्वरूपप्रतिपादनपरः, किन्त्वेवंविधात्मप्रतिपत्तिरत्र कर्त. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्रट्ट श्रीचक्रधरप्रणीतः [ का०पू० २७० वि० पृ०२९५ व्यतयोपदिश्यते, अतः प्रतिपत्तिविषयो यो नियोगस्तत्रैवास्य तात्पर्यम् उभयपरत्वे वाक्यभेदप्रसङ्गादिति । प्रमितेश्च प्रमेयनिष्ठत्वादिति । प्रमेयसाक्षात्कारं विना प्रतिपत्तिकर्तव्यताया एवासम्पत्तेरित्यर्थः । कर्मणि चायं कृत्यप्रत्ययेति । भावनाक यागेन स्वर्गं भावये [121A ] यथा तथा श्रुतेनात्मानं साक्षात्कुर्यादिति न पुनर्विधिक - णि विधेये सोमेन यष्टव्यमितिवत् । विष्णुरुपांशु यष्टव्यः प्रजापतिरुपांशु यष्टव्य इति वा यथा कृत्यप्रत्ययः उपांशुयाजस्तुत्यर्थत्वेन तथेहात्र साक्षात् तस्यैव ज्ञानेन प्रेप्सितत्वात् । फलं तावद्विधेर्न विषय एव । स्वत एव तत्र प्रवृत्तत्वात् तथा चाह भाष्यकारः - ''वेदैवाऽसौ मयैतत्कर्तव्यमुपायं तु न वेद" इति [ ] । फलांश भावनायाश्चेत्यस्य शेषः-- "वक्ष्यते जैमिनिश्चाह तस्य लिप्सार्थलक्षणा" इति [ श्लो० वा० चोदनासू० २२३ ] । फांश एव न विधायकः करणेतिकर्तव्यतांशयोस्तु विधायक एवेति । " १२८ .... सत्यासत्यस्वभावेति । तथाहि यथा घटशरावोदञ्चनप्रभृतीनि नानारूपाणि अभिधानाभिधेयानि प्रपञ्चतो भेदव्यवहाररूपतया स्थितानि मृदपेक्षया असत्यानि, तेषामुपसंहारे केवलं मृद्रूपताप्रतिभासात् । सापि द्रव्यरूपतया असत्येव, मृदूपतोपसंहारे केवलद्रव्यरूपताप्रतिभासात् ; एवं सत्तापेक्षया द्रव्यरूपताप्यसत्येव । इत्येवं च सामान्यरूपः सन्मात्रं ब्रह्म इत्यस्तमितज्ञातृज्ञेय . '[121B] * इत्यत्र पुरुषसंस्कारकत्वेनोपयोगात् । तथा च श्रुतिः - " तमेतं वेदानुवचनेन [ब्राह्मणा] विविदिषन्ति, ब्रह्मचर्येण तपसा श्रद्धया यज्ञेन दानेनानाशकेन वा " इति [प्रश्नोप० १.२; हदा० ४.४.२२ ] । यज्ञेनेति यज्ञस्य विविदिषायामात्मज्ञानेऽङ्गत्वं प्रदर्शयति । तथा 'येन केन च यजेतापि दर्विहोमेनापहतपाप्मैव भवति' इति च । तथा च व्यासः - सबै कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते । ८ आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमिष्यते ॥ इति [गीता ० ६.३] ॥ स्तोकस्तो प्रपञ्चेत्यादिना तन्निष्ठत्वमेव तत्र प्रदर्शयितुमाह । तत्र प्रपञ्चप्रविलयं केचिदेवमाहुः । तथा च ज्योतिष्टोमेन यजेतेत्यतस्तावच्छरीरव्यतिरिक्तो नित्य आत्मास्तीति प्रतीयते तेन शरीरेण स्वर्गा (र्ग ) स्यातुमशक्यत्वात् । अतो देह एवात्मेति यः प्रपञ्चस्तस्य प्रविलयः । तथा कलञ्जप्रतिषेधविधिरपि रागतो या प्रवृ १ भवाच्याम्यक्षराणि । २ १२२ पत्र नोपलभ्यते । ३ द्र० ब्रह्मसू०शां०भा० (भामतीसहितम् ) ११.१. । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०२७०, वि०पृ०२९६] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः १२९ त्तिस्तस्याः प्रविलयः । अन्यास्वपि कामचोदनासु फलार्थ या प्रवृत्ति [123A]स्तस्याः प्रविलयनमुत्तमफलार्थत्वेन, यानि प्रवृत्त्यन्तराणि तेषामपि प्रविलय इति प्रासङ्गिकफलप्रदर्शनद्वारेण च प्रदर्शित एव प्रपञ्चप्रविलय इति । उत्तम(मा)धिकारयोग्यत्वापादनादिति । यथा यथा हि प्राङ्नीत्या कर्मानुष्ठानद्वारेण परिपक्वकषायता भवति तथा तथा आत्मसाक्षात्कारयोग्यताऽस्य जायत इति । स्वाध्यायेन व्रतैरिति' । स्वाध्यायेनोपनयनाङ्गभूतेन प्रणवव्याहृतिगायत्र्यादिपाठेन । व्रतैर्वेदग्रहणार्थैरुपनयनोत्तरकालं सावित्रादिभिः । विद्येन त्रिवेदाध्ययनेन । इज्या गुरुशुश्रूषया । सुतैधर्मप्रजोत्पत्त्या । महायज्ञैः पञ्चभिः स्मार्तेर्भूतयज्ञादिभिः । यज्ञैश्च ज्योतिष्टोमादिभिः श्रौतैः । ब्राह्मीयं क्रिय[123B] ते ब्रह्मप्राप्तियोग्या क्रियते । ब्रह्मप्राप्तिपर्यवसायिनः [स्वाध्यायादयः । ब्रह्म चात्मा सिद्धस्वभाव एवेति । ननु ब्रह्मणः सिद्धस्वभावस्य प्रमाणान्तरग्रहणयोग्यत्वात् तत्परत्वे वेदान्तानामनुवादकत्वं प्राप्तम् । तत्स्वरूपस्य च स्वाध्यायाध्ययनादेवा[व]गते ष्प(फ)ल्यमित्याद्याशङ्कयाहआस्तां चायं विषय इति । किंतन्त्रता तस्येति । तयोः सिद्धसाध्ययोर्मध्यात् तस्य शब्दस्य कितन्त्रता किपरत्वमिति । ननु अधुनैव साधितं सिद्धपरत्वमिति, तत्र प्रागुक्ताभिप्रायेणैवाह-महतीयं चर्चा न चिराय न कदाचिदस्माकमुपयुज्यत इत्यर्थ इति । भट्टश्रीशङ्करात्मजश्रीचक्रधरकृते न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गे चतुर्थमाह्निकम् ।। १ मनुस्मृ० २.२८ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥पञ्चमम् आह्निकम् ।। ॥ॐ नमः शिवाय ॥ उन्मत्तस्योन्मत्तसंवर्णनमिति । यथा उन्मत्त उन्मत्तान्तरं श्लाघत एवमल ब्यवृत्ति सामान्य तथाविधमेवालब्धवृत्ति द्रव्यं प्रदर्शयतीति । अनित्यानां त्विति । तन्तुपटादीनां युतेषु भिन्नेष्वाश्रयेषु समवायित्वं तन्तूनामंशुषु समवायात् पटस्य तन्तुष्विति' । विभूनां तु परस्परमाकाशादीनामिति । पृथागतिमत्त्व-युताश्रयसमवायित्वयोरभावात् । नानिष्पन्नस्य सम्बन्ध इत्यस्य पूर्वमधम्-'न चाप्ययुतसिद्धानां सम्बन्धित्वेन कल्पना' इति [श्लो०वा०प्रत्यक्षसू०१४६] । मुशिक्षितास्त्विति प्राभाकराः । ते हि सामान्याकारं रूपं पदार्थस्याहुः । न च रूपं रूपिशून्यमुपलभ्यते । पदार्थान्तराणां हि स्वरूपेण लब्धात्मलाभानामवगतानां च परस्परसम्बन्धचिन्ता क्रियमाणोपपद्यते, रूपस्य त्वाकृष्टरूपिप्रतिपत्तेरेव प्रतिपत्तिरिति अन्य एव सम्बन्धान्तरविलक्षणोऽयं सम्बन्ध इति काऽनयोः सम्बन्धं प्रति विमतिः “कथं वृत्तिः” इत्यादिकेति । तथा चाहुः-'सम्बन्धितया ह्यनवगम्यमानं सामान्य सामान्यम् इति नावगम्यते । सम्बन्ध्यन्तरसव्यपेक्षा हि सम्बन्ध्यन्तरबुद्धिः । विशेषतश्चात्र रूपतया सम्बन्धिताऽवगम्यते । न च रूपिशून्या रूपबुद्धिरस्ति। रूपतै[124]व तदा न स्यात्' इति [ ]। न चाप्यन्यतरेति । बुद्धिरध्यवसिततद्भावत्वेन भ्रान्तिः । शुक्ताविव रजतरू. पत्वेनाध्यवसितायाम् । अतद्रूपस्य ज्ञात्वापि केनचित् सादृश्यादिना तद्रूपाध्यारोपणमुपचारो 'गौर्वाहीकः' इति यथा । विचित्रविकल्पप्रवन्धेति । निर्विकल्पोत्तरकालं योऽयं गौर्गोंरित्यादिरबाह्यस्पर्शी विकल्पप्रबन्धः । अत एव न ते सम्यगिति । यथाऽस्तीत्येव वस्तुस्वलक्षणमवभाति पश्चाद् गौरिति विकल्पोदयस्तथा वस्तुग्रहणोत्तरकालमभेदस्य सत्तायाः प्रथा न प्रथमेति; एवं चाभेदवृत्ति सन्मात्रग्राहि प्रत्यक्षम् । सत्तायामगृहीतायां घटादिविकल्पाऽनुदयादिति सत्ताद्वैतवादिनो न सम्यग्वादिनः । १ यद्यपि तन्तवः पटव्यतिरिक्ताश्रये समवयन्ति तथाप्युभयोः परस्परपरिहारेण पृथगाश्रयाश्रयित्वं नास्ति, पटस्य तन्तुष्वेवाश्रयित्वात् । न्याकं० पृ०३७ । २ नित्यानां तु युतसिद्धिः पृथगवस्थितिः, पृथगूगमनयोग्यता; सा ययोर्नास्ति तावत्तसिद्धौ......न्यायकं० पृ० ३८ । ३ प्रलोभ्वा० आकृतिवाद् ७। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०२७७, वि०पृ०३०३] न्यायमारोग्रन्थिमनः १३१ औपाधिक इति । एकस्यानेकवृत्तित्वादिरुपाधिः, तत्कृतः। यथा गोत्वमेकमनेकवृत्ति च तथाऽश्वत्वाद्यपीति । एकमत्यवमर्शेति' । धीर्मेदिन्यप्येकावमर्शजननादभेदिन्युच्यत इति । एकस्यार्थस्वभावस्येति । एकस्येति निरंशस्य । कोऽन्यो न दृष्टः । प्रत्यक्षदृष्टात् स्वभावात् कोऽन्यः स्वभावो न दृष्टो यः प्रमाणैर्भवतः प्रमाणतयाऽभिमतैर्विकल्पैरनुमानैश्च परीक्ष्यते । प्रमाणैरिति विकल्पव्यक्त्यनु[125AJमानव्यक्त्यपेक्षया बहुवचनम् । .. तस्माद् भ्रमनिमित्तेति । तदुक्तम् - 'नो चेद् भ्रान्तिनिमित्तेन संयोज्येत गुणान्तरम् । शुक्तौ वा रजताकारो रूपसाधर्म्यदर्शनात्' इति॥ [प्रमाणवा० ३. ४३] नानाविशेषणनिकरेति नानाभूतानि विशेषणानि गोत्वशाबलेयत्वद्रव्यत्वादीनि। तद्विशेषणोपकारशक्तिव्यतिरिक्तात्मनोऽनुपलम्मादिति । अस्यायमभिप्रायः । धर्मिणः सकाशादमी भिन्ना अभिन्ना वा, भिन्नाश्चेदभ्युपगम्यन्ते सदा भिन्माना सम्बन्ध उपकारं विना न घटत इति धर्मिणस्तदुपकारिका शक्तिः कल्प्या । सा च कल्प्यमाना एका अनेका वा कल्प्येत । अनेकाश्चेत् तासामपि शक्तीनां ततो भेदः अङ्गीकर्तव्यः, न ह्येकस्यानेकात्मकत्वं सम्मवतीति । भिन्नानां च सम्बन्ध उपकाराभावे न सम्मवतीत्यपरापरोपकारशक्तिकल्पनायामनवस्थाप्रसङ्गः । अथैकाऽभिन्ना चेति पक्षस्तदपेक्षयेदमुक्तम्तद्विशेषणेति । यस्यापि नानोपाधेरिति । यस्यापि वैशेषिकादेः परस्परमाश्रयतश्च भिन्ना नानाभूता उपाधयो द्रव्यत्वादयो विशेषणानि यस्य तस्य नानोपाधेरर्थस्योपाधिभेदादेव भेदिनो निश्चयात्मिका धीर्विधिमुखेनैव ग्राहिका, प्रत्युपाधि च भिन्नेति म[125B]तं, तस्यापि पक्षे नानाभूतानामुपाधीनां द्रव्यत्वादीनामुपकारस्याङ्गं कारणं या शक्तिः तदभिन्नात्मन उपाधिमत एकेन निश्चयज्ञानेन ग्रहे निश्चये सर्वात्मना कृते सत्युपकार्यस्योपाधिकलापस्य मध्यात् को भेदः क उपाधिविशेषः अनिश्चितः स्यात्-सर्व एव निश्चित इत्यर्थः - इत्येवमिदं धर्मकीर्तिवार्तिकं व्याचक्षते । अस्मिंश्च १ प्र० वा० ३. १०४। २-३ प्रवा० ३. .४२ । १ अनुमानव्यतिरिकविकल्पानां प्रामाण्यं धर्मकीर्तिना न स्वीकृतमस्ति । अत्र चक्रधरस्य प्रमादः । ५ धर्मोपकारशकीनां मेदे तास्तस्य कि यदि । नोपकारस्ततस्तासां तदा स्यादनवस्थितिः ॥ प्र०वा० ३.५३ । द्र. स्वो०० पृ०१९ ६ प्र०वा० ३.५१ । द्र० स्वो०वृ० पृ० १९ । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का०पृ०२७७, वि० पृ०३०३ व्याख्याने तद्विशेषणोपकार्य वस्तुरवरूपग्रहण वेलायामेवेत्यत्र तानि विशेषणान्युपकार्याणि यस्य वस्तुनस्तद्विशेषणोपकार्यमिति विग्रहः कर्तव्यः । महती (a) [कृपा ]णवृष्टिमिति । तथाहि भट्ट आहअगोनिवृत्तिः सामान्यं वाच्यं यैः परिकल्पितम् । गोत्वं वस्त्वेव तैरुक्तमगोऽपोहगिरा स्फुटम् ॥ भावान्तरमभावो हि पुरस्तात् प्रतिपादितः । तत्राऽश्वादिनिवृत्यात्मा भावः क इति कथ्यताम् ॥ इत्यादि [ श्लो० वा० अपोहवा ० १ २] न च वर्गीकरणे निमित्तमिति । एकदेशकालादि । अपोहानां भेदाभावात् । अभावरूपत्वादिति भावः । अपोहभेदादिति । केषाञ्चिद् अगोऽपोहोऽर्थः केषाञ्चिद् अनश्वापोह इति । विप्रतिषिद्धधर्मेति । विप्रतिषिद्धधर्माणां विरुद्धधर्माणां एक [126A]त्र समवायप्राप्तौ सत्याम् | बहूनां सधर्मत्वं । बहूनां ये धर्मास्ते ग्राह्या इत्यर्थः । तस्माद्विलक्षणस्तुरा (२) गादेरपोहरूपाद विलक्षणः । न च वृत्तिरपि काचिदस्त्यभावरूपत्वात् । कल्पनयैव कल्पितेनैव रूपेण । उपसर्गनिपातानामिति । प्रादि-चादीनामपोह्यस्यादर्शनादस्वतन्त्रप्रयोगत्वात् तेषाम् । तथा चाह भट्टः "चादीनामपि नञ्योगो नैवास्तीत्यनपोहनम्" इति । [ श्लो०त्रा० अपोहवा ० १४३] आख्यातशब्दानां चेति । पचत्यादौ हि नञ्योगे पाकाभावप्रतीतिर्नपाठादेवेति । तथा चाह-आख्यातेषु च नान्यस्य निवृत्तिः संप्रतीयते । न पर्युदासरूपं हि निषेध्यं तत्र विद्यते ॥ न तिच्यमानेऽपि निषेधस्य निषेधनम् । पचतीत्यनिषिद्धं तु स्वरूपेणावतिष्ठते ॥ इति ॥ [ श्लो० वा० अपोहवा ० ज्ञानार्थाभ्यामन्य एवेति धर्मोत्तरः, तथा चाहासौ बुद्धया कल्पिकया विविक्तम परैर्यद्रूपमुल्लिख्यते बुद्धिन न बहिर्यदेव च वदन्निस्तत्त्वमारोपितम् । यस्तत्त्वं जगतो जगाद विजयी निःशेषदोषद्विषां वक्तारं तमिह प्रणम्य शिरसाऽपोहः स्म विस्तार्यते ॥ इति ॥ १३९-४०] [ अपोहप्रकरण ? ] Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०२८१, वि०पृ०३०७] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः ननु बाह्यार्थव्यतिरेकेणेति । विकल्पो हि ज्ञानविशेषस्तस्य योऽयं ग्राह्यानुरा[126B]गः स कथं बाह्य विना सम्भवति । स्वत एव तथात्वे निर्विकल्पेऽपि तथाभाव(वा)द् बाह्यार्थाभावप्रसङ्गात् । दृश्यच्छायैवानुरनिकेति । स्वलक्षणग्राहिदर्शनसमनन्तरभावेन विकल्पानां लाक्षानन्तरस्फटिकशकलसमनन्तरवर्तिन इव स्फटिकशकलान्तरस्य लाक्षाच्छायाधारित्वं दृश्यच्छायाधारिता'। तच्च स्पष्ट(ष्टु)मक्षमा। अस्पष्टत्वात् प्रतीतेः प्रमाणान्तरवैयर्थ्यप्रसङ्गाच्चेति । व्यावृत्तस्याग्रहणादिति । यदि हि व्यावृत्तिमपि न विषयीकुर्युः कथं प्रकारान्तरस्याभावात् तच्छायावलम्बिनः स्युः ? । तच्छायानवलम्बित्वे च सादृश्याभावात् तदध्यवसायेन बाह्ये प्रवृत्तिर्न स्यात् । अपि तु कश्चिदारोपित आकार इति । यदेव च तस्यारोपितस्याकारस्य ग्रहणम् स एव तेन रूपेण बाह्याध्यवसाय इत्यतो बाह्यव्यावृत्तिविषयत्वाभिमानः । न प्रतिपत्तितः । प्रतिपत्तिहिं विधिमुखेन । फलत उपचर्यते । प्रागुक्तयुक्त्या दर्शनपृष्ठभाविनां विकल्पानां विजातीयपरावृत्तावेवावस्थानात् । विकल्पान्तरसन्निधापितेति । अस्तीति नास्तीति च विकल्पाभ्यां सन्निधापितौ यौ भावाभावौ[127A] । अन्यथा नियतपरिच्छेदाभावादिति । वस्त्वन्तरव्यवच्छेदनमन्तरेणेति शेषः । गौ रेवायमिति या नियतरूपतया गृहीतिः सा अन्यव्यवच्छेदमन्तरेण नेति यद् उक्तं तन्न, प्रथमं तावद् विकल्पनियतस्य रूपस्य ग्रहणं ततोsन्यव्यावृत्तिनिश्चय इति चेन्नेत्याह-संदिग्धं च वस्तु न गृह्यत इति । यावद् १ मनसो युगपद् वृत्तः सविकल्पाविकल्पयोः। विमूढो लघुवृत्तेर्वा तयोरैक्यं व्यवस्यति ॥ प्र०बा० २.१३३॥ सर्व एव हि विकल्पोऽस्पष्टस्वलक्षणाभः । नीलादि पश्यतस्तु विकल्पयतो यः स्पष्टार्थप्रतिभासाभिमानः स तद्विकल्पसमसमयजन्मनो निर्विकल्पस्य प्रसादात् । हेतुबिष्टी०आ० पृ० २८७ । २ विकल्पविज्ञानं हि सङ्केतकालदृष्टत्वेन वस्तु गृलच्छब्दसंसर्गयोग्यं गृह्णीयात्। सङ्केतकालदृष्टावं च सङ्केतकालोत्पन्नज्ञानविषयत्वम् । यथा च पूर्वोत्पन्नं विनष्टं ज्ञानं संप्रत्यसत्, तद्वत् पूर्वविनष्टज्ञानविषयत्वमपि संप्रति नास्ति वस्तुनः । तदसद्रपं वस्तुनो गृह्णद् असंनिहितार्थग्राहित्वाद् अस्फुटाभम् विकल्पकम् । न्यायबिष्टी० प्र०६९ । ३ कमिदानीमन्यापोहः सामान्यम् ? स एव खल्वन्यापोहः । तमेव गृह्णती सा प्रकृतिविभ्रमात् विकल्पानां वस्तुग्राहिणीव च प्रतिभाति । सा हि तदन्यविवे. किष्वेव भावेषु भवन्ती विवेकविषयेति गम्यते । प्र०वा स्वो०वृ०पृ०२५ । भयमों - विजातीयव्यावृत्तरन्यस्य सामान्यस्याभावात् विजातीयव्यावृत्त्यवगम एव सामान्यावगमः । वास. नाद्वय निबद्धश्च विकल्पः स्वप्रतिभासमेव नियतं बहीरूपतया साधारणतया प्रतिपद्यमानो बाह्य एव विजातीयव्यावृत्त्या मया प्रतीयत इति मन्यत इति । प्रकृत्या भ्रान्तत्वात् सामान्यस्य । स विवेचितमेदोऽभेद एव विकल्पेन प्रतीयत इत्युक्तम् । हेतुवि०टी०आ० पृ० २७० । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का पृ०२८१, वि०पृ० ३०८ व्यवच्छेदो न गृहीतस्तावदसौ नियततया न गृहीतः, संदिग्धतयैव गृहीतः स्यात् । न च विकल्पैस्तथा गृह्यते, नियततयैव ततः प्रतीतिसमुत्पादात् । अतोऽस्मात् कारणत्रयादन्यव्यवच्छेदन एव विकल्पानां विषय इति निश्चीयते । व्याख्यातारः खल्विति' । ते हि विधिमुखेन प्रवृत्ति युक्त्याऽनुपपद्यमानां पश्यन्तोऽपोहविषयतया व्यवस्थापयन्ति । व्यवहर्तारः पुनदृश्य-विकल्प्ययो दाग्रहणेन प्रवर्तन्ते । असत्ख्यातिगर्भा । एवं ह्युच्यमाने असत एवाकारस्य विकल्पबुद्धौ प्रतिभास इत्युक्तं भवति । ननूभयथापीति । यत् पूर्वमुक्तमारोपिताकारविषयत्वम् , यच्च 'अपि च' इत्यादिनोक्तं तेनापि । अथवा बुद्धयाकारापोहपक्षे आरोपिताकारापोहपक्षे चेति । यथाध्यवसायमिति । अबहीरूपस्य बहीरू[127B]पतयाऽध्यवसायादबहीरूपस्याबहीरूपतयाऽनध्यवसायाच्च । स्वप्रतिभास इति । प्रतिभासत इति प्रतिभासो ग्राह्याकारस्तस्मिन् स्वस्मिन्नात्मीये विकल्पसम्बन्धिनि । विकल्पप्रतिबिम्बनस्येति । विकल्पप्रतिबिम्बनं विकल्पाविनाभूतो ग्राह्याकारः, विकल्पप्रदर्शितो वा धर्मोत्तरपक्षे । यावांश्च कश्चिदिति । यथा निमित्तान्तरं विनैव कासुचिद् व्यक्तिषु सामान्यं समवैति कासुचिन्नेति तव नियमः निमित्तान्तराभ्युपगमे अनवस्थापातादेवं ममाप्यपोहे भविष्यति तत्कारिष्वेव गौरिति प्रत्यय इति । अथैकं सामान्यं विना कथमेककार्यकारित्वमेवेत्याह-तुल्येऽपि भेद इति । तदुक्तम् ज्वरादिशमने काश्चित् सह प्रत्येकमेव वा । दृष्टा यथैवौषधयो भिन्नत्वेऽपि न चापराः॥ इति ।। [प्र०वा० ३.७३] विशेषणादिव्यवहारक्लूप्तिरिति । बुद्धिरेव नीलावच्छिन्नमुत्पलमबाह्य बाह्यमिव संदर्शयन्त्युत्पद्यते न पुनर्बाह्यानां पदार्थानां निरंशत्वादेवंरूपता समस्ति । मादिग्रहणात् सामानाधिकरण्यपरामर्शः, तत्राप्यनेकधर्मवन्तं धर्मिणं बाह्यमिव प्रदर्शयन्ती बुद्धिरेव तथाभूतोदेति । यदाह संसृज्यन्ते न भिद्यन्ते[128A] स्वतोऽर्थाः परमार्थतः । भिन्न रूपमभिन्नं च तेषु बुद्धरुपप्लवः ॥ इति ।। [प्र०वा० ३.८६] स्थूलकालकायेति । स्थूलकालत्वं स्मरणादिसापेक्षत्वात् । १ प्रख्वास्वोवृ० पृ०२५ । २ उक्तं चात्र किञ्चिदस्माभिः-प्रकृत्याऽपि केचिदेकज्ञानकार्याः स्वभावमेदादिति । अपि च , तुल्ये मेदे यथा जातिः प्रत्यासत्त्या प्रसर्पति ।। १६४ ॥ क्वचिन्नान्यत्र सैवास्तु......प्र०वा स्वो०० पृ० ५३-५४। - Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०२८७, वि०पृ० ३१४ ] न्यायमञ्जरीप्रन्थिभङ्गः १३५ विच्छिन्न सिक्थलक्षणेति । विच्छिन्नानां भिन्नानां सिक्थानां कणानां यल्लक्षणमितरस्माद् व्यावृत्तो धर्मः । समानवृत्तिसापेक्षमिति । कथं तहि तद्वेदनमित्याह - तत्र सन्निहितत्वादिति । उभयत्रापि साक्ष्यमिति । अनुवृत्तौ व्यावृत्तौ च, गौरयमित्युभयरूपाणां तेषां समुत्पादात् ‘अयम्' इत्यत्र विशेषस्यापि प्रतिभासात् । यौ ब्रूतस्त्वेकरूपत्वमिति । यौ वेदान्तवादि - शाक्यौ । वेदान्तवादिनो हि सामान्यात्मकमेव वस्त्विच्छन्ति, शाक्यास्तु विशेषात्मकमिति । यथा कल्माषवर्णस्येति । शबलवर्णस्य । यथेष्टं वर्णनिग्रहो निष्कृष्टस्य वर्णस्य ग्रहणम् । परिहृतमाचार्यै: “निष्ठासम्बन्धयोरेककालत्वात् " [व्योमवती पृ० ६९०] इत्यादि वदद्भिः | ये चेह वृत्ती इति । स्रजि सूत्रं हि व्यासज्य प्रतिपुष्पमेकदेशेन वर्तमानं दृष्टं भूतानां चालेख्यगतानां कण्ठे यो गुणः स्रग्दामादिः स प्रत्येकं सर्वात्मना वर्तमान उपलब्धः । का ते व्यसनसन्ततिः । यामभ्यधाद्भवान् - न याति न च तत्रासीदस्ति पश्चान्न चांशवत् । जहाति पू[128B ] नाधारमहो व्यसनसन्ततिः ॥ इति || [ प्र०वा०३.१५१] विशेषेभ्यो व्यतिरिक्ताऽव्यतिरिक्ता वेति । व्यतिरेके जातिरेवोक्ता, अन्यतिरेके तु जातिप्रत्ययस्य निर्विषयत्वम् । नित्याऽनित्या वेति । एकाऽनेका वेत्यर्थः । नित्यत्वे हि सर्वत्रैकत्वमनित्य [त्वे ] तु प्रतिव्यक्त्यन्यत्वादनेकत्वम् । एका चेज्जातिरेव । अथानेका, एकाकारप्रत्ययस्य निर्विषयत्वम् । [तदाश्रिता स्वतन्त्रा वा ] । तदाश्रितत्वपक्षे जातिरेव नामान्तरेणोक्ता | स्वातन्त्र्यपक्षे विषयनियमेन प्रत्ययानुत्पत्तिप्रसङ्गः, गव्यनाश्रिता चेत् सा शक्तिः कथं तत्रैव प्रत्ययविशेषं जनयेत् । एकीकरणेन वेति । एकाकारबुद्धिजनकत्वं हि सर्वेषां समानम् । १ लिपिकार प्रमादोऽयं यदत्र तेन भङ्गो न लिखितः । २ श्लो० वा० आकृतिवाद । ५७ ३ कोऽयमाचार्यो नाम ? व्योमशिवाचार्या एव जयन्ताभिमता इति मे मतम् । निष्ठासम्बन्धयोरेककालत्वात् इति बचनं व्योमवत्यामुपलब्धं तच्चास्य पुष्टिं विदधाति । अव्यपदेश्य पदविवेचनसन्दर्भेऽपि मया एतन्निर्दिष्टम् द्र० पृ०४४ टि०१ । ४ तुलना - या चाऽवयवशो वृत्तिः स्रसूत्रादिषु दृश्यते । भूतकण्ठगुणादेश्च प्रतिपिण्डं समाप्तितः । श्लो० वा० वनवाद ३५ ॥ ५ श्लो०वा० आकृतिवाद २४ | Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का०पू०२८७, वि० पृ०३१५ तदुल्लिख्यमाने हि विषयभेद इति । ततो भेदाप्रतिभासादेव विषयाभेदः, तस्माच्च विकल्पैक्यमित्यतः 'केन विषयाणामैक्यं गृह्यते' इति न वाच्यम् । मिश्री - करोत्येकतया व्यवस्थापयति । कथम् ? यथैव विषयैक्याद् विकल्पानामैक्यं तथा दर्शनानामपि । दृश्याध्यवसायेन विकल्पानां प्रवृत्तेरध्यवसायापेक्षया तद्विषयस्याप्यैक्यम् । तदेवाह-दर्शनोपारूढस्य भेदस्याग्रहणादिति । दर्शनविषयस्य सर्वस्यैव विकल्पैरेकतयाऽध्य[129A] वसीयमानत्वाद् दृश्य भेदनिबन्धनस्य दर्शनभेदस्याग्रहणादभेद एवावतिष्ठत इत्यर्थः । १३६ अवास्तवत्वे युक्त्यभावाद् । भवद्युक्तीनां चायुक्तत्वादिति भावः । कार्यैक्यादित्युत्तरमिति । कार्यैक्यादेककार्यकारित्वाद् । विकल्पैक्यमेव कार्यैक्यमिति । योऽयं विषयाभेदेन विकल्पोत्पादस्तदेव कार्यैक्यम् । विचित्र सहकार्यादीति । अयं भावः । न शक्तिः काचिदभिन्ना सम्भवति, अभावप्रसङ्गादिति । अतो भिन्ना साऽभ्युपेया । भिन्ना च स्वरूपसह का रिव्यतिरेकेण न काचिदस्ति, पूर्वमेव निराकृतत्वात् । तत्र स्वरूपशक्तेरभेदेऽपि सहकारिशक्तयो भिन्नाः, ता हावच्छेदका धर्माः । येन चावच्छेदकेन [ धर्मेण ] सह स्वरूपशक्तिः स्वविषयज्ञानोत्पादिका तस्यावच्छेदकधर्मान्तरभिन्नत्वात् [प्रस्तुतधर्म] विशिष्टधर्मिज्ञानोदयकाले कथं धर्मान्तरविशिष्टधर्मिज्ञानोदयप्रसङ्गः । इत्थं चान्यापोह इति निषेधात्मनि बाह्य इति चिरन्तनबौद्धदृष्ट्या | शुक्तिकारजतज्ञानस्य विषयाभावेऽप्युत्पद्यमानस्य तर्हि कथं सम्भव इत्याशक्याह - वासना विषयज्ञानेति । तथोदिता उपरञ्जकत्वे [129B] ....' . अतो व्यक्तौ क्रियाया अभावादाकृतिः शब्दार्थ इति भाष्य 1 यत इतीवार्थाश्रयणेन तस्या एवान्वयो न व्यक्तेर्यतः संस्थान विशिष्ट परिणामाभावात् साक्षान्मुख्याभिव्यक्तिर्मा भूज्जातेः । सं व्यञ्जको नाप्यारम्भक इति नोपचारतोऽपि व्यक्त्यर्थसम्भव इ... [आकृ] तेरपि भविष्यतीति । विशिष्टसन्निवेशवत्या आकृतेः । सन्निवेशेऽपि [131A] .... दभिन्नत्वेन तयोः परस्परमप्यभेदात् । व्यावृत्तिरपि बाह्या कश्चिदित्यादिको योऽयमुत्प्रेक्षितो धर्मोत्तरेण । यदि पृ तः तत्र तस्मिन्ननुत्पन्ने विकल्पे सति कथं प्रवृत्तिर्विषये . "प्रयोगचोदनाभावादर्थे१. १३० पत्रं नोपलभ्यते । २. १३१ पत्रस्य अधिक शो न लब्धः । २ .... .... *** Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०२९६, वि०पृ०३२४] न्यायमञ्जरीप्रन्थिभङ्गः १३७ कत्वमविभागात्" [मी०सू०१.३.९.३०] इत्यत्र .... शब्दः पूर्वपक्षं व्यावर्तयति । आकृतिः शब्दार्थः । कुतः ? श्येनचितं'.... [131B] विशेषावगतिदर्शनादेकत्वादिवल्लिङ्गमपि विभक्त्यर्थ एवेति मन्यन्ते । एतच्च तद्वच्च लिङ्गमित्य .... । ननु पुंसीवेति । आत्मनीव । अभिधानवैशसं स्यादिति । किश्चिदभिदधाति ततोऽर्थान्तरं लक्षयतीत्या.... विना नोपपद्यतेऽतः सामान्यप्रतीत्यन्यथानुपपत्त्या व्यक्तिप्रतीतिरिति क्रमं जनो मन्यते, [न तु क्रमि]कत्वेन दृष्टेत्याह-संवेदनं ज्ञानं ननयन्ती तामेव पश्याम इति । न च भारस्य मौरवमुभयाभिधाने यदुक्तम् – “[सच्छब्दः सत्ता प्रवृत्तिनिमित्तमा]श्रित्य तद्वति द्रव्ये प्रवृत्तः शुक्लशब्दश्च गुणं प्रवृत्तिनिमित्तमाश्रित्य तत्रैवेति मुख्यया वृत्या सामानाधिकरण्यं भवति]” [ ]। तद्वतो नास्वतन्त्रत्वादिति । “[तद्वतो नास्वतन्त्रत्वादुपचारादसम्भवात् । वृत्तिरूपस्य भिन्नत्वाद् राज्ञि भृत्योपचारवत्" ॥ [प्रमाणसमु०अपोह० ४] इति दिग्नागश्लोकः । अत्र न जातिशब्दो [132A] योगजात्योर्वा भेदार्थैरपृथक्श्रुतै रित्यतो वाचक इति सम्बध्यते । तेनायमर्थः—जातिशब्दः सदादिस्तद्वतो न वाचकः । [सच्छब्दो जातिस्वरूपोपसर्जन] द्रव्यमाह न साक्षात् ; अतस्तस्य सत्ता प्रतिपादयतो द्रव्यवाचकत्वम् , न साक्षात् ; ततोऽन्यप्रतिपत्तौ परतन्त्रीभूतत्वाद् द्रव्यप्रतिपत्तौ स्वातन्त्र्याभावाद् द्रव्यगतघटादिभेदानाक्षेपात् न 'सन् ] घटः' इति । शब्दो हि यान् विशेषान् आक्षेप्तुं न शक्नोति नासौ तद्विशेषवाचिभिः शब्दान्तरैः १ श्येनचितं चिन्वीत इति वचनमाकृतौ संभवति यद्याकृत्यर्थः श्येनशब्दः । व्यक्तिवचने तु न चयनेन श्येन व्यक्तिरुत्पादयितु शक्यत इत्यशक्यार्थवचनादनर्थकः । तस्मादाकृतिवचनः । ननु श्येन व्यक्तिभिश्चयनमनुष्ठास्यते । म साधकतमः श्येनशब्दार्थः, ईप्सिततमो ह्यसौ श्येनशब्देन निर्दिश्यते । अतश्चयनेन श्येनो निर्वर्तयितव्यः । स आकृतिवचनत्वेऽवकल्प्यते। नाऽऽकृतिः शब्दार्थः । कुतः ? किया न संभवेदाकृतौ शब्दार्थे, वोहीन् प्रोक्षति इति । तथा न व्यक्तिः शब्दार्थः, कियैव न संभवेद् व्यक्तः शब्दार्थत्वे, श्येनचितं चिन्वीत इति । यदण्युच्येत व्रीहीन् प्रोक्षति इति व्यक्तिलक्षणार्थाऽऽकृतिरिति, शक्यमन्यत्रापि श्येनचितं चिन्वीत इति वदितुमाकृतिलक्षणार्था व्यक्तिरिति । कि पुनरत्र ज्यायः । आकृतिः शब्दार्थ इति । यदि व्यक्तिः शब्दार्थो भवेत् व्यक्त्यन्तरे न प्रयुज्येत । शाबरभा०पृ०३०२-३०३। २ न जातिशब्दो मेदानामानन्त्याद् व्यभिचारतः । वाचको योगजात्योर्वा भेदार्थैर पृथक्श्रुतैः ॥५॥ प्रमाणसमु० अपोहः । १८ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का०पृ०२९६, वि०पृ० ३२४ सामानाधिकरण्य[मनु]भवति । ते च तद्भेदा ये सामान्यशब्देन आक्षिप्यन्ते नान्ये सम्भवन्तोऽपि, तद्यथा- शुक्लशब्देन मधुरादेः । द्रव्ये मधुरादीनामनाक्षेपोऽनाक्षेपाच्च न तद्भेदत्वमतद्भेदत्वाच्च न तद्वाचिभिः सामानाधिकरण्यम् ] । [सच्छब्देन] जातिः ख्याप्यते सत्तालक्षणा । तत्र प्रवृत्तस्तद्वत्युपचयतेऽसौ । न च यः शब्दो यत्रोपचर्यते [स तस्य वाचकः] । [123 B] [न हि यो यत्रोपचारतो वर्तते स तमर्थं परमार्थतो ब्रवीति यथा सिंहशब्दो माणवकम् । एवमुपचर्यमाणस्यास्वातन्त्र्यमप्रधानत्वमिति अस्वतन्त्रत्वादिति पदेन उपचारादित्यनेन पदेन च । एतद्धि "तद्वतो नास्वतन्त्रत्वात्" इति दि(चि)रन्तनबौद्धग्रन्थगतमिति । अथ सत्तोपरक्ततत्स्वरूपे द्रव्ये सारूप्याच्छब्दस्य वृत्तिर्भविष्यतीति चेदाह-"असंभवात्" इति तत्सारूप्यस्यासंभवा. दित्यर्थः । न हि सत्तया सारूप्यं द्रव्यस्य-नीलेन यथा स्फटिकस्य-नीरूपत्वात् तस्याः । अथ यथा आकृतौ प्रत्ययसंक्रान्त्या 'गवयोऽयम्' इत्यादौ तथा घटादौ सत्प्रत्ययसंक्रान्त्या 'सन् घटः' इति भविष्यति । तदपि न । कुतः ? असंभवात् । कथमसंभवः ! द्रव्यस्य सत्ताऽऽकृत्यसंभवात् द्रव्ये सत्प्रत्ययसंक्रान्त्यभावः । ननूपचारादन्यविषयः प्रत्ययोऽन्यत्र संक्रामन् दृश्यत इत्याह-"वृत्तिरूपस्य भिन्नत्वा[द्" भेदेनोपलभ्य-] [133 A]मानत्वादिति । उपचारे हि 'योऽहं स एवायम्,' 'राजा मृत्यः' इत्युपचारा[] लोकस्य साजा]दो प्रवृत्ति[:] प्रत्ययभेदेनोपलभ्यत इति तदिह भाक्त[:] वृत्तिरूपस्य भिन्नत्वाद् राज्ञि भृत्योपचारवदिति । सामान्यं वदन् न तदाश्रयमाह....इति अस्वतन्त्रत्वादिदूषणानि', तेषां परिहारः । १ तेन यथा जाती प्राधान्येन वाच्यायां पारतन्त्र्येण तद्वतोऽभिधानात् तद्गतमेदानाक्षेपात् तेन सह सामानाधिकरण्यादेरभावप्रसङ्ग उक्त:...तत्त्वसं०पं०पू०३४० । अपोहवति वस्तुनि वाच्यत्वेनाङ्गीक्रियमाणेऽनीलादिभेदानामुत्पलादीनां नीलादिशब्दाप्तिराक्षेपो दुर्लभः, किं कारणम् ? परतन्त्रत्वाद् नोलादिशब्दस्य, स हि . व्यावृत्त्युपसर्जनं तद्वन्तमर्थमाह, न साक्षात् । ततश्च साक्षादनभिधानात् तद्गतमेदाक्षेपो नास्ति, यथा मधुरशब्देन शुक्लादेः । यद्यपि वस्तुस्थित्या शुक्लादीनाम् अमधुरादिभेदत्वमस्ति तथापि शब्दस्य साक्षादभिहितार्थगत. स्येव मेदस्याक्षेपसामर्थ्य न तु पारतन्त्र्येणाभिहितार्थगतस्येति भावः । ततश्च नीलादिशब्देन तद्गतमेदानाक्षेपाद् उत्पलादीनामतभेदत्वं स्यात्, भतभेदत्वे च सामानाधिकरण्यं न प्राप्नोति । तेन जातिमन्मात्रपक्षे यो दोष उक्तो भवता 'तद्वतो न वाचकः शब्दोऽ. स्वतन्त्रत्वात्' इति स व्यावृत्तिमन्मात्रपक्षेऽपि तुल्य इति दर्शितं भवति । तथाहि-आतिमन्मात्र शब्दार्थे-सच्छब्दो जातिस्वरूपोपसर्जनं द्रव्यमाह न साक्षादिति तद्गतघटादिमेदानाक्षेपादत भेदत्वे सामानाधिकरण्याभावप्रसङ्ग उक्तः, स व्यावृत्तिमन्मात्रपक्षेऽपि समानः, तत्रापि हि सच्छब्दो व्यावृत्त्युपसर्जनं द्रव्यमाह न साक्षादिति, तद्गतघटादिमेदानाक्षेपादतदुभेदत्वे सामानाधिकरण्या. भावप्रसङ्ग उक्तः......तत्त्वसं०पं०पृ०३१० । जातिमत्पक्षे यो दोष भाचार्यदिग्नागेनोक्तः Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९ का०पृ०२९७, वि०पृ०३२५] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः न च युष्माभिरिष्यते 'समवायिनः श्वैत्यात्' [वैशेषिकसू०८.९] इत्यादि वदद्भिरिति । एवं न व्यक्तेरपि वाच्यता व्यक्तिरपि वा....पेक्षया शब्दस्य। शब्दः संकोचनीयः। बहुविषयः [अ]ल्पविषयः कार्यः । तद्वद्वाच्यत्वपक्षसाक्षीणीति । यस्य गुणस्य भावात् स गुणो यत्र तादृशस्य द्रव्यस्याभिधाने शब्दप्रयोग इत्युक्त तद्वति शब्दप्रयोग इत्युक्तं भवति । 'तद्वतो नास्वतन्त्रत्वात्' इत्यादिना...कर्णगोपृ०२००। यथा किल सामान्यमभिधाय तद्वति वर्तमानः शब्दोऽस्वतन्त्रः स्यात् ततश्च शब्दप्रवृत्तिनिमित्तभूतेन सामान्येन वशीकृतस्य शब्दस्य व्यक्तिगतपरस्परमेदानाक्षेपात् तैः समानाधिकरण्यं न स्यात् । उपचरिता च तद्वति शन्दप्रवृ. त्तिरित्यादिको दोष इति । कर्णगो०पू०१३५ तद्वत्पक्षो हि जातिमभिधाय शब्दस्तद्वति वर्तत इति तद्वचने स्वातन्त्र्यमस्य न स्यात् सामानाधिकरण्यं च न भवेत् 'गौः शुक्लः' इति जातेरशुक्लत्वात् । न चोपचाराश्रयणेन स्वातन्त्र्यं सामानाधिकरण्यं चास्खलद्गतियुक्तमिति...दोषः एषः । मनोरथन०३.६३ । जातिमदभिधानेऽपि तद्वतो नाऽस्वतन्त्रत्वात्' इत्यादिना सामानाधिकरण्याऽनुपपत्तिभिक्षुणा दर्शिता... । प्रलो०वान्यायरत्ना० पृ०५८९ (चौखम्बा)। न च व्यावृत्तिमद् वस्तु शब्दवाच्यम् - यतो व्यावृत्तिद्वयोपाधिकयोः शब्दयोरेकस्मिन्नपोहवति वस्तुनि वृत्तः सामानाधिकरण्यं भवेत्-परतन्त्रत्वाद् नीलादिशब्दस्येतरमेदानाक्षेपकत्वात्। स हि व्यावृत्त्युपसर्जन तद्वन्तमर्थमाह न साक्षात् ततश्च साक्षादनभिधानात् तद्गतमेदाक्षेपो न सम्भवति, यथामधुरशब्देन शुक्लादेः । यद्यपि शुक्लादीनां मधुरादिमेदत्वमस्ति तथापि शब्दस्य साक्षादभिहितार्थगतस्यैव भेदस्याक्षेपे सामर्थ्यम् न तु पारतन्त्र्येणाभिहितार्थगतस्य; ततश्च नीलादिशन्देन तद्गतमेदानाक्षेपात् उत्पलादीनामतभेदत्वं स्यात्; अतभेदत्वे च न सामानाधिकरण्यम् ; तेन जातिमन्मात्रपक्षे यो दोषः प्रतिपादितो भवता 'तद्वतो न वाचकः शब्दः भस्वतन्त्रत्वात्' इति स ब्यावृत्तिमन्मात्रपक्षेऽपि तुल्यः । तथाहि-जातिमन्मात्रे शब्दार्थे सच्छब्दो जातिस्वरूपोपसर्जन द्रव्यमाह न साक्षादिति तद्गतघटादिभेदानाक्षेपात् अतभेदत्वे सामानाधिकरण्याभावप्रसङ्ग उक्तः ....। सन्मति०टीका०पृ०१९७। जातिमन्मात्राभिधायकोऽपि सच्छब्दो न भवति । कस्मात् ? भस्वतन्त्रत्वात् । न हि सच्छब्दात् तदुमेदा .घटादयो गम्यन्त इति तद्वद्धटादिभेदानाक्षेपात् सामानाधिकरण्याभावः । अथवा भस्वतन्त्रत्वादिति सच्छब्दः प्राधान्येन सत्तायां वर्तते। तत्र वर्तमानस्तद्वति उपचर्यते । यच्च यत्र वर्तमानमन्यत्रोपचर्यते न तत् तस्याभिधायक मञ्चशब्दवदिति । उक्तं चात्र । किमुक्तम् ? तद्वतामानन्त्यात् न सच्छब्देनाभिधानमुक्तम् इति । तद्वति च न गुणसारूप्यात् प्रत्ययसक्रान्तिः-यथा स्वामिशब्दस्य भृत्ये, न गुणोपरागात्-यथा नीलः स्फटिक इति, क्रमवृत्त्यभावात् युगपदसम्भवाच्च । अयथार्थज्ञानोत्पत्तिप्रसङ्गाच्च । तस्मान्न जातिमन्मात्राभिधायकोऽपि । न्यायवार्तिक पृ०३२०-३२१ । तद्वतो नास्वतन्त्रत्वात् । तथा चसच्छब्दो जातिस्वरूपमात्रोपसर्जन द्रव्यमाह, न साक्षात् । दुगत घटादिमेदानामनाक्षिप्तत्वादतर्द्रदत्वे सामानाधिकरण्याभावः। न ह्यसत्यां व्याप्ती सामानाधिकरण्यम् । यथा शुक्लशब्देन स्वाभिधेयगुणमात्रविशिष्ट द्रव्यमभिधीयते, द्रव्ये सन्तोऽपि मधुरादयो नाक्षिप्यन्ते, तस्मादतमेदत्वम् । एवमत्रापि प्रसज्यते। अन्यच्च-उपचारात् । सच्छन्दोऽपि भूतार्थेन स्वरूपं जाति वाह। तत्र प्रवृत्तः द्वति उपचर्यते । न हि यो यत्रोपचर्यते स तमर्थ भूतार्थेनाह । सारूप्यस्यापि असम्भवात् प्रत्ययसक्रान्ति-गुणोपकाराभ्याम् । प्रमाणसमु टीका (भोटभाषातोऽनूदिता) Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टीकरप्रणीत: [ का०कृ०२९७, वि० पृ०३२५ यथा विध्यन्तपर्यन्त इति । वाक्येन हि नियोगः प्रति [ 133B].... दूख्यवस्थितं सकलं विध्यन्तमाक्षिपति स्वसिद्धये इति तावति वाक्यानुपरतव्यापारे शब्दे तत्प्रतीतेः । न हि व्यक्त्यनपेक्षाणामिति । गुणव्यक्तेर्निराश्रयाया अनुपलम्भात् सा द्रव्यान्विता, एवं द्रव्यस्य निर्गुणस्या [नुपलम्भाद् गुणान्वित] द्रव्यप्रतिपत्तिरिति । द्रव्यगुणादीनां साकाङ्क्षत्वात् परस्परान्वितार्थप्रतिपादनं तच्छब्दैस्तद् [द्]वारेण च जातीनामप्यन्वयः । व्यक्तीनां हि शब्द [त् न साक्षात् ] प्रतिपत्तिरपि तु जात्यवगत्या; जातीनां चानन्वये तदाक्षिप्तव्यक्त्यन्वयः कथं स्यादित्येवं शब्दाज्जातेर्जात्यन्तरान्विताया....। प्रयोगप्रतिपत्तिभ्यामिति । तद्वत्येव शब्द प्रयुञ्जते तमेव च प्रतिपद्यन्त इति । तत्सन्निवेशचिकीर्षयेति । गोव्यक्तेर्यः [ सन्निवेशः स प्राधान्येन ] विवक्षितः गोव्यक्तिस्तु सन्निवेशान्तरव्यवच्छेदकत्वेनेति [134A] तस्या अङ्गता । कल्पितानेकभेदवृसीति । बालाद्यवस्था... [अ] यवावयविनोरव्यतिरेककल्पनया वा बहुभेदवृत्तिता । गुणशब्दोपबन्धेति । गुणशब्दस्य य उप समीपे बन्धः प्र[योगः ] यथा शौक्यमश्व इति । भावप्रत्ययान्तस्य शुक्लशब्दस्याश्वशब्देन सामानाधिकरण्यं नास्ति तद्वद् गुणशब्दोपबन्धस्य, तेन [शुक्लो गुणोऽ]श्व इति न सामानाधिकरण्यमित्यर्थः । १.४० अन्ये पूर्वापरीभूतेति । पूर्वावस्थामतिक्रान्त उत्तरां फलोत्पत्तिकालभाविनीम [वस्थामा ]श्रितः क्रमरूपः साध्य उच्यते । क्षणसमुदायात्मका एकफलोत्पादकतया ह्यधिश्रयणाद् यवादयः क्षणा एकत्वे [न यव] शब्दवाच्या: । अतस्तस्य पाका - देरै क्यादपूर्वापरापूर्वापराः सम्प[न्ना ] इति [ 134B] ....' 'ग्रामं गच्छ ' इत्यादौ हि आज्ञया प्रेरितस्तत्सम्पत्त्यर्थमेव प्रवर्तमानो दृश्यतेऽतः सैव कार्यम् । ननु धात्वर्थं ग्रामगमनमसौ साधयितुं प्रवर्तते तन्नेत्याह- भावार्थमात्र कार्यत्वपक्षस्यातिदौर्बल्यात् । वक्ष्यमाणनीत्येति भावः । तत्सिद्धये हि पुरुषः प्रवर्तत इति । यदि हि असौ तत्सिद्धये न प्रवर्तेस कार्यमेव तन्न स्यात्, अतः 'आत्मनः कार्यतासिद्धये प्रवर्तयति' इत्यर्थात् प्रेरकत्वम्, कार्यत्वेन नियोगप्रतीतेः ; नियोगो ह्याज्ञारूपः कार्यत्वेनैव प्रतीयते शब्दात् । १ १३५ - १३६ पत्रद्वयं नोपलब्धम् । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का० पृ० ३०३, वि०पृ०३३१ | अपरे पुनरभिनवमिति । मीमांसायां तृतीयदर्शनकर्तृभट्टनारायणमतोप. न्यासः । यस्मिन् प्रतीते सति निरुद्योगस्य सत आत्मनः सोद्योगत्वं भवति स उद्योगः । न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः अपेक्षणेऽपीति' । बुद्धीनाम् । अथैकात्मवृत्तित्वं सम्बन्धो बुद्धीनामिति तन्ने- एकार्थवृत्तिप्रायस्त्विति । गौरवः पुरुषो हस्तीत्यादिबुद्धीनामध्ये कार्थ समवायादवाक्यार्थत्वेऽपि वाक्यार्थत्वप्रसक्तेरतिप्रसङ्गः । त्याह-1 अपेक्षानुगुणेति । यो यमपेक्षते तेन तस्य व्यतिषङ्गः सम्बन्धः । पदान्तरोपात्तानीति । एकवाक्यत्वे सति [ 137A] । यथा वायव्यं श्वेतमालभेतेति पदेन .... रुपात्तः । वाक्यान्तरोपात्तानि 'अग्निहोत्रं जुहोति' इत्येतदपेक्षया 'दध्ना जुहोति' इति वाक्यान्तरेण दघ्नो विधानं होमानुवादेन, अतोऽग्निहोत्रं जुहोतीति होमविधायकत्वाद् वाक्यान्तरमेतद् गुणविधायकम् । प्रकरपाठलभ्यानि वाक्यान्तरविहितानुवादं विनैव प्रयाजावघातादीनि 'समिधो यजति' इति 'वीही नवहन्ति' इति वेत्यादिभिर्वाक्यैर्विहितानि तत्प्रकरणपठितत्वात् तान्यप्याकाङ्क्षति । [आरादुपकारकाणीति ] तेषामपि मध्ये कानिचिदाशद् दूरे अदृष्टे - नोपकारेणोपकुर्वन्ति प्रयाजादीनि । कानिचित् सन्निपत्योपकारीणि दृष्टेन तुषकणविप्रमोकादिलक्षणेनोपकारेणोपकुर्वन्त्यवघातादीनि । कानिचिदन्तिकोपनिपतितान्यपीति । यथा दर्शपूर्णमासप्रकरणे परिपठितानि पूषानुमन्त्रणादीनि । पूषादिदेवतानां तत्रासन्निधानादनुपयोगादन्तिके प्रकरणे श्रुतान्यपि परित्यज्यन्ते । कानिचिदतिदूरवर्तीन्यपीति । यथा दर्शपूर्णमासप्रकरणश्रुतानि पूषानुमन्त्रणादी [137B] नि दूरस्थोऽपि पौष्णश्चरुरि [व] कामपदस्य च योग्यत्वा दर्शनादनिष्यमाणस्ये एतदेव किमर्थं पुनर .... I परिपक्वकषायः क........[138A]ति तदुक्तम् - कषाय मुक्ति... परिपक्वा विशुद्धा रागा....म इदं कुर्यादिदं काम....त एवा । ज्ञातास्वाद इति । संस्व .... साक्षात्कारमुत्पादयन्नास्व.... [134B]रिणी सुखं च साधयत्यतः करोमि तामिति । सुखात्मिका निरीहता करेस्विता जिहासिता अनागतार्थचिप्सया क्रियाश्रिता सुखात्मिका जिहा [सिता सुखस्य दुःखरूपिणी क्रियाश्रिता । निरीहतां सुखात्मिकां विहाय किमित्यादि * | प्रपञ्चविलयनेन वा चित्तविक्षोभस्य शनैर्निवर्तनाद् ज्ञातास्वादता[दिक्र]मेण वा विशिष्ट सिद्धिप्रादुर्भावात् तत्वं (त्वं ) यथाह - .... १४१ १ श्लो०वा० वाक्याधि०२० । २ श्लो०वा०वाक्याधि० १४ । ३ १३८ पत्रस्य महान् अंशो नोपलब्धः । ४ * एतच्चिहान्तर्गतं सर्वमस्पष्टम् । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का पृ०३०३. वि०पृ० ३३१ त्रैलोक्ये सर्वभूतानां दुष्प्रापं यदुदाहृतम् । तच्चास्य भवति प्राप्यं प्रथमं योगिनो बलम् ।। विशिष्टिसिद्धेः प्रादुर्भावाद्वा । तथा चाहनिष्प्रपञ्चं मनः कृत्वा प्रतिष्ठाप्य च सर्वतः । तामेव लभते तुष्टि या न शक्या ह्यतोऽन्यथा ॥ समाहितः परे तत्त्वे क्षीणकामो [भवत्यतः] । [सर्वतः सुखमन्वेति राहुश्चन्द्रमसं यथा ॥ इत्यादि ॥ तमेव परं पुरुषार्थमिति । अपहतपाप्मत्वादिविशिष्टात्मसाक्षात्कार एव परः पुरुषार्थः । यच्छतिः ‘परं ज्योतिरुपसम्पद्य स्वेन रूपेणावतिष्ठते' इति [छान्दोग्यउप० ८.१२.३] द्रव्यगुणसंस्कारेषु वारिरिति'। बादरिराचार्यो द्रव्यगुणसंस्कारेषु शेषभावं पारार्थ्य मेने न यागफल[पुरुषेषु ।] [बी][139A]ह्यादि द्रव्यं क्रियानिवर्तनद्वारेण तच्छेषम्, द्रव्यावच्छेदकत्वेन च शौक्ल्यादिगुणः क्रियाशेषः अवघातश्च संस्कारः क्रियायोग्यतां.... [न हि क्रियाया अन्यशेषत्वम् ] न क्रिययाऽन्यत् साध्यते । न ह्येवं वचोऽस्ति यागात् स्वर्गः अपि तु स्वर्गकामस्य याग इति । तस्मिंस्तु कृते स्वयमेवेति बादर्यधिकरणे भाष्यम् । स्वयमेव भवति .... स्ववानिति न्यायान्न पुनरेतद्वाक्यश्रुतस्वर्गकामपदसामर्थ्यादिति । स्वर्गकामपदस्यान्वयो दुरुपपाद इति वक्ष्यमाणाभिप्रायेणाह । द्रव्याणां कर्मसंयोगे गुणत्वेनाभिसम्बन्धः इत्यादि पूर्वपक्षसूत्रम् । द्रव्याणां सिद्धिरूपाणां कर्मणा साध्येन सम्बन्धो यदा तदा गुणत्वेनाङ्गत्वेनैव सम्बन्धो दृष्टो द्रव्यं च स्वर्ग इति । कामनाऽपि द्रव्याहरणाङ्गत्वादिति । .... आहाँ नेष्यते तत् कथमाहत पार्येतेति । तेन स्वर्गे चन्दनादौ यागार्थमाहर्तु कामो यस्य स स्वर्गकाम इति । अथादृष्टेनैव द्वारेणेति । यद्यपि [प्रीतिवचनः] स्वर्गशब्दस्तथापि तदिच्छा यागस्यादृष्टमुपकारं करिष्यति । रथन्तरप्रस्तावे समुद्रमनोध्यानवत् । इत्थं च क्रियासाधनेति । क्रियायाः साधनं कर्तारं ....श[139B]क्नोति तदेत्यर्थः । १ मी०सू० ३.१.३। २ शाबरभा० ३.१.३। ३ मी० सू० ६.१.१ । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०३०६, वि०पृ०३३४] न्यायमञ्जरीप्रन्थिभङ्गः १४३ स्वामी सन्कर्तेति । यतस्त्वमस्य कर्मणः स्वामी ततस्त्वयेदं कार्यमित्यधिकारावस्थोत्तरकालं कर्जवस्थाया उल्लासात् । अनुपादेयविशेषणेति । यो हि यागसाधनत्वेनोपादातुं शक्यते तद्विशिष्टः कर्ता भवति । यथा 'अभिक्रामन् जुहोति' 'लोहितोष्णीषाः प्रचरन्ति' इति । यत्तु यागसाधनत्वेनोपादातुमाहतुं न शक्यते तद्विशिष्टोऽधिकारी । यथा यावज्जीवं जुहुया. दिति । न हि जीवन पुरुषप्रयत्नेन यागसाधनत्वेनोपादातुं शक्यते, स्वतः सिद्धं तु तन्निमित्तत्वेनाधिकारिणं विशिनष्टि । कारकत्वानुगुणेति । विशेषणसम्बन्धे हि विशिष्टः कर्ता भवति । विशेषणेन सम्बन्ध उपादेयत्वे सति विशेषणस्य भवति; यतो लोहितमुष्णीषमुपाददतेऽतो लोहितोष्णीषा भवन्ति । उपादेयत्वाभावात् तु विशेषणविशेष्यसम्ब' न्धाभावाद् विशिष्टस्य कर्तुरप्यभाव इत्यनुपादेयस्य विशेषणस्य कारक[140A]त्वाननुगुण्यम् । अधिकृतस्य कर्तृत्वमिति । यतः स्वर्गकामोऽत्राधिकारी अतः स्वर्गकामेनेदं कर्तव्यमित्यधिकारोत्तरकालमार्थ कर्तृत्वम् । यदि ह्यसौ न करोति तत्तद्विषयोऽस्याधिकारो निष्फल एव स्यात् । न कर्तुरधिकारः। स्वर्गकामकर्तृको यो यागस्तत्र स्वर्गकाम एवाधिकृत इति योग्यतालक्षणोऽधिकार आर्थः । तदाह-असौ स्वर्गकामकर्तृको भवति यदि तत्र स्वर्गकामोऽधिक्रियते । 'तवैतत् कर्म' इति आर्थमधिकृतत्वमिति । एतच्च न युक्तम् । यदि स्वर्गकामस्य कर्तृत्वेनान्वयः स्यात् स्यादयं पक्षः, स तु न सम्भवतीति तात्पर्यम् । कर्माण्यपीति' । जैमिनिराचार्यः कर्माण्यपि शेषभूतानि मन्यते । क तेषां शेषत्वं तदाह-फलार्थत्वादिति । प्रत्ययार्थः कश्चिदिति । यागविषयः प्रयोजकव्यापारो भावनाख्यः । साध्यसाधनसम्बन्धापरित्यागेनेति । यजेत यागेन स्वर्ग भावयेत् । यतो यागात् स्वर्गों भवति अतो यागविशिष्टां भावनां कुर्यादिति । फलं च पुरुषार्थत्वात् पुरुषश्च कर्मार्थत्वादिति जैमिनिसूत्रे पूर्वसूत्रद्वयानन्तरभाविनी स्पष्टे । औदुम्बरीति । उदुम्बराख्यवृक्षविशेषप्रकृतिका यष्टिर्यजमानमाना यां स्पृष्ट्वोद्गाता सामानि गायति । १ मी० सू० ३.१.३.४ । २ मी०सू० ३.१.३.५। ३ मी०सू० ३ .१.३.६ । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का०पृ०३०६, वि०पृ०१२३४ ननु कर्तुरवाच्यत्वे तद्गतायाः सङ्ख्यायाः कथं वाच्यत्वं सिद्धयति । नायं दोषः । क्रियाक्षेपलभ्यत्वात् कर्तृमात्रस्य, तद्गतानां त्वेकत्वद्वित्वादीनां क्रियाक्षेपलभ्यस्वात् तेषामेव वाच्यत्वं युक्तमनेनैवाभिप्रायेणाह- अलं चानया शास्त्रान्तरगर्भयेति । साक्षात् तत्सिद्धवेदनात् । साक्षात् तदर्थव्यापारं विना । न सा केनचिदिति । भावार्थवदन्योत्पाद्यत्वं कारकवच्चान्योत्पादकत्वं तस्या नास्तीत्यर्थः । किन्तु यद्वशात् फलस्य जन्यताव्यपदेशो भावार्थस्य च जनकता साऽसौ जननी। , नविभज्य प्रदर्शयितुं शक्यते इति । प्रकृतिप्रत्ययाभ्यामुभाभ्यामपि प्रयोजकव्यापारस्यैकस्यैवाभिधानात् । स एव समुदायेनेति' । य एव पचतीत्यादौ प्रत्ययभागप्रतिपाद्यो व्यापारः स एवोभाभ्यां प्रकृतिप्रत्ययाभ्यां करोतीत्यनेन प्रतिपाद्यते [141A] । भवन्ति केचिद् भावार्था न कर्मशब्दा इति । ननु भावशब्देन भावनाऽभिप्रेता । भवतेय॑न्ताद् भाव्यतेऽनेनेति व्युत्पत्त्या परविकृतेन च भावो भवनं भूतिरित्यादिभिः स प्रत्याययितुं शक्यतेऽत एवमुदाहार्य भावयेत् कुर्यादिति । अत्राहुः-भावशब्दस्तावद् णिजन्ताद्भवतेः परविकृते भावनावाच्ये वा भवनभूतिशब्दौ तु प्रयोज्य व्यापारांशेन कथञ्चिद् भावार्थो स्याताम् । श्येनैकत्रिकादयः । श्येनः प्रसिद्धः, एकत्रिकेण यतेत्येकत्रिकाल्यो यागविशेषः एकस्यां तिसृषु चतसृषु यत्र स्तोत्राणि क्रियन्ते स एकत्रिक इति । अकर्मशब्दत्वं चैषां भावो भवनं भूतिरित्यादीनां कर्मविशेषवाचकत्वा. भावात् , निष्पायेन रूपेण भावनाया अनभिधानाद्वा। श्येनादयस्तु निष्कृष्टयागमात्रमाचक्षते न भावनामपि, यजिसामानाधिकरण्यं तेषामिति । प्राभाकगस्तु व्याचक्षते "कर्मशब्दा इत्येतद्विना भावार्था इत्युक्ते भावो भवनमित्यादिभ्योऽपि अन्योत्पादनमात्रप्रतिपादकेभ्यः क्रियाप्रतीतिः प्रसज्येत । भावार्था इत्येतत्परिहारेण च कर्मशब्दा इत्युक्त अन्योत्पादकत्वरहितसाध्यमात्रप्रतिपादकेभ्यो[141B]ऽपि श्येनादिशब्देभ्यः क्रियाप्रतीतिप्रसङ्गः । उभयोच्चारणे तु अन्योत्पादकत्वं पूर्वापरीभावस्य साध्यरूपत्वं येभ्योऽवगम्य[ते] तेभ्यो यजेतेत्यादिभ्यः क्रिया प्रतीयत इति सिद्धं भवति । एकैकपदोच्चारणे हि विवक्षितार्थाऽसिद्धिर्भावो भवनं भूतिरित्यादिना भाष्यकृता दर्शिता च स्वयं च व्याख्यातम्-'यज्याद्यर्थश्चातोऽवगम्यते भावयेदिति च"" [शाबरभा० २.१.१] इति। १ मुद्रितन्यायमञ्जर्या' तु नोपलभ्यते । २ शाबरभा०२.१.१ । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पू०३१३, वि०पृ०३४२] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः तस्य च व्यतिरिक्तत्वं यागादिक्रियाव्यतिरिक्तत्वम् । अपरित्यक्तपूर्वापरिभूतस्व भावं साध्यरूपम् । भवत्यादौ तहीति । भवत्यादौ हि प्रत्ययेन यो भवति प्रयोज्यस्तव्यापारोऽभिधीयते न तु यो भावयति तद्वयापार इति । विधिवृत्तपर्यालोचनयेति । अपुरुषार्थसाधने प्रवर्तयतोऽपि विधिः प्रवर्तकत्वविधिः । पुरुषार्थः तेन साध्यत्वेनापेक्ष्यमाणः सन्निहित एवापेक्ष्यते । ततस्तदवगतेरिति । ततस्तृतीयान्तात् । प्रत्ययोपसर्जनीभूत इति। "प्रकृति-प्रत्ययौ प्रत्यया[142A]र्थ सह ब्रूते' [ ] इति' प्रत्ययार्थस्य प्राधान्यात् प्रकृत्यर्थस्योपसर्जनत्वम् । 'एतस्यैव रेवतीषु वारवन्तीयम्' [ताण्ड्यबा० १७.७.१] इत्यत्र वाक्ये रेवतीषु वारवन्तीयसामकरणाख्येतिकर्तव्यतोपात्ता प्रधानं यजिश्च । अग्न्या(ग्न्यन्वा)धानादिकयेति । 'ममाग्ने वो विहवेष्वस्तु' [ऋग्वेद ८. १२८] इत्यादिना मन्त्रेण क्रियमाणमग्नौ समिदाधानम[ग्न्यन्वा]धानं दर्शपूर्णमासयोः प्रारम्भे । अतिप्रसङ्गदोषेणेति । अज्ञातज्ञापने हि विधौ ‘ग्रामं भवान् लप्स्यते' इत्यादेः सामुद्रविद्याव्याख्यानस्यापि विधिवप्रसङ्गात् । शुक्लो होतेतिवत् । यथत्विजां मध्ये शुक्लगुणेन होता लक्ष्यते एवं स्वर्गकामनया पुरुषो लक्ष्यत इति । .. यश्चैषः पर्यनुयोग इति । 'वाक्यान्तरे समर्थेऽपि किमर्थ विधिराश्रितः' [श्लो०वा० औत्पत्तिकसू० १२] इति भाट्ट पर्यनुयोगं सूचयति । शब्दस्य च ज्ञापकत्वादिति । चक्षुरादीनि ह्यगृहीतसङ्गतीनि प्रतीति जनयन्ति । अतः तानि कारकाणि बीजादिवन्न, धूमादिवज्ञापकानि, सङ्गतिग्रहानपे[142B] क्षणादिति । १ प्रत्ययार्थ सह ब्रतः प्रकृतिप्रत्ययौ सदा । तन्त्रवा०पू०३८०। २ यद् ज्ञापकं तत् ज्ञाप्ये प्रतिपन्न प्रतिबन्धमेव प्रतीतिमुत्पादयति यथा धमादि, ज्ञापकश्च शब्द इति । चक्षुरादीमा तु कारकत्वात् युक्त स्वार्थसम्बन्धग्रहणानपेक्षाणां तदुत्पादकत्वम् । स्वयं हि प्रतीयमानम् अप्रतीतार्थप्रतीतिहेतुझपकमुच्यते । तद्रूपता च शब्दादेरेवास्ति न चक्षुरादेः, अतः स एव प्रतिपनप्रतिबन्धं स्वार्थ गमयति । न्यायकुमु०पृ०५४१। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का पृ००३१४, वि०पृ० ३४३ अमिधाभावनेति' । यं कुर्वन्नभिधेयप्रतिपत्ति जनयेत् शब्दः सोऽभिधात्मको पापारोऽभिधाभावना। अभिधाभावनामित्यस्योत्तरमर्धम्- 'अर्थात्मभावना त्वन्या सर्वाख्यातेषु गम्यते' इति । नियोज्यविषयसमर्पकपदव्यापारो निविशत इति । नियोज्यविषयप्रतिपादकत्वं तद्वयापारः । इतिकर्तव्यतांश इति । यावद् ह्यर्थवादाः स्वार्थप्रतिपादनलक्षणे व्यापारे [न] प्रवर्तन्ते तावच्छूतमात्रेभ्यस्तेभ्यः प्रवृत्त्यभाव इति । न च विधेर्वाक्यार्थानन्वय इति । वाक्यार्थेन भावनया, साध्य साधनमितिकर्तव्यता च सम्बध्यते । न चैवंरूपता विधेरस्तीति । _ 'स्वव्यापारे हि पुरुषः' इत्यस्योत्तरमर्धम्– 'प्रेष्यस्तस्य च किंकर्मभावना. (नाs)स(श)त्रयात्मिका ।' किंकर्मकः स्वव्यापार इति । स्वच्छैव भावना विधिना स्पृश्यते, कुर्यादिति । अर्थसामर्थ्य]गम्य मिति । यथा 'सुवेणावद्यति' इत्यवदानं सुवेण क्रियमाणं द्रव्याणामेव क्रियते न मांसादीनाम् , तेन तेषां स्खण्डनस्य कर्तुमशक्यत्वात् । पदार्थाहितसंस्कारेति । पदार्थाहितानां संस्काराणां यश्चित्रो नानारूपः सङ्घातस्तज्जया । यस्तु व्यापार प्रेष[143A]रूप इति प्रेरणारूपः। 'वा'शब्दः समुच्चये । अर्थासंस्पर्शीति । अनुत्पन्नत्वेनासत्समत्वाद् व्यापारस्य तद्विषयत्वे शब्दस्यार्थासंस्पर्शित्वम् । सत्यपि गोवृन्दारकत्व इति । प्रशस्तो गौर्गोवृन्दारकः यथा गोवृन्दारकोऽपि वृषभो नासा भारमुद्वोढुमलम् । एवं वाक्षर्यायत्वाद् गोशब्दस्य लिङपि गौः, प्रमाणान्तरानवगम्यमानार्थप्रतिपादकत्वात् प्रशस्तस्वभावतः सोऽपि गोवृन्दारकः । विषयसमर्पणेनेति । प्रेरणा हि प्रेयं विषयं वाऽपेक्षत इत्यपेक्षितसमर्पणाद् गुणत्वम् । प्रेष्यते तु स इ यनेन प्रेषस्यानपह्नवनीयतामाह । __ निमन्त्रणादिष्विति । यस्याकरणात् प्रत्यवायस्तत्र नियोजनं निमन्त्रणम् । यस्य त्वकरणेऽपि प्रत्यवायो नास्ति तत्र नियोजनमामन्त्रणमिति । आदिग्रहणात् संस्कारपूर्वकं यत्र नियोजनं तत्राध्येषणम् । १ तन्त्रवा०२.१.१ । २ तन्त्रवा० २.१.१ । ३ मुद्रिते तु तन्त्रवार्तिके-'प्रेषेस्तस्य स्वरूपं च भावनांऽशत्रयात्मिका' इति पाठो वर्तते । १ प्रलोकवा वाक्याधि० ३३१ । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का पृ०३२१ वि०पृ०३५०] न्यायमञ्जरीग्रन्थिमनः १४७ सम-हीन-ज्याय इति । यत्र समः प्रेर्यते तत्राभ्यनुज्ञाः यत्र हीनः तत्र प्रेषणम्, यत्र ज्यायांस्तत्राध्येषणमिति । विधिशब्दनिर्दिष्टं प्रेषणं हीनविषयम्, निमन्त्रणादयस्तु यथासम्भवं सम-ज्यायोविषयाः न्य[143 ]कारपूर्वं तेष्वप्रवर्तनादिति । प्रवृत्तक्रियाविषय इति । प्रवृत्तक्रियः सम्भावितक्रियो वा यत्र प्रयुज्यते तत्र णिचः प्रयोगः, यत्र तु क्रियासम्बन्धोऽभूतपूर्व एव ज्ञाप्यते अकारकस्यापि कर्तृतासम्बन्धोऽवबोध्यते तत्र लोट् । यदुक्तम् द्रव्यमात्रस्य तु प्रेषे पृच्छयादेर्लोड विधीयते । सक्रियस्य प्रयोगस्तु यदा स विषयो णिचः॥ इति ॥[वाक्यप० ३.७.१२६] 'पृच्छतु मा भवान्' इत्यादौ यो लोट् स द्रव्यमात्रस्याकर्तुरपि प्रैषे कर्तृत्वज्ञापने सक्रियस्य प्रवृत्तक्रियस्य सम्भावितक्रियस्य चेत्यर्थः । प्रवर्तितस्य स्वकार्यदर्शन मिति । विधिरपुरुषार्थे न प्रवर्तयति, प्रवर्तनाव्याघातात् , प्रवर्तितश्चेद विधिनाऽवश्यं साध्येन फलेन भाव्यमिति । न हि यजमान एव, यागक्रियायां प्रवर्तित एव । कस्मिंश्चिदात्माकूते 'उपादेयमेतन्मया' इत्येवंरूपे । ननु कुर्यादित्यत्र यः प्रतिभाति स नियोगः इत्युक्तं तत्कोऽसौ प्रतिभाति ? इति वक्तव्यमित्याशङ्क्याह-कुर्यादित्यस्यार्थ इति । अनेनैतत् प्रतिपादयति लोके वेदे वा नियोगः शब्दोल्लेखरहितायां प्रतीतौ न प्रथत इति । य[144A]था तु यजेतेत्यादिभ्य इति । तेभ्यो युद्भवदवस्थः प्रेरणारूपः कार्यरूपो वा नियोगः प्रतीयते नियोगशब्दात् तु स्वरूपमात्रेण । व्यवहारमात्रमेतदिति । गुरोनियोगस्त्वया कार्य इत्यादाववश्यव्यवहतव्यस्य नियोगस्य केनचिच्छब्देन नियोगादिना सूचनं व्यवहारमात्रम् । स एव च धर्मः श्रेयस्करस्य धर्मत्वात् , तदनुष्ठानाच्च श्रेयोऽवाप्तेः । सुखैधितः। सुखेन वृद्धि प्राप्तोऽकृतगुरूपासनादिक्लेशः । प्रेरणाभिमायेणेति' । यदा राजाज्ञया प्रेरितः करोमीति विवक्षा तदा तृतीयाप्रयोगः करणं तु तस्या एव, तात्पर्यतः पुरुषस्य तत्र प्रवृत्तेः । अनुबन्धद्वयावच्छिन्न इति । अनुबध्यतेऽन्यतोऽवच्छिद्य स्वात्मन्येव व्यवस्थितः प्रतीति प्राप्यते येनासौ विषयानुबन्धः; येन वाऽनुष्ठात्रन्तरावच्छेदेन नियतानुष्ठातृकत्वेनावस्थाप्यतेऽसौ विध्यनुबन्धोऽधिकारानुबन्धः । १ मुद्रितन्यायमजा तु 'प्रेषण'' इति पाठः । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪૮ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः का०पृ०३२१, वि०पृ०३५० तस्य लिप्सार्थलक्षणेति सूत्रप्रतीकः । 'यस्मिन् प्रीतिः पुरुषस्य तस्य लिप्सार्थलक्षणाऽविभक्तत्वात्' इति सूत्रम् [मौ०सू० ४.१.२] यस्मिन् कृते पुरुषस्य प्रीतिरुत्पद्यते तस्य ल[144B]न्धुमिच्छा तत्र प्रवृत्तिपर्यन्ता प्रीतिलक्षणा फलनिबन्धनैव न वैधी । नन्वस्तु तत्र तत्र विषये प्रीतिनिबन्धना लिप्सा, प्रवृत्तिः कथम् ? इत्याह-'अविभक्कत्वात्' इति । प्रीत्या पुरुषार्थेन तत्साधनत्वात्, विषयस्याविभक्तत्वाद् अविभागेन व्यवस्थितत्वात् पुरुषार्थतेव, अतः पुरुषार्थनिबन्धनैव तत्रापि प्रवृ. त्तिरित्यर्थः । शत्रु वैदिकेनोपायेनेति । यथा 'शयाना भुञ्जते यवनाः' इत्यत्र सिद्धं शयनं भुजिक्रियालक्षणत्वेन प्रतिपाद्यते एवं प्रागुत्पन्नाऽभिचारेच्छाऽधिकारं प्रति लक्षणत्वेनोपात्ता। ___अतः श्येनादेरधर्मत्वादिति । अर्थपदे ह्यक्रियमाणे चोदनालक्षणत्वेन श्येनादेरपि धर्मत्वं प्राप्नोत्यनर्थस्य प्रत्यवायहेतोः, तन्निवृत्त्यर्थमर्थग्रहणम्' । क्रत्वर्थों हि शास्त्रादवगम्यते नान्यथेति [शाबरभा० ४.१.२] भाष्यम् । क्रतवेऽर्थः क्रत्वर्थः क्रतूपकारक इतिकर्तव्यताभागः । स शास्त्रादवगम्यते कर्तव्यत्वेन । ननु यथा फलसाधनस्य करणत्वात् तत्र लिप्सानिबन्धना प्रवृत्तिः, एवमितिकर्तव्यतांश. स्यापि करणोपकारद्वारेण फलसाध[145A]नत्वमस्तीति तत्र लिप्सातः प्रवृत्तिः किमिति न भवेत् ? इत्याशङ्क्याह-इतिकर्तव्यतांशस्त्विति । “फलसिद्धिमवान्तरीकुर्वन्नियोगं साधयत्यतस्तस्य फलेन सम्बन्धः, नेतिकर्तव्यतायाः" इत्येके । अन्ये तु “प्रयोगकाले करणस्येतिकर्तव्यतापेक्षणम्, न प्रतिपत्तिकाले। अधिकारावस्थायां हि करणस्यैव फलसिद्धावुपायतावगमः, प्रयुज्यमानस्त(स्तु) शुद्धोऽनुपकृतः फलसिद्धये न .प्रभवतीति प्रयोगकाले प्रवृत्तस्येतिकर्तव्यतापेक्षणं न प्रथमतः । फलार्थितया न तत्र करण इव प्रवृत्तिः" इत्याहुः । सामान्यशास्त्र चेति । यथा 'यज्जुह्वति तदाहवनीयः' इति सामान्यशास्त्रं सर्वहोमाधिकरणत्वेनाहवनीयस्य प्रापकं 'पदे जुहोति' इत्यादि विशेषविधिपरिहारेणावतिष्ठते । तथा 'न हिंस्यात्' हिंसा न कार्येति सामान्यम् , 'अग्नीषोमीयपशुहिंसा कार्या' इत्येतद्वयतिरेकेण प्रवर्तते । __ पशुपुरोडाशेति । अ[145B]ग्नीषोमीये पशो पशुपुरोडाश आम्नातः। 'अग्नीषोमीयस्य वपया प्रचर्याग्नीषोमीयमेकादशकपालं पशुपुरोडाशं निर्वपति' इति । तस्य प्रकृतिवद्भावात् प्राप्तानां प्रयाजादीनामङ्गानां किं पृथक् प्रयोजकत्वमुत पशुप्रयुक्तैरेव १. कोऽर्थः ? यो निःश्रेयसाय ज्योतिष्टोमादिः। कोऽनर्थः ? यः प्रत्यवायाय श्येनो वज्रम् । इषुरित्येवमादिः । तत्रानों धर्म उको मा भूदित्यर्थग्रहणम् । शाबरभा० ०१.१.२ । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ० ३२४, वि० पृ० ३५३ ] प्रयाजादिभिस्तस्याप्युपकार इति ? तत्र पृथक् प्रयोक्तृत्वमाशङ्क्य पशुतन्त्रमध्ये पुरोडाशस्य विधानात् पशौ कृनानि तस्याप्युपकुर्वन्त्यतस्तत्र कृतैरेव पशुपुरोडाशया तस्योपकारसिद्धेर्न पृथक् प्रयोजकत्वकल्पनया; यथा प्रासादकृतः प्रदीपो राजमार्गेऽप्युपकरोतीति न तत्र पृथक् प्रयुज्यते । भवन्मते विधेः प्रयोक्तृत्वानपायादिति । भवच्छब्देन उम्बे निर्दिशति । तस्य सर्वावस्थस्य विधेः प्रयोक्तृत्वानपाय इति हि पक्षः । न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः सत्यम्, अधिकारावस्थायां प्रयोक्तृत्वमनपेतं विषयविषयं तु तत् न फलविषयमित्यतः फलस्याविधिस्पृष्टत्वात् तत्र निषेधशास्त्रस्य प्रवृत्तेरनर्थत्वमिति 'ननु न विधिः फले नियोज्यम्' इत्यादिनाऽऽह । यद्युपाये न प्रवर्तयेत् तर्ह्यधिकारविधेः को [ 146A] व्यापार इत्याशङ्कयाह- उपायानभिज्ञस्येति । यावदप्राप्तमिति । यथा नात्मसम्पतये विधिर्द्रव्यार्जन प्रयुङ्क्ते, जीवनप्रयुक्तत्वात् तस्येति । न फलाकाङ्क्षीति नियोज्यविषयसमर्पकपदद्वयादेव निराकाङ्क्षस्य तस्य प्रतीतेः । निषेध्याद् विषयादेवेति । यद्वन्यात् तन्न । इन [नप्र ] वृत्तो न हन्यादि त्यर्थः । १४९ नञर्थस्तावदिति । पूर्वापरीभूतस्य साध्यस्य साधको हि हन्तिर्न नञ्, तस्य स्वतः सिद्धत्वात् जीवतः प्रयत्नमात्रस्याव [श्यंभा] वित्वात् । प्रमाणांशे [नञ्] निविस (श) ते निवृत्तिज्ञापकत्वेन । अन्विताभिधानेनेति । प्रकृत्यर्थसमभिव्याहृतस्य विधेरवगमात् । विधेः स्वरूपनाश इति । 'कुर्यात्' इति हि विधिर्ना सम्बन्धे ंच 'न कुर्यात्' इति स्यात् । होमस्य वचनान्तरेति । 'अग्निहोत्रं जुहोति' इत्यनेन वचनेन । न प्रमाणत इति । जुहोतेः परस्या विधिविभक्तेः श्रवणात् । विभक्त्यर्थेन नं संभत्स्यत इति' । नन्वे [वं? ] विधेः स्वरूपनाश इति चोदितम् नेत्याह शुद्धस्येति । निरधिकारस्य च विवेरिति । विधेहिं विधित्वं प्रवर्तकत्वं [प्रवर्त्य ] च विना कं प्रवर्तयेदिति । यथा [146B] चोक्तम्- 'न ह्यनुद्दिश्य देवदत्तं यज्ञदत्तं वा लिडा (ङा ) - दयः प्रयुज्यन्ते' इति [ ] । 'अविभागाच्च शेषस्य सर्वान् प्रति अविशिष्टत्वात्' इति सूत्रम् [मी० सू० ३.५.४.१७ ] । स फलतया कल्प्यमानः स्वर्ग एव कल्प्यो निरतिशयप्रीतिरूपत्वात् तस्य, तादृश्यास्तु प्रीतेः सर्वैरभ्यर्थ्यमानत्वात् । [चोद ] नाशेषभावेन । विश्वजिता यजेतेति चोदनाया एकदेशत्वेन । " श्रुत्येकदेशः सः" इति सूत्रप्रतीकम् । “अपि वाऽऽम्नानसामर्थ्याच्चोदनाऽर्थेन गम्येतार्थानां ह्यार्थवत्त्वेन वचनानि १ प्रन्थेर्भङ्गो नोपलब्धः । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का० पृ०३२४० वि० पृ० ३५४ प्रतीयन्तेऽर्थे[तो ह्य]समर्थानामानन्तर्येऽप्यसम्बन्धस्तस्माच्छ्रत्येकदेशः सः” इति सूत्रम् [मी०सू०४.३.११]। अपि वेति पक्षव्यावृत्तिः, अर्थेन प्रयोगद (वि.) धानेन 'विश्व - जिता यजेत' इत्यादिना फलचोदना गम्येत । कुतः ! प्रयोगवचनस्याssम्नानसामर्थ्यात् । फलचोदनां (नं) फलवचनं विना तस्याऽऽम्नानं निरर्थकं स्यात् । ननु श्रूय. माणस्याभावाद् अध्याहार्यं तत्ः नेत्याह - " अर्थानां प्रयोगवचनानाम् अर्थवत्त्वेन हेतुना व्यवहितान्यपि प्रतीयन्ते सम्बध्यन्ते फलवचनानि । अर्थतो ह्यसमर्थानामानन्तर्येऽप्यसम्बन्धः । १५० अपि (इतः ) पश्यामि ( श्यसि ) धावन्तं दूरे पा ( जा ) तं वनस्पतिम् । [147A] ब्रवीमि विशालाक्षि याहि रक्ष ( या पिनक्षि ) जरद्रवम् ।।' इतिवत् || तस्माच्छ्रुत्येकदेश एव फलवचनशब्दो व्यवहितश्रुतोऽपीह सम्बध्यते । 'वसन्ताय कपिञ्जलान्' [मै० सं०३.१४.१] इत्यत्र 'आलभेत' इतिवत् । तदियमधिकारानुबन्धे । प्रे विना विधेः प्रेरकत्वासिद्धेर्बहिः सिद्धेश्चानुष्ठातारमधिकारिणं विना असम्भवात्, अधिकारिणमेव प्रथमं विधिरपेक्षते, न फलम्; फलं विनापि नित्याधिकारे यावज़ोवादौ विधेराकाङ्क्षानिवृत्तेर्बहिः सिद्धेर्लाभाच्च । तदनुप्रवेशेनेति । किंविषयं नियोगं कुर्यादिति तद्विषया (यम) वच्छेदकं कुर्वन् । तदपि न सिद्धमिति । न हि सिद्धफलमुद्दिश्य कश्चित् प्रवर्तते यच्चोद्दिश्य प्रवर्तते तत् प्रधानं साध्यं चेत् तर्हि तत्साध्यता नियोगाधीना; स्वर्गकामस्य हि नियोगः स्वर्गस्य हि साध्यतामनापादयन्नननुष्ठेय एव स्यादिति । चतुरवस्थ उच्यते । चतसृष्ववस्थास्वेकतया प्रत्यभिज्ञानात् । यथा ग्रामं गच्छेदश्वेन गच्छेद्धनकामो गच्छेत् तस्माद् एवं गच्छेदिति न भिन्ना विधयः प्रतीयन्तेऽपि तु एक एव । अधिकारविधेरे [147B]त्र व्यापारविशेष इति । यत एवंभूतेन यजिनैवमितिकर्तव्यताकेन चैतत् फलं जन्यतेऽतः तत्फलका [मे ] नाऽयं मया एवमनुष्ठेयम् इत्यधि - * कारविधेरव परिस्पन्दः । इत्थंरूपः प्रयोगविधि रित्युच्यते । एतस्यैव रेवतीवति । एतद्ध्यपूर्वं कर्म चोद्यते, वचनान्तरेण तस्याप्रति १ ६० शाबरभा०हु प० ४.३.५ ( पृ० १२५४) । २. कर्म अन्य फलस्वाम्यवबोधको विधिरधिकारविधिः । अर्थसं० पृ० ७२ । ३ अत एवाङ्गानां कमबोधको विधिः प्रयोगविधिरित्यपिलक्षणम् । तत्र क्रमो नाम विततिविशेषः, पौर्वापर्यंरूपो वा । अर्थसं० पृ०५७ । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ० ३२५, वि०१०३५४ ] न्यायमञ्जरीग्रन्थिमनः पादनात् , अतोऽयमेवोत्पत्तिविधिः' । रेवतीषु वारवन्तीयाख्यगुणविधानाच्च विनियोगविधित्वम् , पशुकामपदसम्बन्धाच्चाधिकारविधित्वम् । अधिकारविधित्वाच्च प्रागुक्तप्र. योगविधित्वमिति । ___ [माणवकस्थस्येति] “अष्टवर्षे ब्राह्मणमुपनयीत" इत्याचार्यकरणविधिः, आचार्यकरणे आत्मनेपदविधानात् । तत्र च न कटं कुटयं ड्यं.) वा कारयितुं समीपं नीयते माणवकः अपि त्वध्यापयितुमित्ययमेवाध्यापनविधितिः । स चाध्यापनसिद्धया स्वसिद्धिं पश्यन्नध्यापनमाक्षिपन् येन विनाऽध्यापनं न सिद्धयति तदप्याक्षिपतीति माणवकाध्ययनमविनियुक्तमप्याक्षिपति । कचिदन्याक्षिप्ते वस्तुनीति । ज्योतिष्टोमे अरुणयैकहायन्या सोमं क्रीणातीति श्रुतम् । तथा 'षट् पदान्यनुनिष्कामति सप्तमं पदमभिगृह्णाति[148A] । अथ यर्हि हविर्धाने प्रवर्तयेयुस्तर्हि तेनाक्षमुपाङ्ग्यात्' इति; षट्पदानि यदाऽसौ गौः सोमक्रयार्थ नीयमानाऽनुनिष्क्रान्ता भवति तदा सप्तमपदात्पांसुं गृह्णीयात् । यहि यदा ऋत्विजो हविर्धाने हविर्धानशकटे प्रवर्तयेयुस्तदाऽनेन पांसुना शकटाक्षमञ्ज्यात् म्रक्षये. दित्यर्थः । तत्र किं क्रयार्थ पदपांसुग्रहणार्थ चैकहायन्यानयनमुत क्रयार्थमेवेति[संशयः] तत्रोभयार्थतामाशय क्रयार्थमेवानयनं स्थापितम् । न हि विशिष्टं देशमनीतया सोमक्रयः कर्तुं शक्यत इति नीयमानायां चावश्यंभावि सप्तमं पदमिति नान्याक्षेपः । ग्राहक इति विधिरुच्यत इति । यद् यत् प्रकरणे पठितं तत् तदविशेषेण 'खले कपोत'न्यायेनात्मीयत्वेन स्वीकरोत्यतश्च 'मदीयस्त्वम्' इत्यनेन रूपेण गृह्णन् ग्राहक इत्युच्यते । तेनागृहीतस्य द्वादशोपसदादेरिति । द्वादशोपसत्ताऽहीनस्येति ज्योतिष्टोमे श्रूयते । तत्र यद्यप्येतत् प्रकरणे श्रुतम् तथापि तिम्र उपसदो भवन्तीति वचनान्तरेणोपस. स्त्रयप्राच्या निराकाङ्क्षीकृतो न द्वादशोपसत्तां [148B]प्रकरणश्रतामप्यपेक्षते । यदि हि तस्यापेक्षा स्यात् तदा हीनशब्दो द्वादशाहे [प्रसिद्धो]पि न हीयते दक्षिणयेत्यहीन इति कथश्चित् ज्योतिष्टोमवाचकत्वेन परिकल्प्यवाक्यसमन्वयः क्रियते इति । अत एवेति नियोगेनागृहीतत्वाद् द्वादशोपसदादेर्नियोगापेक्षाया अभावात् सदपि श्रुत्यादिप्रमाणषट्कमध्यपरिपठितं प्रकरा(करणा)ख्यं प्रमाणं न विनियोगकल्पनायां क्षममिति । विस्तरतश्चैतत् प्रथमाह्निके व्याख्यातमिति । १ कर्मस्वरूपमात्रबोधको विधिरुत्पत्तिविधिः । अर्थसं० पृ.२० । २ अङ्गप्रधानसम्बन्धबोधको विधिर्विनियोगविधिः । अर्थसं० पृ०२२ । ३ द्र० न्यायरत्नमालाया नायकरत्नव्याख्या पृ० २-१६ । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ भट्टश्रीचक्रधरप्रणतः [का०पृ०३२५, वि०पृ०३५४ उपादानं शेषीकुर्वन्निति । 'पशुना यजेत' इति विनियुक्तस्य पशोरुपादीयमानस्य नियोग एकत्वसङ्ख्यां शेषीकुर्वन् । ननु नियोगः किं करोति ? विभक्तिरेव यथा प्रातिपदिकार्थस्य शेषतामाह तथा स्वार्थस्यापि वदिष्यति, नेत्याह-विभक्तथा हीति । एकेनेत्यश्रवणादिति । यथा पशुनेति पश्वर्थस्य करणत्वं प्रतीयते न तथैकत्वस्य, एकेनेति निर्देशाभावादित्यर्थः । न सङ्[149A]ख्यारहितस्तत्रोपादातुं शक्यत इति । अपरिच्छिन्नस्योपादानासम्भवादवश्यमेको द्वौ बहवो वोपादीयन्ते इति । तस्य द्वादशलक्षण्यां तत्तद्रूपं प्रकाशितमिति। किं किं प्रकाशितमित्याकाङ्क्षानिवृत्त्यर्थ दिङ्मात्रमुच्यते । प्रमाणलक्षणे तावत् तस्य नियोगस्य स्वातन्त्र्यप्रतिपत्त्यर्थ वेदस्य नित्यत्वेन प्रामाण्यं प्रतिपादितम् , अर्थवादस्मृत्यादिनामधेयादिद्वारायातमप्रामाण्यं सर्वप्रकारं परिहृतम् । तथा हि नित्यत्वेन प्रमाणाद् वेदाद् योऽवगतो नियोगः स न लौकिकः 'हरीतकी भक्षयेद् विरेककामः' इति नियोगवद् विनियोगनिष्ठः, अपि तु स्वतन्त्र एवेति तत्र साधितम् । द्वितीयाध्याये भेदलक्षणे च क तस्य प्राधान्यं काप्राधान्यं काभेदः क वा भेदः कानि च तस्य भेदकानि प्रमाणानीति चिन्तितम् । तथा ह्याग्नेयोऽष्टाकपालो भवतीत्यादौ प्राधान्यम् । समिधो यजतीत्यादौ त्वप्राधान्यम् । आग्नेयोऽष्टाकपालो भवति, समिधो यजतोत्यादौ च भेदः । आग्नेयोऽष्टाकपालः, व्रीहीनवहन्तीत्यादौ त्वभेदः, उभयत्रैकस्य नियोगस्य साध्यत्वात् । तथा यत दद्याज्जुहुयादित्यादौ शब्दान्तरकृतो भेद इत्यादि । तृतीये शेषलक्षणे श्रुत्यादिप्रमाणषट्केन यः पदार्थानां विनियोगः पराङ्गत्य(त्व,लक्षणः प्रतिपादितस्तस्य परस्परान्वयरूपस्वरूपतिरस्कारेण योऽयमत्यन्तं पारार्थ्यलक्षणः[ऐदम-] \नानुष्ठानपर्यन्तो विशेषस्तत्र नियोगस्यैव व्यापारः, मतः एव 'नियोगमों विनियोगः' इत्याधुक्तम् । अतो यो मदीयो ममोपकारी स भवद्भिः श्रुत्यादिभिः प्रमाणैरेदमर्थ्यद्वारेण मयि समर्यो नान्य इति तत्र चिन्तितम् । श्रुत्यादिप्रमाणस्वरूपं च प्रथमालिके दर्शितम् । चतुर्थे तु प्रयुक्तिलक्षणे यत्र श्रत्यादीनि विनियोजकतां नासादयन्ति तत्र पश्वेकत्वादी नियोगस्यैवौपादानिक विनियोजकत्वं सर्वधर्माणां च कचित् पुरुषार्थद्वारेण तस्य प्रयोजकत्वं यथा गोदोहनादेः, कचित् क्रत्वर्थत्वेन यथा चमसादेः । एवं सर्वधर्मास्तत्प्रयुक्ता एवेति । यथा ग्राहकाख्यो योऽसौ [150A] नियोगस्य व्यापारो येन परिगृहीतान् धर्मान् श्रुत्यादीनि विनियुञ्जत इत्यादि चिन्तितम् । पञ्चमे तु "प्रयोगपर्यन्ते नियोगव्यापारे स्थिते सति पदार्थाः कथमनुष्ठेयाः बहुत्वात् पदार्थानाम् एकत्वात् कर्तुर्युगपदनुष्ठानासम्भवात् अवश्यं क्रम Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०३२७, वि०पृ०३५६] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः आश्रयितव्यः; तत्र प्रयुक्तिपर्यन्ते नियोगव्यापारे सति क्रमस्यावसरात् । उपादानात्मना व्यापारेण क्रमस्याक्षेपस्तावन्नास्ति, न च क्रमं विना गतिरस्ति । तत्राध्वर्युगुहपतिं दीक्षयित्वा ब्रह्माणं दीक्षयतीत्यादौ कः क्रम आश्रीयतामिति चिन्तायां प्रयोग आशुभावाद् यस्य कस्यचित् क्रमस्यानियमेनाश्रयणे प्राप्ते श्रुत्यर्थपाठादिप्रमाणषट्कावगम्यमानक्रमपरित्यागे कारणाभावादुपादानात्मकव्यापाराभावेऽप्यवगम्यमानं श्रुत्वादिभिः क्रमं न परित्यजति नियोगः” इति चिन्तितम् । षष्ठे तु क्रमपर्यन्ते शास्त्रार्थे स्थिते सति कस्तस्यानुष्ठातेति स्थाप्यते । तथा ह्यवगतेऽपि क्रमपर्यन्ते विषये शास्त्रान्नियोगोऽनुष्ठातारं विनाऽनवगततुल्य इति स्वर्गकामो यजेतेत्यादौ स्वर्गकामादिपदानि [150B] कर्तृतया समन्वयादवच्छिद्याधिकारितया समनुयन्ति नियोगेन स्वरूपसिद्धयर्थमात्मन इत्येवं नियोगस्य रूपं चिन्तितम् । अयं तावदुपदेशषट्कः, अतिदेशषट्क इदानी चिन्त्यते । तत्र सप्तमे सामान्यातिदेशलक्षणे “ये यस्य नियोगस्य प्रकरणे धर्माः श्रुतास्ते तस्यैव, अपूर्वप्रयुक्तत्वाद् धर्माणाम् । अतः ‘ऐन्द्राग्नमेकादशकपालं निर्वपेद् ब्रह्मवर्चसकामः' इत्यादीनामैन्द्राग्नप्रभृतीनामौपदेशिकी धर्मप्राप्तिनास्ति, तत् किं तेषामधर्माः कर्तव्याः ? अथाधर्मका एव त इति विचार्योपकारापेक्षी नियोगस्तत्रापि प्रकृतिवद् धर्मानाक्षिपति" इति नियोगवृत्तं चिन्तितम् । अष्टमे तु विशेषातिदेशे के धर्माः कस्य कर्तव्या इति विचारः । तथाहि तेजस्वितासामान्यादाग्नेयधर्मानाक्षिपति सौर्यचरुनियोगः, न दधिपयआदिधर्मानिति नियोगरूपं चिन्तितं तत्र । नवमे तूहलक्षणे कथं ते धर्माः प्रयोक्तव्याः, किं यथाश्रुता यथा(थो)पकारा वे]ति तत्रोपकारद्वारेण धर्माणामाक्षेपाद् यथोपकर्तुं शक्नुवन्ति तथा प्रयोज्या यथा 'अग्नये त्वा जुष्टं निर्वपामि' इति मन्त्रः सूर्याय [151A] .................. ....न्वयोऽन्यथा न भवतीति चेद् यथा 'द्रव्यगुणसंस्कारेषु बादरिः' मी० सू० ३.१.३] इत्येतद्व्याख्यानावसरे क्रियावाक्यार्थपक्षे समन्वयः प्रतिपादितस्तथा भविध्यति, तदाह-अन्यथा व्याख्यायतामिति । नन्वधिकारिपदमेतत् कथमन्यथा व्याख्याने नियोगस्याधिकारानुबन्धापेक्षिणो निर्वाह इत्याह-अधिकारानुबन्धाभिधान इति । निर्विशेषणः पुरुषोऽधिकारी न भवति, प्रागुक्तनीत्या तु स्वर्गेच्छा कथमपि पुरुषं विशेक्ष्यति इति भवति स्वर्गस्याफलत्वेऽप्यधिकारानुबन्धलाभ इति । ___ आक्षेपकत्वात् तु तस्येति । यः स्वर्गकामः स कथं स्वर्गसिद्धिमपश्यन् प्रवतेतेति नियोगः फलमाक्षिपति । कुत एतल्लभ्यत इति चेत् तदाह--प्रयोक्तृत्वं १ पत्र १५१ब-१५२अ गतान्यक्षराण्यवाच्यानि । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ कापृ०३२७, वि०पृ०३५६ हि तस्येति । कार्यत्वाद्ध्यसौ स्वात्मनः कार्यतानिर्वाहाय सर्वं प्रयुक्त इति भावः । यद्येवं भावार्थ एव साध्य इति । तस्यैव सिद्धया फलसिद्धेः । किञ्च, अन्विताभिधानेनेति । प्रकृत्यर्थानुरक्तस्य सर्वदा पदात् प्रतीतेः, निर्विषयस्य च प्रतीतिवदनुष्ठानासिद्धेरतो विषय एव 'यत एतद्विषयो नियोगोऽतोऽहममुं नियोगमेतेन [152B]करणभूतेन साधयामि' इति तं प्रति करणीभवतीति तस्यै भावार्थनिष्पाद्यता । समत्वं च द्वयोर्भवेदिति । समत्वे चैकस्मिन् वाक्यार्थे गुणप्रधानाभावादनन्वयः । . नियोगश्च शब्दैकगोचरत्वान्मा दर्शीति । यदुक्तं कुर्यादित्यस्यार्थः कुर्यादित्यनेनैव शब्देन प्रतिपाद्य इति । तद्विषयाया लिप्साया अनुपपत्तेरिति । तद्विषयायाः भावार्थविषयायाः । पुरुषार्थसाधने हि लिप्सातः प्रवृत्तिर्भवति । नियोगस्य चापुरुषार्थत्वात् तत्साधनमपुरुषार्थसाधनम् ।। श्येनादीनामधर्मत्वमिति । एवं हि श्येनादीनामपि नियोगसाधनत्वादपुरुषार्थसाधनत्वेन न लिप्सातः प्रवृत्तिः स्यात् । सिद्धमित्यतिविस्मय इति । शाब्दसिद्धयभिप्रायेणोक्तम् । शब्दवृत्तेन फलमपीति । यथा कस्यचिदमात्यस्य 'राज्ञाऽसौ ते ग्रामो दत्तः' इति यदैवाभिहितं तदैव तस्य साध्यसिद्धयाऽसौ ग्रामः सिद्धः, कालान्तरे तु गत्वा स्वीकारादिनाऽऽनुभाविकी सिद्धिर्भाविनीति । स हि प्रेरणात्मक इति । यदैव हि प्रेरितोऽहमिति प्रतिपत्तिरुपजायते तदै[153A]व तस्य सत्त्वम्; यदा वा साध्यमेतदिति तद्विषया प्रवृत्तिस्तदा तस्य साध्यतया सत्त्वम् । नियोज्यश्चाण्डालस्पर्शनेनेवेत्यनेन एकादशाद्यपूर्वपक्षोक्तं निमित्तपरत्वं स्वर्गकामादिपदानां प्रदर्शयति । यथेच्छतोऽनिच्छतो वा चाण्डालस्पर्शे जाते स्नानेऽधिकारस्तथा स्वर्ग प्रति य इच्छां करोति तस्य यागेऽधिकार इति । ननु च स्वर्गकामोऽत्रेति । अनेन स्वर्गस्य प्रीतिरूपत्वात् , प्रीतेश्च भाव्यत्वेनैवान्वयो युक्त इति पूर्व स्थापितं तदेव सूचितम् , चाण्डालस्पर्शे स्नायादित्यत्रेच्छा न श्रुता, इह तु सा श्रुता, अतोऽत्र साध्यत्वेनैवान्वयो युक्त इति यावत् । . भवेज्जीवनवानिव । असाध्येऽपि स्वविशेषणे । नित्येऽपि फलवादिभिरिति । प्रत्यवायपरिहारं ये फलमिच्छन्ति । . १ एकादशाध्यायस्य प्रथमपादे पूर्वपक्षत्वेनोक्तमित्यर्थः । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०३३१, वि० पृ० ३६१] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः १५५ घृतकुल्या अस्य भवन्तीत्यादिवदिति । यथा 'स्वाध्यायोऽध्येतव्यः' इत्यस्य दृष्टेनार्थावबोधलक्षणेन फलेन फलवत्त्वाद विधेः “यह चोऽधीते घृतकुल्या भवन्ति" इत्येवमादीनामर्थवादमात्रतयैवान्वयः, न पुनः फलतया विधिस्तान्यपेक्षते । अश्रुतोऽपि चासाववबोधादिः । उपात्तदु [153B]रितक्षय एवेति । प्रत्यवायस्य परिहारोऽनुत्पत्तिः प्रागभावस्तस्य नित्यत्वात् साध्यत्वानुपपत्तिः, अत उपात्तदुरितक्षयो नित्यानां फलमिति केचित् । अन्ये तूभयमेव फलमिति । अपरे तु येषामकरणे प्रत्यवायः श्रूयते तेषां करणात् प्रत्यवायपरिहारः, येषां त्वकरणात् प्रत्यवायश्रुतिर्नास्ति तेषां करणादुपात्तदुरितक्षयः फलमित्याहुः । उपात्तस्य सञ्चितस्य दुरितस्य क्षयः प्रध्वंसः । इतरथा हीति । ब्रह्महत्यादेरनिष्टसाधनत्वाद [न] भ्युपगमेन । “कोऽर्थः ? योऽभ्युदयाय ज्योतिष्टोमादिः, कोऽनर्थः ? यः प्रत्यवायाय श्येनो वज्र इषुरित्येवमादि:' [शाबरभा० १.१.२] इति योऽर्थानर्थविवेकः । ब्रह्महत्यादेः साक्षाद्धिंसारूपस्य । श्येनवज्रादेः फलद्वारेण, न साक्षात् । अत एव काम्यानां कर्मणामिति । यत एव सकलाङ्गोपबृंहितस्वरूपो भावार्थः काम्यमानोपायतां प्रतिपद्यते सर्वेषामङ्गानामुपसंहारेणानुष्ठानसम्पत्त्या । विनियोगपर एव स्यादिति । विनियोग ऐदमर्थ्यम्, यज्ञात् स्वर्गो भवती त्यादि । फलतः किल कथ्यत इति । न साक्षात् प्रेरकत्व [ 154A ] योगेन त्वयापि । तत् सर्वत्र वैध्येव प्रवृत्तिरिति तात्पर्यम् । स्वर्गार्थी तु विधितः प्रवर्तते एव, अप्रवर्तमानो न स्वर्गार्थी स्यादिति भावः । नान्या काचित् प्रेरणाऽऽकूतविशेषः 'प्रवर्तितव्यं मयाऽत्र' इत्यादिकः । स्मरणादभिलाषेणेत्यस्य पूर्वमर्धम् – “तद्दृष्टावेव दृष्टेषु संवित्सामर्थ्यभाविनः” इति [ प्रमाणवा० भा० २.४.१८३] । अननुविधेयवचनादिति । यस्मिन्नाराधिते कार्यं किञ्चित् सिध्यति सोऽनु विधेयः । वेदार्थप्रयोक्त्राशयानवधारणादिति । नित्यत्वे तदाशयाभावादनवधारणम्, अनित्यत्वे तु ज्योतिष्टोमादिकर्मानुष्ठानं लोकः कुरुतामित्येवंरूपस्तस्याशयः । यदि न कुरुते तदसावाज्ञाभङ्गात् स्वामिवत् कुप्यतीति नावधार्यते । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का०पृ०३३१, विष्पृ० ३६१ तच्च न पृथगभिधातुं युक्तमिति । भावनैवावगम्यमाना स्वसामर्थ्यवशाद् यागस्य श्रेयस्साधनत्वं विना नावगम्यतेऽतो भावनाशब्दादंशत्रयात्मकतत्स्वरूपवत् फलसाधनत्वमप्यंशगतं समधिगतमेवेत्यव्यभिचरिततद्रूपत्वाद् भावनायाः पृथक्छब्दान्तरेणाभिधानं तस्यायुक्तम्, गतार्थत्वात् ; न चांशत्रयात्मिकायास्तस्या एकांशगतेन श्रेयस्साधनत्वेन व्यप[154B]देशो युक्तः । यदि हि तदपेक्षया श्रेयःसाधनत्वम्, तत्फलापेक्षया न श्रेयस्साधनत्वम् अपि तस्य फलस्य स्वयं श्रेयोरूपत्वेन श्रेयःसाधनत्वाभावादिति । कथ्यमानो हि पृथग्धर्मः स वक्तुं युक्तो योऽशत्रयसाधारणः । न च श्रेयःसाधनत्वमंशयसाधारणमिति भावः । तैरिति माण्डनान् निर्दिशति । न चांशद्वयावच्छिन्नस्येति अंशद्वयं करणेतिकर्तव्यताख्यम् । अनुत्पन्नस्य फलांशापेक्षया अपरिपूर्णस्य । [ताद्रूपयेति] ताद्रूप्यं श्रेयःसाधनत्वम् । श्रेयस्साधनत्वं हि भावनायाः सामान्यम्, न भावनैकदेशस्य । अन्यथा हि भावनायाः श्रेयःसाधनत्वम्' इति व्यपदेशो न स्यात् । प्रत्यक्षादिसमानत्वादिति । यथा प्रत्यक्षं वस्तु दर्शयति, केवलं यस्तु तत्रार्थी स प्रवर्तते । एवं विधिः फलं प्रदर्शयति, फलार्थिनस्तु तत्र प्रवृत्तिरिति । व्यतिषक्ततोऽवगतेरिति'। प्राभाकरवचो ज्ञापकत्वेनाह । व्यतिषक्तेभ्यः सम्बद्धेभ्यः पदार्थेभ्यो व्यतिषङ्गः सम्बन्धोऽवगम्यते । न यसति सम्बन्धे सम्बद्धपदार्थप्रतीतिरित्यार्थी सम्बन्धप्रतीतिः । प्राधान्यमेव हि तथा सति न स्यादिति । न हि प्रधानानां परस्परसम्बन्द्रो(न्धो) भवति परस्परसम्बद्धपदार्थप्रतिपादकं च वाक्यम् , अतः सम्बन्धबलात् सर्वेषां प्राधान्याभावः । द्रव्यस्य चिकीर्षक(र्षित ?)त्वेन द्रव्यसंस्कारकत्वेन । शुक्लगुणसंस्पृष्ट इति । यदि ह्यन्यव्यवच्छेदस्तस्य नास्ति तदा शुक्लेनैव गुणेन संसर्गो न स्यादित्यार्थोऽसौं । कचित् प्रकरणागतम् । फलवत्प्रकरणे समाम्नानात् प्रयाजादिष्विव । कचिदालोचनालभ्यं विश्वजिदादाविव । नित्यैस्तु(त्येषुः) विधिस्वरूपपर्यालोचनालभ्यम् । अथवा फलमेव वाक्यार्थो न संसर्ग इति 'प्राधान्ययोगादथवा फलस्य' इत्यादिनाह । न तु शब्दस्य विषय इति । अर्थो हि तस्य विषयः । १ बृहती १.१.७ पृ०३८६ । २ द्र. शाबरभा १. १. ७. २४, तन्त्रवा० २.१.१४.४६। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०३३६, वि०पृ०३६६] न्यायमञ्जरोग्रन्थिभङ्गः १५७ नाना प्रकारकार्योत्पाद इति । नानाप्रकाराणि पलायनसंरम्भादीनि कार्याणि बाह्यस्यार्थस्यैकाकारत्वेऽपि भवन्तीति बाह्यार्थानपेक्षा, स्ववासनानुसारेण प्रमातृणां वाक्यादुपजायमाना प्रतिभैव वाक्यार्थ इति' । प्रतिभावन्तो (भान्तो?)ऽर्थाः। प्रतिभया वाक्यार्थज्ञानेन विषयीकृताः । ननु वाक्यजन्ये ज्ञाने यद्यर्थाः प्रतिभान्तीत्यभ्युपगम्यते तदाऽतीताद्यर्थप्रतिपादके वा[155B]क्येऽर्थानामसत्त्वात् कथं वाक्यार्थज्ञानजनकत्वमित्याशङ्क्याह-शब्दस्य प्रत्यक्षवदिति ।। भट्टश्रीशङ्करात्मजश्रीचक्रधरकृते न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गे पञ्चममाह्निकम् ॥ १ वैयाकरणाः । द्र० वाक्यप० २. ११७-१४५ विच्छेदग्रहणेऽर्थानां प्रतिभाऽन्यैव जायते वाक्यार्थ इति तामाहुः पदार्थ रुपपादिताम् ॥१५॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ षष्ठम् आह्निकम् ॥ ॥ ॐ नमः शिवाय ॥ बीजं पदार्थ वाक्यार्थ बुद्धेः पदवाक्ये | व्यस्तसमस्तविकल्पोपहतत्वेनेति । व्यस्तानां प्रत्येकवाचकत्व इतरवर्णाच्चारणवैफल्यप्रसङ्गः । सामस्त्यं तु नास्ति क्रमोपलभ्यमानानामिति वक्ष्यति' । स्फोटात्मा अभिव्यञ्जकैर्नादैः स्फुटीक्रियते व्यक्ति नीयत इति स्फोट इति नाम्ना व्यपदेश्यः । स्फोटस्य च नित्यत्वेनेति । स ाक्रमो निरवयवश्च नित्य एव कल्पयितुं शक्यते; अर्थप्रतीत्या हि स कल्प्यते न चानित्यादर्थप्रतीतिरुपपद्यते, सङ्केतकालावगतस्येदानींतनस्य चान्यत्वात् ; स च स्थित एव केवलमभिव्यज्यते ध्वनिभिरिति । न चक्षुरादीनामिव कारकत्वमिति । चक्षुरादीनि ह्यगृहीतसङ्गतीनि यतः प्रमां जनयन्ति अतस्तान्यर्थस्य न ज्ञापकानीत्युच्यन्ते ज्ञापकधर्मविर [156A]हात्, अपि तु अर्थप्रतीतेर्जनकानीति । क्रमेण ते स्मरणे इति । एकस्य स्मरणस्योत्पादकाले ज्ञानस्य ज्ञानान्तरा(२) विरोधित्वादन्त्यवर्णज्ञानस्य विनश्यत्ता द्वितीयस्मरणोत्पादकाले तस्य विनाश इति । सङ्कलनाज्ञानमिति । क्रमगृहीतानामेकस्मिन्ननन्तरकालभाविज्ञाने सङ्कलितानां समुच्चितानां प्रतिभासनं सङ्कलनाज्ञानं शतादिसमुच्चयज्ञानवत् । १ प्रत्येकमप्रत्यायकत्वात् साहित्याभावात् नियतक्रमवर्तिनामयौगपद्येन सम्भूयकारित्वानुपपत्तेः, नानावक्तृप्रयुक्तेभ्यश्च प्रत्ययादर्शनात् क्रमविपर्यये यौगपद्ये च । तस्माद् वर्णव्यतिरेकी वर्णेभ्योऽसम्भवन्नर्थप्रत्ययः स्वनिमित्तमुपकल्पयति । स्फोटसि० पृ०२८ । ते खल्वमी वर्णाः प्रत्येकं वाच्यविषयां धियमादधीरन नागदन्ता इव शिक्यावलम्बनम्, संहता वा ग्रावाण इव पिठरधारणम् ? न तावत् प्रथमः कल्पः; एकस्मादर्थप्रतीतेरनुत्पत्तेः उत्पत्तौ वा द्वितीयादीनामनुच्चारणप्रसङ्गः । वर्णानां तु यौगपद्याभावोऽतः परस्परमनुग्राह्यानुग्राहकत्वायोगात् संभूयापि नार्थधियमादधते । योगभा० तत्त्ववै० १११७ । वर्णानां प्रत्येकं वाचकत्वे द्वितीयादिवर्णोच्चारणानर्थक्यप्रसङ्गात् । आनर्थक्ये तु प्रत्येकमुत्पत्तिपक्षे यौगपद्येनोत्पत्त्यभावात् । अभिव्यक्तिपक्षे तु क्रमेणैवाभिव्यक्त्या समुदायाभावात् एकस्मृत्युपारूढानां वाचकत्वे सरोरस इत्यादी अर्थप्रतिपत्त्यविशेषप्रसङ्गात् तद्व्यतिरिक्तः स्फोटो नादाभिव्यङ्गयो वाचकः । महाभा०प्र० पृ०१६ । २ वर्णातिरिक्तो वर्णाभिव्यङ्गयोऽर्थप्रत्यायको नित्यः शब्दः स्फोट इति तद्विदो वदन्ति । अत एव स्फुटयते व्यज्यते वर्णैरिति स्फोटो वर्णाभिव्यङ्गयः, स्फुटति स्फुटीभवत्यस्मादर्थ इति स्फोटोsर्थप्रत्यायक इति स्फोटशब्दार्थमुभयथा निराहुः । सर्वदर्शन० पृ०३०० । ३. द्र० पृ० १४५८०२/४ ग्रन्थिरयं नोपलब्धः मुद्रितन्यायमञ्जर्याम् । ५ अन्त्यवर्णेऽपि विज्ञाते पूर्वसंस्कारकारितम् । स्मरणं यौगपद्येन सर्वेष्वन्ये प्रचक्षते ॥ सर्वेषु चैतदर्थेषु मानसं सर्ववादिनाम् । इष्टं समुच्चयज्ञानं क्रमज्ञानेषु सत्स्वपि । श्लो०वा०स्फोट० ११२-११३ । अपरे तु संस्कारत्रयजन्यां वर्णस्वरूपां सङ्कलनात्मिकामिच्छन्तीत्याह--अन्त्यवर्णेऽपि विज्ञात इति । उम्बेकटीका । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०३४०, वि०पृ०३७० ] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः १५९ किमप्यभ्यधिकमिति । वर्णस्वरूपातिरिक्तश्चेदपेक्ष्यते स एव तर्हि स्फोटः, सर्वथा स्वरूपमात्रस्यावाचकत्वमायातमिति मत्पक्षाभ्युपगमः । - कार्यानुमानमिदमस्त्विति । अर्थप्रतिपत्तिलक्षणात् तावत् कार्यमात्रात् तत्कारणमात्रावगमः; तत्र कारणमात्रस्य निर्विशेषस्य गोत्वस्येव शाबलेयादिविशेषशून्यस्यासम्भवात् , वर्णानां च पूर्वनीत्या कारणत्वप्रतिषेधादन्यत्र चाप्रसङ्गात् स्फोटस्यैव कारणत्वकल्पनेति कारणमात्रावगतौ कार्यानुमानम् । कारणविशेषावगमे तु परिशेषानुमानमिति । [अर्थापत्तिर्वति] एवंरूपं च परिशेषानुमानं' कार्यानुमानसहितमपत्तितयाऽन्यैर[156B]भिहितं तन्नाम्नो वाऽस्याभिधाने न काचित् क्षतिरिति । वर्णपक्षक्षपणक्षमेति । किमेकैकः प्रत्यायकोऽथ संहता इत्यादि यदूषणम् । प्रातिपदिकार्थोंऽप्युपपन्नः, संस्कारस्य शब्दशब्दवाच्यत्वाभावात् ; विभक्त्यर्थस्त्वेकत्वमेकत्वादुपपद्यते संस्कारस्येति । शब्दकार्यनिर्वर्तनानुपपत्तेः । शब्द्यते कथ्यतेऽनेनार्थ इति शब्दशब्दनिर्वचनसामर्थ्यादर्थप्रतीतिजनक एव शब्दः । अथ गौरित्यत्र श्रौत्रे प्रतिभास इति । भाष्यकृता हि ‘अथ गौरित्यत्र कः शब्दः' [शाबरभा० १.१.५]इत्युक्तम् । अस्य चार्थः – गौरिति अत्र ज्ञाने ये प्रतिभासन्ते जातिगुणक्रियावर्णस्फोटादयोऽर्थास्तेषु मध्ये कः शब्द इति । गौरिति ज्ञाने वर्णाः, वर्णाभिव्यङ्ग्यस्फोटः, तद्वाच्यश्चार्थो जात्यादिः, तदेकार्थसमवेताश्च गुणक्रियादयः प्रतिभासन्त एवेति । ___ संस्कारकल्पनायामदृष्टकल्पनेति । बहुभिनैिरेकस्य प्रसिद्धस्मरणरूपकार्यपरिहा[157Ajरेणार्थप्रतिपत्तिजनकस्य जननं संस्कारस्येति कल्पना । सा च शब्दकल्पना चेति । सा च संस्कारकल्पना च, तथाविधसंस्कारकल्पनां विना क्रममाविभिर्वर्णैः स्फोटस्याभिव्यक्तुमशकयत्वात् । शब्दस्य च निरवयवस्यैकस्याक्रमस्यानुपलभ्यमानस्य कल्पना । . अपरे तु वदन्तीत्यादिना वर्णा एव पारमार्थिका न सन्ति, कुतस्तेषां क्रमेण सामस्त्येन वा स्फोटाभिव्यक्तौ व्यापारः । ननु ध्वनयोऽपि स्फोटस्य ध्वननात् प्रका १ शेषवन्नाम परिशेषः, स च प्रसक्तप्रतिषेधेऽन्यत्राऽप्रसङ्गाच्छिष्यमाणे सम्प्रत्ययः... ... । न्यायभा० १.१.५ । २ शाबरभा० १.१.५.पृ०४८ । ३ शाबरभा०१.१.५. पृ०४८। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का०पृ०३४०, वि०पृ०३७० शनाद् वर्णा एव नेत्याह-तैश्च मरुद्भिरिति । नानाकारगकारादिभागयोगीवेति । कथमिति चेत् तदाह—ताल्वादिस्थानकरणेति । वायूनां यो विशिष्टैः स्थानकरणैः संयोगः स एवोपाधिस्तथाविधोपप्लुतरूपप्रदर्शकः । नादात्मकोऽपीति । नादात्मकः अवाचकः । ___औपाधिकत्वं च सामान्यावयविबुद्धेरपीति । अत्र यद्येकार्थप्रतीतिजनकत्वादेकत्वमुच्यते तदा दाहदोहाघेकार्थ। 157B]कारितोपाधिनिबन्धनः सामान्यप्रत्ययोऽपीति अतिप्रसङ्गः । अर्थान्तरमेव ग्रामराग इति । ग्रामरागो यत्रांशतया षड्जादयः स्वराः स्थिताः । करितुरगादिवदिति । यथा सत्सु करितुरगादिषु गच्छत्सु रेणुपटलस्योद्गमदर्शनात् तत्कारणता कल्प्यत एवं पिपीलिकापङ्क्तिरपि कदाचिद् रेणुपटलोद्गमपूर्वभाविनी दृश्यत इति तस्या अपि तत्कारणत्वप्रसङ्गः । अश्वकर्णादिवदिति । अश्वकर्णाख्या ओषधिर्न तत्राश्वार्थः कश्चिन्नापि कर्णार्थ इति ।। प्रत्ययादेशेति । प्रत्ययविसंवादः कचिल्लकारः प्रत्ययः, अन्यत्र त्या(त्या ?)दय इत्येवमन्यत्रापि । __ वाक्यात(र्थ ? )कल्पनयैवेति । कल्पनया असतामप्यनपोद्धारे वाक्यार्थस्य प्रतिपादयितुमशक्यत्वादसतामपि तेषां कल्पनयोद्धृतानां रेखागवयादीनामिव सत्यार्थप्रतिपादकत्वम् । अपोद्धृत्यैव वाक्येभ्य इत्यस्य पूर्वमर्धम्–“पदं कैश्चिद् द्विधा भिन्न चतुर्धा पञ्चधापि वा ।" इति वाक्यप० ३.१.१] ॥ अथ प्रथमप्रतिपन्नेति । प्रकरणादिवशेन 'काले नदन्ति नागाः' इत्यस्मादुच्चारिताद् विशिष्टार्थप्रतिपत्तिर्भवत्येव, भो[158A]जनादिप्रस्तावे सैन्धवमानयेति प्रतिप्रत्तिवत् । अनाद्यविद्यावासनेति । अविद्यावशाद्धि वर्णपदावान्तरवाक्यमहावाक्यप्रविभाग इत्यनेन चैतदुक्तं भवति – एकमेवेदं त्रयीरूपं शब्दब्रह्म परब्रह्मप्राप्त्युपायः, तस्य यदिदं विभागेन चातुराश्रम्यप्रतिपादनं तदसत्यं, मातृमोदकन्यायेन हि तत्तद्वस्तूदेशेन समीहावतां प्राणिनां बाह्योपायनिषेधेन पश्वर्थिनामिव चित्रादि दर्शयद् बाह्यक्षोभनिवर्तनेन शनैः शनैः शान्ततां दर्शयत् परं क्षेमं दर्शयतीति । तदुक्तम् Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०३४३, वि०पृ० ३७३ ] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः त्रयीरूपेण तज्ज्योतिः प्रथमं परिवर्तते । पृथक् तीर्थप्रवादेषु दृष्टभेद निबन्धनम् ॥ शान्तं विद्यात्मकं ब्रह्म तदु हैतदविद्यया । तया ग्रस्तमिवाजस्रं या निर्वक्तुं न शक्यते ॥ ' इत्यादि । अर्थभावेन विवर्तत इति । तथा च आह शब्दस्य परिणामोऽयमित्याम्नायविदो विदुः । छन्दोभ्य एव प्रथममेतद् विश्वं व्यवर्तत ॥ [ वाक्यप० १ १२०] तस्मादाकृतिगोत्रस्थाद् व्यक्तिग्रामा विकारिणः । मारुतादिव जायते वृष्टिमन्तो बलाहकाः ॥ [ ] इत्यादि || अविta विद्योपाय इति । अनेन द्वारेण प्राङ्नीत्या विद्याधिगमस्य सम्भवात् । तदुक्तम्–“अतत्त्वे व[158B ]र्त्मनि स्थित्वा ततस्तत्त्वं प्रकाशते " इति [ ] 1 सर्वत्र प्रत्यये तदनपायादिति । यथा रुचककुण्डलादीनामपायोपजनेऽपि सुवर्णरूपताया अनपायात् तस्या एव तात्त्विकत्वमेवं यत् प्रतीयते तत् सर्वं वाग्रूपतानतिक्रमेणेति । त् वाग्रूपता चेदिति' । यावत् पदार्थ ः 'घटोऽयम्' इति न प्रत्यवमृष्टः प्रकाशितो न भवति, वागुरूपताव्यतिरेकेण चान्यस्य प्रत्यवमर्शकत्वं नास्ति; अत उक्तम् — —सा हि प्रत्यवमर्शिनीति । न प्रकाशः प्रकाशेत प्रकाशोऽप्यप्रकाशः स्यात्, व्यापारस्य प्रत्यवमर्शस्याकरणात् । प्रकाशरूपतामेवासौ न लभेतेत्यर्थः । १६१ सा चेयं वाक् त्रैविध्येन व्यवस्थितेति । तत् त्रैविध्यप्रतिपादनं सर्वाव १ वाक्यप० स्वो० वृत्तौ (११) उद्धृतमिदं कारिका युगलम् । २ तुलना - विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः ॥१.१॥ वाक्यप० । ३ वाक्यप० स्वो० वृत्तौ (११) उद्धृता । आकृतिः सामान्यम् । गोत्रं सादृश्यम् । वाक्यप०वृषभटीका । ४ तुलना — यथा पयः पयोऽन्तरं जरयति स्वयं च जीर्यति, यथा विषं विषान्तरं शमयति स्वयं च शाम्यति, यथा वा कतकरजो रजोन्तराविले पाथसि प्रक्षिप्तं रजोन्तराणि भिन्दत् स्वयमपि भिद्यमानमनाविलं पाथः करोति, एवं कर्म अविद्यात्मकमपि अविद्यान्तराण्यपगमयत् स्वयमप्यपगच्छतीति । भामती पृ० ३२ । कर्णाज्जलं जलेनैव कण्टकेनैव कण्टकम् । रागेणैव तथा रागमुद्धरन्ति मनीषिणः ॥ यथैव रजको वस्त्रं मलेनैव तु निर्मलम् । कुर्याद् विद्वांस्तथात्मानं मलेनैव तु निर्मलम् ॥ चित्तविशुद्धिप्रकरण, ३७-३८ । ५ तुलना -- न सोस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते । अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्वं शब्देन भासते ॥ १.१२३ ।। वाक्यप० । ६-७ वाक्यप० १.१२४ । २१ ... Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का०पृ०३४३, वि० पृ०३७३ स्थस्य शब्दस्यार्थाविनिर्भागज्ञापनाय । पूर्विखर इति । पूःशब्देन विखरशब्देन च देहेन्द्रियसङ्घात उच्यत इति । प्रसिद्धेन पूःशब्देन साम्यं दर्शयति-— स्थानेषु विधृत इति' । स्थानेषु ताल्वादिषु विधृते प्रतिहते वायौ सति तस्मान्निमित्तात् कृत आत्मलाभाय वर्णानामक्षराणां परिग्रह उपादानं यया । यतः प्राणाख्यस्य वायोर्वृत्तिर्व्यापारो निबन्धनं कारणमस्याः । [159A] प्रयोक्तृणामुच्चारयितॄणां सम्बन्धिनी' । [ या पुनरिति ] या पुनः बुद्ध्या (यु) पादाना बुद्धावेव प्रतिभासते न वैखरीवद् बहिः श्रोत्रेणापि सा मध्यमा । क्रमरूपानुपातिनी । वैखर्यास्तत्कार्यत्वात् तदवस्थाभाविनः क्रमस्यानुकारानुवर्तिनी । यादृशी मूर्तिरालेखयितव्या तथाविधै [द्धि]स्था निरूप्यते, एवं च स्थूलोऽपि शब्दः प्रथमं बुद्धौ निवेश्यः सक्रमश्वासौ, बुद्धिनिविष्टत्वमेव मध्यमत्वम् । एवं च वैखरीधर्मस्य क्रमस्यात्मसन्निवेशलक्षणस्य च पश्यन्तीधर्मस्यानुगमादुभयोर्वाग्धर्मयोर्मध्ये भावान्मध्यमात्वम् | [ प्राणवृत्तिमिति ] प्राणस्य प्राणाख्यस्य वायोर्व्यापारं हि स्वरूपनिष्पत्तयेऽतिक्रम्यावधीर्य प्रवर्तते सा । अविभागा तु पश्यन्ती । अविभागा अविद्यमानभेदा, विवक्षाया अभावात् । सर्वतः स्वात्मनो विषयाच्च संहृतस्तिरोधापितः क्रमो यया, तदवस्थयोर्वाच्यवाचकयोरुभयोरपि क्रमस्याप्रतिभासनात् । स्वात्मैव ज्योतिः प्रकाशोऽस्या न पुनर्वैखरीवत् परसंवेद्यापि । सूक्ष्मा' ज्ञेयेनार्थेनासंभिन्नाकारा ज्ञानप्रतिलीनाकारा वा । अत एवोभूतेन ज्ञानात्मना रूपेण पश्यति शब्द तत्त्वं न विवक्षयोपादत्त इति व्यापारायया सञ्ज्ञया ज्ञानानुस्यूता शब्दावस्था मध्यमावस्थायाः कारणमुक्ता । अनपायिनी' च सा विषयापगमेऽपि चिदवस्थाया अविचलनादिति । १-२ वाक्यप स्वो० वृत्तौ उद्धृता (१.१४३ ) । अस्यार्थः । स्थानेषु इति ताल्वादिस्थानेषु । वायौ प्राणसंज्ञे । विधृते अभिघातार्थं निरुद्धे सति । कृतवर्णपरिग्रहा इति हेतुद्वारेण विशेषणं ततः ककारादिवर्णरूपस्वीकारात् वैखरी संज्ञा "वक्तृभिर्विशिष्टायां खरावस्थायां स्पष्टरूपायां भवा वैखरीति निरुक्तेः । वाक् प्रयोतॄणां सम्बन्धिनी । यद्वा तेषां स्थानेषु तस्याश्च प्राणवृत्तिरेव निबन्धनं तत्रैव निबद्धा सा तन्मयत्वादिति । स्याद्वादरत्ना० पृ०८९ । द्र० स्प० का०विवृति ( रामकण्ठ) ४.१८ । ३-४ वाक्यप० स्वो० वृत्तौ उद्धृता (१.१४३) । अस्यार्थः । स्थूलां प्राणवृत्तिहेतुत्वेन वैखरीवत् अनपेक्ष्य केवलं बुद्धिरेव उपादानं हेतुर्यस्याः सा 'प्राणस्थत्वात् क्रमरूपमनुपतति । अस्याश्च मनोभूमाववस्थानं वैखरीपश्यन्त्योर्मध्ये भावात् मध्यमा वागिति । स्थाद्वादरत्ना० पृ०८९ । द्र० स्प०का०विवृति ( रामकण्ठ ) ४. १८ । ५-९ वाक्यप ० स्वो० वृत्तौ उद्धता (१.१४३) । अस्यार्थः । पश्यन्ती यस्यां वाच्यवाचकयोर्विभागेन अवभासो नास्ति सर्वतश्च सजातीयविजातीयापेक्षया संहृतो वाच्यानां वाचकानां च क्रमो देशकालकृतो यत्र क्रमविवर्तशक्तिस्तु विद्यते । स्वरूपज्योतिः स्वप्रकाशा वेद्यते वेदकमेदातिक्रमात् । सूक्ष्मा दुर्लक्ष्या । अनपायिनी कालमेंदास्पर्शादिति । स्याद्वादरत्ना० पृ० ९० । द्र० स्प०का०विवृति ( रामकण्ठ ) ४.१८ । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ का०पृ०३४७, वि०पृ०३७८ ] न्यायमञ्जरीग्रन्थिमङ्गः अथ तस्यां तथाविधायामवस्थायां शब्दरूपानुगमे किं प्रमाणमिति तदाहअलमतिप्रसक्तेति । तस्य चावयव(वि? )व्यवस्थाऽनुपपत्तेरिति । यथा प्रतिपादितं 'काले नदन्ति नागाः' इत्यत्र । प्रकृतिलघवः स्वभावत एव लघवोऽसाराः अस्थिराः । परं यदि सङ्कलनाद्यात्मिकायां कल्पनाबुद्धावारूढानां तेषां स्थितिर्न स्वरूपेण, क्षणिकत्वादिति । उखा स्थाली । पक्षद्वयप्रयोज्यत्वेनेति । दशैं हि त्रयः प्रयुज्यन्ते पूर्णमास्यां च त्रय इति । तथैन्द्रवायवं गृह्णातीति । सोमेन यजेतेति उक्तम् । तत्र कथं यजेतेत्यपेक्षायां 'ऐन्द्रवायवं ग्रहं गृह्णाति' 'आश्विनं ग्रहं गृह्णाति' इत्यादयः सोमग्रहग्रहणाभ्यासा उक्ताः । सोमरसो विशिष्टपात्रस्थः सोमग्रहस्तस्य देवतोद्देशेन यदादानं तद् ग्रहणम्, तेषां ग्रहणानां विशिष्टदेवतोद्देशेन बहूनां यानि सम्पादनानि तान्येव कृतस्य ग्रहणस्य पुनःकरणरूपतयाभ्यासाः । न[160A] ह्यभ्यासं विनाऽसौ सोमरस ऐन्द्रवायवमकृत्वा आश्विनः कर्तुं शक्यत इति, ते च क्रमभाविनः । ऐन्द्रवायवो हि तदा भवति यदेन्द्रवायुभ्यां सङ्कल्प्यते, सङ्कल्पश्च न यागं विना भवतीति प्रकृत्यंशो यागः; स च क्रमेण निर्वय॑मानोऽपि ज्योतिष्टोमाधिकारलक्षणं प्रधानाधिकारं निर्वर्तयतीति । अवान्तरापूर्वमिति । भट्टपक्षेऽवान्तरापूर्वं शक्तिरूपम्, प्रभाकरमते तु अवान्तराग्नेयादिनियोग एव । कुतस्तस्यानुपलभ्यमानस्य कल्पनेति चेत् तदाह-शब्दप्रामाण्यादिति । आग्नेययागस्य क्रियारूपत्वात् क्षणिकत्वेनान्यप्रधानयागकालेऽनवस्थितत्वेन फलनिवृत्तौ सहकार्ययोगात् तत्करणं निष्फलमेव प्रसज्येत । न च निष्फलं प्रमाणभूतशब्द उपदिशतीति तत्कल्पनम् । आग्नेयावयवभूतक्रियाक्षणानामिति । चतुरो मुष्टीनिर्वपतीति व्रीहीनवहन्ति तन्दुलान् पिनष्टीत्यादय आग्नेययागावयवाः क्रियाक्षणाः । अनुव्यवसायरूपमिति । बाह्येन्द्रियेण व्यवसितस्य निश्चितस्य अनु पश्चात् मानसं यन्निश्चयनं सोऽनुव्यवसायः । तन्निबन्धना भूयां 160B] सो व्यवहारा इति । यथा प्रदर्शितम् शतमाम्राणीत्यादिव्यव तिः । प्रामाणिकी व्यवस्था । सद्भावव्यतिरेकौ चेति । स्फोट .... .... क्रियतेऽसौ वर्णेभ्योऽर्थबुद्धिजन्मन्येव क्रियतां कल्पना ला "आवृत्त्या न तु स ग्रन्थः प्रत्यावृत्ति निरूप्यते" [वाक्यप०१.८२] इति । आवृत्त्या १ १६१ पत्रमस्ति खण्डितम् । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का०पृ०३५०, वि०पृ० ३८० अ .... .... ति प्रत्यावृत्तिनिरूपणमस्ति । उपलब्ध्यनन्तरसत्ताकाऽनादि .... स एव वा स्फोटादिति । शब्दस्यार्थप्रतीतिहेतोर्वर्णादि .... ... .... [161A] क्रमस्तु केषां क्रम इति । सापेक्षत्वात् सर्वथा .... .... .... .... शास्त्रकारा इत्यनेन निरुक्तकारयास्काचार्यान् परामृशति । अ .... ति । प्रक्रम्याभिधानात् श्रोत्रग्राह्यत्वविशिष्टमिति । गौरिति .... .... .... रिकल्पिता गकाराद्यारम्भकाः परमाणव उच्यन्ते । परशब्दे .... ..... .... इति कैश्चित् स्फोटशङ्किभिरिति प्राभाकरैः, भाट्टा हि गत्वादि ...... धानाभावात् । शब्दाध्यासस्त्विति । शब्दाकाराध्यारोपेणार्थस्य .... [ 161B ] [अंशाः सन्ति न सन्तीति । निरंशश्चेत् प्रमाणेनोपलभ्येत, तथाविधोपलम्भादेवांशाभावसिद्धेः किमंशाभावप्रतिपादनचिन्तया; प्रत्यक्षं चांशानामुपलम्भादिति । सादृश्यमिति चेदिति । यादृशा एव स्थानकरणादिसामान्यात् 'देवदत्त गामभ्याज' इत्यादौ वाक्येऽभिव्यञ्जका ध्वनयस्तादृशा एव 'गामानय' इत्यत्रापि वाक्ये इति ध्वनिसादृश्याद् यथा तत्र गोशब्दोऽस्त्येवमत्राप्यस्तीति भ्रमः । पदार्थपर्यन्ता भवति । आवापोद्वापकल्पनया 'रक्तः पटो भवति' इति महावाक्यम्, रक्ताख्येन गुणेन पटस्य सम्बन्धप्रतिपादनार्थम् ; अवान्तरवाक्यं तु 'पटो भवति' इति; स्वार्थश्चास्य पटसत्तासम्बन्धलक्षण इति । यत्र पदान्तराणामर्थ इति । यथा संत्रियतामपात्रियतामित्यस्यार्थेऽर्थप्रकरणादिलभ्ये द्वारमिति केवलं प्रयुज्यत इति । कार्यान्तराय रथावयवा इति । कार्यान्तरं रथादन्यत् काष्ठमात्रसाध्यं दर्शनं वा। वर्णा अपि कार्यान्तर इति । यथा अकारादयो विष्ण्वादिवाचकाः । वर्णा अपि के चि]दिति । पदे ये वर्णाः प्रकृतिप्रत्ययादयः स्वा[162A]र्थेन चार्थवन्तस्ते । यत् पुनः कूपम्पेति आह चयत् कूपसूपयूपेषु समानेऽप्यूपबन्धने । नास्त्यर्थानुगमः कश्चित् तन्न शब्दोऽपराध्यति ॥] नान्वयव्यतिरेकाभ्यामपूर्वार्थोऽवधार्यते । सङ्कीर्णेऽवगते ह्यर्थे ताभ्यां शक्तिर्नियम्यते ॥ इति ॥ [श्लो०वा० वाक्याधि० १६१-१६२] Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०३५८, वि०पृ०३८९] न्यायमञ्जरीग्रन्थभङ्गः सराम इति । आख्यातपक्षे प्रत्ययस्वरेणान्तोदात्तः पदद्वयपक्षे स इति प्रातिपा(प)दिकस्वरेणोदात्त: राम इति च "कर्षात्वतोञोऽन्त उदात्तः” [६।१।१५९ काशिका] इत्यन्तोदात्तः। सह रामया वर्तत इति तु बहुव्रीही पूर्वपदप्रकृतिस्वरेणाद्युदात्तः । शङ्काया अपि तत्कार्यहेतुत्वादिति । शङ्काविषेणापि मरणं दृश्यते यतः । अभ्यस्तत्वाद् विषयस्येति । अविनाभावस्मृत्यभावेऽपि रेखावगमसमनन्तरं वर्णावगतेः । बुद्धिर्वाच्यं [वाचकं वेति । घटमहं प्रतिपादयामीति वाच्यमुल्लिखन्ती, घटशब्दमुच्चारयामीति तु वाचकमुल्लिखन्ती। न प्रकाशवपुषो वाग्पता शाश्वती । नैव काचित् सम्भवतीत्यर्थः । तदेवाह-जातेऽस्मिन्निति । इति विततयेति । क्रमोपलब्धवर्णविषयया सङ्कलनारूपविततया । न च विधिहत इति । विधि[162B]ना दैवेन हतो यथा सकलसदुपलम्भकप्रमाणाविषयस्तद्वद् य इत्यर्थः । बहुना वा क्लेशेन तस्य निराकरणादाक्रोशः । अन्यथाऽप्युपपद्यमाना पदार्थेभ्योऽपि । एकमेव संस्कारमिति । पूर्ववर्णजनितसंस्कारः । पूर्ववर्णैर्यो जनितः संस्कारः स एव किमुभयं करोतीति । संसृष्टः पदार्थः समुदाय इति संसर्गवाक्यार्थपक्षे । इतरविशिष्टो वेतर इति भेदवाक्यार्थवादिमते। अन्त्यपदस्यान्यत्राचरितार्थत्वादिति । अन्त्यपदज्ञानोत्तरकालं हि न पृथगन्त्यपदार्थप्रतिपत्तिरस्ति तस्यैव वाक्यार्थत्वादिति । कथं भवानित्यादिना भट्टमुपालभते-स्वभावहेतुवादिन इति । स ह्यभिन्नयोरेव भावयोर्गम्यगमकभावमाह । सामान्यान्यन्यथाऽसिद्धेविशेषरहितानि सामान्यान्यसिद्धयन्ति विशेषमाक्षिपन्तीति अर्थः । न चानुमानमेषा धीरिति । न चानुमानमेषा धीस्तन्मात्रेण प्रसज्यते । प्रतिज्ञार्थंकदेशत्वात् पदार्थानां ह्यलिङ्गता ॥ पदार्थैरनुरक्तो हि वाक्यार्थः सम्प्रतीयते । नात्मना गमयन्त्येनं विना धूमोऽग्निमत्त्ववत् ॥ १ श्लोव्वा अर्थापत्ति, ७० । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ काल्पृ०३५९, वि०पृ०३९० पक्षधर्मत्वमेतेषां[163A] वाक्यार्थे च न गम्यते । न हि देशादिवत्पूर्वं निष्पन्नः सम्प्रतीयते ॥ असत्त्वभूतमेनं हि प्रतिपद्यामहे ततः । इत्यादिना। [श्लो०वा. वाक्याधि. २३२-३५] किमिदानीमर्थापत्तिगम्यो धर्म इति । धर्मस्य वाक्यार्थत्वाद् भवन्मते स च प्रमाणान्तरागोचरः शब्दैकप्रमाणगम्य इति यूयं स्थिताः। आनुमानिकोऽयं प्रत्यय इति । श्वेतरूपदर्शनादीनामश्वतद्भावभावित्वेनासकृद्दर्शनात्' । तत्स्मृतिकाले पदार्थज्ञानोपजनादिति । अविकलकारणस्यानुत्पत्तौ हेत्वभावात्, तस्य ह्युत्पत्तौ सङ्केतस्मरणोपकृतं पदज्ञानमविकलं कारणमिति ।। स्वस्ति तर्हि न्यायविस्तरायेति । न्यायविस्तरो न्यायशास्त्रम्, तद्धि शब्दानित्यत्वप्रतिपादनाय, आप्तोक्तत्वेन वेदप्रामाण्यसमर्थनात्; असंवेद्यमानस्य चास्तित्वे सामान्यादिवन्नित्यत्वापत्तिः । सत्यपि वा पुनः तदवगम इति । पदज्ञानानन्तरपूर्वपदसङ्केतस्मरणयोरवश्यमुत्पादात् । ___ अथ सार्थकानि स्मर्यन्ते तहि समयस्मरणेति । पदज्ञानानन्तरं हि यदैव सङ्केतस्मरणं तदैव पदार्थज्ञानमपि प्राप्नोति, सङ्केतस्मरणोत्तरकालं तु[163B] तदभ्युपगमेऽन्त्यपदनीत्या पदज्ञानस्य विनाशात् पदशून्यः पदार्थप्रत्ययः स्यादिति समयस्मरणपदार्थज्ञानयोः साकय युगपदुत्पत्तिः । 'स्व विषय]वच्छेदेन पदार्थज्ञानमिति । गोशब्दाद्धि गोशब्दवाच्यत्वेन सास्नादिमानर्थोऽवगम्यते न केवलं सास्नादिमत्त्वेन । तस्मिन् स्मरणे तथाऽन्त्यपदार्थज्ञान इति । अन्त्यपदार्थज्ञानस्यापि वाचकावच्छेदेनैवोत्पत्तेः । न बुद्धिमात्रेण बुद्धिमात्रमिति । सङ्केतस्मरणं हि संस्कारकार्य न पदज्ञानकाथमिति मन्यते । त्रीणि ज्ञानानि युगपदवतिष्ठन्त इति । पदज्ञानस्य तावद् विनश्यदवस्थस्य त्वथैव सत्ताऽभ्युपगता सङ्केतस्मरणस्य च पदार्थज्ञानोत्तरकालं विनाशादिति सत्यपि पूर्वपदानुराग इति । यथा चार्ष(यथाचार्य) मतव्याख्यानावसरेऽव्यपदेश्यपदे दण्डीत्यादीनां शुद्धपुरुषालम्बनत्वं प्रतिपादितमिति । तथाविधस्य गृही १ श्लोव्वा वाक्याधि० ३५८ । २ द्र० पृ० ४४ टि. १ । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०३६८, वि०पृ०४००] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः १६७ तत्वादिति' । अतस्तादृशस्य ज्ञानात् सङ्केतस्मरणानुपपत्तिः । शङ्करस्वामी न्यायभाष्यटीकाकृत् । राज्ञा तु गहरेऽस्मिन्निति । कश्मीरे क्वचित् खसदेशे चिरकालमारण्यान्या मसौ श्रीशङ्करवर्मणो राज्ञ आज्ञया[164A]स्थितवानिति वार्ता ॥ यथैव व्युत्पत्तिरिति । स्मर्यमाणानामेव प्रत्याय्यप्रत्यायकत्वं सङ्केतग्रहणकाले गृहीतमिति । किं पूर्वपदतदर्थविषयेणेति । अन्त्यपदार्थस्य पूर्वपदार्थान्वितस्यैव प्रतिभासनादित्यन्विताभिधानाभिप्रायेण चोद्यम् । अथवा भट्टाभिप्रायेण अन्त्यपदार्थश्चेत् ज्ञातस्तत्पदैर्यत् कर्तव्यं तत् कृतमेव समाप्तः [पदव्यापारः] । पदव्यापारोत्पन्नपदार्थस्त्वाकाङ्क्षादिक्रमेणेतरपदार्थैः संसृज्यमानो वाक्यार्थतामासादयतीति एकाकारो हि वाक्यवाक्यार्थप्रत्यय इति । सङ्कलनाज्ञानेन विना भिन्नानां पदतदर्थानामेकाकारप्रत्ययजनकत्वासम्भवात् । भिन्ना ह्येकं किञ्चित् पूलीकारकं विना कथमभिन्नप्रतीतिविषयतामुपेयुः वृक्षा इवैकदेशपूलीकृता वनप्रत्ययस्य । __अन्यथा पदानां वाक्यत्वायोगादिति । वाक्यात् संसर्गस्य प्रतीतेः पदानां तदनभिधाने वाक्यत्वायोगः । न सर्वेषां वाक्यार्थे व्यापारः स्यात्, वाक्यार्थस्य संसर्गस्वभावत्वात् । न वैयाकरणवन्निमित्तान्यपीति । निमित्तानि पदतदर्थाः; यदुक्तम् “शाब्दैस्तु निमित्तमप्य[164B]पझुतम्” इति [ ]। य(प)दपदार्थानां वाक्यार्थप्रतिपत्तावगृहीतसङ्गतीनामपि व्यापारान्निमित्तशब्देनाभिधानम् । फलत इयं तत्र तत्रेति । पुरुषाकाङ्क्षोत्थापकत्वाच्छब्द आकाङ्क्षतीति कथ्यते । शब्दाख्यप्रमाणपृष्ठेनेति । शब्देनाकाङ्कायोग्यानामर्थानां प्रतिपादनाच्छब्द एवाकासाजनकः । तत्रापि बाधकानुपसर्पणादिति । अङ्गुल्यग्रादिवाक्येऽपि यच्छाब्दं कर्म शब्दव्यापारः समन्वयप्रतिपादनं तत्र नास्ति बाधकम्, शब्दोच्चारणमूलभूतज्ञानविषयत्वाद् बाधकस्य । १ मुद्रितन्यायमञ्जयां तु 'तादृशस्यागृहीतसम्बन्धत्वात्' इति पाठः । २ अन्विताभिधानवादिनः प्राभाकराः । 'पदेभ्य एव वाक्यार्थप्रत्ययो जायते यथा । तथा वयं निबध्नीमः प्रभाकरगुरोर्मतम् ॥।॥ पदैरेवाऽन्वितस्वार्थमात्रोपक्षीणशक्तिभिः । स्वार्थाश्चद् बोधिता बुद्धो वाक्यार्थोऽपि तथा सति । प्रधानगुणभावेन लब्धान्योन्यसमन्वयान् । पदार्थानेव वाक्यार्थान् सङ्गिरन्ते विपश्चितः ॥३॥ प्रकरणपं०, वाक्यार्थमा०१ । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का पृ०३६९, वि०पृ० ४०१ __ भवताऽन्विताभिधानमभ्युपगतमिति । ननु तात्पर्यशक्त्यनेभ्युपगमेऽप्यन्विताभिधानाभ्युपगमे को दोषः ? इत्याह-तच्च न युक्तमिति । सर्वत्राभिधान्याः शक्तेरविशेषादिति अन्विताभिधानाभ्युपगमे हि एकैकस्य सर्वार्थाभिधानशक्तिरविशिष्टा, अन्यथाऽभिधानाभावप्रसङ्गात् । ततश्च पदार्थयत्तावधारणं पदान्तरोच्चारणसाफल्यं च न सिद्धयति । तात्पर्यशक्त्यभ्युपगमे ह्येतावत्यभिधात्र्येव शक्तिर्न तात्पर्यशक्तिरित्यभिधातृशक्त्य[165A] पेक्षया पदार्थयत्तासिद्धिः, अत एव पदान्तरोच्चारणमपि सफलम् । तदन्वितार्थप्रतिपादनेऽभिधात्र्याः शक्तेरव्यापृतेरेकरूपशक्त्यभ्युपगमे तु किमपेक्षया नियमः ? किञ्च पदान्तरोच्चारणस्य फलमिति सर्वत्राभिधात्र्माः शक्तेरविशेषादिति यदुक्तं तदेव 'येनान्वितमभिवदति' इत्यादिना दर्शयितुमाह अन्वीयमानाभिधानमिति । पदार्थान्तरेणान्वयं गच्छन् पदार्थः पदैरभिधीयत इत्यत्र पक्षेऽन्वितस्यानभिधानात् पदार्थनियमानवधारणपदान्तरवैफल्यादिदोषानवकाशः । अभिधीयमानान्वयेति अभिहितान्वयपक्षे च यो दोषो वाक्यार्थस्याशाब्दत्वं सोऽप्यत्र नास्ति । अभिधीयमानानां शब्दैः प्रतिपाद्यमानानामभिधाविषयत्वमजहतां हि योऽन्वयः स कथमशाब्दः स्यादिति तदभिप्रायः । यत एव वान्वयं गच्छन्तः शब्दैरभिधीयन्ते अत एवाभिधीयमानानामन्वयः । अभिधानक्रिया चान्येति। अस्मिन् हि पक्षे शब्दश्चाभिदधदर्थश्चार्थान्तरेणानुलभ्येत (णानुयन् उपलभ्यते), तयोश्चोपलम्भः क्रमेण युगपद्वेतिः। दोषाः पक्षद्वयस्पृ165B]श इति । अन्वीयमानाश्चेदभिधीयन्ते तदेकेनैव पदेनेतरपदार्थान्वीयमानस्याभिधानात् पदान्तरनैरर्थक्यमित्यादि समानम्; अभिधीयमानानां चान्वये पुनरप्यशाब्दत्वम्, शब्दव्यापारस्य शुद्धाभिधानक्रियायामेवोपक्षीणत्वात् । दोषोऽन्विताभिधाने य इति । क्रियापदेन कारकसामान्यान्वितस्वार्थप्रतिपादनात् कारकपदनैष्फल्यादि समानम् । अथ कारकविशेषप्रतिपत्तये कारकपदोच्चारणं तत्राप्याह-दोषस्तुल्यो विशेषेऽपीति । पदानां सामान्यप्रतिपत्तावेव चरितार्थत्वाद् विशेषप्रतिपत्तेस्तद्वदेवाशाब्दत्वम्; विशेषान्वयस्यैव वाक्यार्थत्वादिति । न त्वन्वितमभिदधति एकैकशः । अन्यथैव प्रवर्तन्त इति । दूरात् सामान्यमात्रग्रहणे नियतव्यक्तिपरिच्छेदकारित्वाभावादपूर्णार्थप्रदर्शकत्वम् ।। सेयं व्युत्पत्तिमूलेति । [166A] पदानां या स्वार्थे व्युत्पत्तिः सङ्केतग्रहणं सैव मूलम्, तत उद्भूतेः । पदविसरा: पदसमुदायात् समुद्भिद्यमाना प्रक १ तात्पर्यशक्तिस्तु नैयायिकैः स्वीकृता । २ भाट्टाः शबरस्वामिप्रभृतयश्चाभिहितान्वयवादिनः । पदानि हि स्वं स्वं पदार्थमभिधाय निवृत्तव्यापाराणि । अथेदानी पदार्था अवगताः सन्तो वाक्यार्थ गमयन्ति । शाबरभा० १.१.७.२५ । पदार्थः पदविज्ञातैः वाक्यार्थः प्रतिपाद्यते । तन्त्रवा० २.१.१४.४६ । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का पृ०३७७, वि०पृ०४०९] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः टीभवन्ती अङ्कुररूपाद्यवस्था यस्याः, पदानां तत्प्रतिपत्तिकारणत्वाव्यभिचारात् । संस्कारश्च पदार्थप्रतिपत्तौ सन्निकृष्टोपायत्वात् पत्रतया रूप्यते । पदार्थैः कुसुमचयवती, पदार्था एव कुसुमचयः पूर्वापेक्षया फलं प्रतिपत्तिः आसन्नत्वात् । . वेदस्य नान्यत' इति । अन्यतोऽपि रागादिमान् न वेत्ति, तस्यापि रागादिमत्त्वेन तत्तुल्यत्वात् । ___ अवीचिकेदारकुटुम्बिनमिति । अवीच्याख्यनरकक्षेत्रस्वामिनं तत्सम्बद्धमित्यर्थः । निसर्गत एवाक्षतकण्ठाः । व्याकरणादिपाठेन न क्षतः कण्ठो येषाम् । तदनुचरोऽपीति । भार्यादासादिर्येन सहासावालपति । क्व प्रकरणे पठिताविति । प्रयाजादिवत् । अथ न प्रकरणपरिपठितौ तत्किमनारभ्याधीतौ[166B] 'यस्य पर्णमयी जुहूः' [तैत्ति० सं० ३.५.७.२.] इत्यादिवत् । क्लप्ताधिकारौ 'चित्रया यजेत' [तैत्ति०सं० २.४.६.१] इतिवत् । कल्प्याधिकारौ वा विश्वजिद्वत् । असाधुरनुमानेनेत्यस्य पक्षान्तरप्रतिपादकमुत्तरमर्धम्____"वाचकत्वाविशेषेऽपि नियमः पुण्य-पापयोः” वाक्यप० ३.३.३०] इति । अनुमानेन असाध्वनुमितात् साधोरर्थप्रत्यय इति । । विशिष्टक्रियाकरणत्वमिति । अभिधानलक्षणां विशिष्टां क्रियां जनयन् शब्दो वाचकः, न प्रतीतिमात्रजनकत्वेन, तां च तादृशीं क्रियां साधुरेव जनयति नासाधुरिति । पारिभाषिकत्वप्रसङ्गादिति । एवंविधस्य साधुशब्दार्थस्य लोकेऽप्रसिद्धः। लवणोपयोगापनीतड्विकारोऽपीत्यनेनास्मद्विलक्षणस्वभावत्वं तस्य आह; अस्माकं हि लवणोपयोगात् तृड् वर्धते इति । नासाधोरप्रसङ्ग इति । अन्यनिवृत्तिफलो हि नियमो भवति । साधुः स्ववाचको भण्यते असाधुस्त्ववाचकस्ततस्तस्यावाचकत्वादेवासाधोरप्रसङ्गात् किं नियमेन ? इत्यर्थः । अथ प्रमादाशक्तिकृतेति । प्रमादकृतः 'अस्मकेभ्यः आगच्छामि' इति वक्तव्ये 'अस्मकैः आगच्छामि' इत्याह, [167A] अशक्तिकृतः 'कुमारी ऋतकः' इति १ प्र०वा०३.३१७। २ मुद्रितमञ्जयां तु 'ज्वालायोगोपनीत” इति पाठः । ३ तन्त्रवा० १.३.८.२४। २२ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० भट्टश्रीचक्रधरप्रणातः [का०पृ०३७७, वि०पृ०४०९ वक्तव्ये '[कुमारी ल]तक' इत्याहे । ऋतावुपेयादिति । अस्य हि ऋतावुपगमोऽवश्यकर्तव्य इत्यर्थो न तु अनुतुगमनप्रतिषेधः, 'पर्ववर्ज व्रजेच्चैनाम्' [ ] इत्यादिना विरोधात् । तत्र चान्यत्र च प्राप्तेः इत्यस्य पूर्वमर्धम्-'"विधिरत्यन्तमप्राप्ते नियमः पाक्षिके सति" [ ] इति । ___ यश्चार्य स्वर्ग लोके इति । “एकोऽपि शब्दः सम्यक् प्रयुक्तः स्वर्गे लोके कामधुम् भवति" [ मन्त्रो हीनः स्वरतो वर्णतो वा मिथ्याप्रयुक्तो न तमर्थमाह । स वाग्वज्रो यजमान हिनस्ति यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात् ॥ [पाणिनीयशिक्षा ५२] इति स्तुतिनिन्दावाक्ये । परार्थत्वस्य अर्थप्रत्यायनार्थत्वस्य । निष्कारणः षडङ्गो वेदः' इति । निष्कारणो दृष्टपशुपुत्रादिकारणमनपेक्ष्यावश्यन्तया इत्यर्थः । [अनितरेतरेति अनितरेतरसाध्योपकारनिर्वर्तकत्वं शिक्षादीनां प्रथमत एवं दर्शितम् । सर्वथा नास्ति व्याकरणप्रयोजनम् , तथा च निष्कारणशब्देन तदेव प्रयोजनरहितत्वमुक्तमिति । पूर्वपक्षवादी कुशकाशावलम्बनेनापि स्वार्थसिद्धिमाह; तदेव निष्कारणषडङ्गवेदाध्ययनविधौ चेत्यादिना प्रदर्शितम् । श्रुतिलिगादी[167B]........स बभूवेति । यो जनो कां दिशं प्रपद्ये इति बुद्धिं संश्रितः कान्दिशीक उच्यते, न चास्य शब्दस्य व्युत्पादकं किञ्चिल्लक्षणमस्ति । भ्राजेच तच्छीलादिषु 'इष्णु'-प्रत्ययो मुनित्रयेणापि न दृष्ट इति तदपेक्षया भ्राजिष्णुरियसाधुः । गणनीयो गण्य इति च गणयतेः “अचो यत्" [पा० ३.१.९७] इति यति “णेरनिटि" [पा० ६.४.५१] इति णिलोपे सति भवति, तत्र प्राप्तस्य णिलोपस्याकरणाद् गणेय इत्यसाधुः । वरेण्यशब्दश्च स वरणीयो वरेण्य इति कृत्यप्रत्ययसमानार्था(थ)तया 'पुण्यो महाब्रह्मसमूहजुष्टसन्तर्पणो नाकसदां वरेण्यः' इत्यादौ यौगिकत्वेन प्रयुज्यते न च तथा व्युत्पादकमस्य समस्ति । एतच्च उणादिप्रेत्याख्यानपक्षाश्रयेणोक्तम् । अप्रत्याख्यानेऽपि वा 'अवद्यपण्य[वर्या' [पा० ३.१.१०१] १ अशक्तिजानुकरणार्थः-अशक्त्या कयाचिद् ब्राह्मण्या 'ऋतक' इति प्रयोक्तव्ये 'लतक' इति प्रयुक्तम् । तस्यानुकरणं ब्राह्मण्य्लतक इत्याह कुमालतक इत्याहेति । महाभाष्य १. १. २.२ । २. महाभाष्ये ( पृ० ३४) उद्धतम् । ३. महाभाष्ये (पृ० २१) आगमः उद्धृतः। ४ 'भुवश्च' [ पा० ३.२.१३८ ] इति सूत्रेण 'भ्राजिष्णुः' सिद्धथति इत्येतद्धयेयम् । द्र० काशिका । ५ द्र० 'वृज एण्यः' उणादि ३. ३८५ । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का० पृ०३८१, वि० पृ०४१३ ] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः इति सूत्रस्यानर्थता दृष्टा । अथ चौणादिकानां रूढिशब्दत्वाद् व्युत्पत्तिनिमित्ततयैव तत्र क्रियाकारकसम्बन्ध आश्रीयते, न प्रवृत्तिनिमित्ततया अपि मा भूद् गमनक्रियायोगात् पुरुषादावपि गोशब्दप्रवृत्तिप्रसङ्ग इति, तदयं यद्यपि वरेण्यशब्द उणादी सिद्धयति तथापि यस्तत्र सिद्धयति स क्वचिदेव य [ 168A]. कृतिर्न शब्दस्य | "6 दम्भेर्हल्ग्रहणस्येति' । “ हलन्ताच्च" [ पा० १.२.१०] इत्यत्र सूत्रे हलन्तो हलवयवो य इकू, ततः परस्य सनः कित्वं भवतीत्यमुं पक्षं " कथं हि इको नाम [ हलन्तः ] स्यादन्यस्यान्यः ?" [महाभाष्य १.२.१०] इति निराकृत्य समीपवचनमन्तशब्दमाश्रित्य इको यो हल् अन्तः समीपस्ततः परस्य सनः कित्त्वमिति सूत्रार्थी व्याख्यातः । एव[मेव ] पुनर्वीप्सतीत्येतदुदाहरणाभिप्रायेण चोदितम् । “ एवमपि दम्भेर्न सिद्ध्यति । यो ह्यत्र इक्समीपो हलू न तस्मादुत्तरः सन्, यस्माच्चोत्तरः सन् नासौ [इक्समीपे ] " [महाभाष्य १.२.१०] इति । तत एतच्चोधपरिहाराय वार्तिकं पठितम् – “ एवं तर्हि दम्भेर्हल्ग्रहणस्य जातिवाचकत्वात् सिद्धम् " [वार्तिक १.२.१०] 'हल्' इति हल्जातिर्निर्दिश्यते इक उत्तरा या हल्जातिरिति” [महाभाष्य १.२.१०] । आन्यभाव्यं तु कालशब्दव्यवायादिति । तत्रानुवृत्तिनिर्देशे " अस्य च्चौ" [पा० ७.४.३२] इत्यादी अक्षरसमाम्नायिकस्याकारस्याभावात् सवर्णग्रह[णमा]प्नोति अणत्वात् तस्याकारस्य ततश्च मालीभवति इत्यादौ ईत्वं न प्राप्नोति अणि सवर्णान् गृह्णाति । आकारसमाम्नायिकश्च अण- इतरस्तदुक्तम्- "अनुवृत्तिनिर्देशे [173A] सवर्णाग्रहणम् अनत्वात् ” [ वार्तिक १.१.२.१] इति । एवं चोदयित्वा " एकत्वादकारस्य सिद्धम् " [वार्तिक १.१.२.१] इत्यादिना सर्वाकाराणामेकतां प्रतिपाद्य पुनरभिहितम् " आन्यभाव्यं तु" [वार्तिक १.१.२.१] इति । सर्वाकाराणामान्यभाव्यं भिन्नत्वम् । कुतः ? कालव्यवायाच्छब्दव्यवायाच्च । दण्ड अग्रम् इत्यत्र एकमकारमुच्चार्य कालव्यवायेन द्वितीयो [sकारः ] । तथा दण्ड इत्यत्र णकारडकाव्यवधानेनोच्चारणमकारस्य दकारपरोच्चारितस्य । भिन्नानां च कालशब्दव्यवधानं दृष्टं नाभिन्नानामिति । य[थाऽसंहितायां अ इ उ इत्यादीनां भिन्नानां कालव्यवायः । दृतिरित्यत्र च भिन्नयोः ऋकारेकारयोः तकारेण शब्देन व्यवायो १७१ १ १६८ ब-गतान्यक्षराण्यवाच्यानि । १६९-१७२ पत्राण्यनुपलब्धानि । २ द्र० महाभाष्य १.२.१० । वार्तिकमेतत् । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का०पृ०३८१, वि०पृ०४१३ दृष्ट इति' । क्लेशेन समा[ से]ति । दुरुपपादः समास एव तावदत्र क्लेशेन कल्प्यः , तस्मिंश्च कल्पिते समाससंज्ञया गुणवचनसंज्ञाबाधो बलादायातीति । तथाहि यद्यन्य[भावः ] भवतीति । भावश्च अन्यभाव इति एवं समासः क्रियते तद्वास्तवगुणवचनत्वाभावाद् ब्राह्मणादिगणापाठाच्चास्य ष्योऽनुत्पत्तिः भवनं भावे[173B]नेत्युक्तम्अविश्च अविकश्चेति द्वन्द्व समासे सुपो लुक्प्राप्तः । अन्यथाकृत्वा चोदतमिति । तत्र तत्र प्रदेशे चोद्यानुगुणं परिहारमपश्यन् भाष्यकारो 'अन्यथाकारं चोदितमन्यथाकारं परिहारः' इति वक्तव्ये “अन्यथा कृत्वा चोदितमन्था कृत्वा परिहारः" [ महाभाष्य १. १. २. २.] इति ब्रवीति । “अन्यथैवंकथमित्थं पु सिद्धाप्रयोगश्चेत्" [ पा० ३. ४. २७ ] इत्यनेन हि सूत्रेणात्र णमूल प्राप्नोति । गतार्थत्वात् प्रयोगानर्दोऽपि यः प्रयुज्यते स सिद्धाप्रयोगस्तादृशश्चात्र करोतिर्यावदेवोक्तं भवति अन्यथा चोद्यमन्यथा परिहार इति भा(ता)वदेवोक्तं भवति अन्यथा कृत्वा चोदितमन्यथा कृत्वा परिहारः इति । [ ज्ञातारः इति] 'ज्ञातारः सन्ति मम' इति वाच्ये 'ज्ञातारः सन्ति मे ' इत्युक्तम् । 'अक्षिणी अक्त्वा' इति च वाच्ये 'अज्य' इत्युक्तम् । 'अभिघ्राणम्' इति वक्तव्ये 'अभिजिघ्राणम्' इत्याह । 'यदन्तरं सिंह-शृगालयोर्वने तदन्तरं तव च राघवस्य च' इति वाच्ये छन्दोवशात् 'तुभ्यं च राघवस्य च' इत्यभ्यधात् । 'जन्मनि' इति प्रयोक्तव्ये 'जन्मे' इत्युक्तम् । “अन्तो १ "आन्यभाव्यं त्वकारस्य । कुतः ? कालशब्दव्यवायात् । कालव्यवायाच्छब्दव्यवायाच्च । कालव्यवायात्-दण्ड अग्रम् । शब्दव्यवायात्-दण्डः । न चैकस्यात्मनो व्यवायेन भवितव्यम् ।" महाभाष्य १.१. २. १। इह कालशब्दाभ्यां व्यवधानं भिन्नानां दृष्टम् । यथाऽसंहितायाम् अ इ उ इत्यादीनां कालव्यवायः, दृतिरित्यादौ शब्दव्यवायः । तत्र तकारेण ऋकारेकारयोर्व्यवधानात् । एकत्वे तु व्यवधानं न दृष्ट यथा अ इति केवलाकार उच्चार्यते, तस्मादुदात्तादिगुणभेदात् कालशब्दव्यवायाच्च नानात्वमकारस्य । महाभाष्यप्रदीप १. १. २.१ । २ ग्रन्थिरयं मुद्रितमञ्जयां नास्ति । ३ अत्र क्लेशेन समासं कल्पयित्वा ततः समाससंज्ञया गुणवचनसंज्ञायां बाधितायां 'गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः' [ पा. ५. १. १२४ ] इति लक्षणेनासंसृष्ट एव ष्यप्रयुक्तः भाष्येऽप्यविरविकन्या. येनेति द्वन्द्वगर्भे तत्पुरुषे पूर्वसमासपूर्वपदस्थायाः सुपः 'सुपो धातुप्रातिपदिकयोः' [पा०२.४.७१] इति प्रत्यक्षोपदिष्टोऽपि लुक न कृतः । तन्त्रवा० प्र० २६०। ४ 'अन्यथैवं कथम्' इत्यन्वाख्यातसाधुत्वोऽपि णमुल न प्रयुक्तः । तन्त्रवा० पृ० २६०। ५ तथा मनुनाऽपि 'ज्ञातारः सन्ति मेत्युक्त्वा' इत्यत्र 'सन्ति मे इत्युक्त्वा' इति वक्तव्ये व्याकरणमनपेक्ष्यैव संहिता कृता। तन्त्रवा० १.३. ८. २४. (पृ० २५९)। ६ आज्येनाक्षिणी आज्य इत्यसमासेऽपि प्रयुक्तः । तन्त्रवा० प्र २५९। ७ गृह्यकारेण मूर्धन्यभिघ्राणमिति वक्तव्ये मूर्धन्यभिजिघ्राणमित्यविषये जिघ्रादेशः प्रयुक्तः । तन्त्रवा० पृ०२५९ । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ का पृ०३८२, वि०पृ०४१५] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः नास्त्यपशब्दानाम्" इत्यस्योत्तरमर्धम् -- "तथोभाभ्यादिरूपाणां हस्तिशिक्षादिकारिणाम्" [तन्त्रवा० १. ३. ८.२४] इति । हस्तिशिक्षा[174A]कारिणो हि पालकाप्यादयः उभाभ्यां दन्ताभ्यां यः प्रहारस्तमुभाभ्यशब्देन व्यवहरन्ति, न च तस्य लक्षणेन सिद्धिरस्ति । 'सामान्यविशेषवता लक्षणेनोत्सर्गापवादरूपेण लक्षणेन शास्त्रेण । कथं ? प्रकृत्यादिविभागकल्पनयेति । असतामपि प्रकृतिप्रत्ययादीनां या विभागकल्पना 'अयं प्रकृतिविभागः अयं प्रत्ययः' इति बुद्धया समुल्लेखनतया । 'प्रकृत्यादिविभागकल्पनया' इत्यत्र यद् वक्तव्यमिति । प्रकृत्यादीनां पारमार्थिकत्वात् काल्पनिकत्वाभावात् । तथा च गण्डतीत्यपि प्राप्नोतीति । गण्डशब्दसिद्धयर्थं तस्य प्राङ्नीत्या 'गण्डति' इति स्वमतिकल्पितं रूपं साधु प्रसज्येतेति गण्डतीत्येवमादीनामपि साधुत्वं प्राप्नोति । 'घटं भूयत इति च' इति प्राभाकरी टीका साधुशब्दाधिकरणे तत्र घटभूयत [इति] फक्किका व्याख्यातुमाह--"घट चेष्टायाम्" इत्यादिना । घटश्च अम् च भूश्च यश्च तश्चः घटंभूयत् । तस्माद् घटंभूयतोऽपि प्राप्नोति प्रातिपदिकेभ्योऽपि घटादिभ्यः प्रत्ययास्तिङादयः प्राप्नुवन्तीत्यर्थः । अत्र च 'धटम्' इति 'अमः' द्वितीयैकवचनानुकरणत्वात् प्रकृति[ 174B]प्रत्ययाः । कालाधुपचय(पाधयः) इति । लिट्तोद्व(लिङ्लोड्न)र्जिताः कालोपाधयः यदा धात्वर्थः कालविशिष्टो भवति तदा तथाविधे धात्वर्थे वर्तमानाद् धातोस्ते विधीयन्ते न पुनस्तैरसौ कालः प्रतिपाद्यत इत्यर्थः । अनुक्तेषु कालादिष्विति । अयमर्थः-प्रत्ययस्तावत् कालवचनो नाङ्गीकृतः, धातोश्च क्रियामात्रावगतिः, तद्भतादेः कालस्यानवगमादयं नियमो “वर्तमान एव लट्' [पा० ३.२.१२३]इत्यादिको निरूपयितुं व्यवस्थापयितुं न शक्यते । तदर्थावगतिपूर्वकत्वादस्येत्यर्थः । उच्यतां तर्हि कालादय इति । वृत्तिकृन्मतमाशङ्क्याह-न, भाष्यविरोधादिति । अथास्तु क्रियावद् धातुवाच्यत्वमेव भाष्यविरोधाद् भूतादीनाम् । तदपि च कुतः ? भाष्यविरोधादेव । तदायुभयोः धात्वर्थत्वम्, न चैकस्यैव विशेषणविशेष्यभावः उपपद्यते । तदाह --न च धात्वर्थेनैव धात्वर्थ इति । यदि हि प्रत्ययेन भूतादिर्न प्रतिपाद्यतेऽपि तु धातुनैवेति मतं तदानी क्रियावत् कालोऽपि धात्वर्थः प्राप्नोति, न च स एव धातुवाच्यः कश्चित् क्रियारूपो व्यवस्थाप्यो विशेष्यः कश्चिच्च व्यवस्थापको विशे[1 75A]षणं(ण)कालः; एकशब्दवाच्यस्य द्वैरूप्यादर्शनात् । दण्ड्यादौ हि दण्डशब्देन विशेषणं दण्डः प्रतिपादितः इना तु विशेष्यः पुरुषो १-२ काशिका० पृ०१ । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का०पृ०३८२, वि०पृ०४१५ न तूभौ दण्डशब्देनैवेति । स च विधिरूपोऽर्थः स्वरूपत इति । विधिशब्देन तैः श्रेषः प्रतिपादितः, तत्र विधिनिमन्त्रणामन्त्रणाधीष्टेष्वपि चतुर्वपि प्रेरणारूपस्यानुगमात् कथं निश्चीयेत अयं प्रैषः, इदं निमन्त्रणम् ? इत्यादि । अथोपाधिभेदात् तेषां भेदो व्यवस्थाप्यते । ते च समहीनज्यायोमनुष्यप्रतिपादकपदविशेषा उपाधयः, तद्वशादयं प्रैषे लिङादिर्व्यवस्थाप्यते इति । यदि चैवं तेषामों व्यवस्थाप्यते तवं व्यवस्थाप्यमानो योऽर्थः पदान्तरसन्निधानवशात् स तेषामर्थो न भवति । यथा 'अश्वमानय गमिष्यामस्तेन' इति पदान्तरयोगाद् योऽश्वार्थों लब्धः स यथा अश्वशब्दार्थो न भवति तद्वदिति । यदेकस्यां क्रियायां कारकमिति । न हि गमेः कार्ता(कर्ता !) पचतीत्यत्र प्रतीयते । क्रियया सर्वकारकाण्यभिप्रेयन्ते सम्बध्यन्ते । न चोपाध्यायेति । क्रियया यदभिप्रायणं सम्बन्ध उपाध्यायस्य तत्रासौ न व्याप्रियते । अथासौ प्रतिगृह्णा[175B]त्येतदेवास्य व्यापृतत्वम्, नेत्याह ... प्रतिग्रहस्त्विति । तत्र चोक्तम् । नान्यत्र क्रियायां कारकमन्यत्र भवति, अतिप्रसङ्गादिति । क्रियया चाभिर्य(य ?)माणमिति । सूत्रे हि कर्मणा [ददा]तिकर्मणः क्रियायाः करणत्वेन निर्देशाद् 'यम्' इति च द्वितीयया ईप्सिततमस्य कर्मणो निर्देशात् फलं कर्म भवति कारकं यजेरिव स्वर्ग इत्यर्थः । परस्परापेक्षया पुनः स्वरूपसायमिति । स्थाल्यां पचतीति अनासत्यपि कळधारत्वेऽधिकरणत्वम् कटे आस्त इत्यत्र चासति कर्माधारत्वे इति । यदि कत्रधिकरप्पत्वं लक्षणमाश्रीयते तदा स्थाल्यां पचतीत्यत्रासत्यपि प्राप्तं कर्माधिकरणत्वमप्याश्रयणीयम्, कर्माधिकरणत्वे लक्षणे कट आस्त इत्यत्रासङ्ग्रहात् कत्र(त्र)धिकरणत्वमप्यपेक्षणीयमिति श(स)ङ्करः । कारकं च क्रिययाऽऽस्तुमिष्टतममिति । तथाभूतस्य सम्प्रदानावसरे फललेनः प्रतिपादनात् । ननु निमित्तपर्यायः कारकशब्दः कारकसूत्रे व्याख्यातः, निमित्तत्वं च साध्यत्वस्यापि कथञ्चित् सम्भवत्येवेति, न, इत्याह-कारकव्यपदेशो हीति । कारकग्रामस्य परस्परापेक्षत्वादिति । यस्य हि येन विनापि व्यापारनिर्घत्ति[176A]न तेन तदपेक्ष(क्ष्य)ते । १ द्र० पा० ३.३.१६१, १६३ ।२ 'कर्मणा यममिप्रैति स सम्प्रदानम्' [पा० १. ४. ३२] इति सूत्रे । ३ 'कारके' [पा. १. ४. २३] इति सूत्रे । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का पृ०३८५, वि.पृ०४१८] न्यायमञ्जरीग्रन्थमङ्गः तदर्थसाधने सर्वेषां सङ्गतिरेव न स्यादिति । यस्मिन् यस्मिन् व्यापार निवृत्ते ओदनलक्षणफलसिद्धिः स सर्वः पचतिशब्दवाच्यः, काष्ठज्वलनेऽपि च निवृत्ते तत्फलं सिद्धयतीति तस्यापि पचिवाच्यत्वमेव । तदर्थसाधने-पचत्यर्थसाधने । काष्ठा नामपि यदा पचिना व्यापार उपात्तस्तदा पच्यर्थसाधने तानि प्रवर्तन्ते; एवं स्थाल्यादयोऽपि । यदि हि नोपात्तस्तव्यापारः पचिना स्यात् तदा 'स्थाली पचति' 'काष्ठानि पचन्ति' इति पचिना तेषां सङ्गतिर्न भवेदिति । एवं च देवदत्तव्यापारस्य तेनोपादानाद् यथा देवदत्तस्य कर्तृत्वमेवं सर्वेषां काष्ठादीनामपि स्यात् । प्रयोज्येनैव व्याख्यातम् । प्रयोज्यस्य स्वतन्त्रस्य कर्तुरनवस्थितत्वात् तस्याप्यः नवस्थितत्वमित्यर्थः । एकार्थान्वयित्वमिति । एकार्थावस्थायित्वमेकार्थीभावः; यत्र' पदान्युपसर्जना भूतस्वार्थानि निवृत्तस्वार्थानि वा प्रधानार्थोपादानात् द्वयर्थानि भवन्ति अर्थान्तर भिधायीनि वा सं एकार्थीभावः । प्रयोगप्रतिपत्तिभ्यामिति । तादृशेऽर्थे प्रयोगात् तादृशस्य चाऽर्थस्य ततः प्रतीतेरिति ।। अश्राद्धभोजीति । अत्र न[176B]ओ भुजिना सम्बन्धः न श्राद्धशब्देन इति असामर्थ्यम् ; 'दधिघटः' इत्यत्र च पूर्णशब्दप्रयोगं विना सामर्थ्याभावः; 'गोरथ इति अत्र च युक्तशब्दं विना'। तयोरपि तत एव प्रतिषेधसिद्धेरिति । यथा अर्थप्रतिपादने परस्परापेक्षस्य पदसमुदायात्मनो वाक्यस्य समासपदान्निवृत्तिरेवं धातोरर्थप्रतिपादने प्रत्ययापेक्षस्य, प्रत्ययस्य चार्थप्रतिपादने प्रकृत्यपेक्षस्य तत एव निवृत्तिः सेत्स्यतीति । अथैकार्थतया समानशीलस्येति । य एव राज्ञः पुरुष इत्यस्य वाक्यस्यार्थः स एव राजपुरुष इति समासस्येति । 'वा'वचनानर्थक्यमिति । विभाषेति समासविधौ यो महाविभाषाधिकारः स वार्तिककृता प्रत्याख्यातो "वा'वचनानर्थक्यं स्वभावसिद्धत्वात्" इत्यनेन । किल तदेतदर्थं क्रियते पक्षे वाक्यमपि यथा स्यादिति । तच्च न वक्तव्यं यदि हि वाक्यस्य समासस्य चैकार्थ्यं स्यात् तदानीं साधुत्वेनान्वाख्यातुः समासो वाक्यं निवर्तयेद् गोशब्द इव साधुत्वेनान्वाख्यातो गावीशब्दम्, तेन पक्षे प्रयोगार्थ तत्करणं शोभते । यदा तु वाक्यस्य व्यपेक्षार्थः राज्ञः कः पुरुषः ?, कस्य पुरुषो राज्ञः ? इत्येवं[177A]रूपो राजपुरुषशब्दस्य चैक एव लोलीभूतोऽर्थस्तदा भिन्नार्थेन राजपुरुषशब्देनाश्वशब्देनेव गावीशब्दवत् कथं निवर्तयितुं शक्येत, येन पक्षे श्रवणाय विभाषारम्भः सफल(लः) स्यादत उक्तम्-स्वभावसिद्धत्वादिति । तदिदमत्र तात्पर्यम् । १ द्र० महाभाष्य २. १. ३४। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः का पृ०३८५, बि०पृ. ४१८ व्यपेक्षायां समासो न भवत्येकार्थीभावे च वाक्यम् । तेन विभक्तविषयादनयोर्बाध्यबाधकभावो न भविष्यति, अतो नार्थो विकल्पप्रतिपादनेन, एकार्थानां हि विकल्पो भवति, एकार्थता चेह नास्तीति । अन्ये तु शोभा चीर्णमिति । तत्र शोभेत्यत्र स्त्रियामाकारप्रत्ययस्याभिधानाभावादसाधुता अङि तु शुभेति स्यात् । चीर्णमित्यत्र प्राप्तस्य इटः अकरणमप्राप्तस्य च ईत्वस्य करणम् । न याति प्रतिभेत्तुमीदृश इत्यत्र च यातिशब्दे उपपदे तुमुन्-प्रयुक्तो न च तत्र प्राप्तिरस्ति यानक्रियायाः, प्रतिभेदेन क्रियार्थत्वाभावात् । 'शकधृष'इत्यादौ पा० ३.४.६५]च यातेरपाठात् । मातुरनुहरतीति अत्र च कर्मणि द्वितीयायाः प्राप्तायाः अप्रयोगः । फलबहिणं (फलिनबहिणौ) ह्यद्यासेत्यत्र अस्तेरसार्वधातुकेऽपि भूरादेशो न कृतः । बलवान् आयुष्कामं रोहन् वृद्ध[177B]'....कर्तव्यमिति वार्तिकं भाष्यकृता प्रत्याख्यातं तेनैवाभिप्रायेण “गत्यर्थ-कर्मणि द्वितीयाचतुर्यो चेष्टायामनध्वनि" पा० २.३.१२]इत्यपि सर्व प्रत्याख्यातं प्रत्युक्तं "किमर्थं पुनर् इदमुच्यते चतुर्थी यथा] स्यात् । अथ द्वितीया सिद्धा ? सिद्धा कर्मणीत्येव । चतुर्थ्यपि सिद्धा। कथम् ? सम्प्रदत्ता(दाने)" इत्येवमादि [महाभाष्य पृ० ४९६] । सर्वं यदाऽवान्तरक्रियाणां समर्थपदानां विवक्षा तदा [ कि ]याभिराप्यमानत्वेन गमनक्रियायाः कर्मत्वात् "कर्मणा यमभिप्रैति" [पा. १.४.३२] इति सम्प्रदानत्वे ग्रामाय गच्छतीति सिद्धयति यदा तु [ करण?] विवक्षा तदा गमनस्य तदपेक्षकर्मत्वाभावाद् ग्रामेणैव, कर्मत्वे ग्रामं गच्छतीति सिद्धेस्तत्र न ज्ञायते शिष्टप्रवाहपतितो विवक्षानियमः क्वास्ति क्वणति......कर्मविवक्षैव ग्रामं गच्छति, ग्रामाय गच्छतीत्यादौ न विवक्षाविवक्षे अवान्तरकर्मणाम् कटं करोतीत्यादौ त्वविवक्षैवेति । अयं विवक्षाविव [ 179B] ...... ज्ञापितः स्यात् । तस्माद् भाष्यकाराभिमतप्रत्याख्यानपक्षे नास्याप्रतिपादकत्वलक्षणस्य दोषस्य निवृत्तिः । [स्मृतिसंदेहेति ] स्मृतिसंदेहलक्षणं विपर्ययलक्षणमप्रतिपाद(क)त्वलक्षणं च स्खलितं दोषो यस्य तदेवैतत् । विप्लुतं चेति विप्लुतत्वत्वं(तत्वं) च मूले लक्ष्येण विरोधात् । ........नियमपक्षयोः प्रातिपदिकार्थसङ्ख्याकारकविशेषेषु प्रतिपादनशक्तिरवरोधिता लक्ष्येत क्वचिच्च प्रातिपदिकार्थमात्रमविवक्षि........ अतोऽभिलषेदित्यादौ फलमात्रस्याप्याङ्गस्याधिकारात् । क्वचित् सङ्ख्यामात्रमधि........दिकार्थकर्मादि विवक्षितमेव क्वचित् कारकमात्रे च विवक्षा यथाह्यवदद्ब्राह्मणमुपनयेत इति । ........ दिकात् सम्प्रतीयते तस्य चाचार्यकमीसितम् साध्यत्वान्न माणवक इति तस्येप्सितत्वाविवक्षा । महान्तमाक्षेपमतानिषुरित्यौ........[ 180A] १ १७८ पत्रमनुपलब्धम् । २७९ अ पत्रम् अवाच्यम् । २ अवाच्यान्यक्षराणि । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का पृ०३८८, वि०पृ०४२२] म्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः १७७ प्रतिपदमशक्यत्वादिति । यथा तैरेवोक्तं 'बृहस्पतिरध्यापयिता शक्रोऽध्येता दिव्यं वर्षसहस्रमायुस्तथापि नान्तं जगाम' इति' । तथा लक्षणस्य । सामान्यविशेषवतः। अव्यवस्थानात् । न्यूनत्वात् । सूत्रकृता न्यूनानि सूत्राणि कृतानि, वार्तिककृता 'अन्ताच्च इति वक्तव्यम्' [वार्तिक६.३.११] इत्यादीन्युपसङ्ख्यानानि कृतानि, पुनर्भाष्यकारेण "मृजेरजादौ सङ्क्रमे विभाषावृद्धिरिष्यते” इत्याद्या इष्टयः कृताः, एवं च महापुरुषत्रयपरिग्रहेऽपि शोभा चीर्णमित्याद्यसिद्धिः । तत्रापि च स्खलितदर्शनात् । स्खलितानां संदेहविपर्ययाप्रतिपादकत्वादीनां दर्शनात्। 'अनवस्थाप्रसङ्गाच्च' इति सूत्रावयवः स्वयमवतारणिकासमय एव व्याख्यातः । कड(ट)न्दीकोद्रवोदन इति। कड(ट)न्दी वैशेषिकभाष्यविशेषः । मनुष्योक्तिवदिति । यथा प्रागुक्तनीत्या सर्वासङ्ग्रहादिना लौकिकेषु वचनेषु वैयाकरणो न व्युत्पत्तिं लभते तथा वैदिकेष्वपीत्यर्थः । अप्रतिपत्तिमन्थरमुख इति । प्रतिपत्तरभावेनाप्रतिपादकत्वेन मन्थर[ 180B ]मुखो निष्क्रियवदनो मूक इव ।। समानविधित्वं तुल्यत्वम् । शब्दे प्रयत्ननिष्पत्तेरिति । न हि यादृगेव परेण शब्द उच्चार्यते ताडगेव प्रत्युच्चारि(च्चारयि)तुं शक्यते; यस्मात् प्रयत्नान्निष्पाद्यते अभिव्यक्ति याति शब्दः, अतः शब्देऽपि [अ]पराधस्य भागित्वम् । पुरुषापराधस्य भाजनं शब्दः सम्भाव्यते अतः पुरुषापराधवशादन्यथाप्युच्चार्यते । न तन्मन्दतायामापत्तिमन्दतायाम् । क्व वा न समयः प्रतिपत्युपायः, साधुशब्दानामपि सामयिकत्वाभ्युपगमात् ।। किं त्वपनीतातिव्याप्तीति । तत्र “किति च" [पा०७.२.११८ ] इति गुणवृद्धिप्रतिषेधे 'मार्जन्ति' इत्याद्यभिप्रेतविषयव्याप्तेरतिव्यापकमाशङ्क्य भाष्यकृतोक्तम् "मृजेरजादौ सङ्क्रमे विभाषावृद्धिरिष्यते” इत्यादि । प्रयोगो नास्त्यसकर इति । प्रयोगादपि साधुत्वनिश्चयो नास्ति, साधुभिरिवासाधुभिरपि व्यवहारादित्यर्थः । १ द्र. महाभाष्य पृ०५० । २ मुद्रितमञ्जयां तु 'कपत्री' इति पाठः । ३ या कटन्दी अन्यत्र नयचकटीकादिग्रन्थेषु 'टीका'अभिधया निर्दिश्यते सा अत्र चक्रधरेण स्पष्टतः 'भाष्य' अभिधया उल्लिख्यते । अतः 'अनर्घराघव'नाटके निर्दिष्टा रावणप्रणीता कटन्दी किरणावलीभास्करे, ब्रह्मसूत्रशाङ्करभाष्यरत्नप्रभाव्याख्यायां प्रकटार्थविवरणे च निर्दिष्टाद् रावणभाष्यादभिन्नैव प्रतिभाति । कोऽयं रावणो नाम इति चिन्त्यम् । वाक्यपदीयस्य पुण्यराजकृतायां टीकायां (पृ०२८५-६) एकस्य वैयाकरणस्य रावणस्योल्लेख्नः अस्ति । ४ मी०सूर १.३ .८.२५ । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणोतः [का पृ०३८८, वि०पृ०४२ ग्रस्तनिरस्तेति । ग्र[ 181A ]स्तो जिह्वामूलेन गृहीतः अव्यक्तो वा, निरस्तो निष्ठुरः, रोमशो गम्भीरः, अम्बूकृतो यो व्यक्तोऽप्यन्तर्मुख इव श्रूयते' । आदिग्रहणं कलादिपरिग्रहार्थम् । क्वचिदाचारतचापीत्यस्य पूर्वमर्ध[ म्] - 'संस्थानेन घटत्वादिब्राह्मणत्वादिजातितः' [श्लो॰वा. वनवाद २९] इति; व्यज्यत इति प्रकृतम् । शास्त्रमपि श्रुतिस्मृतिरूपं 'साधुभिर्भाषितव्यम्' इत्यादिकं, प्रत्यवायप्रतिपादकं चेति । यस्तु प्रयुक्ते कुशलो विशेषे शब्दान् यथावद् व्यवहारकाले । सोऽनन्तमाप्नोति जयं परत्र वाग्योगविद् दुष्यति चापशब्दैः ।।इति।। [महाभाष्य १.१.१] विशेषे कुशलो यथा स एव शब्दः क्वचित् प्रयुक्तः साधुरन्यत्रासाधुः 'अस्व' शब्दो हिं निर्धने साधुः, तुरगे वसाधुरिति । दुष्यति चापशब्दैर्दुष्टो भवतीति । कः ? अवाग्योगविदित्यर्थसम्बन्धः ।। व्रीहिकलजवदिति । 'व्रीहिभिर्यजेत', 'न कलर्ज भक्षयेत्' इति । कलजाख्यः शाकभेदः । यथोपदर्शितेन प्रकारेण । साधुभिर्भाषणं कार्य [181B] न तु [असाधुभिः] । साधव एवंभूता इत्येवमिति विध्यपेक्षितमिति । येन येन विना विधेरसिद्धिस्तत्तत्स्वरूपसिद्धये असावाक्षिपति, साधुत्वांशावगमं च विना अस्य न सिद्धिरिति यतः साधुत्वावगमः तदपि व्याकरणमाक्षिपत्येव । मूलशास्त्रमपीति यदा ह्येतेन साधुस्वरूपं निर्णीतं तदा तदनिर्णयद्वारकं मूलशास्त्रस्य यदप्रमाण्यं तन्निवर्तत एव । पाचकत्वादिविदिति । 'पाचकः पाचकः' इति व्यपदेशस्य पचिक्रियानिबन्धनत्वात् न पाचकत्वसामान्यम्, अपाचकव्यवच्छेदकं तु भवत्येव । फलतः परिसङ्ख्याकार्यमिति । यथा-' इमामगृह्ण(भ्ण)न् रस(शोनाकृ(मृ)तस्य' [तैत्ति०सं० ४.१.२.] इत्यश्वाभिधानी(न)मादत्त इत्य(ति) प्राप्तमेवाश्वरशनादानं मन्त्रेण विधीयमानं फलतो गर्दभरशनानिवृत्तिं करोतीति । १ द्र० महाभाष्यप्रदीप पृ०७४ । २ कलः स्थानान्तरनिष्पन्नः काकलिकत्वेन प्रसिद्धः । महाभाष्यप्रदीप पृ० ७४ । ३ मुद्रितमञ्जर्यां तु 'आह कलञ्जवत्' इति पाठः । ४ मुद्रितमजयां तु 'यथोपवर्णितेनैव प्रकारेण' इति पाठः । ५ मुद्रितमजयां तु 'मूलभूतम्' इति पाठः । ६ द्र० तत्त्वसं० पृ० २४६। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ का०पृ०३५८, वि०पृ०३८९] न्यायमञ्जरीप्रन्थिभङ्गः __अर्थप्रतीतिपारायें इति । अर्थप्रतीतौ पारार्थ्यमङ्गत्वम् । प्रयोगनियमापूर्वद्वारे(र)केति । यथा पक्षे प्राप्तेऽपि प्राङ्मुखभोजने नियमादपूर्वम् एवमर्थप्रतीतिपरत्वेन पक्षे प्राप्तेऽपि शास्त्रप्रयोगे नियमाद् यद् अपूर्व तेन द्वारेण । पर्णमस्यादिष्विति । 'यस्य पर्णमयी जुहूर्भवति [न] स पापं श्लोकं शृणोति' [तैत्ति० सं० ३. ५. ७] इत्यत्र जुह्वा होमसाधनत्वेन निर्ज्ञानात् फलश्रुतेरर्थवाद[182A]तैव व्यवस्थापिता । ननु तात्पर्यपर्यालोचनयाऽर्थवादतैव प्राप्नोति, तन्नेत्याह-शब्दशक्तितात्पर्ययेति । ___शब्दसंस्कारादिविकल्पा इति । बहुभाषित्वादित्यनेन भट्ट सूचयति स हि बहुभाषित्वेन प्रसिद्धः । तथा च भाट(भट्ट)स्य तस्य बहुभाषणलब्धकीर्तेदिमागदूषणमिदं न तु धर्मकीर्तेः ॥ इति ॥ [ ] तमेवं प्रतिपादयन्ति । तथा चाह सःसंस्कृतानां च शब्दानां साधुत्वे परिकल्पिते । वक्तव्यः कस्य संस्कारः कथं वा क्रियते पुनः ॥१॥ न तावदस्ति शब्दत्ववर्णत्वव्यक्तिसंस्क्रिया । सर्वत्रातिप्रसङ्गेन न व्यवस्था हि सिद्धयति ॥२॥ शब्दत्वे संस्कृते स्याद्धि ध्वनीनामपि साधुता । वर्णत्वेऽप्येकवर्णानां गाव्यादीनां च तुल्यता ॥३॥ गवादिषु गकारादिर्यः सकृत् संस्कृतः क्वचित् । गाव्यादिषु स एवेति साधुरेव प्रसज्यते ॥४॥ इत्यादि [तन्त्रवा० १.३.८.२८] इतरेतराश्रयत्वमपि । व्याकरणात् साधुत्वपरिज्ञाने सति तत्प्रयोक्तृणां शिष्टत्वम् , सति च शिष्टप्रयोगे व्याकरणस्य प्रामाण्यमितीत[रत]राश्रयत्वम् ।। तदपनयनमार्गः प्रदर्शित इति । तत्र मन्वादिवचनानि तावच्छान्दसरूपसिद्ध्या सिद्धयन्ति 'वेदवद् वेदविद्वचः' इति वचनात्। 'जनिकर्तुः''तत्प्रयोजकः' इति च [182B] निपातनात् सिद्धयति । तत एव ज्ञापकात् 'जातिवाचकत्वात्' इति च सिद्धः । 'आन्यभाव्यम्' इत्यगुणवचनत्वेऽपि ब्राह्मणादिपाठात् ष्य । 'अविरविकन्यायेन' इत्यत्र तु १ द्र० पाणिनि १.४.३० । २ द्र० पाणिनि २.२.१५ । ३ द्र० पाणिनि ५.१.१२४ । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ भधीचक्रधरप्रणीतः [ का०पृ०३९१, विष्पृ० ४२५ यथा अविः अविशब्दः अविकन्यायेन अविकमुखेन प्रत्ययमुत्पादयतीति भिन्नपदत्वेनव्याख्येयम् । 'अन्यथाकृत्वा चोदितम्' इत्यत्र च सिद्धाप्रयोगत्वस्याविवक्षया णमुल्कृतः। भाष्यकारवचनाद्वा सिद्धाप्रयोगत्वेऽपि साधुरेवामित्येके । निपुणमतिभिः प्रतिसमाहितमेवेति । भर्तृहरिप्रभृतिभिर्हि तथा तव्याख्यातं यथा तेषां दूषणानामवकाश एव न भवतीति । तथाहि यत्तावच्चोदितं 'क्रियावचनत्वेऽस्तिभवत्यादीनां धातुसंज्ञा न प्राप्नोति' इति । तत्रैव प्रतिसमाहितम् नात्र लौकिक्याः क्रियायाः परिस्पन्दस्वभावाया धातुभ्यः प्रतीतिर्विवक्षिता येनास्त्यादीनां धातुसंज्ञा न भवेदपि तु शब्दार्थभूतायाः । तथाहि कारकव्यापारविषयीकृतोऽर्थः क्रियेति क्रियाशब्दार्थः । एतदेव भाष्यकृता कारका[183A]णां प्रवृत्तिविशेषः क्रिया' [महाभाष्य, १.३.१] इति वदता प्रदर्शितम् । तदेवं कारकप्रवृत्तिविषयः पूर्वापरीभूतोऽर्थः क्रियेति विवक्षायामस्त्याद्यर्थस्य साधनव्याप(पा)रविषयत्वेन पूर्वापरीभूतस्य शब्देनाभिधानात् क्रियारूपता। तथाहि-अस्ति आत्मानं बिभर्तीति गम्यते पूर्वापरीभावस्तदुक्तम् यावत् सिद्धमसिद्धं वा साध्यत्वेन विवक्ष्यते । आश्रितक्रमरूपत्वात् सा क्रियेत्यभिधीयते ॥ वाक्यप० ३.८.१.] इत्येवमन्यत्रापि। तेनैव प्रतिसमाहितानीति । तथाहि शोभेत्यादौ उद्भटेनैव प्रतिसमाधानं कृतम् । “अ प्रत्ययात्" इति [पा० ३.३.१०२] प्राक् प्रकृतिनिर्देशे कर्तव्ये प्राक् प्रत्ययनिर्देशाद् योगविभागकरणेनाप्रत्ययं कृत्वा 'शोभा' इति साधयेत् । 'चीर्णम्' इत्यत्र च प्रतिषेधविधेर्बलीयस्त्वात् क्वचिद् विहितबाधः, तेनेह विहितस्येटो बाधः । अनित्यमागमशासनमिति वा । उत्वं तु 'ति च' [पा. ७.४.८९] इत्यनेन सूत्रेण गत्यर्थवचेस्तेन लक्षणार्थस्येत्वेन भवितव्यम् । "ऋत इद्धातोः"पा० ७.१.१००] इत्यतः सूत्रादनन्तरं 'कृतश्च' इति कर्तव्ये यद् उपधाग्रहणं तदावृत्तिज्ञापनार्थम् च-ग्रहणं चैतद् रेफॉन्तमवसेयम् । “उपधायाश्च" [पा० ७.१.१० १] उपधाया ऋत[183B] इत्वं भवति चः चरश्चो पधाया इत्वमित्यर्थः। 'चर्' इति लुप्तषष्ठ्यन्तम्। 'न याति वाक्यं प्रतिभेत्तुम्' इत्यत्र च 'याति' इति तिङन्तप्रतिरूपको निपातः 'शक्यते' इत्यर्थे वर्तते । एवं हि 'अद्यास'इत्यत्रापि 'मास'शब्दो निपात एव 'बभूव' इत्यस्यार्थे । “कृत्यानां कर्तरि वा” [पा० २.३.७१] १ द्र० पाणिनि ३.४.२७ । २ मुद्रितमअर्यां तु 'तैरेव समाहितानि' इति पाठः । ३ 'चर्' अथवा 'चः' इत्येवम् भवसेयम् । ४ उपसर्गविभक्तिस्वरप्रतिरूपकाश्च निपाताः ।काशिका १४.५७ । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०३९२, वि०पृ०४२६] न्यायमञ्जरीप्रन्थिमङ्गः इत्यनन्तरेऽपि 'वा' ग्रहणे 'तुल्यार्थैरतुलोपमाभ्यां तृतीयान्यतरस्याम् [पा०२.३.७२] इत्यत्र यद् विकल्पवाचि 'अन्यतरस्याम्'ग्रहणं तद् व्यवस्थितविभाषार्थम् तेन क्वचिद् द्वितीययाऽपि सह विकल्पः सिद्धो भवति तेन 'मातुरनुकरोति' इति सिद्धम् । कान्दिशीक इत्यत्रापि अभियुक्तैर्युत्पत्तिः कृतैव । सा च दर्शिता । प्रत्ययः विभक्त्यलुक् चापि प्राङ्नीत्या प्रकारविशेषाश्रयणेन समर्थयितव्यः । भ्राजिष्णुरित्यत्र तु 'भुवश्च' [पा० ३.२.१३८]इति 'च'शब्दस्यानुक्तसमुच्चयत्वाद् इष्णुप्रत्ययो वृत्तिकारेण दर्शितः'। [औ]णादिकग्नामपि गमि-गामि-भाविप्रभृतीनां यौगिकत्वदर्शनाद् 'वृञ एण्यः' [उणादि ३.३८५] इति एण्यप्रत्ययेन वरेण्यः । एवं गणेयशब्देऽपि णेरलोपः कयाऽपि भझ्या चीर्णमितिवत् समर्थ्यः। यत् पुनः स्मृतिविपर्ययाप(पा)दनं तदभिप्रायापरिज्ञानादेव । शब्दानां हि राशिनयेणानुशासनम् । छन्दोमूलप्रयोगदर्शनात्, छन्दोभाषाप्रयुक्तिदृष्टेः, भाषाप्रयोगावगमाच्च । न पुनर्विषयनियमस्तैस्तैः सूत्रैः क्रियते । अवश्यं चैतदेवं विज्ञेयम्, यदि पुनः परिपन्ध्यादयः शब्दाः छन्दोविष[184Aया एव स्युस्तदा पदपदार्थव्युत्पत्त्यभावादप्रतिपादकवलक्षणमप्रामाण्यं श्रुतेः प्रसज्येत । छन्दोग्रहणं तु तेषु तेषु सूत्रेषु तेषां परिपन्थ्यादीनां काव्यादिषु पञ्चसु प्रभेदेषु प्रयोगप्रतिषेधार्थः न सर्वत्र । स्मृतिसंदेहोऽपि न कश्चित् । त्वामनुकरोतीत्यत्रार्थदृशेस्तत्र प्रयोगात्; अनुकृतिलक्षणश्चार्थो धात्वर्थ एवेति नास्ति कश्चित् संदेहः । अप्रतिपादकत्वं च नास्ति, गत्यर्थादिसूत्रस्य प्रत्याख्यानानाश्रयणादिति । बार्हस्पत्यसूत्रमसूत्रमेव प्रमाणविरुद्धार्थसूचनादसूत्रपदतुल्यमित्यर्थः । तिमयो मत्स्यविशेषाः । [दुग्धधारेति] दुग्धधारावदमला मधुराश्च तथा सुधाबिन्दुनिष्यन्दिन्यस्तु याः । तत्कुतस्त्यमितरेतराश्रयमिति । सति वेदाङ्गत्वेन व्याकरणात् प्रमाणभूतादर्थनिश्चये वेदस्याप्रतिपादकत्वाभावात् प्रामाण्यम्, सति च तत्प्रामाण्ये तदङ्गत्वेन व्याकरणप्रामाण्यमिति यदितरेतराश्रयं त[184B]त् कुतस्त्यम् । भोगिमतश्रुतसङ्गिभिः । भोगी शेषः तन्मतं महाभाष्यं तच्छूतेन सङ्गशीला ये भर्तृहरिप्रभृतयः आर्याः इति भद्रम् । भट्टश्रीशङ्करात्मजश्रीचक्रधरकृते न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गे षष्ठमाह्निकं समाप्तम् ॥ ॐ ।। जयत्येकशराघातविदारितपुरत्रयः । धनुर्धराणां धौरेयः पिनाकी भुवनत्रये ॥ [185] १ चकारोऽनुक्तसमुच्चयार्थः "भ्राजिष्णुना लोहितचन्दनेन" । काशिका३.२.१३८ । २ मुद्रितमजयां तु 'तत् परास्तमितरेतराश्रयम्' इति पाठः । ३ मुद्रितमञ्जयां तु 'भागिमतं श्रुत' इति पाठः । ४ एतच्छलोकपर्यन्तो भङ्गो जेसलमेरप्रतावस्ति । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ सप्तमम् आह्निकम् ॥ ॥ ॐ नमः शिवाय ॥ औपवर्षाः प्रपेदिरे। औपवर्षा' मीमांसकाः । नोत्तरस्य यदुत्तरकालमिदमनुसन्धानज्ञानं तदुत्तरम् । न द्वयोर्द्वयमप्यस्तीति। पूर्वस्योत्तरज्ञानम् उत्तरस्य च पूर्वज्ञानम् । __ तदभेदोपचारेणेति । आत्मोपकारकत्वाच्छरीरमात्मवाचिना पदेन निर्दिश्यत इति । द्रव्यादिरूपे ग्राह्ये नेति । ततश्च घटादिवत् 'इदम्'निर्देश्यः स्याद् ग्राह्यांशः पृथगेव, पुनरप्यात्मनो ज्ञातुर्न ग्राह्यत्वम् । विषयोवावि(योपाधि)कृत इति । विषयलक्षणो य उपाधिः तत्कृतः । अस्मत्प्रयोगसम्भेदाच्चेति । तदुक्तम् अस्मत्प्रयोगसंभिन्ना ज्ञानस्यैव च कर्तरि । भवन्ती तत्र संवित्तियुज्येताप्यात्मकर्तृका ॥इति॥ [श्लो० वा० शून्यवाद ७०] अस्मदो यः प्रयोगोऽहमिति तेन संभिन्ना तदनुप्रवेशवती । घट[मात्र]प्रवणैव, न घटज्ञातृताविशिष्टात्मविषया । ज्ञानविशिष्टघटावमर्श इति । यमहं जानामि स घट इत्येवं ज्ञानविशिष्टघटावमर्शः । त्वयोन्नेतुमुपक्रान्तः, त्वया उम्बेकेने पूर्वैरनुन्नीतोऽपि । विशेषनिष्ठं ग्राह्यग्रहीतृनिष्ठम् । विज्ञानवादवर्मेति । [1] अनेनैव दृष्टान्तेन विज्ञानवादस्यावतारणात् । एकमेव ज्ञानं ग्राह्यं ग्रहीता च ज्ञातृत्वाद् आत्मवदिति । ज्ञानसामानाधिकरण्यानुपपत्तेरिति । यदाऽहं जानामीत्येवं प्रत्यय उत्पद्यते तदा मिथ्यैवायं प्रत्ययः । न ह्यहमिति प्रतिभासमानस्य शरीरस्य जानामीति सम्बन्ध उपपद्यत इत्यर्थः । १ उपवर्षों मीमांसासूत्रवृत्तिकारः पाणिनिगुरोर्वर्षल्यानुजः इति प्रसिद्धिः । २ कथञ्चिद्धर्मरूपेण भिन्नत्वात् प्रत्ययस्य तत् । ग्राहकत्वं भवेत् तत्र ग्राह्य द्रव्यादि चात्मनः ॥६८॥ श्लोक वा० शून्य० । बोधरूपतया तस्य ग्राहकत्वं द्रव्यरूपतया तस्य प्राह्यत्वमित्यर्थः । उम्बेकटीका। ३ मुद्रितमञ्जयां तु ग्रन्थिरय नास्ति । ४ मुद्रितमअयों तु 'त्वनयोनेंतुमुपक्रान्तः' इति पाठः। ५ भवत्यात्मसम्बन्धिनी ज्ञातृतैव ग्राह्या ज्ञातृतैव प्राहिका, तथापि ग्राह्यग्राहकयो दः, यस्माद् विषयमेदेन सैव भिद्यते: न हि पटगतज्ञातृतायामघट जानाति; तत्र यदा घटादिविषया ज्ञातता ग्राह्या भवति, तत्रात्मविषया ग्राहिका 'घटमहं जानामि' इति । अम्बेकटीका, श्लो० वा० शून्य ७०।६ नापि शरीरालम्बनम् , तदालम्बनत्वे हि बाल्यावस्थायां मुखोऽहं सुखी दुःखी वाSSसम् , इदानीं तु विद्वान् निरुजो रोगी वाऽभूत् (भुवम् ) इत्यवगमो न स्यात् , बाल्यादिशरीराणां भिन्नत्वात् । न्यायभूषण पृ० ४९६ । द्र० न्यायकन्द० पृ० २०८ । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०७, वि०पृ०४३३ ] न्यायमञ्जरोग्रन्थिमङ्गः अथवेच्छा(अवस्था)भेदादिना सुखाकारत्वाद्यवस्थाभेदमासू(श्रि)त्य ममात्मेति व्यतिरेकः । शरीरालम्बनत्वेऽपि सैव सरणिः । ममेदं शरीरमित्यत्र ममेत्यनेन यौवनावस्था परामृश्येदमित्यनेन वृद्धावस्थां निर्दिशति । चिदयोगाद् हि चेतनत्व इति । उत्पद्यमानया चिता ज्ञानेन यस्य सम्बन्धः स चेतन इति' हि यधुच्येत ततः घटस्यापि तयोत्पद्यमानया कारणत्वाविशेषात् सम्बन्धः केन वार्येतेति । अथात्मसम्बद्धैव सा उत्पद्यते न घटादिकारकान्तरसम्बद्धेति । तत्राप्याह-न चास्ति नियमहेतुरिति । न ग्राह्यतयेति । एकस्यां संविद्यनुभवारूढस्य त्रयस्य स्वेन स्वेन रूपेणावभासनात् प्रमातुः प्रमेयस्य प्रमितेश्च । प्रमातात्मा प्रमातृतयैव भासते, अन्यथा भासनेऽस्य प्रमेयादविशेषः स्यात्; एवं प्रमितिरपि स्वरूपेणैव भासते, न प्रमातृ-प्रमेयरूप[2]तया; प्रमेयं तु प्रमेयरूपतयैव । अत एव त्रितयप्रतिभासोऽभ्युपगतो भवति, अन्यथा सर्व प्रमेयमेव स्यात् । किन्त्वपरोक्ष इति । प्रत्यक्षं हि तदुच्यते यत्राक्षव्यापाराद् ज्ञानमुत्पद्यते । तदन्यत् परोक्षम् । [प्रकाशत्वाद् अपरोक्षमिति । यत् पुनः प्रकाशतेऽथवाऽक्षव्यापारं नापेक्षते तदपरोक्षमिति । इह चात्मा प्रतीतिकर्तृतया प्रकाशते घटस्तु प्रतीतिकर्मतयेति । न च घटादिभिरतिप्रसङ्ग इति । यदि [सं]वित्तिजनकत्वाद् वैषम्यं तर्हि घटादीनामपि प्राप्तं तदिति । द्रव्यत्वाविशेषेऽपीति । यथा द्रव्यत्वे सति पृथिव्या सम्बध्यते गन्धो नैवं तेजसेत्यर्थः । १ आत्मत्वसामान्यवान् बुद्धिगुणाश्रय आत्मा । सप्तपदार्थी, सूत्र १३६ । नवाना. मात्मविशेषगुणानामत्यन्तोच्छित्तिर्मोक्षः । व्योम० पृ० ६३८ । जीवानामविद्यादिसमस्तोपाधिनाशे चिदानन्दब्रह्मस्वरूपत्वापत्तिमुक्तिरित्यन्ये । न । जीवानां दुःखादिवत् ज्ञानात् सुखाच्च भेदेन प्रतीयमानत्वात् ।...वस्तूनां पर प्रकाश्यत्वनियमेन ज्ञातुः स्वप्रकाशनविरोधात् । अन्यथा दःखादेरपिस्वप्रकाशतापत्तिः । चिद्रपोऽहमिति अनुभवोऽस्ति इति चेत् । न । ज्ञानाधारस्य चिच्छब्देनाभिधानात् ।न्यायलीला० पृ०५८३ । भासर्वज्ञ-भूषणकार-चन्द्रिकाकाराणां मते मोक्षावस्थायां सुखज्ञानयोरस्तित्वमस्ति । द्र० न्यायसार (भूषणसहित) पृ० ५९७,न्यायचं० पृ०५४५-४६ २ सर्वविज्ञानहेतूत्था मितौ मातरि च प्रमा। साक्षात्कर्तृत्वसामान्यात् प्रत्यक्षत्वेन सम्मता ।।१३॥ प्रकरणपं० पृ० १६७ । इदमहं गृह्णामीति वा, इदमहं स्मरामीति वा त्रितयमेवावभासते । प्रकरणपं० पृ० १७१। सर्वेषु ज्ञानेषु त्रिपुटीं स्वीकुर्वाणाः प्राभाकराः 'घटमहं जानामि' 'घटमहं स्मारमि' इत्यनुव्यवसायात्मकमेव ज्ञानमभ्युगपच्छन्ति, 'न त्वयं घटः' इति । ज्ञानं ज्ञाता झेयम्, मितिर्माता मेयमिति चैतत् त्रितयं त्रिपुटीत्यभिधीयते । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का पृ०७, वि०पृ०४३३ भाष्यकृत् स्वयं प्रादीदृशदिति । तथा च न्यायभाष्यम्-"येयं स्मृतिर-- गृह्यमाणेऽर्थेऽज्ञासिषम[हम]मुमर्थमिति, अस्या ज्ञातृज्ञानविशिष्टः पूर्वज्ञातोऽर्थों विषयो नार्थमात्रम् , अज्ञासिषममुमर्थम् , ज्ञातवानहममुमर्थम्, असावर्थो मया ज्ञातः, अमुष्मिन्नर्थे मे ज्ञानमभूदिति चतुर्विधमप्येतद् वाक्यं स्मृतिविषयप्रज्ञापकं समानार्थम् । सर्वत्र खल्वत्र ज्ञाता ज्ञानं ज्ञेयं च गृह्यते।” इत्यादि [न्यायभा० ३. १. १५] । अत्र ज्ञातृविशिष्टार्थस्मरणं समर्थितम् । तथाभूतस्यैवानुभवो वाच्यः, न, अगृहीतविशेषणन्यायेन [3] तज्ज्ञेयग्रहणसमये ज्ञातुरप्यवगमोऽभ्युपेयः । न च यदा ज्ञेयग्रहणं तदाऽनुमानतो ज्ञाततादिलिङ्गाद् आत्मनो गृहीतिगृहीतस्य च स्मरणमिति । यदाहक्रेमस्यानवधारणाद्-ग्रहणसमय इत्यर्थः । एकाश्रयतया ज्ञातमिति । यस्यैव प्रागनुभवस्तस्यैव दर्शनक्रमेणेच्छोपजायमाना पूर्वापरयोरनुसन्धतारमेकं गमयतीत्येकाश्रयत्वं प्रागवश्यमभ्युपेयम् । अनुभवेनैकाश्रया इच्छा अनुसन्धातृपूर्विका, एकाश्रयत्वे सतीच्छारूपत्वात्; यत्र पुनरेकानुसन्धातृपूर्वकत्वं नास्ति तत्रैकाश्रयत्वे सतीच्छारूपत्वमपि नास्ति, यज्ञदत्तो(त्ता)नुभूत इव देवदत्तेच्छायाः । तथात्वेन एकाश्रयतया । अज्ञाते तु न लिङ्ता । न हि यथा तल्लिङ्गं तथा अज्ञातलिङ्गं भवति । गुणत्वं चेच्छादीनामिति । इच्छाधर्मो गुण इति साध्यम् , कार्यत्वे सति नियमेनाचाक्षुषप्रत्यक्षत्वात् , रसवदिति । तत्कायेसमानकर्तृत्वेति । सुखसाधनत्वज्ञानादिकार्येणैककर्तृकत्वावगमात् शरीरादिप्रतिषेधे सतीति । तेषां नानात्वात् पूर्वोपलम्भाघेककर्तृकत्वविशिष्टकार्याश्रयत्वाभावात् । शरीरादिषु बाधकोपपत्ताविति । पूर्वानुभवादिसव्यपेक्षकार्यत्वमेवेच्छायाः शरीराद्याश्रयत्वे बाधकम्, सविशेषणकार्यत्वायोगादिति । शरीरादिष्वित्यत्र आदिपदेन यान्युपात्तानि भूतानि तत्कार्यत्वे बाधकाभावात् 'शरीरादिषु बाधकोपपत्तौ कार्यत्वात्' इति सविशेषणस्य कार्यत्वाभावात् । सविशेषणानां कार्यत्वाभावाद् विलक्षणाश्रयाश्रितत्वम् नास्तीत्यादिना एतदेव व्यक्तीकृतम् । १ मुद्रितमञ्जयां तु ‘स्मरणानवधारणात्' इति पाठः । २ यजातीयस्यार्थस्य सन्निकर्षात् सुखमात्मोपलब्धवान् तज्जातीयमेवार्थ पश्यन्नुपादातुमिच्छति, सेयमादातुमिच्छा एकस्यानेकार्थदर्शिनो दर्शनप्रतिसन्धानादू भवति लिजमात्मनः । न्यायभा० १.१.१० । तत्रेच्छादीनां प्रतिसन्धानमात्मास्तित्वप्रतिपादकम् । न्यायवा० १.१. १०। ३ यश्चासावेकोऽनुभविता च स्मर्ता चानुमाता चैषिता च स आत्मा, न च शरीरमेवं भवितुमर्हति, तस्य बाल्यकौमारयौवनवार्द्धकमे देनान्यत्वात् । न्यायवा०तात्प० १. १. १०।४ द्र० न्यायसू० ३.१.७-१५ । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०प्र०१० वि०पृ०४३०] न्यायमन्जरीप्रन्थिभतः तस्य तस्माद् [4] व्यावृत्तिरिति । यदिदं शरीरादिषु बाकोपपत्तिविशिष्टं कार्यत्वं तत् किं घटादौ शरीरादिविलक्षणाश्रितत्वस्य साध्यस्याभावाद नास्त्युत कारणान्तरत इति । अन्वये पुनः प्रदर्शित एवं वक्तुं न शक्यते । अन्यत्र साध्यान्विततयो - पलम्भादिह साध्याभावादेव तस्याभाव इति हि तदा वक्तुं शक्यत एव । तत्रात्मसंज्ञा आगमिकी न पुनः प्रमाणादिसंज्ञावद यौगिकी | ते अपि तथैव द्रष्टव्ये पूर्वानुसन्धानं विना प्रयत्नाभावः, प्रयत्नाभावाच्च तयोरप्यभाव इति । तदुत्पत्तावपि सर्वः पूर्वोक्तः क्रमः । न दोषाय कथास्विव । यथा वादादिकथासु दोषाय । किन्तु स्वसन्तान एवेति । एकशरीरावच्छिन्ने क्वचिद वस्तुनि । सन्तानान्तरेषु प्रतिसन्धानस्यादृष्टत्वात् । प्रमातृनियमस्य ' ये केचिदत्र न प्रमातारोऽपि तु नियम एव कश्चित्' इत्येवंरूपस्य । सेयमुभयतः पाशा [ रज्जुरिति ] | यथोभयतः पाशार [ज्जा ] वेकदिशा योजने [प]रदिशा विघटनम् तद्वदिदम् । यद्यात्मा न प्रत्यक्ष इत्यभ्युपगम्यते तदा व्याप्तेरघटनम्, व्याप्तिघटने व्वात्मप्रत्यक्षसिद्धिरिति । स एव क्षणिकैरन्वय इति । न हि सत्त्व- क्षणिकत्वयोः क्वचिद् धर्मिणि सिद्धेरन्वयग्रहणं सम्भवति, सर्वस्य क्षणिकत्वेन साध्यत्वात्, अतः अक्षणिकेभ्यो व्यावृत्तिरेव क्षणिकैरन्वयः सत्त्वस्य । क्षणिकाक्षणिकाद राश्यन्तरस्याभावाद् अक्षणिकेभ्यो व्यावृत्तं सत्त्वं क्वान्यत्र यात् क्षणिकान् वेति । व्यतिरेकमुखेनापि इति । यत्रैककर्तृकत्वं नास्ति [5] तत्र प्रतिसन्धानादि नास्तीति व्यतिरेकासिद्धिः । ज्ञानक्षणेषु भिन्नेष्वपि प्रमातृषु प्रतिसन्धानस्य बौद्धदृष्ट्या सम्भाव्यमानत्वादिति' । १८५ भेदाग्रहणादेव च व्याप्तिसिद्धेरिति । यावदेव भेदान् अगृहीतस्तावदेव प्रतिसन्धानादेरभिन्नकर्तृकत्वेनान्वयो गृहीत इति । मदशक्तिवद् विज्ञानमिति । यथा कि [वा ]दिद्रव्यपरिणामादेव मदशक्तिरुदेति तदवद् भूतपरिणामविशेषा चैतन्यमिति । १... . यतः क्षणिकेष्वपि भावेषु भ्रान्तादेककर्तृत्वाभिमानतः प्रतिसन्धानसम्भवात् । तत्त्वसं०० पृ० ८५ । २ मुद्रितमञ्जर्या तु 'भेदाग्रहवदेव' इति पाठः । ३ तत्र पृथिव्यादीनि भूतानि चत्वारि तत्त्वानि । तेभ्य एव देहाकार परिणतेभ्यः -- किण्वादिभ्यः मदशक्तिवत् — चैतन्यमुपजायते । सर्वदर्शनसं० पृ०२-३ । २४ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भश्रीचक्रधरप्रणीतः [कापृ०११, वि०पृ०४३० आहारपरिणामाच्चेति । आहारो हि तदा परिणतो भवति यदा पुष्टिरुत्पद्यते, पुष्टिश्चोपचयः, स चापचयनिरोधेन भवति । अपचयोपचयनिरोधोत्पत्तिभ्यां चापचीयमानोपचीयमाननिरोधोत्पत्ती । ते च पाक[जोत्पत्तिन्यायेने । न जीर्यतान्नमन्यथा, अपरिणतं स्यात् । न भवेत् परिपोषः विनाशानभ्युपगमे । सर्वस्मिन्नेव हि शरीर विनष्ट आरम्भकाणां अवयवानामाहारभूतदध्यादिसारावयवसहितानामारम्भकत्वे स्थूलशरीरनिष्पत्तौ पुष्ट्यर्थानां दध्यादीनामुपयोगस्य साफल्यम् । शरीरस्य 'प्राक्तनस्याविनाशे[ऽप]चयाभावाद् आहाराभावकृता रिक्तताऽपि न भवेत् । अनुप्रवेशपक्षेऽपीति । तेजःपरमाणवो ह्यविनष्टेऽपि घटे प्रविशन्तीति पि[3]र पाकवादिनां मतम् । अमुष्य कार्यस्य प्रसव इति । अप्रयोजनं तु कार्यमिदमस्ति किं कारणविकल्पैरित्यनेन न्यायेन । तथा च वैशेषिकै नाप्रक्रियाः प्रदर्शिता एव । श्यामादिनिवर्तके वह्नौ क्रियाया उत्पादः, प्राक्तनाकाशदेशेन विभागस्योत्पद्यमानता, तदवयवे क्रियाया उत्पद्यमानता, रक्ताद्युत्पादके च वह्नौ क्रियाया [6] उत्पद्यमानतेत्येषामेकः कालः । तदनन्तरं श्यामादिनिवर्तके वह्नौ प्राक्तनाकाशदेशेन विभागस्योत्पादः, संयोगस्य विनश्यत्ता, तदव[य]वे क्रियाया उत्पादः, अवयवान्तराद् विभागस्योत्पद्यमानता, रक्ताधुत्पादके वह्नौ क्रियाया उत्पादः, प्राक्तनाकाशदेशेन विभागस्योत्पद्यमानतेत्येषामेकः काल इत्याद्यास्तत एवावसेयाः । उपजनापाययोः कार्याधुपजनापाययोर्निमित्तान्तरानुपयोगादिति । चैतन्यगुरुलाघवेति । गुरुलाघवव्यवहारस्तीत्रमन्दताव्यवहारः । १ यच्च मन्येत सति श्यामादिगुणे द्रव्ये श्यामाधुपरमो दृष्टः एवं चेतनोपरमः स्यादिति । न, पाकजगुणान्तरोत्पत्तेः । नात्यन्तं रूपोपरमो द्रव्यस्य, श्यामरूपे निवृत्ते पाक गुणान्तरं रक्तं रूपमुत्पद्यते, शरीरे तु चेतनामात्रोपरमोऽत्यन्तम् इति ॥ न्यायभा० ३. २. ४८ । २. मुद्रितमजयों तु 'काञ्चनाद्युपयोगेन' इति पाठः। ३ पूर्वघटस्य नाशं विनैवावयविन्यवयवेषु परमाणुपर्यन्तेषु च युगपद् रूपान्तरोत्पत्तिरिति पिठरपाकवादिनो नैयायिकाः । तर्कदीपिका पृ०१७ ॥ ४ प्रक्रिया तु द्वयणुकस्य विनाशः, त्र्यणुकस्य विनश्यत्ता, श्यामादीनां विनश्यत्ता, सक्रिये परमाणौ विभागजविभागस्योत्पद्यमानता, रक्तायुत्पादकस्याग्निसंयोगस्योत्पद्यमानतेत्येकः कालः । ततस्त्र्यणुकविनाशः, तत्कार्यस्य विनश्यत्ता, श्यामादीनां विनाशः, विभागजविभागस्योत्पादः, संयोगस्य विनश्यत्ता, रक्तायुत्पादकाग्निसंयोगोत्पादः, रक्तादीनामुत्पद्यमानता, श्यामादिनिवर्तकाग्निसंयोगस्य विनश्यत्तेत्येकः कालः । ततस्तत्कार्यविनाशः.......... न्यायकं० पृ० २६५ । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पू०१६, वि०पृ०४४३ ] न्यायमज्जरीग्रन्थिभङ्गः दि [[ ] प्रदर्शनमिदं कृतमिति सूत्रकारेणेति शेषः । बहुरन्य इति कोsसावित्याह-- कर्तृप्रयोज्यता खलु दृष्टेति । चेष्टा न दृष्टा नियता, अपि तु कादाचित्की गन्त्र्याः रथादेश्च यथा ँ। सहजनिजकर्मविकृतौ । सहजं यन्निजं कर्म तिर्यग्गतिलक्षणं तस्य विकृतिः ऊर्ध्वम् अधश्च गतिः । वृद्धिक्षत भग्न रोहणमिति। क्षतं मांसस्य भङ्गः, अस्योद्भेदो रोहणम् । वृद्धिश्च क्षतभग्नरोहणं च तत् । चेतो मनः । ज्ञानप्रयत्नादिमत इति । करणं धर्मं ज्ञानप्रयत्नादिमदधिष्ठितकरणत्वाद वास्यादिवदित्यत्र वास्यादौ किमधिष्ठातृ विवक्षितम्, शरीरमन्यद्वा ? शरीरस्याधिष्ठातृत्वे साध्यविकलत्वं साध्यविपरीतसाधनाद् विरुद्ध[श्च] हेतुः; तदन्यस्त्वसिद्ध एवेति । सामान्यमात्रस्य तवापि सिद्धेः । प्रयत्नादिमन्मात्राधिष्ठितत्वं भवताऽप्यभ्युपगतमेवेति । एवं च विशेषविरुद्धोद्भावने सकलानुमानोच्छेदप्रसङ्ग इत्यसकृदुक्तम् । तत्संज्ञितामितिफलम् । अयं स गवय इति या संज्ञितामितिः संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रतिपत्तिः सैव फलम् । "सर्वे संस्काराः । [7] सर्वे ते संभूय हेतुभिः क्रियन्त इति संस्काराश्च ते । न क्वचित् किञ्चिदाश्रितम् । क्षणिकत्वे सति आश्रयाश्रयिभावाभावादिति भावः । यतोऽधिष्ठान कल्पना । गुणस्य निरधिष्ठानस्यानुपलम्भादिति । निराश्रयेष्विति । विज्ञानान्येव कार्यकारणभावेन स्थितानि राशीक्रियमाणानि विज्ञानस्कन्ध" इत्युच्यते । यद्यपि च सन्तत्यन्तरेति । तथाहि —समीहादिनाऽनुमीयमाना सन्तानान्तर १ न्यायसू० १. १. १०, ३. २.१८-४१ । २ वास्यादीनामिव करणानां कर्तृ प्रयोजयत्वदर्शनात् शब्दादिषु प्रसिद्धया च प्रसाधकोऽनुमीयते । प्रशस्त० भा० पृ० ३६० । ३ शरीरसमवायिनीभ्यां च हिताहितप्राप्तिपरिहारयोग्याभ्यां प्रवृत्तिनिवृत्तिभ्यां रथकर्मणा सारथिवत् प्रयत्नवान् विग्रहस्याधिष्ठाताऽनुमीयते । प्रशस्त० भा० पृ० ३६० ४ शरीरपरिगृहीते वायौ विकृतकर्मदर्शनात्.... प्रशस्त०भा०पृ० ३६० । ५ वृद्धिक्षतभग्नसंरोहणात् । प्रशस्त०भा० पृ० ३६०| १-५ प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवनमनोगतीन्द्रियान्तरविकाराः सुखदुःखे इच्छाद्वेषौ प्रयत्नश्चेत्यात्मलिङ्गानि । वैशे०सू० ३.२.४. । ६ समाख्या सम्बन्धप्रतिपत्तिरुपमानार्थ इत्याह । 'यथा गौरेवं गवयः' इत्युपमाने प्रयुक्ते गवा समानधर्ममर्थ मिन्द्रियार्थसन्निकर्षादुपलभमानोऽस्य गवयशब्दः संज्ञेति संज्ञासंज्ञिसम्बन्धं प्रतिपद्यते इति । न्यायभा० १ १ ६ । ७ क्षणिकाः सर्वसंस्कारा अस्थिराणां कुतः क्रिया । भूतिर्येषां क्रिया सैव कारकं सैव चोच्यते ॥ बोधिचर्यावतारपञ्जिकायां (९. ६) उद्घृतेयं कारिका । ८ प्रतिक्षणविनाशे हि भावानां भावसन्ततेः । तथोत्पत्तेः सहेतुत्वादाश्रयोऽयुक्तमन्यथा ॥ प्र०वा० १. ६९ । ९ राश्यायद्वार गोत्रार्थाः स्कन्घायतनधातवः । अभि०को० १. २० । १० विषयं विषयं प्रति विज्ञप्तिरुपलब्धिर्विज्ञान स्कन्ध इत्युच्यते । स पुनः षड़ विज्ञानकायाः चक्षुर्विज्ञानं यावन्मनोविज्ञानमिति । अभि० को ० भा० १. १६ । ૨૮૭ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का०पृ०१६, वि०पृ०४४३ बुद्धिरनुमेयज्ञानस्यालम्बनकारणतां' प्रतिपद्यते; उपाध्यायज्ञानस्य च शिष्यज्ञानोत्पत्तौ कारणत्वदर्शनात् । न तादृशकार्यकारणभावेनेति। अत्र सहकारित्वेनोपाध्यायादिज्ञानं जनकं नोपादानत्वेनेति भावः ।। तत्सन्तानोपसक्रान्त्येति । व्यवस्थितायां सन्ततौ विज्ञाने आहिता कर्मवासना कर्मजनितः संस्कारः, सा पुनः कालान्तरे सहकारिसन्निधानाद् लब्धपरिपाकवती तत्रैव सन्ताने फलं समुत्पादयति, न सन्तानान्तरे । यथा कस्याञ्चित् कर्पाससन्ततौ बीजावस्थायामाहिता रक्तता मध्ये विच्छिन्नापि कुतश्चिद्देशकालाद्यनुग्रहात् तत्कुसुमेऽऽविर्भवति, नान्यत्र । एवं हेतुफलभावेन व्यवस्थितेषु [क्ष]णेषु येन ज्ञानेनानुभूतं वस्तु तेनोत्तरज्ञाने शक्तिराहिता; तेनाप्यन्यत्र यावत् प्रणिधानादिवशात् प्रबोधे सति स्मृतिर्भवति तत्रैव, न सन्तानान्तरे । पूर्वानुभवजनितो हि संस्कारः संस्कारान्तरजननद्वारेण स्मृतिजनकं क्षणमुपस्कारसहितं जनयति तत्रैव सन्ताने [ इति ] वाचोयुक्तिः । १ चत्वारः प्रत्यया उक्काः हेत्वाख्याः पञ्च हेतवः ॥ चित्तचैत्ता अचरमा उत्पन्नाः समनन्तरः। आलम्बनं सर्वधर्माः कारणाख्योऽधिपः स्मृतः ॥ अभि-को. २.६१-६२। कारणहेतुव ाः पञ्च हेतवो हेतुप्रत्ययः । समश्चायमनन्तरश्च प्रत्यय इति समनन्तरप्रत्ययः ।......यथायोग चक्षुर्विज्ञानस्य ससंप्रयोगस्य रूपम् (आलम्बनम् )। .. ...य एव कारणहेतुः स एवाधिपतिप्रत्ययः । अधिकोऽयं प्रत्यय इत्यधिपतिप्रत्ययः । अभि०को भा० २. ६१-६२ । २. नात्मास्ति स्कन्धमात्रं तु क्लेशकर्माभिसंस्कृतम् । अन्तराभवसन्तत्या कुक्षिमेति प्रदीपवत् । यथाक्षेपं क्रमाद् वृद्धः सन्तानः क्लेशकर्मभिः । परलोकं पुनर्याति इत्यनादिभवचक्रकम् ॥ अभि को. ३. १८-१९ । तस्माद् यथा बीजादिषु आत्मानमन्तरेणा । प्रतिनियमेन कार्य तदुत्पत्तिश्च क्रमेण भवति, तथा प्रकृतेऽपि परलोकगामिनमेकं विनापि कार्यकारणभावस्य नियामकत्वात् प्रतिनियतमेव फलम्, क्लेशकर्माभिसंस्कृतस्य सन्तानस्य अविच्छेदेन प्रवर्तनात् परलोके फलप्रतिलम्भोऽभिधीयते, इति नाकृताभ्यागमो न कृतविप्रणाशो बाधकम् । ततो नात्मा. नमन्तरेण कर्मफलसम्बन्धो न युज्यते । बोधिचर्या०पं० पृ. २२३ । न हीह लोके कार्यकारणभावः स्मृतौ हेतुत्वेनोपन्यस्तः प्रतीयते । कि तर्हि ? कर्मवासना। वासना हि कर्मणाभिसंस्कारः । वासितं हि अभिसंस्कृतमुच्यते । कर्मकृतो विशेषो यत्र सन्ताने उत्पादितस्तत्रैव भोगादिफलसम्बन्धः, नान्यत्र । यत्र नासौ विशेषः इति प्रतिज्ञाय कपासे रक्तता यथा इति वदतः संस्कारसन्तानभेदो वा हेतुरभिप्रेतः, साध्यं चान्यत्र भोगादिफलनिषेधः, तत्सन्ताने तत्फलयोग्यता च प्रतीयते । ...स्मृत्यादिफलापेक्षयाऽप्ययमेव न्यायः । यदि सन्तानद्वारेणेयं व्यवस्था, तदा विद्यायोनिसम्बन्धप्रसिद्धेऽपि सन्ताने प्रसङ्गः । ततो गुरुणानुभूतादौ शिष्यस्य स्मृत्यादिः स्यात्, एवं पितुरनुभवादौ पुत्रस्य भवेत् । नैतादृशः सन्तानोऽत्र विवक्षितः उपादानोपादेयभूतहेतुफलपरम्परारूपः । कि पुनरुपादानोपादेयलक्षणम् ? एकाधारतानियमोऽसति विचारकारणे, विचारेऽपि तद्योग्यतानियमः । शानश्री. पृ. ७२-३ । द्र० पृ. ७१ । द्र० तत्वसं पं. पृ० १६६-१८५ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का पृ०१७, वि०पू०४४५] न्यायमञ्जरीप्रन्थिभगः 'वर्षातपाभ्यां किं व्योम्नः। नैव ताभ्यां व्योम्नः किञ्चित् कर्तुं शक्यत इत्यर्थः । उत्सृज्यतामेष इति । यदुक्तम् सर्वासां दोषजातीनां जातिः सत्कायदर्शनात् । साऽविद्या तत्र [8] तत्स्नेहस्तस्माद् दो(द्वेषादिसम्भवः ।। [प्रमाणवा० ३.२२२] आत्माऽऽत्मीय-ध्रुवोच्छेद-नास्ति होनोच्चदृष्टयः । अहेत्वमार्ग-तदृष्टिरेता हि पञ्च दृष्टयः ॥ [अभिध० को०, ५.७] इत्यादि । अहङ्कार-ममकारग्रन्थिपहाणेति । अहङ्कार-ममकाराविव दुर्मोचत्वाद् ग्रन्थी। न भूमिरनुमानस्येति, यत्र धूमस्तत्राग्निरिति तदविनाभावात्मके विकल्पे नियता प्रतिबद्धा स्थितिर्यस्य । तच्च स्वग्राहकाद् बोधादिति । य एव पदार्थस्य ग्राहको बोधः स एव तत्सत्त्वनिश्चायकः । प्रमाणं जगदुः स्वतः इति । यदाहुः विषयाकारभेदाच्च धियोऽधिगमभेदतः । भावादेवास्य तद्भावे स्वरूपस्य स्वतो गतिः ॥ [ प्रमाणवा० १. ६] विशेषांशे संशेरतां नाम जनाः, न पुनः सत्त्वे संशेरते, असतो ज्ञानजनकत्वाभावात् । संशयविपर्यययोस्तत्राप्यभावादिति । यथा वृक्षत्वस्य व्यापकस्यानुपलम्भाद् व्याप्यस्य शिशपात्वस्याभावे न संदेहस्तथा क्रम-योगपद्यलक्षणस्य व्यापकस्याक्षणिकेऽनुपलम्भात् तद्व्याप्तस्य सत्त्वस्याभावो निःसंदेहः, अतः सत्त्वं तेभ्यो निवर्तमानं क्षणिकेश्वेवावतिष्ठत इति व्यापकानुपल भेन सत्त्वक्षणिकत्वयोर्व्याप्तिग्रहः । परस्परव्यवच्छेदव्यवस्थितात्मनां तृतीयप्रकारानुपपत्तेरिति, यथा नित्यानित्यादयः सदसदादयश्च परस्परपरिहारव्यवस्थितात्मानस्तथा क्रमोऽयक्रमव्यवच्छेदेनैव व्यवस्थितः । क्रमव्यवस्थापकेन प्रमाणेन ततोऽन्योऽक्रमत्वेन व्यवस्थाप्यते । अक्रमश्च यौगपद्यम् । सोऽपि प्रमाणादवगम्यमानः क्रमव्यवच्छेदेनैव गम्यते नीलमिवानीलव्यव १ कारिकेयमुद्धता न्यायवार्तिके पृ. ७२१ । २ ० न्यायकणि पृ० १३० । न्यायका. तात्प० पृ. ५५४ । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का०पृ०१८, वि०पृ०४४५ च्छेदेन । यदा तु तृतीयो राशिः क्रमाक्रमरूपोऽभ्युपेयते तदैकस्य विरुद्धरूपद्वययोगिता युगपदिति'। कार्यादपि भेदाभेदाभ्यामिति । किं कार्यमेवोपकार उत तदन्य इत्यर्थः । लोके तथा व्यवहारादर्शनादिति । स्नान-भोजन-शयनादीनां युगपत् क्रियाया [9] अदृष्टेरित्यर्थः । तृतीयराश्यभावादिति । क्षणिकाक्षणिकापराया अभावात् । ननु व्यापकानुपलब्धि(ब्धे)रनुमानमिति। तथाहि-यथा सत्त्वं क्षणिकत्वसाधने व्याप्तिग्रहणमपेक्षते, अगृहीतव्याप्तिकस्य हेतोरगमकत्वात् ; एवं व्यापकानुपलब्धि(ब्धे:)रप्यनुमानत्वाद्] व्याप्तिग्रहणमवश्यापेक्षणीयम् , अनपेक्षणे वा क्षणिकत्वानुमानस्यापि न स्यादपेक्षणम् , अनुमानत्वाविशेषात् । अनुमानान्तरा[द्] व्याप्तिनिश्चय इति । ययोर्द्धर्मयोरविनाभावग्रहणाद् व्यापकानुपलब्धिः प्रवर्तते तयोर्नानुमानादविनाभावनिश्चयः, अपि तु प्रत्यक्षात् । तथाहि-येनैव दर्शनपृष्ठभाविना निश्चयेन 'इदमस्मादत्र' मि(इ)ति निश्चीयते तेनैव तदपि व्यवस्थाप्यते 'जनकस्य जन्यं प्रत्युत्पत्तौ सामर्थ्य क्रमेण योगपद्येन वा' इति ।। नित्यत्वनिवृत्तिरेव स्थिरत्वनिवृत्तिरेव । न नित्यत्वमिति । भवदर्शनेऽक्षणिकस्य सत्त्वेन दर्शनाभावात् । १ नैव प्रत्यक्षतः कार्यविरहाद् वा सर्वशक्तिविरहोऽक्षणिकत्वे उच्यते, किन्तु तद्व्यापकविरहात् । तथाहि--क्रमयोगपद्याभ्यां कार्यक्रिया व्याप्ता प्रकारान्तराभावात् । ततः कार्यक्रियाशक्तिव्यापकयोस्तयोरक्षणिकत्वे विरोधात् निवृत्तेस्तव्याप्तायाः कार्यक्रियाशक्तेरपि निवृत्तिरिति सर्वशक्तिविरहलक्षणमसत्त्वमक्षणिकत्वे व्यापकानुपलब्धिराकर्षति, विरुद्धयोरेकत्रायोगात् । ततो निवृत्तं सत्त्वं क्षणिकेष्वेवावतिष्ठमानं तदात्मतामनुभवति इति--'यत् सत् तत् क्षणिकमेव' इत्यन्वयव्यतिरेकरूपाया व्याप्तेः सिद्धिर्निश्चयो भवति । ......अनुपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वेऽपि प्रकारान्तरस्य क्रमयोगाद्ययोरन्यव्यवच्छेदरूपत्वादेवाभावसिद्धिः तथाहि--अन्योन्यव्यवच्छेदरूपाणामेकनिषेधेनापरविधानात् तस्याप्रतिषेधे विधिप्रतिषेधयोर्विरोधादुभयप्रतिषेधात्मनः प्रकारान्तरस्य कुतः सम्भवः ? । अत्र प्रयोगः यत्र यत्प्रकारव्यवच्छेदेन यदितरप्रकारव्यवस्थानं न तत्र प्रकारान्तरसम्भवः, तद्यथा--नीलप्रकारव्यवच्छेदेनानीलप्रकारान्तरव्यवस्थायां पीते । अस्ति च क्रमयोगपद्ययोरन्यतरप्रकारव्यवच्छेदेन तदितरप्रकारव्यवस्थानम् व्यवच्छियमानप्रकाराविषयीकृते सर्वत्र कार्यकारणरूपे वस्तुनीति विरुद्धोपलब्धिः व्यवच्छिद्यमानप्रकारेतरव्यवस्थानं च, प्रकारान्तरसम्भवश्च ततो बहिर्भावलक्षण इत्यनयोस्तत्त्वाऽन्यत्वरूपयोरन्योन्यपरिहारस्थितिलक्षणत्वात् । न चात्रापि बाधकान्तराशङ्कयाऽनवस्थानमाशङ्कनीयम् , पूर्वसिद्धस्य विरोधस्य स्मरणमात्रत्वात् । विरुद्धोपलब्धिषु बहिर्धर्मिणि हेतोः सद्भावमुपदय विरोधसाधनमेव बाधकम्, तच्चेहास्ति । ततो विरुद्धयोरेकत्रासम्भवात् प्रतियोग्यभावनिश्चयः शीतोष्णस्पर्शयोरिव भावाभावयोरिव वेति कुतोऽनवस्था ? हेतुबि टी० पृ० १४६-४८ । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०२३, वि०पृ०४५० ] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः १९१ अतद्विषयत्वेऽपि द्विचन्द्राविषयत्वेऽपि । सत्त्वं नानास्वभावत्वम् अर्थक्रियाभेदादेव, 'अर्थक्रियाकारित्वलक्षणस्य सत्त्वस्य भेदसिद्धेः । तस्यार्थक्रियाकारित्वस्य स्वभावस्याभेदे वा क्रियाणामभेदप्रसङ्गात् । तयोर्विरोधो युक्त्याऽप्यनुमानेनापि । विरुद्धे सत्त्वस्थिरत्वे धर्मिणी सह न भवत इति साध्यम्, विरुद्धत्वाच्छीतोष्णादिवत् । व्यापारा वेशवशेन वेति । स्वरूपाविशेषेऽपि कदाचित् कार्यजननात् प्राक् कार्योत्पत्तेर्व्यापारावेशः पदार्थस्यानुमानतो निश्श्रेय इति प्रागेव निर्णीतम् । अविचारकमिति । अर्थसन्निधिमात्रेण ज्ञानस्योत्पत्तेरविचारकत्वम् । तदुक्तम्“सन्निहितविषयबलोत्पत्तेरविचारकत्वम्”* [ ] इति । सङ्कल्पप्रायमेव तदिति । सङ्कल्पस्यानागतविषयत्वेन दर्शनात् तत्प्रायता । स्थिरत्वं तहि सुस्थितम् । एते (त) देव क्षणिकत्वं यतः । यथाहि - नीलाभावेति । नीलपरिच्छेदकं हि प्रमाणं तद्वि [ 10 ]रुद्धस्य नीलाभावस्येव तदविनाभूतानां पीतादीनामपि व्यवच्छेदं करोत्येव । तदभावाविनाभूतेति । वर्तमानाभावावि[ना] भूता ये भूतादय इति । वर्तमानैकनिष्ठतायाः पूर्व प्रदर्शितत्वादिति । अतीतविषयत्वे स्मृतितुल्यता, अनागतविषयत्वे सङ्कल्पप्रायतेत्यादि वदद्भिर्वर्तमानैकनिष्ठता प्रदर्शिता । अथ वर्तमानानुप्रवेशेनेति । अननुप्रवेशेऽसन्निधानाद यदि ग्रहणं अनुप्रवेशोऽस्त्वित्यभिप्रायः । अर्थ एव केवलः प्रकाशत इति । अर्थश्वानेकविषय एकोऽर्थ इत्यवतिष्ठते, न 'पूर्व प्रतिभात, इदानीं च प्रतिभासते' इति कालविशिष्टत्वेन । न च प्रतिपत्तिभेदेनैकत्वाभिमतस्य चन्द्रमसोऽनेकत्वमनेकदर्शनविषयत्वेऽप्यस्तीत्याशयः । न कश्चिद् वास्तव इति । वास्तवत्वे हि वस्तुस्वलक्षणवन्निर्विकल्पकेन प्रतीयेत । न च प्रतीयते । अतो निर्विकल्पोत्तरकालभाविसामान्यादिविकल्पवत् तद्विकल्पोत्पत्तेरवस्तुत्वम् । काल्पनिकेनापि च तेन व्यवहारः सिद्धयत्येव सन्तानादिनेव । एक एव क्षण [] इति । एकस्मात् क्षणात् । पूर्ववितत एककालः प्रतीयत इति । बहूनां क्षणानामस्मिन् प्रत्यये विश्रयणादीनां क्रियारूपाणां प्रतिभासनात् । नैतत् सारमिति । तत्र हि एकफलोत्पादकत्वेन १ अर्थक्रियासमर्थ यत् तदत्र परमार्थसत् । प्र०वा० १.३ । २ तुलनार्थं द्र० सिद्धिविनिश्चय ३ ८; लघीयस्त्रय ३.११; अष्टल० पृ० ११९, कर्णगो० पृ०११०, न्यायवा· तात्प० पृ० १३७, भामती पृ०७६६ । ३ मुद्रितमञ्जर्या तु 'वितत एव कालः ' इति पाठः । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचकधरप्रणीतः [ का०पृ०२३, वि०पृ० ४५१ वर्तमानक्षणसहचरिताः पूर्वापरभाविनः क्षणा वर्तमानतया व्यपदिश्यन्ते साक्षादवर्तमाना अपि । १९२ क्षण दीर्घ इति । क्षणो हि परमापकृष्टा कालमात्रा भण्यते । स कथं दीर्घः ? दीर्घश्चेत् क्षणः कथमिति । 'उपलम्भ एव भावानां सत्त्वमिति । यस्मिन् हि सति सदिति प्रत्ययस्तदेव सत्त्वम् । स च प्रत्ययः सदित्युपलम्भे सति भवति, अत उपलम्भ एव सत्त्वम् । एवमनुपलम्भोऽप्यसत्त्वमिति । बुद्धेरदीर्घकालत्वात् । भवद्भिरप्या [11] शुतरविनाशित्वाभ्युपगमाद बुद्धेः । स्थिरेणापि न बोधेनेति । तेनापि वर्तमानकालस्थितिरिव शक्त्या ( क्या ) ग्रहीतुं न कालान्तरस्थितिः । कालान्तरस्थितिर्हि तेन गृह्यमाणा तदनुप्रवेशेनान्यथा वा गृ । तदनुप्रवेशेन ग्रहणे एकक्षणग्रहणमेव । अननुप्रवे (वि) ष्टक्षणस्थितेर्न क्षणान्तरस्थितिः प्रतिभातीति नैकताग्रहः । न हि सकृदनेकक्षणस्थायिताग्रह इति । " त्वदभिमते मध्येऽपीति । यत्र त्वं न पश्यसि । न सर्वेषामनैव (षास् तवैव) तु केवलस्य । एष मा ग्रहीदिति । एषोऽन्यः । " स्मरणप्रत्यभिज्ञेति । तुल्येऽपि मेदे कार्यकारणभावेन नियतत्वात् तत्रैब सन्ताने स्मरणादिकार्यं न सन्तानान्तर इति । दीर्घसंसारकारणम्, आस्थानिवृत्त्यभावात् । उपलब्ध्यव्यवस्थात इति । सदप्युपलभ्यते असदप्युपलभ्यत इति । न हेतुर्गन्धवत्त्ववत् । यथा गन्धवत्त्वं नित्यत्वेऽनित्यत्वे वा न हेतु:, तेन सहा [न्य ] त्रादृष्टेः, एवं सर्वस्य साध्यत्वात् सत्त्वस्य क्षणिकत्वेन सहान्यत्रादृष्टिः । एकवस्तुक्षणस्यापि एको यो वस्तुक्षणः । रूपभेदविरोधाच्चेति । न ह्येकमनेकरूपं भवति, अनेकरूपत्वे एकत्वविरोधाद् वस्तुनः काल्पनिकत्वं प्रसज्यते, विरुद्धस्वभावयोगेऽप्येकत्वे विश्वस्यैकता १ मुद्रितमञ्जर्यां तु 'उपलम्भो हि भवेन्नासत्ता'' इति पाठः । २ मुद्रितमञ्जर्यातु 'तदभिमतोsपि' इति पाठः । ३ मुद्रितमार्या नास्ति ग्रन्थिरयम् । ४ एतेनैव प्रकारेण स्मृत्यादीना - मसम्भवः । एकाधिकरणाभावात् क्षणक्षयिषु वस्तुषु ।। अत्राभिधीयते सर्वकार्यकारणतास्थितौ सत्यामव्याहता एते सिद्धयन्त्येवं निरात्मसु ॥ तत्वसं० ५००-१: । ५ मुहिम तु 'एकवस्तु क्रमस्यापिं' इति पाठः । 1 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का० पृ० २७, बि० पृ० ४५४ ] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः १९३ प्रसङ्गात् । घटादीनामपरमार्थसत्त्वान्मा भूत् पारमार्थिकं बाह्यं वस्तु, ज्ञानमेव परमार्थसत्, तत्र क्षणिकत्वमित्याह – ज्ञाने क्षणिकचिन्तेति । न क्रमेण स्थैर्यप्रसङ्गात् । द्वितीयकार्यकालेऽपि भावात् स्थैर्यप्रसङ्गः । सञ्चिता एव जन्यन्त इत्यभ्युपगमादिति । तदुक्तम्अर्थान्तराभिसम्बन्धाज्जायन्ते येऽणवोऽपरे । उक्तास्ते सञ्चितास्ते हि निमित्तं ज्ञानजन्मनः ॥ [ प्रमाणवा ० २.१९५] इति । अन्यथा हि इति । कारणायत्तः कार्यस्वभाव इत्यनभ्युपगमे । नानाकालयोfreistrari [12] स्यात् । ततश्च स्थिरतापत्तिः । विषयाकारग्राहकेति । विषयाकारो ग्राह्याकारः । ग्राह्याकारग्राहकं प्रमाणम् । स्वसंवेदनं फलम् । निराकारत्वाद् विज्ञानस्य नास्ति विषयाकार इति चेत् तत्राह-- निराकारज्ञानेति । अथ नीलेन जनितत्वाद् नीलस्येदमिति प्रतिकर्मव्यवस्था सेत्स्यति । नेत्याह- जनकस्य कर्मण इति । एकसामग्र्यधीनपक्षस्य च सम्भवेऽपीति । न सम्भवति स पक्षः, क्षणिकत्वाभावादर्थक्षणस्य तदानीमुत्पत्त्यभावात् पूर्वोत्पन्नस्यैव ज्ञानेन विषयो (यी) करणात् । सम्भवाभ्युपगमे तु द्वयोरेकसामयुत्पन्नत्वेऽर्थ एव ग्राह्यो न बोध इति नियमो नोपपद्येत इत्यतोऽवश्यं साकारत्वमभ्युपेयमिति रूपभेद आयातः । "विजातीयप्रकारेणेति । विजातीयो मुद्गरादिः । विरूपाम्, कपालरूपाम् । १ यदीष्टाकार आत्मा स्यादन्यथा वानुभूयते । इष्टोऽनिष्टोऽपि वा तेन भवत्यर्थः प्रवेदितः ॥ विद्यमानेऽपि बाह्येऽर्थे यथानुभवमेव सः । निश्चितात्मा स्वरूपेण नानेकात्मत्वदोषतः ॥ प्र०वा० २. ३४०-४१ । इष्टानिष्टत्वेन पुरुषाभ्यामेकस्यार्थस्य ग्रहणादनेकात्मत्वदोषः प्रसज्यते । मनोरथ० २.३४१ । २ स्वसंवेदनं फलम् ॥ प्र०वा०२.३५१ । तत्र बुद्धेः परिच्छेदो ग्राहकाकारसम्मतः । तादात्म्यादात्मवित्तस्य स तस्य साधनं ततः ॥ प्र०वा० २.३६४ । ३ द्र० तत्त्वसं० पं० पृ० ५६९-८२ : स्याद्वादरत्ना० पृ० १६२-३, प्रमेयकमलमा० पृ०१०३ - ९॥ न्यायकुमुद० पृ० १६५ - ७१; साकारसिद्धिशास्त्रम् साकार सङ्ग्रहसूत्रम् च ज्ञानश्री०नि० पृ० ३६७-५७८ । इह खलु सकलजडपदार्थराशौ प्रत्याख्याते निराकृते च निराकारविज्ञानवादे प्रतिहते चालीकाकार योगिनि पारमार्थिकप्रकाशमात्रे सम्यगुन्मूलिते च साकारविज्ञानालीकत्वसमा रोपे प्रतिसन्तानं च स्वप्नवदबाधितदेहभोगप्रतिष्ठाद्याकारप्रकाश मात्रात्मके जगति व्यवस्थिते यस्य यदा यावदाकारचक्रप्रतिभासं यद् विज्ञानं परिस्फुरति तस्य तदा तावदाकारचक्रपारिकरित तद् विज्ञानं चित्राद्वैतमिति स्थितिः । रत्नकी• नि० पृ० १२२ । ४ हेतुभावादृते नान्या ग्राह्यता नाम काचन । तत्र बुद्धिर्यदाकारा तस्यास्तद् ग्रायमुच्यते ॥ प्र०वा० २. २२४ । अपि 'तु हेतुतैव प्रात्यता । एवं तर्हीन्द्रियादिकमपि हेतुत्वाद् ग्राह्यं स्यादित्याह । तत्र तेषु 'हेतुषु बुद्धिर्यदाकारा भवति तस्या बुद्धेस्तद् ग्राह्यमुच्यते । मनोरथः । -५ मुद्रितमञ्जर्या तु 'विजातीयकरणानुप्रवेशे' इति पाठः । २५. Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ भश्रीचक्रधरप्रणीतः [का पृ०२७, चिपृ०४५५ नानात्वे त्वस्थैर्यमसत्त्वं चेति । नानास्वभावत्वेऽपि यथा दर्शनेवात्रैकत्वेन ब्राह्मण न विरुध्यते तथा तद[त]त्स्वभावत्वेऽप्यक्षणिका(नामेकत्वेन ग्रहणं न विरोत्स्थत इति' स्थैर्यापत्तिर्वस्तुनो वा विरुद्धस्वभावयोगात् काल्पनिकत्वम् ।। अस्त्येवैषां लाक्षणिको विरोध इति । लक्षणमिति स्वरूपम्, तद्वयवस्थापको लाक्षणिकः परस्परपरिहारस्थिततालक्षणः । तौ हि द्वौ स्वभावौ परस्पररूपपरिहारेण स्थितौ नीलपीताविव, अन्यथा तयोर्भेद एव न स्यादिति । पदार्थो हि स्वप्रकृत्या विरुध्यते। न हि नीलं च नीलाभावश्च युगपद् भवतः । यथा नीलानीलप्रकृत्योर्युगपदसम्भवाद् विरोधः तथाऽनीलप्रकृत्यविनाभूतैः पीतादिभिरपि विरोध एव । स्वप्रकृत्या यद् विरुध्यते वस्तुनो रूपं तत् तदविनाभूतेन स्वभावान्तरेणापि । तस्य विरोधः केन वार्यते भवन्मते । तदेवं वस्तुव्यवस्थापको विरोधो भवद्भिः सर्वत्राभ्युपेय इति । परलोकचर्चा [13] चार्वाकवदपेक्षिता स्यादिति । 'यस्मिन्नेव हि सन्ताने आहिता कर्मवासना' इत्यस्य पक्षस्य परित्यागात् । येन हि ज्ञानक्षणेन कृतं कर्म तस्य विनाशेऽपि कार्यकारणभावेन ज्ञानप्रवाहस्य सन्तानरूपस्याभ्युपगमेन जन्मान्तरोपपत्तिलक्षमाऽस्य परलोकसिद्धिरुपपादिता; सैवं त्रुटयति । सन्तानस्य ह्यात्मकल्पस्याविच्छेदे जन्मान्तरसम्भव आत्मन इव आत्मवादिनां न पुनस्तद्विनाशे । यथैकस्मिन् शरीरे कार्यकारणभावेनावस्थानवशाद् भिन्नानामपि क्षणानामभेदेनाध्यवसानं क्षणान्तरकृतस्य च कर्मणः क्षणान्तरोपभोगेऽपि नान्येन भुक्तमिति प्रत्ययः, न च सन्तानान्तरेण तत्कलोपभोगः, तद्वत् सन्तानानाशे जन्मान्तरभावि]क्षणेष्वपि भवति, नान्यथेति भावः । निर्विकल्पज्ञानं वेति । तद् वस्तुसाक्षात्कारि, सविकल्पकं न तथा । तथा प्रतिबन्धस्मृतिरपि, स्मृतेर्वस्तुसंस्पर्शाभावात् । सन्तानभूयस्त्वादिति । रसज्ञानरूपज्ञानस्मरणादिसन्तामानां भेदाभ्युपगमपक्षे । रूपमपि ज्ञानोपादानकारणत्वं प्रतिपद्यते तदाकारस्योत्पादाद ज्ञानस्य । १ क्षणिकस्य कारणस्य सर्वथा कार्य प्रति उपयोगाभावेऽपि तस्येदं गार्थमिति व्यपदिश्यते, न पुनर्नित्यस्य तादृश इति न किञ्चिन्निबन्धनमन्यत्र महामोहात् । नित्या प्रतिक्षणमनेककार्यकारित्वे क्रमशोऽनेकस्वभावत्वसिद्धेः कथमेकत्वं स्यादिति चेत् शाणिकस्य कथामिति समः पर्यनुयोगः । स हि क्षणस्थितिरेकोऽपि भावोऽनेकस्वभामाश्चित्रकार्यत्वाद् नामार्थवत् । न हि कारणशक्तिभेदमन्तरेण कार्यनानात्वं यतं रूपादिज्ञानवत् । अष्टास०प०१३।. न्यायवातात्प० पृ०५५७-५५८ । सामग्रीवशात् कार्यभेदेऽपि यथा अक्षेपकारिणां क्षणिकानां स्वभावभेदो न भवति अनाधेयाप्रहेयातिशयत्वात् तथैव कालान्तरस्थाथिनां कमोत्पित्सुकार्यवियोऽपि स्वभावभेदो मा भूत् । सिद्धिवि. पृ० १९७। २ ग्रन्थिरयं मुद्रितमञ्जर्या नोपळन्धः । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा०पू०३५, वि०पू०४६३ ] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः १९५ इदं प्रतीत्येति । इदं प्रतीत्य ज्ञात्वा समनन्तरमेवेदं प्रतीयत इत्येतावन्मात्रं कोत्तरभावित्वं कार्यकारणत्वहेतुः, न पुनर्व्यापारात् कारणत्वमिति । इदं पूर्वमिदमुत्तरमित्येवंरूप इदंप्रत्ययो ययोः कार्य-कारणयोस्ताविदंप्रत्ययौ, तयोर्भाव इदंप्रत्ययता । तथापि लब्धात्मन इति । न ह्यनुत्पन्नस्य प्रतीतिः सम्भवति । सर्वस्य सुखदुःखादि यत् तद्धेतुत्वेन प्राणिकर्मविपाकस्य धर्माधर्मलक्षणस्योपपादनात् । न हि भवति कृष्णाच्छुक्लतर इति । अपि तु शुक्लात् शुक्लतरः, एवं साधकतम इति । ___ अहो महान् [14] प्रमाद इति । अनेन 'यदि नित्योऽपि कदाचित् स्यात् तत् कस्य क्षतिः' इत्याह । पुनरनेनैवाभिप्रायेण-सोत्पासमुत्सनाः प्रजा इत्यादि । तैलवतिक्षयाद्यनुमानबाधितत्वादिति । तैलवर्तिरूपस्य क्षयदर्शनात् कारणभेदः पूर्वकालात उत्तरकालानां गम्यते । न हि यदेव तैलवर्तिरूपपूर्वकालायाः कारणं तदेवोत्तरासामिति वक्तुं शक्यम् । प्रत्यक्षेण पूर्वकालाकारणस्य तैलवर्तिरूपस्य क्षयदर्शनादेतत्कारणभेदस्तावदिति । ततश्च काला धर्मिण्यः परस्परभिन्ना इति साध्यम्, भिन्नकारणजन्यत्वाद् घटपटादिवदित्यनुमानप्रवृत्तिः । प्रत्यक्षस्याप्यनुमानबाधितत्वदर्शनादिति । चक्रं हि परिमण्डलाकारत्वात् सर्वदिग्भिर्युगपत् सम्बध्यते, तथारूपत्वं च अलातस्य नास्ति, अतोऽनुमानेन बाधः । तथाहि-अलातधर्मी युगपत् सर्वाभिर्दिम्भिर्न सम्बध्यत इति साध्यम्, अलातत्वात् , भूमिस्थितालातवदित्यनुमानम् । क्षणिकत्वानुमानमन्यथासिद्धम् , क्षणिकत्वपरिहारेणैव सत्त्वस्य प्राङ्नीत्या सम्भवात् । निमोपकृतस्थाऽपीति । अनिमेषदृष्टिमङ्गीकृत्य कथनात् तत्कृतो दर्शनविच्छेदोऽनवकाशोऽसम्भवीति । तद्ग्रहणे यावति दर्शनं न विच्छिन्नं तावद्वर्तमानकालविशिष्टवस्तुग्रहणे । ननु तावानसौ काल इति । क्षणसमुदायो वर्तमानादिक्षणसमुदायः, न वर्तमान एक एवेत्यर्थः । कालस्य तु भेदाः क्रियोपजनेति । यदा क्रियोपजायते तदा वर्तमानता, उपरतायामतीतता, अनागतायां भविष्यत्तेति ।। १ भिन्नकाला वर्तयः इत्यर्थः । २ तुलना-क्रियाव्युपरमे भूतः, सम्भावितायां क्रियायां भविष्यन् , क्षणप्रवाहरूपेण बतमानरूपायां मुख्य एवायम् । हेलाराजटीका (वाक्यप०), पृ० ३५० । - Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का०पृ० ३५, वि०० ४६३ पदार्थ एव परिदृश्यमानो वर्तमानादिव्यवहारहेतुः, यथा सामान्यादिव्यवहारो न व्यक्तिव्यतिरिक्तालम्बनोऽपि त्वेकार्थक्रियाकारित्वाद्युपाधिनिबन्धनोऽसौ तत्रे, तथा दृश्यमानत्वोपाधिनिबन्धनं पदार्थेषु वर्तमानता[15]व्यवहार इति । तत् कीदृशमिति कुतो विद्मः । कीदृशं क्षीयते न वेति ।। मुद्गरदलितेति । यथा मुद्गरभग्नघटाभावज्ञानं न पूर्वस्य घटसत्ताकालभाविघटज्ञानस्य बाधकं तथा नेदं रजतमित्यपि न स्यात् पूर्वानुभूतस्यौनष्टत्वात् । सन्तानछद्मनो विनिवारणात् । सन्तान एव छद्म; अङ्गीक्रियते लोकयात्रा अथ च सन्तानच्छद्मना, न साक्षात् स्थिरपदार्थाश्रयणेन । सन्तानान्तरबुद्धिभिरिति । उपाध्यायबुद्धि-शिष्यबुद्धयोः कार्यकारणभावेऽप्यन्यत्वस्य स्फुटतया दर्शनात् । फलभोगस्तु दुर्घट इति । अकृताभ्यागमदोषस्य तदवस्थत्वात् । न चैष नियमो लोक इति । अस्मिन् हि नियमे सिद्धे सति गर्भशरीरज्ञानस्य वैसदृश्यादुत्पत्त्यसम्भवात् मुमूर्षुशरीरस्तु न तस्योपादानत्वे कल्पते, ततश्च न परलोकसिद्धिः । आतिवाहिकदेहेनेति । अतिवाहो मुमूर्षुशरीराद् गर्भशरीरसञ्चरणं ज्ञानस्य, तत् प्रयोजनं यस्य तदातिवाहिकम् अन्तराभवशरीरम् । तदुक्तम् ---- नात्माऽस्ति स्कन्धमानं तु क्लेशकर्माभिसंस्कृतम् । अन्तराभवसन्तत्या याति कुक्षि प्रदीपवत् ॥ [अभिधर्मको०, ३. १८]इति । कुरुकुची लोकवञ्चनार्थ क्षान्तिमा धार्यते दम्भरूपा । सुखदुःखजन्मनो न हि तादृशीति । सुखदुःखजन्मन इति पञ्चमी । ननु विमृशति भोग इति । अतश्च भोगकाले 'एवंरूपं कर्म यन्मया कृतं तस्यैव फलमथवाऽन्यकृतस्य, को विशेषः?' इति विमृशति नैव कश्चित् कर्मकरणे प्रवर्तते इति । कार्योपभोगसमय इति उत्तरकाले । यस्तु प्रवृत्तिजननौपयिक इति । संसारानित्यत्वादि १ एकप्रत्यवमर्शस्य हेतुत्वाद् धीरभेदिनी। एकधीहेतुभावेन व्यक्तीनामप्यभिन्नता ॥ प्रवा० ३.१०८ । तस्मादेककार्यतैव भावानामभेदः । स्वार्थानुमानपरि० पृ० ३७ । २ बौद्धानां मते क्षणपदेन घटादिरेव पदार्थों व्यवह्रियते, न तु तदतिरिक्तः कश्चित् क्षणो नाम कालोऽस्ति.........क्षणिकः पदार्थ इति व्यवहारस्तु भेदकल्पनया । ब्रह्मविद्याभरण २. २.२० । विशिष्टसमयोतमनस्कारनिबन्धनम् । परापरादिविज्ञानं न कालान्न दिशश्च तत् ॥ निरंशैकस्वभावत्वात् पौर्वापर्याद्यसम्भवः । तयोः सम्बन्धिमेदाच्चेदेवं तौ निष्फलौ ननु ॥ तत्त्व०सं० ६२९-३० । ३ 'रजतमिदम्' इति ज्ञानस्य 1 ४ यः फलस्य प्रसूतौ च भोक्ता संवर्ण्यते क्षणः । तेन नैव कृतं कर्म तस्य पूर्वमसम्भवात् ॥ कर्मतत्फलयोरेवमेककर्बपरिग्रहात् । कृतनाशाकृतप्राप्तिरासक्ताऽतिविरोधिनी ॥ तत्त्व०सं० ४७८-९। ५ द्र० न्यायमजरो (काशी), द्वितीयभाग पृ० ८०; Buddhsit Hybrid Sanskrit Grammar and Dictionary, vol ii, p. 187. Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०४२, वि०पृ०४७१ ] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः विमर्शः। यूना यत् कृतमीश्वरसेवादि। स्वकृतफलभोगादिनियत इति' । स्वकृतानां कर्मणां यत् फलभोगादि तेन नियतो नियम्यमानोऽवश्यंभावी च कृतकर्मफलोपभोग[16] इत्यर्थः । चिरन्तनचार्वाकाचार्यवदिति । चिरन्तन्चार्वाकर्हि भाविविक्तप्रैभृतिभिः 'भूतेभ्यश्चैतन्यम्' इति सूत्रं भूतेभ्य इति पञ्चम्यन्तपदयोजनया व्याख्यातम् , भूतेभ्य उत्पद्यते चैतन्यमिति । उद्भटेन तु 'भूतेभ्यः' इति पदं. चतुर्थ्यन्ततया व्याख्यातम् , भूतेभ्यश्चैतन्यं भूतार्थ चैतन्यं स्वतन्त्रमेव शरीरारम्भकभूतोपकारकमित्यर्थः । स्मरणेच्छादिकार्ययोग इति । यथेहस्थितेन मया स्मरणेच्छादिकार्ययोगेनात्मास्तित्वं निश्चितम् एवं वाराणस्यामपि तस्य कार्यस्य दर्शनात् तत्राप्यात्मनो भावः कल्प्यः । अङ्गुष्ठमात्रपुरुषमिति । [सावित्र्युपाख्याने श्लोकस्य पूर्वमर्धम्-ततः सत्यवतः कायात् पाशबद्धं वशं गतम् ॥ इति।। [महाभारत ३.२८१.२६] शिरसा काष्ठभङ्गसञ्जातवेदनातिशयस्य सत्यवतः स्वाङ्के सुप्तस्य हृदयदेशादात्मानं निष्कर्षयन्तं यमं सा सावित्री सतीमाहात्म्याद् ददर्शेति । अत एवं परं सतीमाहात्म्येऽस्य तात्पर्यम् । कर्तृकरणव्यवस्थितीति। व्यापकस्य युगपत्सर्वविषयोपलब्धिप्रसङ्गे सूक्ष्मकरणापेक्षया तदा(द)भावो वक्तुं युज्यते । द्वयोस्तु सूक्ष्मत्वे कर्तृकरणव्यवस्थायां किं नियामकमिति। ननु सर्वत्र सुखदुःखज्ञानादीति । सर्वप्राणिनां सर्वत्र सुखदुःखादिकार्यमुपलभ्यते तत्र सर्वव्यापी कल्प्यः, तेन च कल्पितेनैकेनैव कार्यसिद्धेः, नानात्वकल्पनायां किं प्रमाणमिति। कल्पयितुं युक्तमतिप्रसङ्गादिति । दृष्टे हेतौ सम्भवति, अदृष्टकल्पनायां हि सर्वत्रैवंप्रसङ्ग इति । मुखदुःखमीदृशमिति । यादृशमभिनवजीवलोकावलोकनादिजमुक्तम् । कार्यत्वहानिप्रसङ्गादिति । कार्य तदुच्यते यत् केनापि क्रियत इति । अनन्तरमेव निरस्तत्वादिति । अयस्यपि क्रियायाः सनिमित्तत्वं कार्यस्य, निर्हेतुकवे कार्यवहानिप्रसङ्गादिति । १ मुद्रितमञ्जयां तु 'भोगादिनिपुण' इति पाठः । २ तत्त्वसङ्ग्रहपञ्जिकायां भाविविक्तस्य नामत उल्लेखोऽस्ति । तत्र स नैयायिकमतावलम्बी प्रतिभाति । अतो विद्वद्वरभट्टाचार्येण स उद्योतकरपूर्ववर्ती नैयायिकः इति निर्णयः कृतः । किन्तु चक्रधरः तं चाकसूत्रव्याख्याकृच्चिरन्तनचार्वाकं मन्यते । ३ तुलना .. .. ...विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति, न प्रेत्य संज्ञा अस्तीति । बृहदा० उप० २. ४.१२ । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का०पृ०४३, वि.पृ०४७१ “वीतरामजन्मादर्शनात्" इति न्यायसूत्रम् [३. १.२५] । ज्वालाजाल[17] पल्लवितानना इति । ज्वालाजालेन पल्लवितानि संजातानि पल्लवानीवाननानि येषाम् । अदृश्यो(दृष्टो ?) भूतधर्मस्त्विति । यथा उद्भटेन उक्तम्-"शरी[रा]रम्भककारणानामेव भूतानां स कश्चित् तादृशो विचित्रसुखदुःखोपभोगदो धर्मः स्वभावविशेष इत्यर्थः” । दृष्टश्च साध्वीसुतयोरिति । अनेनैव स्वमातृमतं वैगुण्यं निरस्यति । 'कर्मणां ननु वैचित्र्यमिति । प्राणिनां विचित्रसुखदुःखादिकार्यदर्शनाद् यद् एतत् कर्मवैचित्र्यमनुमीयते तत् किं स्वाभाविकम् आहोस्वित् फलवैचित्र्यवद् हेत्वन्तरजम् ? किं स्वभावत एव तादृशविचित्रकर्मसम्पादनं तस्य वृत्तमुत कर्मान्तरप्रयुक्तस्येत्यर्थः । स्वाभाविकत्वे फलवैचित्र्यमपि स्वाभाविकमस्तु, हेत्वन्तरजत्वेऽनवस्था, तद्धेतूनामपि तथाविचित्रकर्मजनकत्वस्य हेत्वन्तरजनितत्वादिति । कर्मणां शास्त्रतो ज्ञातेति । अग्निहोत्रादिकर्मणां शास्त्रतः फलशक्तियोगिता ज्ञात्वा फलार्थी लेषु प्रवर्तते, न पुनः कर्मान्तरं तत्प्रवृत्तौ कारणमित्यर्थः । दृष्टार्थेषु हरीतकीभक्षणादिषु । हेत्वन्तरनिमित्तेऽपि कर्मान्तरकृतकर्मवैचित्र्ये । पुण्यः पुण्यकर्मकारी । स्वप्रणीतानुगच्छद्धर्माधर्मेति । स्वप्रणीतौ स्वकृतौ अनुगच्छन्तौ अनुवर्तमानौ यो धर्माधी ताभ्यां क्रमेण परिणतौ(ते) अनन्ततापाय यौ(ये) सुखदुःखे तयोरुपभोगो यस्य । मैत्रेय्या परिचोदित इति । मैत्रेय्या भार्ययेति । पूर्वपक्षत्वेन 'विज्ञानघन एवायम् [बृ०उप०२.४.१२] इत्यागमस्य ग्रहणम् । आत्मनैव(त्मा नैव) विनश्यति इति । “अविनाशी वा अरे अयमात्मा अशीर्यो न हि शीर्यते" इत्याद्युक्तम् [का उप०४.५.१४]। सिद्धान्तसारं सिद्धान्ततात्पर्थम् । इति कवलने मांस्पाकानामिति । मांसस्य पाकः मांस्पाक इति । “पदादिषु मांस्पृत्स्नूनामुपसङ्ख्यानम्" इति [कार्तिक, पा० ६.१. ६३] अकारलोपः । कितवजनतागोष्ठयां कितवजनसमूहगोष्ठयाम् । अस्मिन्नस्मिन् पदार्थे रता मतिर्यस्येति । श्रेयस् ॥[18] भट्टश्रीशङ्करात्मजचक्रधरकृते न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गे सप्तममाह्निकम् १ मुद्रितमजा तु ' कर्मणां यदि' इति पाठः । २ अथ ह याज्ञवल्क्यस्य द्वे भायें बभूवतुः, मैत्रेयी च कात्यायनी च । तयोर्ह मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी बभूव, स्त्रीप्रज्ञेव तर्हि कात्यायनी । बृहदा. उप. ४.५. ३ । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अष्टमम् आह्निकम् ॥ विशिष्टप्रमेयप्रक्रम इति । चेष्टामात्राश्रयत्वं वृक्षादीनामप्यस्ति' । न च तेषां लक्षणमिह प्रस्तुतम्, मुमुक्षोस्तत्परिज्ञाने प्रयोजनाभावात् । आत्मप्रयत्नातिरिक्तप्रेरकनिरपेक्षेति । रथादि हि प्रयत्नातिरिक्तेन शरीरादिना प्रेर्यते, इदं तु आत्मप्रयत्नेनैव । नियतस्य मुमुक्षुशरीरस्याभावात् कर्मविपाकवशात् कदाचिद् मण्डूकादिशरीरोऽप्यसौ भवेदित्यर्थः । सितेतरसरणिः अग्निः । अवच्छेदाभिप्रायेणेति । विशिष्टरचनावच्छिन्न आकाशदेश एवाकाशकार्यत्वेनोपर्यते । तच्च प्रकृतिगामित्ववचनमिति । ‘सूर्य ते चक्षुर्गमयतात्' [ ] इत्यादिकम् । कर्णशष्कुल्यवच्छिन्ननभोभागाभिप्रायेणेति । श्रोत्रशब्दं यतः प्रयुञ्जते व्यवहर्तारोऽतः श्रोत्रव्यवहारे नभोनिमित्तत्वाच्छोत्रस्यापि भौतिकत्वम् । व्यवहारतः समर्थनीयम् , तन्निमित्तत्वाद् व्यवहारस्य व्यवहारद्वारेण समर्थनीयमित्यर्थः । आहङ्कारिकाणीन्द्रियाणीति । यथा घटादयो मृद्विशेषाद् एकस्माद् मृत्तत्त्वादुत्पन्ना इति निश्चीयन्ते तथा प्रकाशविशेषाच्चक्षुरादय एकस्मात् प्रकाशविशेषादुत्पद्यन्ते । योऽसौ च प्रकाशविशेषः सोऽह ङ्कारः । तेषां तु व्यापकत्वादिति । व्यापकत्वं त्वहङ्कारस्य, तत्कार्याणामिन्द्रियाणां सर्वत्र सद्भावश्च, तेषां तबृतीनां सर्वत्रापि भावः । इन्द्रियाणामव्यापकत्वमिति चेत् तदाह-वृत्तिवृसिमतो १-३ चेष्टा व्यापारः, स चातिव्यापकतया अव्यापकतया च न लक्षणम् , वृक्षादिषु भावात्, अभावाच्च पाषाणमध्यवर्तिमण्डूकादिशरीरे इति भावः । अत्रोत्तरभाष्यम्-ईप्सितमित्यादि, तद्याचष्टे हिताहितेति । प्रयुक्तस्य उत्पादितप्रयत्नस्य, न व्यापारमात्रं चेष्टाऽभिमता, अपि तु विशिटो व्यापारः, स च न वृक्षादिष्वस्तीति नातिव्यापकता । यद्यपि च दारुयन्त्रादिष्वीदृशो व्यापारोऽस्ति तथापि मूर्तान्तराप्रयोगे सतीति विशेषणान्न व्यभिचारः, तेषां शरीरे मूर्तेन प्रयोगात् । शरीरस्य मूर्तान्तराप्रयुक्तस्य ईदृशव्यापाराश्रयत्वम्, पाषाणमध्यवर्तिनश्च मण्डूकदेहस्य तव्यापारायोगेऽपि तद्योग्यत्वात् , पाटिते पाषाणे तादृशस्य तद्व्यापारस्य दर्शनादिति भावः । न्या० बाप्तात्प० १.१.११ । ४ घ्राणरसनचक्षुस्त्वक्श्रोत्राणीन्द्रियाणि भूतेभ्यः । न्याम्सु० १.१. १२ । अत्र च कर्णशष्कुलीसंयोगोपाधिना श्रोत्रस्य नभसः कथञ्चित् भेदं विवक्षित्वा भूतेभ्य इति पञ्चम्यर्थो व्याख्यातः । न्यायवा० तात्प० १.१. १२ । ५ सत्त्वं लघु प्रकाशकम् । साँका १३. । सात्त्विक एकादशकः प्रवर्तते वैकृतादहङ्कारात् । सां०का० २५ । वैकृतात् सात्त्विकात् । सांतत्त्वकौ० २५ । आहङ्कारिकत्वश्रुतेर्न भौतिकानि । सां० सू० २. २० । ६ अभूतात्मकं व्यापकं चेन्द्रियं प्रतिपद्यमान इदं पर्यनुयोज्यः-व्यवहितार्थग्रहणं कस्मान्न भवति ? कि कारणम् ? व्यापकत्वादिन्द्रियस्य न कुडयादेरावरणसामर्थ्य मस्तीति । न्यायवा० प्र० ३७४। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का पृ०४९, घिपृ०४७८ नान्येति' । यतोऽनन्यत्वमतो विषयदेशेऽपि तेषां भावात् तदाकारनिर्भासवृत्त्युदयः । ननु गोलके चिकित्सादिप्रयोगादित्यादि बौद्धः प्रत्यवतिष्ठते । प्रायश्चित्तमशुचिद्रव्यघ्राण इति । तथा च पठन्ति - अनृतं मद्यगन्धं च दिवामैथुनमेव च । भुनक्ति वृषलस्यान्नं बहिःसन्ध्याम्] उपासीत ॥ [शातातपस्य] इत्यादि [19] । दृष्टानुमितानामिति । एवं भवतेति यो नियोगः, एवं मा भूत इति च यः प्रतिषेधः, तयोरनुपपत्तिः । तत्त्वविषयत्वाद् यथाऽस्तिवस्तुविषयत्वात् ।। नियतगुणोत्कर्षयोगित्वादिति । नियतस्य गन्धादेर्गुणस्य पृथिव्यादीनां य उत्कर्षो भूयस्त्वम् । गन्धयुक्ति(क्त)द्रव्यवदिति । गन्धयुक्तद्रव्याणां कस्तूरिकादीनां गन्धविशेषार्थमुपादानम्, यस्मात् तेषामेव गन्धव्यञ्जकत्वम् , यथाहि क्षितिद्रव्यव्यक्तयः प्रत्येकं सामस्त्येन च गन्धाभिव्यक्त्यर्थमुपादीयन्ते नैवं जलादिव्यक्तय इति पृथिवीद्रव्यव्यक्तीनामेव गन्धाभिव्यञ्जकत्वम् । न च वाच्यं गन्धयुक्तद्रव्याणि गन्धविशेषस्योत्पादकानि नाभि १ तुलना–यदि च वृत्तिवृत्तिमतो नान्या भवति वृत्तिमतोऽवस्थानाद् वृत्तीनामवस्थानमिति युगपदनेकविज्ञानप्रसङ्गः। वृत्त्यनेकन्धे चैकमिन्द्रियमनेकं प्राप्नोति वृत्तिभ्योऽनन्यत्वात् । अथ मा भूदिन्द्रियभेद इति, वृत्तीनां तर्हि एकत्वं प्राप्नोति वृत्तिवृत्तिमतोरनन्यत्वात् । न्यायवा० पृ० ३७५-६।२ दिखनागः । अधिष्ठानाद बहिर्नाक्षं तञ्चिकित्सादियोगतः । सत्यपि च बहिर्भाव न शक्तिविषयेक्षणे ॥ प्र०समु० १. १८। तुलना-"यथोक्तं दिङ्नागेन-सान्तरग्रहणं न स्यात् प्राप्तौ ज्ञानेऽधिकस्य च । बहिर्वर्तित्वादिन्द्रियस्य उपपन्न सान्तरग्रहणमिति चेत्, अत उक्तम्अधिष्ठानात् बहिर्नाक्षम्, किन्तु 'अधिष्ठानदेश एवेन्द्रियम्' । कुतः ? तच्चिकित्सादियोगतः । सत्यपि च बहिर्भावे न शक्तिविषयेक्षणे । यदि च स्यात् तदा पश्येदप्युन्मील्य निमीलनात् । यदि च स्यात् , उन्मील्य निमीलितनयनोऽपि रूपं पश्येत्, उन्मीलनादस्ति बहिरिन्द्रियमिति । न्यायवा तात्प० १.१. ४ पृ०११८ । किञ्च, यदि प्राप्यकारि चक्षुः स्यात् सान्तराधिकाहणं न प्राप्नोति, न हीन्द्रियनिरन्तरे विषये गन्धादौ सान्तरग्रहण दृष्टम्. नाप्यधिकग्रहणम् । अथ मतम्-बहिरधिष्ठानाद् वृत्तिरिन्द्रियस्य, अत उपपन्नं सान्तराधिकग्रहणमिति, तदयुक्तम्, यस्माद् न बहिरधिष्ठानादिन्द्रियम्, तत्र चिकित्सादिदर्शनात् । अन्यथा अधिष्ठानपिधानेऽपि प्रहणप्रसङ्गः। मनसश्चा बहिर्भावात् । मनसाधिष्ठितं हीन्द्रिय स्वविषये व्याप्रियते । न च मनो बहिरधिष्ठानादस्ति । तदभावादग्रहणग्रसङ्गः । अनुवृत्तौ च सम्भवाभावाद् विप्रकीर्ण चक्षुरश्मिसमूह कथमणु मनोऽधिष्ठास्यति । तत्त्वार्थरा० १. १९ पृ० ६८ । द्र० श्लो० वा. प्रत्यक्ष ४५ । ३ अन्यत्र 'पुनाति' इति पाठः । ४ न्यायसू० ३. १. ५३ । ५ न्यायभा० ३. १. ५३ । ६ भूयस्त्वाद् गन्धवत्त्वाच्च पृथवी गन्धज्ञानप्रकृतिः । वैशे० सू० ८. १६ । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का पृ०५६,वि पृ०४८५] न्यायमञ्जरीग्रन्थिमङ्गः २०१ व्यञ्जकानीति, उत्पादकत्वेऽप्यभिव्यञ्जकत्वाविरोधात् । ग्रहणयोग्यत्वापादकत्वं हि द्रष्यव्यञ्जकत्वम् । तच्चोत्पादकत्वेऽप्यविरुद्धमिति' । एवं रसनादिष्वपि प्रयोगा इति। आप्यं रसनेन्द्रियम् , द्रव्यत्वे सति रूपादिषु मध्ये रसस्यैव व्यञ्जकत्वात् , दृष्टान्तघंटोदकवत् । तैजसं चक्षुः, द्रव्यत्वे सति रूपादिषु मध्ये रूपस्यैव व्यञ्जकत्वात् प्रदीपवत् । वायवीयं स्पर्शनेन्द्रियम् , द्रव्यत्वे सति रूपादिषु मध्ये नियमेन स्पर्शग्राहकत्वाद् व्यजनानिलवत् । ____सर्वत्रानपायात् इति । चक्षुरादावपि त्वचः सम्भवात् । उत्तरमानसे सरोविशेषे । कार्यस्योपलब्धिलक्षणस्येत्यादिना “न, बुद्धिलक्षणाधिष्ठानगत्याकृतिजातिपञ्चत्वेभ्यः" न्या०सू०, ३.१.६२] इति सूत्रं व्याचष्टे । बुद्धिरेव लक्षणं कार्यभूता । वागिन्द्रियं त्विति । शब्दोत्पत्तौ करणस्य वागिन्द्रियत्वाभिधानात् । आनन्ददायीति । आनन्दशब्देन दुःखाभावे वर्तमानेन मोक्षो लक्षितः । प्रक्रमाद् वा प्रमेयसूत्रेऽस्मिन्नवसरे तेषां पाठात् । तनिमित्तम्', रागादिनिमित्तम् । अवयव्यभिमानः, अवयविग्रहः । आश्रितत्व-विशेषणत्वाभ्यां सर्वे गुणा इति वैयाकरणपक्षपरिग्रहः । तथा [20] च तेऽवोचन् संसर्गि भेदकं यद् यत् सव्यापार प्रतीयते । गुणत्वं परतन्त्रत्वात् तस्य शास्त्र उदाहृतम् ॥ [वाक्यप०, ३.५.१] इति ॥ तर्हि किं द्वन्द्वसमासवर्णनेनेति । प्राधान्यात् तेषामेवास्तु ग्रहणमित्यभिप्रायेणेदमाह । १ यच्च गन्धोपलब्धिसम्पादकं करणं तत् घ्राणं तच्च पार्थिवम् रूपरसगन्धस्पर्शेषु मध्ये नियमेन गन्धव्यजकत्वात् । यद् यद् रूपादिषु मध्ये नियमेन गन्धव्यञ्जकं तत् तत् पार्थिवं दृष्टं यथा कस्तूरिकादिद्रव्यम् । तथा च घ्राणं रूपादिषु मध्ये नियमेन गन्धप्रकाशकं तस्मात् पार्थिवमिति । व्योम०प्र०२३३ । २ त्वगव्यतिरेकात् । न्यायसू० ३.१.५५ । त्वगेकमिन्द्रियमित्याह । कस्मात् ? अव्यतिरेकात् । न त्वचा किञ्चिदिन्द्रियाधिष्ठान न प्राप्तम्, न चासत्यां त्वचि किञ्चिद्विषयग्रहणं भवति, यया सर्वेन्द्रियस्थानानि व्याप्तानि यस्यां च सत्यां विषयग्रहणं भवति सा त्वगेकमिन्द्रियमिति । न्यायभा० ३.१.५५ । ३ एवं कर्मेन्द्रियेषु मध्ये वाग् भवति शब्दविषया स्थूलशब्दविषया तद्धेतुत्वात् न तु शब्दतन्मात्रस्य हेतुः तस्याऽऽहङकारिकत्वेन वागिन्द्रियेण सहैककारणत्वात् । सां तत्त्वको. ३४ । ४ आत्मशरीरेन्द्रियार्थबुद्धिमनःप्रवृत्तिदोषप्रेत्यभावफलदुःखापवर्गास्तु प्रमेयमिति (न्यायसू०१. १. ९) सूत्रे । ५-६ न्यायसू० ४.२.३। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का०पृ०५७, वि० पृ०४८६ गन्धज्ञानप्रकृतिरिति । गन्धो ज्ञायते येन तद् गन्धज्ञानं घ्राणम् तत्र प्रकृतिः कारणम् । तद्व्यवस्थानम्, तेषां व्यवस्थानं नियतविषयग्राहकत्वम् । कृतकमधुरमिति । यत एवेदृशाः विभाव्यन्तेऽत एव तिक्ताहार इव । कथमिति चेत्, तदाह - 'परिणतिविपत्कारिणो हि' इति । २०२ शिंशपाचोद्यमिति । यथा 'सत्स्वन्येष्वशोकवनिकायां तालतमालप्रभृतिषु रावणेन जानकी किमिति शिंशपाया एवाधः स्थापिता' इति यदि चोद्येत तदा 'अन्यस्य वृक्षस्याधः स्थापिता इति' अस्य चोद्यस्यानिवृत्तिः 'किमिति शिंशपाया अधो न स्थापिता इति । बुद्धिरन्येति । बुद्धिर्महत्तत्त्वम् तस्या वृत्तिविशेषो ज्ञानम्, उपलब्धिस्त्वात्मनतत्प्रतिबिम्बम् इति । सर्वत्र च प्रीत्यप्रीतिविषाददर्शनादिति । शब्दादयो हि कस्यचित् प्रीतिं " कारः. १ वैशे०सू० ८.१६ । २ न्यायसू० ३. १. ७१ । ३ बुद्धिः किल त्रैगुण्यवि.. तेन योऽसौ नीलाकारः परिणामो बुद्धेः स ज्ञानलक्षणा वृत्तिः, आत्मप्रतिबिम्बस्य तु बुद्धिसङ्क्रान्तस्य यो बुद्धधाकार नीलसम्बन्धः स आत्मनो व्यापार इवोपलब्धिरात्मनो वृत्तिरित्याख्यायते । न्यायवा० तात्प० १.१.१५ । अस्मिन्न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गे तु 'आत्मनः तत्प्रतिबिम्बनम्' इति पदसमूहद्वारेण चक्रधरः बुद्धिसङक्रान्तमात्मनः प्रतिबिम्बं स्पष्टरूपेण निर्दिशति । किन्तु एतद्विषये विदुषां मतभेदः । 'इन्द्रियप्रणालिकया चित्तस्य बाह्यवस्तू परागात् तद्विषया सामान्यविशेषात्मनोऽर्थस्य विशेषावधारणप्रधाना वृत्तिः प्रत्यक्ष प्रमाणम्, फलमविशिष्टः पौरुषेयश्चित्तवृत्तिबोध: ' इति व्यासभाष्यस्य ( योगसूत्र १. ७) व्याख्यानावसरे वाचस्पति विज्ञानभिक्षू स्वस्वमतं प्रतिपादयन्तौ एतन्मतभेदमाविष्कुरुतः । तद्यथा “ननु पुरुषवर्ती बोधः कथं चित्तगताया वृत्तेः फलम्, न हि खदिरगोचरव्यापारेण परशुना पलाशे छिदा क्रियत इत्यत आह- 'अविशिष्टः' इति । न हि पुरुषगतो बोधो जन्यतेऽपि तु चैतन्यमेव बुद्धिदर्पणप्रतिबिम्बितं बुद्धिवृत्त्याऽर्थाकारया तदाकारतामापद्यमानं फलम्...।” इति वाचस्पतेर्व्याख्यानम् । एतस्य वाचस्पतिमतस्य निरसनं विज्ञानभिक्षुः निम्नभङ्गथा करोति - "कश्चित्तु वृत्त्याख्यकारणसामानाधिकरण्येन बुद्धावेव प्रमाऽऽख्यं फलं जायते, चैतन्यमेव हि बुद्धिदर्पणप्रतिबिम्बितं बुद्धिवृत्त्या अर्थाकारया तदाकारतामापद्यमानं फलम्, तच्च चिच्छायाख्यं चित्प्रतिबिम्बं बुद्धेरेव धर्म इति वदति । तन्न, 'पौरुषेय' शब्दस्य यथाश्रुतार्थत्यागापत्तेः, प्रतिबिम्बस्य प्रकाशाद्यर्थक्रियाकारितायाः क्वाप्यदर्शनाच्च प्रतिबिम्बं हि तत्तदुपाधिषु बुद्धेर्बिम्बाकार परिणाममात्रमिति, किञ्च, परस्परं प्रतिबिम्बस्य श्रुतिस्मृतिसिद्धतया चितेरेव वृत्तिप्रतिबिम्बोपहितायाः फलत्वं युक्तम्...' इति विज्ञानभिक्षोर्व्याख्यानम् । द्र० द्वयोरेकतरस्येत्यादि साङ्ख्यसूत्रस्य ( १ ८७ ) प्रवचनभाष्यम् । ४ प्रीत्यप्रीतिविषादात्मकाः... गुणाः । सां०का ० १२ । अत्र च सुखदुःखमोहाः परस्परविरोधिनः स्वस्वानुरूपाणि सुखदुःखमोहात्मकान्येव निमित्तानि कल्पयन्ति तेषां च परस्परमभिभाव्याभिभावकभावान्नानात्वम् । तद्यथा - एकैव स्त्री रूपयौवनकुलसम्पन्ना स्वामिनं सुखाकरोति, तत् कस्य हेतोः ? स्वामिनं प्रति तस्याः सुखरूपसमुद्भवात् सैव स्त्री सपत्नीर्दुः खाकरोति, तत् कस्य हेतोः ? ताः प्रति तस्या दुःखरूपसमुद्भवात् । सां०तत्त्वकौ० १२ । साङ्ख्यपक्षे पुनर्वस्तु त्रिगुणं चलं च गुणवृत्तमिति धर्मादिनिमित्तापेक्षं चित्तैरभिसम्बध्यते, निमित्तानुरूपस्य च प्रत्ययस्योत्पद्यमानस्य तेन तेनात्मना हेतुर्भवति । व्यासभाष्य ( योगसूत्र ४.१५ ) । · " Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का पृ०५९, वि०पृ०४८७ ] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः २०३ सुखमपरस्याप्रीतिः दुःखं कस्यचित् तु विषादं दुःखातिशयरूपं जनयन्तो दृश्यन्ते । यथा स्तनयित्नशब्दः कर्षकाणां प्रीतिनिमित्तम् , वियोगिनीनां तु दुःखस्य च विषादस्य च हेतुरिति । प्रकाशप्रवृत्तिनियमावगमाञ्चेति । यथा बुद्धेः प्रकाशकत्वं सत्त्वधर्मः, अर्थग्रहणं प्रति प्रवृत्तिर्या सा रजोधर्मः, नियतविषयप्रकाशकत्वं तमोधर्म इति'। एवमन्वयपुरःसराः परिमाणादिहेतव इति । यदुक्तम् भेदानां परिमाणात् समन्वयाच्छक्तितः प्रवृत्तेश्च । कारणकार्यविभागादविभागाद् वैश्वरूप्यस्य ॥ [साङ्ख्यका०, १५] इति ॥ प्रधानसिद्धौ पञ्चवीतहेतवोऽनेनोद्दिष्टाः, तत्र समन्वयोऽमुनैव व्याख्यातः । शिष्टा व्याख्यायन्ते । यथाहि-ये ये परिमिता उत्पद्यन्ते ते ते शक्त्यात्मना संस्पृष्टाः, तद्यथा अङ्कुरादयः परिमिताः कललार्बुदादयश्च, देशप्रमाणकालरूपजाति[21]प्रत्यासत्तिभिरनुक्रमेण चोत्पद्यमाना नूनं व्रीहौ शुक्रे शोणिते च संस्पृष्टाः । उत्पद्यन्ते च कार्यकारणात्मका आध्यात्मिका भेदाः षोडशसङ्ख्याकाः बाह्याश्च देवमनुष्य-तिर्यग्भेदात् त्रिविधाः । तेऽपि क्वचित् संस्पृष्टाः । यद्धि नियतपरिमाणं समुत्पद्यमानं दृष्टं महदादि तदेकत्र संस्पृष्टम् । अन्यथा नियतक्रमेण नियतपरिमाणस्योत्पत्त्यसम्भवात् । तथा चामी आध्यात्मिका बाह्याश्च भेदाः । तस्मात् तेऽप्येकत्र संस्पृष्टा जायन्ते । तेषां यत्र संसर्गोऽभूत् तत् प्रधानमिति । शक्तितः प्रवृत्तेश्च । इह त्रिकालावस्थित प्रकृ]त्यनुगताः कार्यकारणात्मका भेदा इति धर्मिनिर्देशः । शक्तिरूपैककारणपूर्वका इति साध्यम् । प्रवृत्तिदर्शनादिति हेतुः । परिनिष्ठितं कार्येण कारणरूपं मृदादिरथादिवत् । मृदादीनां रथादीनां च प्राक् प्रवृत्तेरस्ति प्रवृत्तिशक्तिः । कथमन्यथा घटादिकरणे वाहनादिकरणे च अशक्तत्वात् ते प्रवर्तेरन् ? प्रवृत्तिकाले चैषामस्ति प्रवृत्तिशक्तिरन्यथा ते कार्यमनारभेरन् । अतः प्रवृत्तिकाले शक्तेः सद्भावः । एवमूर्ध्वमपि प्रवृत्तिशक्तिसद्भावः, यतः निवृत्तव्यापारा अपि रथादयः शक्तेरनिवृत्तत्वात् तथाविधकार्यकरणे पुनः प्रवर्तमाना दृश्यन्ते । अन्यथा शक्तेरभावाद् न प्रवर्तेरन् । अतस्तेषां प्राग्भाविनी शक्तिः प्रवृत्तेः कारणम् । तेन ते शक्तिरूपैककारणपूर्वकाः । सन्ति चाध्यात्मिकानां कार्यकारणात्मकानां भेदानां प्रवृत्तयः । तस्मात् तेऽप्यवश्यं शक्तिपूर्वकाः। यत्र चैषां शक्त्यवस्था तत् प्रधानम् । कारणकार्यविभागादिति । इहा १ प्रकाशप्रवृत्तिनियमार्थाः...गुणाः । सांका०१२ । २ तस्मात् प्राक् प्रवृत्तेः शक्तिः । यत्पुनरेतदुक्तं तावदेव प्रध्वंस इति अत्र ब्रूमः, न, कार्यनिष्ठादर्शनात् । युक्तिदी०पृ०६५ । ३ तस्मान्नास्ति शक्तीनां प्रवृत्तिकाले विनाशः । युक्तिदी० पृ०६६। ४ प्रवृत्त्युत्तरकालमपि नास्ति । कस्मात् ? पुनः प्रवृत्तिदर्शनात्। युक्तिदी० पृ० ६६ । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का०पू० ५९, वि०पृ० ४८७ वस्थितभावपूर्वकाः भेदाः कारणकार्यविभागात् परस्परोपकारकोपकार्यविभागाच्छयनाद्यङ्गवत् । खट्वादीनां ह्यवयवा आरभन्ते [ उत्तरकार्येण व्यवस्थिताः परस्परोपकारेण च वर्तमाना बुद्धिमदेककर्तृका दृष्टाः । [22] [वर्तन्ते चाध्यात्मिका बाह्याश्च भेदा इतरेतरोपकारेण, तस्मान्न ते यतस्तत आगता अपि त्वितरेतरौन्मुख्येन, अत एवैकरूपात्मनाऽवस्थितास्ते [त्रिगुणात्मके प्रधाने] यस्येदं विश्वं प्रेक्षापूर्वमिव कृतमवसीयते । इह पुरुषार्थप्रयुक्ता गुणा परस्परोपकारेण वर्तन्ते' । यथा सत्त्वं रजस्तमसोः शब्दादौ कार्ये श्रवणादौ च कारणे प्रवर्तमानयोः कार्यसम्पत्यर्थं प्रकाशयति । सत्त्व-तमसोः स्वस्व - कार्ये प्रवर्तमानयोः रजः प्रवृत्तिं करोति । सत्त्व- रजसोस्तु स्वकार्यप्रवर्तमानयोस्तमो नियमयति । यथा तथाविधकार्यसम्पत्तिरेवं शरीरादिपृथिव्यादीनां वृत्ति-संग्रह- युक्तिव्यूहावकाशदानैः परस्परार्थकरणं दृष्टम्, तदेवं परस्परोपकारकोपकार्यभावेनावस्थितं विश्वमवश्यमेककर्तृकमवसीयते । यश्चैकः कर्ता स त्रिगुणात्मकं प्रधानमिति । अविभागाद् वैश्वरूप्यस्य । इह विश्वरूपा बाह्याध्यात्मिका भावा अविभागा उत्पद्यन्ते वैश्वरूप्यात्, जलभूम्यविभागपूर्वकस्थावरजङ्गमवैश्वरूप्यवत् । देशादिप्रत्यासत्त्या जलभूम्योः पारिणामिकं रसादिवैश्वरूप्यं स्थावरे दृष्टम् 1 स्थावराणां जङ्गमेषु, जङ्गमानां स्थावरेषु, स्थावराणां स्थावरेषु, जङ्गमानां जङ्गमेषु इत्येवंजात्यनुच्छेदेनोपादानकारणानुपदेन सर्वं सर्वात्मकम्, देशकालाकारनिमित्तानुबन्धात् तु खलु न समानकालं सर्वेषामात्मा [[म] नामभिव्यक्तिरिति । दृश्यते चेदं विश्ववैश्वरूप्यम् तस्मादविभक्तरूपसुखदुःखमोहरूपजातिपूर्वकमिति परमाविभागावस्थारूपप्रधानसिद्धिः । इयत्ता चतुर[]त्वादिना चेति । सूत्रैगतस्य परिमाणशब्दस्योभयथापि व्याख्याने २०४ o १ सति संयोगेऽपि तयोः प्रयोजनं नास्ति सर्गस्य । सां०का० ६६ । पुरुषार्थौ च भोगविवेकौ प्रकृत्यारम्भप्रयोजकौ... । सां० तत्त्वकौ०६६ । अन्योन्याश्रयवृत्तयः... गुणाः 1 सा० का ० १२ । तथाहि - सत्त्वं प्रवृत्तिनियमावाश्रित्य रजस्तमसोः प्रकाशेनोपकरोति, रजः प्रकाशनियमावाश्रित्य प्रवृत्त्येतरयोः, तमः प्रकाशप्रवृत्ती आश्रित्य नियमेनेतरयोरिति । सां तत्त्वकौ० १२॥ एते गुणाः परस्परोपरक्तप्रविभागाः ... इतरेतरोपाश्रयेणोपार्जितमूर्तयः... पुरुषार्थकर्तव्यतया प्रयुक्तसामर्थ्याः ... । व्यासभा ० ( यो०सु० २.१८ । ) २ आह, कः पुनर्व्यक्तस्य परस्परस्य कार्यकारणभावः इति ? उच्यते, गुणानां तावत् सस्वरजस्तमस प्रकाशप्रवृत्तिनियमलक्षणैर्धमै - रितरेतरोपकारेण यथा प्रवृत्तिर्भवति, तथा प्रीत्यप्रीतिविषादात्मका इत्येतस्मिन् सूत्रे व्याख्यातम् । तथा शब्दादीनां पृथिव्यादिषु परस्परार्थमेकाधारत्वम् । श्रोत्रादीनामितरेतरार्जन - रक्षणसंस्काराः । करणस्य कार्यात् स्थानसाधनप्रख्यापनादिकार्यस्य करणाद् वृत्तिक्षतभङ्गसंरोहणसंशोषण परिपालनानि । पृथिव्यादीनां वृत्तिसङ्ग्रहपन्थिव्यूहावकाशदानैर्गवादिभावो... । युक्तिदी० पृ ६७ । ३ ६० माठरवृत्ति १५, व्यासभा० ( योगसू० ३.१४ ); नयचक्र ( जं० ) प्रथमभाग पृ० ११, ३२० । ४ अत्र चक्रधरेण साङख्यकारिकायाः 'सूत्र' व्यपदेशः कृतः । युक्तिदीपिकाकारोऽपि 'इत्येतस्मिन् सूत्रे' इति वदन् 'सूत्र' अभिधया कारिकां निर्दिष्टवान् । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०६०, वि०पृ०४८९ ] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभक्तः २०५ हेतुत्वेन सङ्गतिः उपपद्यत एवेति दर्शयितुमुक्तम्-'चतुर[न त्वादिना परिमाणेन येऽन्विताः घटादयः तेऽप्येकेनात्मना मृत्वादिना संसृष्टा [23] उपलब्धाः' इति । व्याख्यातं च सविस्तरमिदं प्राक् । विषमप्रवृत्तयश्चेत्यादिना अविभागाद् वैश्वरूप्यस्येति हेतोस्तात्पर्य दर्शितम् । कार्येषु दृश्यन्ते शरीरादिषु । सत्त्वबहुलानि हि देवशरीराणि, रजोबहुलानि मनुष्यशरीराणि, तमोबहुलानि तिर्यक्शरीराणि' । अध्यवसायादिकर्मयोगिनमिति । न हि आत्मा व्यवस्यति निश्चिनोति गौ रेवायमित्येवमादि, अपि तु बुद्धिमध्यवस्यन्तीं पश्यत्येव स इति । निर्विकारा सती स्त[ब्ध]त्वात् । सा बुद्धिरध्यवसायात्मिका वृत्ति-वृत्तिमतोरभेदादध्यवसायलक्षणा वृत्तिरात्मा यस्याः। तद्विपर्ययेति । अधर्माज्ञानावैराग्यानैश्वर्याणि तद्विपर्ययः । स चाभिमानस्वभावः । अभिमानलक्षणं कार्य यतोऽहङ्कारस्य तेनाभिमानस्वभाव इत्युक्तः । वागादीनि पश्च कर्मेन्द्रियाणीति । ताल्वादिस्थानविकारहेतुत्वात् तेषामिन्द्रियत्वम् । ताल्वादिस्थानविकारभूतो हि शब्दः, तस्य विकारस्य हेतुर्वागिन्द्रियम् । एवमन्येष्वपि बोद्धव्यम् । गन्धादितन्मात्राणीति । मालतीकुसुमगन्धादिना · विशेषेणानाक्रान्ता गन्धाद्यविशेषावस्था तन्मात्रशब्दवाच्या । लिङ्गमिति । प्रधानस्य प्रमितस्य प्रल(च)यावस्था मूर्तिरूपा बुद्धयादिकोच्यते । प्रकृतेः सुकुमारतरमिति । यथा कुलाङ्गना सौकुमार्याल्लज्जान्वितत्वेन पुरुषेण च दृष्टा पुनस्तस्य दर्शनपथं नावतरत्येवं प्रकृतिः सर्वतो दृष्टा पुरुषेणेल्यतो निवर्तते, न पुनस्तस्य दर्शनमुपगच्छति । १ द्र० साका० ५४ । २ अध्यवसायो बुद्धिः... । सां.का. २३। एवं सति वृसिद्रष्टुरेव वृत्त्यारूढार्थद्रष्टत्वकल्पनोचिता...अत्रायं प्रमात्रादिविभागः -प्रमाता चेतनः शुद्धः प्रमाणं वृत्तिरेव च । प्रमाऽर्थाकारवृत्तीनां चेतने प्रतिबिम्बनम् ॥ प्रतिबिम्बितवृत्तीनां विषयो मेय उच्यते । वृत्तयः साक्षिभास्याः स्युः करणस्यानपेक्षणात् । साक्षाद् दर्शनरूपं च साक्षित्वं साङ्ख्यसूत्रितम् । अविकारेण द्रष्टुत्वं साक्षित्वं चापरे जगः ॥ योगवार्तिक १.७ । ३ 'भध्यवसायो बुद्धिः' (सां. का. २३)। क्रयाक्रियावतोरभेदविवक्षया......। सांतत्त्वको. २३ । ४ सात्त्विकमेतद्रूपं तामसमस्माद् विपर्चस्तम् । सां०का० २३। ५ अभिमानोअहङ्कारः.. ... सांका० २४ । ६ वाकपाणिपादपायूपस्थाः कर्मेन्द्रियाण्याहुः । सां०का० २६ । ७ लिङ्गं महदादिसूक्ष्मपर्यन्तं वक्ष्यति । सां०तत्त्वकौ० २० । हेतुमदनित्यमव्यापि सक्रियमनेकमाश्रितं लिङ्गम् । कारणानुमापकत्वाल्लयगमनाद् वा अत्र लिङ्गं कार्यजातम्, न तु महत्तत्वमात्रमत्र विवक्षितं हेतुमत्त्वादीनामखिलकार्यसाधारण्यात् । सां०प्रवचनभा०१. १२४। ८ सां०का० ६१। ९६. सातत्त्वकौ० ६१ । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का पृ०६१, वि०पृ०४९० ऐकान्तिकमात्यन्तिकमिति' । ऐकान्तिकमवश्यंभावात् आत्यन्तिकमपुनविनिवृत्तेः । अभयं जन्मादिभीतिशून्यम् । तं प्रति नष्टमप्यनष्टमिति । कृतार्थ सन्नष्टमप्यदर्शनीभूतमपि । बोद्धरि विज्ञातर्यध्यवसातरीति । पुनरुक्त्या बुद्धे नाख्यवृत्तियोगाद् बोद्धृत्वम् , अध्यवसायोत्पादकत्वाच्चाध्यवसा[तृत्वम् ] [24] .... .... .... घृतादीनां सम्भवः, घृतादिषु च पुष्टेघृताधुपयोगे हि पुष्टेः सम्भवात् । पुष्टौ च सत्यां रेतआदयः रेतसि च पुत्रादयः । तेषां च प्राप्तकाले मरणाच्छरीरस्य काथः, कथितस्य च कृमिभावेन परिणामः, तदेव च कथितम् । वृक्षायुर्वेदे वृक्षाणां वृद्धये श्रूयते-'तथा च सति वृक्षस्यापि तत्र सम्भवः, वृक्षाच्च फलम् , फलाद् रसः, रसाद् बलमिति सर्व क्षीरेऽस्ति, देशकालाकारापबन्धाद् न समानकालमभिव्यज्यन्ते' इति ।। न ह्यसौ मृत्पिण्डादिविषयो भवितुमर्हति । यद्धि क्रियते तत्र कारकव्यापारः; न च मृत्पिण्डादि क्रियते, तस्य पूर्वकृतत्वादेवेति । ___ रूपभेदादविरोधः। कारणरूपेण सत्त्वम् , स[स्व.]रूपेण त्वसत्त्वादिति । वस्तु नास्त्येव । सन्नसन्नप्यसत् , तत् किं वस्तु भवति ? अनुमानेनापि यदुपलब्धम् 'असदकरणात्' इत्यादिना [सां० का० ९] । चक्रमूर्धनि घटोऽस्तीति । चक्रमूर्धनि घटसम्पत्तये यदुपात्तो मृत्पिण्डस्तत्र । नासतो विद्यते भाव इत्यस्योत्तरमर्धम् ---"उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः ॥" [भगवद्गीता, २.१६] इति ॥ असतः शशविषाणादेः करणं नास्ति, सतश्च विनाशो नास्ति, भूतपरिणाममात्रं केवलमित्युभयोः सदसतोः तत्त्वदर्शिभिरन्तः स्वरूपमवधृतमित्यर्थः । पूर्वापरान्तयोः प्रागभाव-प्रध्वंसाभावयोः । न च शक्तिरेव कार्यमिति । कारकाणां तत्रैव व्यापारः। कार्य तु सदेव शक्तौ कृतायामभिव्यज्यत इति ॥ १ सां०का. ६८ । २ ऐकान्तिकम् अवश्यम्भावि, आत्यन्तिकमविनाशीति । सां० तत्त्वकौ० ६८ । ३ वाचस्पतिसम्मतः 'उभयम्' इति पाठः । युक्तिदीपिकाकारसम्मतस्तु 'अभयम्' इति पाठः । “एतत्परं ब्रह्म ध्रुवममलमभयमत्र सर्वेषां गुणधर्माणां प्रतिप्रलयः ।' युक्तिदी. ६८ । ४ द्र० सां.का. ६६ । करोतु नाम पौनःपुन्येन शब्दाद्युपभोगं प्रकृतिर्यया विवेकख्यातिर्न कृता, कृतविवेकख्यातिस्तु शब्दाद्युपभोग न जनयति । अविवेकख्यातिनिबन्धनो हि तदुपभोगः । सां०तत्त्वकौ० ६६ । कृतार्थ प्रति नष्टमप्यनष्टं तदन्यसाधारणत्वात् । योगसू. २. २२ । ५ 25 पत्रं नोपलभ्यते । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पू०६९, वि०पृ०४९८ ] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः २०७ बुद्धिसिद्धं तु तदसत् [ न्या० सू० ४. १.५० ] इति । 'प्राङ् निष्पत्तेर्निष्पत्तिधर्मकं ना सदुपादाननियमात् । कस्यचित्सिद्धये किञ्चिदुपादेयम्, न सर्वं सर्वस्य' इति [ न्या० भा० ४ १.४८ ] । अस्य निराकरणायाह — बुद्धिसिद्धं तु तदसदिति । इदमस्योत्पत्तये समर्थं न सर्वमिति प्रागुत्पत्तेर्नियतकारणं कार्यं बुद्धया सिद्धम्, उत्पत्तिनियमदर्शनात् । तस्मादुपादाननियमोपपत्तिरिति । ओदनादिफलावच्छेदेति । यावता कालेन ओदनादिफलप्रादुर्भाव आदित आरभ्य तावत्कालावस्थायिन्येव पाका [26] दिक्रिया | ननु यदि बुद्धिः बुद्धयन्तरमुत्पाद्य विनश्यति तदा तज्जातीयपदार्थदर्शनानन्तरं सुखसाधनत्वात् स्मरणकाले तज्जातीयपदार्थदर्शनस्य विनाशात् स्मरणानन्तरमुपलभ्यानुवादेन परामर्शज्ञानं सुखसाधनत्वज्ञानं वा न स्यादित्याशङ्क्याह – विनश्यदविनश्यद्दशयोरिति । स्मरणसमये वध्यघातकन्यायेन विनश्यत्ता अतः तस्य विनाश इति । बुद्धिजन्म तत्प्रत्यक्षमिति । बुद्धेः जन्म उत्पत्तिः । अस्त्येकेन्द्रियगम्येष्विति । दूराद्धि कदाचिद जातिमात्रग्रहणं 'गौरयमायाति' कदाचित्तु [ गुणमात्रग्रहणं ] 'शुक्लोऽयं कश्चित्' इति । दीर्घामनन्त इति । दीर्घामित्यनेन भक्ष्यमाणायाश्चक्षुर्ग्राह्यतामप्याह, दैर्ध्याद् बहिर्भागस्य चक्षुषा ग्रहणात् । प्रत्यासन्नकारणान्तराभावेऽपीति । ज्ञानाद्यपि तत्र कारणमस्त्येव किन्तु मूर्च्छाद्यवस्थानन्तरकालं ज्ञानोत्पत्तौ तस्याभावादकारणत्वेनाव्यापकत्वम् । अतोऽन्येषां व्यभिचारात् तस्यैव सामर्थ्यावधारणम् । १ मी०सू० १. १. ४ । २ ये एकेन्द्रियप्रायास्तेषु कथमयुगपद्ग्रहणम् ? न हि तत्रासन्निहितं मनः । न्यायवा० १. १. १६ ( पृ० ८१ ) । ३ तुलना - युगपच्चतुष्टस्य तु वृत्तिः । सां०का०३० । बुद्ध हङ्कारमनसां हि बुद्धीन्द्रियाणां च समानदेशत्वम् । तत्र न शक्यत एतद्वक्तुं सति शक्तिसद्भावे विषयसम्बन्धे च कस्यचित् तत्र वृत्तिः कस्यचिन्नेति । किं चान्यत् । मेघस्तनितादिषु क्रमानुपलब्धेः । यदि हि क्रमेण श्रोत्रादीनामन्तःकरणस्य च बाह्येऽर्थे वृत्तिः स्यादपि तर्हि मेघस्तनितकृष्णसर्पालोचनादिष्वप्युपलभ्येत क्रमः । न तूपलभ्यते । युक्तिदी० पृ० १०९ । क्रमशोऽक्रमशञ्चेन्द्रियवृत्तिः सां०सू० २.३२ । द्र० स०प्रवच नभा० २. ३२ । युगपद् बुद्धघदृष्टेश्चेत् तदेवेदं विचार्यते । तासां समानजातीये सामर्थ्यनियमो भवेत् ॥ तथा हि सम्यकू लक्ष्यन्ते विकल्पाः क्रमभाविनः । प्र०वा० २. ५०२५०३ । इन्द्रियज्ञानानि च समानजातीयानि क्रमवन्ति च दृश्यन्ते विकल्पेन्द्रियज्ञाने चक्षुःश्रोत्रादिज्ञाने च सहोत्पद्यन्ते । मनोरथ० । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का०पृ०६९, वि०पृ०४९९ विपच्यमानकर्माशयेति । आशयः संस्कारः, तत्सहितः, केवलस्य संयोगस्य 'मृतावस्थायामपि - नित्यत्वेन व्यापकत्वेन चात्मनः – सद्भावात् । उपपद्यते - देहसम्बन्ध - मनुभवति - येषु तानि उपपत्तिस्थानानि । २०८ अन्त्यसुखेति । यतः परं फलमन्यत् ताभ्यां देयं नास्ति तदन्त्यम् । परसन्तानवर्तिनामिति । स्वात्मनि रागादिनिबन्धनां प्रवृत्तिमनुभूतवान्, अतः परत्रापि प्रवृत्तिं दृष्ट्वा दोषसम्बन्धमनुमिमीत इति' । न चाशक्य प्रतिक्रिया इति । ज्ञातशमनोपायानामपि तदुपायस्य वैक [ल्येन प्रतिक ]र्तुमशक्यत्वादशक्यप्रतिक्रियत्वम् । व्यक्ताद् व्यक्तानामिति । व्यक्तात् परिमितात् [ व्यक्तानां] परिमितानामुत्पत्तिः, प्रत्यक्षेण व्यक्ताश्रितस्य कार्यभूतस्य व्यक्तस्य दर्शनाद नाव्यक्ताश्रितस्येत्यर्थः । तत्प्रत्यक्षत्वं प्रसज्यते, न च तत्प्रत्यक्षमिति । तस्य हि प्रत्यक्षतायां भूयोऽवयवग्रहणसहकारिणेन्द्रि[27] येणा[व] यविग्रहणात् परमा [णोः ] प्रत्यक्षत्वं प्राप्नोतीति केचित् । स्त (तस्य ) [ महत्त्वानुत्पादक ] त्वादेव वाऽग्रहणमिति युक्तम् । तदेवाह महत्वानुत्पादादिति । आरभ्यारम्भकत्वेति । यदि ह्येकमारभ्यान्यदप्यारभ्येत [तर्हि मूर्तानां कार्याणामेकदेशत्वं स्यात् । ] तद्यथा - - तदेकं यत्र वर्तते एवं द्वितीयमपि तत्रैव वर्तेत । न चायं मूर्तानां धर्मो दृश्यत इति । अनारब्धावयविरूपकार्या इत्यादिना सौ [त्रा ]न्तिकमतमाह । पौद्गलिककार्या इत्यादिना अर्हन्मतमुक्तम् । पर्यायान्तरेण परमाणुशब्देन । तदनुगमाग्रहणादिति । मृद्विवर्ताः घटादयो मृद्रूपानुगता गृह्यन्ते नैवं शब्दानुगतार्थः (ता अर्थाः) । परमात्मोपादान [त्व]मिति । सर्वत्र पृथिव्यादौ परिणामवशेन चैतन्याभिव्यक्तिदर्श[ना]त् चेतनोपादानत्वमेव सर्वस्य युक्तम् नाचेतनप्रधान-परमाण्वाद्युपादानत्वम् अचेतनावदुत्पत्त्यसम्भवादिति परमात्मोपादानत्ववादिनां मतम् । प्रमाणमप्याहुः -- यत् सामान्यविशेषवद् वस्तु तत् सर्वं कारणैकनिष्ठम्, यथा घटादि, यत् पुनः कारणैकनिष्ठं न भवति तत् सामान्य-विशेषवदपि न भवति । परमकारणं परमात्मा, न हि तस्यैकत्वात् केनचित् सह सामान्यं रूपमस्ति, एकत्वादेव च न तस्य कुतश्चिद् विशेष इति । अत एव न परमाणूनां परमकारणत्वं प्रधानस्य च तेषामपि सामान्य- विशेषवत्त्वात् । १ प्रवर्तनालक्षणा दोषाः । १.१. १८ । २ तुलना - अशक्यसमुच्छेदता च द्वेधा - दुःखस्य नित्यत्वाद्वा तदुच्छेदोपायापरिज्ञानाद्वा.... । सां०तत्त्वकौ० १ । ३ न्यायसू० ४.१.११ । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०९ का पृ०७६, विपृ०५०७] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः तथाहि-परमाणूनां परमाणुत्वं सामान्यम् , अन्त्यविशेषाश्च विद्यन्त एव । सत्त्वरजस्-तमसामपि अचेतनत्वं सामान्यम् , परस्परं च विशेषा विद्यन्त एव, अन्यथा त्रित्वानुपपत्तेरिति । श्रुतिमप्याहुः-'यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च यथा पृथिव्यामोषधयः सम्भवन्ति । यथा सतः पुरुषात् केशलोमानि त[28]थाऽक्षरात् सम्भवतीह विश्वम्" इति' [ मुण्डकोपनिषद् १. १. ७] । नन्दीश्वर-नहुषयोरिति । नन्दिनामा ब्राह्मणकुमारको विप्रेभ्य आत्मनोऽ ल्पायुस्त्वमवगम्य तादृशं तीव्रतपोविशेषरूपं कर्माकरोद् येन तेनैव शरीरेण भगवतः शङ्करस्य गणाधिपत्यपूर्वकमजरामरत्वमवाप येनाद्यापि नन्दीश्वर इति ईश्वरशब्देन व्यवहियते । नहुषाख्यश्च सोमवंशप्रभवो राजर्षिर्मेहता पुण्यकर्मसम्भारेणैन्द्रपदमवाप्य ब्राह्मणान् स्ववाहनकर्मण्यश्ववद् नियुञ्जानो ब्राह्मणशापात् सद्य एवाजगरत्वमवाप । तीवसंवेगेति । तीव्रसंवेगेन महता प्रयत्नेन सर्वात्मना तत्परायणत्वेन निवृत्तम् । फलस्य च पुत्रपश्चादेरन्यत्रसमवेतत्वादिति । अन्यत्रसमवेतत्वं स्वावयवसमवेतत्वम् पुत्रादेरत्र विवक्षितम् । मुख्यस्य पुत्रजन्मजस्य । तद्धेतुरागेण सुखहेतु[रागेण] । न पूर्वापरविरोधादिति । पूर्व दुःखवत् सुखस्यापि फलतया प्रतिपादनात् । तत्कारणयोरनुकूल प्रतिकूलयोरिति । तदा हि तयोरकारणत्वाद् न तद्विषयौ राग-द्वेषौ युक्तौ। अजममरम् जन्म-विनाशरहितम् , अनन्तमात्मनस्तेन रूपेणावस्थानात् , शाश्वतम् व्यापकमिति । भट्टश्रीशङ्करात्मज चक्रधरकृते न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गे अष्टमम् आह्निकम् १ ईश्वरः कारणम्...। न्या०स०४.१.१९ । मा भूदयं नामरूपप्रपञ्चः शून्यतोपादानः, अपि तु ब्रह्मोपादानो भविष्यति । ब्रह्मैव हि प्रपञ्चरूपेण परिणमते मृत्तिकेव घटशरावोदञ्चनादिभावेन । न्यावा तात्प० ४. १. १९ । २ द्र० व्यासभा० (योगसू ० २-१३)। ३ मुद्रितमञ्जर्या तु संयोग इति पाठः । ४-५ न पुत्रपशुस्त्रीपरिच्छदहिरण्यान्नादिफलनिर्देशात् । तत्सम्बन्धात् फलनिष्पत्तेस्तेषु फलवदुपचारः । न्यासू० ४.१.५३-५४। २७ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ नवमम् आह्निकम् ॥ ऊर्मिषट्कातिगमिति । अशनाया-पिपासा-शोक-मोह-जरा-मृत्युरूप ऊर्मिषट्कः, तमतिक्रमेण स्थितम् । ईश्वराव्याकृत-प्राण-विराट्-भूतेन्द्रियाख्या ऊर्मयः । परस्य ब्रह्मणो ज्ञानक्रियायोगेन सिसृक्षोः स्थितिरीश्वराख्योर्मिः । तस्यैव सत्त्व-रजस्तमोरूपतया यदवस्थानं तदव्याकृतत्वम् । तदेव प्राणरूपेण बोधनाद् बुद्धिः प्राणाख्योर्मिः । तस्यैवाहमित्यवमर्शोऽहङ्कारो ‘विराट्'शब्दवाच्यः । तस्यैव स्थूलरूपपृथिव्यात्मना स्थितिर्भूताख्योभिः । [29] इन्द्रियाणि बुद्धि-कर्मविभागेनैकादशम् तद्रूपेणावस्थानमिन्द्रियाख्योर्मिः । सोपाधिसावधिकेति । अप्सरःप्रभृतिपदार्थदर्शनोपभोगाद्युपाधिजन्यः । कर्मक्षयपर्यन्तत्वाच्च सावधिः' । विभुत्वेनेव नित्येन सुखेनावियुत आत्मेति । अनेन श्रौतावानन्दब्रह्मशब्दो व्याख्यातौ। विज्ञानम् , विज्ञानस्वभावं नित्यविज्ञानात्मकमित्यर्थः । प्रतीकारो व्याधेरिति । व्याधेः ज्वरादिजनितस्य दुःखस्य निवर्त्तकम् शाल्यादि । मुखै सुखजनकमिति विपर्यस्यति, दुःखनिवृत्तिजनकं हि तत् । ___कौ(कु)रुकुचीकूर्चकौशलमिति । कौ(कु)रुकुची दम्भः, लोकपक्त्य(कवञ्चनार्थ दीर्घश्मश्रुधारणं कूर्चशब्देन सूचितम् । अनिवृत्तेऽपि दुःख इति । यथाऽऽसीद हृदावनियम(निनिम)ग्नकायस्य युगपदुभयानुभवः । अभिलाषात्मकदुःखाभाव इति । यद्विषयोऽभिलाषो जायते तस्याप्राप्त्या यावदभिलाषो न निवर्तते तावद् दुःखित इव पुरुषो भवति । ननु जाग्रत्-स्वप्नयोर्मेंदग्रहणात्मकाविद्यावशाद् आत्मस्वरूपस्य विज्ञानादेर्मा भूत् प्रकाशः; सुषुप्तावस्थायां वाऽभेदाग्रहरूपाऽविद्या समर्थमाना, मा स्तु तत्तत्त्वावगमः; चतुर्थी तुर्यावस्था यस्याम् उभयरूपाविद्याविलयः तत्र यथावस्थितात्मतत्त्वाक्गतिर्भविष्यतीत्याशङ्क्याह-जाग्रतः स्वप्नवृत्तेर्वा इति । ननु यत्र सुप्तो न १ क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति । गीता ९.२१ । २-३ भर्तृहरिकृतवैराग्यशतके। ४ द्र० पृ०१९६ टि०५। ननु जागरस्वप्नयोर्ज्ञानज्ञेयमयत्वेन सुषुप्ततुर्ययोश्चिन्मयत्वेनैव प्रकाशनाभेदात् पदद्वयमेव तत्कथं पदचतुष्टयम् इति ? अत्र उच्यते .. . सुषुप्तावस्थायां तु सदपि चिन्मात्ररूपं तत्त्वं मोहवशादहमित्युपलब्धृचमत्कारविरहात् असदिवाभाति; तस्यैव तु तत्त्वस्य परमार्थसत्तया आत्मत्वेनोपलब्धित्तुर्यपदे इत्ययं सुषुप्ततुर्ययोर्भेदः । स्प०का विवृति २. २ । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का पृ०८१, वि०पृ०५१२ ] न्यायमञ्जरीप्रन्थिभङ्गः २११ कञ्चन कामं कामयते न कञ्चन स्वप्नं पश्यति तत्सुषुप्तम्' तत्र कथं ज्ञानमुत्पद्यत इत्याह-सुषुप्ते धीः प्रकल्प्यते । कथं प्रकल्यत इति चेत् तदाह-पश्चात् प्रत्यवमर्शनादिति । पश्चाभाविनः प्रत्यवमर्शात् स्मरणादित्यर्थः । ननु कथं चतुर्थी दशा नास्ति ? यावता तुर्यावस्थायाम् आत्मस्वरूपप्रतिपादिकां श्रुति पठन्ति "नान्तःप्रज्ञम्, न बहिःप्रज्ञम् , नोभयतःप्रज्ञम्, न प्रज्ञानघनम्, न प्रज्ञम् , नाप्रज्ञम्, अदृष्टम् , अव्यवहार्यम् , अग्राह्यम् , अलक्षणम् , प्रपञ्चोपशमम् , शिवम् , अद्वैतम् , चतुर्थी मन्यन्ते, स आत्मा, स विज्ञेयः ।" इति ॥ [माण्डूक्योपनिषद्, ७] । [३०] तदाह-तुर्यावस्था विति । संवित्तिशून्यस्यात्मनो या स्थितिः सा तुर्यावस्था, न युष्मत्परिकल्पितेत्यर्थः। आगमस्त्वन्यपर इति । अन्ये त्ववस्थाचतुष्टयमेवं वर्णयन्ति-इन्द्रियमनोऽर्थसन्निकर्षेण व्यवहारो जाग्रत् । इन्द्रियदौर्बल्येन ग्राह्यार्थ प्रति मनसः स्मृतिमात्रशेषा बहिरप्रसृतेन्द्रियत्वेन च स्वप्नावस्था । ज्ञातुज्ञेयग्रहणासामध्ये मौढयेनावस्थानं सुषुप्तम् । अविलुप्तवेदनावृत्तित्वात् तिसृणामवस्थानां वेदनं तुर्यमिति । आगमं च पठन्ति १ तुलना---यत्र सुप्तो न कञ्चन कामं कामयते न कञ्चन स्वप्नं पश्यति तत् सुषुप्तम् । माण्डूक्योप० ५। २ स एव तु कर्मानुस्मृतिशब्दविधिभ्यः । ब्रह्मसु० ३.२.९. । योऽहम् अस्वासं स जागर्मि इति एकानुसन्धातृसूत्रनिबद्धत्वेन...... स्प०काविवृति १.३ । तथाहियदा विगलितसकलवेद्यविकल्पत्वात् निष्केवलां सुषुप्तावस्थां प्रबोधदशायाम् आत्मनः परामृशति तदा......। स्प०काविवृति २.१ । ३ तत्र जाग्रत् इति जागरावस्थैव शास्त्रेषु प्रसिद्धा, यस्यां श्रोत्रादिभिः इन्द्रियैः शब्दादीन् इन्द्रियार्थान् गृह्णन् प्रसृतशक्तिः पुरुषः परिस्पन्दते । स्प०काविवति १.३ । ४ स्वप्नः स्वापावस्था, यस्यां स्वव्यापारपरिश्रान्तः श्रोत्रादिविहारविरतावपि मनसैव असौ विषयान् परिगृह्णाति । स्प०का०विवृति १.३ । ५ सुषुप्तं गाढनिद्रारूपा सुखस्वापावस्था, मनोव्यापारस्यापि व्युपरमे सति यत्र व्यतिरितवेद्यसंवेदनं तात्कालिकं नास्ति । स्प०काविवृति १.३।६ तुलना-सर्वासु एतासु च अनुभवितृरूपस्य व्यापकस्य एकस्य स्वभावस्य सत्ता स्थितैव । स्प०का०विवृति १.४।...यत् एवंविशिष्टतया व्याख्यातं तत् वस्तु परमार्थतः अस्ति, सततम् अविलुप्तोपलब्धृमात्रलक्षणस्वभावत्वात् । स्प०काविवृति १.५ ।...तस्योपलब्धिः सततं त्रिपदाव्यभिचारिणी । नित्यं स्यात् सुप्रबुद्धस्य तदाद्यन्तेऽपरस्य तु ॥ स्प०का० २.१ । स्पन्दकारिकाविवृतिकाररामकण्ठाचार्येण जागराद्यवस्थानां योगदर्शनसम्मतधारणा-ध्यान-संप्रज्ञातसमाधि-असंप्रज्ञातसमाधिभ्यस्तुलना कृता । साऽ. त्रावतार्यते-"एताभिरेव अवस्थाभिः योगशास्त्रप्रसिद्धास्वपि जागराद्यवस्थासु तस्य अभेदः प्रति. पादितो वेदितव्यः । तास्वपि तस्य उपलब्धृत्वेन व्यापकतया अवस्थानात् । ताश्च संक्षेपतो लक्ष्यन्ते । तत्र ध्येयेऽर्थे चेतसा झगिति प्रवृत्तिमात्रं जागरावस्था, धारणा इति क्वचित्प्रसिद्धा । तत्रैव विसदृशप्रत्ययपरिहारेण समानप्रत्ययप्रवाहैकतानतानुसन्धानं स्वप्नावस्था, ध्यानमिति यामाहुः । क्रमेण ऐकाग्र्यातिशयात् प्रत्ययान्तरासङ्कीर्ण सूक्ष्मध्येयाभासमात्रविशेषता चित्तस्य सवेद्यसुषुप्तावस्था, यां वितर्कविचारानन्दास्मितानुरूपानुगमलक्षणस्य संप्रज्ञातस्य समाधेः आनन्दास्मितामात्रानुगतम् अवस्थाविशेषमाचक्षते । यस्तु 'विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः' पायो सू. १.७] इति कृतलक्षणः असंप्रज्ञातः समाधिः, तत् अपवेद्यसुषुप्तम् ।" स्प०का विवृति १.३ । माण्डू क्योपनिषदि.[३-७ भिन्नभणधा जागरादिअवस्थाचतुष्कस्य निरूपणमस्ति । द्र, लक्ष्मीसन्त्रम् २४.२६-३१, ४०.११-१२ । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का०पृ०८१, वि०पृ० ५१२ योऽयमर्थग्रहो द्रष्टुरक्षद्वारश्चिदात्मनः । शब्दादिविषयाकारस्त[ज्जा अदिति कथ्यते ॥१॥ तस्यैवार्पितसंस्कारवृत्तेर्मानसदर्पणे । स्मृतिर्भवति या भूयस्तामाहुः स्वप्नरूपकम् ॥२॥ यत्रार्थस्मरणे नष्टे ह्यद्रष्ट्रदृग्व्यवस्थितिः । अभावभावे संज्ञेयः सुषुप्त इति योगिभिः ॥३॥ अलुप्तवेदनावृत्तेरवस्थात्रयभाविनः । रूपस्य वेदिकामाहुस्तुर्यावस्थां मनीषिणः ॥४॥ [ ] अवस्थाचतुष्टयोत्तीर्णं तु यदात्मनश्चिदूपतया स्वभावेनावस्थानं सा तुर्यातीता स्थितिरिति । आह च त्रिप्रकारं यदा वेद्यं न वेत्ति स्वव्यवस्थितः । __ वेदकत्वं तदाऽनश्यत् तुर्यातीतस्थितिस्तु सा ॥ इति ॥ [ ] तं तुर्यावस्थातिगं रूपमित्यादिना निराकरोति । स्वच्छां वा ज्ञानसन्ततिमिति । समुच्छिन्नसकलवासनात्वाद् विषयाकारोपप्लवरहिताम्। न केवलस्य तद्रूपमिति । तत् ज्ञानादिलक्षणं रूपम् , कैवल्यावस्थायामपि तस्य रूपस्याभ्युपगमे ऐकान्तिकत्वात् तस्य रूपस्यानैकान्तिकरूपत्वहानिप्रसङ्गात् । विकारित्वं तु जीवानामित्यादिना जैनमतं निराकरोति । इदं तेषां मतं भवतिबोद्धा पुरुषः, स च कायमात्रः सङ्कोच-विकासधर्मा मणिप्रभावदिति । तदनेन १ जाग्रदादिक्रमेणैव स्थितोऽवस्थात्मनात्र वै। यादिवान्ते चतुर्वणे वर्गे विप्रेन्द्र सत्तमे ॥ तुर्यातीतात्मरूपेण शादिक्षान्तेषु संस्थितः ।...जाग्रत्स्व प्रसुषुप्तं च तुर्यमूर्वेऽत्र वर्तते । संस्थितः परमालोकशब्दो नित्योदितः परः ॥ परानन्दश्च समता वेद्यवेदकवर्जितः । स्वरूपमेतत् कथितं तुर्या. तीतात्मनो विभोः ॥ जयाख्यसंहिता, ६.१२-१३, १८-१९ । ज्ञानानन्दमये देवे वासुदेवे विलापयेत् । तुर्यातीते च तत्तुर्य लक्ष्मीनारायणात्मनि ॥ लक्ष्मीतन्त्रम् , २४.३१ । परमं यदहंताख्यं तुर्यातीतं तदुच्यते । परं ब्रह्म परं धाम लक्ष्मीनारायणं तु तत् ॥ लक्ष्मीतन्त्रम् , ५१.११ । २ चित्तमेव हि संसारो रागादिक्लेशदूषितम् । तदेव तद्विनिर्मुक्तं मोक्ष इत्यभिधीयते ॥ मृगेन्द्रतन्त्रे (पृ० ९४) उद्धृतम् । तत्त्वसङ्ग्रहपञ्जिकायां (कारिका ५४४) उधृतम् । मुक्तिनिर्मलता धियः । तत्त्वसं०, ५४४ । अन्ये तु सवासनक्लेशसमुच्छेदाद् विशुविज्ञानोत्पाद एव मोक्ष इत्याचक्षते । तत्त्ववै० पृ० १८६। ३ प्रदेशसंहारविसर्गाभ्यां प्रदीपवत् । तत्त्वार्थसूत्र ५.१६ । न तु क्षपणकानामिव देहप्रमाणत्वनियमादव्यापि ..मृगेन्द्रत. न्त्र पृ०५६ । घटप्रासादप्रदीपकल्पं सङ्कोचविकाशि चित्तं शरीरपरिमाणाकारमात्रमित्यपरे प्रतिपन्नाः । योगसू० व्यासभा० पृ०४०६ । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का पृ०८१, वि०पृ०५१२] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः २१३ निराकरोति । एतदभ्युपगमे हि पुरुषस्यानित्यत्वं प्राप्नोति, कायपरिमाण[31]त्वेनावयवित्वापत्तेः । निरवयवे एवंरूपपरिमाणासम्भवात् । अमूर्तस्य च व्योमादेविभुत्वदर्शना]त् , परिणाम(माण)वतः क्रियावतश्चावश्यमनित्यत्वात् , सत्यपि बोद्धृत्वे तस्य सर्वार्थग्रहणायोगादित्यादिदूषणाघ्रातत्वादसम्भवित्वमस्य दर्शनस्य' । यथा शब्दपुद्गलाः सूक्ष्माः स्थूलशब्दात्मना विक्रियन्ते विपरिणमन्ते तथा जीवपुद्गलाः सूक्ष्मा जीवात्मना विक्रियन्ते विपरिणमन्त इति यद् मतं तदेव तु ग्रन्थकृता दूष्यत्वेनास्मिन् श्लोके विवक्षितमिति लक्ष्यते । दृष्टान्त-दार्टान्तिकयोयेवं स्फुटतरोत्वयो(रोऽर्थो)ऽवगम्यत इति । यथा वा अकलङ्कादयः स्थितास्तथाप्यसम्भवित्वमेव । ते ह्याहुः “ज्ञानसन्तानपक्षस्तावदनुपपन्नः, सर्वबुद्धिष्वेकस्य चेतनस्यानुवर्तमानस्योपलम्भात् । तत्र किं तस्य ज्ञातृत्वं ज्ञानसमवायाद् उत स्वतः ? तत्र न तावद् ज्ञानसमवायात् । समवायस्यैकवाद् व्यापकत्वाच्च यावत् तस्यासौ समवायो व्यतिरिक्तेन ज्ञानेन ज्ञातृत्वमापादयति तावदचेतनस्य घटादेरपि किमिति नापादयति । अथ समवायस्य स्वतः शक्तिविशेषः तादृगस्ति येनात्मन एव ज्ञातृत्वमापादयति नान्येषामिति, तात्मन एव तादृशः शक्तिविशेषो ज्ञातृत्वाख्यः कल्प्यताम् , किं समवायस्य तत्कल्पितेन । एवं तावद् ज्ञातृतास्वभाव आत्मा । तस्य ये पर्यायभाविनो मिथ्याज्ञातृत्वादयः स्वभावविशेषास्ते किं तद्धर्मसम्बन्धाद् आहोस्वित तेन रूपेण विकारित्वात् ? न तावद् धर्मसम्बन्धात् , धर्मेद्यस्योपकारः कार्यः, तेन च धर्माणाम् , उपकारप्रभावितत्वात् सम्बन्धस्य । न चाप्रवर्तमान उपकार्य उपकारको वा भवति । प्रवर्तते चेत् पूर्वमप्रवृत्तस्य प्रवर्तनाद् विकारित्वम् । एवमस्य स्वतश्चित्स्वभावस्य जीवस्य कर्मसम्बन्धवशाद् मिथ्यादर्शनादेर्विकारस्योदयः दृष्टः । वस्त्वन्तरसम्बन्धवशात् त्वस्य विकारयोगो यथा मदिराविषादिसम्बन्धाद् मूर्छितत्व-मृतत्वादिविकारप्रादुर्भावः । तदेवं वस्त्वन्तरं कमैंवास्य नानाविधविकारहेतुत्वाज्जीवस्य संसार[32] कारणम् , तत्परिक्षयात् मोक्षः" इति [ ] । यथाह अकलङ्कदेवः - जीवस्य संविदो भ्रान्तेर्निमित्तं मदिरादिवत् । तत्कर्मागन्तुकं तस्य प्रबन्धोऽनादिरिष्यते ॥ सिद्धिविनिश्चय, ७. १२] इति ॥ अस्यार्थः । सम्यग् वेत्तीति संवित् । तस्य संविदः स्वतो ज्ञानस्वभावस्य जीवस्य भ्रान्तेर्मिथ्याज्ञानस्य कर्म निमित्तं नेश्वरादिकं मदिरादिवदिति व्याख्यातम् । • १ इ. सूशां०भा०२.२.३४ । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का०पृ०८१, वि०पृ०५१२ यदि कर्म तन्निमित्तं तर्हि सर्वदा कर्मसद्भावाद मोक्षाभाव इत्याह--- तदागन्तुकमिति । आगन्तुकत्वेनानित्यत्वेन तत्क्षयात् कदाचिद् मोक्षसम्भव इत्यर्थः । यद्यागन्तुकं तत्कदाचिन्न भवेदपि । तदा संसारावस्थायामपि मध्ये कर्मवियोगादात्मानो मुक्ताः स्युस्तदर्थमाह-- तस्य प्रबन्धोऽनादिरिष्यते । अविच्छेदेन कर्माण्यनादिप्रवाहेण स्थिता - नीत्यर्थः । तथा आत्मलाभं विदुर्मोक्षं जीवस्यान्तर्मलक्षयात् । नाभावो नाप्यचैतन्यं [न चैतन्यम् ] अनर्थकम् ॥ [ सिद्धिविनिश्चय, ७. १९] इति ॥ आत्मलाभं जीवस्य विकारापगमे सति मोक्षमाहुः । कुतः ? अन्तर्मलक्ष्याद्धेतोः । स त्वात्मलाभलक्षणो मोक्षो नाभावः सन्तत्युच्छेदलक्षणो यथाहुबद्धाः' । नाप्यचैतन्यं बुद्धिशून्यस्यावस्थानं यथाहुर्वैशेषिकादयः । नाप्यनर्थकं दृश्यार्थशून्यचिन्मात्रं यथाहुः साङ्ख्याः ै। किन्तु अनन्तज्ञानादिगुणयुक्तस्यावस्थानमित्यर्थः । तथा अपरमाहुः शब्दः पुद्गलपर्यायः स्कन्धः छायातपादिवत् । बुद्धिकार्यविशेषात्माभिलापः स्वार्थगोचरे ॥ [सिद्धिविनिश्चय, ९.२] इति ॥ पुद्गलानां परमाणूनां पर्यायः क्रमभावी विकारः परिणामविशेषः शब्दः । स च स्कन्धः, अनन्तानन्तपरमाणुवत्त्वसंसिद्धेः । न तु दृष्टः क्वचित् स्कन्धरूपपर्यायः परमाणूनाम्, तदाह - छायातपादिवदिति । यथा छायारूप आतपादिरूपश्च पुद्गल - पर्यायः स्कन्धः तद्वच्छन्द इत्यर्थः । बुद्धिरेव श्रावणं ज्ञानमेव कार्यविशेषात्मा कार्य .. १ यस्मिन् न जातिर्न जरा न मृत्युर्न व्याधयो नाप्रिय संप्रयोगः । नेच्छाविपन्नप्रियविप्रयोगः क्षेमं पदं नैष्ठिकमच्युतं तत् । दीपो यथा निरृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काश्चिद्विदिशं न काञ्चित् स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् । सौन्दर० १६.२७ - २९ । प्रदीपस्येव निर्वाणं विमोक्षस्तस्य चेतसः । प्रमाणवा० भा०१.४५ । केचित् पश्यन्ति हातुः स्वरूपोच्छेद एव मोक्षः, तथाहु: - "प्रदीपस्येव निर्वाणं विमोक्षस्तस्य तायिनः" इति । न हि कचित्प्रेक्षावानामोच्छेदाय यतते । ननु दृश्यन्ते तीक्ग दोन्मूलितसकलसुखा दुःखमर्यामिव मूर्तिमुद्वहन्तः खोच्छेदाय यतमानाः । सत्यम् केचिदेव ते, नत्वेवं संसारिणो विविधविचित्रदेवाद्यानन्दभोगभोगिनः, तेsपि च मोक्षमाणा दृश्यन्ते । तस्मादपुरुषार्थ प्रसक्तेर्न हातुः स्वरूपोच्छेदो मोक्षोऽभ्युपेयः । तत्त्ववै०पृ०१८६ । २ नवानामात्मविशेषगुणानामत्यन्तोच्छित्तिर्मोक्षः । व्योम०पू०६३८ । ३ पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिः । योगसू०४.३४ । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का पृ०८४, वि०पृ०५१५] न्यायमञ्जरीप्रन्धिः २१५ विशेषरूपं यस्य स बुद्धिकार्यविशेषात्मा । एवमपि समुद्रघोषादिरपि वाचकः प्राप्तः, इत्याह-स्वार्थगोचर इति । यो बुद्धिकार्यविशेषात्मा स्वार्थविषये बुद्धया लक्ष्यमाणः [33] स्वार्थे यो व्याप्रियते स बुद्धिकार्यविशेषात्मा अभिलापः । अभिलाप्यतेऽनेनेत्यभिलापः वाचकः न सर्व इत्यर्थः । तथाऽपरमाह संसर्गात् परमाणवः परिणताः शब्दाः श्रुतेर्गोचराः । तभेदः प्रतिलब्धवर्णपदवाक्यात्माभिलापः स्वतः ॥ सिद्धार्थों यमुपेत्य वक्ति किमयं प्राहेत्यसङ्केतितः । स्वार्थेऽक्षादिव भेदकाङ्क्षणमनाः सामान्यवेदी जनः ।। सिद्धिविनिश्चय, ९.१] परमाणवः परस्परसंसर्गात् परिणताः स्कन्धतामापन्नाः शब्दाः श्रुतेः श्रवणस्य श्रवणस्थानस्य वा गोचरा विषयभूताः । एवं सर्वे काकवाशितादयोऽपि वाचकाः प्राप्ताः, तदर्थमाह-तद्भेदस्तद्विशेषोऽभिलापो वाचको न सर्व इत्यर्थः । कोऽसौ तद्भेदः ? इत्याह प्रतिलब्धवर्णपदवाक्यात्मेति । अन्यश्च । कीदृक् ? स्वतः सङ्केतनिरपेक्षः सिद्धोऽर्थो यस्य स स्वतः सिद्धार्थसम्बद्ध इत्यर्थः । कथं स्वतः सिद्धार्थोऽभिलापः ? इत्याह-यमुपेत्येति । यमुपेत्य प्रतिपद्य श्रुत्या । किं वस्तु अयं शब्दः प्राहेति वक्ति जनः । किंभूतः ? असङ्केतितः सङ्केतरहितः । अतः कारणादसावभिलापः स्वतः सिद्धार्थः । किंभूतः पुनरेवं वक्तीत्याह-स्वार्थे सामान्यवेदी । स्वार्थे सामान्यविशेषात्मके सामान्यमानं प्रतिपद्य विशेषाकाङ्क्षणमनाः - विशेषकाङ्क्षणं विशेषार्थि मनो यस्य । दृष्टान्तमाह-अक्षादिव । यथाऽक्षात् सामान्य-विशेषात्मके पानकादौ द्रव्ये ग्राह्ये सामान्यमानं गृहीत्वा विशेषाकाङ्क्षी भवति-किमिदमास्वाद्यत इति । तद्वदिति । प्रसङ्गात् श्लोका अपि व्याख्याताः । तदेतदुभयमपि अनुपपन्नम् , प्रमाणाभावादिति दृष्टान्तदान्तिकत्वेनोपन्यस्य निराकृतम् , शब्दपुद्गलपक्षस्य च पूर्व निराकृतत्वाद् दृष्टान्तत्वेनोपादानम् । जरामर्यम् , जरामरणपर्यन्तम् । ब्रह्मणा हि स परिक्रीत इति । ब्रह्मणा वेदलक्षणेन मूल्येन आपणे स्वीकृतः । क्षीरहोता अध्वर्युः ।। निदानानुपशमनादिति । क्लेशानां रागादीनां निदानानि कारणानि । विधिपदा(क्ष ?)स्र(श्र)वणादिति । तद्विषये हि विधौ प्राधान्याद् औपचारिकत्वासम्भवः । गङ्गायां[34] घोषः प्रतिवसतीति यथा न प्रतिवसनं प्रधानम् अत] उपचर्यते । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का०पृ०८५, वि०पृ० १६५ ये चत्वारः पथय इति' । आदिपदेन 'ये चैते अरण्ये श्रद्धा-तप इत्युपासते' [ ] इत्येवमादीनां परिग्रहः । पथयः पन्थानः । देवयाना देवत्वप्राप्तिहेतवः । अग्निसमारोपणविधिश्चेति । समारोपणं विलोड्य भस्मनः पानम् । अपरिपक्वकषाय इति । अस्यैवानुपशान्तराग इति पर्यायकथनम् । सर्वेषां सविपक्षत्वादिति । येन बाधकेन नैरात्म्यदर्शनेन विपक्षाः सर्वे [आस्रवा रागादयः । तस्य बाधकस्याभ्यासाद् नैरन्तर्येणोत्पादात् सात्मीभावः तन्मयत्वम् , तस्माद् बाधकसाल्भीभावात् । क्वचित् सन्ताने हि परं ते निह सातिशयाश्रिता अपकर्षोत्कर्षस्वभावाः, तथा चापकर्षोत्कर्षस्वभावत्वेन विपक्षाभिभवस्याप्यपकर्षोत्कर्षसिद्धिः । निर्हासधर्मत्वे तेषां विपक्षकृतस्याभिभवस्योत्कर्षः । अतिशयधर्मत्वे त्वनुच्छेदाद विपक्षकृतस्यापकर्षस्तदुच्छेदासमर्थत्वात् । आस्रवन्ति भवाग्राद् अवीच्यग्रं पातादित्यास्रवा रागादिदोषाः, आसयन्ति वाऽऽसंसारमित्यास्रवाः । तदुक्तम् आसयन्त्यास्रवन्त्येते हरन्ति श्लेषयन्त्यथ । उपगृह्णन्ति चेत्येवमास्रवादिनिरुक्तयः ॥ [आभि० को० ५.४०] इति । न जातु कामः कामानामिति । काग्यन्त इति कामा विषयाः तेषाम् । भोगाभ्यासमनु भोगाभ्यासानन्तरमेव पुनस्तदुपभोगविषया रागा अभिलाषाः । कौशलानि चेन्द्रियाणां यद्बलादनिच्छयाऽपि तेषु विषयेषु प्रवर्तन्ते । ____ अत एव केचनेत्यादि अर्हदृष्ट्याऽऽह । यथोक्तस्य तत्त्वज्ञानलक्षणस्य । मलानामागन्तुकत्वादिति । यथा स्फटिकस्य स्वच्छस्यौपाधिको वर्णान्तरानुरागः, एवं स्वच्छस्यात्मनो मिथ्याज्ञानप्रभवो मलसम्भव इति । सूर्यस्येवाभ्रादिकावरणापगमे स्वरूपेणावस्थानमिति । १ तैत्ति०सं०५.७.२.८ । २ प्रमाणवा०३.२२० ३ तुलना-आसयन्ति संसारे आनवन्ति भवापाद् यावद् अवीचिं षड्भिरायतनव्रणैरित्यास्त्रवाः । अभिको भा०५.४०। हरन्तीति ओघाः । श्लेषयन्तीति योगाः। उपगृह्णन्तीति उपादानानि । अभि०को०भा०५.४०। १ मनुस्मृति २.९४ । ५ मुद्रितमजर्या तु 'मोक्षा” इति पाठः। व्यासभा०२.१५। ६ तत् सर्वथावरणविलये चेतनस्य स्वरूपाविर्भावो मुख्य केवलम्। प्र०मी० १.१.१५। अथ प्रकाशस्वभावत्व आत्मनः कथमावरणम् ? आवरणे वा सततावरणप्रसङ्गः, नैवम् ; प्रकाशस्वभावस्यापि चन्द्रार्कादेरिव रजोनिहाराभ्रपटलादिभिरिव ज्ञानावरणीयादिकर्मभिरावरणस्य सम्भवात् । चन्द्रार्कादेरिव च प्रबलपवमानप्रायै निभावनादिभिर्विलयस्येति । प्र०मी०वृ०१.१.१५। प्रभास्वरमिदं चित्तं प्रकृत्याऽऽगन्तवो मलाः । प्र०वा.१.२१० । ततः क्षीयते प्रकाशावरणम् । तदा सर्वावरणमलापेतस्य ज्ञानस्यानन्त्याउलेयमल्पम् । योगसू०२.५२, ४.३१ । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ का०पृ०९१, वि०पृ०५२३] न्यायमन्जरीग्रन्थिभङ्गः अनुवन्धवृत्तित्वात् क्लेशानामिति । अनुबन्धेनैकस्योत्पत्तौ पुनरन्यस्योत्पत्तिरित्येवंरूपेणोत्पन्नस्य च तस्यैव पुनरुत्पत्त्या सदाऽऽत्मनस्तैरवियुतत्वात् तदनुबन्धित्वम्' । अहरहब्रह्मलोकं यान्तीति । सुषुप्तावस्था[35]भिप्रायेणाह । 'न प्रवृत्तिः प्रतिसन्धानाय' इति पदं 'न देहेन्द्रियजन्मने प्रभवति' इत्यनेन व्याख्यातम् । अविद्यातृष्णे इति । तृष्णाशब्देन रागादयः क्लेशा अभिहिताः । आत्मज्ञे चैतदस्तीत्यस्य पूर्वमर्धम्-"प्रार्थ्यमानं फलं ज्ञातं नानिच्छोस्तद् भविष्यति" ॥ इति [श्लो०वा० संबन्धाक्षेपपरिहार १११] ॥ उत्तरस्य भाविनः कर्मप्रचयस्याकरणादेवासत्त्वात् ।। वीतायां फलेच्छायामिति । तथाहि-फलेच्छया कर्मणि प्रवृत्तस्य यदि मध्ये फलेच्छा व्यपेयात् तथाप्यसौ शिष्टविगर्हणभयात् कर्म समापयति एवं वृष्टयर्थ च कारीर्या प्रस्तुतायां मध्ये वृष्टिसम्भवेऽपि तां समापयत्येव शिष्टविगर्हणभयादेव । किं त्वया ज्ञातमधुनैव हुंकृत्येति । हुंकृत्येत्यनेन शैवशास्त्रप्रसिद्धं दीक्षाविघानमन्त्रं सोत्प्रासं दर्शयति । ते हि विशिष्टमन्त्रोपपादितदीक्षासमनन्तरमेवाशेषपाशविमोचनाद् मुक्तिमभिमन्यन्ते ।। ज्ञानकर्मसमुच्चयात् । ज्ञानेन नित्यकर्मानुष्ठानेन च । मोक्षपथमुपदिशद्भिर्याज्ञिकैरिति । भद्रान् (भाट्टान् ?) परामृशति । १ उत्पद्यतामीदृशाभ्यासात् तत्त्वज्ञानम् । तथाप्यनादिना मिथ्याज्ञानसंस्कारेण मिथ्याज्ञानं जनयितव्यम् । तथा च तन्निमित्तस्य संसारस्यानुच्छेदप्रसङ्ग इति । सांतत्त्वकौ०६४ । ऋणक्लेशप्रवृत्त्यनुबन्धादपवर्गाभावः । न्यायसू०४.१.५९ । २ न्यायसू०४.१.६४ । ३ तुलनाअविद्या कर्म तृष्णा च केचिदाहुः पुनर्भवे । कारणं लोभमोहौ तु दोषाणां तु निषेवणम् ॥ अविद्यां क्षेत्रमाहुर्हि कर्मबीजं तथा कृतम् । तृष्णासजननं स्नेह एष तेषां पुनर्भवः ॥ महाभारत १२.२१८.३२-३३ । अथ चेमान्यस्य द्वादशाङ्गस्य प्रतीत्यसमुत्पादस्य चत्वार्यङ्गानि सङ्घातक्रियायै हेतुत्वेन प्रवर्तन्ते । कतमानि चत्वारि ? यदुत अविद्या तृष्णा कर्म विज्ञानं च। तत्र विज्ञानं बीजस्वभावत्वेन हेतः । कर्म क्षेत्रस्वभावत्वेन हेतुः । अविद्या तृष्णा च क्लेशस्वभावत्वेन हेतुः । कर्मक्लेशा विज्ञानबीजं जनयन्ति । तत्र कर्म विज्ञानबीजस्य क्षेत्रकायं करोति । तृष्णा विज्ञानबीजं स्नेहयति । अविद्या विज्ञान बीजमवकिरति । मध्यमकवृत्ति (प्रसन्नपदा) २६.१२ । तस्य निर्वतकमसाधारणकारणम् - अविद्यातृष्णे धर्माधमौ चेति । सम्यगध्यात्मविद्भिः प्रदर्शितार्थविपरीतज्ञानमविद्या सह संस्कारेणेति । पुनर्भवप्रार्थना तृष्णा । सुखदुःखयोरसाधारणौ हेतू धर्माधर्माविति । न्यायसार पृ०४४४ । ४ द्र. शाबरभा०६२.३.१३-१५ । ५ ग्रन्धिरयं मुदितमञ्जर्या नास्ति। ६ हतं ज्ञानं क्रियाहीन हता चाज्ञानिनां क्रिया। धावन् किलान्धको दग्धः पश्यन्नपि च पगुलः ।। तत्त्वार्थराजवार्तिके (१.१) उद्धृतः । २८ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का०पृ०९१, वि०पृ०५२३ अध्यात्मविदश्चेति । यथोक्तं प्राक् श्रौतस्मार्तकर्मानुष्ठानात् कषायपरिपाकद्वारेणोत्पन्नातिशयस्य आत्मज्ञानेऽधिकारात् । “तमेव वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति ब्रह्मचर्येण तपसा श्रद्धया यज्ञेनानाशकेन च"' इत्यादिविधिभिश्च कर्मणामात्मज्ञानसहकारित्वेन विनियोगात् । यथा प्रतिपादितम्---"महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः" इति । [ मनुस्मृति, २. ३८ ] आत्मसंस्कारपूर्वमिति । आत्मसंस्कारस्य के(कै)वल्यप्राप्तियोग्यतायाः कारणम् । इतिकर्तव्यताफलोपदेशश्चेति । उपासनादिक(क)मप्रतिपादकवाक्यविशेषाः । महतो वंशस्तम्बादिति । वंशस्तम्बं महान्तम्, तं छित्त्वा मध्याद् बालक्रीडनकस्य लट्वाभिधानस्य निष्कर्षणं यद्वदिति । वीहीन् प्रोक्षतीति व्रीहीणां पुरोडाशसाधनत्वाद् भाव्युपयोगित्वं संस्कारवि[36]धित्वमेव जहाति । सक्तून् जुहोतीतिवदिति । अत्र सक्तूनां भूतभाव्युपयोगाभावेनानपेक्षणात् संस्कार्यत्वाभावम् । न च प्रयाजादीनामिवेतिकर्तव्यताया [आपेक्षणम् , होमसंस्कृतानामक्रियारूपत्वेनेतिकर्तव्यतात्वाभावात् सक्तूनाम् , होमस्य तु क्रियारूपत्वादितिकर्तव्यतात्वेनान्वयो युक्तस्य(क्तः स) च द्रव्यापेक्षित्वात् तादर्थ्यमेव सक्तूनामिति । अत एव न कामश्रुतिप्रयुक्तत्वमाधानस्य तत्संस्कार्यस्य प्रयोजनवत्त्वेनैव तदर्थानुष्ठानसिद्धेः । __ मृत्तिके[त्येव सत्यमिति । "वाचारम्भणं नामधेयं विकारो मृत्तिके त्ये]व सत्यम्" इति [छान्दो० उप०, ६. १. ४.] । नामधेयं घट इति, विकारश्च पृथुबुध्नोदरत्वादिसन्निवेशविशेषः, वाचारम्भणं वागिन्द्रियस्य शब्दोच्चारणे प्रवर्तकम् , वस्तुतस्तु न किञ्चिद् मृत्तिकैव परमार्थ इति । वाचेति षष्ठ्यर्थे तृतीया । आरम्भणम् आलम्बनम् । १ तुलना-'तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति, यज्ञेन, दानेन, तपसाऽनाशकेन...' बृहदा उप०४.४. २२। २ तस्माद् यज्ञादीन्याश्रमकर्माणि च भवन्ति विद्यासहकारीणि चेति निश्चितम् । ब्रसू०शां०भा०३.४.३५। तद्वत् कर्मणोऽपि ज्ञानसंयुक्तस्य मोक्षकार्योपपत्तेः । बसू शां०भा० ४.१.१६ । ३ तस्मात् किमपि वक्तव्यम् यदनन्तरं ब्रह्मजिज्ञासोपदिश्यत इति। उच्यते--नित्यानित्यवस्तुविवेकः, इहामुत्रार्थभोगविरागः, शमदमादिसाधनसंपत्, मुमुक्षुत्वं च । ब्रसू०शां०भा०१.१.१। ४ भूतभाव्युपयोग हि संस्कार्य द्रव्यमिष्यते। सक्तवो नोपयोक्ष्यन्ते नोपयुक्ताश्च ते क्वचित् ॥ यस्य हि द्रव्यस्य क्वचिदुपयोगो निवृत्तो भविष्यतीति वाऽवधार्यते तत्संस्काराहत्वात् कर्म प्रति प्राधान्यं प्रतिपद्यते । यत् पुनर्नोपयुक्त नोपयोक्ष्यते वा तस्य संस्कारो निष्प्रयोजन इति तद्विधानवाक्यानर्थक्यप्रसङ्गः । ते चामी सक्तवो न होमात् प्रागुपयुज्यन्ते नोवं, भस्मसाद्भावाद् भस्मविनियोगवचनाभावाच्च । तन्त्रवा० २.१.४.१२ । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१९ का पृ०९८,वि.पृ०५३०] न्यायमञ्जरीप्रन्थिभङ्गः सल्लक्षण ब्रह्मेति' । ब्रह्म हि व्यापकं सूच्यते । सत्तायाश्च सकलवस्तुव्यापक - त्वात् तत्वम् । न तु 'एकमेवाद्वितीयमेव' [छान्दो० उप० ६. २. १. ] इत्यादेरागमस्य सिद्धार्थप्रतिपादकत्वेन प्रामाण्यमेव नास्तीति तदाह-वेदस्य च सिद्धेऽप्यर्थ इति । ततस्त्य एव चायमिति । ततस्त्योऽविद्यात आगतः । न हि दहनपिण्डादिति तथा च श्रुतिः – “तदेतत् सत्यम् - यथा प्रदीप्तात् पावकाद् विस्फुलिङ्गाः सहस्रशः प्रभवन्ति सरूपाः । तथाऽक्षराद् विविधाः, सौम्य, भावाः । प्रजायन्ते तत्र चैवापयान्ति ॥" [ मुण्डकोप०, २. १. १. ] इति ॥ __ अस्यार्थवादत्वान्न यथाश्रुत एवेति। आत्ममाहात्म्यप्रतिपादनेन तदधिगमार्थे शास्त्रार्थे प्ररोचनार्थमिमे अर्थवादाः । तस्मात् सुखदुःखाद्यवस्थाभेदेऽपीत्यादिना सालम्बनत्वमर्थवादानामाह । ग्रहणप्रागभावोऽपीति । अभेदग्रहणस्यानुत्पत्तिर्भेदग्रहणं चेति द्विविधा अविद्या तैरुक्ता । तत्कृतः परमात्मनोऽवच्छेद इति । अभिन्नस्य भेदेन प्रतिभासनम् । वाद्यन्तरोपगतसंसारवच्चेति । नैयायिकोक्तः संसा[37]रो यथाऽनादित्वात् तात्त्विकः तथेयं स्यादिति । विलक्षणोपपाते हीति । यथा अग्निसंयोगोपपाते परमाणुगतायाः श्यामतायाः निवृत्तिः । एकात्मविषयोऽभ्युपायोऽभ्युपगमो येषां तेषां मते न विलक्षणो द्वितीयो हेतुरस्ति, आत्मैवाभ्युपायः । अविद्यानिवृत्तौ विद्या हि तदभ्युपायः, सा चात्मनो न भिन्नेति । १ तुलना-'ओं तत् सदिति निर्देशो ब्रह्मणः...।' गीता १७.२३ । २ तुलना'सोऽस्मान् बुद्धिगुणैः स्वयं निगडितान् स्वांशान् कृपासागरो, दीनान् मोचयतु प्रभुर्गुणमयं पाशं दहन् लीलया । योगवार्तिकमङ्गलश्लोक ।...बलवद्भिरग्निविस्फुलिङ्गादिभिः सांशदृष्टान्तैर्विरोधादाकाशसूर्यादिदृष्टान्ता अखण्डतापरा न भवन्ति...योगवार्तिक, १.२४ । ३ तुलना-'तामसो हि प्रत्ययः आवरणात्मकत्वाद् अविद्या विपरीतग्राहकः संशयोपस्थापको वाऽग्रहणात्मको वा । भगवद्गीता शाङ्करटीका १३.२ । ४ मुद्रितमञ्जर्या तु 'वेद्यान्तर' इति पाठः । ५ प्रलो. वा सम्बन्धाक्षेपपरिहार ८६ । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का०पृ०९८, वि०पृ०५३१ सङ्ख्यैकान्तासिद्धिरिति' । अथेमे सङ्ख्यैकान्ताः - सर्वमेकं सदविशेषात्, सर्व द्वैतं नित्यानित्यभेदात्, सर्व त्रिधा ज्ञाता ज्ञेयम् ज्ञानमिति, सर्व चतुर्धा प्रमाणं प्रमाता प्रमेय प्रमितिरिति । एवं यथासम्भवमन्येऽपि । ताम(न)नेन सूत्रेण [ न्या०सू० ४. १. ४१ ] निराकरोति । अनादिनिधनमिति यद् ब्रह्मैवंरूपं तस्य प्राप्त्युपायोऽनुकारश्च वेद इति सम्बन्धः । तथा चैतच्छलोकपाठोत्तरकालं कतिपयश्लोकव्यवधानेन प्राप्त्युपायोऽनुकारश्च तस्य वेदो महर्षिभिः । एकोऽप्यनेकधर्मेव समाम्नातः पृथक् पृथक् ॥ [वाक्यपदीय, १. ५ ] इति पठितम् । तत्रानादिनिधनं ब्रह्मेति स्वयं व्याख्यातम्। प्रत्यक्चैतन्यात्मना विवृतस्याकारहेतुत्वादक्षरमित्युक्तम् । तच्च तस्यापारमार्थिक रूपमद्वैतावस्था या]मभावात, एवमर्थाकारोऽपि तस्यामवस्थायां नास्ति । तदेवाह-विवर्ततेऽर्थभावनेति । ननु यथा प्रधानं साङ्ख्यदृष्टया तत्तदाकारपरिग्रहाद् विपरिणामि तथा ततोऽर्थोत्पत्तेविपरिणामित्वं प्राप्तमित्याह--प्रक्रिया जगतो यत इति । उत्पत्तेरवास्तवत्वात् प्रक्रियामानं संव्यवहारमात्रमेव ततो जगतो न पुनः परमार्थतः किंचिदुत्पद्यते । माययैव व्यवहारपदवीमवतरन्तोऽमी जगदाख्या विकाराः, न तु ब्रह्मणा जन्यन्ते, विशुद्धादविशुद्धोत्पत्त्ययोगात् । विवर्तलक्षणं चाह हरिः .. "एकस्य तत्वादप्रच्युतस्य भेदानुकारेणासत्यविभक्तान्यरूपोपग्राहिता विवर्तः, स्वप्नविषयप्रतिभासवत्" इति [ हरिवृत्ति, वाक्यपदीय, १. १. १] । एकस्यान्यरूपस्वीकारं स्वरूपविनाशेन प्रतिपद्यन्ते प्रतीत्यसमुत्पादवादिन इति तद्व्यवच्छेदार्थ तत्त्वादप्रच्युतस्येति विशेषणम् । एवमपि कारणस्य स्वात्मसम[38]वायि यत् काये तस्यापि परिग्रहः स्यादिति विभक्तग्रहणम् । विभक्तस्य नानाभूतस्येत्यर्थः । तथापि तत्त्वादप्रच्युतस्य धर्मान्तरतिरोधानाविर्भावाभ्यां विभक्तान्यरूपो यः परिणामस्तस्यापि प्रसङ्ग इत्यस्य(इत्यसत्य)ग्रहणम् । एवमपि तत्त्वतस्तत्त्वमधिजहतोऽन्यरूपेण वितथत्वात् समारोपवशेन पररूपावेशाद् गोत्वस्येव वाहीकार्थोपग्रह इति तद्व्यवच्छेदार्थमाह --भेदानुकारेणेति । १ न्यायसु० ४.१.४१ । २ तच्चाक्षरनिमित्तत्वाद् अक्षरमित्युच्यते। प्रत्यक्चैतन्येऽन्तःसंनिवेशितस्य परसंबोधनार्था व्यक्तिरभिष्यन्दते । हरिवृत्ति, वाक्यप० १.१ । अक्षरमिति अकाराद्यक्षरस्य निमित्तत्वात् । तत्त्वसं० १२८ (पृ०६७)। अक्षरं चाकाराद्यक्षरस्य निमित्तत्वात्। स्याद्वादरत्ना०पृ० ९० । ३ सौगताः । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का पृ०१००, वि०पृ०५३३ ] न्यायमञ्जरीग्रन्थिमङ्गः शब्दोपग्राह्यतयेति' । शब्द उपग्राह्यः स्वीकर्तव्योऽस्य तदाकारस्यात्मनि व्यवहारावस्थायां प्रकाशनात् । शब्दे ततो(दु)पग्राह्यत्वेन विवृतस्य तेन प्रतिपाद(पाद्य)तयाऽऽलम्बनात् । [शब्दोपग्राहितया चेति ] शब्दमुपगृह्णाति तदाकारमात्मनि स्वीकरोति। शब्दः उपग्राही वाचकत्वेन वाऽस्येति । अविद्योपाधिदर्शितविचित्रभेदमिति । तदाह-- यः सर्वपरिकल्पनानामभावेऽप्यनव(प्यव)स्थितः । [तांगमानुमानेन वहुघा परिकल्पितः ॥१॥] अभितो भेद-संस! भावाभावौ क्रमाक्रमौ । सत्यानृते च विश्वाल्मा प्रविशे(वे)कात् प्रकाशते ॥२॥ अन्तर्यामी स भूतानामाराद् दूरे च दृश्यते । सोऽत्यन्तमुक्तो मोक्षाय मुमुक्षुभिरुपास्यते ॥३॥ प्रकृत(ति)त्वमपि प्राप्तान् विकारानाकरोति यः । "[व] सुधामेव धर्मान्ते महतो मेघसम्प्लवात् ॥४॥ तस्यैकमपि चैतन्यं बहुधा प्रविभज्यते । अङ्गाराङ्कितमुत्पाते वारिराशेरिवोदकम् ॥६॥ तस्मादाकृतिगोत्रस्थाद् व्यक्तिग्रामा विकारिणः । मारुतादिव जायन्ते वृष्टिमन्तो बलाहकाः ॥७॥ यथा विशुद्धमाकाशं तिमिरोपप्लुतो जनः । सङ्कीर्णमिव मात्राभिश्चित्राभिः प्रतिपद्यते ।।८।। तथेदममलं ब्रह्म निर्विकारमविद्यया । कलुषत्वमिवापन्नं भेदरूपं प्रतीयते ॥९॥ इत्यादि । वाच्यतद्बुद्धिवाचिनामिति । वाच्यं च तद्बुद्धिश्च वाची चेति वाच्यतबुद्धिवाचिनः । अस्य पूर्वमर्धम्शब्देनैव हि निर्देशो गृहीतेऽर्थेऽवकल्पते । [श्लोकवा०, प्र०सू०, १८२ ] इति १-२ वाक्यप०स्वो० १.१ । ३ "माभासे' मुद्रितहरिवृतौ । ४ 'व्यतीतो' मुद्रितहरिवृत्तौ। ५ 'ऋतुधामेव' मुद्रितहरिवृत्तौ। ६ 'ग्रीष्मान्ते' मुद्रितहरिवृत्तौ। ७ 'अभिमन्यते' मुद्रितहरिवृत्तौ । ८ 'अमृतम्' मुद्रितहरिवृत्तौ । ९ 'विवर्तते' मुद्रितहरिवृत्तौ । १० एते सर्वेऽपि श्लोका वाक्यपदीयस्वोपज्ञवृत्तौ (१.१) उद्धृताः। ६, ८, ९ श्लोकाः बृहदारण्यकभाष्यवातिके ( ३.५. ४५, ४३, ४४) सन्ति । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ भट्टश्रीचक्रधरप्रणोतः [का०पृ० १०१, व०पृ० ५३३ गवि सास्नादिमद्रूपेति'। सास्नादिमदाकारा। अर्थेन स्वप्रकटनायै गृहीतत्वाद् बुद्धस्तदाकारत्वमुच्यते, न पुनर्वस्तुतः, निराकारज्ञानवादित्वाद् मीमांसकस्य । [39] द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये इति । वैखर्यायवस्थात्रयेण विवृतं शब्दब्रह्म, परं तु अविवृतावस्थं सकलपरिकल्पनातीतम् । अविद्यामायाविनिर्मितेति । अविद्यैव मायेन्द्रजालप्रख्या । एतेन परमात्मोपादानत्वमपीति । पूर्वं त्वमेदादर्शि(श)नमविद्येत्युक्तम्, अधुना तु भेदानां परमात्मैवोपादानकारणमित्यभिधीयते। मा भूद् भेदप्रपञ्चस्य मायाप्रदर्शितत्वमसत एव । तस्मात् परमात्मैव तथाविधस्य भेदप्रपञ्चस्योपादानमिति । पूर्वत्र केवलाविद्यावशादभेदाग्रह इह तु परिणत्या अविद्यया चेति । सर्वत्र चैतन्याभिव्यक्तेरचेतनाच्चैतन्योत्पत्तेरयोगाद् व्यापकत्वात् तस्यैव कारणत्वं युक्तम् । प्रकाशात्मिकयैव शक्त्या पदार्थान्यचे(नामचे)तनानां सत्त्वव्यवस्थापनात् तच्छक्त्या अविनिर्भाग इति । प्रत्यगात्मवृत्तेरिति प्रति शरीरम् अञ्चतीति प्रत्यङ् नियतशरीरवर्ती य आत्मा तद्वृत्तः । परिस्फुरदित्यादि प्रस्फुरन् शब्दविविक्तः स्वाकारो यस्य । कथमेव(मिव ) विकृतिब्रह्मणो वेदृशी स्याद(द) अविशुद्धा विशुद्धस्य । विकारा हि दध्यादयो न सर्वात्मना प्रकृतिधर्मविसदृशा दृश्यन्ते । अमी तु जीवादयो विकाराः नित्यप्रबुद्धशुद्धस्वभावस्य तदीयधर्माननुवर्तनात् कथं विकाराः । पुनः प्रत्यवतिष्ठते । स्वमते विशेषं पश्यन् । न ग्रहणग्रहणम् स्वरूपग्रहणमित्यर्थः । येन प्रतिकर्म विभज्यते प्रतिकर्म प्रतिविषयं विभज्यते विभक्त उत्पद्यते । बाह्यसिद्धिः स्याद् व्यतिरेकत इति । असति बाह्ये तदाकारस्य ज्ञानस्यानुत्पादादित्यर्थः । - षण्णगरीति च कथं बहूनामन्यलिङ्गानामिति । अन्यलिङ्गानां नपुंसकलिङ्गानाम् तैश्च नगरैस्तन्तुभिरिव पटैकस्यानारम्भात् तेषामपि समुदायरूपत्वात् परमार्थसतामभ(भा)वात् । ह्रस्व-दीर्घयोश्च परस्परापेक्षग्रहणयोरिति । किञ्चिदन्यापेक्षया हस्वमपरापेक्षया च दीर्धमिति । १ श्लो०वा प्रत्यक्ष०१८५ । २ मैत्रा० उप०६.२२ । ३ मुद्रितमजर्या तु 'नाग्रहणम्' इति पाठः । ४ प्र. वा. २.३०२ । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०११२, वि०पृ०५४८ ] न्यायमअरोप्रन्थिभङ्गः २२३ तस्या नानुभवोऽपर इति' । अनुभव इति ग्राहकांशमाह । ग्राह्यग्राहकवैधुर्यादिति' ग्राह्यग्राहकलक्षणवैकल्यादित्यर्थः । [40] उत्पत्तिसारूप्याम्यां हि बाह्यस्य ग्राह्यत्वं व्यवस्थापितम्--तत उत्पत्तेस्तत्स्वरूपत्वाच्च बाह्यं ग्राह्य ज्ञानं च ग्राहकमिति । तदेतत् ग्राह्यग्राहकयोर्लक्षणं विधुरम् , व्यभिचारादसम्भवाच्च । तथा च समनन्तरप्रत्ययादुत्पद्यते तज्ज्ञानं तत्स्वरूपं च, अथ तस्य न ग्राहकमिति व्यभिचारः । असम्भवस्तु ज्ञाने स्थूलस्याऽऽकारस्य प्रतिभासाद् बहिस्त्ववयव्यादेरसत्त्वादिति । __ अहं नील[मित्य प्रतिभासादिति । ग्राहकस्यापि साकारत्वाभ्युपगमात् तदीयस्य नीलाकारस्य 'अहं'शब्दसामानाधिकरण्येनाप्रतिभासनात् । तदिदमर्थस्य मूर्तिद्रवत्वेति । तद्विपरीतस्य गुण-कर्म-सामान्यादेः । भवेदानुमेयत्वं यत् त्वयैव च दूषितमिति । “बाह्यसिद्धिः स्याद् व्यतिरेकतः” इति [ ] सौत्रान्तिकमतं दूषयता त्वया दूषितमिति । - सर्व एव घटादयः स्वप्रकाशाः स्युरिति । यदि हि दीपो दीपान्तरं नापेक्षत इति स्वप्रकाशस्तर्हि मार्जारचक्षुषा प्रकाशनिरपेक्षेण गृह्यन्त इति अन्येनापि पदार्था गृह्यमाणाः स्वप्रकाशाः स्युरिति । न च ज्ञानत्वं सामान्यमिति । यदि हि ज्ञानत्वमुभयोरनुगतं प्रतिभासेत ज्ञानयोर्ग्राह्यग्राहकत्वं कथञ्चित् कल्प्येत । अतो विच्छिन्नश्चेदिति । यत एव ज्ञानत्वे च ग्राह्यांशस्य परामर्शो नास्ति तत एव । दृष्टश्च चित्रादावनेकवर्णसमावेश इति । न चासौ दृष्टत्वादेवापारमार्थिक इति शेषः । तथा शक्नोति भाषितम् बहुवचनादियुक्तो नान्यथा । किञ्च भिक्षुपक्षे क्षणिकत्वेन ज्ञानानामित्यादिना वास[ना]मा[त्रेण] शब्दाघटमानतामाह । १-२ प्र०वा०२.३२७ । ३ तत्सारूप्यतदुत्पत्ती यदि संवेद्यलक्षणम् । संवेद्यं स्यात् समानार्थ विज्ञानं समनन्तरम् ॥ प्र०या० २.३२३। ४ सरूपयन्ति तत् केन स्थलाभासं च तेऽणवः । प्र०वा.२.३२१ । ५ किञ्च, यदि बाह्य नास्ति किमिदानीं नियताकारं प्रतीयते नीलमेतदिति । विज्ञानाकारोऽयमिति चेन्न, ज्ञानाद् बहिर्भूतस्य संवेदनात् । ज्ञानाकारत्वे तु 'अहं नीलम्' इति प्रीतिः स्यात् न तु 'इदं नीलम्' इति । न्या०कं पृ०३१० । द्र० स्याद्वादमं पृ०११२, सर्वदर्शनसं० पृ.३४। ६ मुद्रितमार्या तु "अनेकबल' इति पाठः । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः काल्पृ०११२, वि०पृ०५४८ द्वौ हि विज्ञानसन्तानौ - शक्तिविज्ञानसन्तानः प्रवृत्तिविज्ञानसन्तानश्च । तत्र प्रवृत्तिविज्ञानं शक्तिविज्ञानात् सहभाविनो लब्धपरिपाकां वासनामपेक्ष्य विशिष्टमुत्तरं प्रवृत्तिज्ञानं जनयति । शक्तिविज्ञानं च सहजप्रवृत्तिविज्ञानसहितं विशिष्टमुत्तरमालयविज्ञानमित्येवमुत्तरोत्तराण्यपि ज्ञानानि । वासनापरिपाकहेतुश्च क्वचित् तदेव सहभावि प्रवृत्तिज्ञानम्, यथा धूमज्ञानं स्वयमालयविज्ञानगतामग्निज्ञानवासनामुबोधयत् तया सहितमग्निज्ञानं जनयतीत्येवं च ज्ञानवैचित्र्यस्यापि न निर्हेतुकत्वम्' । यदाह-[41] अनादिवासनाहेतुरलीकस्यावभासनम् । आलयज्ञानसन्तत्या ततो नाहेतुकं भवेत् ॥ [ ] तावुभौ ज्ञानसन्तानावेकत्रावस्थितावपटुत्वात् तु शक्तिरूपविज्ञानसन्तानान(व) नुभवपटुत्वेन चेतरस्य संवित्तिरिति, एवं च कथं निराधारत्वादिचोद्यावकाश इत्याशङ्क्याह-न चालयविज्ञानं नाम किश्चिदस्तीति । आलीयन्ते प्रवृत्तिज्ञाननिता वासना एकत्र यस्मिंस्तदालयविज्ञानं शक्तिविज्ञानमिति चोच्यते । १ यत्रात्माद्युपचारो धर्मोपचारश्च स पुनर्हेतुभावेन फलभावेन च विद्यते। तत्र हेतुपरिणामो याऽऽलयविज्ञाने विपाकनिष्यन्दवासनापरिपुष्टिः । फलपरिणामः पुनर्विपाकवासनावृत्तिलाभाद् आलयविज्ञानस्य पूर्वकर्माक्षेपपरिसमाप्तौ या निकायसभागान्तरेष्वभिनिवतिः निष्यन्दवासनावृत्तिलाभाच्च या प्रवृत्तिविज्ञानानां क्लिष्टस्य च मनस आलयविज्ञानाद् अभिनिर्वृत्तिः । तत्र प्रवृत्तिविज्ञानं कुशलाकुशलम् आलयविज्ञाने विपाकवासनां निष्यन्दवासनां चाऽऽधत्ते। अव्याकृतं क्लिष्टं च मनो निष्यन्दवासनामेव । त्रि.विज्ञप्ति भा० १। आलयविज्ञानं हि विज्ञानान्तराणां हेतुप्रत्ययविज्ञानमित्यालीयन्ते सर्वसावधर्मास्तत्र फलभावेन तच्च तेषु हेतुभावेनेत्यालयः । सत्त्वभाजनलोकविज्ञापनात् तन्निर्भासतया विज्ञानम् । तच्चैकान्तविपाकत्वादव्याकृतमेव । सर्वसासवधर्माणां बोजानुबद्धमन्येषां च प्रवृत्तिविज्ञानानां हैतुप्रत्ययत्वेन प्रत्ययविज्ञानम् । तत्प्रत्ययं प्रवृत्तिविज्ञानमौपभोगिकमिति । तस्मादालयविज्ञानात् प्रत्येति इति तत्प्रत्ययमुत्पद्यत इत्यर्थ । कथमुत्पद्यते? प्रवृत्तिविज्ञानं हि आलयविज्ञानात् प्रवर्तमानमनुत्पन्नस्य तज्जातीयस्य प्रवृत्तिविज्ञानस्योत्पादकं बीजमालयविज्ञाने विस्तारयति । तस्माद् विस्तारितबीजोत्पन्नविशेषलाभात् पुनस्तज्जातीय प्रवृत्तिविज्ञानमुत्पद्यते इत्येवं तत्प्रत्ययं प्रवृत्तिविज्ञानं भवति । मध्यान्तवि०सू०भा०टी०(स्थिरमति)१.१० । द्र० लङ्कावतारसूत्र २.९८, न्यायकणि पृ०२५८-९ । अथ पूर्वचित्तसहजाच्चेतनाविशेषात् पूर्वशक्तिविशिष्ट चित्तमुत्पद्यते सोऽस्य शक्तिविशिष्टचित्तोत्पादो वासना। तथा हि पूर्वचित्तं रूपादिविषयं प्रवृत्तिविज्ञानं यत् तत् षड्विधम् । पञ्च रूपादिविज्ञानान्यविकल्पकानि षष्ठं च विकल्पविज्ञानम् । तेन सह जातः समानकाल चेतनाविशेषोऽहङ्कारास्पदमालयविज्ञानम् । तस्मात् पूर्वशक्तिविशिष्टचितोत्पादो वासनेति । स्याद्वादमं०१९। द्र० Keith'sBuddhist Philosophy p. 253 २ तत्र सर्वसाङ्क्लेशिकधर्मबीजस्थानत्वाद् आलयः । आलयः स्थानमिति पर्यायौ। अथवाऽऽलीयन्ते उपनिबध्यन्तेऽस्मिन् सर्वधर्माः कार्यभावेन तद्वाऽऽलीयते उपनिबध्यते कारणभावेन सर्वधर्मेषु इति आलयः । त्रिविज्ञप्ति भा०.२ । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पू०११७, वि० पृ०५५३ ] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः २२५ S. धारणाsssर्षणादि त्विति । एकस्यावयवस्य धारणे सर्वस्य धारणमेकस्य चाssकर्षणे सर्वस्याऽऽकर्षणमसत्यवयविनि न स्यादिति' । काष्ठेति काष्ठ [मूल] केऽनारब्धकार्यत्वम् अन्त्यावयवि(वा)नामनारम्भकत्वात् । षट्केन युगपद् योगादित्यस्योत्तर मर्धम्[तेषां] समानदेशत्वे पिण्डः स्यादणुमात्रकः ॥ [ विज्ञप्तिमात्रताविंशतिका १२] इति ॥ दिक्चतुष्टयादूर्ध्वभागादधोभागाच्चागतैः परमाणुभिरेकस्य परमाणोरवश्यं योगो वक्तव्योऽन्यथा सञ्चयाभावाद । तत्र भिन्नैर्भागैर्योगः परमाणोः । सावयवत्वात् तस्यान्येऽवयवाः कल्प्याः, तेषामपि कल्पितावयवानां परस्परमयमेव न्याय इत्यनवस्था । अथ निर्भागत्वात् परमाणोर्यथैकेन सम्बन्धस्तथाऽपरेणापीति, तदेवमेकदेशत्वादणुमात्रपरिमाणस्तत्सञ्चयः स्यादित्यर्थः । "अवयविविनाशोऽपि नानुल्लिखितो भवेद् अवयवविभागहेतुत्वात् तन्नाशस्य । वृत्तिश्च व्यासज्यैवेति । कात्स्न्येन सकलावयवेषु न, एकैकपरिसमाप्त्या । किसमुदायालम्बनइति । केषां समुदाय इति किंसमुदायः । तस्मात् प्रमाणतोऽशक्य इति । यदि प्रामाणिको वस्तुनिर्णयस्तत्तूष्णीं स्थातव्यम्, अप्रामाणिकश्चेत् प्रमाणाभाव एवोद्भाव्य इति । कस्तो नियन्तुं क्षमः इति यदुक्तं तदेव स्फुटयितुमाह- - पुंसा न किञ्चिदि - त्यादिना । यदपीह केचिदित्यादिना पाशुपतमतमाह । महेश्वरप्रणिधानात् तदेह (तदेह)प्राप्तिं मोक्षमाहुः । भट्टश्रीशङ्करात्मजचक्रधरकृते न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गे नवममाह्निकम् १ धारणाकर्षणोपपत्तेश्च । न्यायसू० २.१.३५ । धारणाकर्षणोपपत्तेश्व अवयव्यर्था - न्तरभूत इति चार्थः । किमिदं धारणं नाम ? एकदेशग्रहण साहचर्ये सत्यवयविनो देशान्तरप्राप्तिप्रतिषेधो धारणम् । यदाऽयमवयविन एकदेशं गृह्णाति तदैकदेशग्रहणेन सहावयविनमपि गृह्णाति । तेन च ग्रहणेन यदवयविनो देशान्तरप्राप्तिनिराकरणं तद्धारणम् । आकर्षण नाम एकदेशग्रहण साहचर्येण यदवयविनो देशान्तरप्रापणं पूर्ववत् । कुत एतत् ? लोकतः । लोकः खलु धारणाकर्षणे एवं प्रयुङ्क्ते इति । ते एते धारणाकर्षणेऽवयविनं साधयतः । कथमिति ? निरवयवे चावयवे चादर्शनात् । न हि धारणाकर्षणे निरवयवे अवयवे च दृष्टे, दृष्टे च धारणाकर्षणे, तस्मादवयविधर्माविति । न्यायवा० २.१.३५ । २ मुद्रितमञ्जर्या तु 'अवयव' इति पाठः । ३ अन्यत्र दुःखनिवृत्तिरेव दुःखान्तः । इह तु पारमेश्वर्यप्राप्तिश्च । ... अन्यत्र पुनरावृत्तिरूपस्वर्गादिफलको विधिः । इह पुनरपुनरावृत्तिरूपसामीप्यादिफलकः । सर्वदर्शनसं० पृ० १७१ । २९ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ दशममासिकम् ॥ तच्चानुगतं वा भवतु व्यावृत्तं वेति । सर्वथा यादृक्तादृग् भवतु सामान्यरूपतामात्मनोऽनाक्षिपन्न संशयः जन्मनि समर्थं भवतीति आक्षिप्तसामान्यवाचकः; यत्पुनः साक्षादेवोभयवृत्तित्वेन सामान्यं नाक्षेपवृत्त्या तद्वाचकः अनुगतसामान्यवाचको विशेषलक्षण इति । नार्थान्तरविशेषत्वादिति[42] । प्राक्तनचोद्यपरिहाराय भाष्यकृतोक्तम् । तदेव भाष्यं पठित्वोत्तरग्रन्थेन व्याचष्टे अर्थान्तरविशेषश्च धय॑वेत्यादिना । तथापि प्रेङ्वारूढस्येति । प्रेङ्खारूढो हि द्रुततरं गच्छन् वृक्षत्वं ध[व]खदिरसामान्यधर्म पश्यति, अनध्यवसायाच्च व्याक्षेपेण दृश्यानपि विशेषान् नावधारयति, न च संशयः; विशेषस्मृत्यभावादिति । चलवृक्षादिज्ञानं वा यत् प्रेखाद्यारूढस्य न तत् संशयज्ञानम् अनध्यवसायरूपत्वात् तस्येति' । इन्द्रियार्थसन्निकर्पोत्पन्नग्रहणवदिति । यथा प्रत्यक्षलक्षणे 'इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्न'ग्रहणमसाधारणलक्षणमुक्तम् , न तु कारणान्तरव्यवच्छेदकम् 'इन्द्रियसन्निकर्षादेव' इति । एकैकपदोपादानफलं च पूर्ववद् अत्रापि दर्शयितव्यमिति । पनसत्वाद्यसाधारणधर्मिदर्शनादुपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्था[तः अनेकधर्मोपपत्तेः इत्येता]वदस्तु [मा भूद् 'विशेषापेक्षः' इति पदम् । उक्तमत्र]--विशेषानुपलम्भादपि न संशय इति विशेषापेक्षया इति पदम् । यद्येवमनेकधर्मोपपत्तेर्विशेषापेक्ष इत्येतावदस्तु मा भूदुपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थापदम् । उक्तमत्र-असाधारणधर्मनिश्चये द्रव्यत्वाद्यनुस्मृतावपि अधिगतविशेषस्य संशयाभावात् । यद्येवं विशेषापेक्ष इति न वाच्यं पूर्वोक्तादेव पदद्वयात् संशयोऽस्तु । न, पनसत्वाद्यसाधारणधर्मदर्शनेऽपि विशेषस्मृत्यभावाद् न संशयः किन्त्वनध्यवसाय एव । अनेकधर्मोपपत्तेरिति पदं विना उपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातो विशेषापेक्ष इति च पदद्वयं संशयहेतुत्वेन नाशङ्कनीयम् , अनेकधर्मोपलब्धि विना कस्य द्वितीयपदेनाभिधानम् , पूर्वपदार्थस्य विशेषणत्वेनोत्तरपदार्थस्य व्यवस्थितत्वादिति । तदेवमत्रापि पदत्रयसाफल्यम् । १ एवं समानधर्मोपपत्तेरुपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातश्चेति पदद्वयेऽपि नौयानप्रेङखादिगतस्य न भवति संशयः । न्यायवा० १.१. २३ । नौदोलाद्यारूढो हि गच्छन् विदूरे आरोहपरिणाहवद्वस्तुदर्शने सत्यपि च साधकबाधकप्रमाणाभावे विशेषस्मृत्यभावान्नग इति वा नाग इति वा न सन्दिग्धे। न्याय०वा०तात्प० १.१.२३ । २ किं तावदयं कारणोपदेश आहो संशयस्वरूपावधारणमिति ? । यदि कारणनिर्देशः अत्यल्पमिदमुच्यते समानानेकधर्मादिभ्य इति, अन्या-- न्यपि संशयकारणानि, तान्युपसङ्ख्येयानि । यथाऽऽत्ममनःसंयोग आन्तरस्य, आत्ममनःसन्निकर्षः इन्द्रियार्थसन्निकर्षों बाह्यस्येति । न्यायवा०१.१.२३ । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ का०पृ०१२५, वि०पृ०५६२] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः २२७ कारणाकारणविभागपूर्वकस्त्विति । हस्तस्य कारणमङ्गुलयः, आकाशं त्वकारणम्, तयोविभागः कारणाकारणविभाग इति'। विरुद्धदिग्वृत्तेः संयोगस्य निवर्तकमिति नातिप्रसङ्गः इति । यदि हि कर्म स्वाश्रयादन्यस्य संयोगं निवर्तयेत् तदा विभागजविभागानभ्युपगमः, न तु 'अङ्गुलिविभागः कुण्डबदरसंयोगोपमर्दाय प्रभवति' इति सूचितो योऽतिप्रसङ्गः स आपतेद् न त्वेमस्तीति भावः । [43] एवं कर्माविष्टस्योत्तरसंयोगदर्शनमदूषणमिति । कर्माविष्टस्य कर्म विनोत्तरसंयोगाभावात् संयोगोत्पत्तौ कर्मण एव कारणत्वमवगतम् । यच्च यस्योत्पत्तिकारणं तदेव तस्य विनाशहेतुरिति न वाच्यम् , विरुद्धदिग्संयोगोपमद विनोत्तरसंयोगस्यैव कर्तुमशक्यत्वादिति भावः ।। कर्मणां विचित्रकार्यहेतुत्वादिति । न ह्येकेन कर्मणा नोदानाख्यः संयोगविशेषो जनित इत्यन्येनापि जनयितव्यो नाभिघातादिरिति । कार्यकारणैकार्थसमवायेन तु प्रत्यासन्नमिति । कार्यस्य पटरूपस्य कारणं समवायिकारणम् , यः पटस्तेन सहैकस्मिंस्तन्तुलक्षणेऽर्थे समवायस्तन्तुरूपस्य । ___ अत्रापि त्रिपदपरिग्रहेण लक्षणवर्णनमिति । तथाहि-विप्रतिपत्तेः संशयः इत्युक्ते अग्रहणेऽपि तस्याः संशयप्रसक्तिस्तदर्थ विप्रतिपत्युपपत्तेरिति । तथापि विप्रतिपत्तिशब्दार्थमुपलभमानस्यावि(व)गतविशेषस्य न संशय इति तदर्थमुपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थात इति । तथापि द्रुततरं गच्छतो विप्रतिपत्तिशब्दार्थोपलम्भे उपलब्ध्यनुपलब्ध्योश्वाव्यवस्थाने न दृष्टः संशय इति । तदर्थे विशेषापेक्ष इति पदम् । ननूपलब्ध्यव्यवस्थातश्चेत् संशयस्तदानीं सर्वत्र संशयप्रसङ्ग इत्याशङ्ख्यातिप्रसङ्गं निराकर्तुमाह-- अव्यवस्थापदेनात्र पूर्वमिति । पूर्व सदाश्रिता विशेषा अर्थक्रियासमर्थत्वाच(द)योऽसदाश्रिताश्च तद्विपरीता उपलब्धाः पुनर्यदा- सदाश्रितान् अर्थक्रियासमर्थत्वादीन् विशेषान् नोपलभते तदैव संशयो न सर्वदेति तात्पर्यम् । एतदेव च न चैवं सति सर्वत्रानाश्वास इति इत्यादिनाऽऽह । अत्रापि पदत्रयेणेति । नोपलब्धिमात्रं संशयजनकमिति । तदर्थमुपलब्ध्युपपत्तेरिति । उपलब्ध्युपलम्भादित्युक्तेऽधिगतविशेषस्यापि संशयप्रसङ्ग इत्यतस्तव्यावृत्तये उपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थात इति । तथापि कुतश्चिद् १ प्राप्तिपूर्विकाऽप्राप्तिर्विभागः । स च त्रिविधः-अन्यतरकर्मजः, उभयकर्मजः, विभागजश्च विभाग इति । तत्रान्यतरकर्मजोभयकर्मजौ संयोगवत् । विभागजस्तु द्विविधः-कारणविभागात्, कारणाकारणविभागाच्च । ......कारणाकारणविभागादपि कथम् ? यदा हस्ते कर्मोत्पन्नमवयवान्तराद् विभागमकुर्वदाकाशादिदेशेभ्यो विभागानारभ्य प्रदेशान्तरे संयोगानारभते तदा ते कारणाकारणविभागाः ... । प्रशस्तपादा० पृ० ४९५ । २ मुद्रितमजा तु 'त्रिरूप ' इति पाठः। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का०पृ०१२७, वि०पृ० ५६४ विक्षेपादनर्थित्वाद्वा विशेषस्मृत्यभावे न संशय इति तदर्थं विशेषापेक्ष इति पदम् । एवमनुपलब्धावपि पदत्रययोजना कार्या । ॥ सिद्धान्तलक्षणे ॥ इत्थम्भावव्यवस्थेति' अस्य विवरणं धर्मनियम इति । शब्दस्य सामान्येन सिद्धस्येत्थम्भावव्यवस्था अनित्य एव शब्द इत्यनित्यत्वाख्यधर्मनियमः । इतरेतरसम्बद्धस्यार्थसमूहस्येति । नासम्बद्वस्य दशदाडिमादिवत् । ब्रह्मवादिनां हि सर्वेवेयमविद्येति । ग्राह्यस्य प्रपञ्चस्यासत्यत्वात् । तद्ग्राहकस्य ज्ञानस्याविद्यात्वम् । सङ्ख्या- लक्षण - विषयविप्रतिपत्ति[स्त्विति ] | सङ्ख्याविप्रतिपत्तिः - "द्वे एव प्रमाणे" इत्यादिका । लक्षणविप्रतिपत्तिः - 'प्रत्यक्षं कल्पनापोढम्" इत्यादिका । विषयविप्रतिपत्तिः -- 'स्वलक्षणविषयं प्रत्यक्षम् इत्यादिका । ——— २२८ इन्द्रियव्यतिरिक्तो ज्ञातेति । एकार्थग्रहणादेकार्थताप्रसाधकात् प्रतिसन्धानलक्षणाद् हेतोरित्यर्थः । यदि हि एकमिन्द्रियं स्यात् तदा यमहमद्राक्षं तं स्पृशामीति तत्कृतमेव प्रतिसन्धानं भवेत् । यदि वाऽनियतविषयं स्यात् तदाऽप्यनियतविषयत्वादेकेनैवेन्द्रियेण प्रतिसन्धानं सिद्धयेद् विनाऽप्येकेनानियत विषयेण ज्ञात्रा । यदि गुणव्यतिरिक्तं द्रव्यं न स्यात् तदा विषयशून्यत्वात् प्रतिसन्धानस्य अप्रमाणं तत् स्यादेकार्थसिद्धौ ं । अभ्युपगमार्थः कीदृश इति । प्रमाणेनैव स्वार्थस्य साधयितुमभिप्रेतत्वादिति । अन्यत्रैव तैः सूत्रार्थी नीत इति । आकाशविशेषगुणत्वादिधर्मपरीक्षारहितस्याभ्युपगमादित्यत्रार्थे तैः सूत्रार्थी योजितः । ॥ अवयवलक्षणे ॥ साध्यनिर्देशस्त्वनियमित इति । तमपहायापि भवेदित्यतिव्यापकं लक्षणमिति । एवं हि सति यः साध्यनिर्देशः सा प्रतिज्ञेति न स्यात्, अप्रतिज्ञारूपस्यापि साध्यनिर्देशस्य सम्भवात् । यथैष पन्थाः सुघ्नं गच्छतीति । नन्वत्रापि वाक्ये गच्छत्येवेति अवधारणमस्त्येव । नैतदेवम् । अवधारणं हि विशेषणेन समानविषयम् । न च 'एष पन्थाः स्रघ्नं गच्छति' इति अत्र विशेषणं सफलम् । तस्य हीष्टानिष्टसंदेहेऽनिष्टव्यवच्छेदः फलम् । यथा च विशेषणस्येष्टानिष्टप्रसक्तौ 'नीलमेवोत्पलं नानीलम्' इत्यनिष्टव्यवच्छेदः प्रयोजनं तथाs [45] वधारणस्य । न चोत्पलस्येव नीलानी - 1 १-२ न्यायभा० १. १. २६ ( उत्थानिका ) । ३ न्यायभा० १. १. २६ । ४ " अनर्थकानि - 'दश दाडिमानि षडपूपाः कुण्डमजाजिनं पललपिण्डः । अधरोरुकमेतत् कुमार्याः स्कैयकृतस्य पिता प्रतिशीनः ॥” इति पातञ्जलमहाभाष्ये १. १. १, १. ४. ४५ । एतन्महाभाष्यपाठः हरिभद्रसूरिकृत - आवश्यक निर्युक्तौ ( पृ० ३७५) श्लोकरूपेण लब्धः । तद्यथा - 'दश दाडिमानि षडपूपाः कुण्डमजाजिनं पललपिण्डः । चर कीटके दिशमुदीचीं स्पर्शनकस्य पिता प्रतिशीनः ॥ ५ बौद्ध-वैशेषिकयोः सिद्धान्तः । ६ दिङ्नागस्य प्रत्यक्षलक्षणम् । प्रमाणसमु० १.३ । ७ बौद्धराद्धान्तः । ८ दर्शनस्पर्शनाभ्यामेकार्थग्रहणात् । न्यायसू० ३. १. १ । ९ द्र० न्यायवा० १. १. ३३ । अत्रान्यव्यवच्छेदं वाक्यार्थ मन्वानो भदन्तः प्रतिज्ञालक्षणम तिव्याप्त्यव्याप्तिभ्यामाक्षिपति । न्या०वा०तात्प० १. १. ३३ । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०१३५, वि०पृ०५७४] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः २२९ लत्वं गमनस्य द्वैरूप्यमस्ति येन गच्छत्येवेत्यनेन रूपान्तरस्य व्यवच्छेदः क्रियेत' । न हि तत्रैष एवेति । एष एवेति नियमो मार्गान्तराणामपि सुनगामिनां सम्भवाद् वक्तुं न पार्यते । स्रघ्नमेवेति वेति । न चासौ नियमेन स्रुघ्नमेव गच्छति, प्नात् परतोऽवस्थितानामपि नगरान्तरनामान्तराणां तेन मार्गेण प्राप्यत्वात् । नियमस्तद्विपक्षादिति । तस्यानित्यत्वस्य विपक्षो नित्यत्वम् । ततो नियमः क्रियते अनित्य एवेत्यनेन । नाविरोधिनों गुणत्वादेः । बाधोऽनुमानसारूप्येति । सारूप्यकृत उपमानकृतः । पक्ष-विपक्षवृत्तेस्तत्साधर्म्यस्वभावत्वादिति । विरुद्धस्य असति पक्षवृत्तित्वेऽसिद्धत्वं स्यान्न विरुद्धत्वमिति । तदुदाहरणसाधम्ये साध्यदृष्टान्तधर्मिसाधारणो धर्मों हेतुरिति । ननु साधर्म्यशब्देन कथं धर्मोऽभिधीयते । समानो धर्मो यस्यासौ सधर्मा तद्भावः साधर्म्यमिति सधर्मशब्दस्य धर्मिणि प्रवृत्तिनिमित्तं धर्म एवेति स एव साधर्म्यशब्देनोच्यत इत्यदोषः ।। सोऽपि च प्रयोज्यप्रयोजकभावगर्भः साधनाङ्गतामेतीति । असति साधनधर्मस्य साध्यधर्मप्रयोजकत्वे हेतुत्वाभावात् । न वाक्यांशो न पञ्चमीति । साधHप्रतिपादकं हि वचो वाक्यांशो न साधर्म्यमित्यर्थः । १ सर्वस्मिन् वाक्येऽवधारणमिति तु न बुद्धयामहे । तद्यथा-गोपालकेन मार्गेऽपदिष्टे 'एष पन्थाः श्रुघ्नं गच्छति' इति नावधारणस्य विषयं पश्यामः, अवधारणस्य तु विषयः सामान्यश्रुतौ नियमः । न्यायवा०१. १. ३३ । २-३ श्लोवा० अनु०५५। ४ मुद्रितमञ्जर्या तु 'बाधोऽनुमानरूपस्य' इति पाठः । ५ दिङ्नागवचनमिदम् । उदाहरणसाधाच्च किमन्यत् साध्यसाधनमित्येके । न किलोदाहरणसाधर्म्यव्यतिरेकेण साध्यसाधनमस्तीत्यत एवं सूत्रं कर्तव्यं 'उदाहरणसाधय हेतुः' इति । अथ पुनः साध्यसाधनशब्दोपादानमुदाहरणसाधर्म्यविशेषणार्थम् , एवमपि पञ्चम्यपदेशोऽनर्थकः इति । न हि भवति नीलादुत्पलमिति । अन्ये तु पञ्चम्यपदेशानर्थक्यमन्यथा वर्णयन्ति । अर्थान्तरे दृष्टत्वादिहानर्थक इति । अर्थान्तरे किल पञ्चमी दृष्टया यथा ग्रामादिति । न पुनरिहोदाहरणसाधर्म्यव्यतिरेकेण साध्यस्य साधनमस्तीत्यतः पञ्चम्यपदेशोऽनर्थकः ।...न्यायवा० १. १. ३४ । एतत् किल हेतुलक्षणं भदन्तो दूषयां बभूव-साधनं यदि साधर्म्य न वाक्यांशः, न ह्यर्थः पञ्चावयववाक्यस्यावयवः । न पञ्चमी, यदि साधनसाधर्म्ययोरत्यन्ताभेदो यदि वा सामान्यविशेषभावेन कथञ्चिद् भेद उभयथापि न पञ्चमी, साधनसामानाधिकरण्येन प्रथमाप्रसङ्गात् । अत्यन्तामेदे चैकतरपदाप्रयोगात् । वाक्यं चेत् ततः पञ्चम्युपपद्यते, साधनं हि वाक्यरूपं साधादर्थादत्थितं यतः तद्विशेष्यं स्यात् । न हि वाक्यमेवार्थादुत्थितम्, अपि तु विवक्षाद्यपि इति न विशेष्यम् , कुतः ? साधनत्वादसम्भवः । अर्थसमुत्थानामपि ज्ञानविवक्षादीनामप्रसङ्गोऽसाधनत्वादिति, न, तत्रापि द्विधा दोषात साक्षात् साधनम् ? पारम्पर्येण वा ? यदि पारम्पर्येण वक्तृज्ञानं तर्हि साक्षात् साधयेसमुत्थं पारम्पर्येण च श्रोतुः साध्यविज्ञानसाधनं हेतुः स्यात् । अथ साक्षात् साधनम् तर्हि श्रोतृज्ञानं पारम्पर्येण साधर्म्य समुत्थं साक्षात्साधनं हेतुः स्यात् । प्रकृते त्वन्यसंभवः, यदि तु पञ्चावयववाक्यस्य प्रकृतत्वाद् ज्ञानादिव्यवच्छेदः, तथाप्यन्यसंभवः, उपनयस्यापि साधर्म्यसमुत्थत्वात् । स्वलक्षणेन बाधा चेत् , न, विकल्पादिसंभवात् । तस्मात् षष्ठयस्तु, तत्रापि विशेषणमनर्थकम् , 'साधर्म्यस्य हेतुः' इत्येतावन्मात्रं वक्तव्यमिति । तदेतद् दिङ्नागदूषणमुपन्यस्यति-उदाहरणसाधाच्चेति । न्यायवा० तात्प० १.१.३४ । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का पृ०१२६, वि.पृ०५७६ विशेषविधिरूपेणेति । साधर्म्य वैधाभ्यां पूर्व प्रतिपाद्य केवल वैधम्र्येणैव प्रतिपादनं विशेषविधिः शेषप्रतिषेधफलो वामेनाक्ष्णा पश्यतीतिवत् । अत एव च भाष्यकार इति । स हि "उदाहरणसाधर्म्यात् साध्यसाधनं हेतुः” इति सूत्रं न्यायसूत्र १.१.३४] व्याख्याय 'तथा वैधात्' इत्यस्य सूत्रस्य न्यायसूत्र १.१.३५] अवतारणाय 'किमेतावद्वेतुलक्षणम्' इत्याह । 'अनित्यः शब्दः' इति च प्रतिज्ञामुक्त्वा 'उत्पत्तिधर्मकत्वात्' इत्युभयत्रहेतुमाह । ___ यथा कथञ्चिद् व्याख्यास्याम इति । अन्वयव्यतिरेकिणो यल्लक्षणं प्राक् प्रतिपादितम् आहोस्विद् अन्यस्यापि हेतोरन्यत् किञ्चिल्लक्षणं विद्यत इति—प्रश्नभाष्यमेवं व्याख्येयमुत्तरभाष्यं तु स्पष्टमेव । 'समानो धर्मों लिङ्गसामान्यमिति । लिङ्गसामान्यधूमत्वं द्वयोः सम्भवति न धूमव्यक्तिरिति [46] लिङ्गसामान्यग्रहणम् । दृष्टान्तोदाहरणशब्दयोः समानाधिकरणमविरुद्धमिति । दृष्टान्त उदाहरणप्रतिपाद्यो दृष्टान्त इत्यर्थः । नन्वेवं यत्र हेतुकृतेति । साध्यसाधाद् लिङ्गसामान्यात् तस्य साध्यस्य धर्मस्य भावः ख्यापते(प्यते) यत्र स दृष्टान्त उदाहरणमिति तत्र व्याख्यानात् । प्रयोजकत्वमग्नेश्चेति । साध्येन धर्मिणा साधर्म्य समानो धर्मोऽनुमेयसामान्यं तस्मादित्येवं व्याख्या । न चैवं युज्यते वक्तुमनैकान्तिकदोषत इति । यत्र यत्राग्निस्तत्र तत्र धूम इति ह्युच्यमाने शुष्कन्धनप्रभवेऽग्नौ धूमस्याभावादनैकान्तिकत्वम् । सपक्षकदेशवृत्तेरिति । धूमो हि हेतुः सपक्षकदेशवृत्तिः, अग्निमन्तो हि प्रदेशाः सपक्षाः, न च सर्वेष्वसावस्ति, शुष्कन्धनप्रभवेऽग्नावसम्भवात् । व्योम्नि नित्यत्वाद् मूर्तत्वं विद्यते इत्यनन्वय इति । एवं ह्युच्यमाने प्रकृतेन हेतुवचनेन साध्यसम्बन्धेनान्वयो न प्रदर्शितो भवति । यन्नित्यं तदमूर्तमिति विपरीतान्वय इति । व्याप्यस्य प्राथम्येन यच्छब्देन च निर्देशः कर्तुमुचितो व्यापकस्य तु पश्चाद् निर्देशस्तच्छब्देनैव कार्यः—यत्र धूमस्तत्राग्निरितिवत् । तदुक्तम्-- १ मुदितमजर्या तु 'समानधर्मो' इति पाठः । २ सोऽयं दृष्टान्तः साध्यसाधात् तद्धर्मभावित्वेन विशेषणेन युज्यमान उदाहरणं भवति, उदाहृयतेऽनेन धर्मयोः साध्यसाधनभावः इत्युदाहरणम् । ननु च करणकारकारिग्रहाद् वचनमुदाहरणं दृष्टान्तश्चार्थो न चानयोः सामानाधिकरण्यं युज्यते, न हि विषाणादिमदित्यभिधानं गवा. समानाधिकरणं भवति । नैष दोषः वचनविशेषणत्वेन दृष्टान्तस्योपादानान्न स्वतन्त्रा दृष्टान्त उदाहरणम् , किन्तु साध्यसाधात् तद्धर्मभावित्वे सति अभिधीयमान इति । न्यायवा० १.१.३६ । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ का पृ०१४४, वि०पृ०५८४ ] न्यायमञ्जरीग्रन्थिमङ्गः उद्देश्यो व्याप्यते धर्मों व्यापकश्चेतरो मतः । यवृत्तयोगः प्राथम्यमित्याधुद्देश्यलक्षणम् ॥ तवृत्तमेवकारश्च स्यादुपादेयलक्षणम् । [श्लो॰वा०, अनुमान०, १०९-११०] इति । दोषश्च स्फुट एव मनसो नित्यस्याप्यमूर्तत्वाभावात् । पक्षधर्मोपसंहारः पक्षधर्मस्य हेतोरुपसंहारः - 'तथा चायं कृतकः' इति । नन्वाधारविवक्षायामिति । अथास्यानाघा(श्वा ?)स इतिवत् । सम्बन्धमात्रापेक्षया षष्ठया निर्देशस्तथाप्याधाराधेयभाव एवासौ सम्बन्ध इति कुतो लभ्यत इति तदेवाह-सम्बन्धमात्रे वाच्ये वेति । सर्वत्र विशेषोऽन्तर्व्यवस्थित इति । राज(जा) पुरुषं बिभर्ति यतो राजपुरुष इति । अतश्च धर्माय जिज्ञासेति । यथात्र सामान्येन भाष्यकृता 'सा हि तस्य ज्ञातुमिच्छा' [शाबरभा.१.१.१.] इत्यनेन षष्ठीसमासनिर्देशाय प्रदर्शिता, 'धर्माय जिज्ञासा' [शाबरभा.१.१.१.] इति त्वनेन तादर्थ्याख्यसम्बन्धविशेषपर्यवसायित्वं प्रतिपादितम् , तदुक्तम्-'सा हि तस्य' इत्यनेनोक्तधर्मस्येत्येष विग्रहः, 'धर्माय' इति तु पूर्वोक्तमस्यैवार्थोपवर्णनमिति । [47] तद्वदिह । डिण्डिकरागं परित्यज्येति । क्षपणकाभिनिवेशं त्यक्त्वेत्यर्थः' । विदुषां वाच्यो हेतुरेवेति ।। तद्भावहेतुभावौ हि दृष्टान्ते तदवेदिनः । ख्याप्येते विदुषां वाच्यो हेतुरेव हि केवलः ॥ प्रमाणवा०, ३.२६] इति परिपूर्णः श्लोकः । प्रतिज्ञायास्तावदागमोऽनुग्राहक उपेयत इति । सर्वा एव हि प्रतिज्ञाः प्रथममुच्चरन्त्य आग[म]वत् प्रतिभान्तीति तत्तुल्यविषया एव भवन्त्यतः तेनानुगुह्यन्ते । आगच्छति [आगमवत् ?] प्रतिभानेन तद(द्)विषयोपादेयतासंभवादागमानुग्रहः । यद्येवमागमवत् प्रतिभानात् प्रतिज्ञायाः कथं हेतुवचनमित्याह-उक्त्वा त्विति । १ डिण्डिकरागं परित्यज्य.... । हेतुबि० पृ०५६। डिण्डिकाः नग्नाचार्याः। हेतुबिल्टो पृ० ७१ । ततः प्रविशति डिण्डिकवेषो विदूषकः । प्रतिज्ञायौग० तृतीयोऽङ्कः । डिण्डिकादीनां त्रिपादारूढानाम् । प्रज्ञापना०हरि० पृ० १३४ । डिण्डिको नाम रक्तवर्णो मूषकविशेषः । डिण्डिका हि प्रथमनामलिखने विवादं कुर्वन्ति । प्रमाणमी. (सिंघी) टिप्पण पृ० ५१ । २ आगमः प्रतिज्ञा। न्यायभा० १.१.१। तत्र आगमः प्रतिज्ञेति न युक्तम , आगमस्य तत्त्वव्यवच्छेदकत्वात् प्रतिज्ञार्थस्य च प्रतिपाद्यत्वात् । आगमाधिगतस्य प्रतिपाद्यत्वात् आगमः प्रतिक्षेति Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का०पृ०१४४, वि० पृ०५८४ तत्प्रतिज्ञायाः शब्दविषयत्वादिति । शब्दप्रमाणविषयत्वादिति । इयं [तद् ] विषयभूतेन शब्देनानुगृह्यते स [शब्दो] ह्यभिधेयत्वेनास्यां प्रतिज्ञायां स्थित इति । अयं तु सर्वप्रतिज्ञा सम्भवी न भवत्यागमानुग्रह इति भाष्यकृन्मतं त्विदमपीति कृत्वा केवलं दर्शितम् । हेतुवचनं त्वनुमानेनानुगृह्यते । सत्यर्थरूपेऽनुमाने तत्प्रतिपादकस्य वचनस्य सम्भवोऽनुग्रहः । २३२ इत्यारब्धोषकारा इति प्राङ्नीत्या कृतानुग्रहाः । तदनुगुणफलैरिति । तथाहि प्रत्यक्षेण व्याप्तिग्रहे सत्युदाहरणं प्रवर्तते, इतरथा व्याप्त्यग्रहाद् उदाहरणाप्रवृत्तिरित्युदाहरणानुगुणं प्रत्यक्षफलं व्याप्तिपरिच्छेद इति । इति हि व्याहरद् वृत्तिकार इति । वृत्तिकारो भाष्यकारः । स ह्याह- " न ह्येतस्यां हेतूदाहरणविशुद्ध साधर्म्यवैधर्म्याभ्यां प्रत्यवस्थानस्य विकल्पाज्जाति [ निग्रहस्थान ] बहुलत्वं प्रक्रमते । अव्यवस्थाप्य खलु धर्मयोः साध्यसाधनभावमुदाहरणे जातिवादी प्रत्यवतिष्ठते । व्यवस्थिते तु खलु धर्मयोः साध्यसाधनभावे दृष्टान्तस्थे गृह्यमाणे साधनभूतस्य [धर्मस्य] हेतुत्वेनोपादानं न साधर्म्यमात्र [स्य न वैधर्म्यमात्र ] स्य [वा ] " इति [ न्यायभाष्य, १.१.३९]। अस्य पञ्चावयवस्य वाक्यस्य लौकिकत्वाद् नाग्निहोत्रादिवाक्यवत् स्वतन्त्रप्रामाण्यमपि तु प्रमाणोपस्थापकत्वेन, तत्कस्यावयवस्य किंप्रमाणोपस्थापकत्वमित्याशङ्कानिवारणाय प्रमाणानुग्रहचिन्ता भाष्यकृताऽमुना सूचितेति ॥ भद्रम् ॥ भट्ट श्रीशङ्करात्मजचक्रधरकृते न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गे दशममाह्निकम् न दोषः, य एवार्थ आगमेनाधिगतस्तमेव परस्मा आचष्ट इत्यागमः प्रतिज्ञेत्युच्यते । न्यायवा० १. १. १ । प्रतिज्ञा आगमार्थविषया साक्षाद्विषयाऽऽगमप्रामाण्यप्रतिपादकस्य च परम्प रया । न्या०वा०तात्प० १. १. १ । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ एकादशम् आह्निकम् ॥ ॥ तर्कलक्षणे ॥ विज्ञाततत्त्वेऽपि [पूर्व-तणावमृष्ट इति । यत्र तर्केणं तत्त्वविज्ञानमभूत् । त्रिशङ्कुरिवेति । त्रिशङ्कुर्नाम राजा वसिष्ठशापाच्चण्डालतां प्राप्तो विश्वामित्रेण याजयित्वा स्वर्ग प्रापितः, स्वर्गाच्च चण्डालत्वेन देवैः प्रच्याव्यमानो विश्वामित्रहुंकारेण नाधःप्राप्तो भूमिम्, मध्य एव व्योम्नोऽवलम्बमानोऽद्यापि तिष्ठतीति । जन्मोच्छेददर्शनात् कृतकतत्कारणप्रत्यय इति । यदि हि जन्मकारणमकृतकं नित्यं स्यात् कारणानुच्छेदः स्यादिति कृतकधर्माधर्मकारणनिश्चय इति । तथा च भाष्यम्-"तस्योदाहरणम्-किमिदं जन्म कृतकेन हेतुना निर्वय॑ते ? आहोस्विद् अकृतकेन? अथाकस्मिकम् ? इत्येवमविज्ञाततत्त्वेऽर्थे कारणोपपत्या ऊहः प्रवर्तते । यदि कृतकेन हेतुना निर्वय॑ते, हेतूच्छेदोपपन्नो जन्मोच्छेदः । अथाकृतकेन, हेतूच्छेदस्याशक्यत्वादनुपपन्नो जन्मोच्छेदः । अथाकं स्मिक]म्, ततोऽकस्मान्निवर्तमानं पुनर्न निर्वय॑तीत्यनुवृत्तिकारणं नोपपद्यते इति जन्मानुच्छेदः । एतस्मिंस्तर्कविषये कर्मनिमित्तं जन्मेति प्रमाणानि प्रवर्तमानानि तर्केणानुगृह्यन्ते, तत्त्वज्ञानविषयस्य च विभागात् तत्त्वज्ञानाय कल्प्यते तर्क इति" [न्यायभा० १.१.१.] । अथवा कार्योदाहरणत्वादस्येति । यथा वृद्धसंज्ञायां शालामालेति रूपोदाहरणं शालीयो मालीय इति तु कार्योदाहरणं तथाऽत्र तर्कः स्वरूपेण न दर्शितः तर्ककार्यः पुनर्निर्णयो दर्शित इति । तथाहि-धर्माधर्मरूपकृतकहेतुजन्यत्वे जन्मनो यावन्निर्णयफलमनुमानं सुप्रतिष्ठं नाभिहितं तावन्मध्ये तर्कदशाऽत्र स्थितैवेति । - हृदयशुद्धिप्रकाशनार्थमिति । मयैवमयमर्थो ज्ञात इति प्रकाशनेन हि वीतरागता ततो दर्शिता भवति । कापिलास्तु बुद्धिधर्ममूहमिति । शुश्रूषा-श्रवण-ग्रहण-धारण-विज्ञानोहापोहतत्त्वाभिनिवेशा अष्टौ ते बुद्धेर्धर्मा उक्ताः । तथा च 'विज्ञानमूहन' इत्याद्याहुः । ___ तत्रापूर्वप्रयुक्तत्वेन धर्माणां प्रतिकरणं भेदे स्थिते इति प्रथमाह्निके व्याख्यातम्। विध्यन्ताधिकरणसिद्धान्तन्यायेनेति । “इतिकर्तव्यताऽविधेर्यजतेः पूर्ववत्त्वम्" [मी. सू०-७.४.१.१] इत्यत्र विध्यन्ताधिकरणे चिन्तितम् । 'सौर्य चकै निर्वपेद् ब्रह्म[49]वर्चसकामः' इत्यत्र तावद् यागेनापूर्वसाधनमिति प्रतीयते, तत्र यागो लौकिकत्वाज्ज्ञायते, १ मुद्रितन्यायभाष्ये तु 'निवृत्तिकारणम्' इति पाठः । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [का०पृ०१४६, वि०पृ०५८८ कथं चापूर्व साधयेदित्येतन्न ज्ञायते। इह त्वपूर्व साधयेदित्येतावन्मात्रमुक्तम्, कथं साधयेदितीतिकर्तव्यता नोक्ता । येषां चार्थानां ज्ञायत एवेतिकर्तव्यता तेषां कर्तव्यतामात्रमुपदिश्यते यथोदनं पचेति । येषां तु न ज्ञायते ते सहेतिकर्तव्यतयोपदिश्यन्ते यथा दर्शपूर्णमासौ, एवं चेत्तन्न ज्ञायते यागेनापूर्वनिर्वृत्तावितिकर्तव्यता यस्मान्नोक्ता । सा चास्ति लौकिकी वैदिकी च । अत इतिकर्तव्यताया अविधिः, अविधानेन यजतेः पूर्ववत्त्वं विहितेतिकर्तव्यताकत्वम् । एवं च लौकिकी । सा कार्या स्याद् वैदिकी निःसंशया । “स लौकिकः स्याद् दृष्टप्रवृत्तित्वा]त्" [मी०सू०७.४.२.२] इति लौकिकीमाश[]क्य “लिङ्गेन वा नियम्येत लिङ्गस्य तद्गुणत्वात्" [मी०सू०७.४.२.४]इत्यादिना वैदिक्येवेति सिद्धान्तितम् । स कर्तव्यतोपायो लौकिकः स्यात् पार्वणस्थालीपाकादौ तस्यैव प्रवृत्तिदृष्टेरिति पूर्वपक्षसूत्रार्थः । लिङ्गेन वेतिकर्तव्यता नियम्येत वैदिक्येव न लौकिकीति, लिङ्गं चा(च) सौर्ये चरौ प्रयाजे कृष्ण]लं जुहोतीत्यादि, एवमादिभिर्लिङ्गैर्ज्ञायते वैदिकीति, कथं कृत्वा ?, लिङ्गस्य तद्गुणत्वात् । एते हि प्रयाजादयो वैदिकस्य दर्शपूर्णमासापूर्वस्य गुणाः । अतो वैदिकाः । पूर्वाङ्गत्वादेषां विकृतौ दर्शनमेवमुपपद्यते । यदि तद् वैदिकमपूर्वं तेभ्यो विकृतियागेभ्यो धर्मान् प्रयच्छति, ते च तद्ग्रहणेन तत्पूर्वका भवेयुः, नान्यथा । अस्ति च दर्शनम्, अतो वैदिक्येवेति द्वितीयसूत्रार्थः । प्राकृतवद् वैकृतं कर्म कर्तव्यमिति । विहितेतिकर्तव्यताकस्य धर्मा अविहितेतिकर्तव्यताके कर्तव्या इत्यर्थः । द्रव्यदेवतादिचोदनासारूप्येति । तथा च सूत्रम्-~-“यस्य लिङ्गमर्थसंयोगादभिधानवत्” इति [मी०सू०८.१.२] । यस्य वैदिकस्य विध्यन्तस्य लिङ्गं किञ्चिच्छद्गतमर्थगतं वा वैदिक्यां कर्मचोदनायां तद्गुणवाक्ये वा दृश्येत, तत्र स विध्यन्तः स्यात्, कुतः १, अर्थसंयोगात् । तस्यार्थस्य लिङ्गस्य तेन विध्यन्तेन संयोगोऽनुभूतपूर्वः संयोगिनोश्चान्यतरो दृश्यमान इतरददृश्यमानमनुमानाद् बुद्धौ सन्निधापयति, अभिधानवत्, यथाऽग्निहोत्रमित्यभिधा[50]नं कौण्डपायिनामयने श्रूयमाणं तैयमिकाग्निहोत्रधर्मान् बुद्धावुपस्थापयति । ... ननूहमवरेति । तदुक्तम्--"अनाम्नातेषूहमात्र(म्नातेष्वमन्त्रोत्वमाम्नातेषु हि विभागः” इति [मी०सू०२.१.९.३४] । ऊहः 'अग्नये' इत्यस्य स्थाने 'सूर्याय' इति पदस्य प्रयोगः । अध्वर्युणा प्रवरानुश्रावणे क्रियमाणे ये यजमानसम्बन्धिगोत्रप्रसिद्धाद् उपयोगमभिः स्वैरु(मभिस्वरैः उ)च्चार्यन्ते ते प्रवराः । सुब्रह्मण्य इन्द्र आगच्छेति सुब्रह्मण्यनिगदे अमुकगोत्रो यजत इति । यद् यजमानस्य संकीर्तनं तन्नामधेयं येषूहप्रवरनामधेयेषु । अमन्त्रत्वं शिष्टैमन्त्रत्वेनानभिधानादिति । रथन्तरमुत्तरयोर्गाय Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का पृ०१४७, वि०पृ०५८९] न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः २३५ तीति । यद् योनिभूतायाम् ऋचि कवतीषु रथन्तरं गायतीति वचनात् "कयानश्चित्र आभुवदूती" [सा०सं०उ०१.१.१२] 'इत्यस्यामुत्पन्नम्, तदुत्तरयोः धातोरुत्तराख्यग्रन्थविशेषविपठितयोः, गायतीति प्राकृतं रूपं येन विशिष्टस्तोत्रसाधनता रथन्तरस्य प्रकृतौ जाता ऊह्यते । प्रोक्षिताभ्यामुलूखलेति । प्रोक्षणाख्यो यः संस्कारः तुषकणविप्रमोकाख्यसंस्कारजनकयोरुलूस्खलमुशलयोः कृतः, स नखेषु तत्संस्कारजनकत्वादूह्यते । धर्मस्यार्थकृतत्वाद द्रव्य-गुणविकारेति तत्र द्रव्योदाहरणं प्रतिपादितम् । बार्हस्पत्यं चरुं नैवारं सप्तदशशरावं निर्वपेदिति नीवारव्यक्तिरूपद्रव्याश्रयणेन तत्प्रवृत्तेः । गुणोदाहरणं तु संस्थिते घडहे मध्वनातीति, षडहेनोपासीतेति द्वादशाहे चोदना स्वतन्त्रा वा । तत उक्तम्-संस्थिते षडहे मध्वनातीति । यदि दैवात् षडहः संतिष्ठते न क्रियतेऽशनम् । मध्वशनं कर्तव्यमिति षडहकायें मध्वशनं विधीयते । गुणत्वं तु मध्वशनस्य प्रदेशान्तरे षडहाङ्गत्वेन विधा ना]त् । यदा षडहेनोपासनं क्रियते तदा तदङ्गत्वेन मध्वशनमपि कचित् प्रतिपादितमिति । तद् दृष्ट्वा गुणशब्देन मध्वशनस्य प्रतिपादनम् । विकारोदाहरणम्-नखनिर्भिन्नश्चर्भवतीत्यत्र नखा विकारशब्देनामिधीयन्ते, तुषकणविप्रमोकलक्षणे वाधिकारे नखाः श्रुताः । व्यतिक्रमः पुनरप्रागागम्यसमर्थस्य यूपस्य परित्यागोऽन्यस्यासमर्थस्याश्रयणं यथा परिधौ पशु नियुञ्जीतेति । न हि परिधिरल्पपरिमाणस्य पशोरप्यागम्ये समर्थः इति[51] । प्रतिषेधस्तु न गिरा गिरेति ब्रूयादैरं कृत्वोद्गायेदिति ज्योतिष्टोमे यज्ञ-याज्ञीयं सामप्रकृत्यस्तुतं, न गिरा गिरेति कुर्यादिति । तत्र साम्नि यद्रेिति पदमस्ति तन्न ब्रूयात् किं तर्हि कुर्यादित्याह-ऐरं कृत्वोद्गायेदिति इराशब्दस्य विकारमिरा इरेत्यादिकं कृत्वा गायेदित्यर्थः । तदेतेषु नीवारमधुभक्षणनखपरिधीरापदेषु द्रव्य-गुण-विकार-व्यतिक्रम-प्रतिषेधरूपेषु व्रीहि-षडहोलखलमुशल-यूप-गिरापदधर्माः कर्त्तव्याः । नेति तत्र पूर्वपक्षवादी-ये ब्रीहौ विहितास्ते कथमविहितत्वाद् नीवारेषु क्रियेरन् , ये च षडहधर्मास्ते कथं मध्वशने, ये चोलखलमुशलयोः श्रुताः प्रोक्षणादयस्ते कथं नखेषु, यूपोपदिष्टाश्च कथं परिधौ, गिरापदे च ये श्रुता गीत्यादयस्ते कथम् इरापदे श्रुत्यभावादनुष्ठीयेरन्नित्याह ततः सिद्धान्तसूत्रमिदं धर्मस्यार्थकृतत्वादिति । एतेषु नीवारादिषु चोदनानुबन्धः । ब्रीह्यादिसम्बन्धेन या धर्माणां चोदना तयाऽनुबन्धः सम्बन्धः, तत्सम्बन्धेन नीवारादिसम्बन्धेन व्रीह्यादिगतत्वचोदितधर्मसम्बन्धः स्यात् । १ द्र० मीमांसाकोश पृ० १२३१ । २ मी० सू० ९.२.१२.४० । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का०पृ०१४८, वि० पृ०५८९ कुतः ? समवायात् । यतोऽसौ धर्मः प्रोक्षणादि व्रीहीन् प्रोक्षतीति व्रीह्यादिसम्ब न्धेन श्रुतः, तत्र तत्र समवैति सम्भाव्यते कारणान्तरादतः कारणान्तरसम्भाव्यमानात् तत्समवायात् कर्तव्या एव ते धर्मा इत्यर्थः । किन्तु कारणान्तरमित्याह-धर्मस्यार्थकृतत्वादिति । प्रकृतौ तावद् धर्माणामर्थ कृतत्वमपूर्वप्रयुक्तत्वं प्रतिपादितम् योऽसावपूर्वसाधनभूतोंऽशो व्रीह्यादेः, तमुद्दिश्य धर्मप्रयोगः, प्रयोजनत्वात् । न स्वरूपोद्देशेनानर्थत्वप्रसङ्गादिति । तस्य चांशस्य नीवारादीषु भावात् तेषु तद्धर्मप्राप्तिरिति तत्र ताह्वर्थम् (नानर्थत्वम्) । तदेवमुदाहरणपञ्चकेनोहपञ्चकमत्र सूत्रे दर्शितम् । भट्टेन तु दृष्टमुख्यार्थता स्वार्थसमवेतार्थतादिभिः प्रयुक्ताः प्रकृतौ मन्त्रागताः कार्यातिदेशतः विकारेष्वनिषिद्धहकार्यापन्नेषु पञ्चधेति पञ्चविधत्वं यत् प्रतिपादितं तद् मन्त्रोहस्यैवेत्यलम् । तदभावेऽपि मन्त्र संस्कारसमानयोगक्षेमत्वमिति उत्तराधरं रथन्तरं योनाविव विशिष्टस्तोत्र सम्पादकत्वेनोपकारि रथन्तरत्वात् प्रकृतरथन्त [52] रवदिति । मन्त्रसंस्कारसमानयोगक्षेमत्वम्, यथा मन्त्रसंस्कारयोरनुमानं प्रदर्शितं तथाऽत्रापीत्यर्थः । न च वितर्कासहायः शब्दस्तात्त्विकमर्थं प्रतिपादयत्यतो वितर्क मात्रस्य शब्द एवान्तरभावो वितर्कविशेषेऽस्तूोऽनुमानमेवेत्याह- न्यायविशेषात्मकस्त्विति । नास्ति मीमांसकदृष्ट्या पृथगूहः कश्चिदिति । अथ 'सूर्यायेति पदप्रक्षेप ऊह: ' स कथमनुमानं स्यादिति । तत्राप्याह- - अग्नय इत्यस्य स्थाने इति । ॥ निर्णयलक्षणे | मुख्यमभिधाय तदितरो लक्ष्यत इति । पक्ष - प्रतिपक्षाभ्यां पक्षप्रतिपक्षविषयाभ्यां साधनदूषणाभ्यां पक्षप्रतिक्षयोः साधनोपलम्भाविति । विषयनिर्देशा [] पदमति । अर्थ : पक्ष इति । I अत एव हि मन्यन्त इति । यत एव बुभुत्सा निवर्ततेऽत एव बुभुत्सापूर्वकत्वात् संशयस्य, तदभावे तत्पूर्वकन्यायप्रवृत्त्यभावः । अविमृश्यापि भावादिति । इन्द्रयादिजन्मन इति शेषः । न निर्णय एव त[र्क]स्यापि कचिदनिवृत्तेरिति । प्रतिबन्धसामग्रीवैकल्याभ्यामिति शेषः । वस्तुयोग्यतावशेन सन्दिग्धविषयमेवानुमानमिति । सन्दिग्धं हि वस्तु परीक्ष्यते तत्त्वज्ञानार्थं न निश्चितमिति वस्तुयोग्यता । संशयपूर्वकत्वमुपदेशातिदेशाभ्यामिति । उपदेशेन यथा संशयादीनां “समानानेकधर्माध्यवसायादन्यतरधर्माध्यवसायाच्च न संशयः” [ न्यायसू० २ १. १.] इत्यादिना; प्रयोजनादीनां तु "यत्र संशयस्तत्रैवमुत्तरोत्तरप्रसङ्गः " [ न्यायसू० २. Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का पृ०१५५, वि०पृ०५९८ ] न्यायमञ्जरोग्रन्थिभङ्गः २३७ १. ७] इत्यतिदेशेन । वादेऽपि विमर्शरहितो भवति निर्णय इति । न हि तत्र सन्देहविषयः परस्मै निश्चितत्वेन प्रतिपद्यते, वीतरागकथात्वात् तस्य । ॥ वादलक्षणे ॥ कतिपयनिग्रहस्थानेति । पञ्चावयवोत्पन्नं न न्यूनावयवमधिकावयवं वेति व्यवच्छेदो लभ्यत एव । विरुद्ध एव हेत्वाभासो वादे चोद्यते नानैकान्तिकादिरिति कथमेतद् युज्यत इति । प्रापक्षे हि विरुद्ध एव हेत्वाभासो विशेषेणोपदिष्ट इतीतरानैकान्तिकादिहेत्वाभासप्रतिषेधोऽर्थादायात इति स्थितम्, तदनेन निराकरोति । नतु यद्यष्टौ निग्रहस्थानानि पञ्च हेत्वाभासा हीनाधिकापसिद्धान्तैः सह तदा भाष्यविरोधः । भाष्यकारेण हि सिद्धान्ताविरुद्धपदव्याख्यानावसरे[१.२.१] “सिद्धान्तमभ्युपेत्य तद्विरोधी[53] विरुद्धः" इति विरुद्ध एव हेत्वाभासो विशेषेण संगृहीत इति । नैक्स् । 'सिद्धान्तमभ्युपेत्यानियमात् कथाप्रसङ्गोऽपसिद्धान्तः' इति भाष्यकारेण पठितम् , सूत्रप्रतीकसाम्यात् लेखकदोषेणासौ पाठो नास्त्यत्रेति अष्टनिग्रहस्थानवाद्यभिप्रायः । ॥ वितण्डायाम् ॥ 'तहि साधनाद् विना पक्षोऽपिसोऽस्य नास्तीति । साध्यो हि पक्षो' भवति न साधनशून्य इति । औपचारिको वा परमतनिराकरणरूप इति । परमतनिराकरणं परमतप्रतिषेधवाक्यम्, तस्य च यद्यपि स्वतः साध्यत्वाभावात् पक्षत्वं नास्ति तथापि पक्षसिद्धिहेतुत्वेनोपचरितं पक्षत्वम्, पक्ष एव च प्रतिपक्षः । तदेवं पक्षोऽस्यास्तीति वदत् । सप्रतिपक्षस्थापनाहीन इत्यनेन प्रतिपक्षस्य स्थापना प्रतिपक्षस्थापना, तया हीनम् । न प्रतिपक्षेण स्वपक्षेणापीति प्रतिपादितं भवतीति मन्यते, अन्यथा हि स्थापनापदं निरर्थकं स्यादिति । . हेत्वाभासलक्षणे।। यथा नेक्षेतोद्यन्तमादित्यमिति । अत्र हि ऐ(ई)क्षयासम्बद्रेन, ततोक्ष(तत ईक्ष)णादन्यो धात्वर्थः प्रतिपद्यते सङ्कल्पाख्यः, नेक्षेतानीक्षणसङ्कल्पं कुर्यादि त्यर्थः । प्रकरणसामर्थ्यानुरोधादिति । तत्र हि तस्य व्रतानीत्युपक्रमः] नेक्ष [क्षे]तोद्यन्तमादित्यमित्यादीनां प्रजापतिव्रतानां प्रतिपादनात् । व्रतशब्दश्च विशिष्ट एव सङ्कल्पे रूढ इति तद्वशानन्तः(शात् ततः) प्रकृतिप्रतिपादितेऽर्थे वृत्तिः । ननु षट्प्रकाराः परैरनैकान्तिका इष्यन्त इति । सपक्षकदेशवृत्तिः, यथा अगौरयं विषाणित्वादिति; विपक्षव्यापी चायम्, सर्वेषु गोषु विषाणित्वस्य सद्भावादिति । विपक्षकदेशवृत्तिः सपक्षव्यापी यथा गौरयं विषाणित्वादिति, सर्वेषु गोषु सपक्षेषु विषाणित्वस्य भावादगोषु च विपक्षेषु केषुचिन्महिषादिषु भावादश्वादिषु चाभावात् । उभयपक्षैकदेशवृतिर्यथा नित्यः शब्दः स्पर्शत्वादिति, नित्येष्का Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः [ का०पृ०१५७, वि०पृ० ६०० काशादिषु सपक्षेषु स्पर्शत्वस्य अभावात् परमावो ( माण्वा) दिषु च भावात् सपक्षैकदेशवृत्तिता, विपक्षेषु चानित्येषु बुद्धयादिषु (ष्व?) भावात् घटादिष्व (पु) भावाद विपक्षैकदेशवृत्तित्वम् । उभयपक्षव्यापी यथा नित्यः [54] शब्दः प्रमेयत्वादिति । २३८ विरुद्धश्चतुष्प्रकार इति । धर्मस्वरूपविपरोतसाधनः, यथा नित्यः शब्दः कृतकत्वादिति । धर्मिस्वरूप विपरीतसाधनः, यथा समवायो धर्मी द्रव्यादिभ्यो व्यतिरिच्यत इति साध्यम्, इहप्रत्ययहेतुत्वात् संयोगवदिति; इहप्रत्ययहेतुत्वं संयोगत्वेन सह व्याप्तमुपलब्धं दृष्टान्तः इति समवायस्यासमवायरूपतां साधयति । धर्मविशेषविपरीतसाधनः, यथा परार्थाश्चक्षुरादयः सङ्घातत्वाद् शयनासनादिवदिति सङ्घातत्वस्य संहतपरार्थत्वेन शयनादिषु व्याप्तस्योपलम्भाच्चक्षुरादिष्वपि संहतपरार्थत्वं साधयन्नसंहतपरार्थतारूपधर्मविपर्ययसाधनः । धर्मिविशेषविपरीत साधनः, यथा न द्रव्यं न गुणः कर्म वा भावः सत्प्रत्ययहेतुत्वात् सामान्यविशेषवदिति, अयं हेतुर्यथा सत्ताया द्रव्यादिवैलक्षण्यं साधयति तथा सत्प्रत्ययकर्तृत्वं विशेषमपि बाधते, गोवादिषु सामान्यविशेषेषु तस्यासम्भवादिति । सोऽयं विकारो व्यक्तेरपैतीति । तथा च भाष्यम् – “सोऽयं विकारो व्यक्तेरपैति नित्यत्वप्रतिषेधात् न नित्यो विकार उपपद्यते । अपेतोऽपि विकारोऽस्ति विनाशप्रतिषेधात् । सोऽयं नित्यत्वप्रतिषेधादिति हेतुर्व्यक्तेरपेतोऽपि विकारोSस्तीत्यनेन स्वसिद्धान्तेन विरुध्यते । कथम् ? व्यक्तिरात्मलाभः । अपायः प्रच्युतिः । यद्यात्मलाभात् प्रच्युतो विकारोऽस्ति नित्यत्वप्रतिषेधो नोपपद्यते । यत् खलु व्यक्तेरपेतस्यापि विकारस्यास्तित्वं तत् खलु नित्यत्वमिति । नित्यत्वप्रतिषेधो नाम विकारस्या - त्मलाभात् प्रच्युतेरुपपत्ति: । यदात्मलाभात् प्रच्यवते तदनित्यम्, यदस्ति न तदात्मलाभात् प्रच्यवते । अस्तित्वं चात्मलाभात् प्रच्युतिरिति च विरुद्धावेतौ धर्मों सह न सम्भवत इति । सोऽयं हेतुर्यं सिद्धान्तमाश्रित्य प्रवर्तते तमेव व्याहन्तीति [ न्यायभाष्य, १.२.६] । परिदृश्यमानोऽयं महाभूतादिविकारो व्यक्तेरपैत्यभिव्यक्ताद् रूपात् प्रच्यवते, प्रतिषिद्धनित्यधर्मकत्वादिति साङ्ख्यप्रयोगः । 77 विशेषबाधादिनिबन्धनमिति । यथा [55] प्रतिपादितं धर्मविशेषबाधादि । विशेषानुपलब्धेरप्रत्याख्येयत्वादिति । अयमाशयः । उभयधर्मानुपलब्ध्या तावदुभयोः संशयोऽस्ति, यस्य चोभयधर्मानुपलब्धिः संशयहेतुत्वेनाभिप्रेता स कथमन्यतरधर्मानुपलब्धिः प्रत्याचक्षीत, यो ह्युभयधर्मानुपलब्धिमभ्युपगच्छत्यभ्युपगच्छत्येवासौ अन्यतरधर्मानुपलब्धिमपि तया विनोभयधर्मानुपलब्धेरभावादिति । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०१६२, वि०पृ०६०६] न्यायमञ्जरीप्रन्थिमनः ___ इतरतद्विपरीतविनिर्मक्तत्वादिति सत्त्वस्य साध्यत्वादितरतद्विपरीतमसत्त्वम्, तेन विनिर्मुक्तत्वादिति । अन्यत्रापि असन् सर्वज्ञ इत्यत्राप्यसत्त्वं साध्यं तदितरतद्विपरीतं सत्त्वमेवं केचिद् व्याचक्षते । तच्चायुक्तम्, एवं हि सत्त्वात् सन्नित्युक्तं स्यादितरशब्दवैयर्थ्य च । तस्मादेवं व्याचक्षते--सर्वज्ञः सन् , कुतः ?, इतरतद्विपरीतविनिर्मुक्तत्वात् । इतरो द्वितीयो यः सर्वज्ञ एव तद्विपरीतः सन् सर्वज्ञविपरीतः असन्, तेन विनिर्मुक्तत्वात् तदभावोपलक्षितत्वादित्यर्थः । यदि हि इतरो द्वितीयः कश्चिद् विपरीतोऽसन्नपि सर्वज्ञशब्दवाच्यः सर्वज्ञतया सिद्धः स्यात् तदा म(अ)सतोऽपि सर्वज्ञतया समुपलम्भात् प्रकृतेऽपि सर्वज्ञतया असत्त्वमासंध्येज(सञ्ज्येत)। नन्वस्ति इतरोऽसन् सर्वज्ञः कश्चित्, अतः सन्नेव सर्वज्ञ इति, यथा इतरेणासता घटशब्दवाच्येन घटेन विनिर्मुक्तो घटः सन्नेव नासन्; यः पुनरसन्नेव सोऽपि इतरेणासता विनिर्मुक्तो, यथा काचिच्छशविषाणव्यक्तिः शशविषाणव्यक्त्यन्तरस्यासत्त्वभूतस्योपलम्भान्न सती । एवं द्वितीयप्रयोगे असन् सर्वज्ञः, द्वितीयस्य सत्त्वेन सिद्धस्य सर्वज्ञस्य उपलम्भाद् यदि सन्नपि सर्वज्ञतया सिद्धः स्यात् तत्प्रकृतेऽपि सत्त्वमाशङ्क्येत, नत्वसावस्ति; यथेतरस्य शशविषाणस्य सिद्धि]स्याभावादसन्नेव शशविषाण इति । अत्राप्याक्षेपः प्रतिसाधनं चेति । अत्रापीतरशब्दश्च(स्य !) प्रकृतपरामर्शकत्वात् तेन किं सर्वज्ञस्य परामर्श उत घटस्येत्यन्यतरशब्दवदाक्षेपप्रतिसमाधाने । सत्त्वे च सा[56]ध्ये 'नासिद्धे भावधर्मोऽस्ति' [प्र०वा० ३.१९०]इत्यादि परिचिन्तनीयम् । किमस्ति न वेति तत्राक्षेपे वाद्यस्तीत्याह, प्रतिसमाधानवादी तु बुद्ध्यारूढस्य बाह्यानुपादानत्वसाधनाद् बौद्धेन च रूपेण सत्त्वानास्ति धर्मीत्याह धर्म्यसिद्धतेति । __हेतुस्वरूपे तावदन्यतरस्य वाचिनो द्वयोर्वा अज्ञानं सन्देहो विपर्यय इति । अज्ञानमसिद्धत्वं यथा अनित्यः शब्दः कृतकत्वादिति, कृतकत्वे मीमांसकस्यासिद्धता । अनित्यः शब्दः चाक्षुषत्वादित्युभयासिद्धः । किमयं बाष्पो धूमो वेति हेतुत्वेनोपादीयमानो द्वयोरेकस्य वा संदिग्धः । वह्निर्न दाहकः शैत्यात्, अनित्यः शब्दोऽश्रावणत्वादित्युभयोर्विपर्ययः । तथा तदाश्रयेऽपि धर्मिण्येकस्य वेति । आत्मा धर्मी सर्वगत इति साध्यं सर्वत्र दृष्टकार्यत्वादित्यत्र हेत्वाश्रये आत्मनि अज्ञानं बौद्धस्य, लौकिकानां तु संशयः । अस्मिन्नेव बौद्धेन चार्वाकं प्रत्युक्त उभयोरज्ञानम् । तदेकदेशे कचिद् वृत्तिः यथा नित्याः परमाणवो गन्धवत्त्वादिति । गन्धवत्त्वस्य पार्थिवेषु परमाणुषु वृत्तिस्तदितरत्राऽऽप्यादिष्ववृत्तिः । एकदेशवृत्तावपि द्वयोरेकतर Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० भट्टश्रीचक्रधरप्रणीत की पृ०१६२, वि०पृ०६०७ स्यै वेति । यथात्रैव योगाचारस्याज्ञानं तस्य परमाणूनामसिद्धत्वादिति, तस्य माध्यमिक प्रत्येवं ब्रुवत उभयोरज्ञानम् लौकिकानां तु संदेहः, कस्यचिद् विपर्यय इति । पदासिद्धाद्यपेक्षया वा अज्ञान-संदेह-विपर्यया व्याख्येयाः, यदाह भट्टः अलक्षणमसिद्धं च पदाभासं स्वगोचरम् । सिद्धपोषधविज्ञप्तिपश्यनादि प्रकल्पयेत् ॥ हेतौ विवक्षिते तत्र पदासिद्धोऽभिधीयते । अन्यस्य वाचको यत्र शब्दोऽन्यत्र प्रयुज्यते ॥ तत्रासिद्धाभिधा हेतुर्विज्ञाने कायशब्दवत् । प्रामाण्यं बुद्धवाक्यादेः सर्वज्ञोक्ततया यदा ॥ साध्यते तत्र हेत्वर्थस्वरूपासिद्धता मता । [बृहट्टीका ?] इत्यादि ॥ यत्र सङ्कोचप्रमितसिद्धयोगत्वाच्चेतनास्तरवो जङ्गमशरीरवत्, चतुर्दश्यां हलेष्वयोजनं वृषाणां धर्मः पोषधत्वाद् यवसादिदानवदित्यादौ सिद्ध-पोषध-विज्ञप्ति]-पश्यमादिपदानां साधनप्रतिपादकत्वेन प्रयुक्तानां पदासिद्धताव्यपदेशः । तत्र बौद्धसिद्धान्तसमाश्रयणेन प्रयुञ्जानस्य वादिन एव स्वाज्ञान-संदेह-विपर्ययाः, प्रतिवादिनस्तु बौद्धस्याज्ञानमेव, बौद्धेन वा प्रयुक्तेषु प्रतिवादिनोऽज्ञानादय इति । एवंप्रकारभेदोपवर्णनमल्पप्रयोजनमिति । तथा च प्रकारभेदानाह भट्टः-. पदासिद्धादयस्त्रेधा भिद्यते वाद्यपेक्षया । कश्चिद्धि वादिनोऽसिद्धः कश्चिद्धि प्रतिवादिनः ॥ उभयोरपि कश्चित्त सोऽपि भिन्नः पुनस्त्रिधा । प्रत्येकाज्ञानसंदेहविपर्यासनिरूपणात् ।। वादिना कश्चिदज्ञातस्तथाऽन्यः प्रतिवादिना । उभाभ्यामप[र]स्तद्वत् तत्संदेहविपर्ययौ । संदिग्धो वादिनो वा स्यादज्ञातः प्रतिवादिनः । तथैकस्य पदासिद्धस्तदाऽज्ञानादिभिस्त्रिभिः ॥ [ बृहट्टीका ? ] इत्यादि वितायमानं ग्रन्थगौरवमावहतीति अलम् । सिध्यन्त एव च सावयवकार्यानुमानमार्गेणेति । तत्र यावत् कार्यजातस्य प्रत्यक्षेण ग्रहणम्, तत्र तदेव प्रमाणम्, तत ऊर्ध्वमनुमानम्; तदपि हि 'कार्य स्वावयवाश्रितम्, सावयवत्वात् परिदृश्यमानकार्यवत्' इत्यादिना अष्टमाह्निकेऽनुमानं प्रतिपादितम् । तत्तु कचित् केवलमेव दृश्यत इति । यत्र केवलं दृश्यते तत्रासिद्ध एवान्तर्भाव इति भावः । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०१७३, वि०पृ०६१८] न्यायमञ्जरीप्रन्थिमनः २४१ सामान्यं तु विशेषरूपरहितमिति । यथा प्रमाणेषु न प्रत्यक्षादि[57] विशेषशून्यमन्यत् प्रमाण पञ्चममस्ति तथात्रापि विरुद्धादिविशेषरूपशून्यं कथमन्यथासिद्धं सामान्यभूतं पृथण हेत्वाभासो भवेदिति एवंविधस्य चोधस्य बस्तुस्थितिर्न विषयः, वस्तुस्वभावोऽयं यद विशेषरहितमपि सामान्यं दृश्यत इत्यर्थः । अपसा पधि गच्छन्तीमिति । यस्त्वमय[सा] औषधी लुनासि स त्वं मम प्रियां दृष्टवानिति सम्बन्धः । किंभूताम् ? पथि गच्छन्तीं दीर्घलोचनां च ।। __ अवगतिनियमितानन्यसल्कीर्णरूप इति । अनन्यसङ्कीर्णमेषां परस्परं रूपमित्यत्र किं प्रमाणमिति चेत् तदाह-अवगतिनियमितेति । रूपमेषामुपलभ्यमानं यतः परस्परासङ्कीर्णमवगम्यते तथा सिद्धमेव तेषां रूपमसङ्कीर्णमित्यर्थः । पक्षादौ वृत्ति.... पक्षकदेशवृत्तिरयं तु पक्ष........इत्यादिना वृत्तिभेदेन । छलस्तु एव............अन्यथासिद्धात्माविशेषनिष्ठम् । ब्राह्मणान् भोजयेत्यादौ तबालेन शिक्षितमिति ।............. केनेशी सर्वजनानुकूलेति........ सहचरणादिसूत्रनिवेदितेति । 'सहचरण-स्थान-तादर्थ्य-वृत्त-मान-धारणसामीप्य-योग-साधनाधिपत्येभ्यो ब्राह्मण-मञ्च-कट-राज-सक्तु-चन्दन-गङ्गा-शाकटा-ऽन्नपुरुषेष्वतद्भावेऽपि तदुपचारः ॥' [न्यायसूत्र, २.२.६१] इति ॥ सर्वत्रि] यष्टिसाहचर्याद् यष्टिः ब्राह्मणः । [मञ्चाः क्रोशन्तीति मञ्चस्थाः पुरुषाः । कटा वीरणाः कटशब्देनोच्यन्ते । वृत्ताद् य[मो] राजा इति । आढकमिताः सक्तव आढकशब्दवाच्याः । तुलया धृतं चन्दनं तुलाचन्दनम् । गङ्गायाः समीपे गङ्गायाम् । कृष्णेन गुणेन युक्तः शाटकः कृष्ण इति । साधनात्—अन्नं प्राणा इति । कुलाधिपत्याद अयं पुरुषः कुलमित्युच्यते ।। स तु सामानाधिकरण्येन वाहीकेऽपि प्रवर्तत इति । वाहीकं विशिष्टगुणसम्बन्धेनान्यस्मात् पुरुषादवच्छेत्तुमिति । गौणे हि प्रयोगो न लक्षणायामिति प्रभाकरलघुटीका । यस्य वाहीकस्य जाड्यादिगुणं प्रतिपादयति गो[शब्दः तस्य सामानाधिकरण्येन] तस्य प्रयोगः गौणे, न पुनर्लक्षणायां गङ्गाशब्दोऽन्यत्र सामानाधिकरण्येन प्रयुज्यत इत्यर्थः । भट्टश्रीशङ्करात्मजचक्रधरकृते न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गे एकादशमाह्निकम् । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ द्वादशमाह्निकम् ॥ अ[थ] जातिलक्षणे । त्रैकाल्यसमादिष्वपि यादृशस्य तादृशस्य साधर्म्यवैधर्म्यप्रकारस्य योजयितुं शक्यत्वादिति । अहेतुः कालत्रयेऽप्यसाधकः, एवमस्य कालत्रयेऽप्यसाधकत्वादहेतुसाधर्म्यमिति भाष्यकृता प्रथमं साधनाभास एव जात्युत्तरोदाहरणं दर्शितमिति । "तेन हि क्रियावान् आत्मा द्रव्यस्य क्रियाहेतुगुणयोगात् । द्रव्यं लोष्टः क्रियाहेतुगुणयुक्तः क्रियावान् , तथा चाल्मा ।" न्यायभा०, ५.१.२] इति जात्युदाहरणरूपं स्थापनावाद्य(धु)दाहरणमुक्तम् । - चलनादिकर्मयोगेन गौस्तथात्वेन तत्साधात सिध्यतीति । गौरयं चलत्वाद् बाहुलेयवदित्यादि । तेनाविपरीततया शब्दोऽतिदिश्यत इति । तेन दृष्टान्तेनाविपरीततया तुल्यतया यथा घटस्तथा शब्द इत्यतिदिश्यते । यश्चोत्पत्तिधर्मकस्तस्योत्पत्तेरिति । अस्य व्याख्यानम्-पूर्वमुत्पत्त्या भवितव्यमिति । प्रागुत्पत्तेरलब्धात्मनः किमुद्दिश्यते किमुच्यते । नास्त्यत्र विमतिरित्यर्थः । उभयसाधात् प्रक्रियासिद्धेरिति । उभयेन नित्येनानित्येन च साधर्म्यात् प्रतिपक्षपक्षयोः प्रवृत्तिः प्रक्रिया । प्रकरणमनतिवर्तमान इति । निर्णयोत्पत्तौ प्रकरणनिवृत्तिर्भवति, प्रतिपक्षहेतौ च सति कुतो निर्णय इति । मूलहेतावपि साधर्म्यणेति । यदा स्थापनावाचेष साधर्म्य 58]मात्रे नित्यः शब्दोऽस्पर्शत्वादाकाशवदिति मूलहेतुत्वेन प्रयुङ्क्ते तदापि अनित्यः शब्दः प्रयत्नान्तरीयकत्वादित्यादि प्रयोक्तव्यमित्यर्थः । तदिह प्रकरणमुत्थापयता भवतेति । प्रकरणं प्रतिपक्षः । निर्णयोत्पत्तिनिमित्त प्रकरणोपरमायेति । एवं हि प्रतिषेधः सिद्धयति यद्येकतरपक्षनिर्णये व्यवस्थितं प्रकरणं भवति, न च निर्णयनिमित्तं किञ्चिदुक्तम्; उभयसाधाभिधानाद्धि संशयो भवति न निर्णय इत्यर्थः ।। अर्थादापद्यते आकाशसाधान्नित्य इति । ननु साधर्म्यसमाभ्यो(मातो) ऽस्याः को भेद इत्याह-उद्भावनप्रकारभेदाच्चेति । अस्ति हि प्रतिषेधवाक्यस्य प्रतिषेधे(ध्ये ?)न साधर्म्यमिति । प्रतिज्ञाद्यवयववाक्यं पक्षनिवर्तकं प्रतिपक्षलक्षणं प्रतिषेधः, तस्य पक्षण प्रतिषेध्येन साधर्म्य प्रतिज्ञादियोगः । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ० १९४, वि०पृ०६४२ ] अविशेषसमायां च यः समाधिरुक्तः कचिद्धर्मानुपपत्तेरित्यादि । अनित्यत्वोपपत्तेश्च तत्प्रतिषेधो नोपपद्यत इति । नानित्यः शब्द इत्येवंरूपः प्रतिषेधः । अनित्यत्वादभाव इति तु व्यवहारमात्रमिति । असत्यपि भेदे राहो : शिर इतिवदिति भावः । घटाभाव इति नास्माद् व्यपदेशादाश्रयाश्रयिभावः सिद्धयति, प्राग्वद् व्यवहारमात्रत्वादस्येति तात्पर्यम् । न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गः आम्रसेकपितृतर्पणन्यायेनेति । जातयोऽप्यवश्यं व्युत्पाद्याः व्युत्पादिताः, परोक्तदूषणाभासानि च सिद्धान्तसारभूते शब्दानित्यत्वसाधन उद्धर्तव्यान्युद्धृतानीति । २४३ विविधः प्रतिषेधो विप्रतिषेध इति । अनित्यः शब्दः प्रयत्नान्तरीयकत्वादिति स्थापनावाद्युक्तः प्रथमः पक्षः, प्रयत्नकार्यानेकत्वादिति प्रतिषेधवायुक्तो द्वितीयः पक्षः, स च प्रतिषेधाख्यस्तस्यास्य प्रतिषेधस्य प्रतिषेधेऽपि समानो दोष इत्ययं तृतीयः पक्षः विप्रतिषेध इत्युच्यते, 'वि' शब्दश्चात्राविवक्षितार्थः । तत्प्रामाण्ये वा न सर्वप्रमाणविप्रतिषेधः इतिवत् । सोऽपि पूर्ववदनैकान्तिक एव । प्रतिषेधस्य साधत्वं निषेधति न स्वरूपमित्यादिना । स्वपक्षतल्लक्षणापेक्षोपपत्त्युपसंहार इति । स्वपक्षलक्षणेऽपेक्षोपपत्तिर्यस्य । प्रतिvastu समानो दोष इति । अस्यानैकान्तिकत्वदोषस्य स्वपक्षेणापेक्षोपपत्तिस्तस्योपसंहारस्तथात्वेनोद्भावंन( वनं ?) । तस्य च हेतुनिर्देशः, इत्थमनैकान्तिकः प्रतिषेध इति । इत्थमिति कोऽर्थः ? साधकत्वं प्रतिषेधति न स्वरूपमिति । षष्ठेऽपि तथैवेत्यतः परं समानं तृतीयपञ्चमयोरिति सूत्रम् । ॥ निग्रहस्थानेषु ॥ अत एव कर्मकरणयोर्न निग्रहमादिशन्तीत्यनेन वार्तिककारं निर्दिशति । स हि परपक्षोऽपि दूष्यत इति पराभ्युपगमं निराकर्तुमाह " एतत् तु न सम्यक् कर्मणस्तादवस्थ्यात् । न हि दूषणाभिधानेन कर्मणोऽन्यथात्वं भवति यथाभूत एवासौ दूष्यमाणस्तथाभूत एवादूष्यमाण इति न करणस्य विषयान्तरेऽसामर्थ्यात्, साधनमपि प्रतिज्ञादिकं न दूष्यते विषयान्तरेऽसामर्थ्यात् । न हि किञ्चित् साधनं यद् विषयान्तरे समर्थ स्यात् सर्वं साधनं सविशेषणं विषये समर्थमिति । तस्मादसमर्थयोः कर्म-करणयोरुपादानेन कर्तुर्निग्रहः" इत्यादि [ न्यायवा ५.२.१] | तत्त्ववादिनमतत्त्ववादिनं चाभिप्लवन्ते व्याप्नुवन्त्याक्रामन्ति । साध्यते चेत् तर्हि प्रतिज्ञान्तर [ मे ? ] वेति । कथं ज्ञायत इत्याह -- हेत्वाद्यaraवैलक्षण्यादिति । १ मुद्रितमञ्जर्या तु 'अविशेषसमायां जातौ यत् साधनमुक्तम्' इति पाठः । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० भश्रीचक्रधरप्रणोतः [का पृ० १९४, पिपृ० १४३ इह तूपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धिर्न सम्भवतीति । अयं भावःमानुपलब्धिमात्रादसत्त्वं सिद्धयति, अपि तूपलब्धिलक्षणप्राप्तेऽनुपलब्धेः । न चात्र रूपादिपृथग्भूतस्यो[59]पलब्धिलक्षणप्राप्तत्वमस्तीति हेतोरभावः, निर्विशेषणाया अनुपलधेरभावप्साधने सामर्थ्याभावाद् हेतोरभाव इत्यर्थः । वैधर्म्यदृष्टान्तस्यानेन प्रकारेण कुशिक्षितैरभिधानादिति । अयं भावः- नित्यः शब्दः सर्वस्य(स्या-) नित्यत्वादिति । यदि शब्दस्य नित्यत्वे साध्ये सर्वस्यानित्यत्वं हेतुरुच्येत स्यात् प्रतिज्ञा-हेतुविरोधः । सर्वश्चेदनित्यः कथं शब्दो नित्यः ? तस्यापि सर्वमध्येऽन्तर्भावादिति । यावता तु नित्यः शब्दोऽमूर्तत्वादिति हेतुस्तस्याभिमतं सर्वस्यानित्यत्वादिति वैधHदृष्टान्तः सर्वशब्दं सावयवपर्यायमाश्रित्य, यत् पुनः सावयवं तदनित्यमिति, एवं च प्रतिज्ञा-हेतुविरोधस्य किमायातमिति । अथ यदि वैधHदृष्टान्तो विवक्षितः स्यात् साध्याभावे साधनव्यावृत्तिप्रदर्शनेनानित्यस्य 'सर्वत्वादिति ब्रुयात् । नैवम् । एवं दृष्टान्तानुभणनमस्य, न त्वेतावता हेतुपदत्वमस्य सिद्धयति । स हि दृष्टान्त एवोक्त इत्यस्य पूर्वमर्धम् "हेतुप्रतिज्ञाव्याघाते प्रतिज्ञादोष इत्यसत्" [प्रमाणवा०भा० ४.२८६] इति । सिद्धसाध्यत्वदृष्टान्तहीनतादिदोषान्तरसम्भवेऽपि इति । नित्यः शब्दः कृतकत्वादिति साङ्ख्यं मीमांसकं च प्रति सिद्धसाध्यत्वम् , कृतकस्य नित्यत्वेन व्याप्तस्यान्यत्रानुपलम्भाच्च दृष्टान्तहीनता । यमदृष्ट्वा परैरुक्तमदूषणमिदं किलेति । ‘गुणव्यतिरिक्तं द्रव्यम्' न्यायभा०, ५.२.४] इत्यादि यद् भाष्यकारेण प्रतिज्ञाहेतुविरोधाख्यं दूषणं निग्रहस्थानमुक्तं न तैरदूषणतया समर्थितम् । इदं तु स्पष्टमुदाहरणम् , अस्यादूषणत्वं नैवोद्भावयितुं शक्यत इत्यर्थः । यं च अदृष्ट्वा दिग्नागेन ‘स हि दृष्टान्त एवोक्तो वैधर्येण सुशिक्षितैः' इति वदता नित्यः शब्दः सर्वस्यानित्यत्वादिति प्रतिज्ञाहेतुविरोधाख्यमिदं दूषणणं) न भवतीत्युक्तम् । प्रकृत्यन्तररूपसमन्वयाभावादिति । सुखदुःखमोहात्मिकायाः प्रधानलक्षणायाः प्रकृतेरन्यत् प्रकृत्यन्तरम् । विशेषणमाह समन्वयादिति । एकप्रकृतिसमन्वये सति विकाराणां परिमाणादिति सविशेषणो हेतुः । कीर्तिनाऽप्य[नुमोदितम् । स ह्याह-“कश्चिदाह नास्त्यात्मेति वयं बौद्धा ब्रूमः । के बौद्धाः ?, ये बुद्धस्य भगवतः शासनमभ्युपेताः । को बुद्धो भगवान् ?, १ सर्वत्वात् सावयवत्वात् । २ लो. वा. निरालम्बमबाद १५४ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का०पृ०२०४, वि०पृ०६५५] न्यायमध्जरीमन्धिमा २४५ यस्य शासने भदन्तः अश्वघोषः प्रव्रजितः । कः पुनर्भदन्तः अश्वघोषः ?, यस्य राष्ट्रपालं नाम नाटकम् । कीदृशं च राष्ट्रपालं नाम नाटकम् ! इति प्रसङ्गं कृत्वा मान्यन्ते ततः प्रविशति सूत्रधार इत्यादिकं पठेन्नृत्येच्च ।" [वादन्याय, पृ०६७] प्रकृते विवादास्पदीभूते वस्तुनि को विशेष इति । यथा निरर्थकस्य प्रकृतासाधकत्वं तथाऽस्यापीत्यर्थः । माध्यमकानामाकारशून्यं स्वच्छज्ञानमात्रमेवेति । ज्ञाने स्थूलस्याकारस्य प्रतिभासनात् तस्य वृत्तिविकल्पादिना असत्त्वाज्ज्ञानस्यैव परमार्थसत्त्वं नाकारस्येति । प्रपञ्चकथायां न दोष इति । यत्र प्रपञ्चेन कथा प्रस्तुता तत्राधिक्यमदोषमिति बदता। यत्र तु नियमेनैक एव हेतुः प्रयोक्तव्य इति परिभाष्यकथा, तत्र दोष एवेत्युक्तं भवति । तथा च स आह—'प्रपञ्चकथायां न कश्चिद् दोषो नियमाभावात्' [वादन्याय पृ० ११०] इति । जात्यपेक्षश्च शब्दपौनरुक्तयव्यवहार इति । यज्जातीयः प्रयुक्तस्तज्जातीयस्यैव पुनः प्रयोगेण तस्यैवेति । अनुवादे तु पौनरुक्तधमदोषः। अर्थविशेषोपपत्तेरिति शेषः । तमेव दर्शयितुमाह-हेत्वपदेशादित्यादिना । स्मरत गिरिशं गिरीशो नगरीति । गिरि स्वाश्रयमुपभोगेन स्यति तनूकरोतीति गिरिशः शर्वः, तं स्मर ध्यायत । कीदृशम् ? यस्य गिरीशो नगरी, गिरीणां पर्वतानामीशो हिमवान् नगरी स्थानं यस्य इत्यर्थः । कीदृशस्य [60] सतः ?, सातत्यस्थानमाह-असमस्मरद्वेषस्य असमः अतुल्यः अनन्यसाधारणः स्मरं कामं प्रति द्वेषो यस्य तादृशस्य,....यदीयस्य वेषस्य गरीयस्या गुरुतरया मुदा हर्षेण संस्मृतवानित्यर्थः । अतिप्रसङ्गश्चैवंप्रायाणां निर्देशे भवेदिति । असम्बद्धप्रतिपत्तिरूपत्वादेते अप्रतिपत्तावन्तर्भवन्ति। पृथक् त्वेवंप्रायाणां निर्देशे क्रियमाणे नेयत्तानिर्देशः क्रियेतेत्यव्यवस्था । किमस्य कार्यव्यासङ्गस्य । अहेतोर्हेतुवदाभासनं कीर्तिना दृष्टमिति । ननु धर्मकीर्तिनापि किं निरनुबन्धनमेव कथाविक्षेपस्य हेत्वाभासत्वमुक्तम् ?, अस्ति तस्याभिप्रायः । स हि प्रकृतसाधनासम्बन्धप्रतीते हेत्वाभासतां मन्यते । प्रकृतस्य साध्यस्य साधने यस्य सामर्थ्य नास्ति तस्य सर्वस्य हेत्वाभासतेति हि तत्पक्षः । तथा चाह Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टश्रीचक्रधरप्रणीतः पक्षधर्मस्तदंशेन व्याप्तो हेतुस्त्रिधैव सः । अविनाभावनियमाद् हेत्वाभासास्ततोऽपरे ॥ [ प्रमाणवा०, ३. १] तदा नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत इति । पूर्वधर्मान्तरनिरोधाभ्युपगमे हि सतः अभावोऽभ्युपगतः, अपूर्वधर्मान्तरप्रादुर्भावे चासतो भावोऽभ्युपगत इति । अव्यक्तधर्मान्वये' हि विकाराणां प्रवृत्तिनिवृत्त्यात्मकत्वं न स्यादिति । प्रधानस्य नित्यत्वे तद्धर्मस्य नित्यत्वस्यान्वये विकाराणामपि नित्यत्वादुत्पत्तिनिरोधयोरभावः स्यादित्यर्थः । २४६ [ का०पृ०२०७, वि० पृ०६५७ पूर्वोक्तलक्षणैरेव लक्षिता इति । पूर्वोक्तानि यानि हेत्वाभासानां लक्षणानि तैरेव न निग्रहस्थानत्वेन पृथग् लक्षणान्तरप्रणयनं कार्यम् । प्रमाणस्य प्रमिति - विषयत्वेन प्रमेयत्वम्, प्रमेयस्य प्रमितिकरत्वेन प्रमाणत्वं यथा न स्वरूपेणैव नैवं हेत्वाभासानां निग्रहस्थानत्वम्, हेत्वाभासरूपतयैव तेषां निग्रहस्थानत्वमित्यर्थः । धर्मकीर्तेरपि च न विमतिः इति । स ह्याह -- "हेत्वाभासाश्च यथान्यायाद निग्रहस्थानमिति एतावन्मात्रमिष्टमिति" । [ वादन्याय, पृ० १४२ ] ॥ भट्टश्रीशङ्करात्मजचक्रधरकृते न्यायमञ्जरी ग्रन्थिभङ्गे द्वादशमाह्निकम् १ मुद्रितमञ्जर्या तु 'अव्यक्तान्वये' इति पाठः । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. पत्रखण्डानि यथा किमृषिणा.... बाहुल्येन हि वा.... ति । अहन्यग्नि.... तिः सूर्यः.... र्यस्याभि....काङ्क्ष........'[KIA]यात्म.... त्मकत्व....युणाश्र....नु ज्ञातः । अ.... स्योपदेशः दे....ति कर्तव्यं प्रवरानु.... [110B] [KIB] ...पि मांभवान्... स.... द्योतनादिभिश्च....मातातपपरास....वैद्यकादीनां भ....प्रामाण्यं प्रतिपा........[K2A] ....[K2B] मुख्यानि प्रयोजनानि प्रतिपाथेमानि च....गिकत्वं चैषामन्यपरेभ्यो वाक्येभ्यः प्रती....ह्यन्तेऽस्य यज इमां वाचम....सुरा हेलय.... ....[K3A] लाघवं त्विति । व्रा....[स]हायेन कश्चिदिति । असंदेहाथ वा....आहोस्वित् स्थूलानि पृथन्ति यस्या इतिवन्नवैय....रथान्तोदात्तत्वं ततस्तत्पुरुष इत्यसंदेहस्य प्रये(यो ?).... .... [K3B] र्थत्वात् । नैव ष्यत्र उत्पत्तिः प्रामोति....हु स हि रित्येवंप्राय व्यधिकरणवचन....ततः समाससंज्ञया गुणवचनसंज्ञ....या गुणवचनसंज्ञाया वाचित्व....र्थवतो गुणवचनमित्युक्तं पुनर....[K4A] न्ति । तत्र अर्थवतः प्रातिपादिकस....षु गुणवचननिबन्धनष्यञ भवति....तः पञ्चकपाल इति पञ्चकपाल....त्रावेर्मा समिति विगृह्याविकश....इति विगृह्य वाक्यमेतत्त्र्यैशब्दयं चे....[K4B] स्वत द्वीपगतस्तत्रस्थं केनचिद् देवताविशेषेण ब्रह्मादिनाऽप्यदृष्टचरं विष्णुं ददर्श....त्यादिदर्शयस्तात्पर्यतः पञ्चरात्रप्रामाण्यमेव प्रतिपादयामासेत्यादि बहु भारते तत्प्रामाण्य]....द्भिः शैवादीनां विस्तरतः प्रामाण्यं प्रतिपादितमेव । न च-- वक्तारो धर्मशास्त्राणां मनुर्विष्णु....। व्यासाः कात्यायनबृहस्पती । गौतमः शङ्खलिखितौ हारितोऽत्रि रहं....[प्रामाण्यमङ्गीकरणादत एवाया(पा)स्तं तेन सामान्ये क्रमे धर्मज्ञसमयश्चेति न चा....[K5A]....ततः साध्या वेदादीनां प्रमाणता इति न्यायेन स्वतः प्रामाण्यस्य स्थापितत्वा.... ....नकशङ्का केन वार्यते । अथास्य स्वत एव प्रामाण्यमप्रामाण्ये कथं....णं तदस्य प्रामाण्यं केन वार्येत । अपि च लिङ्गदर्शनप्रयोजकत्वे लिङ्गहेतुत्वा....स्मृतीनां प्रामाण्यं हीयेत । वेदसंयोगसम्भवस्य त्रैवर्णिकादरस्य च तत्प्रामाण्य हे........[अथर्ववेदादावपि तुल्यं तत्रापि नास्ति सकले त्रैवर्णिकादर । कचिच्च....[K5B]....ति । अत्र सृण्या इत्यादावौकरस्य छान्दस आकारः ।.... जर्भरीतुर्फरीतू इतित द्विवचनान्ताविव शब्दो लक्ष्ये.... ....[अस्वि(श्चि)नोईयोरन्ते प्रतिपादनाल्लभ्यते कथमनयोवृत्तिः ।....नायं जर्भणनिमित्तः शब्दो जर्भणं गात्रविनामः सर्वा........तोऽयमपि तुर्वणनिमित्तो हिंसानिमित्त इति व्याख्या........तावित्यादिना । यदापि जरामरणनिमित्ताविति वक्ष्याम....[KGA]....द्विपं यथा या द्विपं दधति परि १K -खण्डम् Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ पत्रखण्डानि वेष्टया च तिष्ठन्ते तद्वदन्नाद्यानि....र्फरीतू नैतोशेव तुर्फरीपर्फरीका उदन्यजेव जेमनाम....नोऽश्विनौ स्तौति सृणिमङ्कशमर्हतः सृण्यौ कुञ्ज....[अ]त्र हिंसा विवक्षिताऽनन्तरं वधाभिधानात् । ततो सो वधस्तत्क.... ....उदन्यजे च उदन्यजौ प्रावृषि जातो.... यथा मदे ऊ उदकलालेन मत्तो ह्यष्टो....भव....[K6B]....त्वी तद....पर....रौ....ह [K7A] ...स्था....ति....स्था....दावो....र्थमि[K7B]....उतावाप्तिस्तु नाश.... ....क्षवं नियम....त्यस्येति । उचितं यु....शेषात्मना त्वस्य....प्रत्यवस्थामेपश्प....[K8A]....रवाप्तः पुरुषार्थ....णे प्रयात् । मीमां....च्छेद सम्बग्मीमां ....ब्दनस्वर्गादिफला..स्वर्गादिफलजनक....[K8B]....ब्राह्मणेन निष्कारणः षडङ्गो वेदोऽध्येयः प्रधानं षडङ्गेषु व्याकरणं, प्रधाने च कृतो यत्नः फलवा.... [ब्राह्मणेनावश्यं शब्दा ज्ञेयाः । न चान्तरेण व्याकरणं लघुनोपायेन शक्या शब्दा विज्ञातुमिति । लाघवं प्र....य व्याकरणम् । याज्ञिकाः पठन्ति स्थूलपृषतीमालभेतेति । तस्यां सन्देहः किं स्थूला चासौ पृषती....करणः स्वरतो व्यवस्यति । यदि पूर्वपदप्रकृतिस्वरेण स्थूलः शब्दाकार उदात्त: परिशिष्टमनुदात्तं ....जनता उक्ता भाष्ये आनुषङ्गिकत्वाच्चोपेक्षणीयानीति । यत एवैतान्यानुषङ्गि....[K9A]....यः शब्दानुशासनस्य प्रयोजनानीत्यभिधीयतेऽसुरा हेलयो हेलय इत्यादीनि पृथगूवर्गतयो....स्तथाहि कृष्णविषाणयाकं इयतीति यजमानकण्डूयनसाधनस्य कृष्णविषाणद्रव्यस्योत्पादकका.... दध्यौ मिथुनीभवेयमिति । अज्ञद्वारश्चोत्पत्तिः दर्शिता कृष्णविषाणायास्तदेवमन्यपरादस्मा....इति । ते असुरा हेलयो हेलय इति कुर्वन्तः पराबभूवुस्तस्माद् ब्राह्मणेन न म्लेच्छितवै नापभाषित....रणम् । आदि ग्रहणेन दुष्टः शब्दो वर्णतो स्वरतो वा इत्यस्य परिग्रहः । तथा यदधीतमविज्ञातं निगदे.... [K9B ]....वा] भवत्यत आ....यथास्वं प्रवर....[ता]श्रा[य]....नृषी.... [दार.........[K10A]....दि....यो........च । मिश्रलिं....वग्नि तस्मादधूम.... [KI0B]....यं वा गौरिति प्र....रित्यत आह समवायि....तदाकारस्तत्सदृशः । न श.... यत्सादृश्ये व्यक्तिसदृशं कृतं....म्मतोदुम्बरीभवतीत्यादौ युग....[K11A]....नात्मकत्वात् सङ्ख्याया जातेश्चैकत्या....तोपचयः । वर्धते गौरपचीयते....भेद इत्युपपन्न एकत्वातु जा.... तस्य वाच्यत्वेन व्यवस्था.... कादित्रयवाचक[KIIB]....अन्यस्वभावो भवनं यस्मादिति बाभ्युपगमे वास्तवगुणवचनत्वात् । जुत्प....बहुव्रीह्यायाश्रयणेन यत् समासकल्पनं तदेव क्लेशेन समाससंशयेत्यनेनो....या बाधितत्वादित्यादि वा पाठोऽत्रानुसन्धेयस्तन्त्रटीकायामेवंविधपाठदर्शनात्त....दिति कडारसूत्रे हि । अर्थवत् प्रातिपदिकमिति । अर्थवतः प्रातिपादिकसंज्ञं विधा....र्थवत एव संज्ञान्तराण्यु Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. पत्रखण्डानि कानि समासकृत्तद्धिताव्ययसर्वनामासर्वनामासर्वलिङ्गाजाति[K12A]....ज्ञोक्ता । गुणवंचनसंज्ञा मा भूदिति गुणवचनसंज्ञाबाधनार्थ तेन चित्रगुप्तं कारकत्वमौ....अविरक्किन्यायेनेति द्विगोर्लंगनपत्य इत्यत्र सूत्रे भाष्यकृतोक्तमिहास्माभि....यांसः कृत इति । तत्र द्वयोः शब्दयोः समानार्थयोरेकेन विग्रहोऽपरस्मादुत्पत्तिर्म....शब्दादुत्पत्तिर्भवत्याधिकमिति । एवं पञ्चसु कपालेषु संस्कृत इति विगृह्य पञ्चकपाल इ.... साध्यं तच्चैवं सति सिद्धं भवतीति । अव्यविकन्यायेनेति प्राप्ते विरविकन्यायेने[K12B]....नु स्वाध्यायोऽध्येतव्य....थाहि स्वाध्यायोऽध्येत....धायकेनापुरुषा... त्युपबन्धादक्षरग्रह ....[K13A]देन वाहुश्रुत्यस्तुतिर....सामि होनं जुहोती....दमितिवत् । वेदार्था....[K13B]रतो वर्त....पचाग....सम्भव....दादौ सत....त्यभावः । नन....ति तत्सारूप्यस्य....[K14A]भ्यमानत्वादि....दौ प्रवृत्ति....ति । अ....प ....तादृश [K14B]....[उत्तरार्धेनोक्ता । तथा च जतिलयवान् वा जुहुयादिति जर्तिलयवा गृहो मे....भन् श्रुत्यर्थत्वेनास्योपादानात् । प्रतरिष्यतीति च पुराणश्लोकेऽयं लडा संमा....पयोगिपदादिव्युत्पादनद्वारेणेति । यथाह भट्टः यत्तावत्पदविज्ञानं ज्ञेयं व्याक.... ....षामर्थो न गम्यते । निरुक्तद्वारिका चैषामाभिव्यक्तिरिष्यत । संदिह्यतेति सा.... ....त्राणामुदात्तादेः स्वरस्य च । प्रस्तादीनां च दोषाणां शिक्षातस्तत्र निर्णयः । गायत्रीवृ... .... ....रायणपुण्याह तिथिनक्षत्रनिर्णयः । छायागणितमार्गेण ज्योतिषामयना....K15A] ....स समाप्तयः । सङ्कीर्णा विप्रकीर्णाश्च वेदाध्ययनधारणात् । कल्पसूत्रैर्विविच्यं.... ....ध्ययनेन कर्मावबोधं भावयेदित्यत्राध्ययनस्य करणांस(श)निक्षिप्तत्वादवश्यमि ....डनादीतिकर्तव्यतापेक्षणम् । तदत्र करणत्वाक्षिप्त इतिकर्तव्यतांशो यः सां.... इत्यस्य वाक्यस्य कथमयमर्थों लभ्यते ? स्वाध्यायाध्ययनं करणं कर्मावबोधश्च....व्य इत्यध्ययनभावनायां विधिस्तत्र किं भावयेदिति किमंशापेक्षायामध्ययनमे....साध्यायां Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० भावनायां प्रवर्तनाशक्तिविहतिप्रसङ्गात् किमंशान्निष्कृष्या विरो....णं प्रश (स) क्तमप्यपुरुषार्थत्वादुपेक्षपदादिज्ञानद्वारेणायातं धर्मज्ञानं.... [K15B] तद्वति श........ते ह्याहुः यत्कर्मातीन्द्रियाधा.... न किञ्चित्तैरव्यापृतस्य फला.... सहकारिसन्निधानात् । प्राग.... यपारादेव फलोत्पत्य.... लावच्छिन्नस्तत्सिद्भवचित.... त्वं तस्यानुपलब्धेः ...[K16A]....त्वं तस्यानुपलम्भानपि तु नेकगुणजात्यादिकारका....य इति यदाह । अनुष्ठेये....धिकरणे भाष्यं शब्दानि.... मपि प्राज्ञैरिति प्राभाकरम.... यितुं लभ्यत इत्यर्थः । नाभा.... [K 16B].... बाहुल्या भिप्रायेणे.... गृह्यते नार्चिः कस्मैचित् प्रयोजना.... भिज्योतिरग्निः स्वाहेति सायं जुहोति.... वलीवर्दन्यायेन सामान्यव - चनेन....त्वादनयोरेकैकदेवता होमे कथं .... एवाग्नेर्दिवा ददृश इत्यादि एकैकस्या..... [K17A]भ्यां कर्तव्य इति होमदेवतास्तुतय इति .... न्यायनिबद्धा अत्र्यादयः यजमानसम्ब.... यामीति ब्रह्मानुज्ञालाभायोक्त्वा .... नत्वाचष्टे तदा तस्मिन् प्रवराश्रवणकाले .... क्षायामस्य शेषो बाह्मणं न चैतद्विभ इ... संशयरूपमज्ञानं अब्राह्मणोऽप्यनेन ब्रा ....[K17B].... दृष्टमिति । नान्यतो वेदविदभ्य इति तादार्ध्यचतुर्थी । अर्थसंशयाच्चेति । ....शङ्कायां त्वनर्थसंशयः । व्यापकानुपलब्ध्येति यो यस्मिन्नियतस.... स्तदनुपलब्धौ उपादेयताया अभावो वृक्षत्वानुपलम्भादि....य उदेति । तदो (दौ) चित्यं तर्क इत्यपि द्वितीयनाम्ना प्रसिद्धम् । सामा.... प्रायमिति । स्वेन दृष्टेन हेतुना बाद्युक्तस्य हेतोर्यत्प्रतिबिम्ब .... कृतकत्वात् । नित्यत्वं साध्यते । शब्दस्य तदाकाशसाधर्म्यान्नि... [K18A] नति न गण्यते मीमांसेति । यदाह अङ्गमध्येत् मीमांसा उच्यते....ावेदो रुमाप्राप्तकाष्ठादिलक्षणात्मवत् । किञ्च वेदे वर्णपरि.... ति श्लोके परस्य पुरुषार्थस्य निःश्रेयस्योपायज्ञानं विद्याशब्दे .... च यज्ञेन यज्ञमजयन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् । कर्मस्व.... प्रवृत्तिप्रयोजनाविद्याकृष्पादिपरिज्ञानं । वार्ताकुतर्ककण्टकेति.... णेन विवक्षिताः । तथाहि त आहुः -- गिरां सत्यत्वहेतूनां गुणानां पुरुषाश्रयात् । [K18B] .... यदाभिधेयार्थनि.... शब्दवाच्यः करोत्यर्थ.... दः शब्दभावनाख्य इति । शब्दस्य भावनाप्रवृत्तेः.... प्रवृत्त्या कार्येण प्रवृत्तिकारक एवानु.... वगमादि.... [K19A].... अयं समुच्चय इतिवत् सर्वनामप्रत्यव - मर्शयोग्यो....त्वे सति भवति नान्यथा प्रयोगनियमात् पदान्तर.... गुणाश्रवणाद्यद्यर्थ ..... चार्थ इति । तेषां हि सं[K19B]त् । सकर्मक कर्तृलकारापेक्षया घटं करोतीत्यादौ यद् घटस्य कर्मत्वं तदपेक्षया भविष्यति । प.... कर्तृत्वं तदपेक्षयैव सेत्स्यति । एवं चान्यक्रियापेक्षया घटमित्यस्य यद् द्वितीयान्तत्वं सिद्धमन्य.. .... वारयितृ न किञ्चिल्लक्षणं विद्यते । अथैवमप्रयोगान्नाश्रीयते तर्हि प्रयोगा १. पत्रखण्डानि Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. पत्रखण्डानि धनैव व्यवस्था.... मिति भवतेः स भाववचनत्वात् तिष्ठतेश्च गतिवृत्तिवाचित्वेन क्रियावाचित्वाभावात् प्रत्ययानुपप.... तिष्ठत्योः सोपसर्गयोः क्रियावचनत्वान्न पाठानर्थक्यं केवलं केवलाभ्यामक्रियावच.... क्रियावचनत्वावाद्धा (त्वाद्धा) तुसंज्ञाया अभावाद्धातुषु पाठ एव निरर्थक इत्यभिप्रायः । केचनेति [K20A].... न सिद्धिरन्यथा घटामि स्यात् । घटंभूयत इति च प्रभाकरग्रन्थ । भूयते भूयत इति चोभय....व्याख्यानम् । यदा तु घटंभूयत इत्येवंरूपोऽप्यन्वयः प्रा........ प्रातिपदिकं भूयत इति चाख्यातपदमासृ ( श्रि ?) त्य व्याचक्षते । यथा गण्डतीत्यनिष्टं.... इत्यपि रूपमनिष्टं प्राप्नोति तथाहि घटशब्दे द्वितीयान्त उपपदे भवतेः कर्मणि लकारो [ अ ] नमिहिते च कर्मणि द्वितीयादीनां प्रतिषेधोऽस्ति न पुनकारस्य । अकर्मकत्वात् कर्मणि लका....कप्रविभागः प्रयोगाच्चेत् तर्हि प्रयोगाधीनत्वं प्राप्तं साध्वसाधुप्रविवेकस्य न शास्त्राधीनत्वं कर्मणि.... [K20B] भाव इति .. त्तिर्नासम्भवति....त्कं क्ले....न्मूलत्वा ... यगुणव.... [K21A] लक्षणा.. पगवत्त्व.... शडयं .... सा. विष्पति । १.ति भविष्य [K21B] .... हु: । यावज्जीवेदिति । यावज्जीवेत् सुख.... नस्येति । तथाहि - विज्ञानघन एवायं भूते.... मानग्र न्थिरूपो घनीभावः स्वच्छस्वरूपातिरिक्त... सर्गाभावे तु संज्ञा तथाविधरूपं नास्तीत्येवंविधा.... तद्गृहीतम् । तथा च तद्ब्राह्मणं श्रुत्वा साह अत्रैवमा.... स्मि मोहसागरमध्ये निक्षिप्ता इत्यर्थः । अत्र शब्दो में ... [K22A] इति अरे इति तस्या आमन्त्रणम् । मोहं मोहजनकमस्य.... युक्तम् एवमिदं ब्रह्मविदः पूर्वपक्षोत्तरपक्षब्राह्मणं.... प्रामाण्याभ्युपगमात् उत्तरत्र तु मिथ्यासू .... लं प्रति यागस्य हेतुत्वाश्रयणात् । आह चे.... त्ति कपालेष्वधिश्रयन्तीत्यादिवाक्यैः स्या नौ विधिस्तुत्योः समावृत्तिरिति 1 न ह्य....[K22B]....नैव कथ्यते । अनग्नाविव शुष्केधनत ज्वलति कथञ्चिदित्यादे.... अधीति च प्रकृतिभावे कर्तव्ये तनकरणं म्लेच्छनं पदद्विवचने प्राप्ते.... त्येतस्यैव पर्यायो नापभाषितवै इति कृत्यार्थे तवैप्रत्ययः यथेन्द्र....वानित्यर्थः । तत्रेन्द्रत्रुर्वर्धस्व इन्द्रशत्रुर्भव वर्धस्वेति । इन्द्रस्य शत्रुः सा... द्युतात्र त्वं प्रयुक्तमृत्विजा । उपयुक्तस्य वा चात्वले कृष्णविषाणामि.. [K 3A] प्रक्षेपणलक्षणेन प्रतिपत्तिकर्मणा संस्क्रियते । भविष्यत्पुरोडाशसा.... णेन ग्रहणेन गृह्णतो वा | माणवकस्य संस्कारस्तत्संस्कृतस्य विद्वान्य.... च संस्कृतपुरुष वैदुष्यापादक इति तदुक्तम् संस्कारगणनायां तु यु.... क्षद्वयेऽपि बहुसम्भवात् तदभिप्रायेणोक्तम् वक्तव्यता महती चर्चेति । दर्थनिर्देशेऽपि प्रयुक्तवानिति । जन्यर्थस्य हि कर्ता जायमानः .. .[K23B] ― २५१ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गगतान्यवतरणानि अक्षस्याक्षस्य प्रतिविषयं न्यायभा०१.१.३]४४ ११] १७७ भगोनिवृत्तिः सामान्य [लो०वा०अपोह०१] १३२ अन्यथा कृत्वा चोदितम् [महाभाष्य १.१.२. भग्नये त्वा जुष्टं निर्वपामि । [ ] १५३ २] १७२ अग्निमीळे पुरोहितम् । [ऋग्वेद १.१] १०६ अन्यथानुपपत्या च [लो० वा. सम्बन्धाक्षेपभनिरिदं हविरजुषत [तै० ब्रा० ३.५.१०. परिहार १४१] ९९,५१ ३, माश्व० श्री. १. ९. ९] २९ अन्यथैवंकथमित्थंसु [पा० ३.४.२७] १७२ अमिहोत्रं जुहोति । [ ] १४१, १४९ ......अपञ्चम्याः ' [पाणिनि० २.४.८३] ५३ अमिहोत्रं त्रयो वेदा [ ] ७५ अपि वाऽऽम्नानसामर्थ्याच्चोदना [मी०सू० ४. भग्निः पूर्वेभिषिभि । [ऋग्वेद १. १.] १०६ ३.११] १४९ अनीषोमीयस्य वपया [ ] १४८ अ प्रत्ययाच्च [पा० ३.३.१०२] १८० अग्नीषोमीये संस्थिते [ ] १०१ अभावोऽपि प्रमाणाभावो [शाबरभा० १.१.५]४२ अभ्याः सर्वेषु वेदेषु [याज्ञवल्क्यस्मृ० १. अभिक्रामन् जुहोति [ ] १४३ २१९] १०८ अभितो भेदसंसगौं [ ]२२१ अचो यत् [ पा० ३. १. ९०] १७० भमुमेव च संस्कारं लो० वा. शब्दनित्यता अजामेकां लोहितकृष्णशुक्लां [वेता. उप. १३०-१३१] ९१ ४. ५] ११५ अम्यक् सा त इन्द्र [ऋग्वेद १.१६९.३] १२३ अज्ञो जन्तुरनीशोऽयम् [महाभारत० वन अयमेव हि ते कालः [ ] ६८ ३०.२८] २ 'अयं गौः' इति हि लौकिकाः [ ] ५४ अतत्त्वे वर्त्मनि स्थित्वा [ ] १६१ अरुणयैकहायन्या [तै ० सं० ६.१.६.७]२०,१५१ अत्यन्तप्रायैकदेश [न्या०सू० २.१.४४] ६८ अर्थात्मभावना त्वन्या तिन्त्रवा० २.१.१] 1४६ अत्यादयः क्रान्ताद्यर्थे द्वितीयया [पा०वार्तिक अर्थानां प्रयोगवचनानाम् [ ] १५० १. ४. ७९] ५३ अर्थान्तरानपेक्षित्वात् प्र. वा०३.६] ६४ अत्र केचिन्नीतिज्ञंमन्या [बृहती १.१. ५] ६५ अर्थान्तराभिसम्बन्धात् [प्र०वा० २.१९५] १९३ अथ गौरित्यत्र कः शब्दः[शाबरभा० १.१.५] १५९ अलक्षणमसिद्धं च [बृहट्टीका ?] २४० अथातस्तत्त्वं व्याख्यास्यामः। [लोकायतसूत्र] ४३ अलुप्तवेदनावृत्ते [ ] २१२ अथात्मा ज्ञातव्यो [छान्दो० उप० ८.१५.१] १२७ अवधपण्य...। [पा० ३.१.१.१] १७० अनादिनिधनं ब्रह्म [वाक्यप० १.१] ५५ अविनाशी वा अरे [बृहदा०उप० ४.५.१४] १९८ अनादिवासनाहेतु [ ] २२४ अविभागाच्च शेषस्य [मी०सू० ३ ५.४.१०] १४९ अनानातेष्वमन्त्रत्व (मी०सू० २.१.९.३४] २३४ अनारभ्याधीतानां प्रकृतिगामित्वम् [ ]१०६ अवेष्टौ यज्ञसंयोगात् (मी० सू० २.३.२.३] ९८ अनुवृत्तिनिर्देशे सवर्णा [पा० वार्तिक १.१.२.१] अष्टकृत्वो गोशब्दः [शाबरभा० १.१.६.२०] ९१ १७१ अष्टकाः कर्तव्याः [ ] २२, १०९, ११० अनृतं मद्यगन्धं च [शातातप] २०० अष्टवर्ष ब्राह्मणमुपनयीत [ ] १५० अन्तर्यामी स भूतानाम् [ ] २२१ असत्त्वभूतमेनं हि [लो०वा वाक्याधि० २३५] अन्ताच्च इति वक्तव्यम् [पा. वार्तिक ६. ३. Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. न्यामञ्जरीप्रन्थिमङ्गगताम्यवतरणानि असदकरणात् [सायका. ] २०६ उपान्मन्त्रकरणे [पा. १. ३. २५] २९. अस्मत्प्रयोगसंभिक्षा [ला०वा शून्यवाद ७०] १८२ उभयोरपि कश्चित्तु [बृहट्टी !] २४० अस्मदादौ प्रसिद्धत्वाद् [श्लो॰वा प्रत्यक्ष० २१]५७ उभयोरपि दृष्टोऽन्त [भगवद्गीता २. १६] २०६ अस्य चौ [पा० ७.४.७२] १७१ . ऋत इबातोः [पा० ७. १. १००]:१८० अस्येदं कार्य कारण [वै०सू० ९.१८] ६१ एकस्वादकारस्य सिद्धम् [षा० वार्तिक १. १. आख्यातेषु च नान्यस्य [श्लो वा० अपोह०१३९] २. १] १७१ १३२ एकमेवाद्वितीयमेव [छान्दो०प० ६.२.१]२१९ आख्या प्रवचनात् [मी०सू० १.१.८.३०] ९६ एकया प्रतिधाऽपिबत् [ऋध्वेद ८. ४५. ४.] १८९ आग्नेयमष्टाकपालं निर्वपति [तै • सं० १.८.१९]९८ एकस्मै वा कामायान्या [ ] १.४ आग्नेयोऽयाकपालो भवति [तै० सं० २.६.३.३] एकस्य तत्त्वावप्रच्युतस्य (वाक्यपदीयहरिवृत्ति २२, २५, ६९, १५२ १. १.] २२० आचान्तेन कर्तव्यम् [ ] १०८, १०९, एकोऽपि शब्दः सम्यक् [ ] १७० आत्मलाभ विदुर्मोक्षं सिद्धिविनिश्चय ७.१९]२१४ एतत् तु न सम्यक् [न्यायवा० ५.२.१] २४३ मात्माऽऽत्मीयध्रुवोच्छेद [अभिधको० ५.७] एतदन्तास्तु गतयो [मनुस्मृ० १. ५०] ३ एतयैव दिशा वाच्या [लो वा०शब्दनित्यता. आत्मेन्द्रियमनोऽर्थसन्निकर्षाद् [वै०सू० ३.१.१३] ५११] ९० एतस्यैव रेवतीषु [तांब्रा० १७. १. ४] आदित्यो वै ब्रह्म छन्दो० उप० ३.१९.१]१०२ २५, १२५ आधारत्वमथोच्येत [लो०वा शब्दनित्यता एवमपि दम्मेन सिद्धयति [महाभाष्य १. २१०] ३४.] ९३ १७१ आन्यभाव्यं तु (पा०वार्तिक १.१.२. १] १७१ एवं तहि दम्मेहलग्रहणस्य [पा वार्तिक आषं धर्मोपदेशं च [मनुस्मृ० १२. १०६] ६ । १. २. १०] १७१ आवृत्त्या न तु स ग्रन्थः [वाक्यप० १.८२]१६२ ।। एवं सत्यनुवादत्वं [श्लो०वा प्रत्यक्ष० ३९] ५६ आश्विनं ग्रहं गृह्णाति । [ ] १६३ एवं वर्तयन् यावदायुषं [छान्दो उप० ८. आसयन्त्यास्रवन्त्येते [अभिध०को०५.४०] २१६ १५. १] १२७ इको यणचि [पा० ६. १. ७७] ८४ एष आत्माऽपहतपाप्मा [छन्दो० उप० ८. १. इतिकर्तव्यताऽविधेयजतेः [मी०सू० ७. ४. ५] १२७ ...१ १.] २३३ एष वाव प्रथमो यज्ञानां [सामवेद ९५ इमामगृभ्णन् रशनामृतस्य [ते०सं.४.१.२] १७८ एष वै प्रथमः कल्पः [मनुस्मृ॰ ३. १४७] १०८ उदाहरणसाधात् [न्यायसुत्र १.१.३४] २३० ऐन्द्रवायवं गृह्णाति । [ ] १६३ उदिते जुहोत्यनुदिते जुहोति [ ] ७४ ऐन्द्राममेकादशकपालं [ ] १५३ उदुम्वरी सी वेष्टयेत् । [ ] ११० ऐन्द्राग्नं चकै निर्वपेत् ... [ ] २३ उद्देश्यो व्याप्यते धर्मों [श्लोवा०अनुमा० ऐन्द्रया गार्हपत्यमुपतिष्ठते । [मै०सं० ३. __ १०९] २३१ उद्भिदा यजेत । [ता. ब्रा० १९.७.२.३] १२४ ओषधे त्रायस्व । [य०वा०सं० ५.४२, १० उपधायाश्च । [पा. ७. १. १०१] १८० __- सं० १.३.५.] १२३ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ औत्पत्तिकस्तु शब्दस्य [मी. सू० १.१.५] १० औदुम्बरीं स्पृष्ट्रवोद्गायेत् [ ] ११७ कथं हि इको नाम [महाभाष्य १.२.१०] १७१ कदाचन स्तरोरसि [ऋग्वेद ८.५१] १२० कयानचित्र आभुवदूती [सा०सं०उ० १ ११२] २३५ कर्णशष्कुल्यां पवनजनितः [भर्तृमित्रस्योक्तिः ] ८६ कर्मकर्तृसाधनवैगुण्यात [ न्या०सू० २.१.५६ ] ११७ कर्मणा यमभिप्रैति । [ पा०१.४.३२] १७६ कर्मण्यण् [पा० ३.२.१] ९९ कर्मशब्दा इत्येतद्विना (प्राभाकरोक्तिः ] १४४ कर्षात्वतोर्घञोऽन्त उदात्तः । [ पा०का शिका ६.१.१५९] १६५ कश्चिदाह नास्त्यात्मेति [ वादन्याय पृ०६७ ] २४५ कस्यचिद्धेतुमात्रस्य [श्लो०वा०सम्बन्धापेक्षपपरिहार ७५ ] ८३ काकेभ्यो रक्ष्यतां सर्पि [ वाक्यप० २.३१२] ३४ कारकाणां प्रवृत्तिविशेषः क्रिया [महाभाष्य १.३.१] १८० किति च [पा०७.२.११८] १७७ किमर्थं पुनर् इदमुच्यते [महाभाष्य पृ०४२६] १७६ २. न्यामञ्जरीग्रन्थिभङ्गगतान्यवतरणानि कृत्यानां कर्तरि वा [ पा०२.३.७१] १८० कृष्णलमवहन्ति [ ] २८ कृष्णविषाणां चात्वाले [ ] २७ कोsर्थ : ? योऽभ्युदयाय [शाबरभा० १.१.२] १५५ को ह वै तद्वेद [तै०सं० ७.२.२] कतो फलार्थवादमङ्गवत् [ मी०सू० १७] १२१ ११९,१२० ४.३.८. ऋत्वर्थो हि शास्त्रात् [ शाबरभा० ४.१.२]११४ कीतराजक भोज्यान्न [तन्त्रवा० १.३.२] १०१ कीतराजक मोज्यान्न [अथर्ववेद] १०१ क्लेशकर्म विपाकाशयैः [ पातं ० योगसू० १.२४]८० क्षीणदोषोऽनृतं [ माठर० ५ ] ७१ गत्यर्थ-कर्मणि [पा० २.३.१२] १७६ गवादिषु गकारादि [ तन्त्रवा० १.३.८.२८] १७९ गिरां मिथ्यात्वहेतूनां [ प्र०वा० ३.२२४ ] ७६ गिरां सत्यत्वहेतूनां [ प्र०वा० ३.२२५] ७६ गुणव्यतिरिक्तं द्रव्यम् [ न्यायभा० ५.२.४] २४४ गृहद्वारि स्थितो यस्तु [०वा० अर्था० ३४] २३ गोदोहनेन पशुकामस्य प्रणयेत् [ आप० श्रौ० १. १६.३] २१, २८. गौणे हि प्रयोगो न लक्षणायाम् [ प्रभाकरोक्तिः ] २८ ग्रहं सम्माष्टि [ ] १:१ घटंभूयत इति च [ प्राभाकरी टीका ] १७३ चतुरस्रत्वादिना परिमाणेन [ ] २०५ चतुरो मुष्टीन्निर्वपति [ चतुः शरावो भवति [ ] १८५ चादीनामपि नज्योगो [लो० वा० अपोह ०१४३] ] • ६३ १३२ चित्रया यजेत पशुकामः [तै० सं० २.४.६.१] १०४, ११६, १६९ चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः [मी०सू० १.१.१.] ५६ चोदितं तु प्रतीयेत [मी०सू० १.३.५.१० | ९७,९८ छन्दसि परेsपि [पा० १४.८१] ८३ जरद्रवः कम्बलपादुकाभ्यां [ ] ९६ जीवस्य संविदो भ्रान्ते [ सिद्धिविनिश्चय ७.१२] २१३ ज्वरादिशमने काश्चित् [ प्र० वा० ३.७३ ] १३४ ज्ञानसन्तानपक्षस्तावद् [ ] २१३ ज्ञानानुत्पत्तिकृतं संदेहनिबन्धनं [बादरायणसूत्रवृत्ति २.२.४४] ११२ ततोऽन्ये कारणं हेतुः [अभिध० को ० २.५०] ८ ततः सत्यवतः कायात् [ महाभारत ३.२८१. २६] १९७ तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् [ पातं ० योगसू० ३.२]४ तत्र सर्वे अविशेषात् [मी० सू० ४३.१० २७] १०४ तत्रापि व्याप्यतैव स्यात् [लो० वा० अनु० ९]८१ तत्रापूर्वार्थविज्ञानं [ बृहट्टीका ] ५८ तत्रासिद्धाभिधा हेतु [ बृहट्टीका ?] २४० तथा च सति वृक्षस्यापि [ ] २०६ तथेदममलं ब्रह्म [ बृहदा० भा०वा० ३.५.४४] ५५, २२१ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. न्यायमञ्जरीप्रन्थिमङ्गगतान्यवतराणि २५५ तथैव नित्यचैतन्याः [इलो० वा०शब्दनित्यता. तृतीयासप्तम्योबेहुलम् [पा०२.४.८४] ५३ - ४०७] ९० तेन तुल्यं किया चेद्वतिः । पा० ५ १.११५] तभोभाभ्यादिरूपाणां [तन्त्रवा० ..: ८ २४] १७३ तदथर्वाऽभवत् [गोपथब्रा० १.१] १०६ तेन प्रोक्तम् [ण० ४.३.१०१] १०३ तदभावः क्वचित्तावद् [श्लो० वा.चोदना.६२]७६ तेन हि क्रियावान् आत्मा [न्यायभा०५.१.२] तदर्धिकं पादिकं वा [मनुस्मृति ३..] १०१ तदाऽप्यविद्यमानत्वं [लो० वा. अर्था० ३५]२४ तेनोपनीतसम्बन्ध [लोवा०शब्दनित्यता० तदेवार्थमात्रनिर्भासं [पातं. योगसू० ३.३] ४. तद्गुणास्तु विधीयेरन् [मी० सू० १.४.६.९१२५ तेषां समानदेशत्वे [विज्ञप्तिमात्रताविंशतिका तदृष्टावेव दृष्टेषु प्रवाभा०.४.१८३]१५५ १२] २२५ तद्भावहेतुभावो हि [प्र.वा० ३.२६] २३१ ।। त्रयीरूपेण तज्ज्योतिः प्रथमं परिवर्तते [वाक्यतद्वतो नास्वतन्त्रत्वात् [प्रमाणसमु०अपोह - ४] १३७ प.हरिवृत्तौ उद्धृतः १.१. १] ९९,१६१ तबृत्तमेवकारश्च [लो० वा० अनुमान ११०] २३ त्रिनाचिकेतो विरजाः [यमस्मृति १०७ तन्दुलान् पिनष्टि [ ] १६३ त्रिप्रकारं यदा वेद्य [ ] २१२ तमाथर्वणम् [गोपथब्रा० १.१] १०६ त्रिः प्रथमामन्वाह त्रिरुत्तमाम् [ ] ७४ समेतं वेदानुवचनेन (प्रश्नोप० १.२; बृहदा० त्रैलक्षण्यपरित्यागो [लो०वा शब्दप०१८] ७३ उप० ४.४.२२] १२८, २१८ त्रैलोक्ये सर्वभूतानां [ ] १४२ तरुण्येकाऽहमेवास्मि [ ] ३३ त्वामग्ने पुष्करादते०सं०३.५.११] १०२ ।। तस्मात कर्मविधाना प्रभाकरोक्तिः] १२४ दधानं तच्च तामात्म [प्र०वा० २ ३०८] ९ तस्मादाकृतिगोत्रस्थाद वाक्यप. हरिवृत्ती उद्ध दध्ना जुहोति [ ] १४१ तम् १.१] १६१, २२१ दधिर्नामास्य दब्धोऽहं [तै ०सं० १. ६. तस्माद्धर्मविशिष्टस्य [लो०वा०अनु० ४५]७२ २. ४] २१ तस्माद्वा एतेन पुरा ब्राह्मणा [ ] ९४ दर्शनस्य परार्थत्वात् [मी०सू०१.१.६.१८] ८८ तस्माद्वैधर्म्य दृष्टान्ते [प्र.वा. ३.२५] ५९ दर्शपूर्णमासाभ्यां यजेत [ ] २२,२५,६९ तस्य भावस्त्वतलौ [पा० ५.१.११९] ६० दिक्ष्वतीकाशान् कुर्यात् [ ] १२० तस्याः पाणिरय [ ] ७७ दिशः श्रोत्रम् [तै ०सं०७ ५.२५] ९२ तस्यैकमपि चैतन्यं [बृहदा०भा०वा० ३. ५.४५] देवस्य त्वा [ते०सं०५.१.१] १२२ २२१ देशान्तरगतं कार्य [ लो०वा०शब्दनित्यता९२] ८ तस्यैवार्पितसंस्कार [ ] २१२ दैविकानां युगानां तु [मनुस्मृ०१.७२] ८० तस्योदाहरणम् किमिदं जन्म [न्या०भा० १. दोषज्ञाने त्वनुत्पन्ने [लो वा०चोदना०६.] १.] २३३ १११, ११२, तां चतुर्भिरादत्ते [तै० सं० ५.१.१] १२२ द्रव्यगुणसंस्कारेषु [मी०सू०३.१.३] १५३ ताभ्यः श्रान्ताभ्यः [गोपथब्रा० ११] १०६ द्रव्यमात्रस्य तु प्रैषे [वाक्यप०३.७ १२६] १४७ ति च ।पा. ७४.८९] १८० द्विगुप्राप्तापन्नालं [पा०वार्तिक०२.४.८३] ५३ तिन उपसदो भवन्ति [ ] १५१ धन्वन्निव प्रपा असि[ ] १०९ तुल्यार्थरतुलोपमाभ्यां पा० २.६.७२] १८१ धर्माय जिज्ञासा [शाबरभा० १.१.१] २३१ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ २. न्यायमञ्जरीप्रन्थिमङ्गगतान्यवतरणानि धूम एवाग्नेर्दिवा ददृशे नाचिः [ ] ७४ नो चेद् भ्रान्तिनिमित्तेन [प्रश्वा०३.४३] १३१ धूमावगमवेलायां [लो वा अर्थापत्ति०२०] २० न्यायमार्गतुलारूढं [हेतु०बि०टी०पृ १] ५६ न कलज भक्षयेत् [ ] १७८ न्यायोक्ते लिङ्गदर्शनम् [मी०सू०३.८.२१.४१] न चतुष्ट्रवमैतिय [न्यायसू०२.२.१] ६ न च स्वर्गफलस्येह [श्लोवाचित्राक्षेपपरि- णेरनिटि [पा०६.४.५१] १७० हार १५] ११७ पक्षधर्मत्वमेतेषां [लो वा वाक्याधिक न चानुमानमेषा धीः [लो०वा वाक्याधिक २३२] १६५ पक्षधर्मस्तदंशेन [प्रमाणवा ०३.१] २४६ न चाप्ययुतसिद्धानां [ लो०वा प्रत्यक्ष० १४६] पञ्चरात्रं च साङ्ख्य च [महाभारत, शान्तिः । ३५, १३० प०३३७.५९] ११२ म चैतदस्ति यज्ञस्यैष [शाबरभा० ३.३.१२. पञ्चदश सामधेनीरनुब्रयात् [ ] ११५ ३३] १०३ पतः पुम् [पाणिनि७.४ १९] ९५ न तावदस्ति शब्दत्व [तन्त्रवा० १.३.८. पदादिषु मांस्पृत्स्नूना [पा०वार्तिक ६.१.६३] २८] १७९ न नेति युच्यमानेऽपि [लो०वा अपोह० पदार्थैरनुरको हि लो०वा वाक्याधि०२३३] १३९] १३२ पदासिद्धादयस्त्रेधा [बृहट्टीका ?] २४० न बुद्धिलक्षणाधिष्ठान न्यायसू०३.१.६२] २०१ न मे पार्थास्ति कर्तव्यं [गीता ३.२२] ३ पदे जुहोति [ ] १४८ न याति न च तत्रासीत् [प्रा०वा०३.१५१] १३५ पदं कैश्चिद् द्विधा भिन्नं [वाक्यप०३.१.१] १६० नर्ते भृग्वशिरोविद्भयः [गोपथब्रा० १.१] १०५ परं ज्योतिरुपसम्पद्य [छान्दो०उप०८.१२.३] १४२ न हायर्नेन पलितैः [शातातपस्मृ.] १०२ परं तु श्रुतिसामान्यमात्रम् [मी०सू०१.१.८.३१] न हिस्यात् [ ] १४८ न ह्यनुद्दिश्य देवदत्त [ ] १४९ पर्ववर्ज व्रजेच्चैनाम् [ ] १७० न घेतस्यां हेतूदाहरण [न्या०भा० १.१.३९] पशुना यजेत [ ] १५२ | २३२ पाचकत्वौपगवत्व [कात्यायनीयवार्तिक १] ४९ नात्माऽस्ति स्कन्धमात्रं तु [अभि०को० ३.१८] १९६ पिण्डसारूप्यमेव सामान्यम् [ ] ६७ नान्तःप्रज्ञम् [माण्डूक्योपनिषद् ] २११। पुण्यो महाब्रह्मसमूहजुष्ट [ । १७० । नान्वयव्यतिरेकाभ्याम् [लोवा०वाक्याधि० पुरूखो मा मृथा [ऋग्वेद १०.९५.१५] ९५ १६२] १६४ पूर्वसंस्कारयुक्तान्त्य [लोवा०शब्दप०१६] ७३ नारं स्पृष्ट्वाऽस्थि सस्नेहम् [ ] १११ पृथिव्यापस्तेजोवायुरिति [लोकायतसूत्र] ४३ नासिद्धे भावधर्मोऽस्ति [प्रमाणवा०३.१९०] पौल्कसोऽपौल्कसः [बृहदा० उप.४.३.२२] ११५ २१, २३९ नियोगगों विनियोगः [ ] १५२ प्रकृतित्वमपि प्राप्तान् [वाक्यप० हरिवृत्तौ उद्धृनिवेशनः सझमनी [मै०सं०२.७.१२] २९ __ तम्१.१] २२१ प्रकृति-प्रत्ययौ प्रत्यया) [ ] १४५ निष्ठासम्बन्धयोरेककालत्वात् [ 1 १३५ प्रजापतिर्वा इदमग्र आसीत् [शतपथब्रा.११.४.. निष्प्रपञ्च मनः कृत्वा[ ] १४२ नैतदेवम्, ऋग-यजुः-सामानि [गोपथ ब्रा०१.१] १४] १०७ १०५ प्रतितिष्ठन्ति ह वा [ ] १२१ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ १४५ २. न्यामञ्जरीग्रन्थिमङ्गगतान्यवतरणानि २५७ प्रतीतिपौर्षापर्ये [प्राभाकरोक्तिः] १२६ भट्टस्य तस्य [ ] १७९ प्रत्यक्ष कल्पनापोढम् [प्रमाणसमु.] २२८ भम धम्मि ! वीसत्थो [गाथासप्तशती २. प्रत्यायक इति प्रत्ययं दृष्ट्रा शाबरभा०१.१.५]९७ ७५] ३२ प्रपञ्चकथायां न कश्चिद् [वादन्याय,पृ. ११०] भवता लिङ्गमूर्तिः [महाभारत, द्रोणपर्व] ११३ भावशब्दस्तावद् [ ] १४४ प्रपाः प्रवर्तितव्याः [ ] १०९ भावान्तरमभावो हि [श्लो० वा अपोह २] १३२ प्रयाजशेषेण हवींष्यभिधारयेत् [ ] २७ भुवश्च [पा० ३.२.१३८] १८१ प्रयोगकाले करणस्य [ ] ९४८ भूतेभ्यश्चैतन्यम् [लोकायतसूत्र] १९७ भूयोऽवयवसामान्य [ ] ६९ प्रयोगचोदनाभावात् [मी०सू० १.३. ९.३०] भेदानां परिमाणात् [साङ्ख्यका० १५] २०३ भ्रम धार्मिक विश्रब्धः [संस्कृतछाया, गाथाप्राग्भागः पुनरेतेषां [श्लो० वा शब्दनित्यता० सप्तशती २. ७५] ३२ १६४] ६८ माता च भगिनी चैव [ ] ११४ प्राङ् निष्पत्तनिष्पत्तिधर्मकं न्यायभा० ४.१. मन एवाक्षरमूर्धमुदगात् । [गोपथब्रा. १.१.] ४८] २०७ प्राजापत्यां तु कृस्वेष्टिं [प्राभाकरटीका, सप्तमाये] मन्त्रो हीनः स्वरतो [पाणिनीयशिक्षा ५२] १७. मणिप्रदीपप्रभयोः [प्र.वा. २. ५७] १२ प्राजापत्यं शतकृष्णलं चरुं [ ]१०९ ममाग्ने वर्गों विहवेष्वस्तु [ऋग्वेद ८. १२८] प्रापकं प्रमाणम् [ ] १५ प्राप्त्युपायोऽनुकारश्च [वाक्यपदीय १.५] २२० महायज्ञैश्च यज्ञैश्च [मनुस्मृति २. ३८] २१८ प्राप्य गाण्डीवधन्वानं [ ]११५ मृजेरजादौ सङ्कमे [महाभाष्य] १७७ प्रार्थ्यमान फलं ज्ञातं [श्लो॰वा. सम्बन्धाक्षेप मैत्रावरुणः प्रेष्यति चाऽनु चाह [ ] ५० परिहार १११] २१७ यच्च कालान्तरे [शाबरभा० १. १. ५] ११६ प्रेष्यस्तस्य च किंकर्म [तन्त्रवा० २.१.१. १४६ यज्जुह्वति तदाहवनीयः । [ ] १४८ फलमात्रेयो निर्देशाद [मी०सू० ४.३.८. १८] १२१ यज्याद्यर्थश्चातो [शाबरभा० २. १. १] १४४ फलसिद्धिमवान्तरीकुर्वन् [ ] १४८ यत् कूपसूपयूपेषु [श्लो॰वा. वाक्याधि० १६१] बबरः प्रावाहणिरकामयत । [तै ०सं० ७. १.। यत्र संशयस्तत्रैव न्यायसूत्र २. १.५] २३६ यत्रार्थस्मरणे नष्टे [ ] २१२ बर्हिदेवसदनं दामि (मै०सं० १. १. २.] २॥ यत्रार्थः शब्दो वा [ध्वन्या० १. १३] ३२ बाधके सति स न्यायः [ ] ११२ यथा गौरेवं गवय [न्या०भा० १. १.६] ६८ बायसिद्धिः स्याद् व्यतिरेकतः । [ ] २२३ यथा ज्ञान वृत्तिः [न्या० भा० १.१.३] १४ बुद्धिसिद्धं तु तदसत् [न्यायसू० ४. १.५०]२०७ यथा प्रदीप्तात् पावकाद् [मुण्डकोप० २.१.१] बुद्धीनामपि चैतन्य [ लो०वा. शब्दत्यिता. २१९ ४०४] ८९ यथा फलस्य हेतूनां [प्र०वा० २. ३०९] ४६ बुद्धया कल्पिकया [अपोहप्रकरण (धर्मोत्तर)] यथा रूपादयो भिन्नाः [लो वा प्रत्यक्ष. १३२ १७५] ४८ बृहत्पृष्ठो भवति । [ ] १०९ यथा वा दर्पणः स्वच्छो [लोवा०शब्दब्रह्मणे त्वा प्राणाय जुष्टं निर्वपामि [ ]१०४ नित्यता० ४०६] ८९ ३३ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ यथा विशुद्धमाकाशं [बृहदा० भा० वा०३. ५. ४३] ५५, २२१ यथोर्णनाभिः सृजते [मुण्डकोपनिषद् १. ०.७] २०९ २. न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गगतान्यवतरणानि ] ७८ ] " या वैयधिकरण्यानवभास [ यदि ब्राह्मणो यजेत [मे० सं० ४ यदुत्पत्तौ यत्सन्ताननिवृत्तिः [ योऽधीते घृतकुल्या भवन्ति [ ]१२२, १५५ यद् ऋत्विजः प्राश्नन्ति [ ] १०४, यदेतत् त्रय्यै विद्यायै शुक्रम् [ शतपथब्रा० ११. ४. १४] १०५ यवमयेषु करम्भपात्रेषु [शाबरभा० १ ३.४. ९.] १२४ यस्तु प्रयुङ्क्ते कुशलो [महाभाष्य १.१.१.]१७८ यस्मिन्नेव हि सन्ताने [ ] १९४ यस्मिन् प्रीतिः पुरुषस्य [मी०सू० ४.१.२] ११४, १४८ ४९] ९८ यस्य ज्ञानमयं तपः [ ] १०० यस्य पर्णमयी जुहूः [तै०सं० ३. ५. ७. २] १६९, १७९ यस्य यत्र यदोद्भूतिः [*लो० वा० अभाव • १३] ५६ यस्य लिङ्गभर्थसंयोगा [ मी०सू० ८.१.२. ] २३४ यस्य वस्त्वन्तराभावो [ श्लो० वा० अर्था० ४०] २५ यस्योभयं हविरार्तिमाच्छेत् [ तै० ब्रा० ३.७.१. ७] २६ यागप्रवृत्तौ सत्यां [प्राभाकरोक्तिः ] १२६ तावत् सिद्धमसिद्धं वा [ वाक्यप० ३.८.१] १८० यावद्धीन्द्रियसम्बद्धं [लो० वा० उप० ९] ६९ यां जना अभिनन्दन्ति [ अथर्ववेद ३. ११] २२, १०९ युञ्जानः प्रथमं मनः [ तै०सं० ४.१.१.१.] १०४ ये चैते अरण्ये श्रद्धा - तप इत्युपासते [ ] २१६ येयं स्मृतिरगृह्यमाणे [ न्यायभा० ३.१.१५] १८४ येषामनवगतोत्पत्तीनां [ शाबरभा० १.१.६.२१] ८० यैरुक्ता तत्र वैधर्म्य [लो० वा० शब्दप० १७]७३ योऽयमर्थग्रहो द्रष्टुः [ ] २१२ योगसिद्धिर्वाऽस्य [मी०सू० ४.३.१०.२७] १०४ यो ब्राह्मणायावगूरेत् [ तै० सं० २.६.१०.२] ११९ यो यस्य देशकालाभ्यां [ श्लो०वा० अनु०५] ८१ यः सर्वपरिकल्पानाम् [] २२१ रजतं गृह्यमाणं हि [ बृहट्टीका ?] १०, ११, रथन्तरं पृष्ठं भवति [ ] १०९ राजा राजसूयेन [ ] ९८ राज्ञो बलार्थिनः षष्ठे [ मनुस्मृ० २. ३७]११६ रोधोपघातसादृश्येभ्यो [न्या०सू० २.१.३७] ६५ वक्ष्यते जैमिनिवाह [लो०वा० चोदना० २२३] १२८ वर्तमान एव लट् [पा० ३.२. १२३] १७३ वर्तमानाभावः पततः [ न्या०सू० २.१.३९] ६७ वसन्ताय कपिञ्जलान् [मैं० सं० ३.१४. १]१५० वस्तुत्वात्त गुणैस्तेषां [लो० वा० चोदना० ३९] ७५ वाक्छस्त्र ब्राह्मणस्य [मनुस्मृ० ११. ३३] १०२ वाक्यान्तरे समर्थेऽपि [ श्लो० वा० औत्प० १२] १४५ वाचकत्वाविशेषेऽपि [ वाक्यप० ३. ३.३०] १६९ वाचारम्भणं नामधेयं [ छान्दो० उप० ६. १. ४] ५५, २१८ वाचाविरूपनित्यया [ ] ९३ वादिना कश्चिदज्ञात [ बृहट्टीका ?] २४० वायुर्वै क्षेपिष्ठा... [ ] १२१ 'वा'वचनानर्थक्यं [पा० वार्तिक] १७५ विज्ञानघन एवायम् [ बृहदा० उप० २. ४. १२] १९८ विज्ञानादिभावे वा तदप्रतिषेघः [ ब्रह्मसू० २. २.४४] ११२ विधिरत्यन्तमप्राप्ते [ ] १७० विभाषा धेट्ठयोः [पा० ३. १. ४९] ७१ विश्वजिता यजेत [तां०ब्रा० १९. ४. ५] २२ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. न्यायमञ्जरीप्रन्थिमङ्गगतान्यवतरणानि २५९ विषयाकारमेदाच्च [प्र०वा. १. ६] १८९ शाब्दैस्तु निमित्तमप्यपद्भुतम् [ ] १६५ विस्पष्टं दृष्टमेतञ्च [लो०वा अनु० ८] ८१ शुचिना कर्तव्यम् [ ] १०८, १०९ विस्रधारा मृतं चैव [ ] ११३ शुन्धध्वं दैव्याय कर्मणे [तै०सं० १. १. ३. वीतरागजन्मादर्शनात् [न्या.सू. ३.१. २५] १९८ वृक्ष एण्यः। [उणादि ३. ३८५] १८१ शरीरारम्भककारणानामेव [उद्भटोक्तिः] १९८ वृत्तिस्तु सन्निकर्षों ज्ञानं वा [न्यायभा० १.१. श्येनेनाभिचरन् यजेत [ ] ११४ ३] ४४ श्रामण्यममलो मार्गः [अभिध को०६.५१] ११५ वेदप्रामाण्यं जातिवादावलेपः [प्र०वा स्वो श्वयतेरः [पा० ७.४.१८] ७१ पज्ञवृ० ३४३ ] ११४ । षत्रिंशदाब्दिकम् [मनुस्मृ०३.१] १०७ वेदवद् वेदविद्वचः [ ] १७९ . षट्पदान्यनुनिष्क्रामति [ ] १५१ वेदांश्चैके सन्निकर्षम् [मी०सू० १. १. ८. षण्णामाश्रितत्वमन्यत्र [प्रशस्त०भा०पृ०११६]९२ २७] ९६, १०३ स इमांस्त्रीन् वेदानभितताप [शतपथब्रा०११. वेदैवाऽसौ मयैतत्कर्तव्यम् [भाष्य] १२८ व्यतिषक्ततोऽवगते [बृहती० १. १. ७.] ७४ स एष यज्ञायुधी [ ]७४ व्यवहिताश्च [पा० १. ४. ८२] ८३ स एष वाव प्रथमो यज्ञो [ ] ९४ व्रीहिभिर्यजेत [ ] १७८ सक्तून् जुहोति [ ] २८ व्रीहीनवहन्ति [ ] २०,१४१, १५२,१६३ सङ्ख्याभावात् [मी०सू०१.१.६.२०] ९१ लिङ्गलिङ्गि धियोरेवं [प्र.वा. २. ८२] १२ सङ्ख्यायुक्तं क्रतोः [मी०सू० ३.३.१२.३२] लिङ्गेन वा नियम्येत [मी०सू० ७.४.२.४] २३४ १०३ लोहितोष्णीषाः प्रचरन्ति [ ] १४३ सच्छब्दः सत्ता प्रवृत्ति [ ] १३९ शकधृष... [पा. ३. ४. ६५] १७६ सन्निहितविषयबलोत्पत्तेः [ ] १९१ शतकृष्णलं चरुं [ ] ११५ सप्तम्यैव हि लभ्यते [लो०वा प्रत्यक्ष०३७१५७ शब्दत्वे संस्कृते स्याद्धि [तन्त्रा० १. ३. ८. सभागहेतुः सदृशाः [अभिध०को०२.५२] ८ १८] १७९ समवायिनः श्वैत्यात् । [वै०सू०८.९] १३९ शब्दवृद्धाभिधेयास्तु [ लो०वा० सम्बन्धाक्षेप- समानानेकधर्माध्यवसायात् [न्यायसूत्र २.१ १] परिहार १४०] ५१ शब्दस्य परिणामोऽयम् [वाक्यप० १. १२०] समाहितः परे तत्त्वे [ ] १४२ समिधो यजति [शतपथब्रा०२.६.१.१.] २१, शब्देनैव हि निर्देशो [ लोकवा० प्र० सू० १८२] २५, १४१, १५२ २२१ समेषु कर्मयुक्तं स्यात् [मी० सू०२.२.१२.२७] शब्दः पुद्गलपर्यायः [सिद्धिबिनिश्चय ९. १]२१४ १२५ शयाना भुजते यवनाः । [पा० काशिका ३.२. सम्बन्धितया ह्यनवगम्यमानं [प्राभाकरोक्तिः] ३३० १२६] १४८ सम्भवमात्रनिरसनीयश्च [ ] १११ शस्त्रौषधादिसम्बन्धा [प्र. वा० १. २४] ८० सम्भवाद् वेदसंयोगस्य [भाष्य०] ११२ शान्तं विद्यात्मकं ब्रह्म [वाक्यप० हरिवृत्ती सम्यगर्थे च संशब्दो [लो०वा०प्रत्यक्ष०३८]५६ उद्धतम् १. १.] १६१ स य इच्छेत् सर्वैरेवा [गोपथब्रा० १.१.] १०७ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० सर्व एवायमामनुनानुमेयव्यवहारो [दिग्नाग] १८ सर्वजिता वै देवाः [ ] ९४ सर्वत्र यौगपद्यात् [मी०सू०११.६.१९] ९१ सर्वदा चापि पुरुषाः [*लो० वा० चोदना ०] १११ सर्वस्वारेण मरणकामो यजेत [ ] ११५ सर्वासां दोषजातीनां [प्र०वा०३.२२२] १८९ सर्वोऽनिर्धारितः पूर्वः [ ] ६१ सर्व कर्माखिलं पार्थ [ गीता६.३.] १२८ स लौकिकः स्याद् [मी०सू०७.४.२२] २३४ सहचरणस्थानतादर्थ्य [ न्यायसूत्र २. २.६१] २४१ साकारावयवं भेदे [ वाक्यप०२४] २१ सादृश्यमिति सादृश्यम् [ बृहती० १.१.५] ६९ सामान्यवच्च [ लो० वा० उप०३५] ६९ सा हि तस्य ज्ञातुमिच्छा [शाबरभा० १.१.१] २३१ सिद्धान्तमभ्युपेत्य तद्विरोधी [ न्या०सू० १.२.४७] २. न्यामञ्जरीग्रन्थिभङ्गगतान्यवतरणानि २३७ सिद्धान्तमभ्युपेत्या नियमात् [ न्या०सू०५.२.२४] २३७ सिद्धे शब्दार्थसम्बन्धे [पा०वार्तिक० १.१.१] ८४ सीताऽसमागमासह्यात् [ ]९६ सूर्य ते चक्षुर्गमयतात् [ ] ९२, १९९ सोsपः स्पृष्ट्वा तासु स्वां छायामपश्यत् [ गोपथब्रा • १.१] १०६ सोऽयं विकारो व्यक्तेरपैति [ न्यायभा० १.२.६] २३८ सोऽरोदीत् [ ] १२१ सोऽर्थो विज्ञानरूपत्वात् [ आलम्बनप०६ ] ७८ सोमेन यजेत [ ] १६३ सौयं चरुं निर्वपेत् [तै०सं०२.३.२.३] २२, ६९, २३३ संज्ञा सञ्चारणादेष १३१-१३२] ९१ [ श्लो० वा० शब्दनित्यता सं ते वायुर्वातेन गच्छताम् [मे०सं१.२.१५ ] ७९,९४ संदिग्धो वादिनो वा स्यात् [ बृहट्टीका ?] २४० संसर्गात् परमाणवः [ सिद्धिविनिश्चय ९.१] २१५ संसर्गि मेदकं यद् यत् [ वाक्यप०३.५.१] २०१ संशयात्मा विनश्यति [ भगवद्गीता ४.४०] ७७ संसृज्यन्ते न भिद्यन्ते [ प्र०वा०३.८६] १३४ संस्कारव्यतिरिक्ते च [लो० वा० शब्दनित्यता • १३६-१३७] ९२ संस्कृतानां च शब्दानां [तन्त्रवा० १.३.८.२८] १७९ संस्थानेन घटत्वादि [ श्लो० वा०वन ०२९] १७८ स्तुतिनिन्दाप्रधानेषु [ वाक्यप०२२४७] ३४ स्तेनं मनोऽनृतवादिनी वाकू [ ] ११९ स्योनं ते सदनं कृणोमि [तै० ब्रा०३.७.५] २९ वेणावद्यति [ ] १४६ स्वरूपेण यथा वह्नि [ श्लो० वा० शब्दमित्यता ० ४०५] ८९ स्वरूपं तु तदेवेति [ लो०वा०शब्दनित्यता ० ४१२] ९० स्वाध्यायोsध्येतव्यः [तै० आ०२.१५.१] १२१, १२२, १५५ हलन्ताश्च [ पा० १. २. १०] १७१ 'हल' इति हल्ल्रजाति [ महाभाष्य १.२.१०] १७१ हुत्वा वपामेवा [ ] ९४ हेतुप्रतिज्ञाव्याघाते [प्र०वा० भाष्य ४.२८६] २४४ तौ विवक्षिते तत्र [ बृहट्टीका ?] २४० होतर्यज [ हेत्वाभासाश्च यथान्यायाद् [ वादन्याय, पृ० १४२] ५० २४६ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गनिर्दिष्टानि ग्रन्थग्रन्थकारादिनामानि अकलङ्कदेव २१३ अगस्त्य १२३ अत्रि २४७ अथर्ववेद १०१, १०३, १०५-१०७, २४७ काठक १०३ कात्यायन २४७ कारकसूत्र १७४ कालापक १०३ किरीटी ४५ कृत्यारावणाख्यनाटक ७८ कृष्ण ११३ केचित् ५८, ११४, १२८, १५५, २०८ T अथर्वाङ्गिरस १०१ अन्ये २, १३, ११४, १४८ अन्यैः १५९ अपरे १२, १५५ अपरैः १४ अचट ५६ अर्जुन ११३ अर्हदृष्टि २१६ अर्हन्मत २०० भवेष्टयधिकरण ९८ अवघोष २४५ अश्वत्थामन् ११३ अश्विन् १२३ अष्टनिग्रहवादिन् २३७ अस्मिन् दर्शने ३ आगम २, २११, २१९ केशव ११३ केषाञ्चिद् १३२ कैश्चित् १४, ५२ कौरव ११५ क्षणिकवादिन् ८९ क्षपणक २३१ खसदेश १६७ गाण्डीवधन्वा ११५ गायत्री १०६ गोविन्दस्वामिन् १२६ गौतम २४७ गौरमूलक ३५ ग्रन्थकार ५०, १२२ आचार्य ४४, ६७, १६६ आत्रेय १२१ आनन्दवर्धन ३२ उद्भट १९, ४३, १८०, १९७, १९८ प्रन्थकृत् २४, ३१, ३५, १०५, २१३ चक्रधर १ चण्डिका १ चार्वाक ४४, १९७, २३९ उद्योतकर ९३ उद्योतकरविवृतिकृत् ४४ उपमन्यु ११३ उपवर्ष ५७ उम्बेक २४, १४९, १८२ चिरन्तनचार्वाक १९७ चिरन्तनबौद्ध १३६, १३८ जयन्त १ जानकी २०२ जैन ४४ उर्वशी ९५ उल्मुक १२० एके १४८ औद्दालकि ९५ कटन्दी १७७ जैनमत २१२ जैमिनि १४३ जैमिनिसूत्र १४३ तन्त्र १०८ तन्त्रटीका १०१ तन्त्रशुद्धयादिप्रकरण ८६ तैः २१९ कठ ९६ कल्पसूत्र १०६ कश्चित् २० कश्मीर १६७ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ३. न्यायमञ्जरीग्रन्थिमङ्गनिर्दिष्टानि ग्रन्थग्रन्थकारादिनामानि त्रयी ९९, १०३, १०५ पुराण ४ त्रिवेद १०१ पुरूरवा ९५ त्रिशङ्कु २३३ पुष्कराक्ष ११२ त्र्यक्ष ४४ पौल्कस ११५ दशरथ ४ प्रभाकर २८, ६९, ७९, ९०, १२४, १६३ दाल्भ्य १२० प्रभाकरटीका ११२ दिमाग ४०, १३७, १७९, २४४ प्रवर ४४ द्रोणपर्व ११३ प्रवरमत १८ धर्मकीर्ति ३९, ५६, ७६, १७९, २४५ प्राभाकर ४, २१, २३, २५ ४१, ६५, ७५, धर्मकीर्तिवार्तिक १३१ ७८, १११, ११९, १२६, १३०, धर्मोत्तर ३९, ५८, १३२, १३४, १३६ १४४, १५६, १६४, २५० नन्दिकुण्ड ४८ प्राभाकरटीका १०९ नन्दीश्वर २०९ प्राभाकरी टीका १७३ नहुष ४, २०९ प्रावर मत ६७ नाथवाद ७४, ११४ प्रावाहणि ९५ नारद ५० फलवेद ९९ नास्तिक ८२ बादरायणसूत्रवृत्तिकृत् ११२ निघण्टु १२४ बादरि१४२ निराकारज्ञानवादिन् ८, २२२ वुद्ध २४०, २४४ निरुक्त १२४ बृहस्पति ७५, २४७ निर्ग्रन्थ ११५ बौद्ध २५, ३९, ४१, ४४, ४९, ५१, ७८, नीलकण्ठ ९४ . ८९, ९३, ११३ १८५, २००, २१४, नैयायिक ३९, ११३, २१९ २३९, २४०, २४४ नैरात्म्यदर्शन २१६ बौद्धदर्शन ९ न्यायभाष्य ९४, १८४ बौद्धमत ९ न्यायभाष्यटीकाकृत् १६७ ब्रह्मवेद १०५ न्यायसूत्र १९८ भरत ४ टीका (बृहती) ६५ भर्तृमित्र ८६ पञ्चरात्र ११२, ११३, २४७ भर्तृहरि १८०, १८१ परमात्मोपादानत्ववादिन् २०८ भव ५४ परिणामवादिन् ८९ भट्ट ५६, ७३, ८९, ९१, ११०, १११. १३२, परः (बौद्धः) ४७ १६३. १६५, १६७, १७९, २३६, परैः ६० २४० पारिप्लवोपाख्यान १०१ भट्टनारायण (तृतीयदर्शनकर्तृ) १४१ पालक १७३ भाट्ट १०, ६६, १४५, १६४, २१७ पाशुपत ११२ भारत (महाभारत) ५०, ११२, २४७ पाशुपतमत २२५ भाविविक्त १९७ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. न्यायमञ्जरी ग्रन्थिभङ्गनिर्दिष्टानि ग्रन्थग्रन्थकारादिनामानि भाष्य ( न्याय - ) २३३, २३७, २३८ भाष्य ( महाभाष्य ) १७३ भाष्य (शावर) २४, ४२, ८०, ८१,९१, १४२ भाष्यकार ( न्याय - ) ६, ६८, २३२, २३७, २४४ भाष्यकार ( महाभाष्यकार ) १७२, १७७, १८० भाष्यकार ( शबर ) ९१, १२२, १२८ भाष्यकृत् ( न्याय - ) ६, ४४, २२६. २३१, २३२, २४२ भाष्यकृत् ( महाभाष्यकार ) १७६. भाष्यकृत् ( शबर) १०६. ११०, ११२, ११४, १४४, १५९ भाष्यविवरणकृत् ४४ भीष्म ४५ भृगु १०६ भृग्वङ्गिरा १०५ मेदवाक्यार्थवादिन् २०, १६५ भैरवतन्त्र ११३ मनु ३, १०९-११२, १७९, १९८, २४७ महाभाष्य १८१ महाविभाषाधिकार १७५ महेश्वर २२५ माध्यमिक २४० माण्डन १५६ मीमांसक ३५, ४४, ७६, ८६, ८८. ९४, १००, १०६, १०७, ११०, ११३, ११८, १८२, २२२, २३६, २३९, २४४ मीमांसकभाष्य ६६ मीमांसकभाष्यकृत् ९६ मीमांसा १४०, १४१ यजुर्वेद १०१ यास्क १६४ योगसिद्ध्यधिकरण १०४ योगाचारदर्शन ९ २४० रक्तपदर्शन ११५ राघव ९६ राजवार्तिककार ५९ राम ४ रामायण ५७ रावण ७८, ९६, २०२ राष्ट्रपालनाटक २४५ रुचिकार ४४ लोकायतसूत्र ४३ वसिष्ठ २३३ वार्तिक ( कात्यायनीय ) ४९, १७१, १७६ वार्तिक ( लोक०) २४, ४८ वार्तिककार ( न्याय) २४३ वार्तिककृत् ( कात्यायन) १७५, १७७ विज्ञानवाद १८२ विद्योद्देश ६ विश्वरूपटीका ५० विश्वामित्र २३३ विष्णु १, १३१ वृक्षायुर्वेद २०६ वृत्तिकार १८१ वृक्तिकृत् १७३ वेद ४, ६, ३३, ७६, ९२, ९९, १००, १०१, १०३, १०५ - १०८, ११२, १५२, २०२ वेदान्त १२९ २६३ वेदान्तवादिन् १३५ वैभाषिक ८, ९ वैभाषिकमत ९ वैयाकरण ७३, ८८, ९९, १७७, २०१ वैशेषिक ५८, ८९, १३१, १८६, २१४ वैशेषिकभाष्य १७७ व्याकरण ८४, ९७, ९८, १७०, १७८, १७९, २४८ व्याख्यातृ ४४ व्याख्यातृमत ४४ व्यास २, १२८, १४७ शङ्कर १ शङ्करवर्मन् १६७ शङ्ख २४७ शशाङ्कधर १, ५० Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ३. न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गनिर्दिष्टानि ग्रन्थग्रन्थकारादिनामानि शाक्य १३५ शाबर भाष्य ९७, ११६ शाब्द ( वैयाकरण ) ५५, ९७, १६७ शिखण्डी ४५ शिव ११३ शेष १८१ शैव ११०, ११५ शैवशास्त्र ११३, २१७ शैवादिशास्त्र ११२, २४७ शौनकोपाख्यान १.१ शौनः शेपाद्युपाख्यान ३० श्रुति २१९ संसारमोचक ११३ सङ्कर्षण ११२ सत्ताऽद्वैतवादिन् १३० सत्यवत् १९७ सर्वशाखाधिकरण १०३ साकारज्ञानवादिन् ९ साङ्ख्य १५, ४४, ६६, ८६, ८९, ११२, ११७, २१४, २२०, २३८, २४४ साङ्ख्यायन ११० सामवेद ९५ सामुद्रविद्या १४५ सावित्री १९७ सावित्र्युपाख्यान १९७ सीता ७८, ९६ सूक्तवाकनिगद २९ सूत्र (न्याय - ) ९३ सूत्र (पाणिनि - ) १७४ सूत्र ( मीमांसा - ) ९१, ९८, १५० सूत्र ( सांख्यकारिका २०४ सूत्रकार ( न्याय - ) १८७ सूत्रकृत् ( पाणिनि ) १७७ सौगत ११ सौत्रान्तिक २०८, २२३ सौरभ ११७ स्थापनावादिन् २४२, २४३ स्मृतिकार ०९ हरि ५०, २२० हरिश्चन्द्रोपाख्यान १०१ हस्तिशिक्षा १७३ हारित २४७ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गगता दार्शनिकशब्दाः अकार ८५ अनुभूतता ७९ अकृताभ्यागमदोष १९६ अनुभूयमानता ७९ अक्षर ५५, २२० अनुमान ६, १२, १८, ४०, ५१, ६५, ८७ 'अक्ष'शब्द ९७ अगृहीतविशेषणन्याय १८४ अनुमानविरोध ६३ अग्निचयन ११८ अनुमिति ८२ अग्निसंयोग २१९ अनुमेयता १७ अङ्गविधि ११८ अनुव्यवसाय १६३ अचेतनत्व १५ अनुसन्धातृ १८४ अज्ञान २३९, २४० अनूद्यमानत्व १६ अतव्यावृत्ति ११ अनैकान्तिक २३७ अतिशय ५८ अनौपयिक ५ अतीकाश १२० अन्तराभवशरीर १९६ अतीतकाल ६८ अन्यथासिद्ध २४१ अतीतता १९५ अन्वय ६४, ७२ अथर्वता १०६ अन्वयव्यतिरेकिन् २३० अथर्वयज्ञ १०४ अन्विताभिधान १६७, १६८ अथर्वविद् १०२, १०६ अपरोक्ष १८३ अथर्ववेदविद् १०५ अपेक्षाभाव ४२ 'अथर्व'शब्द १०२ अपोह १३२, १३४ अदृश्यता ३८ अपौरुषेय ७६ अदृष्ट ५२ अप्रतिपत्ति २४५ अदृष्टस्वलक्षणत्व ६५ अप्रमाण १४, ११२ अधिकारविधि १५०, १५१ अप्रामाण्य . अधिकारानुबन्ध १४७, १५३ अभाव ६, २४, ३६,४१, ६०,१११, २४६ अधिष्ठातृत्व ८३ अभावधर्म ६४ अध्यवसाय १२, १५ अभावनिश्चय ३८, ४१ अध्व ६८ अभावव्यवहार ११ अध्वध्यङ्ग्यकालवादिन् ६८ अभिधा १२६, १६८ अनारब्धकार्य ८५ अभिधानशक्ति ३३ अनित्यत्व ८०-८२ अभिधाभावना १४६ अनुकार २२० अभिनवत्व ९४ अनुदात्त ८५ अभिलाप ५३ अनुपलब्धि ३८, ३९, ४२, २४४ अभिहितान्वयपक्ष १६८ अनुबन्ध १४७ अभेदग्रहण १४, २१९ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ४. न्यामञ्जरीप्रन्थिमङ्गगता दार्शनिकशब्दाः अमेदप्रत्यय ९१ असत्त्व ५७ अभ्यास ५८ असभागसन्तति ८८ अघ्रि १२२ असम्प्रज्ञात ३ अयुतसिद्ध ३५ असमवायिकारण ४७ अर्थ १०, ७५ असाधु (शब्द) १६९, १७७, १७८ अर्थक्रिया १२, ७७ अहङ्कार १९९, २०५ अर्थक्रियाकारित्व १९१ अहीन १०३ अर्थक्रियाज्ञान ७७ अहेतुसम ४ अर्थप्रतीति १५, ७३ आकाश ३५, ९२ अर्थबुद्धि ७२ आकाशत्व ६६ अर्थवाद ११९ १४६, २१९ आकृति ५१, १३६, १३७ अर्थव्यवस्था ३३ आक्षेप ५९ अर्थाकारता ९ आगम ६, ४२, १०८ अर्थान्यथात्वज्ञान ७५ आचरण ४ अर्थापत्ति ६, २०, २४, ५१, १०१, ११ आचार्यकरणविधि १५१ अर्धजरतीय ९९ . आतप २१४ अर्वागदर्शन १२ आत्मा ११४, १८२-१८४, १९६-१९८, अवयव २२८ २०८, २११, २१३, २१६. २१७, अवयवव्यङ्ग्यत्व ६९ २१९, २३९, २४४ अवयवी २२३, २२५ आत्मज्ञान २१८ अवान्तरवाक्य १६४ आत्मसंज्ञा १८५ अवान्तरापूर्व १६३ आत्मसंस्कार २१८ अविचारकत्व १९१ आथर्वणत्व १०७ अविद्या १६०, १६१, २१९, २२२ आदेश १०२ अविनाभाव ५९ आधाराधेयसम्बन्ध ७५ अविनाभावनिश्चय १९० आधिक्य २४५ अविनाभावसम्बन्धस्मरण ६५ आध्वयंव ९६ अविनाभावस्मृति ६१ आनन्द १ अविरविकन्याय १७९ आन्यभाव्य १७१, १७२, १७९ अवेष्टि ९८ आन्वीक्षिकी ६ अव्यक्तयाग ५१ आप्त ९९, १००, अव्याकृत २१० आप्तग्रहण ४३, ७१ अश्राद्धभोजी १७५ आप्तवाद ७२ अश्वकर्ण १६० आभोग ५३ असकृत्प्रयोग ९१ आमन्त्रण १७४ असत् २०६ आरब्धकार्य ८५ असख्याति ७८ आरम्भण २१८ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___२६७ २६७ ४. न्यामञ्जरीप्रन्थिभङ्गगता दार्शनिकशब्दाः आर्ति २६, १०७ उपसर्जन ५ आर्य ९७ उपाख्यान ४ आर्षज्ञान ५८ उपात्तदुरितक्षय १५५ आलम्बमकारणता १८८ उपादान ६६, ६७ आलयविज्ञान २२४ उपादानकारण ८, २२२ आवरण २१६ उपादाननियम २०७ आवसथ्य-१०३ उपादेयत्व १५ आवृत्ति १६, १६३ उपाधि १३१ आशङ्का १११ उपासनादि २१८ आशय ८०, २०८ उभयज (ज्ञान) ५९ आशयशुद्धि ५ उभयपक्षव्यापी २३८ आश्रयाश्रयिभाव ९६ उभयपक्षकदेशवृत्ति २३७ आश्रितत्व ९२ उभाभ्य १७३ भास्रव २१६ ऊन १०४ इच्छा १४, १४८, १८४ ऊर्मिषदक २१० इतरेतराभाव ३६, ४२, ५५ ऊह २३३, २३४, २३५, २३६ इतिकर्तव्यता ८०, २३४ ऋक् १०६ इतिहास ४ ऋत्त्विकू १०४, १०५ इदंप्रत्ययता १९५ एककर्तृकता १८५ इन्द्र १२३ एककार्यकारित्व १३४ इन्द्रिय १९९, २०५, २१०, २२८ एककार्यता ७६ इन्द्रियगतिज्ञान ५८ एकवाक्यता २९, ३०, ७५ इष्टविघातकृत् ६३, ६४ एकविषयत्व १८ इष्टि १००, १०३, ११६ एकसामग्यधीनत्व ८ ईश्वर १, २, ८०, ८३, १००, १०८, २१०, एकाकार प्रत्यय ६७ एका भाव १७५, १७६ उत्पत्तिविधि १५१ एकाह १०३ उदात्त ८५ एकीकरण १४ उदाहरण २२९, २३० ऐतिह्य ६ उद्देश्यत्व १६ ऐश्वर्य १, ८४ उद्भित् १२४ औदुम्बरी १४३ उद्योग १४१ औद्गात्र ९६ उपचार १३० अंशनिष्कर्षपक्ष ५५ कथाविक्षेप २४५ उपदेश ७१ उपमान ५, १९, ६८, २२९ कपूयाचरण ११६ उपलब्धि ७१, २०२ करण ४६, ८५ उपलब्धिलक्षणप्राप्त ३८, २४४ -- कर्तृत्व १७५ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ४. न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गगता दार्शनिकशब्दाः कर्तृवैगुण्य ११६ कृतकत्व ६१ कब्रधिकरणत्व १७४ कृष्णकेशता १०९ कर्म २-४, ९,८०, ८३, १००, १०९, १२७, कैवल्य १२७ .१२८, १९६, १९७, २०९, २१३, कैवल्यावस्था २१२ २१४, २१७, २१८, २२३ कैतव १७ कर्मता ५१ कौण्डपायि २३४ कर्मप्रचय २१७ क्रम ३० कर्मवैगुण्य ११६ क्रिया ६६, ७३, १८० कर्मवैचित्र्य १९८ क्रियातुल्यत्व ६५ कर्मशब्द १४४ क्रियावाक्यार्थपक्ष १५३ कर्माधिकरणत्व १७४ क्रियाविमर्शन ६४ कल १७८ क्लेश ८०, २१५, २१७ कला १७८ क्षण ८, ११, १२, १९१, १९२ कल्प १०८ - क्षणपारम्पर्यप्रभव १२ कल्पनाज्ञान ५४ क्षणविवेक १२ कषाय १०९, १२९, २१८ क्षणिक १९० काकोदर १३ क्षणिकत्व ९३, १८५, १८९, १९०, १९२, काकोदुम्बर १३ १९३, १९५ कान्दिशीक १७०, १८१ क्षेत्रज्ञ ८३ काम्यकर्म ४ खलेकपोतन्याय १५१ 'काय'शब्द २४० गणेय १७०, १८१ कारक ७, २१, २५ गण्ड १७३ कारणाभाव ११२ गत्व ९० कारणाकारणविभाग २२७ गमकत्व ८१ कार्य ८६ गुण ४९, ६०, २०४, २२३ कार्यकारण ९६ गुणक्रिया २५ कार्यानुपलब्धि ३६ गुणत्व १५, ८६, २०१ कार्यानुमान १५९ गुणनित्यता ९० काल ६७, ६८, ८४ गुणविधिपक्ष १२५ काव्य ३२ गुणागुणक्रिया २५ काव्यसमस्या ९६ गोबलीवर्दन्याय १०५ किंज्ञ १०३ गोरथ १७५ कीर्ति ३ गोवृन्दारक १४६ कुरुकुची १९६, २१० गौण २८, ३३, २४१ ग्रन्थी १८९ कूटस्थ ११४ कृच्छब्द ४९ ग्राह्य १८२ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. न्यायमञ्जरीप्रन्थिभङ्गगता दार्शनिकशब्दाः २६९ प्राहकत्व ८ ग्राह्याकार १३४ घटाभाव २४३ घटंभूयत् १७३ घूकचटकन्याय १००, ११३ घ्राण ७१, २०२ चक्रक ७५ चक्षु ४३, १४५ चतुर्णिधन १०५ चलत्व ७७ चलवृक्षादिज्ञान २२६ चाण्डाल ११५ चिति ११४ चित्तसन्तान ११४ चिरस्थायित्वग्रह १० चीर्णम् १७६, १७७, १८० चोदना १०८ चैतन्य १८५, १९७, २२२ चोदना ५६ चौरस्वप्न ५८ छत्र १३ छन्दोमूलप्रयोग १८१ छन्दोभाषाप्रयुक्ति १८१ छल २४१ छाया २१४ जनिकर्तुः १७९ जन्मान्तर ५२ जाग्रत् २१०, २११, २१२ जाति ४९, ५१, ५४,६६,९०,१३५, १३७, १३८, १४०, २४२ जातिवाद ११३ जातिमत्त्व ९३ जिघृक्षा ५६ जीव २१२, २१३, २१४ जीवपुद्गल २१३ ज्ञातृत्व २१३ ज्ञातृव्यापार १० ज्ञान १, ८-१०, १५, ३३, ४१, ४७, ५४, ६१, ७३, ७७, ७९, ८४, १२८, १८२, १९३, २०२, २०७, २१७, २२२, २२३, २४५ ज्ञानग्राहक १० ज्ञानसन्तान ११४ ज्ञानसन्तानपक्ष २१३ ज्ञानवैचित्र्य २२४ ज्ञानाकार १० ज्ञापक ११५ ज्येष्ठसाम १०८ णिच् १४७ तत्व ६ तत्त्वज्ञान ४, ६, ५८ तत्प्रयोजकः १७९ तदुत्पत्ति ६१ तन्त्र १६ तमस् ११५ तर्क ५, ६, २३३ तात्पर्यशक्ति ३३, ३४, १२६, १६८ तादात्म्य ६१ तामरस ९८ तारतम्य ५७ तितउ ७९ तुर्यातीत २१२ तुर्यावस्था २१०, २११, २१२ तूपर ११८ तृष्णा २१७ त्रयीगतभ्रेष १०५ त्रिक १६ त्रितयप्रतिभास १८३ त्रेता १०३ त्रैवर्णिक १११-११३ त्वगिन्द्रिय ४३ त्वप्रत्यय ४९ दधिघट १७५ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ४. न्यायमञ्जरीप्रन्थिभङ्गगता दार्शनिकशब्दाः दर्शन १२, १४, १५, ३९, १३३, १३६ नियोगभावनावादिन् ७४ दिक् ६७, ६८, ९२ निर्णय २४२ दूरान्तिकवृत्तिता ३० निर्बीजसमाधि ४ दृष्टान्त २३० निर्विकल्पक १५, ४९, ५५ दृष्टि १८९ निर्विचिकित्स ७७ देवयजन ११८ निषेध १४९ दोष ७६ निष्कम्प ७७ दोषज्ञान ७६ निष्प्रतिकाश ५८ द्रव्य ४९, ६०, २२८ नीतिशास्त्र ६ द्रव्यत्व ९१ नेम ९८ द्रव्यारम्भकत्व ७ नैष्ठिक १०२ द्वादशाह १०५ नोपसर्जन ५ द्विचन्द्रज्ञान ५१, ७५, ७६ न्याय ६ धर्म ६, ३०, ३१, ५७, १०२, ११७ न्यायप्रवृत्ति ५ धर्मप्राप्ति ३१ पक्ष ५९ धर्मविशेषविपरीतसाधन २३८ पङ्क्तिपावन १०७ धर्मस्वरूपविपरीतसाधन २३८ पञ्चाग्नि १०२ धर्मिविशेषविपरीतसाधन २३८ पञ्चावयव २३२ धर्मिस्वरूपविपरीतसाधन २३८ पदज्ञान १६६ धातुसंज्ञा १८० पदार्थतत्त्व १२ धारावाहि १० पदाभास २४० ध्यान ४ पदासिद्ध २४० ध्वनि ३२ परकृति ९४, १२० नानार्थता ९७ परमाणु २०८, २०९, २१५, २१९, २२५, नामधेय २१८ २३९, २४० नास्तितानिश्चय ४२ परमात्मन् ८३, २२२ निगम १२४ परलोक ८२, ११८, १९४ निग्रहस्थान २४३, २४६ परवल्लिजता ५३ नित्य ३६, ११४ परस्परपरिहार १९४ नित्यकर्म ४, २१७ परामर्श ४४, ४५, ५९, ७८, ७९, ९० निन्दा ९४, ११५ परामर्शज्ञान २०७ निमन्त्रण १७४ परिभाष्यकथा २४५ निमित्तकारण ४७ परिमाण ५७, २०४ निमित्तनैमित्तिक ९६ परिशेषानुमान १५९ नियम ३ पर्युदास १४ नियोग २५, २७, २८,३०,७४, ९७, १२८, पवमान १०५ १४०, १४७, १५०, १५२-१५४, २०० .पशु १०३ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. न्यायमञ्जरीग्रन्थिमङ्गगता दार्शनिकशब्दाः २७१ पश्यना २४० प्रत्यक्चैतन्यात्मा २२० पश्यन्ती १६२ प्रत्यक्ष १८, ३९, ४०, ४४, ४८, ४९, ५२, पाकज ४७ ५३, ५५-५८, ८७, ८८, १११, पाकजोत्पत्ति ८९ १३०, १८३, २२८ पाचकत्व १७८ प्रत्यक्षलक्षण २२६ पात्रचय ७४ प्रत्यगात्मवृत्ति २२२ पाश २१७ प्रत्यभिज्ञान ८७, ८८, ९१ पाशारज्जु १८५ प्रत्यय ७२, १४४, १४५, १४३, १०५ पिक ९८ प्रत्यायकत्व ९७ पिठरपाकवादिन् १८६ प्रत्याय्यप्रत्यायकत्व १६५ पुण्य ११९ प्रत्यावृत्ति १६४ पुत्रेष्टि ४ प्रथमयज्ञ १०३ पुमान् ९० प्रदर्शितप्रापकत्व १८ पुराकल्प ९४, १२० प्रधान २०४, २०५, २०८, २२०, २४६ पुरुष ७६, २०५, २१२, २१३ प्रधानक्रिया २५ पुरुषविशेष १११ प्रधानत्व १६ पुरुषार्थ ४, १४५ प्रध्वंस ८१ पूर्णकामत्व २ प्रपञ्चकथा २४५ पूर्णाहुति ११८ प्रपञ्चप्रविलय १२८, १२९, १४१ प्रमा ७ पृष्ठ्य १०५ प्रमाण ४, ६-८, १४, १५, ३०, ३३, ३९, पोषध २४० ४६, ४८, ६२, ६९,७१, ७८, १८९, प्रकरण २९, ३०, ३२, २४२ १९१, १९३, २२८ प्रकृति २३, २५, ७२, १४४, १४५, १७३, प्रमाणफल ४५, १६, १९३ प्रमाणान्तरदर्शन ७५ प्रतिकर्मव्यवस्था १९३ प्रमाणोद्देश ६ प्रतिज्ञा २२८, २३१, २३२ प्रमाता . प्रतिज्ञाहेतुविरोध २४४ प्रमेय ४६ प्रतिनिधि ७० प्रमेयानुप्रवेशिता १९ प्रतिपत्तिकर्मता २७ प्रमोषाभाव १० प्रतिबन्ध १२, ११ प्रयत्न २, ८५ प्रतिभा ५८,६४, १५७ प्रयोगवचन १५० प्रतिभास १५, ४० प्रयोगविधि १५० प्रतिभास्यत्व १० प्रवृत्ति १६, ११४, १४८ प्रतिसन्धान १८५, २२८ प्रवृत्तिविज्ञानसन्तान २२४ प्रतीत्यसमुत्पादवादिन् २२० प्रवृत्तिविषय ११ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ ४ न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गगता दार्शनिकशब्दाः प्रवृत्तिशक्ति २०३ प्रसज्यप्रतिषेध १४ प्रस्तरण ११८ प्रागभाव ४२, ८१ प्राम्भाविकर्म ११६ प्राचुर्य १ प्राण २१० प्रातरनुवाक १२३ प्रापक १५ प्रापकत्व ११ प्रापणशक्ति ११ प्राप्ति १४ प्राप्यक्षण ११ प्रामाण्य ९, ११, ७५, ७६, ७७, १०१, २३२ प्रेरणा १४६ प्रैषानुवचन ५० प्लुत ८५ फल ३, ४, ७, ८, ४८, १२१, १२२, १५४, १५५, २१७ बाधा ५९ बाह्य २२२, २२३ बाह्याकार ७८ बाह्याध्यवसाय ११ बीजोपघात ११६ बुद्धि १८, ७१, ८९, १३४, २०१-२०३, २०५, २०७, २२२ बुद्धिधर्म २३३ बुद्धिवृत्ति १५ बोध १५ ब्रह्म ५५, १०१, १२८, २१९, २२० ब्रह्मचर्य १०७ ब्रह्मत्व १०५ ब्रह्मयज्ञ १०२ ब्रह्मविद् ५५ ब्रह्मस्तम्ब १, २, ब्रह्मा १०२ ब्रह्मौदन १०४ ब्राह्मण ९८, १०२, १०९, ११५ ब्राह्मणवाक्य १०६ ब्राह्मणावगूरणा ४ भविष्यत्ता १९५ भाव ६०, २४६ भावधर्म ६४ भावना ५७, ७४, १२८, १४३, १५६ भावशब्द १४४ भाविकालसत्त्व ५८ भाषाप्रयोग १८१ भुव १०७ भूत २१० भूतग्राम १ भूः १०७ भृग्वशिरोमन्त्र १०५ भृग्वशिरोविद् १०४ भेद २०, ५५, ७३, ७४ भेदग्रहण २१९ भेदप्रतीति ९० मेदप्रपञ्च २२२ मेदबुद्धि ८९, ९१ भेदाग्रह १३४ मेदाग्रहण १४ भ्राजिष्णु १७०, १८१ भ्रान्ति १३० मणिप्रभामणिबुद्धि १२ मत्वर्थीयप्रत्यय ४९ मध्यमा १६२ मनस् ५२, २३१ मनस्कार ५४ मन्त्र १०९ मयट १ महत् २०२ महायज्ञ १२९ महावाक्य १६४ माया २२० मातृमोदकन्याय १६० Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांस्पाक १९८ मिथ्याज्ञातृत्वादि २१३ मिथ्याज्ञान १२, ७७ मिथ्याधी ७७ मुक्ति २१७ मूर्त २०८ मेचक ३५ मोक्ष ११४, २१३, २१४, २२५ म्लेच्छ ९७, ९८ यजुः १०६ यशोपयोगित्व १०१ यत्नसाध्यद्वय १३ यम ३, १९७ 'यव' शब्द ९७ यागभैषज्य १०५ यातयाम १०४ योग ३ योगसमाधि ३ ४. न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्गगता दार्शनिकशब्दाः वध्यघातकन्याय २०७ वराह १२४ वरेण्य १७०, १८१ योगसिद्धि १०४ योगिज्ञान ५८ योगाङ्ग ३ योग्यता ३५, ४७ योनि ९६ योनिव्यापाद १२६ रज ११५ राजन्य ९८ 'राज' शब्द ९० रूप १३० रूपज्ञान ४८ रूपबुद्धि १३० लक्षणा ३३, ३४, २४१ लाक्षणिक २८ लाक्षणिकविरोध ४० लिङ्ग २४, २८, २९, ३० लिङ्गदर्शन १३ लेकि ६१ लोट् १४७ ३५ वर्ण ७१, ८५, ९०, १५८, १५९, १६४ वर्तमान ६८ वर्तमानता १९५ वर्तमानताध्यवहार १९६ वस्त्यन्तर भावसंवित्ति ३६ वाक् १०२ याकूतत्त्वं ५५ वाक्य २१, २९, ३०, ६८, ७१, ७४, १११, १७५ वाक्यज्ञान १०३ वाक्यमेद २७, २१ वाक्यशेष ७९ वाक्यार्थ २०, २१, २६, ३३, ३४, ७४, १५७ १६६, १६७ २७३ वागिन्द्रिय २०१ वाचक ४८ वाचकशक्ति १९ वाचारम्भण २१८ वाच्यवाचक ३२ बाच्यार्थ ३२ वातरशना ११५ वाद ५, २३७ वार्ता ११६ वायुभक्ष ११५ वासना ११, ७८, १८८, २२३, २२४ विकल्प ११, १६, १७, ३९, ४१, ५५, ७५, १३०, १३१, १३३, १३४, १३६ विकार ६७, २१८, २२०, २२२, २३८ २४४, २४६ विकृति १३, २५, ३१ विखर १६२ विचिकित्सा ११४ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ ४. न्यायमञ्जरीप्रन्थिमङ्गगता दार्शनिकशब्दाः विज्ञप्ति २४० विवर्तलक्षण २२० विज्ञान ७८, १९३ विविक्तता ३९ विज्ञानसन्तान २२४ विशेषगुण ११४ विज्ञानस्कन्ध १८७ विशेषण १४३ वितण्डा २३७ विशेषणज्ञान ६ विद्या २१९ विशेषदर्शन ७७ विधि ३१, ५७, ६९, ११४, १२१, १२५, विशेषबुद्धि ८९ १४६, १४७, १४९, १५० १७४ विशेषविधि २३० विधिवाक्य ४ विषय ९ विधेयत्व १५ विषयनिर्भास १५ विध्यनुबन्ध १४७ विषयानुबन्ध १४७ विध्यन्त २३, ६९ विसदृशोत्पाद ८ विनाश ८८ वीतरागत्व ५ विनाशधी ९१ वृत्ति १५, ४४ विनियोग २७ वेतस १२४ विनियोगविधि १५१ वेदप्रामाण्य ६, ११३ विपक्ष ५९ वेदब्रह्मचर्य १०७ विपक्षव्यापी २३७ वेदमूलत्व ११०, १११ विपक्षकदेशवृत्ति २३७ वैखरी १६२, २२२ विपरिणामित्व २२० वैश्य ९८ विपरीतख्याति १०, ७९ वैहारिकी १०८ विपरीतलक्षणा ३३, ३४ व्यक्त २०८ विपरीतसमारोपव्यवच्छेद ६० व्यक्ति १४० विपाक ८० व्यञ्जकता ३२ विपर्यय २३९, २४० व्यञ्जकत्व २००, २०१ विप्रतिपत्ति २२८ व्यञ्जन ८५ विप्रतिषेध २४३ व्यतिरेक ६४, ७२ विभक्त ३१ व्यभिचारिता ७७ विभाग २२७ व्यवसाय १४ विभागजविभाग २२७ व्याकरणप्रामाण्य १८१ विराट् २१० व्यापकानुपलब्धि ३७, १९० विरिष्ट १०४ व्याप्ति २४, २५, ६६, २३२ विरुद्ध ६४, २३८ व्याप्तिग्रह २४, १८९, १९० विरुद्धव्याप्तोपलब्धि ३७ व्याप्यव्यापकभाव ८१ विरुद्धाव्यभिचारिता ६३ व्यावृत्ति ५५ विरुद्धाव्यभिचारी ६० व्याहृति १०७ विवर्त ५४, ९९ व्युत्पत्ति ९९ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. न्यायमजरीप्रन्थिमङ्गगता दार्शनिकशब्दाः २७५ व्रत १२९ शक्ति ४५, ६३, १३६, २२२ शक्तिविज्ञानसन्तान २२४ शब्द ३३, ३६, ४१, ४९-५१, ७२, ७३, ७५, ४४-८८, ९१, ९२, ९७, ८०, १३९, १५९, १६१, १६५, १७०, १७७-१७९, १८१, २१४, २१५ २२१ शब्दपरमाणु ८७ शब्दपुद्गल २१३ शब्दबुद्धि ७२ शब्दब्रह्म ९९, १६०, २२२ शब्दरूपता ५५ शब्दसंसर्ग ५३ शब्दाध्यास ५० शब्दार्थ ९७ शब्दार्थसम्बन्ध ८४ शमिता ९२ शरीर ८९, १८२-१८६, २०५, २०६ शाखान्तरप्रसिद्ध ९५ शाखान्तरविहितसापेक्षता ९५ शाब्द (प्रमाण) ७६ शाश्वितिक १ शास्त्रार्थः ४ शिष्टविगर्हणभय २१० शिशपाचोद्य २०२ शुक्र १०५, १०७ शेष २१ शेषत्व १४३ शेषभाव १४२ शेषवाचोयुक्ति २७ शेषशेषिभाव २८ शैवादि १५ शोभा १७६, १७७, १८० श्येनयाग ११४ श्रामण्यम् ११५ श्रूति २८, ३०, १०९ श्रुतिकल्पन २०, २१ श्रोत्र ८६, ८७, ९१, ९२, १९९ श्रोत्रवृत्ति ८६ सकृत्प्रयोग १०४ सङ्कलनाज्ञान १५० सङ्कल्प २, ३, सङ्केतस्मरण १६६ सङ्कोच १०४ सङ्ख्यैकान्त २२० सत् २०६ सत्कायदर्शन १८९ सत्कार्यवाद ६७ सत्ता ६०, ९१, १३० सत्तासम्बन्ध ४९ सत्त्व ११५, १९१ सत्र १००, १०३ 'सत्' शब्द ५७ सदाचार ११० सदूपता ५५ सन्तान ८, ११, १२, १८, १८८, १९६ सन्तानाध्यवसाय ११ सन्निकर्ष ४६ सन्निपत्यजनकत्व ७ सपक्ष ५९ सपक्षव्यापी २३७ सपक्षकदेशवृत्ति २३०, २३७ सबीजसमाधि ३ सभागहेतु ८ सभ्य १०३ समनन्तरप्रत्यय ५४, २२३ समवाय ३५, २१३ समवायिकारण ४७, २२७ समवायित्व १३० समाख्या ३० समाधि ३, ४ सम्प्रज्ञान ३ सम्प्रदाय १०६ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ४. न्यायमञ्जरीग्रन्थिमङ्गगता दार्शनिकशब्दाः सम्बन्ध ५१, ९६ सुखादि ४७ सम्बन्धग्रह ६६ सुखज्ञान ४७ सम्यक्त्व ७७ सुख-दुःख-संवेदन २ सम्यग्ज्ञान ७७ सुषुप्तावस्था २१०, २११, २१२, २१७ सर्वज्ञ ८३, २३९ सोमग्रह १६३ सवन १२२ सोमपानाधिकार १०१ सविकल्पक १५, ५३ संक्षोभ ५६ सविकल्पकज्ञान ४८, ५० संघात ६३ सविल्पकप्रत्यक्ष ४९ संज्ञाकर्म ५१ ससंरम्भावस्था १० संज्ञित्व ४८ सहकारिकारण ८ संदिग्धविपक्षवृत्ति ५९,६० सहचरणादि ३४१ संदेह २३९, २४० सहभूहेतु ८ संप्रयोगे ५७ साकारत्व १९३ संभव ६ सादृश्य ६८, ६९, ७७, ८४, ९०, ९१ संयुक्तसमवाय ३५ सादृश्यबुद्धि ९० संयोग २२७ साधनवैगुण्य ११६ संवित् १ साधर्म्य ६८ संवृति १३ साधु (शब्द) १६९ संव्यवहारमात्र २२० साधुत्व (शब्दस्य) १७७, १७९ । संशय ५-७, ७७, २२६, २२७ साम १०६ संसर्ग २०, ७३, ७४ सामग्री ७ संसर्गवाक्यार्थपक्ष १६५ सामानाधिकरण्यभ्रम ७८ संसार १००, २१३, २१४, २१९ सामान्य १२, ४०, ४९, ५०, ५५, ६६, संस्कार १५९, १८७ ६५, ७२, ९०, १३०, १३४, २२३, संस्कार्यत्व २१८ २२६ संस्था ५८ सामान्यतोदृष्ट ६६ 'सं'शब्द ५६, ५७ सामान्यप्रत्यय १६० स्कन्ध २१४ सामान्यलक्षण ४८ स्तम्ब ३ सामान्यविकल्प ६७ स्तवरक ८३ सारूप्य ६७ स्तुति ९४, ११९, १२. सिद्ध २४० स्त्री ९५ सिद्धसाध्यत्व २४४ स्थान ८५ सिद्धान्त २२८ स्थावर ३ सिद्धार्थ २१९ स्पष्ट ७७ सिद्धि १४१, १५४ स्फोट, ३२, ७१, १५८, १५९, १६३ सुख ४८, ८४, २१० स्मरण ४५, ५४, ७९ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ ४. न्यामञ्जरीग्रन्थिभङ्गगता दार्शनिकशब्दाः स्मृति १०, ४४, ५२, ९४, १००, १००. स्वभावानुपलब्धि ३६ ११२, १९४ स्वलक्षण १७, १८, ४०, ५५ स्वतः प्रामाण्य ७६ स्वाध्याय १२९ स्वम २१०, २११, २१२ स्वार्थनिष्ठता ८३ स्वप्नादिज्ञान ५७, ७९ स्वार्थानुमान ५ स्वप्रकाश २२३ स्वसंवदेन २ स्वर् १०७ हिंसा १००, ११४ स्वराट् १५ हुंकृति २१७ स्वरित ८५ हेतु ६४, ७३ स्वरूपनिष्ठ ४ हेतुरूपग्रह' ४६ स्वर्ग १४२ हेत्वर्थस्वरूपासिद्धता २४० स्वभावविरुद्धकार्योपलब्धि ३७ हेत्वाभास २३७, २४५, २४६ स्वभावविरुद्धोपलब्धि ३७ होतृ १२२ स्वभावहेतुता ६१ दौत्र ९६ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LALBHAI DALPATBHAI BHARATIYA SANSKRITI VIDYA MANDIR L. D. SERIES S. NO. Name of Publication Price Rs. 41 50/ 10/ 40/ *I. Sivāditya's Saptapadārthi, with a Commentary by Jinavardhana Sūri. Editor : Dr. J. S. Jetly. (Publication year 1963) 2. Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts : Munirāja Shri Punyavijayaji's Collection. Pt. I. Compiler : Munirāja Shri Punyavijayaji. Editor : Pt. Ambalal P. Shah. (1963) 3. Vinayacandra's Kavyasikşā. Editor : Dr. H. G. Shastri (1964) 4. Haribhadrasūri's Yogašataka, with auto-commentary, along with his Brahmasidhāntasamuccaya. Editor : Muniraja Shri Punyavijayaji. (1965) 5. Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts, Muniraja Shri Punyavijayaji's Collection, pt. II. Compiler : Munirāja Shri Punyavijayaji. Editor : Pt. A. P. Shah. (1965) 6. Ratnaprabhasüri's Ratnakaravatārika, part I. Editor : Pt. Dalsukh Malvania. (1965) 7. Jayadeva's Gitagovinda, with King Mānānka's Commentary. Editor : Dr. V. M. Kulkarni. (1965) 8. Kavi Lavanyasamaya's Nemirangaratnākarachanda. Editor : Dr. S. Jesalpura. (1965) 9, The Nātyadarpaņa of Ramacandra and Guņacandra : A Cri. tical study : By Dr. K. H. Trivedi. (1966) 10. Ācarya Jinabhadra's Višeşāvašyakabhāşya, with Auto-commen tary, pt. I. Editor : Dalsukh Malvania. (1966) 11. Akalanka's Criticism of Dharmakirti's Philosophy: A study By Dr. Nagin J. Shah. (1966) 12. Jinamanikyagaņi's Ratnakaravatārikadyaslokasatarthi. Editor: Pt. Bechardas J. Doshi. (1967) 13. Ācārya Malayagiri's Sabdānušāsana. Editor : Pt. Bechardas (1967) 14. Ācārya Jinabhadra's Višeşāvašyakabhāşya with Auto-commen tary. pt. II. Editor : Pt. Dalsukh Malvania. (1968) 15. Catalouge of Sanskrit and Prakrit Manuscripts : Muniraja Punyavijayaji's Collection. Pt. III. Compiler : Muniraja Shri Punyavijayaji. Editor : Pt. A. P. Shah. (1968) • Out of print 30/ 15/ 30/ 30/201 30/ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 101 - 32/ 30/ 10/ 40/ 21/ 12 16. Ratnaprabhasuri's Ratoækaravatarika, pt. II. Editor : Pt. Dalsukh Malvania. (1968) 17. Kalpalatāviveka (by an anonymous writer). Editor : Dr. Murari Lal Nagar and Pt. Harishankar Shastry. (1968) 18. Āc. Hemacandra's Nighaṇtuseșa, with a commentary of Ŝri vallabhagani, Editor : Munirāja Shri Punyavijayaji. (1968) 19. The Yogabindu of Ācārya Haribhadrasūri with an English Translation, Notes and Introduction by Dr. K. K. Dixit. (1968) 20 Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts : Shri Ac. Devasuri's Collection and Ac. Kşāntisüri's Collection : part. IV. Compiler : Muniraja Shri Punyavijayaji. Editor : Pt. A.P. Shah. (1968) 21 Ācārya Jinabhadra's Višeşāvašyakabhāşya, with Auto.Commen tary, pt. III. Editor : Pt. Dalsukh Malvania and Pt. Bechardas Doshi, (1968) 22 The Šāstravārtāsamuccaya of Ācārya Haribhadrasuri with Hindi Translation, Notes and Introduction by Dr. K. K. Dixit. (1969) 23 Pallipala Dhanapala's Tilakaman jartsāra Editor : Prof. N. M. Kansara. (1969) 24 Ratnaprabhasūri's Ratnākaravatārikā pt. III. Editor : Pt. Dalsukh Malvania, (1969) 25 Āc. Haribhadra's Neminähacariu : Editors : Shri M. C. Modi and Dr. H. C Bhayani. (1970) 26 A Critical Study of Mahāpurāna of Puşpadanta. (A Critical Study of the Desya and Rare words from Puspadanta's Mahapuraņa and His other Apabhramsa works), By Dr. Smt. Ratna Shriyan. (1970) 27. Haribhadra's Yogadrstisamuccaya with English translation, Notes Introduction by Dr. K. K Dixit (1970) 28. Dictionary of Prakrit Proper Names, Part 1 by Dr. M. L. Mehta and Dr. K. R. Chandra. (1970) 29. Pramāņavārtikabhasya Karikārdhapadaşūci. Compiled by Pt. Rupendrakumar. (1970) 30. Prakrit Jaina Katha Sahitya by Dr. J. C. Jain. (1971) 31. Jaina Ontology. By Dr. K., K. Dixit (1971) Following are in the press : (1) Nemināhacariu Part II (2) Madanarekha Ākhyāyikā. (3) Adhyātmabindu. (4) Dictionary of Prakrit Proper Names. Part II, (5) Sanatkumāracariu, 40/ 301 8/ 32/ 81 10/30/ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. 2. The Railway frieght and cost of packing shall not be charged from those placing at a time an order amounting to Rs. 1,000 or more. १. 3. Those whose purchases for full one year ( 1st April to 31st March) amo unt to Rs. 5,000 or more shall at the end of the year get an additional discount of 5% while those whose purchases for that period amount to Rs. 10,000/- or more shall get an additional discount of 10% over and above the discount mentioned in rule 1 above. This amount will not be paid in cash but will be adjusted against the bill or bills of the next year. २. 3 4. The payment should be made within a month after the presentation of the bill. ३. Terms Regarding Sale ( in force from 1st April 1971 ) Book-sellers shall ordinarily receive a discount of 25% on all the publications of L. D. Series. ४. बिक्री के नियम (१ अप्रैल १९७१ से ) पुस्तक-विक्रेताओं को ला. द. ग्रन्थमाला ( L. D. Series) के प्रकाशनों पर साधारणतः २५ प्रतिशत कमीशन दिया जायगा । आर्डर पर रेलभाड़ा तथा पैकिंग नहीं वर्षभर (१ अप्रैल से ३१ मार्च) में ५,००० रु० या इससे अधिक की पुस्तकें खरीदने पर नियम १ में उल्लिखित कमीशन के अतिरिक्त ५ प्रतिशत अधिक और १०,००० रु० या इससे अधिक की पुस्तकें खरीदने पर १० प्रतिशत अधिक कमीशन वर्ष के अन्त में दिया जायगा। इस कमीशन की रकम नगद नहीं दी जायगी किन्तु आगामी वर्ष के बिल या बिलों में से काट दी जायगी । बिल भेजने के बाद एक मास की अवधि में पेमेन्ट हो जाना चाहिए । १,००० रु० या इससे अधिक के एककालिक लिया जायगा । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Interna l