Book Title: Kavivar Boochraj Evam Unke Samklin Kavi
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय पुष्प कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि [ संवत् १५६१ से १६०० तक होने वाले पाँच प्रतिनिधि कवि बुचराज, खीहल, चतुरूमल, गारवदास एवं ठक्कुरसी का जीवन परिचय, मूल्यांकन तथा उनकी ४४ कृतियों का मूल पाठ ] लेखक एवं सम्पादक डॉ० कस्तुरचन्द कासलीवाल श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी, जयपुर Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी जयपुर, एक परिचय जैन कवियों द्वारा हिन्दी भाषा में निबद्ध कृतियों के प्रकाशन एवं उनके मूल्यांकन की प्राज अतीव भावश्यकता है। देश के विश्व विद्यालयों एवं शोध संस्थानों में जैन हिन्दी साहित्य को लेकर जो शोध कार्य हो रहा है तथा शोधाथियों में उस पर शोध कार्य की मोर जो झाँच जाग्रत हुई है वह भाप उत्साहवर्धक है लेकिन अभी तक हिन्दी साहित्य के इतिहास में जन कवियों को नाम मात्र का भी स्थान प्राप्त नहीं हो सका है और हमारे अधिकांश कवि प्रजात एवं अपरिचित ही बने हुए है। अभी तक जैन कवियों की कृतियां ग्रन्थागारों में बन्द हैं सथा राजस्थान के मास्त्र भण्डारों को छोड़कर अन्य प्रदेशों के भण्डारों के तो सूची पत्र भी प्रकाशित नहीं हुए हैं । देश की किसी भी प्रकाशन संस्था का इस ओर ध्यान नहीं गया और न कभी ऐसी किसी योजना को मूर्त रूप दिये जाने का संकल्प ही व्यक्त किया गया। क्योंकि अधिकांश विद्वानों एवं साहित्यकारों को हिन्दी जैन साहित्य की विशालता की ही जानकारी प्राप्त नहीं है। स्थापना- इसलिए सन् १९७६ वर्ष के अन्तिम महिनों में जयपुर के विद्वान मित्रों के सहयोग से 'श्री महावीर अन्य प्रकादमी' संस्था की स्थापना की गयी जिसका प्रमुख उद्देश्य पञ्चवर्षीय योजना बनाकर समस्त हिन्दी चन साहित्य को २० भागों में प्रकाशित करने का निश्चय किया गया। इन भागों में ६० से अधिक प्रमुख जैन काबयों का विस्तृत जीवन परिचय, उनकी कृतियों का मूल्यांकन एवं प्रकासन का निर्णय लिया गया । हिन्दी अन साहित्य प्रकाशन योजना के अन्तर्गन निम्न प्रकार २० भाग प्रकाशित किये जायेंगेप्रकाशन योजना : १. महाकवि मा रायमल्ल एयं भट्टारक त्रिमुवनकीति (प्रकाशित) २. फबिबर बृजराज ए उनके समकालीन कवि (प्रकाशित) ३. महाकवि ब्रह्म जिनदास एक भ० प्रतापकीर्ति (प्रकाशनाधीन) ४. बिबर बीरचन्द एवं महिवन्द ५. विद्याभूषण, शानसागर एवं जिनदास पाण्डे ६. ब्रह्म यशोधर एवं भट्टारक ज्ञानभूषण ७. भट्टारक रलकीत्ति, कुमुदचन्द एवं समयसुन्दर ८. कवियर रूपचन्द, जपजीवन एणं ब्रह्म कपूरचन्द Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (iv) ६. महाकवि भूधरवास एमं बुलाकीदास १०. बोधराज गोदीका एवं हेमराज ११. महाकवि द्यानतराय ए आनन्दधन १२. पं. भगवतीदास एणे भाउ कार्य १३. कबिदर खुशालचन्द काला एगे अजय राज पाटनी १४. कविवर किमानसिंह, नयमल बिलासा एवं पाण्डे लालचन्द १५. कविवर बुधमन एवं उनके समकालीन कवि १६. कविवर नेमिचन्द्र एवं इर्षकीत्ति १७. मन्या भगवतीदास एवं उनके समकालीन कवि १८. कविवर दौलतराम एक अत्तदास १६. मनराम, मना साह एवं लोहट कवि २०. २० वीं शताब्दी के जैन कवि उक्त २० मागों को प्रकाशित करने के लिए निम्न प्रकार एक पम्सवर्षीय योजना बनाई गयी हैवर्ष पुस्तक संख्या १६७८ १६७६ १६८० १९८१ १९८२ उक्त योजना के मन्तर्गत अब तक पांच गाग प्रकाशित हो जाने चाहिए थे लेकिन प्रारम्भिक एक वर्ष योजना के क्रियान्वय के लिए प्राधिक साधन जुटाने में लग गया मोर सन् १९७८ में तीन पुस्तकों के स्थान पर केवल एक पुस्तक महाकवि ब्रह्म रायमल्ल एवं भट्टारक त्रिभुवनकोत्ति" का प्रकाशन किया जा सका । प्रस्तुत पुस्तक "कविवर बूचराज एतं उनके समकालीन कवि" उसका दूसरा पुष्य है । इस वर्ष कम से कम दो भाग भोर प्रकाशित हो सकेंगे। भाषिक पत्र-भकादमी का प्रत्येक भाग कम से कम ३० पृष्ठों का होगा । इस प्रकार प्रकादमी करीब ६ हजार पृष्ठों का साहित्य प्रथम पांच वर्षों में अपने सदस्यों को उपलब्ध करावेगी। पूरे २० भागों के प्रकाशन में करीब दो लाख रुपये ग्यय होने का अनुमान है। योजना का प्रमुख माथिक पक्ष उसके सदस्यों द्वारा प्राप्त शुल्क होगा। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (v) सदस्यता-प्रकादमी के दो प्रकार के सदस्य होंगे जो संचालन समिति के सदस्य एवं विशिष्ट सदस्य कहलायेंगे। संचालन समिति के सदस्यों की संख्या १०१ होगी जिसमें संरक्षक, मध्यम, कार्याध्यक्ष, उपाध्यक्ष एवं निदेशक के अतिरिक्त शेष सम्माननीय सदस्य होंगे। संचालन समिति का संरक्षक के लिए ५००१) रु०, अध्यक्ष एवं कार्यकारी अध्यक्ष के लिए २५०१) रु०, उपाध्यक्ष के लिए १५०१) रु० तथा निदेशक एवं सम्माननीय सदस्यों के लिए ५०१) रु. प्रकादमो को सहायता देना रखा गया है। विशिष्ट सदस्यों से २०१) रु. लिये जावेंगे । सभी सदस्यों को अकादमी द्वारा प्रकाशित होने वाले २० भाग मैंट स्वरूप दिये जावेंगे । अब तक अकादमी की संचालन समिति के पदाधिकारियों सहित ४५ सदस्यों सथा १२५ विशिष्ट सदस्यों की स्वीकृति प्राप्त हो चुकी है। मुझे यह सूचित करते हुए प्रसन्नता हैं कि समाज में साहित्य प्रकाशन की इस योजना का मच्या स्वागत हुप्रा है। पदाधिकारी ... अकादमी के प्रथम संरक्षक समाज के यूवक नेता साहु प्रशोक कुमार जग है जिनसे समाज भली भांति परिचित है। इसी तरह प्रकादमी के अध्यक्ष श्री सेठ कन्हैयालाल जी पहाडिया मद्रास वाले हैं जो अपनी सेवा के लिए उत्तर भारत से भी अधिक दक्षिण भारत में अधिक लोकप्रिय हैं । उपाध्यक्ष के रूप में हमें अभी सके सात महानुभावों की स्वीकृति प्राप्त हो चुकी है। सभी समाज के जाने माने व्यक्ति हैं और अपनी उदार मनोवृत्ति तथा साहित्यिक प्रेम के लिए प्रसिद्ध हैं। उपाध्यक्षों के नाम हैं : सर्व श्री गुलाबचन्द जी गंगवाल, रेनवाल (जयपुर) श्री अजितप्रसाद जी जैन ठेकेदार (देहली), श्री कमलबन्द जी कासलीवाल जयपुर, श्री कन्हैयालाल जी सेठी जयपुर, श्री पवमचन्द जी तोतूका जयपुर, श्री फूलचन्द जी विनामक्या डीमापुर, एवं श्री त्रिलोकचन्द जी कोठारी कोटा । इन सभी महानुभावों के हम प्राभारी हैं । सहयोग–अकादमी के सदस्य बनाने के कार्य में सभी महानुभावों का सहयोग मिलता रहता है । इनमें सर्व श्री सुरेश जैन डिप्टी कलेक्टर इन्दौर, थी मूलचन्द जी पाटनी बम्बा, डा. भागचन्द जैन दमोह, पं० मिलापरन्द जी शास्त्री जयपुर, श्रीमती कोकिला सेठी जयपुर, धी गुलाबचन्द जी गंगवाल रेनवाल, प्रो० नरेन्द्र प्रकाश जैन फिरोजाबाद, बंध प्रमुदयाल कासलीवान एवं पं० अनुपचन्द जी न्यायतीथं प्रादि के नाम विशेषतः उल्लेखनीय हैं । मुझे पूर्ण प्राशा है कि जैसे-जैसे इसके भाग छपते जाधेगे इसकी सदस्य संख्या में वृद्धि होती रहेगी । इस वर्ष के पन्त तक इसके कम से कम ३०० सदस्य बन जायें ऐसा सभी से महयोग प्रपेक्षित है। मनके सहयोग के माधार पर ही अकादमी अपनी प्रथम पञ्चवर्षीय योजना में सफल हो सकेगी ऐसा हमारा विश्वास है। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { vi) प्रथम प्रकाशन पर मभिमत-साहित्य प्रकाशन के इस यज्ञ में कितने ही विद्वानों ने सम्पादक के रूप में और कितने ही विद्वानों ने लेखक के रूप में अपना सहयोग देना स्वीकार किया है । पर्व तक ३० से भी अधिक विद्वानों की स्वीकृति प्राप्त हो चुकी है । पकादमी के प्रथम भाग पर राष्ट्रीय एवं सामाजिक सभी पत्रों में जो समालोचना प्रकाशित हुई है उससे हमें प्रोत्साहन मिला है । यही नहीं साहित्य प्रकाशन की इस योजना को प्राचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज, एलाचार्य श्री विद्यानन्द जी महाराज एवं याचार्य कल्प श्री श्रुतसागर जी महाराज जैसे तपस्वियों का आशीर्वाद मिला है तथा भट्टारक बी महाराज श्री चारुकीति जी मुझनिद्री, एवं श्रवणबेलगोला, भट्टारक जी महाराज कोल्हापुर, डा. सत्येन्द्र जी जयपुर, पंडित प्रवर कैलाशचन्द जी शास्त्री, डा० दरबारीलाल जी कोठिया, डा. महेन्द्रसागर प्रचडिया, पं० मिलापचन्द जी शास्त्री एवं डा. हुकमचन्द जी भारिल्ल जैसे विद्वानों ने इसके प्रकाशान की प्रशंसा की है । भावी प्रकाशम- सन् १६७६ में ही प्रकाशित होने वाला सीसरा पुष्प "महाकवि ब्रह्म जिनदास एवं प्रतापकीति" की पाण्डुलिपि तैयार है और उसे शीघ्र ही प्रेस में दे दिया जावेगा । इसके लेखक डा० प्रेमचन्द रावको हैं। इसी तरह चतुर्थ पुष्प "महाकवि धीरचन्द एवं महिनन्द" वर्ष के अन्त तक प्रकाशित हो जाने की पूरी भाशा है। श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी को पंजीकृत कराने की कार्यवाही चल रही है। जो इस वर्ष के अन्त तक पूर्ण हो जाने की प्राशा है । अन्त में समाज के सभी साहित्य प्रेमियों से सादर अनुरोध है कि वे श्री महाबीर ग्रन्थ अकादमी के अधिक से अधिक सदस्य बन कर जैन साहित्य के प्रचार प्रसार में अपना योगदान देने का कष्ट करें। हमें यह प्रयास करना चाहिए कि ये पुस्तकें देश के प्रत्येक विश्वविद्यालय में पहुंचें जिससे वहां और भी विद्यार्थी जैन साहित्य पर शोध कार्य कर सकें। यही नहीं हिन्दी जैन कवियों को हिन्दी साहित्य के इतिहास में उचित स्थान भी प्राप्त हो सके। डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल निदेशक एवं प्रधान सम्पादक Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यक्ष की कलम से श्री महावीर अन्य अकादमी का द्वितीय पुष्प "कविवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि" को पाठकों के हाथ में देते हुए प्रतीव प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है। इसके पूर्व गत वर्ष इसका प्रथम पुष्प " महाकवि ब्रह्म रायमल्ल एवं भट्टारक त्रिभुवनयीति" प्रकाशित किया जा चुका है। मुझे यह लिखते हुए प्रसन्नता होती हैं। कि अकादमी के इस प्रथम प्रकाशन का सभी क्षेत्रों में जोरदार स्वागत हुआ है और सभी ने अकादमी की प्रकाशन योजना को अपना पाशीर्वाद प्रदान किया है । इस दूसरे पुष्प में संवत् १५६१ से १६०० तक होने वाले ५ प्रमुख जैन कवियों का प्रथम बार मूल्यांकन एवं उनकी कृतियों का प्रकाशन किया गया है। इस प्रकार श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी समूचे हिन्दी जैन साहित्य को २० भागों में प्रकाशित करने के जिस उद्देश्य को लेकर स्थापित की गयी थी उसमें वह निरन्तर आगे बढ़ रही है । प्रथम पुष्प के समान इस पुष्प के भी लेखक एवं सम्पादक डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल हैं जो अकादमी के निदेशक भी हैं। डा० साहब ने बड़े परिश्रमपूर्वक राजस्थान के विभिन्न ग्रन्थ भण्डारों में संग्रहीत कृतियों की खोज एवं अध्ययन करके उन्हें प्रथम बार प्रकाशित किया है। ४० वर्षों की अवधि में होने वाले ५ प्रमुख कवियों- ब्रह्म यूवराज, कविवर छील, चतुरूमल, गारवदास एवं ठक्कुरसी जैसे जैन कवियों का विस्तृत परिचय, मूल्यांकन एवं उनकी कृतियों का प्रकाशन आज प्रकादमी के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। ये ऐसे कवि हैं जिनके बारे में हमें बहुत कम जानकारी यो तथा चतुमल एवं गारवदास तो एकदम मज्ञात से थे । प्रस्तुत भाग में डा० कासलीवाल ने पांच कवियों का तो विस्तृत परिचय दिया ही है साथ में १३ अन्य हिन्दी जैन कवियों का भी संक्षिप्त परिचय उपस्थित करके प्रशांत कवियों को प्रकाश में लाने का प्रशंसनीय कार्य किया है। वैसे तो श्री महावीर अन्य अकादमी की स्थापना ही डा० कासलीवाल की सूझबूझ एवं सतत् साहित्य साधना का प्रतिफल है। डा० साहब ने अब तो अपना समस्त जीवन साहित्य सेवा में ही समर्पित कर रखा है यह हमारे लिए कम गौरव की बात नहीं है । मुझे यह लिखते हुए प्रसन्नता है कि श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी को समाज द्वारा धीरे-धीरे सहयोग मिल रहा है लेकिन अभी हमें जितने सहयोग की अपेक्षा थी Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (viii) उसे हम अभी तक प्राप्त नहीं कर सके हैं। अब तक संचालन समिति की सदस्यता के लिए ४५ महानुभावों की एवं विशिष्ट सदस्यता के लिए १२५ महानुभावों की स्वीकृति प्राप्त हो चुकी है। हम चाहते हैं कि सन् १९७६ में इसके कम से कम १०० सदस्य और बन जावें तो हमें आगे के ग्रन्थों का प्रकाशन में सुविधा मिलेगी। मादमी भी माट पशोककुमार जी जैन को संरक्षक के रूप में पाकर तथा श्री गुलाबचन्द गंगवाल रेनवाल, श्री अजित प्रसाद जैन ठेकेदार देहली, श्री सेठ कमलचन्द जी कासलीवाल जयपुर, श्री कन्हैयालाल जी सेठी जयपुर, श्रीमान् सेठ पदममन्द जी तोतका जौहरी जयपुर, सेठ फूलचन्द जी साहच विनायक्या डीमापुर एवं त्रिलोकचन्द जी साहब कोठ्यारी फोटा, का उपाध्यक्ष के रूप में सहयोग पाकर प्रकादमी गौरव का अनुभव करती है। इसलिए मेरा समाज के सभी साहित्य प्रेमियों से प्रार्थना है कि वे इस संस्था के संचालन समिति के सदस्य प्रयबा अधिक से अधिक संख्या में विशिष्ट सदस्यता स्वीकार कर साहित्य प्रकाशन की इस अकादमी की प्रसाधारण योजना के क्रियान्विति में सहयोग कर अपूर्व पुण्य का लाभ प्राप्त करें। इसी वर्ष हम कम से कम तृतीय एवं चतुर्थ पुष्प पोर प्रकाशित कर सकेंगे । तीसरा पुष्प "महाकवि ब्रह्म जिनदास एवं भट्टारक प्रतापकीति" की पाण्डुलिपि तैयार है और मुझे पूर्ण विश्वास है कि उसे हम मन्टुबर ७६ तक पत्रश्य प्रकाशित कर सकेंगे। प्रस्तुत पुष्प के सम्पादक मण्डल के अन्य तीन सम्पादकों-सा ज्योतिप्रसाव जैन लखनऊ, डा० दरबारीलाल जी कोठिया न्यायाचार्य, दाराणसी, पं. मिसापचन्द जी शास्त्री जयपुर का भी मैं आभारी हूँ जिन्होंने डा. कासलीवाल जी की पुस्तक के सम्पादन में सहयोग दिया है। प्राशा है भविष्य में भी उनका अकादमी को इसी प्रकार का सहयोग प्राप्त होता रहेगा। मद्रास कन्हैयालाल जैन पहाडिया Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र०सं० १. २, ३. ४. ५. ७. विषय-सूची ८. विषय श्री महावीर प्रस्थ अकादमी का परिचय अध्यक्ष की कलम से लेखक की ओर से सम्पादकीय संवत् १५६० से १६०० तक का इतिहास कविवर सूच राज जीवन परिचय एवं कृतियों का मूल्याकन मूलपाठ (१) मयण जुज्झ (२) संतोषजयतिलकु (३) नेमीस्वर का बारहमासा (४) चेतन पुद्गल धमाल (५) नेमिनाथ बसंतु (६) टंडारणा गीत (७) भुवनकीर्ति गीत (5) पार्श्वनाथ गीत ९ से १६ तक विभिन्न रागों में ११ गीत पीहल कवि । जीवन परिचय एवं कृतियों का मूल्यांकन मूल पाठ : (२०) पञ्च सहेली गीत (२१) बावनी (२२) पंथी गीत : (२३) वेलि गीत (२४) वैराग्य गीत (२५) गीत पृष्ठ संख्या iii-vi vii-viii ix-xii xiiixy ६ - १० १० - ४४ ४५ - ६६ ७०-८६ ८७-८६ १०- १०१ १०२ - १०३ १०४ - १०५ १०६-१०७ १०८ १०६ - १२० १२१ - १३४ १३५ - १४० १४१-१५२ __१५३-१५४ १५५. १५६ ૧૭ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( viii) - MANA १५८ १६५ ११. १७५-१७६ १७७ २३७ २६२ १०. चतुहमल कवि : जीवन परिचय एवं कृतियों का मूल्यांकन . . . मूल पाठ : (२६) नेमीश्वर को उरगानो (२७-२६) गीत (३०) क्रोष गीत १२. : कवि गारपवास : जीवन परिचय एवं कृतियों का मूल्यांकन १३. मूल पाठ: (३१) यशोषर चौपई १४, कविवर ठक्कुरसी : जीवन परिचय एवं कृतियों का मूल्यांकन १५. मूल पाठ : (३रा सीमधर स्तवन .: (१३) नेमीराजमति वेलि (३४) पञ्चेन्द्रिय वेलि (३१) चिन्तामणि जयमाल (१६) कृपण छन्द (३७) शील गीत (३६) पार्श्वनाथ स्तवन (३६) सप्त व्यसन षट्पद .(४०) व्यसन प्रबन्ध (४१) पावनाय जयमाला (४२) ऋषभदेव स्तवन (४३) कवित्त (४४) पार्श्वनाथ सकुन सत्तावीसी १६. प्रथम भाग पर मंगल पाशीर्वाद १७. अनुक्रमणिका २६३ २६४-२६७ २६८-२७१ २७२ २५३-२८० २८१ २८२-२८४ २८५-२५७ २८८ २८६ २६ २६१ २१२-२६५ २६६ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय भाषा निवच पूजा-पाठों, स्तवन-विनती-पद-भजनों, छहहासा, समाधिमरण, जोगीरासा प्रभति पाठों, पुराणों की तथा कई एक सैद्धान्तिक एवं धारणानुयोगिक ग्रन्थों की भाषा वचानिकामों के नित्यपाठ, स्वाध्याय अथवा शास्त्र प्रवचनों में बहुत उपयोग के कारण वर्तमान शताब्दी ई० के प्राथमिक दशकों में, कम से कम उत्तर भारत के जनी जन मध्योत्तर कालीन पनेक हिन्दी जैन कवियों एवं साहित्यकारों के नाम मौर कृतियों से परिचित रहते पाये थे । किन्तु उस समय हिन्दी जैन साहित्य के इतिहास की कोई रूपरेखा नहीं थी । कतिपय नाम आदि के अतिरिक्त पुरातन कवियों एवं लेखकों के विषय में विशेष कुछ जात नहीं था। उनका पूर्वापर भी ज्ञात नहीं था । लोकप्रियता के बल पर ही उनकी रचनाओं का प्रचलन था । मुद्रणकला के प्रयोग ने भी वैसी रचनाओं के व्यापक प्रचार-प्रसार में योग दिया । किन्तु उक्त रचनामों का साहित्यिक मूल्यांकन नहीं हो पाया था। जनेतर हिन्दी जगत् तो हिन्दी जैन साहित्य से प्राय: अपरिचित ही था, अत: समग्न हिन्दी साहित्य में उसका क्या कुछ स्थान है, यह प्रश्न ही नहीं उठा था। केवल मिश्रबन्धु विनोद' में कुछएक जैन कवियों का नामोल्लेख मात्र हुआ था। जबलपुर में हुए सप्तम हिन्दी साहित्य सम्मेलन में स्व. पं० माथूराम जी प्रेमी ने अपने निबन्ध पाठ द्वारा हिन्दी जगत का ध्यान हिन्दी जैन साहित्य की भोर सर्वप्रथम प्राकर्षित किया । सन् १९१७ में वह निबन्ध “हिन्दी जन साहित्य का इतिहास" नाम से पुस्तकाकार भी प्रकाशित हो गया । शनैः शनैः हिन्दी साहित्य के इतिहासों एवं पालोचनात्मक ग्रन्थों में जैन साहित्य की पोर भी क्वचित संकेत किये जाने लगे । शास्त्र भण्डारों की खोज चाल हुई हस्तलिखित प्रसियों के मुद्रण-प्रकाशन का क्रम भी चलता रहा । सन् १९४७ में स्व. बा. कामता प्रसाद जन का हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास' मोर सन् १९५६ में पं० नेमिचन्द्र शास्त्री का 'हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन' (२ भाग) प्रकाशित हुए । विभिन्न शास्त्र भण्डारों की छानबीन मोर ग्रन्थ सूरियां प्रकाशित होने लगीं। भनेकान्त, जैन सिद्धान्त भास्कर प्रादि पत्रिकाओं में हिन्दी के पुरातन जैन लेखकों मोर उनकी कृतियों पर लेख प्रकाशित होने लगे । परिणाम स्वरूप हिन्दी जैन साहित्य ने अपना स्वरूप और इतिहास प्राप्त कर लिया मोर अनेक विश्वविद्यालयों ने पी० एच. डी० मादि के Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xiv) लिए की जाने वाली शोध-खोज के लिए इस क्षेत्र की क्षमताओं का सम्मानमानों को स्वीकार करना प्रारम्भ कर दिया । गत दो दशकों में लगभग प्राधी दर्जन स्वीकृत शोध प्रबन्ध प्रकाशित हो चुके हैं, तथा वर्तमान में पचीसों शोध छात्र छात्राएँ हिन्दी जैन साहित्य के विविध अंगों या पक्षों पर शोध कार्य में रत हैं। __ इस सब के बावजूद इस क्षेत्र में कई स्वटकने वाली कमियां मभो भी है, बथा-(१) हिन्दी के जैन साहित्यकारों की सूची अभी पूर्ण नहीं है--शोध खोज के फलस्वरूप उसमें कई नवीन नाम जोड़े जाने की सम्भावना है । (२) ज्ञात साहित्यकारों की भी सभी रचनाएँ ज्ञात नहीं हैं -उन में वृद्धि होते रहने की सम्भावना है। (३) सात रचनामों में से भी सच उपलब्ध नहीं हैं. और उपलब्ध रचनाओं में से अनेक अभी भी अप्रकाशित है। (४) जो कृतियां प्रकाशित भी हैं उनमें से बहुभाग के सुसम्पादित स्तरीय संस्करण नहीं हैं। (५) सभी साहित्यकारों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रमाणिक, विशद मालोचनात्मक एवं ऐतिहासिक प्रकाश डाला जाना अपेक्षित है। (६) रचनाओं का भी विस्तृत साहित्यिक एवं समीक्षात्मक अध्ययन अपेक्षित है, भौर (७) महत्वपूर्ण जैन साहित्यकारों तथा उनकी प्रमुख कृतियों का उनके समसामयिक जैनेतर हिन्दी साहित्यकारों तथा उनकी कृतियों के माथ तुलनास्मक अध्ययन करके उनका उचित मूल्यांकन करने प्रोर समन हिन्दी साहित्य के इतिहास में उनका समुचित स्थान निर्धारित करने की प्रावश्यकता है। प्रसन्नता का विषय है कि जयपूर के साहित्य प्रेमियों ने श्री महावीर अन्य अकादमी की स्थापना की है, जिसके बाण सुप्रसिद्ध अनुसंघित्सु बन्धुवर डा० कस्तूरचंद जी कासलीवाल हैं। उन्हीं के उत्साह दुर्ग अध्यवसाय और ग्लानीय सप्रयास से श्री महावीर ग्रन्थ प्रकादमी उपरोक्त प्रभावों की बहुत कुछ पूर्ति में संलग्न हो गई प्रतीत होती है । उसका प्रथम पुष्प 'महाकवि ब्रह्म रायमल्ल पौर भट्टारक त्रिभुवन कोति" था, जिसमें उक्त दोनों साहित्यकारों के व्यक्तित्व एव कृतित्व पर प्रभूत प्रकाश डालते हुए उनकी रचनामों को भी सुसम्पादित रूप में प्रकाशित कर दिया है । प्रस्तुत द्वितीय पुष्प में १६ वीं पाती ई० के पूर्वार्ध के पांच प्रतिनिधि कवियोंब्रह्म बूचराज, छीहल, चतुरुमल, गरवदास और ठकुरसी के व्यक्तित्व एवं कृतीत्र पर यथासम्भव विस्तृत प्रकाश डालते हुए पोर सम्यक मूल्यांकन करते हुए उनकी सभी उपलब्ध ४४ रचनाएँ भी प्रकापित कर दी हैं। डा० कासलीवाल जी की इस प्रभूतपूर्व सेवा के लिए साहित्य जगत् चिरऋणी रहेगा । संवत् १५६१ से १६०० तक की प्रखं शती एक सम्धिकाल था । गजस्थान को छोड़कर प्रायः सम्पूर्ण उत्तर भारत में मुस्लिम शासन था । उक्त अवधि में राजधानी दिल्ली से सिकन्दर और इब्राहीम लोदी, बाबर और हुमायु", मुगल तथा शेरशाह एवं सलीमगाह सूर ने क्रमश: णासन Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xv} किया । अपभ्रंश में साहित्य सृजन का युग समाप्त हो रहा था, और पिछले लगभग दोसौ वर्षों से जो हिन्दी शन:-मानैः उसका स्थान लेती आ रही थी, उसने अपने स्वरूप का स्थैर्य बहुत कुछ प्राप्त कर लिया था। मुगल सम्राट अकबर का शासन अभी प्रारम्भ नहीं हुअा था-उसके शासनकाल में ही हिन्दी जैन साहित्य का स्वर्णयुग प्रारम्भ हुग्रा को पगले लगभग तीन सौ वर्ष तक चलता रहा । प्रस्तु इस ग्रन्थ में चर्चित अपने युग के उक्त प्रतिनिधि कवियों का, न केवल हिन्दी जैन साहित्य के नरन् समग्र हिन्दी साहित्य के इतिहास में अपना एक महत्व है, जिसे समझने में अकादमी का यह प्रकाशन सहायक होगा । खोज निरन्तर चलती रहती है, और भावी लेखक अपने पूर्ववर्ती लेखकों की उपलब्धियों के सहारे ही आगे बढ़ते हैं । आशा है कि श्री महावीर ग्रन्य अकादमी की यह पुष्प वृखला घालु रहेगी और हिन्बी जैन साहित्य के अध्ययन एवं समुचित मूल्यांकन की प्रगति में अतीव सहायक होगी। योजना की सफलता के लिए हार्दिक शुभकामना है। ज्योतिप्रसाद जैन वरबारीलाल कोठिया मिलापचन्द्र शास्त्री Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक की ओर से हिन्दी साहित्य कितना विशाल एवं विविध परक है इसका अनुमान लगाना ही कठिन हैं। इस हिन्दी साहित्य को अंकुरित पल्लवित एवं विकसित करने में जैन कवियों ने जो योगदान दिया है उसके शतांश का भी प्रकाशन एवं मूल्यांकन वित्रों में नहीं हो है 1 जो भपनी लेखनी चलायी वह प्रद्भुत है । जैसे-जैसे ये श्रज्ञात कवि हमारे सामने आते जाते हैं हम उनके महत्व से परिचित होते जाते हैं तथा दांतों तले अंगुली दबाने लगते हैं । प्रस्तुत पुष्प में संवत् १५६१ से १६०० तक होने वाले ४० वर्षों के पांच प्रमुख कवियों का परिचय प्रस्तुत किया गया है। ये कवि हैं ब्रह्म बृजराज, छीहल, चतुरूमल, गारवदास एवं टक्कुरसी 1 वैसे इन वर्षों में और भी कवि हुए जिनकी संख्या १३ है। जिनका संक्षिप्त परिचय प्रारम्भ में दिया गया है। लेकिन इन पांच कवियों को हम इन ४० वर्षों का प्रतिनिधि कवि कह सकते हैं। इन कवियों मैं से गारवदास को छोड़कर किसी ने भी यद्यपि प्रबन्ध काव्य नहीं लिखे किन्तु उस समय की मांग के अनुसार छोटे-छोटे काव्यों की रचना कर जन साधारण को हिन्दी की मोर श्राकषित किया। अभी तक इन कवियों के सामान्य परिचय के प्रतिरिक्त न उनका विस्तृत मूल्यांकन ही हो सका तथा न उनकी मूल रचनाओं को पढ़ने का पाठकों को प्रवसर प्राप्त हो सका। इसलिए इन कवियों द्वारा रचित सभी रचनाएँ जिनकी संख्या ४४ है प्रथम बार पाठकों के सम्मुख बा रही है। इनके अतिरिक्त इनमें से कम से कम १५ रचनाएँ तो ऐसी हैं जिनका नामोल्लेख भी प्रथम बार ही प्राप्त होगा । हिन्दी साहित्य के इतिहास में संवत् १५६१ से १६०० तक के काल को भक्ति काल माना है किन्तु जैन कवि किसी काल प्रथवा सीमा विशेष में नहीं बंधे । उन्होंने जन सामान्य को मच्छा से मच्छा साहित्य देने का प्रयास किया । ब्रह्म बूवराज रूपक काव्यों के निर्माता थे। उनका 'मयणजुज्झ' एवं 'संतोष जयतिलकु' दोनों ही सुन्दर एवं महत्वपूर्ण रूपक काव्य हैं जिनका पाठक प्रस्तुत पुस्तक में रसास्वादन कर सकेंगे। इसी तरह बूचराज की "चेतन पुद्गल धमाल" उत्तरप्रत्युत्तर के रूप में लिखी हुई बहूत ही उत्तम रचना है। चेतन एव पुद्गल के मध्य Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो रोचक वाद-विवाद होता है और दोनों एक-दूसरे को दोषी ठहराने का प्रयास करते हैं । कवि ने एक से एक सुन्दर युक्ति द्वारा चेतन एवं पुदगल के पक्ष को प्रस्तुत किया है वह उसकी अगाध विद्वत्ता का परिचायक है साथ ही कवि के प्राध्यात्मिक होने का संकेत है। सार जन माहित्य में इस प्रकार ह म इच: है : इन तीन कृतियों के अतिरिक्त 'नमीश्वर का बारहमासा' लिख कर कवि ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि जन कवि जब वियोग शृगार काव्य लिखने बैठते हैं तो उसमें भी बे पीछे नहीं रहते । इसी तरह 'नेमिनाथ वसन्त', 'टंडाणा गीत' एक प्रन्य गीत हैं। अब तक कवि की ११ कुतियों का मैने राजस्थान के जैन सन्न' में उल्लेख किया था किन्तु बड़ी प्रसन्नता है कि कवि की पाठ और कृतियों को खोज निकाला गया है और सभी के पाठ इस में दिये गये है। इस पुष्प के द्वितीय कवि है छोहल, जिनके सम्बन्ध में रामचन्द्र शुक्ल से लेकर सभी आधुनिक विद्वानों ने अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास में चर्चा की है। स्वीहल कवि एक प्रोर "पंच सहेली गीत" जैसी लौकिक रचना करते हैं तो दूसरी मोर 'बावनी' जैसी विविध विषय परक रचना लिखने में सिसहस्त है । छोहल की 'पंच सहेली गोत' रचना बहुत ही मामिक रचना है । प्रस्तुत पुष्प में हम श्रीहल की सभी छह रचनाओं को प्रकाशित कर सके है । चतुरुमल तीसरे कवि हैं। कवि के अभी तक चार गीत एवं एक 'नेमीश्वर को उरगानो कृति मिल सकी है। ये ग्वालियर के निवासी थे 1 संवा १५७१ में निबद्ध 'मीश्वर का उरगानो' कवि की सुन्दर कृति है । अब तक पतुरु की केवल एकमात्र रखना का ही उल्लेख हुआ था लेकिन प्रब उसके चार गीत प्रौर प्राप्त हो गये हैं जो हमारे इस पुष्प की शोभा बढ़ा रहे हैं। गारवदास हमारे चतुर्थ कवि हैं जिनकी एकमात्र रचना "यशोधर चौपई" अभी तक प्राप्त हो सकी है। लेकिन यह एक रचना ही उनकी अमर यशोगाथा के लिए पर्याप्त है। महाकवि तुलसी के रामचरित मानस के पूरे १०० वर्ष पूर्व चौपई छन्द में निबद्ध यशोधर चौपई हिन्दी को बेजोड़ रचना है 1 अभी तक गारवदास हिन्दी जगत् के लिये ही नहीं, जैन जगत् के लिए भी प्रज्ञात से ही थे 1 चौपई में ५४० पद्य है जिनमें कुछ संस्कृत एवं प्राकृत गाथाएं भी हैं। ठक्कुरसी इस पुष्प के पांचवें एवं अन्तिम कवि हैं । ठकुरसी ढूढाहा प्रदेश के प्रमुख नगर चम्पावती के निवासी थे। इनके पिता बेल्ह भी कवि थे। इसलिए ठक्कुरसी को कान्य रचना को रुचि जन्म से ही मिली थी। ठक्कुरसी की अभी तक १५ रचनाएँ प्राप्त हुई हैं जिनमें "मेघमाला कहा" अपभ्रश की कृति है बाकी सब Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' (xi) राजस्थानी भाषा की कृतियां हैं । कमि की ७ रचनामों के नाम तो प्रथम बार सुनने को मिलेंगे । कवि की पञ्चेन्द्रिय वेलि, नेमिराजमति वेलि एवं कुपण अन्द, पाश्वनाथ सकुन सत्तावीसी, सप्त व्यसन वेलि बहुत ही लोकप्रिय रचनाएँ हैं ! __उक्त पांच प्रतिनिधि कवियों के अतिरिक्त संवत् १५६१ से १६०० तक होने चाले कविवर विमलमूत्ति, मेलिग, पं० धर्मदास, भ. शुभचन्द्र, प्रह्म यशोधर, ईश्वर सूरि, बालबन्द, राजहंस उपाध्याय, धर्मसमुद्र, सहजसुन्दर, पाश्र्वचन्द्र सूरि, भक्तिलाभ एवं विनय समुद्र का भी संक्षिप्त परिचय दिया गया है । इग प्रकार ४० वर्षों में देश में करीब १८ जन कवि हुए जिन्होंने जैन साहित्य की महत्वपूर्ण सेवा की। इस प्रकार TTE पुरुप में गांग मागिनों रिपचजो कृतियों का मूल्यांकन एवं उनकी कृतियों के पूरे पाठ दिये गये हैं जिनकी संख्या ४४ है। ये सभी रचमाएँ भाषा एवं शैली की दृष्टि से अपने समय की प्रमुख रचनाएँ हैं जिनमें सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक सभी पक्षों के दर्शन होते हैं । सामाजिक कृतियों में 'पञ्च सहेली गीत', 'अयण जुज्झ', "सन्तोष जयतिलकू', 'सप्त व्यसन वेलि' के नाम उल्लेखनीय हैं जिनमें तत्कालीन समाज की दशा कर सजीव वर्णन किया गया है । 'कृष्ण छन्द' सुन्दर सामाजिक रचना है जिसमें एक कृपण व्यक्ति का प्रच्छा चित्र प्रस्तुत किया गया है । इसके अतिरिक्त उस समय की प्रचलित सामाजिक रीति रिवाज, जैसे सामूहिक ज्योनार, यात्रा संघ निकालना प्रादि का वर्णन उपलब्ध होता है । राजनैतिक दृष्टि से 'पारसनाथ सकुन सत्तावीसो' का नाम लिया जा लकता है जिसमें मुस्लिम आक्रमण के समय होने वाली भगइ, अशान्ति का वर्णन है । साथ ही ऐसे समय में भी जिनेन्द्र भक्ति से ही अशान्ति निवारण की कल्पना ही नहीं प्रपितु उसी का सहारा लिया जाता था इसका भी उल्लेख मिलता है। प्रस्तुत पुस्तक के प्रकाशन में श्री महावीर प्रन्ध प्रकादमी का विशेषतः उसके संरक्षक, अध्यक्ष, उपाध्यक्षों तथा सभी माननीय सदस्यों का मैं पूर्ण आभारी है जिनके सहयोग के कारण ही हम प्रकाशन योजना में प्रागे बढ़ सके हैं। हिन्दी जैन कवियों के मूल्यांकन एवं उनकी मूल रचनाओं के प्रकाशन का यह प्रथम योजनाबद्ध प्रयास है। प्राशा है समाज के सभी महानुभावों की शुभकामनारों एवं भागीर्वाद से इसमें हम सफल होंगे। मैं सम्पादक मण्डल के सभी तीनों विधान सम्पादकों-आदरणीय डा० ज्योतिप्रसाद जी जैन लखनक, ब्वा० दरबारीलाल जी सा० कोटिया वाराणसी एवं पं० मिलाप चन्द जी मा. शास्त्री जयपुर का, उनके पूर्ण सहयोग के लिए प्राभारी है। डा. कोठिया सा. तो प्रकादमी की सचालन समिति के भी माननीय सदस्य हैं। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xii ) तीनों ही सम्पादकों का अकादमी की योजना को भाशीर्वाद प्राप्त है तथा समय-समय पर उनसे सम्पादन के प्रतिसिसच्या जिन में सहयोग मिलता रहा है। सम्पादन के लिए पाण्टुलिपियां उपलब्ध कराने में श्रीमान् केशरीलाल जी गंगवाल युदी का मैं पूर्ण प्राभारी हूँ। जिन्होंने नागदी मन्दिर बूदी का गुटका उपलब्ध कराकर ब्रह्म बूचराज की अधिकांश रचनामों के सम्पादन से पूर्ण सहयोग दिया। इसी तरह श्री लूगाकरण जी पाण्ड्या के मन्दिर के शास्त्र भण्डार के व्यवस्थापक श्री मिलापचन्द जी बागायत वाले, शास्त्र भण्डार दि० जैन मन्दिर तेरहपन्धी के व्यवस्थापक श्री प्रेमचन्द जी सोगानी, शास्त्र भण्डार मन्दिर गोधान के व्यवस्थापक श्री राजमल जी संधी तथा पास्त्र भण्डार दि. जैन मन्दिर पाटोदियान के व्यवस्थापक श्री भंवरलाल जी बज तथा शास्त्र भण्डार पाश्वनाथ दि. जैन मन्दिर के व्यवस्थापक श्री अनूपचन्द जी दीवान का मैं पूर्ण झामारी हूँ जिन्होंने पाण्डुलिपिर्या उपलब्ध करवाकर उसके सम्पादन एवं प्रकाशन में योग दिया है। अजमेर के भट्टारकीय मन्दिर के श्री माणकचन्द जी सोगानी एडवोकेट का भी में पूर्ण रूप से पाभारी हूँ जिन्होंने मजमेर के भट्टारकीय भण्डार से मन्य उपलब्ध कराये । में श्रीमती कोकिला सेठी एम० ए० रिसर्च स्कालर का, जिन्होंने प्रस्तुत पुस्तक की 'शब्दानुक्रमणिका तैयार की, पाभारी है। अन्त में मनोज प्रिंटर्स के व्यवस्थापक श्री रमेशचन्द जी जैन का प्राभारी हूँ जिन्होंने पुस्तक की प्रत्यन्त सुन्दर ढंग से छपाई की है। डा० कस्तुरचन्द कासलीवाल Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि इतिहास हिन्दी साहित्य के इतिहास में संवत् १५६० से संवत् १६०० तक के कान को किसी विशिष्ट नाम से सम्बोधित नहीं करके उसे भक्ति काल में ही समाहित किया गया है । इस भक्तिकाल में निर्गुण भक्ति एवं सगुण भक्ति इन दोनों की ही प्रधानता रही और दोनों ही बारात्रों के कवि होते रहे। इस समय देषा में एक मोर अमट छाप के कवियों को सगुण भक्ति पारा की गंगा बह रही थी तो दूसरी ओर महाकवि कबीर की निर्गुण भक्तिमा प्रसार भी ज: भाः पर । 1 संवत् १५६० से १६०० तक के ४० वर्ष के काल में १५ से भी अधिक वैष्णव' कवि हए जिन्होंने प्रष्ट छाप की कविता के उंग पर कृष्ण भक्ति से प्रोतप्रोत कृतियों को निबद्ध किया । भक्ति धारा को प्रवाहित करने वाले ऐसे कवियों में नरवाहन (सं० १५६५), हितकृष्णा गोस्वामी (सं० १५६७), गोपीनाथ (सं. १५६८), विठ्ठलदास (सं १५६८), अजबेग भट्ट (सं० १५६६), महाराजा केशव (सं० १५६६), मलिक मुहम्मद जायसी (सं० १५६३), मंझन (सं० १५६७), लालदास (सं० १५८५८८), स्वामी निपट निरंजन (सं० १५६५), गोस्वामी विट्ठलनाथ (स० १५६५), कृपाराम (सं० १५६८) के नाम उल्लेखनीय हैं ।। लेकिन इन ४० वर्षों में जन हिन्दी कवियों की संख्या जेनेतर करियों से भी अधिक रही। मिश्र बन्धु विनोद ने ऐसे कवियों में ईश्वरसूरि, छीहल, गारबदास जन, कुरसी एवं बालचन्द ये पांच नाम गिनाये है। मार __ "हिन्दी रासो काव्य परम्परा" में जिन जैन कवियों की रासा कृतियों का उल्लेख किया गया है उनमें उदयमानु, विमल मूत्ति, मेलिग, मुनि पन्नलाभ, सिपमुख सहजसुन्दर एवं पार्श्व चन्द्र सूरि के नाम उल्लेखनीय है । लेकिन उक्त जैन कवियों के अतिरिक्त म. शानभूषण, ब्रह्म बूचराज, ब्रह्म यशोधर, भ० शुभचन्द्र, चनुरुमल, १. विस्तृत परिचप के लिए देखिये मिश्रमन्षु विमोद पृष्ठ १३० से १५० । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज धर्मदास, पूनो जैसे और भी प्रसिद्ध जैन कवि हुए, जिन्होंने हिन्दी भाषा में कितनी हो रचनाएँ निबद्ध की और उसके प्रचार प्रसार में अपना पूर्ण योग दिया। जैन झवि किसी काल विशेष की धारा में नहीं बहे । वे जनरूचि के अनुसार हिन्दी में काव्य रचना करते रहे । प्रारम्भ में उन्होंने रास काय लिखे । रास काव्य लिखने की यह परम्परा अधिच्छिन्न रूप से १७ वीं शताब्दी तक चलती रही। १६ वीं शताब्दी के प्रथम चरण के पूर्वाद्ध तक महाकवि ब्रह्म जिनदास अकेले ने पचास से भी अधिक रासकाव्यों की रचना करके एक नया कीत्तिमान स्थापित किया । जन कवि रास काव्यों के अतिरिक्त फागु, वेलि एवं चरित काम भी लिखते रहे । संवत् १३५४ में लिखित जिणदत्त चरित तथा सवत् १४११ में निबद्ध प्रद्य म्न परित जैसे काव्य इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। संवत् १५६० से १६०० तक का ४० वर्षों का काल लघु काव्यों की स्त्रनामों का काल रहा । इन वर्षों में होने वाले बूचराम, छोल, ठक्कुरसी, चतुरु एवं गारवदास सभी ने छोटे-छोटे काम्य लिखकर जन सामान्य में हिन्दी भाषा के प्रति रचि जामृत की। इन वर्षों के जैन कवि दोनों ही वर्ग के रहे । यदि भट्टारक ज्ञानभूषण शुभचन्द्र, बूचराजः यशोधर एवं सहजसुन्दर सन्त थे तो छोहल, ठक्कुरसी, चतुरु जैसे कवि था । सभी कादि : में बझे म्होंने गा तो उपदेशात्मक काव्य लिखे, नेमिराजुल से सम्बन्धित विरहात्मक बारहमासा लिख्खे या फिर रूपक काव्य एवं संवादात्मक काव्य लिखे। उन्होंने मानव की बुराइयों की मोर सबका ध्यान भाकुष्ट किया । बानियों के माध्यम से विविध विषयों की उनमें चर्चा की। ब्रह्मपि इन ४० वर्षों में सगुण भक्ति धारा का अधिक जोर वा पौर उत्तर भारत में उसने घर-घर में अपने पांव जमा लिए ये 1 लेफिन प्रभी जैन कवि उससे अछूते ही थे । उन्होंने पब लिखना तो प्रारम्भ कर दिया था, लेकिन तीर्थंकर भक्ति में थे इतने अधिक प्रवेश नहीं कर पाये थे । इसलिए इन वर्षों में भक्ति साहित्य अधिक नहीं लिखा जा सका । फिर भी चालीस वर्षों में खूब राज, ठक्करसी, छीहल जैसे श्रेष्ठ कवि हए । जिन्होंने मपनी रचनाओं के माध्यम से हिन्दी साहित्य में प्रपना स्थान बनाये रखा तथा मागे पाने वाले कवियों के लिए मार्ग दर्शन का कार्य किया। प्रस्तुत भाग में ब्रह्म युवराज, छोहल, कुरसी, चतुरु एवं गारवदास का जीवन परिचय, मूल्यांकन एवं उनके काध्य पाठ दिये जा रहे है। इसलिए उक्त कवियों के अतिरिक्त अवशिष्ट जैन कषियों का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि १. विमल मूति विमल मूत्ति कृत पुण्यसार रास सवत् १५७१ की रचना है ।। इसे कवि ने धूंधक नगर में समाप्त किया था । विमलमूत्ति मागमगच्छ के हेमरत्न सूरि के शिष्य थे । रास का प्रादि अन्त भाग निम्न प्रकार हैप्रादि केवल ज्ञान अलंकारी सेवइ अमर नरेस सयल जनु हितकारी जिणवाणी पमसोस हेमसूरि गुरु बुझिबिउ कुमारपाल भूपाल जेह समु जगि को नहीं जीव दया प्रतिपाल प्रन्त तसु सानिध्य ए अवकास सांभलता हुइ पुण्य प्रकास ॥३॥ २. मेलिग मेलिग कवि १६ वीं शताब्दी के मन्तिम चरण के कवि थे। वे तपागच्छ के मुनि सुन्दरसूति के शिष्य थे। उन्ही की आशा से उन्होंने प्रस्तुत रास की रचना की थी । संवत् १५७१ में इन्होंने 'सुदर्शन रास' की रचना प्रपने गृह की प्राज्ञा से समात की थी । सुदर्शन 'रास की एक प्रति पाटण के जन भण्डार में तथा एक राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान में सुरक्षित है। --- १. संवत् पनर एकोतरइ पोस बवि इग्यारसि अंतरइ । धूपका पुरि पास समष्य, सोमवार रचिज अवष्य ॥८॥ हिन्दी रासो काम्य परम्परा, पृष्ठ सं० १६१ । आगम गछ प्रकास विव श्री हेमरत्न गुरु सूरि गुरगमन्द ।।१।। हिन्दी रासो कास्य परम्परा पृष्ठ सं० १६१ ३. संवत पनर एकोतरइ एम्हा, जेठह चउथि विशुख-सुरिण । पुष्प मात्र गुरु धारिसे ए. म्हा परित्र ए पुहषि प्रसिद्ध सुरिंग ।।२२२॥ ३. मादि भाग -पहिलर' प्रणमिसु पनुक्रमिदए जिणवर पुरोस । पछा शासीन देवताए सहि नामु सीस । क्रमशः Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. पं० धर्मदास कविवर बूचराज पं० धर्मदास उन कवियों में से हैं जिनके हिन्दी जैन साहित्य के । साहित्य और जीवन से हिन्दी जगत अपरिचित सा है इतिहास में भी इनका केवल नामोल्लेख ही हुआ है । धर्मदास का जन्म कब और कहां हुआ था इसका उल्लेख न तो स्वयं कवि ने ही अपनी रचना में किया है और न मन्यत्र ही मिलता है । लेकिन संवत् १५७८ वैशाख सुदि ३ बुधवार के दिन इन्होंने 'धर्मोपदेशश्रावकाचार' को समाप्त किया था । इस प्राधार पर इनके जन्म काल का धनुमान किया जा सकता है । कवि की अभी तक एक ही रचना मिल सकी है। अतः यह सम्भव है कि उन्होंने यही एक रचना लिखी हो । 1 धर्मदास ने सम्पन्न घराने में जन्म लिया था। इनके वंशज दानी परोपकारी तथा दयावान थे । ये 'साहु' कहलाते थे । साहु शब्द प्राचीन काल में प्रतिष्ठित पोर धनाढ्य पुरुषों के लिए प्रयोग हुआ है तथा जो साहूकारी का कार्य करते थे वे भी साहू कहलाते थे । कवि के पिता का नाम रामदास और माता का नाम शिव था 1 इनके पितामह का नाम 'पदम' था । ये विद्वान् तथा चतुर पुरुष समझे जाते थे । सज्जनता इसमें फूट-कूट हुई। स्वयं मनों को परोपकारी बनाया था 1 देश-देश के बहुत से मित्र इनसे सभी प्रकारके कार्यों के लिए सलाह लिया करते थे। ये कवियों धौर विद्वानों को खूब सम्मान देते थे । कवि की वंशावली इस प्रकार है: २. समरीन सामिरिण सारखा सामिरिण संभार । worg परलउ प्रतिपय कविताएं काय ॥ अन्त भाग - गोल प्रबन्ध जे सांभलिए ए म्हाः ते नर नारि बनषस्व सु । सुदर्शन रिषि कक्लोए म्हा: चजविह संघ सूप्रसन्न ||२५|| पन्द्रह अट्ठहत्तर बरिसु संवर कुसल कन सरमु । निर्मल वैशाली खोज बुधवार गुनियहु जानीज || जिन पथ भत्तच होरिल साहू. सो जु वान पूज की पवाहू । तामु तु मनु सत्य जस गेहू. धर्मशील यंत जानेहू । तासु पुत्र जेठो करमसी, जिनमति सुमति जासु मन वसी 1 या श्रावि वे धर्म हि लीम, परम विवेकी पाप विहोम | क्रमशः Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि होरिल साहू करमसी पदम रामदास धर्मवास को जैन धर्म पर दृढ़ थद्वान था। वह शुद्ध धावक था तथा श्राव धर्म को जीवन में उतार लिया था । यद्यपि कवि गृहस्थ था। व्यापार करके पाजीविकोपार्जन करता या फिर भी उसका अधिक समय शास्त्रों के पठन-पाठन में व्यतीत होता था। जनधर्म सेवै नित्त, अरु वह लक्षण भाव पवित्त । नित निर्ग्रन्थ गुरनि मानउ, जिन प्रायम कह पठतु सुनहू । धर्मोपदेशश्रावकाचार में दैनिक जीवन में जन साधारण के मन में उतारने योग्य सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। अहिंसा, सत्य, प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रह परिमाण के अतिरिक्त पाठ मद, दस धर्म, बारह भावना प्रौर सप्त व्यसन पर विस्तृत प्रकाश डाला है । कवि ने रचना में अपना कोई पांडित्य का प्रदर्शन नहीं करके साधारण भाषा में विषम का वर्णन किया है। शब्दों को तोड़ मरोड़ कर प्रयोग करने की प्रादत कवि में नहीं पायी जाती पोर न प्रालंकारिक भाषा मे पाठकों के चित को उलझन में डालने की चेष्टा की गयी है । पवम नाम तक भी पृत, कवियनु वेदकु कला संजूत । प्रवर वतुत गुन गहिर समान, महा सुमति प्रति चतुर सुभानु । अरु सो सज्जनता गुरण लीन, पर उपगारी विधना कीन । बर मिन्त्री सस मनधि कोइ, सलह ही वेस देस को लोइ । राम सिवी सन तनिय कलस, परम सील वे पस्य पवित्र । तासु उबर सुत उपनी वेबि, जिनु तिजि प्रवस्त धावहिं ते वि । 4 को धर्म विनुह सिरमनी, जिहिं पर राम अवांगनी । क्यालीन जिनवर पय धुनी, पर पायो पनु धूलि सम गिर्न । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज संसारी जीव का वर्णन करते हुए कवि ने कहा है जो युवावस्था में विलासिता में फंसा रहता है, इन्द्रियों ने जिस पर विजय प्राप्त करली है जिसका जीवन इन्द्रियों की लालसा तथा कासना को पूर्ण करने में ही व्यतीत होता है । ऐसा मनुष्य संसारी कहलाने योग्य है उस मनुष्य को लौकिक जीवन के सुधारने में कभी सफलता नहीं मिलती । राग लीन जीवन महि रहे इन्द्री जिते परीसा सहै। ता कह सिद्धि कदाचित होइ संसारी तिन जानहु सोई॥ पण्डित प्रथवा विधेको मनुष्य वही है जो पुन, मित्र, स्त्री, वन प्रादि पर अनुचित मोह नहीं करता है तथा उनके उपयोग के अनुसार ही उन पर मोह करता है- पुत्र, मित्र नारी धन धानु, बंधु सरीर जु कुल असमान । अवरु प्रीय वस्तु अनुसरं ता पर राग न पण्डित करें। वेश्यागमन मनुष्य के लिए अति भयंकर है । वह उसे कसंख्य मार्ग से विमुख कर देता है । इस जीवन को तो दुखमय बना ही देता है किन्तु पारलौकिक जीवन को भी दुख में डाल देता है। सच्चरित्र पुरुष वेश्या के पास जाते हुए डरते हैं। क्योंकि ध्यसनों में फंसाना ही उसका काम होता है वेश्या संग धर्म को हरे, वेश्या संग नर्क को करें। जाते होइ सुगति को मंगु, नहि ते तज नौ वेश्या संगु ।। मनुष्य जीयन बार-बार नहीं मिलता। जो इस जीवन का सदुपयोग नहीं करता उसको अन्त में पश्चाताप के सिवा कुछ नहीं मिलता । जैसे समुद्र में फेंके गये माणक को फिर से प्राप्त करना मुश्किल है उसी प्रकार मनुष्य जीबन दुर्लभ है । लेकिन प्राप्त हुए मानव जीवन को यर्थ खोना सबसे बड़ी मूर्खता है । वह मनुष्य उस मूर्ख के समान है जो हाथ में पाये हुए माणक को कौए को उड़ाने में फेंक देता है समुद माइ मा शक गिरि जाइ, वूडत उछरत हाथ चहाइ । पुनु सो काग खडावन काज, राख्यो रतन मूल वे काज । तेम जीव भव सागर माहि, पायो मानुस जन्म मनाहि । श्रेष्ठ मनुष्यों की संगति ही जीवन को उन्नत करती है। कुसंगति से मनुष्य भ्यसनी बन जाता है। कुसंगति से गुणी-निगुणी, साघु प्रसाधु तथा धर्मात्मा पापी बन जाता है। यह उस दावानल के समान है जो हरे-भरे वन को जला कर राख कर देती है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि ज्वरी मांसाहारी जीव अवगनु, जिन्हि चोरी की भीष । पर निय लीन करहि मद पान, तिन सौं सत्रुन दूजो आन । करै कुमित्र संगु जो कोइ, गुनवन्तो जो निर्गुण होइ । सूखं दाद संग ज्मो हर्यो दावानल माहि पुनु सौ पर्यो । इस प्रकार कवि समाज के शिक्षक के रूप में हमारे समक्ष माता है । उसने यह दर्शाया है कि गृहस्थी रहकर भी मानव अपने जीवन को उन्नत बना सकता है। उसे साघु सन्यासी बनने की प्रावश्यकता नहीं है। कवि की रचना में प्रजभाषा तथा अवधी भाषा के शब्दों का प्रयोग अधिक हुपा है। इससे तत्कालीन हिन्दी साहित्य पर उक्त दोनों भाषामों का प्रभाव झलकसा है। अलंकारिक भाषा न होते हुए भी उदाहरणों के प्रयोग से रचना सुन्दर बन गयी है। ४. भट्टारक शुभचन्द्र शुभचन्द्र भट्टारक विजयकीति के शिष्य थे। वे अपने समय के प्रसिद्ध भट्टारक, साहित्य प्रेमी, धर्म प्रचारक एवं शास्त्रों के प्रबल विद्वान थे। इनका जन्म संवत् १५३०-४० के मध्य हुमा था। जब वे बालक थे तभी इनका भट्टारकों से सम्पर्क हो गया। पहले इन्होंने संस्कृत एवं प्राकृत के ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया। तत्पश्चात् व्याकरण एवं छन्द शास्त्र में निपुणता प्राप्त की। संवत् १५७३ में ये भट्टारक के सम्माननीय पद पर प्रासीन हो गये । इनकी कीति धीरे-धीरे देश में फैल गयी। ये राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब एवं उत्तर प्रदेश सभी प्रदेशों में लोकप्रिय बन गये। ये वक्तृत्व कला में पटु तथा भाकर्षक व्यक्तित्व वाले सन्त थे । इन्होंने जो साहित्य सेवा की थी वह अभूतपूर्व एवं अद्वितीय है। भट्टारक के उत्तरदायित्व एवं सम्माननीय पद पर होते हुए भी इनका विशाल साहित्य सर्जन अनुकरणीय है। शुभचन्द्र ४० वर्षों तक भट्टारक पद पर रहे । चालीस वर्षों में इन्होंने संस्कृत की ४० रचनाएं एवं हिन्दी की ७ रचनाओं का सर्जन किया। हिन्दी रचनाओं में "तत्वसार दुहा", "दान छन्द", "गुरु छन्द", "महावीर छन्द, नेमिनाथ छन्द, विजयकीनि छन्द एवं अष्टालिका गीत के नाम उल्लेखनीय हैं। तत्वसार दूहा के अतिरिक्त सभी सध कृतियां हैं। तत्वसार हा सैद्धान्तिक रचना है, जो जैन सिद्धान्त पर आधारित है । इसमें ६१ है हैं। इसे धावक दुलहा के मनुरोष से लिखा था । महावीर छन्द में २० पद्य हैं, इसी तरह विजयकीर्ति छन्द में २६ पद्य है । गुरु छन्द Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ में ११ तथा नेमिनाथ छन्द में २५ पद्य हैं ५. ब्रह्म यशोधर कविवर बुचराज ब्रह्म यशोधर का जन्म कब और कहाँ हुआ इस विषय में कोई निश्चित जानकारी उपलब्ध नहीं होती। लेकिन एक तो ये भट्टारक सोमकीर्ति (संवत् १५२६ से १५४०) के शिष्य थे तथा दूसरी इनकी रचनाओं में संवत् १५८१ एवं १५८५ ये दो रचना-काल दिये हुए हैं इसलिए इनका समय भी संवत् १५४० से १६०० तक के मध्य तक निश्चित किया जा सकता है। इनकी रचनाओं वाला एक गुटका नेवा (राजस्थान) के शास्त्र भण्डार में उपलब्ध हुआ है । उसमें इनकी बहुत सी रचनाएं दी हुई हैं तथा वह इनके स्वयं के हाथ का लिखा हुआ है । अब तक कवि के नेमिनाथ गीत (तीन) मल्लिनाथ गीत, बलिभद्र चौपई के प्रतिरिक्त अन्य कितने ही गीत उपलब्ध हुए हैं, जो विभिन्न शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत हैं । बलिभद्र चोपई इनकी सबसे बड़ी कृति है जो १८६ पद्यों में समाप्त होती है । कवि ने इसे संवत् १५८५ में स्कन्ध नगर के अजितनाथ के मन्दिर में पूरी की थी। कवि को सभी रचनाएं भाव भाषा एवं शैली की दृष्टि से उच्चस्तरीय रचनाएं हैं। ६. ईश्वर सूरि ये शान्ति सूरि के शिष्य थे। इनकी एकमात्र कृति 'ललिताङ्ग चरित्र' का उल्लेख मिश्र ने किया है । ललिताङ्ग चरित्र का रचना काल संवत् १५६१ है । १. ३. सालंकार समत्थं सच्छन्दं सरस सुगुरण सजुत ं । ललियंग क्रम चरियं ललपा लस्त्रियव निसुरह । महि महति मालव देस घण करणय सांच्छि निवेस । तिह नयर मयि दुग्ग भहि नवउ जाएकि सम्म । नव रस विलास उल्लोच नवगाह गेह कलोल निज बुद्धि बहुअ बिनारिण, गुरु धम्म कफ बहु जाणि । कवि का विस्तृत परिचय के लिए देखिये प्रभावक आचार्य - पृष्ठ संख्या १७८ से लेखक की कृति "वीर शासन के १०६ तक । २. विशेष परिचय के लिए लेखक की कृति 'राजस्थान के जन सन्त-व्यक्तित्व एवं कृतित्व पृष्ठ संख्या ८३ से ६२ । मिश्रजन् विनोद, पृष्ठ संख्या १३४ । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि इय पुण्य चरिय संबन्ध ललिग्नंग नुप संबंध । पह पास परियह चित्त उद्धरिय एह चरित्त ।। ७. बालचन्द इन्होंने संवत् १५८० में राम-सीता चरित्र की रचना की थी ।। ८. राजशील उपाध्याय खतरगच्छ के साधु हर्ष के शिष्य थे। इन्होंने संवत १५६३ में चित्तौड़ नगर में 'विक्रम चरिन चौपई' की रचना की थी। रचना कास एवं रचना स्थान का पर्णम निम्न प्रकार दिया हुमा है । पनरसह त्रिसठी सुविचारी जेठ मासि उजान पाखि सारी । चित्रकूट गढ तास मझाई भासा भभियण जय जयकारी। १. वाचा धाम धर्मसमुद्र पाचक विवेकसिंह के शिष्य थे। अब तक इनको निम्न रचनाएं प्राप्त हो चुकी है। सुमित्रकुमार रास - संवत् १५६७ गुणाकर चौपई - संवत् १५७३ कुलदज कुमार - संवत् १५८४ सुदर्शन रास समाय १०. सहजसुन्दर ये उपाध्याय रनममुद्र के शिष्य थे। संवत् १५७० से १५९६ तक लिखी नई इनकी २० रचनायें प्राप्त होती हैं। इनमें इलातीपुष सज्झाय, गुण रत्नाकर छन्द (सं० १५७२), ऋषिवत्ता रास, पात्मराग रास के नाम उल्लेखनीय है । ११. पाश्र्वचन्द्र सूरि पावचन्द्र सूरि का राजस्थानी जैन कवियों में उल्लेखनीय स्थान है। इन्हीं के नाम से पावचन्द्र गच्छ प्रसिद्ध हुना था । ६ वर्ष की प्रायु में ये मुनि मन गर । १. मिश्रबन्धु विनोद, पृष्ठ संख्या १४४ । २. राजस्थान का जैन साहित्य, पृष्ठ संख्या १३२ । ३. राजस्थान का जैन साहित्य, पृष्ठ संख्या १७३ । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर नूचराज गहन अध्ययन के पश्चात् १७ वर्ष की आयु में ये उपाध्याय बन गये । जब २८ वर्ष के थे तो ये श्राचार्य पद से सम्मानित किये गये । साहित्य निर्माण में इन्होंने गहन रुचि ली और पर्याप्त संख्या में ग्रन्य निर्माण करके एक कीर्तिमान स्थापित किया । इनकी भाषा टीकायें प्रसिद्ध हैं जिनमें राजस्थानी गद्य के दर्शन होते हैं ।" संवत् १५६७ में इन्होंने वस्तुपाल तेजपाल रास की रचना समाप्त की थी। १० १२. भक्तिलाभ एवं चारुचन्द्र भक्तिलाभ एवं चान्द्र दोनों गुरु शिष्य थे । राजस्थानी भाषा में इन्होंने कितने हो स्तवन लिखे थे। ये संस्कृत के भी अच्छे विद्वान थे । चारुचन्द्र ने संवत् १५७२ में बीकानेर में उत्तमकुमार चरित्र की रचना की थी १३. याचक विनयसमुद्र ये उपवेशीय गच्छ वाचक हर्षसमुद्र के शिष्य थे। मब तक इनकी ३० रचनाएं उपलब्ध हो चुकी है जिनका रचना काल संवत् १५८३ से १६१४ तक का है। इनको विक्रम पंचदंड सीपई (सं० १५८३) आराम शोभा चौपई (स० १५८३) प्रम्ब चौपई (सं० १५६६) मृगावती चौपई (स० (सं० १६०४) पद्म चरित्र (सं० १६०४) श्रादि के नाम उक्त कवियों के अतिरिक्त इन ४० वर्षों में जिन्होंने हिन्दी में विपुल साहित्य का निर्माण किया था। भण्डारों में ऐसे कवियों की खोज जारी है । १६०२ ) पद्मावती रास उल्लेखनीय है 14 और भी जैन कवि हुये हैं देश के विभिन्न शास्त्र ब्रह्म बूचराज कविवर ब्रह्म वृचराज विक्रम की १६ वीं शताब्दी के अन्तिम चरण के कवि थे । वे भट्टारकीय परम्परा के साधु थे तथा ब्रह्मवारी पद को सुशोभित करते I 1 थे । कवि ने अपना सबसे अधिक जीवन राजस्थान में ही व्यतीत किया था और एक स्थान से दूसरे स्थान पर बराबर विहार करके यहाँ की साहित्यिक जाति में अपना योग दिया था। रूपक काव्यों के निर्माण में उन्होंने सबसे अधिक रुचि ली साथ हो जन सामान्य में अपने काव्यों के माध्यम से आध्यात्मिकता का प्रचार प्रसार क्रिया । १. राजस्थान का जैन साहित्य पृष्ठ १७३ । २. हिन्दी रासो काव्य परम्परा -पृष्ठ १३६-९७ १ राजस्थान का जैन साहित्य पृष्ठ १७३ । ३. ४. विस्तृत परिचय के लिए- राजस्थानी साहित्य का मध्यकाल – पृष्ठ ६६-७६. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ कविवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि ब्रह्म वृचराज भट्टारक भुवनकीर्ति के शिष्य थे। जो सपने समय के सम्माननीय भट्टारक थे । वे सफलकीति जैसे भट्टारक के पश्चात् भट्टारक पद पर विराजमान हुए थे। बुचराज मे मुवनकीर्ति गीत में भट्टारक रत्नकीति का भी उल्लेख किया है जिससे जान पड़ता है कि कवि को अपने अन्तिम समय में कभी-कभी भट्टारक रत्नीति के पास रहने का सौभाग्य भी प्राप्त हुभा था । इसीलिए उन्होंने भुवनकीति गीत में 'रणि श्री कोति सिहं कपिना सुर" रत्नक्रीति के प्रति अपनी भक्ति प्रदर्शित की है। लेकिन धनका पर्याप्त समय पंजाब के नगरों अपने जन्म स्थान, माता-पिता, शिक्षा-दीक्षा. इनकी पत्रिकांश रचनाएँ कवि राजस्थानी विद्वान थे। में व्यतीत हुआ था। इन्होंने स्वयं आयु प्रादि के बारे में कुछ भी परिचय नहीं दिया। राजस्थान के शास्त्र भण्डारों में ही उपलब्ध हुई है। इसलिए इन्हें राजस्थानी विद्रात्र कहा जा सकता है। इन्होंने अपनी दो रचनाओं में रचना संवत् का उल्लेख किया है । जो संवत् १५५६ एवं संवत् १५९१ है । संवत् १५८६ में रवित मयरणजुज्झ में इन्होंने न किसी स्थान विशेष का उल्लेख किया है और न किसी व्यक्ति विशेष का परिचय दिया। इसी तरह संवत् १५६१ में रचित 'संतोष जय तिलकु' में केवल हिसार नगर में काव्य रचना समाप्त करने का उल्लेख किया है। अतः वंश एवं माता-पिता का परिचय प्रस्तुत करना कठिन है । दूधराज का प्रथम नामोल्लेख संवत् १५८२ की एक प्रशस्ति में मिलता है । यह प्रशस्ति 'सम्यकत्व कौमुदी' के लिपि कर्त्ता द्वारा लिखी हुई है। उसमें भट्टारक प्रभाचन्द्र देव के प्रास्ताय का, चम्पावती (चाकसू, जयपुर) नगर का, वहाँ के शासक महाराजा रामचन्द्र का उल्लेख किया गया है । चम्पावती के श्रावक खण्डेलवाल ऋशीय साह गोत्र वाले साह काफिल एवं उनके परिवार के सदस्यों ने सम्यक्त्व कौमुदी की प्रति लिखवाकर ब्रह्म बूचराज को प्रदान की थी। संवत् १५५२ में कवि चम्पावती में थे । वहां मूल संघ के और ये भी उन्हीं के संघ में रहते थे। 2 इससे ज्ञात होता है कि भट्टारकों का जोर था चम्पावती उस समय भट्टारक प्रभाचन्द्र १. श्री भुवनकोति चरण प्रणमोह सखी प्राज बखावहो । भुवनकीर्ति गीत २. संवत् १५८२ वर्षे फाल्गुन सुदी १४ शुभविने श्री मूलसंधे बलात्कार सरस्वतीच्छे थाम्नाये श्री कुरवकुम्वाचार्यान्वये भट्टारक श्री पद्मनवि-देवा स्तत्पट्टे भट्टारक भी शुभ सन्द्र देवास्तरपट्टे भट्टारक श्री जिनचखवेवास्तत्पट्टे क्रमशः Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज १२ एवं ब्रह्मवारी शिष्यों का केन्द्र थी। इसी संवत् में राजवातिक जैसे ग्रन्थ की प्रति करवाकर ब्रह्म लाल को दी गयी थी। संवत् १५७५ से १५८५ तक जितनी प्रशस्तियाँ हमारे संग्रह में उपलब्ध होती है उन सभी के ग्रन्थ किसी न किसी भट्टारक अथवा उनके शिष्य, ब्रह्मचारी या साधु को भेंट किये गये थे। उस समय बुचराज की भट्टारक प्रभावन्द्र के प्रिय शिष्यों में गिनती थी। इनकी सम्भवतः वह साधु बनने की प्रारम्भिक अवस्था थी। भट्टारक संघ में संस्कृत एवं प्राकृत के ग्रन्थों का अध्ययन चलता था । इसीलिए भट्टारक प्रभाचन्द्र अपने शिष्यों के पठनार्थ ग्रन्थों की प्रतियों भेंट स्वरूप प्राप्त करते रहते थे । चाटसू (चम्पावती) से इनका विहार किधर हुआ इसका स्पष्ट निर्देश तो नहीं किया जा सकता लेकिन संवत् १५८० में ये राजस्थान के किसी नगर में थे । वहीं रहते हुए इन्होंने अपनी प्रथम कृति 'मयणजुज्भ' को समाप्त की थी। यह अपभ्रंश प्रभावित कृति है । संवत् १५६१ में वे हिसार पहुँच गये और वहाँ हिन्दी में इन्होंने 'संतोष जयतिलकु' की रचना समाप्त की । उस दिन भादवा सुदी पंचमी श्री । पर्यंषण पर्व का प्रथम दिन था । वृचराज ने लोकांत शल पर्व में स्वाध्याय के लिए समाज को समर्पित की। संवतोल्लेख वाली कवि की यह दूसरी व अन्तिम कृति है । इस कृति के पश्चात् कवि की जितनी भी शेष कृतियाँ प्राप्त हुई है उनमें किसी में संवत् दिया हुआ नहीं है । हस्तिनापुर गमन कवि ने अपने एक गीत में हस्तिनापुर के मन्दिर एवं शान्तिनाथ स्वामी के मन्दिर का वर्णन किया है तथा वहाँ पर होने वाले कथा पाठ का उल्लेख किया है 1 इससे मालूम पड़ता है कि कवि हस्तिनापुर दर्शनार्थं गये थे । १. भट्टारक श्री प्रभाचन्द्रदेवास्तवाम्नाये चंपावती नामनगरे महाराव श्री रामचन्द्रराज्ये खंडेलवालान्वये साह गोत्रे संघभार धुरंधर सा० काथिल भार्याकालदे तस्य पुत्र जिनपूजापुरम्बर सा० गुजर भार्या प्रथम लाखी कुतीया सरो "एतान् इवं शास्त्रं कौमुदी लिखाप्य कर्मक्षय निमित्तं ब्रह्म चाय दत्तं । ++** ( प्रशस्ति संग्रह - सम्पादक डा० फासलीवाल पृष्ठ, ६३ ) देखिये प्रशस्ति संग्रह --- सम्पादक डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल, पृ० ५४ । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतियाँ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि चुकी है उक्त दोनों कृतियों सहित वृचराज की भब तक निम्न रचनाएँ प्राप्त हो १. मयजुज्झ २. सन्तोष जयतिलकु १२ ३. बारहमासा नेमीस्वर का ४ चेतन पुद्गल धमाल ५. नेमिनाथ बसंतु ६ टंडारणा गीत ७. भुवनक्रीति गीत ८. नेमि गीत ६. विभिन्न रागों में निबद्ध ११ गीत एवं पद 1 इस प्रकार कवि की अब तक १९ कृतियाँ प्राप्त हो चुकी है जो भाषा, शैली एवं भावों की दृष्टि से हिन्दी की अच्छी रचनाएं है । कवि के पदों पर पंजाबी भाषा का स्पष्ट प्रभाव है जिससे मालूम पड़ता है कि कवि पंजाबी भाषा भाषी भी थे । विभिन्न नाम कविवर बुचराज के और भी नाम मिलते हैं। यूचराज के अतिरिक्त ये नाम हैं बूचा, वल्ह, बोल्ह वय । कहीं-कहीं एक ही कृति में दोनों प्रकार के नामों का प्रयोग हुआ है। इससे लगता है कि बूवराज अपने समय के लोकप्रिय कवि थे और विभिन्न नामों से जन सामान्य को अपनी कविताओं का रसास्वादन कराया करते थे । वैसे उनका दूधा प्रथवा वृचराज सबसे अधिक लोकप्रिय नाम रहा था । समय कत्रि के समय के बारे में निश्चित तो कुछ भी नहीं कहा जा सकता । लेकिन यदि उनकी आयु ५० वर्ष की भी मान ली जाये तो हम उनका समय संवत् १५३०-१६०० तक का निश्चित कर सकते हैं । आाखिर संवत् १५६१ के बाद उन्होंने जितनी कृतियों को छन्दोबद्ध किया था उसमें कुछ बर्ष तो लगे ही होंगे । इसके अतिरिक्त ऐसा लगता है उन्होंने साहित्य लेखन का कार्य जीवन के प्रतिम १५-२० वर्षों में ब्रहाचारी की दीक्षा लेने और संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश का गहरा अध्ययन करने के पश्चाद ही किया था । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुचराज कवि ने अपनी किसी भी कृति में तत्कालीन शासक का उल्लेख नहीं किया मोर न उनके बछे पुरे शास:: नारे में लिदा । नार पड़ता है कि उस समय देश में कोई भी शासक कवि को प्रभावित नहीं कर सका था इसलिए कवि ने उनका नामोल्लेख करने की अावश्यकता ही नहीं समझी । मयराजुज्झ (मदन युद्ध) मयणजुज्झ कवि की संवतोल्लेख वाली प्रथम रचना है । यह अपभ्रंश भाषा प्रभावित हिन्दी कृति है। हिन्दी अपभ्रश का किस प्रकार स्थान ले रही थी यह कृति इसका स्पष्ट उदाहरण है । मदनयुद्ध एक रूपक काव्य है जिसमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव एवं कामदेव के मध्य युद्ध होने पर भगवान ऋषभदेव की उस पर विजय बतलाई गयी है। __ मदनयुद्ध कवि की प्रथम रचना है यह तो स्पष्ट नहीं कहा जा सकता क्योंकि उनकी अधिकांश रचनाओं में रचना काल दिया हृमा नहीं हैं। फिर भी ऐसा लगता है कि यह उनकी प्रारम्भिक रचना है जिसमें उन्होंने अपभ्रंश भाषा का प्रयोग किया है और इसके पश्चात् जब केवल हिन्दी की ही रचनाओं की मांग हुई तो कवि ने अन्य रचनामों में केबल हिन्दी का ही प्रयोग किया। इस काव्य का रचना काल संवत् १५८९ प्राश्विन शुक्ला प्रतिपदा शनिवार है। कृति में रचना स्थान का कोई उल्लेख नहीं मिलता। इस रूपक काव्य में १५६ पद्य हैं। जो विभिन्न छन्दों में निबद्ध है । इन छन्दों में गाथा, रड. मडिल्ल, दोहा, रंगिका, षट्पद कविस भादि के नाम उल्लेखनीय हैं। भाषा की दृष्टि से हम इसे हिगल की रचना कह सकते हैं। शब्दों पर जोर देने की दृष्टि से उन्हें अगलात्मक बनाया गया है । जैसे निर्माण के लिए रिणवाणि, पैदा होने के लिए उपज्जइ. एक के लिए इकु (१७) अधर्म के लिए अषम्म आदि इसके उदाहरण है । काव्य की कथा बड़ी रोचक एवं शिक्षा पद है । कथा भाग का सारांश निम्न प्रकार है। कथा प्रारम्भिक मंगलाचरण के पश्चात् कवि ने कहा है कि काया रूपी दुर्ग में चेतन राजा निवास करते हैं । मन उनका मंत्री है। प्रवृत्ति और नित्ति ये वो उसकी स्त्रियां हैं। दोनों के ही एक-एक पुत्र उत्पन्न होता है जिनके नाम मोह एवं १. राह विक्कम तराज संवतु नवासिय पनरहसे सरद कृति आसवज वखाणिज । तिथि पडवा मुकलु पषु, सनि सुचारू फह नखित आरिपज 11 मयप जुगक Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर वृचराज एवं उनके समकालीन कवि विवेक हैं । चेतन राजा से दोनों को ही बराबर स्नेह मिलता है। मोह के घर में माया रानी होती है जो जगत को सहज ही में फुसला लेती है । निवृति विवेक को साथ लेकर नगर छोड़ देती है । वे दोनों कागे वलकर पुण्य नगर पहुंचते हैं जहाँ चेतन राजा राज्य करते थे। वहाँ उन दोनों को बहुत आदर दिया गया। सुमति का विवाह विवेक के साथ हो जाता है । विवेक का वहाँ राज्य हो जाता है । १५ इससे मोह को बहुत निराशा होती है। उसने पुण्या नगर में अपने चार दूत भेजे। उनमें से तीन तो वापिस चले आये केवल वहाँ कपट बचा जो सरोघर पर पानी मरने वाली महिलाओं के पास जाकर बैठ गया । नगर में ज्ञान जल सरोवर भरा हुआ था । वहाँ जो वृक्ष मे से मानी प्रत रूप ही थे। उस पर जो पक्षी बैठते थे वे मानों रिद्धि रूप में ही थे । कपट ने साधु का वेष धारण करके नगर में प्रवेश किया । वहाँ उसने न्याय नीति का मार्ग देखा तथा इन्द्र लोक के समान सुख देखे । वहाँ से वह अधर्मपुरी पहुँचा तथा मोह से सब वृतान्त कह सुनाया । अपने दूत द्वारा सभ वृतान्त सुनकर उसे बड़ा विषाद हुआ और उसने शीघ्र ही रोष, झूठ, शोक संताप, संकल्प विकल्प, चिता, दुराब, क्लेश आदि सभी को अपने दरबार में बुलाया और निम्न वाक्य कहे करित्रि सभा तब मोह मदु व चित मन महि जब लग जीवन विशेष इहु तब लगु सुख हम नाहि ||३३|| मोह की बात सुनकर उसका पुत्र कामदेव उठा और उसने निवृत्ति के पुत्र विवेक को बांध कर लाने का वचन दिया । इससे सभी और प्रसन्नता छा गयी । उसने कुमति, कुसीस एवं कुबुद्धि को साथ लिया ! साथ में सर्वप्रथम उसने बसन्त को नवपल्लव एवं पुष्पों से लद भ्रमर गुंजार करने लगे । कामदेव को अपनी विजय पर पूर्ण भरोसा था। भेजा । बसन्त के आगमन से चारों ओर वृक्ष एवं लताएं गयी । कोयल कुहु कुहु की मधुर तान छेड़ने लगी तथा सुरभित मलयानिल, सुन्दर मधुर गीत एवं वीणा आदि वाद्यों के मधुर गीत सुनायी देने लगे । चारों ओर अजीब मादकता दिखाई देने लगी । मदनराज आ गये हैं यह चर्चा होने लगी । कामदेव ने बहुत से ऋषि मुनियों को तप से गिरा दिया। बड़े-बड़े योद्धा जिन्हें अब तक मदोन्मत्त हाथी एवं सिंह कामदेव के वशीभूत होकर चारों खाने चित्त पड़ गये। इस प्रकार कामदेव सब पर विजय प्राप्त करता हुआ उस वन में पहुँचा जहाँ भगवान ऋषभदेव ध्यानस्थ थे । वह धर्मपुरी थी। विवेक ने सयमश्री का विवाह आदिनाथ से कर दिया था। लेकिन जब उसने कामदेव का आगमन सुना तो शत्रु को पीठ दिखा कर भागने भी डरा नहीं सके थे वे सन Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ कविचर बूचराज की अपेक्षा लड़ना उचित समझा। मदन सब देशों पर विजय प्राप्त करके स्वच्छन्द विश्वरने लगा । नट व माट उसकी जय जयकार कर रहे थे । विशाल एवं गंधर्व गीत गा रहे ये । कामदेव जब विजय प्राप्त करके लौटा तो उसका मच्छा स्वागत हुआ। रति ने भी कामदेव का खूब स्वागत किया और उसको विजय पर बधाई दी। लेकिन साथ में यह भी प्रश्न किया कि उसने कौन-कौन से देश पर विजय प्राप्त की है । इस पर कामदेव ने निम्न प्रकार उत्तर दिया जिरिंग संकम इंदु हरि बंभु वासिन्य पयानि जिसु । इंद्र चंदु गगरण तारायण विद्याधर यक्ष सुगंधब्व सहि देव गरम इण । जोगी जंगम कापडी सन्यासी रस छंदि ले ले तपु वण महि दुढिय ते मई घाले बंदि ॥ ६२ ॥ रति ने अपने पति कामदेव की प्रशंसा करते हुए कहा कि धर्मपुरी को प्रभी और जीतना है जहाँ भगवान का ऋषभदेव का साम्राज्य है। रति की बात सुनकर कामदेव को बहुत क्रोध प्राया धौर वह तत्काल धर्मपुरी को विजय करने के लिए चल पड़ा । उसने प्रादीश्वर को शीघ्र ही वश में करने की घोषणा की। कामदेव ने अपने साथी क्रोध, मोह, मान एवं माया सभी को साथ लिया और धर्मपुरी पर आक्रमण कर दिया। श्रपने विपुल हावभाव एव विलास रूपी शस्त्रों से उन्हें जीतने का उपक्रम किया । दोनों प्रोर युद्ध के लिए खूब तैयारी की गयी तथा एक ओर सभी विकारों ने ऋषभदेव के गुणों पर आक्रमण कर दिया। प्रज्ञान ने ज्ञान को पछाड़ने का उपक्रम किया। मिध्यात्व जैसे सुभट ने पूरे वेग से आक्रमण किया। लेकिन सम्यक्त्व रूपी योद्धा ने अपनी पूरी ताकत से मिथ्यात्व का सामना किया । जैसे सूर्य को देखकर अन्धकार छिप जाता है उसी प्रकार मिथ्यात्व भी सम्यकत्व के सामने नहीं टिक सका। राग ने गरज कर अपना ग्रस्त्र चलाया लेकिन वैराग्य ने इसके भार को बेकार कर दिया । मद ने अपने माठ साथियों के साथ ऋषभदेव पर एकसाथ प्राक्रमण किया लेकिन ऋषभदेव ने उन्हें मार्दव धर्म से सहज ही में जीत लिया। इसके पश्चात् माया ने अपना जाल फेंका और बाईस परिषहों ने एक साथ पाक्रमण किया । लेकिन ऋषभदेव ने माया को म्रार्जव से तथा बाईस परिषदों को अपने 'धीरज' सुभट से सहज ही में जीत लिया। इसके पश्चात् 'कलह' ने पूरे वेग से अपना अधिकार जमाना चाहा लेकिन क्षमा के सामने वह भी भाग गया। जब नहीं चला और वह मुख फेर कर चल विजय प्राप्त करना चाहा। उसका बढ़ता और कभी पीछे हट जाता। मोह का कोई वश दिया तो लोभ ने अपनी पूरी सामर्थ्य से प्रभाव सारे विश्व में व्याप्त है, कभी वह बागे लेकिन जब सन्तोष ने पूरे वेग से प्रत्याक्रमण किया तो व ठहर नहीं सका | कुशील पर ब्रह्मचर्य ने विजय प्राप्त की । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि १७ ऋषभदेव ने कुमति को तो पहिले ही छोड़ दिया था इसलिए सुमति ही विवेक के साथ हो गयी । लेकिन मोह ने अपने सभी साथियों की हार सुनी तो उसकी आँखें लाल हो गयी तथा वह दांत पीसने लगा सपा अपने रोद्र रूप से उसने माक्रमण कर दिया । ऋषभदेव । विवेक रूपो सुमों को बुलाया भोर स्वयं अपूर्वकरण गुणस्थान में विचरने लगे। मोह की एक भी चाल नहीं चली और अन्त में वह भी मुख मोड़ कर चल दिया। जब कामदेव ने मोह को भी भागते देखा तो वह अपनी पूरी सेना के साथ मैदान में उतर गया। लेकिन ऋषभदेव संयम रूपी रूप में सवार हो गये थे। तीन गुप्तियों उनके रथ के घोड़े थे । पंप महारत एवं क्षमा उनके योद्धा थे । ज्ञान रूपी तलवार को हाथ में लेकर सम्यक्त्व का छत्र तान कर वे मैदान में उतरे । रणभूमि से कामदेव के सहायक एक-एक करके भागना चाहा । लेकिन ऋषभदेव ने युद्ध भूमि का घेरा इतना सीव किया कि कोई भी वहां से भाग नहीं सका और सबको एक-एक करके जीत लिया गया । चारों कषायों को जीत लिया, मिथ्यात्व का पता भी नहीं चला । ऋषभदेव को कैवल्य होते ही देवो ने दुभि बजानी प्रारम्भ कर दी स्था चारों दिशाओं में ऋषमदेव के गुणगान होने लगे । __इस प्रकार कवि ने प्रस्तुत काव्य में काम विकार एवं उसके साथियों पर जिस प्रकार गुणों की विजय बतलायी है वह अपने आप में अपूर्व है । इस प्रकार के रूपक काव्यों का निर्माण करके जैन कवि अपने पाठकों को तत्कालीन युद्ध के वातावरण से परिचित भी रखते थे तथा उन्हें प्राध्यात्मिकता से दूर भी नहीं होने देते थे । भाषा एवं शैली मयणजुज्झ यद्यपि अपभ्रंश प्रभावित कृति है लेकिन इसमें हिन्दी के शब्दों का एवं उसके दोहा एवं रष्ट, षट्पद, वस्तुबंध एवं फमित्त जैसे छन्दों का प्रयोग इस बाल का द्योतक है कि देशवासियों का मानस हिन्दी की पोर हो रहा था तथा वे हिन्दी की कृतियों के पढ़ने के लिए लालायित थे । हिन्दी का प्रारम्भिक विकास जानने के लिए मयरण जुज्झ अच्छी कृति है। कषि ने कुछ तत्कालीन प्रचलित शब्दों का भी प्रयोग किया है । उसने सेना के स्थान पर फोन शब्द का तथा तुरही के स्थान पर नफीरी का प्रयोग किया है। १ ले फीज सबलु संकहि करिव विधेक भा माइयउ । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज इससे पता चलता है कि कगि : पति शम्शे रोग का पोर नहीं त्याग सका सौर उसने अपने काव्य को लोकप्रिय बनाने के लिए प्रचलित शब्दों का प्रयोग करके उनको भी प्रश्नाने का प्रयास किया। भयराजुज्झ की राजस्थान के शास्त्र भण्डारों में कितनी ही प्रतियाँ संग्रहीत है । इनमें निम्न उल्लेखनीय है । १. भट्टारकीय शास्त्र भण्डार अजमेर गुटका सं० २३२ पश्च सं० १५८ लिपि सवत् १६१६ २. दि. जैन मन्दिर दीवानजी कामां , १ -- - ३. वि० जैन मन्दिर लश्कर, जयपुर , १६ - ४. दि जैन मन्दिर बड़ा तेरहपंथी जयपुर, २४२ - लिपि सं० १७०५ ५. दि. जैन मन्दिर बड़ा तेरहपंथी, जयपुर, २७६ - १७०७ ६. महावीर भवन, जयपुर ७. दि. जैन मन्दिर नागवी, बूदी १.४ १४२ - २. संतोष जयतिलक बूचराज की यह दूसरी रचना है जिसमें उसने रमना समाप्ति का उल्लेख किया है। संतोष जयतिलक का रचना काल संवत् १५६१ भाद्रपद शुक्ला ५ है अर्थात् मयण जुन्झ के ठीक २ वर्ष पश्चात् कवि ने प्रस्तुत कृति को समाप्त किया था 14 दो वर्ष के मध्य में कवि केवल एकमात्र रचना लिख सके अथवा अन्य लघु रचनाओं को भी स्थान दिया इसके सम्बन्ध में निश्चित जानकारी नहीं मिलती है। लेकिन कवि राजस्थान से पजाब चले गये थे यह प्रवश्य सत्य है। प्रस्तुत कृति को उन्होंने हिसार में छन्दोबद्ध की थी । जैसा कि स्वयं कवि ने उस्लेख किया है संतोषह जय तिला जंपिङ हिसार नयर मंझ में । जे सुणहि भविय इक्क मनि ते पावहि वंछिय सुक्ख ।। संतोष जय तिनकु भी एक रूपक काव्य है जिसमें लोभ पर संतोष की विजय बतलायी १. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डार को ग्रन्थ सूची पंचम भाग पृष्ठ ६८४, १०८८, ११०६ । बही, द्वितीय भाग। ३. वही, प्रथम भाग 1 ४. संवति पनरइ इमारण भरवि सिय पक्खि पंचमी विवसे । सुक्कवारि स्वाति वृषे जैज तह जागि भरणामेण ॥१२२।। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि गयी है | मयण जुज्झ में जिस प्रकार ऋषभदेव नायक एवं फामदेव प्रतिनायक है उसी प्रकार प्रस्तुत काव्य में संतोष नायक एवं लोम प्रतिनायक है । ऐसा सगता से कि कवि प्रात्मिक षिकारों की वास्तविकता को पाठकों के सामने प्रस्तुत करके उन्हें मात्मिक गुणों की पोर लगाना चाहता था तथा मात्मिक गुणों की महत्ता को रूपक काव्यों के माध्यम से प्रकट करना उसको अधिक रुचिकर प्रतीत होता था। प्रस्तुत रूपक काव्य में १२३ पद्य हैं जो साटिक, रड, गाथा एपद, दोहा, पडी छंद, मडिल्ल, चंदाइण छन्द, गीतिका छन्द, तोटक छन्द, रंगिका छन्द, जैसे छन्दों में विभक्त है । छोटे से काव्य में विभिन्न ११ छन्दों का प्रयोग फवि के छन्द गानी बोर तो का: साल का है साथ ही में सत्कालीन पाठकों की रुचि का भी हमें बोष कराता है कि पाठक ऐसे काव्यों का संगीत के माध्यम से सुनना अधिक पसन्द करते थे। इसके अतिरिक्त उस समय सगुण भक्ति के गुणानुवाद से भी पाठक गए ऊब मुके थे इसलिए भी वे मध्यात्म की मोर झक रहे थे। प्रस्तुत काव्य की संक्षिप्त कथा निम्न प्रकार है। मंगलाचरण के पश्चात् कथि लिखता है कि भगवान महावीर का समवमरण पावापुरी में आता है। भगवान की जब दिव्य ध्वनि नहीं खिरती तब इन्द्र गौतम ऋषि के पास जाला है और कहता है कि महावीर ने तो मौन धारण कर रखा है इसलिए "काल्यं द्रव्य षटक नव पद सहितं ' प्रादि पद्य का अर्थ कौन समझा सकता है ? तब गोतम तत्काल इन्द्र के साथ जाने को तैयार हो जाते हैं। जब वे दोनों महावीर के समवसरण में स्थित मानस्तम्भ के पास पहुंचते हैं तो मानस्तम्भ को देखते ही गौतम का मान द्रवित हो जाता है । देखंत मानथंभो गलिमउ तिसु मानु मनह मज्झमे। हूचउ सरल पणामो पुछ गोइमु चित्ति सदेहो ॥१०॥ गौतम ने भगवान महावीर से पूछा कि स्वामी, यह जीव संसार में लोभ के वशीभूत रहता है तो उसके बचने के क्या उपाय हैं ? क्योंकि लोभ के कारण ही मानव प्राणिवध करता है, लोभ के कारण ही वह झूठ बोलता है। लोभ से ही वह दूसरों के दृष्य ग्रहण करता है। सब परिग्रहों के संग्रह में भी लोभ ही कारण है। जिस प्रकार तेल की बूद पानी में फैल जाती है उसी प्रकार यह लोभ भी फैलता रहता है । एक इन्म्यि के वश में प्राने से यह प्राणी इतने दुःख पाता है तो पांच इन्द्रियों के वशीभूत होने पर उसकी क्या दशा होगी, यह वह स्वयं जान सकता है । लोमी मनूष्य' उस कीड़े के समान है जो मधु का संचय ही करता है उसका उपयोग नहीं करता है। क्रोध, मान, माया तथा लोभ इन मारो में लोभ ही प्रमुख है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर चूचराज . इसके साथ ही तीन अन्य कषायों का प्रादुर्भाव होता है। जैसे सर्प के गले में गरल विष संयुक्त होता है उसी प्रकार राग एवं हम दोनों ही लोभ के पुत्र है। जो राग सरल स्वभावी एवं द्वेष वक्र स्वभावी होता है। लोभ के इन दोनों पुत्रों ने सभी प्राणियों को अपने वशीभूत कर रखा है फिर चाहे वह योगी हो अथवा यति एवं मुनि हो । भगवान महावीर गौतम ऋषि से कहते हैं कि प्राणी को चारों गप्ति में डुलाने वाला यह लोभ ही है, इसलिए लोभ से बुरा कोई विकार नहीं है। गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से फिर प्रश्न किया कि लोभ पर किस प्रकार विजय प्राप्त की जा सकती है तथा किस महापुरुष ने लोभ पर विजय पायी है । इस प्रकार भगवान महावीर ने निम्न प्रकार कहा सुबह गोइम कहा जिणगाव यहु लासरणु धिम्मलइ, सुणतं धम्भु भव बंध तुट्टहि अति सूषिम भेद सुरिण, मान सदेह खिरण माहि मिट्टहि । काल प्रतिहि ज्ञान यहि कहियस प्रादि प्रनादि । लोमु दुसह इव अिप्तियइ संतोषह परसादि ॥४८।। लेकिन गौतम ने भगवान से फिर निवेदन किया कि संतोष कसे पैदा हो, उसके रहने का स्थान कौन सा है। किसके साथ होने से उसमें शक्ति पाती है। उसकी कौन-कौन सी सेना दल है तथा संतोष सुभट कैसा है | जब तक ये सत्र मालुम नहीं होगा लोभ पर विजय प्राप्त करना सम्भव नहीं है। महावीर स्वामी ने कहा कि प्रात्मा में संतोष स्वाभाविक रूप से पैदा होता है तथा वह आत्मपुरी में ही रहता है । धर्म की सेना ही उसका बल है। ज्ञान रूपी बुद्धि से उस पर विजय प्राप्त की जा सकती है। जिस प्राणि ने संतोष को अपने में उतार लिमा बस समझलो कि उसने जगत को ही जीत लिया। जिसके जितना अधिक संतोष होगा उसको उतना ही मुम्न प्राप्त हो सकेगा। संतोषी प्राणी में राम द्वेष की प्रवृत्ति नहीं होती तथा वह शत्रु मित्र में समान भाव रखने वाला होता है । जिनके हृदय में संतोष है उनकी बुद्धि चन्द्र कला के समान होती है तथा उनका हृदय कमल खिल जाता है । संतोष एक चिंतामणि रत्न हैं जिससे वित्त प्रसन्न रहता हैं। वह कामधेनु के समान सबको बाछित फल देता रहता है । जहाँ संतोष है वहाँ सब सुख विद्यमान हैं । संतोष से उत्तम ध्यान होता है, परिणामों में सरलता प्राती है । वांछित सुखों को प्राप्ति होती है। संतोष से संबर तत्व की प्राप्ति होती है जिसके सहारे संसार को पार किया जा सकता है और अन्त में निर्वाण की प्राप्ति हो सकती है। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि २१ इधर अब लोभ को संतोष की बात मालुम हुई तो बह बहुत क्रोषित हमा और उसने संतोष को सदा के लिए समाप्त करने की घोषणा कर दी। उसने उम समय भूठ को अपना प्रधान बनाया । मोर एवं द्रोह, फल एवं कलेश, पाय एवं संताप सभी को उसने एकषित किया। मिथ्यात्व, कुष्यसन, कुशील, कुमति, राम एवं ष सभी वहाँ मा गये और इन सब को अपने साथ देखकर लोभ प्रसत्र हो गया। उसने कपट रूपी नगाड़ों को बजाया तथा विषय रूपी घोड़ों पर बैठकर संतोष पर प्राक्रमण कर दिया । मंतोष ने जब लोभ रूपी शत्र का प्राक्रमण सुना तो उसे प्रसन्नता हुई । उसका सेनापति प्रात्मा बहीं आ गया मोर उसने अपनी सेना को भी यहीं बुला लिया । वहाँ १८००० अंगरक्षकों के साथ शील सुभट पाया। साथ में ही सभ्यक् दर्शन, ज्ञान एवं पारिन, वैराग्य, तप, करुणा, पंच महावत, क्षमा एवं संयम मावि सभी यौद्धा वहाँ पा गये । वह अपने सैनिकों को लेकर लोभ से जा टकराया । जिन शासन की जय जयकार होने लगी तो मिथ्यात्व भागने लगा। जय जयकार की महाधुनि को सुनकर ही कितने ही शात्रु पक्ष के योद्धा लड़खड़ा गये । शील का चोला पहनकर रलत्रय के हाथी पर सवार होकर विवेक की तलवार लेकर सम्यकरव रूपी छत्र पहनकर पद्म एवं शुक्ल लेण्या के जिस पर चंबर ढ़ल रहे थे, ऐसा संतोष राजा रण में लोभ से जा भिडा । उसने अपने दल के अन्दर अध्यात्म का संचार किया । जो शुरवीरों के हृदयों में जाकर बैठ गया । एक प्रोर लोभ छलकपट से अपनी शक्ति को तोखने लगा तथा दूसरी भोर संतोष ने अपने सुभदों में सरलता एवं निमलता के भाव मरे । इस पर दोनों ओर से चतुरंगिनी सेना एकत्रित हो गयी। भेरी बजने लगी। तब लोभ ने अपने सैनिकों को संतोष के सैनिकों पर प्राक्रमण करने के लिए ललकारा । संतोष ने लोभ से कहा कि ऐसा लगता है कि उसके सिर पर काल चढ़ गया है। उसके सब साथियों को मूढ़ता सता रही है । जहाँ सोभ है वहां रात दिन यह प्राणी दु:ख सहता रहता है। लेकिन जहाँ संतोष है यहाँ उसकी इन्द्र एवं नरेन्द्र सेवा करते हैं । लोभ ने जमत में प्रभी तक सभी को सताया है तथा जगत में सभी को जीत रखा है, लेकिन प्राज संतोष का पौरुष भी देखे । यह सुनकर लोभ ने भूठ को प्रागे भेजा । लेकिन संतोष ने सत्य को भेजा मोर उसने उसका सिर काट लिया। इसके पश्चात् मान को बीड़ा दिया गया और वह जब रणभूमि में उतरा तो मार्दव ने उसका सामना किया मोर उसको बलहीन कर दिया। लेकिन फिर भी वह हटा नहीं तो महावतों ने एक साथ उस पर प्राक्रमण कर दिया पौर अरण भर में ही उसे परास्त कर दिया । अब मोह अपने प्रचण्ड हाथी पर बैठ कर आगे बढ़ा । मोह को देखकर विधेक उठा और उसे रणभूमि में से भागने Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुचराज पर मजबूर कर दिया । माया ने विवध रूप धारण कर लिया और यह समझा कि उससे लड़ने की किसी में शक्ति नहीं है । लेकिन आर्जव ने उसे सहज में ही जीत लिया । क्रोध को क्षमा से तथा मिथ्यात्व को सम्यकत्व से जीत लिया गया । आठ कर्मों के मी छोटे-छोटे प्रखर प्रहार को तप से जीतने में योद्धा थे उनकी एक भी नहीं अपने सभी साथियों को युद्ध भूमि में खेत हुआ देखकर माथा धुनने लगा | सफलता प्राप्त की अन्य जितने और उन्हें युद्ध भूमि में ही दिया। लो २२ दसवें गुणस्थान में चढ़े लोभ गरज कर अपने हाथी पर सवार हुभा । कपट का उसने छत्र लगाया तथा विषयों की तलवार को हाथ में ली । लेकिन सामने हुए तपस्वी विराजमान थे । लोभ पूरे विकट स्वभाव में था कभी वह बैठता. कभी वह उठता, कभी आकाश में और कभी पृथ्वी पर अपना जाल फैलाने लगता । वह अपने विभिन्न रूप धारण करता । लोभ का रूप ऐसी प्रश्न को करणी के समान लगने लगा जो क्षण भर में ही सारे जंगल को जला डालती है । लोभ का सामना करने के लिए संतोष आगे बढ़ा । दसवें गुणस्थान से आगे प्रशानान्धकार नष्ट हो गया और केवल ज्ञान धारण कर संतोष ने लोभ पर विजय प्राप्त प्रकार के तप को अपने में समाहित कर बढ़कर शुक्ल ध्यान में विचरने लगा। प्रकट हुग्रा । जिन वचनों को चित्त में की तेरह प्रकार के व्रतों को, बारह लिया । संतोष की विजय के उपरान्त देवगण दुदुभि बजाने लगे । ग्यारह अंग और चौदह पूर्व का ज्ञान प्रकट हो जाने से मिथ्यावियों का गवं गल गया और चारों घोर आत्मा की जय जयकार होने लगी । भाषा प्रस्तुत कृति को भाषा यद्यवि मरणजुज्भ से अधिक परिस्कृत है लेकिन फिर भी वह पत्र के प्रभाव से पूर्ण रूप से मुक्त नहीं हो सकी है । बीच-बीच में गाथाओं का प्रयोग हुआ है । शब्दों को उकारान्त बनाकर प्रयोग करने में कवि को अधिक रुचि दिखलायी देती है । कवि नाम १. कवि ने प्रस्तुत कृति में अपना नाम 'बहि' लिखकर रचना समाप्त की है । बहु संतोषहू जय तिलउ जंपद बल्हि सभा | Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि ३. बारहमासा नेमीस्वरका नेमि राजुल को लेकर प्राम: प्रत्येक जैन कवि किसी न किसी कृति की रचना करता रहा है। हमारे कवि बुच राज ने भी नेमीस्वर का बारहमासा लिख. कर इस परम्परा को जोवित रखा । यह बारह मासा श्रावण मास से प्रारम्भ होकर प्राषाढ़ मास तक चलता है । इसमें रागु बड़हेसु के १२ पछ हैं जिनमें एक-एक महिने का वर्णन किया गया है। राजुल की विरह वेदना तथा नेमिनाथ के तपस्थी जीवन के प्रति जो उसकी अप्रसन्नता थी वह सब इन पद्यों में व्यक्त की गयी है। इसमें न तो रचना काल दिया हमा है और न रचना स्थान । इससे कृति का निश्चित समय नहीं दिया जा सकता है। फिर भी भाषा एव शैली की दृष्टि से रचना संवत् १५९१ के पश्चात् किसी समय लिखी गयी थी। इसमें कवि ने अपना नाम 'बूषा' कह कर उल्लेख किया है। बारह मासा साबरण माय से प्रारम्भ होता है। सावरण में राजुल नेमिनाथ से अन्यत्र गमन न करने का आग्रह करती है तथा कहती है कि उनके अभाव में उसका शरीर बाग जगा दीपा रहा। शामरा में विजा चमकती है तो उसका विरह असह्य हो जाता है । जब मोर कुह कुह की आवाज करते हैं उस समय नेमि की याद पाती है। इसलिए वह सावण मास में पन्यत्र गमन न करने की प्रार्थना करती है। ___कार्तिक का महिना जब भाता है तो राजुल हाथों में दीपक लेकर अपने महल पर चढ़कर नेमिनाथ का मार्ग खोजती है। उसकी मॉखें प्रासुर से भर जाती हैं। वे दशों दिशाओं की ओर दौड़ती हैं। सरोवर पर सारस पक्षी के जोड़े को देखकर वह कहती है कि नवयौवना एवं तमणी बाला ऐसे समय में अपने पति के विरह में कैसे जीवित रह सकती है 1 इसलिए वह नेमिनाथ से कार्तिक के महिने में पापिस पाने की प्रार्थना करती है। १. प्राषाढ़ घटिया भराइ अचा नेमि प्रजउ न भाईया ] २. ए रुति लावणे सावरिण नेमि जिरण गवरणो न कोज वे। सुरिंग सारंगा भाष दुसह तनु निणु लिगु छीजे थे। धीजति बाढ़ी विरह व्यापित धुरइ घण मर मेसिया। सालर सरि रड रसहि निसि भरि रयरिग विजु खिवंतिया । सुरगोपि यह सुह वसुह मांडत भोर कुह कुहि वलि वरिण । विनति राजुस मुरगहु नेमिजिन गयउ ना कर सावणे ॥१॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज इसी प्रकार जब वैशाख का महिना माता है तो नयनों को केवल नेमि की बाट जोहने का काम ही रहता है जब नेमि नहीं आने हैं तो वे वर्षा ऋतु के समान वे बरसने लगते हैं | २४ उनके वियोग में उसका वज्र का हृदय नहीं फटता है इसलिए ए सखि उनके बिना वैसाख महिना अत्यधिक दारुरण दुख को देने वाला बन जाता है | 2 नेमि राजुल को लेकर कितने ही जैन कवियों ने बाराह मासा नित्र किये हैं। विरका एवं षद् ऋतुओं का वर्णन करने के लिए नेमि राजुल का जीवन जैन साहित्य में सबसे अधिक आकर्षण की सामग्री है । कविवर बुबराज के प्रस्तुत वास्तुमा का हिन्दी बारहमासा साहित्य में उल्लेखनीय स्थान है | कवि ने इसमें राजुल के मनोगत भावों को इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि वे पाठको को प्रभावित किये बिना नहीं रहते । कवि के प्रत्येक शब्द में विरह व्यथा छिपी हुई है और वह परिणय की आशा लगाये विरही नव योवना के विरह का सजीव चित्र उपस्थित करता है । राजुल को प्रत्येक महिने में बिरह वेदना सताती है तथा उस वेदना को वह नैमि के बिना सहन करने में अपने श्रापको श्रसमर्थ पाती है । कवि को राजुल की विरह वेदना को सशक्त शब्दों में प्रस्तुत करने में पूर्ण सफलता मिली है । ४. चेतन पुद्गल घमाल १. कविवर बुचराज की यह महत्वपूर्ण कृति है । पूरी कृति में १३६ प हैं । ताडा पालैवा । इनु कातेगे कार्तिगि आगमु को afs मंत्र मंडवि राजुल मग्गो नेहो लैवे । मग्गो निहाल देखि राजुल नया वह विसि बावए । सर रसहि सारस रशिभिनी दुसहु विरहु जगवए । कि वर तुम विगु पेम लुखिय तरुणि जोवरिश बालाए । बाहुबहु नेमि जिए चडिज कासिगु कियत्र आगमु पालए ||४|| ए यह आइछा अब वुसहु सस्तो बसालो से । जवहसेवा इसि जाइ सनेहडा आलोय | प्रायो सनेहा जाइ बाइस प्रन्तु नोह न भावए । बुइ नया पावस करहि निसि दिनु चितु भरि भरि श्रावए । फुट्ट न जं वल्लम वियोनिहि हिया दुखि वज्जिहि धड्या । बस व विसुराहु सखिए दुसष्ट अति वारगु चयः ||१०|| Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कति उनमें १३१ पश्च राग दीपगु तथा शेष ५ अष्टपद छप्पय छन्द में निबद्ध है। कवि ने धमाल का रचना काल एवं रचना स्थान दोनों ही नहीं दिये हैं। लेकिन भाषा की दृष्टि से यह रचना उसको अन्तिम रचनामों में से दिखती है। कवि ने इस कृति में अपने आप का यहपति, वल्ह, धूचा ने तीन नामों से उल्लेख किया है। चेतन पुद्गल धमाल एक संवादात्मक कृति है। जिसमें संवाद के माध्यम से चेतन एवं पुद्गल दोनों अपना-अपना पक्ष रखते हैं, एक दूसरे पर दोषारोपण करते करते हैं । संसार में फिराने एवं निर्वाण मार्ग में रुकावट पैदा करने में कौन कितना सहायक है, इसका बहुत ही सुन्दर वर्णन हुआ है। इस प्रकार के वर्णन प्रथम बार वेखने में पाये हैं और वे वर्णन भी एकदम विस्तृत । पेतन पुद्गल के संवाद इतने रोचक एवं आकर्षक है कि कोई भी पाठक उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा | पं० परमानन्धजी शास्त्री ने अपने एक लेख में इस कृति का नाम अध्यात्म धमाल भी दिया है। लेकिन स्वयं कवि ने इसे संशशदात्मक कृति के रूप में प्रस्तुत करने को कहा है। कवि ने प्रारम्भ में सम्यगज्ञान रूपी दीपक की प्रशंसा की है। जिसके द्वारा मिध्यात्व का पलायन हो जाता है। इसके पश्चात् चौबीस तीर्थंकरों का २५ पद्यों में स्तवन किया गया है । फिर चेतन को इस प्रकार सम्बोधित करके रचना प्रारम्भ की गयी है। यह जड़ खिणिहि विचंसिणी, ता सिट संगु निवारू । चेतन सेती पिरती कर, जिउ पावहि भव पारो। घेसन गुणा ।।३३।। चेतन और जड़ के विवाद को प्रारम्भ करते हुए कहा गया है कि जिसने जड़ को अपना मान लिया तथा उससे प्रीति कर ली वह संसार सागर में निश्चय ही बता है। क्योंकि विषधर के मुस्ल में दुध पड़ने पर उसका विष रूप ही परिणमन होता है। उससे अच्छे फल की आशा करना व्यर्थ है । लेकिन इस मनतव्य का जड़ ने १. कवि वल्हपति सुस्गमि के एवउ चलल सिर धारि ।।१।। २. जिरण सासरा महि दीवडा सल्ह पया नवकार ।।३।। ३. इब भरणा चा सदा निम्मलु मुकति सरूपी जोया ।।१३६।। ४. अनेकान्त वर्ष १६-१७ पृष्ठ २२६ । ५. पंच प्रमिष्टि बल्ह कषि ए पम्मी परिभाउ । चेतन पुद्गल बहूक सादु विवाद सुरणाघो । घेयरण सुग ॥३२॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज बहुत सुन्दर खण्डन किया है जो निम्न प्रकार है चेतनु चेति न चालई, कहरत माने रोस । माये बोलत सो फिर, जहि लगावहि दोसु ।। चेयन सुणु ॥३८॥ चेतन षटस एवं अन्य विविध पकवानों से शरीर को प्रतिदिन सींचता रहता है तो फिर इन्द्रियों के वशीभुत चेतन से धर्म पर चलने की प्राशा कैसे की जा सकती है। खेत में जब समय पर बीज ही नहीं डाला जावेगा तो उसके उगने की भाशा भी कैसे की जा सकती है। वास्तव में देखा जाये तो यह चेतन अब २४ प्रकार के परिग्रह तज कर १५ प्रकार के योग धारण करता है लेकिन वह सब तो जड़ के सहारे से ही है । फिर उसकी निन्दा क्यों की जाधे। पुद्गल का विश्वास कर जो प्राणी मन में ही हो जाता है वह तो नेता ही मलति हो को समान है । यह मुख मानव मापने पापको जाग्रत नहीं करता है और विषयों में लुभाए रखसा है । वह तो अंधे पुरुष द्वारा बटने वाली उस जेवड़ी के समान है जिसको पीछे से बछड़े खाते रहते हैं। मूरख मूलनु चेतई, लाहै रह्या लुभाइ । अंघा बाट जेवड़ी, पाछई बावा खाइ ।।५।। जड़ फिर चेतन को कहता है कि जिसने पांचों इन्द्रियों को वश में करके प्रात्मा के दर्शन किये हैं उसी ने निर्माण पद प्राप्त किया है तथा उसका फिर चतुर्गति में जन्म नहीं होता, रंच इंदी दंडि करि, पापी भाप्पणु जोइ । जिउ पावहि निरवाण पदु, चौग जनमु न होइ चेयन सुरण ।।४८|| जैसे काष्ठ में अग्नि, तिलों में तेल रहता है उसी प्रकार मनावि काल से चेतन और पुदगल की एकात्मकता रहती है । पुद्गल के उक्त कथन का चेतन निम्न प्रकार उत्तर देता है, लैहि वसंदरु कछु तजि लेहि तेलु खलि राडि । चेतहि चेतनु मेलिय, पुद्गल परिहरि बालि ।। __ चेतन गुण ॥५॥ मन का हठ सभी को पूरा करते हैं लेकिन चित्त को कोई भी वण में नहीं करता है क्योंकि सिखर के चढ़ने के पश्चात् घबराहट होने पर उसको दूर कैसे की जा सकती है मन का हठ्ठ सवु कोइ करइ, चित्त वसि करइ न कोइ । चडि सिख रह जब खडे, तवरु विगुचणि होइ ।। चेमन मुगु ।। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.५ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि इसका उत्तर चेतन ने निम्न प्रकार दिया, सिखर भूलिन खडहडै जिण सासण पाघारु । सूलि ऊपरि सोझिया चोरि जप्या नवकारु ।। चेयन गुण ।। ५६।। जड़ और पुद्गल ने बहुत सुन्दर एवं तर्कपूर्ण विवाद होता है लेकिन दोनों ही एक दूसरे के गुणों की महत्ता से अपरचित लगते हैं । इसलिए एक दूसरे के अवगुणों को बखारने में लगे रहते हैं। पुद्गल कहता है कि पहले अपने प्रापको देखकर संयम लेना चाहिए । जितना ओढणा हो उतना ही पांव पसारना चाहिए । इसका पुद्गल उत्तर देता हुमा कहता है कि भला-भला सभी कहते हैं लेकिन उसके मर्म को कोई नहीं जानता। शरीर खोने पर किससे भला हो सकता है भला करितहि मीत सुरिण, जे हुइ चुरहा जाणि । तो भी भला न छोड़िये उत्तिम यह परवारण ।। चेयन सुरण ।।७०।। मला भला सह को कई गन्य - बारी की। काया खोई मीत रे भला न किस ही होए ।। चेयन गुण II: १|| यह शरीर हाड मांस का पिंजरा है। जिस पर चमड़ी छायी हुई है। यह अन्दर नरकों से भरा हुमा है लेकिन यह मूर्ख मानव उस पर लुभाता रहता है । इसका पुद्गल बहुत सुन्दर उत्तर देता है कि जैसे वृक्ष स्वयं घूप सहन कर औरों को छाया देता है उसी तरह इस शरीर के संग से यह जीव मोक्ष प्राप्त करता हैं । हासह केरा पंजरी परिया चम्मिहि छाइ । बहु नारकिहि सो पूरिया, मुरिखु रहिउ लुभाए । चेयन सुरग ।।७२।। जिम सरु पापणु धूप सहि, प्रवरह छाह कराइ । तिज इसु काया संगते, जीयडा मोतिहि जाए ॥ चैयन गुण ।। जिस तरह चन्द्रमा रात्रि का मण्डल और सूर्य दिन का उसी तरह इस चेतन का मण्डल शरीर है। जिउ ससि मंकणु रयरिणका, दिन का मंडणु भाणु । तिम चेतन का मंडणा यह पुदगलु तू जाणु ।। चेयन सुगु ।।५।। काया की निन्दा करना तथा प्रत्येक क्षेत्र में उसे दोषी ठहराना पुद्गल को प्रच्छा नहीं लगा इसलिए वह कहता है कि चेतन शरीर की तो निन्दा करता है किन्तु अपनी ओर तनिक भी झांक कर नहीं देखता । किसी ने ठीक ही कहा है कि जैसेजैसे कांवली भीगसी है वैसे-वैसे ही वह भारी होती जाती है । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ कविवर बुचराज काया की निन्दा करहि, पापुन देखहि जोइ ।। जिङ जिउं भीजइ कावली. तिउ तिज भारी होइ ।। चेयन सुरण ||१०|| चेतन कहता है कि उस जड़ को कौन पानी देगा जिसके न तो फूल है म फल और न पत्त है । उस स्वर्ण का क्या करना है जिसके पहिनने से कान ही कट जायें। सा जड मूड न सीचिये, जिसु फलु फूलु न पातु । सो सोना क्या किये, जोरु कटाव कान ॥ चेयन गुण ।।१०।। पुद्गल इसका बहुत सुन्दर उत्तर देता है कि यौवन, लक्ष्मी, शरीर सुख एवं कुलवंती स्त्री में चारों पुण्य जिसे शप्त हैं वे तो देवतानों के इन्द्र ही है। संवादात्मक रूप में कवि कहता है कि जिन्होंने उद्यम, साहस, धीरता, बल, बुद्धि और पराक्रम इन छ: बातों की और मन को सुबह कर लिया उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया है। उद्दिमु साहसु धीरु बलु, बुद्धि पराकमु जारिस । ए छह जिनि मनि दिनु किया, ते पहुवा निरवाणि ] चेयन सुरण ।।१३।। प्रस्तुत कृति में १३२ से १३६ तक के ५ पद्य प्रष्ट पद्य छप्पय छन्द के हैं। इन में दो पद्यों में जड़ का प्रस्ताब है तथा तीन में चेतन का उत्तर है। अन्तिम पद्य चेतन द्वारा कहलवाया गया है जिसमें जह से प्रतीति नहीं कहने का उपदेश दिया गया है-- जिय मुकति सरूपी तू निकलमलु राया। इसु जड़ के संग ते भमिया कमि भमाया । बडि कबल जिया गुरिण तजि कदम संसारो । भजि जिण गुण हीयई तेरा यहु विवहारो। विवहारु यहु तुझ जारिण जीयचे करहु इंदिय' संवरो । निरजरह बंधण करम्म केरे जानत निढुका अरो। जे वचन श्री जिए थीरि भासे ताह नित धारह हीया । इस भणह बूचा सदा निम्मनु मुकति सरूपी जीया ॥१३६ ।। इस प्रकार घेतन पुद्गल धमाल हिन्दी जगत का प्रथम संवादात्मक रोचक काव्य है जिसमें चेतन एवं जड़ में परस्पर गहरा फिन्तु मैत्री पूर्ण वाद विवाद होता है । इसमें चेतन वादी है और पुद्गल प्रतिवादी है। 'चेयन सुरग' यह पुद्गल कहता है तथा 'चेयन गुरण' यह चेतन द्वारा कहा जाता है। पूरा काध्य सुभाषितों Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि २६ एवं सूक्तियों से भरा पड़ा है। कवि ने जिन सीधे सादे शब्दों में प्रस्तुत किया है वह उसके गहन तत्व ज्ञान एवं व्यावहारिक ज्ञान का परिचायक है। कवि ने लोक प्रचलित मुहावरों का भी प्रयोग करके संवाद को सजीव बनाने का प्रयास किया है । भाषा, शैली एवं विषय वर्णन पादि सभी दृष्टियों से यह एक उत्तम काव्य है। ५. नेमिनाथ बसन्तु यह एक लघु रचना है जिसमें बसन्त ऋतु के प्रागमन का प्राध्यात्मिक घौली में रोचक वर्णन किया गया है। एक मोर नेमिनाथ तपस्या में लीन है दूसरी भोर मादकता उत्पन्न करने वाली बसन्त ऋतु भी पा जाती है। राजुल ने पहिले ही संयम धारण कर लिया है इसलिये उसका मन रूपी मधुवन संयम रूपी पुष्प से भरा हुआ है । बसन्त ऋतु के कारण बोलसिरी महक रही है। समूचे सौराष्ट्र में कोयल कुहक रही है । भ्रमरों की गुजार हो रही है। गिरनार पर्वत पर गन्धर्व जाति के देव गीत गा रहे हैं । काम विजय के नगारे क्या बज रहे हैं मानों नेमिनाथ के यश के ढोल बज रहे हैं । और उनकी कौति स्वयं ही नाच रही हो। संयम श्री वहाँ निर्भय होकर घूमती है क्योंकि संयम शिरोमणि नेमिनाथ के शील की १८ हजार सहेलियाँ रक्षा में तत्पर है। उनके शरीर में ज्ञान रूपी पुष्प महक रहे हैं तथा वे चारित्र चन्दन से मंडित है। मोक्ष लक्ष्मी उनसे फाग खेलती है। नेमिनाथ तो नवरत्नों से युक्त लगते हैं लेकिन बसन्त स्वयं नवरसों से रहित मालूम पड़ता है। नेमि ने छलिया बनकर मानों तीनों लोकों को ही अपने अपने वश में कर लिया है। संगम श्री राजुल ऐसी सुहावनी ऋतु में अपने नेमि को देखती है जो जब संसार जगता है तब वे सोते हैं और जब वे सोते हैं तो संसार जगता है। जिसने मोह के किवाड़ों को अपने अनिमिष नेत्रों से जला डाला है। स्वयं राजुल अपनी सखियों के साथ विभिन्न पुष्पों से नेमिनाथ की बन्दना के लिए सबको कहती रहती है । रचना काल कवि ने इस कृति में किसी भी रचना काल का उल्लेख नहीं किया है। किन्तु मूल संघ के मंत्रण भट्टारक पद्मनन्दि के प्रसाद से इस कृति का निर्माण हुभा, ऐसा कवि ने उल्लेख किया है । मूलसंध मुखमंडण पदमनन्दि सुपसाई । वील्ह बसेतु जि गावई से सुखि रसीय कराह ।। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूच राज ६. दंडासा गीत कविधर बूचराज ने एक और रूपक काव्य लिखे हैं , संवादात्मक काव्य लिखे हैं, तो दूसरी और छोटे छोटे गीत भी निबद्ध किये हैं। उन्होंने सदैव जनरुचि का ध्यान रखा और अपने पाठकों को अधिक से अधिक प्राध्यात्मिक खुराक देने का प्रयास किया है। टंडाणा गीत उसी धारा का एक गीत है जिसमें कवि ने संसार के स्वरूप का चित्रण किया है । गीत का टंडारणा माब्द टांडे का वाचक है। अनजारे बैलों के समूह पर बस्तुओं को लाद कर ले जाते हैं उसे टांडा कहा जाता है । साथ ही में संसार के दुःखों से कैसे मुक्ति मिले' यह भी बताने का प्रयास किया है। कवि ने गीत प्रारम्भ करते हुए लिखा है कि यह संसार ही टंडारणा है जो दुःखों का भण्डार है लेकिन पता नहीं यह जीव उसके किस गुण पर लुब्ध हो रहा है । यह जगत् उसे प्रतादि काल से ठग रहा है। फिर भी वह उस पर विश्वास करता है । इसलिए वह कुमार्ग में पड़कर मिथ्यात्व का सेवन करता रहता है और जिनराज को मामा के अनुसार नहीं चलता है। दूसरे जीवों को सता कर पाप कमाता है और उसका फल तो नरक गति का बन्ध ही तो है। गीत में कवि ने इस मानव को यह भी चेतावनी दी है कि उसने न तों का पालन किया है और न कोई संयम धारण किया है। यही नहीं वह न काम पर भी विजय प्राप्त करने में सफल हो सका है। मानव का कुटुम्ब तो उस वृक्ष के समान है जिस पर रात्रि को पक्षी प्राकर बैठ जाते हैं और प्रातःकाल होते ही उड़ कर पले जाते हैं । यह मानद नर के समान अपने कितने ही नाम रख लेता है । ___ कवि मागे कहता है कि यह मानव कोच, मान, माया और लोम के वशीभूत होकर जगत में यों ही भ्रमण करता रहता है। जब वृद्धावस्था पाती है तो सब साथी यहां तक कि जवानी भी साथ छोड़ कर चली जाती है। कवि ने अन्त में यही कामना की है कि तू जब अन्तरष्टि होकर प्रात्मध्यान करेगा तब सहज सुख की प्राप्ति होगी। सुद्ध सरूप सहज लिय नितिदिन झावह अन्तर झाणावें । __ जंपति बूचा जिम तुम पादहु वंछित सुख निरवाणावै । इस गीत में कवि ने अपने नामोल्लेख के अतिरिक्त रचना काल एवं रचना स्थान नहीं दिया है। ७. भुवन कोति गीत चराज को भुवनकीर्ति गीत एक ऐतिहासिक कृति है । इसमें भट्टारक Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि ३१ 'मुवनकीलि को यशोगाथा गायी गयी है। भुवनकीति सकलकीर्ति के शिष्य थे जिनका भट्टारक काल संवत् १४९८ से संवत् १५३० तक का माना जाता है। भुवनकीति अपने समय के बड़े भारी यशस्वी भट्टारक थे। भ. सकल कीर्ति के पश्चात् इन्होंने देश में भट्टारक परम्परा की गहरी व मजबूत नींव जमा दी थी। बूधराज जैसे प्राध्यात्मिक कवि ने भुवनकीति की जिन शब्दों में प्रशंसा की है उससे मालूम होता है कि इनकी कीनि नानों :रल कीकी: कृषि भूवनकीति के दर्शन मात्र से ही सांसारिक दुःखों से मुक्ति एवं नव निधि को प्राप्त करने का निमित्त माना है । उनके चरणों में चन्दन व केशर लगाने के लिए कहा है। मुवनकीर्ति की विशेषतानों को लिखते हुए कवि ने उन्हें तेरह प्रकार के चारित्र से विभूषित सूर्य के समान तपस्वी तथा सर्वश भगवान द्वारा प्रतिपादित धर्म का बखान करने वालों में होना लिखा हैं । वे षट् दध्य पंचारित काय तत्वों पर प्रकाश डालते हैं तथा २२ परिषदों को सहन करते हैं । भ० भुवनकीति २८ मूल गुणों का पालन करते हैं। उन्होंने जीवन में दम धर्मों को धारण कर रखा है। जिनके लिए शत्रु मित्र समान है । तथा मिथ्यात्य का खण्डन करने जैन धर्म का प्रतिपादन करते है। भुवनकीर्ति के नगर प्रवेश पर अनेक उत्सव प्रायोजित होते थे, कामनियाँ गीत गाती तथा मन्दिर में पूजा पाठ करती थी। बूघराज ने भट्टारक के स्थान पर मुवन कीति को आचार्य लिखा है इससे पता चलता है कि वे भट्टारक होते हुए भी नग्न रहते थे पौर प्राचार्यों के समान चारित्र पालन करते थे । लेकिन खुबराज की इसकी भंट कब हुई हुई इसका उन्होंने कोई उल्लेख नहीं किया। इसके अतिरिक्त इसी गीत में उन्होंने भट्टारक रत्नकीति के नाम का उल्लेख किया है और अपने प्रापको रत्नकीति के पट्ट से सम्बन्धित माना है। रत्नकीति भ० प्रभाचन्द्र के शिष्य थे जिनका भट्टारक काल संवत् १५७१ से १५८१ तक का रहा है। ८. नेमि गीत बेचराज ने अपने लघु नाम बल्हण से एक नेमीपवर गीत की रचना की थी। यह भी अपभ्रश प्रभावित रखता है जिसमें १५ पञ्च हैं। संवत् १६५० में लिपिवद्ध पाण्डुलिपि दि० अन मा क्षेत्र श्री महावीर जी के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत थी। लघु गीतों का निर्माण कविवर बुचराज ने एक और मयणजुज्झ एवं घेतन पुदगल धमाल जैसी रचनात्रों द्वारा अपने पाठकों को आध्यात्मिक सन्देश दिया तो यहाँ नेभीश्वर Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ कविवर बूधराज बारहमासा, नेमिनाथ बसंत जैसी रचनाओं द्वारा विरह रस का वर्णन किया और अपने पाठकों को वैराग्य रस की घोर प्रेरित किया । किन्तु इसके अतिरिक्त छोटेगीतों द्वारा मानव के हृदय में जिनेन्द्र भक्ति के भाव भरे, जगत की नि सारता बतलायी और अपने कर्तव्यों की प्रोर संफेत किया। लेकिन ये अधिकांश गीत पंजाबी शैली से प्रभावित हैं। जिससे स्पष्ट है कि कवि ने ये सब गीत हितार की ओर विहार करने के प्रभात लिखे या देशा पास किया जा सकता है। सभी गीत यद्यपि भिन्न-भिन्न रागों में लिखे हुए हैं लेकिन मूलतः सबका उपदेशात्मक विषय है । मानव को जगत की बुराइयों से दूर हटा कर सन्मार्ग की मोर ले जाना तथा संसार का स्वरूप उपस्थित करना ही इन गीतों का मुख्य उद्देश्य है। कभी-कभी स्वयं को भी अपने मन की चपलता के बारे में जान प्राप्त हो जाता है और इसके लिए वह चिन्ता करने लगता है । संयम रूपी रथ में नहीं चढ़ने की उसको सबसे अधिक निराशा होती है। लेकिन उसका क्या किया जावे । अब तो संयम पालन एवं सम्यकत्व साधना उसके लिए एकमात्र मार्ग बचता है और उसी पर जाने से वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है । अब तक कवि के ११ गीत एवं पद मिल चुके हैं। इन गीतों के अतिरिक्त और भी गीत मिल सकते हैं इसमे इन्कार नहीं किया जा सकता। सभी गीत गुटकों में उपलब्ध हुए हैं। इसलिए गुटकों के पाठों की विशेष छानबीन की विशेष पावश्यककता है। यहा सभी गीतों का सारांश दिया जा रहा है। ६. गीत (ए सखी मेरा मनु चपलु दसै दिसे घ्यावं वेहा) प्रस्तुत गीत में उस महिला की प्रात्म कथा है जिसे अपने चंचल मन से बड़ी भारी शिकायत है । वह चंचल मन लोभ रस में डूबा हुआ है और उसे शुभ ध्यान का तनिक भी ख्याल नहीं है । यह पांचों इन्द्रियों के संग फंसा रहता है । इस जीव ने नरकों के भारी दुःख सहे हैं। मिथ्यात्व के चक्कर में फंस कर उसने अपना सम्पूर्ण जन्म ही गंवा दिया है । उसका मन भवसागर रूपी भूल मुलया में पड़कर सब कुछ मुला बंटा है, यही नहीं उसे दुःख होने लगता है कि वह अपनी आत्मा को छोड़कर दूसरी प्रात्मा के वश में हो गया। इसलिए अब उसने वीतराग प्रभु को शरण ली है जो जन्म मरण के चक्कर से मुक्त है तथा रत्नत्रय से युक्त है। गीत में ४ पद हैं और प्रत्येक पद ६--६ पंक्तियों का है गीत की भाषा राजस्थानी है। जिस पर पंजाबी बोली का प्रभाव है । गीत राग वढहंस में निबद्ध है। इसकी प्रति दि जैन मन्दिर नेमिनाथ (नागदी) बेदी के शास्त्र मण्हार के एक गुटके में उपलब्ध है। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि १० गीत (सुणिय पधानु मेरे जीय वे को सुभ घ्यानि प्रावहि) पह गीत राग धनाक्षरी में लिखा हुप्रा है। गीत में ४ पद हैं तथा प्रत्येक पद में ६ पंक्तियाँ हैं। प्रस्तुत गौत में इस बात पर आश्चर्य प्रकट किया गया है कि यह मनुष्य सच्चे धर्म का पालन नहीं करता है इसलिए उसे व्यर्थ में ही गतियों में फिरना पड़ता है । मोहिनी कर्म के उदय से यह सत्तर कोडाकोडी सागर तक भ्रमता रहता है फिर भी बन्धन से नहीं छूटता। संपत्ति, स्वजन, सुत एवं मनुष्य देह सब कर्म संयोग से मिल जाते हैं । मनुष्य जीवन रूपी रत्न मिलने पर भी वह उसे यों ही खो देता है तथा मधु बिन्दु प्राप्ति की भाशा में ही पड़ा रहता है । निग्रंथ महन्त देव ने जो कहा है वही सच है। उसी से जन्म मरण के बन्धन से छूट सकता है । ११. गीत (पट मेरी का चोलणा लालो, लोग मोती का हार वे लालो) राग धनाश्री में लिखा हुमा यह दूसरा गीत है जिसमें ४ पद हैं तथा पहिले वाले गीत के समान ही प्रत्येक पद में ६ पंक्तियाँ हैं। प्रस्तुत गीत में हस्तिनापुर क्षेत्र के शान्तिनाथ स्वामी के पूजा के महात्म्य का वर्णन किया गया है। अभिषेक व पूजा की पूरी विधि दी हुई है । शान्तिनाय की पूजा पीत वस्त्र पहनकर तथा अपने प्राप का शृगार करके करना चाहिए । कवि ने उन सभी पुष्पों के नाम गिनःये हैं जिन्हें भगवान के चरणों में समर्पित करना चाहिए । ऐसे पुष्पों में रायचंपा, केवडा, मावा, जुही, कुद, मचकुद प्रादि के नाम गिनाये हैं। कवि ने लिखा है कि जब मालिन इन पुष्पों की माला गूध कर लाती है तो मन से बड़ी प्रसन्नता होती है। उस माला को भगवान के चरणों में समर्पित कर फिर पांच कलशों से भगवान शान्तिनाथ का अभिषेक किया जाना चहिए । पन्त में कवि ने भगवान शान्तिनाथ की स्तुति भी की है मुकत्ति दाता नयणि दीठा, रोगु सोग निकंदणो । अवतारु प्रचला देवि कुक्षिाह, सह विससेरण नंदरणो । अगदीस तू सुरण भण वूचा जनम दुखु दालिद हरो । सिरि संति जिणवर देउ तूठा पानु गढि हथिनापुरी । १२, गीत-रंग हो रंग हो रंगु फरि जिणवरु ध्याइये । प्रस्तुत गीत राग गोडी में निबद्ध है जिसके ४ अन्तरे हैं। कवि ने इस गीत में मानव में जिनदेव के रंग में रंगे जाने का उपदेश दिया है । क्योंकि उन्होंने पाठ को पर तथा पंचेन्द्रियों के विषयों पर विजय प्राप्त कर ली है इसलिए झुठ एवं लालच Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ कविवर बूचराज में नहीं फंसकर जिनेन्द्र देव का ध्यान करना चाहिए । इसमें कवि ने अपना नाम बचराज के स्थान पर 'वल्ह' विमा है । १३. गीत - (न जाणो तिसु वेल को ये चेतनु रह्या लभाई थे लाल) इस गील की राग दी है। मह प्राणी किस कारण संसार में फंसा हुमा हे । इसका स्वयं वेतन को भी आश्चर्य होता है । इस जीव को कितनी ही बार शिक्षा दी जाय पर यह कभी मानता ही नहीं। अब तक वह न जाने कितनी बार शिक्षाएँ ले चुका है लेकिन उन्हें वह तत्काल भूल जाता है। यौवनावस्था में स्त्री सुखों में फंस जाता है तथा साथ ही मरना साथ ही मीना इस चाह में फंसा रहता है। अन्त में कवि कहता है कि इस मानव को इस माया जाल के सागर में से कैसे निकाला जावे यह सोचना चाहिए। १४. गीत-(वाले वलि वेह मावे मनु माया घुलि रासावे ।) वाले वलि वेहु भावे रहइ पाऊ मादि माताये ।। प्रस्तुत गीत सूहड राग में निबद्ध है। इसमें ४ अन्तरे हैं। यह भी उपदेशा. स्मक गीत है जिसमें संसार का स्वरूप बताया गया है। पांचों इन्द्रियों द्वारा ठगा जाने पर और चारों गतियों में फिरने पर भी यह मानव जरा भी नहीं सम्भलता पौरा में कोई ला जाता है। १५. गीत-(ए मेरै अंगणे बाचं बाधा सोचवे को बल कलि पावा ।। जिनेन्द्र की अष्टविध पूजा से भर के दुःख दूर हो जाते हैं। इसी भक्ति भावना के साथ इस गीत की रचना की गयी है। यह राग बिहागडा में निबद्ध है । जिसमें ४ अन्तरे हैं। प्रत्येक अन्तरा में ६ पंक्तियाँ हैं। १६. गीत-(संअमि प्रोटिंग ना चडे भए अनंत संसारि ।) यह गीत आसावरी राग में है। प्रथम दोहा है। इस गीत में लिखा है कि सयम रूपी रथ नहीं चढ़ने के कारण मनन्त संसार में धूमना पड़ रहा है। यह प्राणी इस संसार में घूमते-घूमते थक गया है । किन्तु न धर्म सेवन किया और न सम्यकत्व की आराधना की । नरकों की घोर मातना सही, वहां शीत एवं उष्ण की बाधा सही, कुगुरु एवं कुदेव की सेवा की लेकिन सम्यकत्व भाव पैदा नहीं हुप्रा । इसलिए कवि जिनेन्द्र देव से प्रार्थना करता है कि उनके दर्शन से ही उसे सम्यक् मार्ग मिल जावे यही उसकी हार्दिक इच्छा है । १७. गीत-(नित्त नित्त नवसी देहड़ी नित नित श्रवइ कम्मु ।) Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचरज एवं उनके समकालीन कवि ३५ प्रस्तुत गीत में भी ४ भन्तरे हैं । गीत में कवि ने कहा है कि जीव को न तो बार-बार मनुष्य जीवन मिलता है और न अपनी इच्छानुसार भोग मिलते हैं इसलिए जब सफ यौवनावस्था है. वृद्धावस्था नहीं पाती है, देह को रोग नहीं सताते हैं तब तक उसे सम्भल जाना छाहिए। राजद्वार पर लगी हुई झालरी रात्रि दिन यही शब्द सुनाती रहती है कि शुभ एवं अशुभ जैसे भी दिन इस मानव के निकल जाते हैं वे फिर कभी नहीं आते । इसलिए अब किञ्चित भी विलम्ब नहीं करके जीवन को संयमित बना लेना चाहिए। जिस प्रकार सर्वज्ञ देव ने कहा है। उसी प्रकार हमें जीवन में उसम धर्म का पालन करना चाहिए। प्रस्तुत गीत शास्त्र भण्डार मन्दिर वधीचन्द जी, जयपुर के गुटका संख्या ६५१ में संग्रहीत है। १८. पव-ए मनुषि लियडा कवल विगम्सेवा । ए जिणु देखोयडा पाप एणस्सेवा ।। प्रस्तुत पद में भगवान महावीर के प्रागमन पर अपार हर्ष व्यक्त किया गया है। महाबीर के पधारने से पारौं मोर प्रसन्नता का वातावरण छा जाता है। उनके दर्शन मात्र से जीवन सफल हो जाता है तथा धर्म की भोर मन लगने लगता है । मालाकार भगवान के चरणों में विभिन्न पुष्पों से गुथी हुई माला अर्पण करता है । उनके चरणों में ध्यान ही मानव को जन्म मरण के बन्धनों से छुड़ाने वाला है। प्रस्तुत पद बूदी के नागदी मन्दिर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत गुटके के ५७-५८ पृष्ठ पर लिपिबद्ध है। १६. धम्मो दुग्गय हरणो फरगो सह धम्मु मंगल मूल । __ जो भास्यो जिरग वीरो, सो धम्मो नरह पालेहु ॥१॥ भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित धर्म दुर्गति को हरण करने वाला तथा मंगलीक फल का देने वाला है इसलिए मानव को उसी धर्म का पालन करना चाहिए ये ही भाव उक्त कुछ छन्दों में निबद्ध है । सभी छन्द प्रशुद्ध लिखे हुए है तथा लिपिकार स्वयं अनपढ़ सा मालूम देता है। फिर ये सभी इन्द तथा १८ वा संख्या वाला पद अभी तक प्रज्ञात था इसलिए इसका पाठ भी यहां दिया जा रहा है । प्रस्तत पद बूदी के नागदी मन्दिर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत गुटके में विपिबद्ध है। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज विषय प्रतिपादन बूचराज जैन सा थे इसलिए उनके जीवन के दो ही उद्देश्य थे । प्रथम अपना प्रात्म विकास द्वितीय प्रपने भक्तों को सही मार्ग का निर्देशन | वे स्वयं जिनधर्म के अनुयायी थे इसलिए उन्होंने पहिले अपने जीवन को सुधारा फिर जनता को काव्यों के माध्यम से तथा उपदेशों से बुराइयों से बचने का उपदेश दिया | उनके समय में देश की राजनीति अस्थिर थी। हिन्दुओं एवं जैनों पर भीषण अत्याचार होते थे। यहां के निवासियो का स पहुंचाना मुस्लिम शासकों का प्रमुख काम था । तत्कालीन मुस्लिम शासक विषयान्ध थे। उन्हों के समान यहां के राजपूत शासक भी हो गये थे । महाराजा पृथ्वीराज की वासना पूर्ति के लिए इस देश को गुलाम बनना पड़ा। मुहम्मद खिलजी ने अपनी वासना पूर्ति के लिए लाखों निरपराधियों का संहार किया । कविवर खुबराज ने ब्रह्मचारी का पद ग्रहण करके सबसे पहले काम वासना पर विजय प्राप्न की तथा साधु वेष धारण कर ब्रह्मवारी का जीवन बिताने लगे। काम से अपने आप का पिण्ड छुड़ाया । इसलिए सर्वप्रथम कवि ने 'मयणबुज्झ' नामक एक रूपक काव्य लिख कर तत्कालीन वासनामय वातावरण के विरुद्ध प्रपनी लेखनी उठायी। यद्यपि उनके काध में कहीं किसी शासक अथवा उनकी वासना विषयक कमजोरियों का नामोल्लेख नहीं है । लेकिन कृति तत्कालीन सामाजिक दुर्बलतानों के लिए एक खुली पुस्तक है। १६ वीं शताब्दी मथवा इसके पूर्व नारियों को लेकर जो युद्ध होते थे वे सब देश एवं समाज के लिए कलक थे। इनसे नारी समाज का मनोबल तो गिर ही चुका था उनमें प्रशिक्षा एवं पर्दा प्रथा ने भी घर कर लिया था। काम वासना से अन्धी पुरुष समाज' अपना विवेक खो बैठा था । पौर पशु के समान प्रापरण करने लगा था। कवि ने 'मदन युद्ध' रूपक काव्य में काम वासना पूर्ति के लिए जिन-जिन बुराइयों को अपनाना पड़ता है उनका बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। कवि ने अपनी दूसरी कृति सन्तोषजयतिलक में 'लोभ' रूपी बुराई पर करारी चोट की है । इस पूरे रूपक काव्य में लोभ के साथ-साथ अन्य कौन-कौन सी बुराई घर कर जाती है उनका विस्तृत वर्णन किया है । लोभ पर विजय पाना सरल काम नहीं है । बड़े-बड़े राजा महाराजा साधु महात्मा भी लोभ के चंगुल में फंसे रहते हैं इसलिए कवि ने कहा है दुसब लोमु काया गढ़ अंतरि, रयरिण दिवस मंतवद निरंतरि । करइ बीठू प्रयागु वलु मंडइ, लज्या न्यातु सील कुल खंडह ।। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज करने के लिए विवेक से काम लिया जाता चाहिए । एक ओर मोह है जिसने अपने माया जाल से सारे जगत को फंसा रखा है और जो कोई इससे टक्कर लेना चाहता है उसे किसी न किसी की सहायता से वह गिरा देता है। वह नहीं चाहता कि मानव गुणों से पूरणं रहे। सम्यक्त्वी हो और व्रतों के धारक हो । विवेक का वह महान शत्रु है । ३८ सत् असत् की यह लड़ाई यद्यपि है । कवि ने इस लोभ रूपी बुंगई से प्रमाण पर भाषारित हैं । आज की नहीं किन्तु युगों से चली आ रही बचने के लिए जो उपाय बतलाये हैं वे ठोस चेतन (जीव) और जब तक यह चेतन प्रकार एक दूसरे प्रस्तुत किया है। कवि की 'सन पुद्गल घमाल' तीसरी बड़ी रचना है। पुद्गल (जड़) का सम्बन्ध प्रनादि काल से चला पा रहा है। बन्धन मुक्त नहीं हो जाता, अष्ट कर्मों से नहीं छूट जाता तथा मुक्ति पुरी का स्वामी नहीं बन जाता तब तक दोनों इसी से बंधे रहेंगे। कषि ने इसमें स्वतन्त्रता पूर्वक अपने विचारों को दोनों में (वेतन, पुद्गल) वादविवाद होता है एक दूसरे की ओर से वादी प्रतिवादी बन कर कमियों एवं दोषों को प्रस्तुत किया जाता है । सांसारिक बन्धन के लिए जब चेतन पुद्गल को उत्तरदायी ठहराता है। तो जड़ बन्धनों का उत्तरदायित्व वेतन पर डालकर दूर हो जाता है। पूरा वर्णन सजीव है। सूझबूझ से युक्त है तथा आध्यात्मिकता से प्रोतप्रोत है । कवि ने पूरे प्रसंग को सरल भाषा में प्रस्तुत किया है जिससे प्रत्येक पाठक उसके भावों को समझ सके । प्रात्मा को सचेत रहने तथा पुद्गल द्रव्यों के सेवन से दूर रहने पर कवि ने सुन्दर प्रकाश डाला है । कबीर ने माया को जिस रूप में प्रस्तुत किया है लूचराज ने वैसा ही अन पुद्गल का किया है। कबीर ने "माया, मोहनी जैसी मीठी लोड" कह कर माया की भर्त्सना की है। तो बुखराज ने मुद्गल पर विश्वास करने से जो कलंक लगता हैं उसकी पंक्तिव निम्न प्रकार है इस जड तथा विसासु करि, जो मन भया निसं । काले पास वह यह निश्च पडद्द कलंकु || ४३ || लेकिन जड़ तो शरीर भी है जिसमें यह वेतन निवास करता है। यदि शरीर नहीं हो तो चेतन कहाँ रहेगा। दोनों का आधार माधेय का सम्बन्ध हैं। उत्तर प्रत्युत्तर देने एक दूसरे पर दोषारोपण करने तथा कहावतों के माध्यम से अपने मन्तव्य को प्रभावक रीति से प्रस्तुत करने में कवि ने बड़ी शालीनता मे काव्य रचना की है । वाद-विवाद में कवि ने जड़ की भी रक्षा की है। वेतन पर दोषारोपण Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज करने के लिए विवेक से काम लिया जाना चाहिए। एक पोर मोह है जिसने प्रपा माया जाल से सारे जगत को फंसा रखा है और जो कोई इससे टक्कर लेना पाहत है उसे किसी न किसी की सहायता से वह गिरा देता है । वह नहीं चाहता कि मानय गुणों से पूर्ण रहे। सम्यवस्थी हो और व्रतों के धारक हो। विषेक का वर महान शत्रु है। सत् असत् की यह लड़ाई यद्यपि माज की नहीं किन्तु युगों से चली आ रही है। कवि ने इस लोभ रूपी बुगई से बचने के लिए जो उपाय बतलाये हैं वे ओस प्रमाण पर प्राधारित है। कवि की 'चेतन पुद्गल धमाल' तीसरी बड़ी रचना है। चेतन (जीव) और गाव (गड़) का सम्बन्ध भनादि काल से चला पा रहा है। जब तक यह वेतन बन्धन मुक्त नहीं हो जाता, अष्ट कर्मों से नहीं झुट जाता तथा मुक्ति पुरी का स्वामी नहीं बन जाता तब तक दोनों इसी प्रकार एक दूसरे से बंधे रहेंगे । कवि ने इसमें स्वतन्त्रता पूर्वक अपने विचारों को प्रस्तुत किया है। दोनों में (चेतन, पुद्गल) वादविवाद होता है एक दूसरे की ओर से वादी प्रतिवादी बन कर कमियों एवं दोषों को प्रस्तुत किया जाता है। सांसारिक बन्धन के लिए जब चेतन पुद्गल को उत्तरदायी ठहराता है। तो जड़ बन्धनों का उत्तरदायित्व पेतन पर डालकर दूर हो जाता है। पूरा वर्णन सजीव है। सूझबूझ से युक्त है तथा आध्यात्मिकता से अोतप्रोत है। कवि ने पूरे प्रसंग को सरल भाषा में प्रस्तुत किया है जिससे प्रत्येक पाठक उसके भावों को समझ सके । मात्मा को सचेत रहने तथा पुद्गल द्रव्यों के सेवन से दूर रहने पर कवि ने सुन्दर प्रकाश डाला है। कबीर ने माया को जिस रूप में प्रस्तुत किया है वूचराज ने वैसा ही वर्णन पुद्गल का किया है । कबीर ने "माया, मोहनी जैसी मीठी खांड' कह कर माया की भर्त्सना की है। तो बुचराज ने पुद्गल पर विश्वास करने से छो कलंक लगता है उसकी पंक्तियाँ निम्न प्रकार है इस जड तणा विसासु करि, जो मन भया निसंकु । काले पासि पट्टि यह, निश्च वडइ कलंकु ।। ४३।। लेकिन जड़ तो शरीर भी हैं जिसमें यह चेतन निवास करता है। यदि शरीर नहीं हो तो चेतन कहाँ रहेगा। दोनों का आधार माय का सम्बन्ध हैं। उत्तर प्रत्युत्तर देने, एक दूसरे पर दोषारोपण करने तथा कहावतों के माध्यम से अपने मन्नम्य को प्रभावक गीति से प्रस्तुत करने में कवि ने बड़ी शालीनता में काव्य रचना की है। वाद-विवाद में कनि ने जड़ की भी रक्षा की है । बेसन पर दोषारोपण %3D . - Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूवराज एवं उनके समकालीन कवि करने में उसने जरा भी नकोच नहीं किया है। कवि ने पार सुख गिनाये है पौर ये हैं यौवन, लक्ष्मी, स्वस्थ्य शरीर एवं शीलवती नारी। जहाँ ये चारों हैं वहीं स्वर्ग है । लेकिन सांसारिक सुख तो नश्वर है जो दिन दिन घटते रहते हैं प्रधः संयम ग्रहण ही मोक्ष का एक मात्र उपाय है। बुचराज ने केवल आध्यात्मिक तथा उपदेशात्मक काव्य ही नहीं लिये किन्तु 'बारहमासा' 'नेमिनास बसन्त' जैसी रचनाएँ लिखकर अपनी ऋगार प्रियता का भी परिचय दिया है । यद्यपि इन काव्यों के लिखने का उद्देश्य भी वैराग्यात्मक है किन्तु इनके माध्यम से षब् ऋतुओं की प्राकृतिक छटा का तथा राजुल की विरहात्मक दशा का वर्णन स्वतः ही हो गया है और इससे काव्यों के विषयों में कुछ परिवर्तन पा गया है । राजुल नेमिनाथ के थाने की प्रतीक्षा करती है। सावन मास से लेकर भाषाढ़ मास तक १२ महिने एक एक करके निकल जाते हैं। राजुल का विरह बढ़ता रहता है तथा उसे किसी भी महिने में नेमिनाथ के प्रभाव में शान्ति नहीं मिलती है । वह अपनी विरह वेदना सहती-सहती थक जाती है। नेमिनाथ प्राने वैराग्य में डूने रहते हैं उन्हें राजुल की चिन्ता कहाँ । यदि चिन्ता होती तो तोरण द्वार से ही श्यों लौटते । घरवार छोड़कर दीक्षा नहीं लेते। लेकिन राजुल को ऐसी बात कैसे समझ में आती । उसने यौवन में प्रवेश लिया था विवाह के पूर्व कितने ही स्वारगम स्वप्न लिये थे । इसलिए उनको वह टूटता हुआ कैसे देख सकती थी। बारहमासा में इसी सब का तो वर्णन किया हुआ है। सावन में बिजली चमकती है, मोर मेघ से पानी बरसाने को रट लगाते हैं, भाद्रपद में चारों मोर जल भर जाता है और माने जाने का मार्ग भी नष्ट हो जाता है, इसी तरह आसोज में निर्मल जल में कमल खिल उठते हैं ऐसे समय में राजुल को अकेलापन खाने को दौड़ता है, उसकी प्रांखों से प्रासुनों की धारा रुकती नहीं । इसी प्रकार राजुल नेमि के विरह में बारह महिने के एक एक दिन गिनकर निकालती है उनकी प्रतीक्षा करती रहती है। लेकिन उसका रीमा, प्रतीक्षा करना, प्राहे भरना, सभी व्यर्थ जाते हैं। क्योंकि नेमिनाथ फिर भी नहीं लौटते और न कुछ संदेशा ही भेजते हैं। कवि ने इस प्रकार इन रचनामों में पात्रों के प्रात्म भावों को उडेल कर ही रख दिया है। कवि ने उक्त रचनामों के अतिरिक्त पदों के रूप में छोटे-छोटे गीत भी लिम्बे हैं जो विभिन्न रागों में निबद्ध है। सभी पदों में प्रहंत भगवान की भक्ति के लिए पाठकों को प्रेरणा दी गई है साथ ही में वस्तु तस्व का भी वर्णन किया गया है। १. काया की निवा करई मापुभ देखई जोई। जि जिउ' भीजइ कविली तिज तिउ भारी होई ॥४॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज इस जीव को फिर चतुर्गति में भ्रमण नहीं करना पड़े इसलिए परिहन्त भगवान की भक्ति में मन लगाना चाहिए । ऐसे उपदेशात्मक पदों में मनुष्य का प्रथवा इस जीव का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया है। कवि को बड़ी चिन्सा है कि यह जीवात्मा पता नहीं किस वेला से जगत पर लुभा रहा है। जिसको भी मात्मा में लगन लग जाती है तो उसे कष्टो का भान नहीं होता। संयम जीवन के लिए प्रावश्यक है। जो व्यक्ति संयम रूपी नाव पर नहीं चढ़ता है वह अनन्त संसार में डुलता रहता है । इसलिए एक पब में "संजमि प्रोहरिण ना व भए अनन्त संसारि" के रूप में प्रस्तुत किया है। सभी गीतों में इस जीद को विषय रूपी कलापों से सावधान किया है तथा उसे मोक्ष मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी है। क्योंकि स्वयं की गो उसी राग का थे: ब: गोमा रात्रि विन प्रात्म साधना में ही लगे रहते थे । इस प्रकार कवि ने अपनी कृतियों में पूर्णत: माध्यामिक विषय का प्रतिपादन किया है जिसको पढ़कर प्रत्येक पाठक दुराई से बचने का प्रयत्न कर सकता है तथा अपने मात्मा विकास की ओर प्रागे बढ़ सकता है। भाषा कविवर बूवराज की कृतियों की भाषा के सम्बन्ध में इतना ही लिखना पर्याप्त होगा कि युवराज जन कवि थे। इसलिए जनता की भाषा में ही उन्हें काम लिखना अच्छा लगता था। उनके काव्यों की भाषा एक सी नहीं रही । प्रारम्भ में सम्होंने मयणझ लिखा जो अपभ्रंश से प्रभावित कृति है। इसकी भाषा को हम डिगल राजस्थानी के निकट पाते हैं। जिसमें प्रत्येक शम्ब का बड़े जोश के साथ प्रयोग किया गया है जिसका उद्देश्य अपने वर्णन में जीवन डालना मात्र माना जा सकता है । मैं मयजुज्म की भाषा को राजस्थानी डिगल का ही एक रूप कहना पाहूँगा। जिसमें जननी को जणणी (२), मध्य को मम्झि (७१, पुत्र को पुत्त (१०) के रूप में शब्दों का प्रयोग हुआ है। यही नहीं राजस्थानी शब्दों का जैसे पूछा लागा (२२), भाग्या (५६), बीडउ (३५) का भी प्रयोग कवि को रुचिकर लगा है । कवि उस समय सम्भवत. ढू लाट प्रदेश के किसी नगर में थे इसलिए उसमें उर्दू मान्द जो उस समय बोलचाल की भाषा के शब्द बन गये थे, प्रा गये हैं । ऐसे शब्दों में चूतडि (३०), खवरि (३१), फौज (६५) जैसे शब्द उल्लेखनीय हैं। इस समय अपनश का जन सामान्य पर सामान्य प्रभाव था। तथा प्रपन श की कृतियों का पठन पाठन खूब चलता था । इसलिए खूपराज ने भी अपनी Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर वृचराज एवं उनके समकालीन कवि कृति में पपभ्रंश शब्दों का खुलकर प्रयोग किया । ऐसे शब्दों के कुछ उदाहरण निम्न प्रकार हैं काव्य को भाषा पाण रिसहो तिस्थयक अम्मर मरण धम्मु दु तिजंत्र गब्वु गोदमु हिन्दी शब्द ज्ञान ऋषभ तीर्थंकर जन्म मरण धर्म दुब्द तियंन्त्र गर्व गौतम ↑ कवि ने कुछ शब्दों के प्रागे 'ति' लगाकर उनका क्रिया पद शब्दों में प्रयोग क्रिया है । इस दृष्टि में हाकन्ति, संति, कुषंति, कुरलति, गायंति, वजेति (३४) जैसे शब्दों का प्रयोग उल्लेखनीय है । यहाँ पर यह कहना पर्याप्त होगा कि कवि ने प्रारम्भ में अपनी कृतियों की भाषा को अपने पूर्ववर्ती अपभ्रंश कवियों की भाषा के अनुकूल बनाने का प्रयास किया लेकिन इसमें उसने धीरे-धीरे परिवर्तन भी किया जिसे 'सन्तोष जयतिलकु' एवं 'वेतन पुद्गल धमाल' में देखा जा सकता है। 'चेतन पुदगल धमाल' कवि की सबसे अधिक परिष्कृत भाषा मे निवद्ध कृति है । जिसे कोई भी पाठक सरलता से समझ सकता है । संवादात्मक कृति के रूप में कवि ने बहुत ही सहज एवं बोलचाल के शब्दों में गूढ़ से गूढ़ बातों को रखने का प्रयास किया है। इसलिए उसमें कोमल, सरल एव सुबोध रूप में विषय का प्रतिपादन हो सका है। कवि की तीन प्रमुख कृतियों के अतिरिक्त 'नेमिनाथ बसन्धु', 'टंडारणा गीत ' जैसे अन्य गीतों की भाषा भी राजस्थानी का ही एक रूप है। इन गीतों की भाषा पूर्वापेक्षा अधिक सरल है तथा शब्दों का सहज रूप में प्रयोग किया गया है । इसका एक उदाहरण निम्न प्रकार है राज दुबार झल्लरी, अहि निसि सबद सुगावें । सुभ असुभ दिनु जो घट, ड न सो फिर भावइ । धाव न सो फिरि धाइ जो दिनु, भाउ इणि परि खीज्जइ । मोरु सम्मा व संजम खिणु विलंब न कीजिए । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुचराज पंच परमेष्ठी सा समणउ हिंसइ तिजज समिकितु घरड | खिणास्त्रिण चितावs चेत चेतन राज द्वारह भल्लरी । लेकिन जब कवि ने पंजाब की ओर प्रस्थान किया तथा वहां कुछ समय रहने का अवसर मिला तो अपनी कृतियों को पंजाबी शैली में लिखने में वे पीछे नहीं रहे। इनके कुछ गीतों में पंजाबी पन देखा जा सकता है। शब्दों के श्रागेवे, बा, वो लगा कर उन्होंने अपने लघु गीतों में इनका प्रयोग किया है। ए सखी मेरा मसु चपलुदर्स दिसे ध्यानं वेहा' इस पंक्ति में कवि ने 'वेहा' शब्द जोड़कर पंजाबीनने का उदाहरण प्रस्तुत किया है । ४२ इस प्रकार बुबराज यद्यपि शुद्धतः राजस्थानी कवि है । उसके काव्यों की भाषा राजस्थानी है लेकिन फिर भी किसी कृति पर अपभ्रंश का प्रभाव है तो कोई पंजाबी शैली से प्रभावित है । किसी-किसी पद एवं गीत की भाषा भी दुरुह हो गयी है और उसमें सहजपना नहीं रहा है तथा वह सामान्य पाठक की समझ के बाहर हो गयी है । अन्व कविवर वृचराज ने अपनी कृतियों में अनेक छन्दों का प्रयोग करके अपने छन्द-शास्त्र के गम्भीर ज्ञान को प्रस्तुत किया है। मयराजुज्भ में १५ प्रकार के बन्दों का तथा सन्तोष जयतिलकु में ११ प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया है। केवल एकमात्र चेतन पुद्गल धमाल ही ऐसी कृति है जो केवल दीपक छन्द एवं छप्पय छन्द में ही निबद्ध की गयी है। इसके प्रतिरिक्त बारहमासा राग वडहं में तथा अन्य गीत राग धन्याश्री, गौडी, सुड्ड, विहागडा एवं श्रसावरी में निबद्ध किये गये हैं बुबराज को दोहा, मंडिल्ल, रड़ एवं षटुप छन्द प्रत्यधिक प्रिय हैं। वह दोहा को कभी दोहडा नाम देता है । कवि ने रासा छन्द के नाम से छन्द लिखा है जिसमें चार चरण है । तथा प्रत्येक चरण में १५ व १६ अक्षर हैं । मयणजुज्झ में ऐसे ८ से ६२ तक के ४ हैं । अपभ्रंश के पढडिया छन्द का भी कवि ने प्रयोग किया है। लेकिन इसमें केवल ४ चरण हैं तथा प्रत्येक चरण में ११ प्रक्षर हैं । १. करिवि पलाएउ मोह भङ चल्लियज । संमुह सज बाल वधूल भुलियत । फुट्टिय जलहरु कुंभ घाह तदरिण बिय । ले भाइ तह अग्गि धूषंतिय रंडतिय ॥ ६६ ॥ तमकाय तिनि भङ मोह, जाइ पुजु माया तह बुलाई || जब बैठे इन एक सत्य, कलिकालु कहर जब जोडि मृत्यु || Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि रड छन्द में भी कवि ने कितने ही पर लिखे हैं। यह वस्तुबंध छन्द के समान है और किसी-किसी पाण्डुलिपि में तो रड़ के स्थान का वस्तुबंध नाम भी दिया है । इसी तरह मडिल्ल छन्द का भी पर्याप्त प्रयोग हुआ है। यह चौपई छन्द से मिलता जुलता छन्द है । रंगिका अन्द पें माठ चरस्प होते हैं और यह सबसे बड़ा छन्द है । कविवर बूचराज ने इस छन्द का 'मयणजुज्झ' एवं 'सन्तोष जयतिलकु' हन दोनों में ही प्रयोग किया है। . कषि ने मयणजुज्झ एवं पन्य कृतियों में गाथा छन्द का भी खूब प्रयोग किया है। एक गाथा निम्न प्रकार है ए जित्ति चित्त खिल्लउ, भायज प्रानंदि घरह वारे । उटू उटू चंचल वयरिण, प्रान्तउ बेगि उत्तारउ ।।५।। १५६ १५८ पाण्डुलिपि परिचय मयणजुज्झ की राजस्थान के विभिन्न शास्त्र भण्डारों में निम्न पापलिपियां उपलब्ध होती हैं: १. भामेर शास्त्र भण्डार, जयपुर पत्र संख्या लेखन काल पद्य संख्या (महावीर भवन के संग्रह में) २४ गुटका सं० ४६ वेष्टन सं० २८७ २. भट्टारकीय शास्त्र भण्डार, अजमेर २० संवत् १६१६ ३. शास्त्र भण्डार दि. जैन ठोलियान, सवत् १७१२ जयपुर ४, शास्त्र भण्डार दि. जैन ४१ बड़ा मन्दिर, जयपुर (गुटका सं० ५ वेष्टन सं० २६६४) ५. शास्त्र भण्डार मागधी मन्दिर, २२ बूदी ६. शास्त्र भण्डार दि. जैन मन्दिर, दीवान जो काभा (भरतपुर) Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज लेकिन प्रस्तुत पुस्तक में दिया जाने वाला पाठ प्रथम, चतुर्थ एवं पंचम पाण्डुलिपियों के माधार पर तैयार किया गया है । आमेर शास्त्र भण्डार वाली प्रति जीर्ण अवस्था में है । लेकिन उसके पाठ सबसे अधिक शुद्ध है। बंदी वाली पाण्डुलिपि में ५२।। पद्य एक लिपिकर्ता द्वारा तथा शेष पद्य दूसरे लिपिकार द्वारा लिखे हुए हैं। इसको पारा बाई द्वारा लिखवाया गया था। लिखने वाले देवपाल माली मलविरे का था। यहां क प्रति भामेर शास्त्र भण्डार वाली पाण्डुलिपि है। ख प्रति बूदी के शास्त्र भण्डार की है। तया ग प्रति से तात्पर्य शास्त्र भण्डार दि. जैन मन्दिर बड़ा तेरहपथी मन्दिर जयपुर से है । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयरगजुज्झ मंगलाचरण-सारिफ जो सम्वविमाणहुति चविउ तहणारा चितसरे । उवन्नो मरुदेवि कूखि रयणो, स्यांग कुले मंहगो । भुक्तं मोब सिरज्ज देस बिमलं, पाली पवज्जा पुणो। संपत्तो बिधारिए देउ रिसहो, काऊण तुव मंगल ॥१॥ जिण परह वागवारिण, परराषउ सुहमति देहि अय जगणी । चण्णसु मगरण जुज्झ, किव जित्तिउ श्रीय रिसहस ॥२।। रिसह जिणवा पढम सिस्थयरु, जिराधम्मह उवरमा, जुयलु धम्मु सब्बै मिवारण । नाभिराइ कुलि कवलु, सरवनु संसारह तारण । जो सुर ईदहि बंदियउ, सदा चलण सिरुधारि । किउं कि रतिपति जित्तिउ, ते गुण कहउ विद्यारि ॥३॥ सुरणहू भवियरण एह परमत्थु, सजि पिता परकथा, इकु च्यानु हर कंन्नु दिपइ । मनुपिल्ला कब लाग्य', हुइ समानियउ प्रमी उपजह । परच जिम्इ पित. एहु रसु, पासइ कसमल खोइ । पुनरपि तिन्ह संसार महि जम्मा मरण न होइ ।।४।। सुणहि नहीं जूवइ जे रत्त, जे इत्तिय कामरस, बहु उपाय बंषद जि रसीय । पर निवा पर करण जिके, तिबरि उनमावि मत्तिय । परिय जि घोर समुद्द महि, नहु आवहि सुभ ध्यान । नौमा रसु बहु प्रमीय रस, इतहि न सुणही काम ||५|| १. जुवल (क प्रति Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. कविवर बूचराज दोहा चेतन एवं उसका परिवार पुरुब करम गहि बघिउ, सहइ सु-दुख संताउ । सु काया गढ भिसरई, बसे सचेतन राउIF राउ चेतन काउ गढ मज्मि, नहु जारणइ सारं किमु, मनु मंत्री सपर बल बखाणउ । परवत्ति नियति दुइ तासु तीय, ए प्रगट जाप । जाणउ नित्ति विवेक सुत, परवत्तिहि भयो मोह । सो मल्लि बैठा रजू ले, करइ कपटु सनेह नित दोहु ।।७।। मडिल्ल मोह परहि माया पटरानी, करइ न संक अधिक सबलारिणय । करि परपंतु जगतु फुसलाषा, लहि निर्वक्ति किव प्रावर पावर || दोहा चलिय नित्ति विवेकु ले, दी8 इसिय प्राचार । मोह राज तब गरजियउ, दल बस सयम विथार Net गाथा गह कनकपुरीय नामो, राजा तह सस. करह थिर रज्जो । तह ले पुत्त पत्तिया, बहु प्रादह पाइयो सेण ।।१०।। दीनी कम्पा सस तिसु. सुमति सरस सुविसाल । अप्पि रग्जि विवेकु थिरु , पालि मला गुणमाल ॥११॥ १. कर कपटु नित दोहक प्रति) २. इसे एक प्रति) चेतन की स्त्री निवृत्ति अपने विषक सुत को लेकर कनकपुरी में पहुँच जाती है। ४. पुण्यापूरी (ग प्रति) ५. तहां लोकत पछुत (म प्रति) ६. पाइउ (ख प्रति) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोह द्वारा चार दूतों को बुलाना - मयरगजुज्झ सालु विवेकह मोह मनि, सोवद पान पसारि । येक दिवस इन सोचि करि, दूत बुलावद परि ।।१२।। मडिल्ल मोहारि तब दूत बुलाइ सार लेण कु वेगि पठाइये | कटु सत् पापु खाउ, म तहां दोहु चवचट जरगव ।। १३६ का वर्णन खोजत खोजत देस सवाइय, पुन रंगपट्टम तब श्राश्य । करि" भरइ को बेस पठाइय, धीरज कोतवाल तब विडिय ।।१४।। बोहा धीरज देखि कु दरसरणीय, बहू ताण तिन्ह दोष | पंस मिले म नगर महि ले करि भागे जीव ||१५|| सीनि गए सिहं बाहु, कपटु कीयड मनि चिट्ठ । सिस सरबर लिय बरहि बल, जितुसर जादव ॥१६॥ रड ज्ञान सरोवर ध्यानु तसु पालि, जलवाणी विमलमइ । सधरण वरषत व्रत बारह थिरु पंखी जोग तिहां । जलनि मगर प्रतिमा इग्यारह प्रतीस रिषि तिहा । मारगंद कुंभ भरेहि, इफ्क जीते सुन्दरी बहू थूति जैन करेह ॥ १७ ॥ । वोहा बहुती जैन पसंसना करत सुखी इक नारि कपट छल्य तब नगर कडू, रूप जतीकज पारि ।।१८।। ९. २. ३. रंगपट्टन ४. ५. ख प्रांत में १३ से १६ तक के पक्ष नहीं हैं। प्रवण ग प्रति ४७ करि भरडे कउ बेसु पइके प्रति तिसग प्रति Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज मडिल्ल मगरी मांहि कपटु, संचरयत ठाम ठाम सो देखात फिरयउ । देखि विवेक सभा सुविचक्षण, देखि प्रजा वय सुभ लक्षण ॥१६॥ देस्या न्याउ नीति मारग बहु, देच्या तह हर लोगु सुख सहु । भेद छेदु सबहिं तिहां पायो, तब सुकपटु उठि पंयिहि पायो ।।२०।। पट का वापिस अधर्मपुरी में पाना प्राइ अधम्मपुरी सुपहुक्तउ, जाइ जुहार मोहसिंह कित्तउ । मोह जुलार जान सम पुरुधार, कान विवेकु कवण हइ मच्छह ।।२१।। दोहा पासि बुलायो कपटु तब, पूछण सागा बात । कहां विवेक नियप्ति कह', कह तिन्ह की कुसलात ॥२२॥ कपट का उत्सर मोह सुणह तुम्हि कानु धरि, कपटु पयासह एउ । जैसी देखी नमण मइ, तसी बात कहेउ ।।२३॥ वस्तु बन्ध धर्मपुरी का वर्णन बसा पट्टणु पुनपुरु नयर । तही राजा सत बिरु, तिनि विवेकु गठि सुथिइ यपिउ । परणाई धीय तिनि, राजु देसु सबइ समप्पिर । दया धम्मू तहो पालीयइ, कीजइ पर उपगारु । तह उइ गुपनन वीसई, चोर अन्याई आए ॥२४।। दोहा पवण छतीस्यु सुखस्य सहि, करन को परतीति । काचे कंचनं गलिय महि, पर रहहि दिनु राति ।।२५।। सेरे गढ महि फोडि घर, चोर चरड से जाहि । पर तिण कोइण छीपई, उसकी भाशा मांहि ।२६।। सहां परपंषु न दीसई, जह छे विसियन कोइ । सभ संतोषी मेदनी पीठी मद अबलोइ ॥२७॥ १. दे क प्रति २. ग प्रति में २५-२६ पद्य को केवल २८ वा पद्य ही माना है। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयरराजुज्झ मडिरूल दीठा नया फिरि विचारघउ पखि । सुभ बाणी सुणीय सवह मुखि । राउ नपरु विषमउं दलु बलु अति । इंद नरिंद करहिं जिसु की थुति ॥२०॥ सृणु सुणहो तू मोह भुवपत्ति, मई दीठा नयर तणी यह गमि । स्वामि विवेकु उसिड प्रति चाडइ, तुम्हं ऊपरि गम्वइ दिउ हाडइ ।। २६ । दोहा जब पच्चारित करदि तिनि, तब मनि मच्छरु वाधु । डानि षड्या जणु वानरा, चूतडि बीछू खाघु ।।३०।। तन्त्र अहंकार कीयउ तह, लीयउ बेगि बुलाइ । खबरि करहु सब सपण कहु. सभा जुडो जिपा ॥३१॥ मोह राजा को सभा रोसु प्राय: साथि तिसु झूट, मरु सोक संतापु तह, संकलपु विकलपु प्रायड । पावति चिता सहितु, दुखु कलेसु को ध्यायउ । कलहू प्रदेसा छन्दमु तह, समसरु बलगा जाइ । अंसी राजा मोह की समा सुब्बी सभ भाई ॥३२।। वोहा करिवि सभा तब मोह भड, इव चितइ मन माहि । जब लगु जीवह विवेकु इहु., तब लगु सुख हम नाहि ॥३३।। सात मोहहि बयण सुणीयइ, सुत मनमथु उहियज, सिरु निवाइ करि जोडि जंप 1 दावानल जिउ जलिङ, थरहराइ करि कोउ कपिउ । रहहिकि कुजर बापुडे, जितु वनि केहरि गधि । आजु नित्ति विवेक सुतु गहि ले ग्राउ बंधि । ३४॥ १. तब अहंकारन को सिनि क प्रति २. अबरु समसा सवलु गरजाये ग प्रति ३. बहु ग प्रति Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज दोहा मवन का बीमा लेफर प्रस्थान मोह राउ तब हाथि करि, बीउउ अप्पच प्रषु । कुमति कुबुद्धि कुसीष देइ, चलामिउ कंदप्पु ॥३५।। गाथा गडिय मयण मय मत्त गज्जित, सजिउ दल विषभु वह पयरेण । हरि बंभु ईसु भज्जिज, जब वज्जिउ गहिर नीसारण ॥३६।। गोतिका छंद बसन्त का आगमन बज्जिउ निसानु बसन्तु भायउ, छल्ल कुदसु खिल्लियं । सुगंध मलयापवरण झुल्लिय, अंब कोइल बुल्लियं । रुण झुणिय केवइ कलिय महुवर, सुतर पत्तिहिं छाइयं । गावन्ति गीय बजंति वीणा, तरुणि पाइक आइयं ॥३७।। जिन्ह कडिल केस कलाय तिल, मंग मोतिय पारियं । जिन्ह विणा भुबंग बलंति चंनि गुथि कूसम सवारियं । जिन्ह भवहं घुणहर धरिय संमुछ नयण बारण चाइयं । गावन्ति गीय वजन्ति वीणा तरुणि पाश्क माइयं ॥३८॥ जिन्ह तिलक निगमय तिक्ख भल्लिय चीर धज फरकंतियं । जिन्हु कनक कुडल कंध मनमथ मूढ़ पंडिव झलियं । जिन्न दस विज्जु चमकंत लग्गहि कुको कोनद वाइटो । गायन्ति गीत बजन्ति वीणा तरुणि पाइक आइयं ॥३६॥ जिन्ह मिहरिण गिरिवर रोम वरण घण, नखसि प्रसिदर करटुए । इतु मगि चलंतह समरि तसकर कहर नर कित्तिय हए । जति घणरज खिद्द नूपुर काछ कुसम बगाइयं । गावन्ति गीय बजन्ति वीरला तरुसि पाइक प्राइयं ॥४०॥ जिन्ह रागि कटि वंधिय पटवर जिरह उर कंचूक से। हाकति हसति कुकति कुरसति मूढ पट लहरी वसे । जे कुटिल बुधिहि हरहि परचितु चरत घेउन जाणीयं । गायन्ति गीय बजन्ति वीणा तरुणि पाहक माइंयं ॥४शा Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयएजूझ देखंतु दरसरणु जिन्ह केरा रूप पहिला नासए । तिन्ह साथि परसु करत खिरामहि तेज तनहु पणासए । मोहण करंतह पाउ छीजइ काहस किमि सुख्खु पाइयं । गायन्ति गीय बजन्ति वीरगा, तणि पाइक पाइयं ।।४२।। जे दब्बु देखत चित्त रंजहि सील सत्त. गवावहि । जे चहुय गति महि अनत जम लगु बहुतु दुख सहावहि । चिति अवरु चिताहि प्रवर जपद्दि अवरु जुगपति प्राइमं । मायन्ति गीय बजन्ति वीणा तरुणि पाइक पाइयं ।।४।। तसरा पाली मिथ्यासीय गय गुडिय विसन सत्त हय तेउ सज्जिय । सुनाहु कुसील तिणि पापु कुस निसान बज्जिय । छत्त, रियउ परमादु सिरि चमर कषाम ढलति । इव रतिपति संवह करि चडिउ गहीर गाजति ।।४।। रंगिका कामवेव का आक्रमण चडिउ गहीर गाजत चोरि मानइ न संक उरि । सुभटु आफ्रए जोरि अतुस बले तिणि कुसम कोवंडलीय । भमर पण चकीय देखत तरुणि लिय कि कि न छले । सज्जि प्राणिय कुत कृपारा साधिमे पाचउ बाण । फेरिये जगत आप बेडिवि रणे, माझ्या प्राइया रे मदन राइ ।। दुसहु लगउ घाइ चलिय सूर पलाइ गहवि तणो ||४५।। चिणि मिलिई संकर माणु, छोडियउ अंतर स्यानु । गौरी संग हित प्राणु इव नहिग, जिन तपढ़ बिच टालि । पालिउ माया जालि गहन रूपि निहालि रुंद पडियं । हरि लियो मदन कसि सोलह सहस बसि रहिउ गुअरि रसि रयगा दियो । माझ्या माझ्या रे मदन राइ दुसह लगो धाइ चलिय सूर पलाइ गहि विसरतो ।।४६।। १. क प्रति में यह पच तीन पंक्तियों का है । २. गति में इसका नाम यस्तु बंध क्यिा है । ३. मत्पाउ-ग प्रति । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ कविवर बूचराज जमदगनि वे स्वामी तू टालिउ तिन्हा चित्त , छोडि तपु गेहकितु । आपु खोइन, इंदु यिषप अधिक व्यापउ पहिल्या टालीयन प्रापु । गोतमी दिय सरापु, भगत इमं जिन संकापति डिगाइ । प्राणिय सीय चुराइ, घाल्या रावणु घाइ कर जियो । अश्या घरी मदन रात्रि पहिरि सिह ४७॥ जिणि सन्यासी जतीय सार, जंगम सिर जटा धार । जोगीय मंडित छार धलिम रसे, जिन मरज भगववेस । विहंधी लुमित केस, काली पोस दरवेस कि कि नगसे । जख्य राकस गंधव गुरु, सुभट सबल नर पसुष पंखिय धर कित्तिय थुणो । अइया अइया रे मदन राइ दुसुद्ध लागा बाह । चलिय सूर पलाइ गहियावितरणो ॥४८॥ कि के जैन के सेवणहार ते तो कोते भिष्टचार । भोगिय सुख अपार संसार तणो । उहि देसत भये अंध पडिय करम फंछ । किये कुगत बंध जनम घणो । जैसे वैभदत्त चस्कवति काम भोग फरि थिति । गयउ नरक गति सतमि शुरणो । अश्या अदया रे मदन राह दुसहु लागो ध्याइ । चलिय सूर पलाइ गह्यिाविषयो ।।४।। जिनि कुड रिषि ताडि, सीयउ सुभट पाडि । सिखर हु दिया राडि तपु तजिगं । लीए सबल सुसर अंगि रहिउ तिय रंगि । विषय विषय संगि सुम्न भजियां । धीर चरण सेवक नितु इंदिय लोलप चित्त । सेरिणकु नरय पत्तु सुख निषणो । पइया अश्या रे मदन राइ दुसह लागी म्याइ । चलिय सूर पलाइ गहवितणो ॥५०॥ इक अबुह संजम रूपि, अलिय मदन भूप । दीनीय संसार कूप देसण भट्ट । नित करहिसि परपंचु अनेकह जीव बंचु । तजि मान लेहि कंचु अप्पणु हटे । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयरगजुज्झ ते तो रहिय सुधि प्रारंभ सकिन बरतु ठभि । उवर भरहि रमि रंजिवि जिणो । अश्या प्रइया रे मदन राइ दुसह लागी घ्याइ। चलिय सूर फ्लाइ गहिदिसणो ११५१ __ षट्पव जिता सुभटु वलिवंडु जिन्हु गज सिंघ निवाइय । जीतज दैत्य प्रचंड लोइ जिन्ह कुमगिहि लाइम । जितउ देउ धलि लवधि पारि वहु रूप दिखालहि । जिलउ दुट्ठ तिजंच करिवि लचु बरणखंड आलहि । असपति गजपति नरपतिय भूपतिय भूरह्मि भरि । ते प्रच्छ लच्छ ल टा लय पटल मयण नृपति परपंचु करि ॥५२॥ जीतिये सहि कोयउ मनि हरषु । पुनपुरि। दिसि पलिड, तब विवेक आवंत सुगियो । चित्त तरि चितविउ फरिवि मंतुये रिसर मुणियउ । धम्मपुरिहि श्री आदि जिण सुरिणयउ परगट नाउ । तत्थ गए हउ उधरउ मदन गंवान द्वाउ ।।५३।1 गाथा इच करस गुण मंतो, आयउ सुह ध्यान दूव रिसहेसु । विवेक बेगि चबहु बुल्लावइ देब सरबन्नि १५४।। दोहर चलिउ विवेक आनंदु फरि, धम्मपुरी सुपहत्त । परणाई संजमसिरि, सुखु भोगवह बहुत ॥५५॥ जब बिबेकु नाठउ सुण्या, चिप्तपद अनंगु प्रयाणु । भाग्या पीठि न धावहि, पुरुषहि इहु परवाणु ।।५६॥ पुष्पपरी । २. 'ग' प्रति में ५६ वे पद्य को दूसरी पंक्ति नहीं है । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज कामदेव का स्वर्वेश मागमन फिरिउ मनमथु जित्ति सब देसु, नद भट जै जै करिह, पिसाच गंधब्ध मावहि । बहु खिल्लिय दुटू मणि, कुजसु पडहु गत महि बजावहि । माया करह बधावण, मोह रहसि वित्त । सब्बे इंया पुषिणया, जिग परिः कामg ::५।। दोहडा मार पिसा पगि लागि करि, तब मनमथु धरि जाइ । रहसिउ अंगिन मावई, जीते राणा राइ ॥१८॥ गाथा ए जित्ति चित्ति खिलज, आयउ प्रानंद घरह जन बारि । उटु, उद्र, बंद बयरिण, भारतउ बेगि उत्तारउ ||१६ मुटु रहिय मोड मानणि, पुच्छद तब मयस्सु कवण कज्जेण । को सूरु वीर अटलो कहि सुदार मुज्झ सरि भुवणे ।।६।। रति एवं कामदेव के मध्य प्रश्नोत्तर कंत जित्तर कवरण से देसु, को पट्टापु वह एयरू, कवणु सबलु भूपत्ति डिमायउ । किसु छत्त, विहंडियन, करिनि बंदि कहु कासु ल्यायो । किसु मलिया परतापु, ते कह कह फेरी प्राण । रति जंप हो मदन भड कल्नु पौरिष अप्पारणु । ६१॥ जिरिण संफर इंदु हरि बंभु, वासिग्गु फ्यालि जिसु, इंदु चंदु गह मरण तारायण । विद्याधर वक्षसु गंधञ्च सहि देव मण इ॥ जोगी जंगम काफ्डी सन्यासी रस छवि । ले ले सपु जरए महि दुडिय ते मह पलि बंदि ॥६२।। दोहा सुरिण करि पौरिष मुझ तणा, घाल्यो मण भरमाई । संमुह अरिणय न जुज्झयज, गयड विवेकु पलाइ ।।६।। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयणजुझ ५५ शारिणमंतु पिय गयज विबेकु, अम्मपुरि गढ चडिज सर्बनि सनमानु दीयस । परताप गरजियो, सूरजिव उद्योतु कियो । जीवंसज वरी गमउ, देषुजि फरिही सौजु । सां तू मदनु न मोह भडु द्रुहू गंबाब छ बोजु ।।६।। . दोहा इंढोलिप तीन्यो। भुवरण बलु लिद्धउ सुहडाई । सोमइ कहूँ न दिपिउ सो मुझ पर बांह ॥६५।। बड़ह बढेरी पिरपबी, घर महि पश्यहि कासु । दन जर दौगि म र शिपि मादीसु ।।६६।१ जब तिनि नारि विलोहियाउ, तब तमकिड तिसु जीउ । जणु पजलती अग्गि महि, लेकरि पालिउ घीउ ।।६।। कक्ति करमदेव का धर्मपुरी की ओर प्रस्थान रोम रोम उद्धसिया, भिकुटि चडिय निल्लाडिय । गुरणाउ जिउ सिंधु घालि चललिय अंगडाइये ॥ विसहर जि फुकरई, लहरि ले कोयह चडिय उ । जिव पावस घण मत्त तिवसु गजदि गा अडियउ । नहू सहिय तमतिसु तिय किय, मछ तुछ जति बरणु रालिउ । श्री धम्मपुरी पट्टण दिसहि, तपसु दुट्ट मनमथु चलिउ ॥६॥ गाथा चल्लियउ रयहणाहो, सुदरि धरि धयण हित मझमि । कलि कालि सामु सुणिय', उद्यउ मोह भडु जाइ ।।६।। अट्ठि उठ्यो मोहू राउ दिटिउ नर सूरु बीरु परचंडो । तू कवण कत्थ बासहि, कहू प्रायो कवरण कम्जेण 41७०॥ १. सिणिक प्रति, तिरण प्रप्रति Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रड' संचरिउ मह प्रतापु प्राप J सुगृह स्वामीहरु सुकलिकालु दस खेत किंव विवेकु दुडाइयड, मुकति पंथु चलण न दीयो । कोडाकोडी अट्ठदस सायर मइवलु कित्त ト प्रादीस्वर भय भयउ इष तुम्ह सरणि पहूत्त ॥७१॥ बोहर आइ परिथ तिहि परिि कलीकालि पच्चारिड, मोहू तमक्किल काम ॥७२॥ पद्धतीय बंदु १. २. तमकाउ तिनि भडु मोहू जाई, पुरणु माया तह केलं बुलाइ । जब बैठे दून एक सत्यु, कलिकालु कहइ जय जोडि हर ४७३॥ तुम्ह पूत मदत अति चढि तेजि, मन माहिन देखिउ सो मागेजि । घर माहि वडत तिनि नारि दुट्ठि मारतउ न कियज केगि उट्टि ॥७४॥ कामदेव का प्रभाव - न सहीय तमक मनमथ प्रचंडु, उत्तरित जाइ तितु बोर कुड्डु | यो घोर कुंड दुरु भगाहु, जनु रुहिरु पूर्व भरियो अथाहु ॥७५॥ भय भीम भयंकर पालि जाह, श्रसाता वेर्याणि नलवि ताह जह विरल तिक्स करवाल पत्त, झडि पढहि त्रुट्ठि दहि सिगगत ||३६|| जह देख कख पंखियन ने, जिन्ह चुंच खंडासिय भवह देह | जितु लहरि यगनि झाला तपाइ' खिग़महि सक्नु पालहि जलाइ ||७३) करि मगर मंछ ए दुट्ठ जीय, तिसु भीतरि ते पुर्ण सेइ दीय | परमाधरमी अधिक जाणि, ते घालि जालु काढति तारिए ॥७८॥ इक लो कुहाड कूक हि गहीर, ते खंड खंड करि घालहि सरीरु । जह तथा वह नित लोह म, जिन्ह लावहि अंगिजि पलिय वंभ ॥७६॥ ग प्रति में रड के स्थान पर वस्तु बन्ध छन्द का नाम दिया है । मन् (ख प्रति) ३. तिस (क, ख प्रति) १. अहीर (क प्रति) Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयराजुज्झ याइयइ सू ता बाताइ सद, मदि मासि जिहु तिय जीव तुद्ध । तह घाट विषम कुभी गहीर, तिसु माहि पचावहि ले सरीरु ।।८।। सिरु तल करहि उपरि सि पाउ, व घालहि सबल निसंक पाउ । भाले करि पीडहि घाण माहि, रड बड़हि रडहि बहु दुखु सहाइ ॥१॥ वै छेयए भैयण ताणहप्ताप, वसहहि जीय जिनि कीय पाप । जिनि पन्यामानी मोह राह, तितु सुर मजहि तेह जाइ ॥८२।। तह स्वामि उत्तारिउ मयण कीय, मइ प्राई सारथयह तुम्ह दीय , धम्म पुरु गहु प्रति विषम ठाणु, तिस उपरि चलिउ करि बिताण ।।३।। इव मा जुहिय इह विषम संघि, उहू संक न मानइ जीति कधि । उह पप्पु अप्पु अप्पर भरणाइ, उह अवरि कोरि नडि गिणा ।।८।। आदी सुरस्यउ मिल्लि र बिबेक, उहु वैसि कियउ दूहु मंतु एक । अप्पणउ दाउ सहको गणति, को जाणइ पासा कि लंसि ।।८।। दोहा इती बाय सूणेबि करि, पित्ति उप्पणउ कोह । सधनु सवै संहिं करि, इथ भड्डु घल्लिउ मोहु ।।६।। मोह का साय होमा - मोहु चल्लिा साथि फलिकालु, तहहूतउ मदन भछु, तह सुजाइ कुमंतु कियउ । गळु विषमउ धम्मपुरु, तहसु सघनु संवृहि लिया । दोनउ' चल्ले पैज करि, गब्बु धरिउ मन माहि । पबण प्रबल जब उछलहि, घण घट कम रहाहि ॥७॥ गाथा रहहि सुकिउ घण घट्ट', जुडिया जह सबल गजि षटु । सखिडि चले मुमट पाणउ' कियज भष्ट मोहं ।।८।। रासाछबु फरिवि पयाण' मोह भर चल्लियउ । संमुह झंषाज बालबघूला झुल्लियउ । फुट्टिउ जलहरु कुम ध्याह तरुणि दिन । ले आइ तह प्रग्गि घूषंतिय रतिय ॥८६।। - -- २, धर्मपरो Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ अदितर बनान अपसकुन होना मुडिय सिरु नर न कटउ हथि कपालु जिसु । संमुहुई छौंक पयाण करत तिसु । तिण तुस चम्म कपास कद्दम्म गुड लवणा। मोह चलतं तिस नगर हू दीठे ए सवणा ।।१०॥ प्रथम मजलि चलंत सुफोही फौकरई । नाइक बाझहु मालउ बत्तीसी अणुसरह । दांवह काला विसहरु मसिहू फणु हणई । सुक्क बिरषतहि जुगिणि रोलइ दाहिणए ।।१।। सवणन सुपिनउ मानइ, चरिङ गविनते । कज्ज बिणासण अवसरि पुरुषह डिगय मते । धर्मपुरी के दर्शन होना मजलि मजलि करि चलिउ, धम्मपुरी दिसहि । पागम ध्यातम सार जणाक्ष्य वेचरहि ||१२|| दोहा मागम प्यातम बिपिचर तिन्ह जणायउ । आइ तुम्ह उपरि पल्याण्यो, स्वामी मनमथु राइ ।।१३।। गाथा सुरिणय बात मणरमु उपायज । मरवत्तरण न की बुलायउ । सार देह बिवेक बुलाबहु । समा जोडि सुहु मंतु उप्पाबहु ।।१४|| वित्त विवेक को सेना-- सम दम संबरु हुकु टुकु बैरागु सवसु दलु । बोहि तत्त परमत्यु सहण संतोष गरूबभर । पिमा सु अजउ मिलिज मिलि उ मद्दउ मुस्तितउ । संजमु सुत्त', सउथ्षु प्रायउ किंचरण बंभवउ । बलु मंद्धि मिलिय करुणा अटलु सासण बिरण बधाइय। . ले फोम सबलु संवूहि करि इव विवेक भडु पाइयउ ।।५।। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयजुझ हक्कारिउ सुभट चारितु अनि त ' सानु मंदाति । गह गहउ जैन चित्त, इव चल्लिज रिसह जिणगाहि ।।६।। घल्लिउ रिसह जिणंदु स्वामी, विहिसिया मनु कवल । तिसु पंथि सनमुष माझ्या, नाथि यामै मतु धवलु । मृदंग तूरा संघ भेरी झल्लरी झंकार । दाहिण सुदरि सबद मंगन, मीय करहिं उचारु ।।७।। ले हत्यि पूरा फलसु सक्षिमी, मोलिय सममुष भाइ । पावक दीपगु जोति समसरि देषिया जिण राइ । सव रच्छ सुरही प्रति अनुपम, काढ तासु गुवालु । पय संतु पवलिहि दिट्ठ. नरवह, करगहे करवालु ।।६।। निनटंतु वांवह वोलिया घडि सुफल बिरहि चाइ । इकु' निवलु जुगलु पलोइया सावडू अडिया प्राइ । गरजत सुरिणया केसी सिरि धस्या अवरु उठाई ।।६।। दुइ दिट्ट गयवर अति सउजल करत गल गरजार । प्रावंत फल नारिंग निहाले अबर कुसमहिं हारु । सब सवण सुपन संजोग उसिमालबधि पोतइ जाम । जे नीति मारग पुरष चालहि तिनहि सीझइ काम ।।१०।। हुइय उत्तिम सत्रेण जाम गढ पालि उत्तरिउ, सुमति पंच सा बाण छाइयं । मनुसूरह गह गहिस, जाम नीसारण परगढ़ बजाय । दोनउ स्क्यि सबल दल, जुडिय सुभट मुख मोडि । रण दिहि जे नर खिसहि, तिनकी जननी खोडि ।।१०।। पद्धडीय छन्द तिन्ह जननि खोडि जे भजि जाहि, पच्चारिप नर पौरिष कराहि । र अंगणु देखहि सूरबीर, पे रुणिय जेव नचाहि गहीर ।।१०२॥ पाइयउ पहि ल भन्यान घोरि, उट्टि न्यान पछाडिल करिवि जोरु । मिथ्यातु उठित तय प्रति करालु, जिनि जीउ सलाउ प्रनत कालु ॥१३॥ घल्लिज कुमग्गहि लोड तासु, तिनि मुसिज न कोको को विस्वासु । अन्नादि काल जो नरह सस्लु, उहु मिशइ सुभटुए कल्लु मल्लु ।।१०४।। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर चराज का वर्णन लोगालोगोरु दुहु पयार । जिसु सेवत भमियह मति चयारि । समिकतु सुसूरु तष दिट्ट होइ ! बलु मंडि रणहि जुट्टियो सोइ ।।१०।। फाटियो तिमरु जब देखि भानु । भगियो छोडि सो पढम ठाणु । उठि रागु पलिउ गरमत गहीर । वैरागि हणि तणि तासु तीरु ॥१०६।। उठि धाइ दुसह तव विषइ लगु । परवाणु देवलु परइ भगु । उठि कोहू चलिज झाला करालु । तब उपसमु ले हरिणयो करवातु ।।१०७।। मद पट्ट सहित गंजिउ मानु । जिनि मद्दवि जित्ति कर बिताणु । तर माया प्रति उट्ठी कसर । मलि मज्ज विविन्नी हो? खुरि ॥१०८।। वाईस परीसह उठेय गज्जि । दिखि देखि धीरजु सुभटु जि गईय भज्जि । प्राइयउ फलहु तह कलकलाइ । दुडि गयउ दुसह तिसु खिमा धाइ ॥१०६।। हुक्कियउ झूट, मूरिखु अंगेजु । सति राइ गंवायो सासु तेजु । कुसीलु जु होत दुह विति । बलु' करि बिदारिज बंभदत्त ।।११०॥ दलु चलिय मोहह मुख फिराइ । सब लोमु सुभटु भो जुडिड प्राइ । तिणि दारुणि बलु मंजिउ बहूतु । उन बिकट बुधि सिह दिनी सुधुत्त ।। १११॥ उह पुषी करइ नित पुरिष संत । उह व्यापि रह्या सह जीव जंता । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयणजुज्झ उह लडइ खिणह खिणि भज्जि जाइ। चलु करइ बहुडि संघरइ भाइ ॥११२।। व पुषठो ला को । बलु करद पधिक नह जाण दे । तिमु देषि पराकमु खलिय गइ । संतोषु तबसु उट्टियन रिसाइ ॥११॥ तिसु सीसु हण्या ले बज्ज दंछु । खेड हडिउ लोभु पडियो प्रचंडु। एहु देषि सूधु सो कलियकात्नु । खिण माहि फिरिउ नारदु बित्तालु ॥११॥ तिनि तजिय कुमति सुहमति उपाइ । विश्वेकु सहाई हुमत प्राइ 1 जो चलन न दित्तउ मुत्ति मग्गु । कर जोडि सुस्वामी चलण लग्गु ।। ११५।। पासरउ उठिउ सब विधि समत्यु । रण मजिभ भउ करि उम्भ हथु । संबर वलु प्राणिउ ताम चित्ति । तिमु खोइय मूलि उप्पाडि पित्ति ॥११६।। बह भिडिय सुभट रण महि पचारि । के भग्गिय के घल्लिमसि मारि । दल माहि जु ऋम इंतिय प्रचंडु । तप सूर किये ते खंड खंड ।।११७।। जब बात सुणीयहु मोह राइ । तब जलिउ बलिउ उद्विउ रिसाइ । करि रत्त नयण बहु दंत पीसि । पनिहाउ पडिक जण तुट्टि सीसि ॥११॥ बहु रूद्दि रूपि सो उह्यो प्राप्पु । सो बहुत करइ जीयह संतापु । र महिउ सु रणमहि दुसहु धाइ । उस संमुह न ढुक्का कोइ भाइ ।।११६॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ १. कविवर बुचराज वस्तु बन्ध समुह तिसु प्राइ | मलइ— को न हुस्कइ बलु पौरिषु सबु हरि प्रमल सो प्रचल पाल I बैरागहु चरितहु तपहु अवरु संजमहु टालइ । लगाइ जिस कहूं धाइ । करि बहुत जोगि भमाइ ॥१२० अट्ठाइस पगल जिसु सो नरु जम्मर मर तब बुलाय देव प्रादीसु विवेकु सवलु भडु' अष्वकारणि यानिकि बइडिउ । प्रवगंज मोहको न्यान बुद्धि भवलोइ देषिङ पेरिउ तब तिथि सीख कहिं दे पसिवर सुहू झागु । बेगि विमार ६६६॥ गाया प्रगटावण पहुमतो चडियों व सज्ज भोवालो | सो सरयन्ति चलणि लगिवि, लेउ नमतु चलित्र एवं ।। १२२ । चौपाई उन्मतु ले खल्लिउ मनमहि बिल्लिउ उपजी बहुत समाधि रणि रंगणि मायो । साग्रह भावो नाही कुमति कुष्याधि । रंजिय सुह सज्जणि जिन पाक्स घण दुजण मर्थं तालों मोहह मौषउनु । न्याह मंडनु चfss विवेकु वालो ।। १२३ ।। । उस बाझहू ज्ञे नर, दोसहि रत खर कि किसहि न काजे । जिन्ह कहु प्रसना पुछिल्ल पुन्ना, ते राणे ते राजे । ते व मित्तह निम्मल चित्तह, विगत बचन रसालो । मोह मोह न्यानह मंडनु चडि बिवेक भुवालो ।। १२४ ।। क और ग प्रति को छन्न संख्या में अन्तर है Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयजुज्झ जो दलि बलि पूरा, सव बिधिसूरा, पंचह महि परवीणो । परमत्थर बुझ्झा आगमु सुज्झइ धम्मि व्यानि नित लीयो । जो फे. दुर्गति प्राणं सुहगति बहु जीवह रखवालो । मोहह मौखहनु न्यानुहं मंउनु पडिड विवेकु मुवालो ॥१२॥ जो दवह खित्तहि, जाणं चित्तिहि काल भावसु बिचारह । नयसुत्सिहि सस्थहि भेयहि अस्वहि संकट विकट निवारइ । ओ आगम विमासह निरतउ भासई मदन खनन कुदालो। मोहह मोखंडनु न्यानह मंझनु चडिज विवेकु मुवालो ।।१२।। छपदु पाप पलु दिनु जोति साजणा कागणु ! चिता मणियह रमणु भवियण जण मन उल्हासरण । सकल कल्याण कोसु, सवई प्रारति भय खिल्ला । जडिगत जीव भवठभि, भार धम्म घुर झल्लरण । संतुट्ट होह जि सुर नर, मिलिउ तासु न पडद कम्मपहु । चडिउ विवेकु इव सज्जि भड़, करण प्रगट मिक्वाएं पहु ।।१२७।। पद्धडिय छंदु मोह एवं विवेक के मध्य युस परगटाणु मग्गु निवाणु कज्जि । विवेकु सुभटु तव बडिउ सजि । तब ढोयो कीयो तेनि आइ । मुह मोदि घलिउ तब मोहु राइ ॥१२॥ पेखित मनु जब खिसत मोहु । सब बहिब उ अण्णु मनि करि विछोहु । . उन दोनउ दुत्रिकय काल कधि ।। तब भिडिय रणांगणि फोज पंधि ॥१२६।। वै भरिणम जोडि जुझिय भुवाल । सब पड़हि समजणु भसण माल । ए तेजल्हेस्या गोले मिलति । लिसीय उस्हेस्या झाला झलंति ।।१३०॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज वैर हीद सुभट्ट प्रचल्ल होइ । दुह माहि नपिछोर खिसई कोइ । अब देखिउ बलु दुषरु मगाहू । तब इंअमि रथि चडि चलिउ नाहु ।।१३१॥ छ रंगिका माविनाथ को कानवेष पर विजय जिणु संजमु रयहि च तिन्नि मुत्ति मय गुष्टि । मिलिय सुभट जुडि पंच परत खिमा पाइरा समुह धरि । न्यानु करवाल करि समिफतु ताणि सिरि तवि उत्थितं । टुरि प्रगम सकल सार कुमति कपानर कति षणो। भाजु भाजु रे मदन भट, मादिनाहु सिरिसट । दे कर दह वर प्रथम जियो ॥१३२ ।। मेनुरचा भावन भाइ, मत्त धु बलहकाइ । मिलिय राणिय राइ, बत्तीस गुण भनुप्रेक्षा पाइ कवार । सोल सहस अंगठार, बस विधि पम्मधार । सवल घणं वैटो बोदसमें गुणगा । देखिप अन्तर यानि गति थि सब बारिण कहइ गुणो। भागु भाजु रे मदन भट प्रादिनाह सिरि सरट"जियो।।११३॥ तिनि रसन जो से निकसि बभु करत धारि भसि । नफीरी वाहि जसि, महिर सरोदयारहिय पौरिख पूरि । भागिय हिसा टूरि बलू उपसनु मरि कियो । नरो ए जु पतीसह तीसचारि, परि जेति बंध कारि । भंतु सुष्यानु धरि राखिउ मगो, भाजुभाजु रे मदन भट । आदिनाहु सिरसट देव कर दह बट प्रथम जिणो ॥१३४।। पालिउ समर कटकु फदि, मोह राउ कियो बंदि । कसाइ चारि निन्द बहिहा भाम मंगल किय निपातु । चालिय भागि मिथ्यातु मुश्यि घडा धम्म सुरति भाट पति । वुदही देव वाजति सुरद तीय मावंति सासण गुणो । भाजु भाजु रे मदन भट"...प्रथम जिणो ।। १३५।। १. क प्रति में १३२ को संस्था नहीं की गई है। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयगजुज्झ कवित्त घटिड कोई कंदप्पु, अप्यु बलु अवर न मान। कुनामा मामा, 'इस सुह अवगण्याइ । ताणि कुसमु कोवंड महराह संडह बल । बंभई सहरि देत तिना रखिय तिन्हक । कवि बल्हा जयंतु जंगमु प्रटनु । सरकिय भवरु तिसु सर कोइ । प्रसि झाए हणि श्री आदिजिए । गयउ मयण दह बट्ट कुहुइ ॥१३६।। वस्तु बन्ध दुसहू बडउ मोहु प्रचंड, भडु मयणु निदियउ । कलिय कालि तथ पाडि लियउ, भानंदु नित्ति मनि । विवेक जसु तिलकु दीयउ, जे वडवई यम्म के ते सव । घाले बंदि चेयरपराउ छुटाइयज, स्वामी प्रादि जिरण्दु ॥१३७। छुट्टि चेयण हुयउ मणु महणि, सह स्खुल्लिप धम्मदर, समाधि प्रागम जारिणय उ । रवि कोट भनंत गुण, प्रगट जोति केवलि दिपायउ । सुरपति नरपति, नागपति मितिय सन सब माघ । अन्या फेरन देसमाहि दियउ विवेकु पठाइ ॥१३८॥ स्वामि पठायउ राउ विवेकु सो देसहि संचरिउ, उसभ सेगिणकहु वेगि बुलाबह । सो पप्पिउ गणहपक्ति, सुत्त प्रत्यु विसु कहु सुपायउ । इकुषम्म पुह बिधि कहो, सामारी भणगार दे। संखेपिहि इव रुहियउ, भवियाह सणहु बिचार ।।१३९) कर्म का विवेचन मिलि चउबि संघहु आइ, बह देवी देवतह, तिय जांचमि हुइय इक्कट्रिय । करि बारह परिषषा, ठामि ठामि मडिषि वट्टिय । वाणीय निम्मल ममियम, सुणि उपजे सुह झारणु । भवियण मनु गहि गहिज स्वामी करइ यखाणु ||१४०।। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ कविवर बुचराज यिति प्रथासिय लोउ प्रलोउ, पुणु भासिय प्रथि जो, नत्यि हुति ते नरिथ भासिय । पुष्णिकारणि बहुविष पाहिजे, जी जिसीको सांसो तिहि मेलि दल सा सा गति भोगेइ ।। १४१ ।। महारंभ पांरंभ करि परिग्गहु मिल पंच इंद्रिय वसि करहि मद मासि चितु लाबहि । इसे सुख के फल पाप न पुन विचारहि । सो नरु नर गेहि जा६ मशुच जम्मतंरु हारइ ॥ १४२॥ चहु माया केवलहि कपटु करि पर मनु रंजइ । प्रति कुडिहि श्रवगूढ़ करिनि छल परजीवह वंच | मुहि मीठा मनि मलिन पंच महि भला कहावइ । इन कम्पनि जारिंप जूनि तियजचह पावइ ।। १४३ ।। भद्द प्रवृत्ति जे होंहि ध्यान आरति न चहुँ । अनुकंपा चिति करहि विनख रति मुखा भाषइ । पंचदह दह सरल प्रणामि, मनि न आणहि मछर गति । कहहि खरवन्ति पावहि सुगति राग संजम दहु पालहि ।। १४४ ।। सावय धम्म जे लीग दिस समूह निहाल । विष्णु रुचि जे निजरहि वालयण तबु साधहि । इनु भाइ जितुराई काउ देवह एति बाषद्धि ।। १४५ ।। रड छंद मण सबै चित्त परि भाउ, निक समकित सदह, देउ इक प्ररहंत से बहु । आरंभ पारंभ बिनु, सुगुरु जाणि निग्रन्थ सेवहु । मासिउ धम्मु जु केवलिय, सो निश्च जागोज । तिन्ह बरत संजम नेमि तिन्ह, जिन्ह पहिला बिरु एहु ।।१४६ १ चूल पारण मम भखहू धूल कूडज मम भासहु । लु प्रकत्त मलेह देखि परतिय वितु तासहु । परिगहु विउ पमागू, भोगउपभोग संखेव 1 अनर्थवं विविमा, नमउहू सामाइकु सेबहु १४७।। प्रति Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयाजूझ ६७ थूल पाण मम बहह, थूल कूडयो मम भासह । थूल अदत्तमलेहु, देखि परतिय तन तासहु । परिगह दिगह पमारण. मोग उपभोग संखवेहु । अनथदंड प्रमाण, नित्य सामाइक सेघल्छु । पसंरतु सुमनु घसमहि दमहु, पोसह एकादसि घरहु । पाहार सुद्ध चित्त निम्मलइ, असंविभाग साधहु करहु ।।१४७।। मांडल्ल पहिली प्रतिमा दंराण धारहु, वीजी प्रप्त निम्मल उपचारहु । तीजी तिहु कालहि सामाइक, चौथी पोसह सिब सुन दायक ।।१४।। पंचमी सकल सचित्त विबज्जइ, गईभोयण मट्टीयन किज्जा । सप्तमी वंम वरत दिछु पालहु, अट्ठमी पापणु पारंमु टालह ॥१४६।। नवमी परगहु परइ मिलीजाद, सावध वचनु दसमी दीजइ । एकादसमी पडिमा कहि परि, रिषि जाउ ले भिक्षा पर घर फिरि ।।१५।। दोहा इच जे पालहि भावस्यु इहु उत्तिम जिया घम्मु । . जग महि हवउ तिन्ह तराउ, नर सकयत्वउ जम्मु ।। १५१।। जंपि सक्कर करहु तउ तिसउ वलु मंडिवि देहस्यज, अहव क्रिपि जे नर सक्कहु । ता सहह ध्यानु निजु, हीयइ घरत खिरणु इक न थाकहु । अंते करहु सले खरगा, सन्वे जीव खमाइ । पालहु सावय सुख लह्ह माण जिणेसुर राइ ॥१५२।। सुबह सायह पम्मु हित करण, सो पालह पलख मशिा, सुग्गइ होइ दुग्गइ निवारइ । बुद्धत संसार महि, होइ तरंड खिरण महि तारइ । वंधियद कम्म जि सुह असुह, जीय प्रनंतर कालि । ते तप वलि सव निद्दलहुँ, जिव तर कु'द कुदालि ।।१५३।। षट् पद छोडि इक्कु प्रारंभु राप दोषह विहु तबहु । तीनि सल्ल परिहरउ, चारि कषाय विवज्जह । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज पंच प्रमाद निवारि, छोडि पोडणु अक्काइहि । पंच सत्ति भय ठाणु, मह मद पडि सभा पहिं । अवमुन नव विधि आपहा मिश्या दस विधि परहरहु । रिषि व रहि , इ अ:गु र उवरहु ॥१५४।। इकु वसि करि पातमउ, विनि यावर तेस पालहु । आरहन्छु तर धरण दिदि, ते समिय निहालहु । पंचइ चार चरहु दश्व छह विद्धि न लिज्जहु । सुत सत्त नय जाणि, मातु प्रहसमें गहिज्जह । नव कम दहि दिळु राखीयई, दस लक्षण धम्महम्महु । जिण भास इव मुनिवर सुणह, गति न चारि इणि परिभमह ॥१५५।। सुमाइ पंच तिय गुत्त पंचह वयारित परि । संजमु सत्त. दह भेय, भेय बारह सपु प्राचरि । पद्धिमा हुइ वस सहहु, सहस पाइस परीसह । भावण भाइ पचीस, पापु सुत्त तजि नव वीसह । तेतीस मसाइण घल्लियहि, जिण चौवीसइ थुति करहु । अट्ठाईस पगय मडु मोहु जिरणु, इय सुसाय सिवपुरि सहहु ।। १५६।। दिन्नु देसण एह जिणराई बह गणहरू संघ जाह। भव्य जिय संवेउ प्राय: किष सित्थु चौबिहहि । तित्यंकर तव नाउ पापउ, नामु गोतु फुरिण वेधही । माउ सेसजि ति, तेखिउ करि सिवरि गयउ । सुख भोगवद पनंत ॥१५७।। षट्पबु जह न जरा न मरणु जत्थ पुणि व्याधि न वेयण 1 जह न देहन न नेह जोति मइ तह ठइ घेयरण । जह ठछ सुक्ख धनंत न्यान दंसण अवलोवहि । कास्लु विणासह सयलु सिद्ध पुरिण कालहि खोहि । जिसु बरणु न गंधु न रसु फरसु, सबदु न जिस किसाही लहो। धूवराजु कहै श्री रिसह जिणु सुथिरु होइ तह ठा रह्यो ।१५।। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयणजुज्झ रा विक्कम तगुज संवतु नवासिय पणरहसें । सरद - हत्ति आसवज बखारिंगउ तिमि पडिवा सुकलु पछु । सनि सुवास करु नखित्त नापि तितु दिन बल्हू पसंद्वयउ । म जुद्ध सुबिसेसु करत पढत निसुत नरहु । जय स्वामि रिससु ।। १५६।। है. २. सूभं भवतु ॥ लेखक - पाठकयो । लिलांपितं बाई पारा स्वयं पठनार्थं कम् अयनिमित्त | लिखंत देवपालु माली मलावरे को || 2 Ee सबब (क प्रति) ( व प्रति) 000 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतोषजयतिलकु राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों में संतोषजयतिलकु' की एक मात्र पाण्डुलिपि उपलब्ध हो सकी है। पाण्डुलिपि श्री दि० जैन मन्दिर नागदी, बुन्दी के गुटके में कविवर बेघराज के अन्य पाठों के साथ संग्रहीत है जो पत्र संख्या १७ से ३० तक उपलब्ध है । तिलकु में १२३ पद्य हैं । उसके लिपिका पांडे देवदासु थे जिनका उल्लेख 'चेतन पुद्गल धमाल' के अन्त में दिया हुआ है। पाण्डुलिपि शुद्ध, स्वच्छ एवं सुन्दर है। साटिक मंगलाचरण जा पज्ञान प्रचार फेडि करणं, संन्यानदी वंद्यये । जा दुख बहु कमा एण हरणं, पाइकसुम्ग सुहं । जा देवं मणुणा तियंग रमणी, मक्किल तारणी । सा जज जिगवीर क्यण सरियं वाणी प्रते निम्मस ।।१।। विमल उज्जल सुर सुरसणेहि, सु भषियरण गह गहहि, मनमु सरिजण कवल खिल्लाहि । कल केवल पहियहि, पाप पटल मिष्यात पिल्लहि । कोटि दिवाकर तेउ तपि निधि गुण रतम करंडु । सो वधमानु प्रसनु नितु तारण तरणु तरंडु ॥२॥ तरण तारण हरण दुग्णयह, करुणाकर जीय सहि, भविय चिन वह विधि उल्लासण । प्रठ कम्मह खिल करण शुद्द धम्मु दह दिसि पयासरण । पावापुरि श्री वीर जिरण, जय सुपगुत्तर आइ । तव देविहि मिलि संठयउ समोसरण वह भाइ ।।३।। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतोषजयतिलकु इन्द्र का वृद्ध के वेव में गौतम गधर के पास अश्नाजब सुदेखइ इंदु घरि ध्यानु नहु वाणी होद जिए, तब सुक्र पटु मन महि उपाय 1 हुई बंभर होकर मच्चलोइ सुरपति भायउ 1 गोतमु नोतमु जह से प्रवरु सरोत बोरु | सत्य पहुल भाइ करि मघवें गुरिहि गौ ॥४॥ fuवरु बोलइ सुरराहु हो विष्प, तुम्ह दीसइ विमलमति, इकु सन्देहु हम मनहि थक्क | नहु ले साके मिलइ जासु तयह गांधि चुषक | वीरुहूता मुज्झ गुरु मोनि रह्यालो सोइ । हज सलोकु लीए फिरउ प्रत्थु न कइ कोइ ||५|| गाया हो कह विषर वंभरण को धछे तुम्ह चित्ति संदेहो । खि माहि सयल फेडद, हज श्रविरुल्लु बुद्धि पंडित ।।६।। षट्पदु तीन काल षटु दयि नवसुपद जीव षटुनकहि । रसल्हेस्था पंचास्तिकाइ व्रत समिति सिगनकहि ॥ ज्ञान अवरि पारिस भेदु यहु सुलु सु मुत्तिहि । तिष- महर्ष कहि वचनु पहु अरिहि न रुत्तिहि ॥ यह मूल भेदु निजु जाणिव सुद्ध भार जे के गहहि । समक्कत्तदिद्धि मतिमान से सिव पद सुख मंदित सहहि ||७|| गाथा } एवर सर्वाणि संभलि कमति चित सम्झि पुरइ न बत्यो । उत्ति गोमु चल्लिउ पुरिण तत्थ जय जिगाडु ||६|| रड तव सु गोह चल्लिउ गजंतु, जणू सिधु मत्तमय तरक छंद व्याकरण प्रस्य । बटु श्रंगह वेयत्रुनि, जोत्तिक्कलंकार सत्यह । सुलइ सु विषा मतुल वलु चडिङ तेजि यति वंभु । मानु गल्या सिसु मन तणा देखत मानयंभू HEH ७१ ต Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. कविवर बूचराज गाथा देखंत मान थंभो, गलियउ तिसु मानु मलह मझम्मे । हूवउ सरल पणामो पुछ मोहम् चिति संदेहो ॥१०॥ बोहा गौसम द्वारा प्रधान गोइमु पुछा जोडिकर स्वामी कहा विचारि । नोमि वियाफे जीव सहि तरिहि फेउ संसारि ॥१॥ भगवान महावीर का उत्सर लोभ लग्गउ पारणवषु कर, अलि जंपइ लोमिरतु, ले प्रदत्त जब लोभि प्रावइ । यह लोमु बंमह हरद, लोभि पसरि परम वधावह ।। पंचइ परतह खिउ करइ, देह सदा भनचारु । सुरिए गोइम इसु लोभ का कहउ प्रगट विथारु ॥१२॥ मूलह दुमस सण सनेहु, सतु विसनह मूलु व कम्मह मूल प्रासउ भणिजह । जिव इंदिय मूलु मनु, नरय मूलु हिस्या काहज्जइ । जगू विस्वासे कपट. मति परजिय वचछ दोह ॥ सुरिण गोइम परमारथु यहु, पापह मूलु सुलोहु ।।१३।। गाथा श्रमयउ भनादि काले, चहु गति मझम्मि भोवु बहु जोनी। वसि करि न तेनि सक्कियउ, यह वारण लोभ प्रचहु ।।१४।। वोहडा दारणु लोभ प्रचंडु यहु, फिरि फिरि वह दुख दीप । ध्यापि रमा वलि अप्पइ, लख चउरासी जीय ।।१५।। पद्धती छंद पहु ग्यापि रह्या सहि जीय जंत, करि विकट बुद्धि परमय हरत । करि छलु पयस धूरत जेव, परपंचु करिवि जगु मुसइ एव ।।१६।। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदरजाति संकुडइ मुडइ बढलु करा, वगजेंउ रहइ लिव ध्यान साइ । ठग जेंव उगो लिय सीसि पाइ, परचित्त विस्वास विविह भाइ ।।१७।। मंजार जेउ प्रासण बहुत, सो कर जु करणउ नाहि जुस्त । जे वे सजेंव करि विवि ताल, मति यावह सुख दे वृद्धवाल ॥१८॥ लोभ का साम्राज्य प्रापणे न प्रौसरि जाइ चुषिक, तम जें रहद तलि दीव लुपिक । जय देखइ डिगतह जोति सासु, तब पसरि करइ अपरशु प्रगासु ॥१६॥ जो करइ कुमति तव भण विचार, जिस सागर जिउ लहरी अपार । इकि घहि इविक उत्तरिवि जाहि, वल्लु पाट धडइ नित होय माहि ।।२०।। परपचु कर जहर जगत्त, पर पप्पु न देखइ सत्त मित्त । खिण ही प्रयासि खिरण ही पयालि, लिण ही नित मंडलि रंग ताति ।।२१।। जिव तेल बुद जल माहि पड़ाइ, सा पसरि रहे भाजनह छाइ । तिव लोमु फरह राई सचारु, प्रगटावै अगि में रह विथारु ।।२२।। जो अघट घाट दुघट फिराइ, जो लगड व संगत पाइ । इकि सणि लोभि लग्गिय कुरंग, देहि जीउ माइ पारधि निसंग ।।२३।। पत्तग नयण लोभिहि मुलाहि, कंचण रसि दीपग महि पढाहि । इक बारिण लोभि मधुकर ममंति, तनु केवई कंटइ वेषियति ।।२४|| जिह लोभि मछ जल महि फिराहि, ते लग्गि पणव अप्पण गमहि । रसि काम लोभि गयबर भमंति, मद मंषसि वष बंधन सहति ।।२५॥ इक इक्का इंदिय तणे सुक्ख, तिन लोभि दिखाए विविह दुख । पंच इदिय लोभिहि तिन रखुत्त, करि जनम मरण ते नर विगुत्त ।।२।। जगमसि तपी जोगी प्रचंड, से लोभी भमाए भमहि खंड । इंद्राधिदेव वह लोम मत्ति, ते बंधहि मन महि मणुवगत्ति ॥२७॥ चक्क महिय हुइ इक्क छत्ति, सुर पदइ वंयहि सदा चित्ति । राइ रागो रावत मंडलीय, इनि लोभि वसी के के न कोय ॥२८॥ वरण मज्झि मुनीसर जे वसहि, सिव रयणी लोमु तिन हिय माहि । कि लोभि सरिंग पर भूमि जाहि, पर करहि सेव जीउ जीउ भणाहि ।।२९॥ सफुलीणो निकुलीगह दुवारि, लेहि लोम डिगाए करु पसारि । वसि लोभि न सुणही घम्मु कानि, निसि दिवसि फिरहि भारत्त ध्यानि ॥३०॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ कविवर बूचराज ए कोट पड़े लोभिहि भमाहि, संचहि सु अन्नु ले घरणि माहि । ले वनरसु हंढ लोभि रत्त. मखिकासु मधु संचई बहुत ॥३१॥ ते कियन पब्जिय लोभह मझारि, धनु संचहि से धरणी भडारि । जे दानि धम्मि नहु देहि खादि, शेखंत न उठि हाथ हाडि जाहि ॥३२॥ माया जहि ह्त्य झाडिकि वणं, घनु संचहि सुलहि करिबि मंडारे । तरहि व संसारे, मनु बुद्धि ऐ रसी आह ॥३३॥ वसइ जिन्ह मनि इसिय नित बुद्धि, घनु विवाहि अकि जगु, सुगुर वचन चितिहि न मावद। मे मे मे करइ सुणत धम्म सिरि सूलु प्रायद ।। अप्पणु चित्त न रंजही जणु रंजाबहि लोइ । लोभि वियापे जेइ नर तिन्ह मति मंसी होइ ।।३४।। गाथा तिन्ह होइ इसिय मत्त, चित्तं प्रय मलिन मुहुर मुहि बाणी । दिदहि पुन म पावो, वसकियो लोभि ते पुरिष ।।३५।। मडिल्ल इसउ लोमुकाया गढ अंतरि, रयरिण दिवस संतवह निरंतरि । करइ ढीठु प्रप्पणु वलु मंडद, लज्या न्यानु सीलु कुल खंडइ ॥३६॥ को माया मानु परचंड, तिन्ह मज्झिहि राउ यहु इसु सहाह तिन्निउ उपज्जहि । यहु तिष तिष विष्फुरद, उइतेय बलु प्रषिकु सज्जहि ।। यहु बहु महि कारणू करणु, अव घट घाट फिरंतु । एक लोम विण वसि किए, चौगय जीउ ममंतु ॥३७॥ जासु तीवद प्रीति अप्रीति, ते जग माहि जारिग यह, जारिणउ रागु तिनि प्रीसि नारि । मप्रीति हु दोष हब, हू कलाप परगट पसारि ॥ प्रज्ञा फेरी आपणी, घटि घटि रहे समाइ । इन्ह दहु वसि करि ना सके, ता जीउ न रकि हि बाद ॥३८।। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतोषकु दोहा सप्प उरल जैसे गरल उपने विष संजुत्त । तैसे जाग्रह लोभके, राग दोष दुइ पुत ||३६|| पद्धडो छंद द्रुद्द राग दोष तिसु लोभ पुत्त । जाहि जह मिस त जह सत्त तहा प्रगट संस्रारि धुत्त ॥ लोभ का प्रभाव तह राग रंगु । क्षेषह प्रसंगु ॥४०॥ जय राधु तहा सरलज सहाउ 1 जहू दोषु तहरं किछु चक्र भाउ || जह रागु तह मनह प्रवाणि । जह दोष तहा अपमानु जारि ||४१ || जह रामु तह तह गुणहि युति । जह दोषु तहा तह छिद्र चित्ति ।। जह रागु वहा वह पतिपति । जह दोष तहा लह काल दिट्ठ || ४२ || ए दोनउ रहिय वियापि लोह | इन्ह भाकुन दीसइ महिय कोइ || नित हियद सिसलहि राग दोष | वट बाडे दारण मग्गह मोख ॥२४३॥ रड पुत्त में सिय लोभ धरि दोष | चलु मंडित प्रप्पणउ नाद कालि जिन्ह दुक्ख दीयत । इंद जालू दिखाइ करि, वसी भूत सङ्घ लोग फीवर ॥ जोगी जंगम जतिय मुनि सभि रक्खे लिलाइ । अटल न टाले जे टहि फिरि फिरि सम्बहिश्रा ॥४४॥ लो राजउ रहिउ ज व्यापि । चउरासी लखमहि जय जीउ पुरि तत्व सोइय । जे देख सोचि करि तासु वा नह प्रतिम कोय ।। ७६ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ कविवर बुचराज विकट बुद्धि विनि सहि मुसिय धाले कम्मह फंध । लोभ लहरि जिन्ह कह पडिय, वीसहि ते नर अंध ।१४५।। वोहा मरणव तिबह नर सुरह, हीडावं गति चारि । वीरु भणइ गोइम निसुरिण, लोमु बुरा संसारि ॥४६|| गौतम स्वामी का प्रश्न कहिउ स्वामी लोभु बलिवंडु ।। सब पुछिउ गोइमिहिं इसु, समत्त गय जिउ गुजारहि । इसु तनिइ तउ बलु, को समथु कहुइ सु विदारइ ।। कवण बुद्धि मनि सोचियह कोजर फकरण उपाउ । किसु पौरिषि यहु जीतियइ सरवनि कहहु सभाइ ।।४।। भगवान महावीर का उत्तर सुणहु गोइम कहइ जिणणाहु । यह सासणु विम्मलइ, सुणत धम्मु भय बंध तुहि । अति सूचिम भेद सुणि, मनि संदेह खिण माहि मिट्टहि ।। काल प्रतिहि ज्ञान यहि, कहियउ आदि अनादि । लोभु दुसहु इव जित्तयइ, संतोषह परसादि ॥४८॥ कहहु उपजाइ कह संतोषु । कह वासइ थानि उहु. किस सहाइ बलु इसउ मंडइ । क्या पौरिषु सनु तिसु, कासु बुद्धि लोभह विहंडइ ।। जोरु सखाई भविमहुइ पपडावै यहु मोखु । गोइम पुछइ जिण कहहु किसज सुमदु संतोषु ॥४६) संतोष के गुण साहजि उप्पजह चिति संतोष ॥ सो निमसद सत्तपुरि, जिण सहाय बलु कर इतउ । गुण पौरिषु सनु धम्म, ज्ञान बुद्धि लोभह जितइ ॥ होति सखाई भत्रियहुइ टालइ दुरगति दोषु । सुरिण गोहम सरवनि कहर, इस सूरु संतोषु ॥५०॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतोषजतिलकु रासा छर इसज सूरु संतोषु मिनिहि घट महि कियन । सकयस्थ उ लिन पुरिसह, संसारिहि जियउ ।। संतोषिहि मे तिपते ते चिरु नंदियहि । देवह मिउ ते माणुस महियलि वंदियहि ॥५१॥ जगमहि तिन्ह की लीह जि संतोषिहि रंम्मिय । पाप पटल अंधारसि अंतर गति दम्मिय ।। राग दोष मन' मम्झि न खिणु इकु माणियइ । सत्त, मिस चित्त'तरि समरि जाणियह ॥५२॥ जिन्हें संतोष सखाई तिन्ह नित घडह कला । नाव कालि सतोष करइ बीयह कुसला ।। दिनकरु यह संतोष विगासह हिद कमला। सुरतरु यह संतोषु कि वंचित देइ फला ।।५३५॥ चिंतामणि संतोषु कि चित चितत्तु पुरह । कामधेनु संतोषु कि तब कज्जह सरद ।। पारसु यह संतोषु कि परसिहि दुक्खु मिटइ । यह कुठार संतोषु कि पापह जड कट इ ।।५।। रयणायरु संतोषु कि रतनह रासि निधि 1 जिसु पसाह संडहि मनोरथ सफल विधि । जे संसोषि समारणे तिन्ह भउ सामु गयउ । यूमरेह जिउ सिन्ह मनु नितु निश्चल भयउ ।।५।। जिन्हहि राउ संतोषु सुतुटुन भाउ धरि । पर रवणी पर दवि न छोपचि तेह हरि ।। कूडु कपटु परपंचु सु चित्ति न लेखिहहि । तिणु कंचरणु मरिण लुदसि समकरि देखि हहि ॥५६।३ पियउ अमिय संतोषु तिन्हहि मित महा सुख्खु | लहिउ प्रमरपद ठाणु गया परभमण दुखु ।। राहंस जिउ नीर खीर गुग्ण उद्धरइ । धम्म प्रधम्म परिख तेव होय करई ।।५।। प्राव सुहमति ध्यानु सुबुद्धि हीये भज्जइ । कलाहि कलेसु फुध्यानु कुषि हिय तजइ ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ कविवर बूधराज सेह न किसही दोसु कि गुगा सम्वह गहइ । पडह न आरति जीउ सदा बेसनु रइइ ।।५८२ जाहन वक्त परणाम होहि तिसु सरल गति । हप्पजिउ निम्मलन, लाहि मलण चिति । सोस जिब जिन्ह पर कित्ति सदा सीयलु रहा । धवल जिव धरि कंधु गरुव भारह सहइ ॥५६| सुरधीर बरवीर जिन्हहिं संतोषु बलु । पुडयरिंग पति सरीरि न लिप दोष जनु ।। इसउ मह संतोषु गुरिणहि वतिय जिवा । सो लोभइ खिउ करइ कहिउ सरवलिा इदा ॥६॥ कहिन सरवनि इसउ संतोषु । सो किज्जइ चिसि दिहु जिसु पसाइ सभि सुख उपजहि । नह प्रारति जीउ पडइ, रोर थोर दुख लख भज्जहि ।। जिसु ते कल वहिम चडइ, होइ सकल जगि प्रीय । जिन्ह कटि यहु प्रयट्टी पिय पुन प्रिकिति ते जीय ६१।। मडिल्ल पुत्र प्रिकिति जिप सणिहि सुणियहि । जै जै जै लोहि महिं मरिणयहि । गोइम सिउ परवीण पर्यपिउ । इसउ संतोषु मुक्पति जंपिङ । ६२॥ संचाइणु छंदु पियं एक संतोषु भूवपति जासु । - नारीय समाधि अत्यइ मिति ॥ के ससा सुदरी चित्ति हे आवर । जीउ तप्तखिणे वंच्छियं पावए ॥६३|| संतोष का परिवार-- संवरो पुत्त, सौ फ्यटु जाशिए । जासु पोलंबि संसार तारिजए । छदि सौ भासरं दरि ने बारए । मुक्ति मम्मिले हेल संचारए ।।६४॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतोषजयतिलकु ७९ सतियं तासु को नंगरणा बषिर्य । दुजस्थे तेल भेइ पासंनियं ।। फोह प्रगोगाह पति से नरा । ताहं संतोसए सोम सीयकस ॥६५॥ एहु कोटबु संतोष राजा तो। जासु पसाइ वझति देती मरणो । तासु नैरिहि को दुद ना प्रावए । सो भहो सोमह खो जुग बाधए ।॥६६॥ बोहर खो जुग यावद लोम, कउए गुणहहिं जिसु पाहि । सो संतोषु मनि संगहह, कहिया तिरपणवाहि ।।६७:1 गाथा कहियहु तिहु वणपाहो, माणहु संतोषु एह परणामो । गोइम चिति दिद करु, जिउ जिसहि लोमु यह दुसद्ध ।।६।। सुरिण वीरवयप गोइमि, प्राषिउ संतोषु सूरु घट माझे । पम्पलिज लोहु संखि खिणि, में पउरंगु सममू पप्पणु ।।६६॥ लोभ द्वारा आक्रमण चित्ति चमकिउ हियइ परहरिउ । रोसाइणु तमकियउ, लेइ लहरि विषु मनिहि धोलई । रोमावलि उसिम कालरू इहुइ मुबह तोलछ । दावानल जिउ पजलिड जयण नि लाडिय बाडि । प्राजु बलोषह खिउ करत अउ मूसह उप्पाहि ॥७॥ दोहा लोभहि कीयउ सोचणउ हवस भारति ध्यानु । आई मिया सिरु नाद करि झूठ सवलु परधानु ।।१।। षट्पदु सोम की सेना प्रायउ भू पधान मंतु तत खिरिण कोयउ । मनु कोहू अरु दोहु मोहु इक युद्धउ थीयउ ।। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० कविवर बूचराज माया फलहि कलेसु थापु संतापु छदम दुखु कम्म मिथ्या मासरउ प्राद धंद्धमि कियउ पसु ।। कुविस कुसीन कुमतु जुडिउ रागि दोषि आय लहिउ । अध्पणउ समन् वलु देखि करि लोहरा तब गहंग हिउ ॥ २३ aftee ग्रह गहिपर तव लोहु चितंतरि वज्जिय कपट निसाण गहिंय सरि विषय तुरंगिहि दिय पाणउ संतोष दिसि किट पाउ ।।७३। सुविक्षिणि । प्रावत सुणिउ संतोष ततक्षिणि, मनि भानंदु की तह उइ सयनह पति सतु श्रापद लिति दलू श्रप्पर वैगि बुलाय ||७४|| गाथा हरषित संतोषु सुरु बहु भाए । सो मिलियट सीलु भडु मा ।।७५ गीतिका छन् बुल्लायड दलु प्रप्प, जिस कार सहस अंग, संतोष की सेना - भाईयोसीसु सुद्धम्मु समकतु न्यानु चारिंतु संवरो । वैरागु तपु करुणा महाव्रत खिमा चिति संजमु थिए । प्रज्जउ सुमद्दउ मूर्ति उपसमु सम्मु सो पार्कषणों । द्रव मेलि वलु संतोष राजा लोभ सिउ मंडई रणो ||७६ ।। सामणिहि जय जयकार हूवउ भग्गि मिथ्याति दडे | नीसाण सुत वज्जिय महाधुनि मनिहिं कर लड़े खड़े || केसरिय जीव गर्ज्जत क्लु करि चिति जिसु सासण गुणो मेलि दलु संतोषु राजा लोभ सिउ मंडई रणो ||७७ मज तुल्ल जोग चल गुडियं तत्त महीसा है । वह फरसि पंउि सुमति जुहि चिनि ध्यान पचारहे ॥ अति सबल सर आम्म छुट्टहि श्रसणि जगु पावस घणो । इव मेलि दलु संतोषु राजा लोभ सिज मंडह रणो ॥ ७८ ॥ इव Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतोषजयतिलकु सा णाहु सीलु सुपहिरि अंगिहि कुतु रतनत्रय कियं । घलहलह हत्थि विवेक असिवर, छत्त सिरि समकतु झिं । इक पदम पर तह सुकल लेस्या चवर दाहि निसिदिणो । इव मेलि दलु संतोषु राजा लोभ सिर मंडइ रणो ।।७।। षट्पदु मंडिउ रणु तिनि सुभटि सनु समु अच्पण सजिउ । भाव खेतु तह रचित तुरु सुत भागमु बज्जिज ॥ पच्चारयो ध्यातमु पयड पप्परसू दल भंतरि । सूर हिय गह गहहिं धसहि काइर चित्त तरि 11 उतु दिसि सु लोमु छलु तक्क चैवलु परिषु णियतणि तुलह । संतोषु गरुव मेरह सरिसु इसुकि पवण भयणिण खलई ॥५०॥ गाथा किं खलिहै भय पवणं, गरुवउ संतोषु मेर सरि भटलं । पवरंगु सधनु गाजवि, गं अंधणि सूर बहु जुडियं ।।६।। तोटक छंदु रए अंगणि जुट्टिय सूर नरा, तहि वजह भेरि गहीर सर । तह वोलि उ लोभु प्रचंड भहो, हुणि जाइ संसोष फ्यालि दडो ॥२।। फिदु लोभ न बोलह राव करे, हुण कालु पाया है तुम्ह सिरे । तई मूढ सतायउ सयल वणो, जह जाहिन छोडन तय खिणो ||३|| युद्ध स्थल जह लोभुतहा थिरु लखियहो, दरि सेवा उम्भाउ लोउ सहो । जिब इट्टिय चित्ति संतोषु करि, ते दीमहि भिष्य भयंति परे ।।४।। जह लोभु तहा कहु कत्य सुखो, निसि वासुरि जीउ सहत दुखो । सयतोषु जहा सह जोतिउसो, पय वंदहि इंद नरिंद तिसो ।।५।। सयतोष निवारहु गठन चित्त', हज च्यापि रह्या जगु मंडि पिते । हउ आदि अनादि जुगादि जुगे, सहि जीयसि जीयहि मुह्य. लगे ।।८।। सूण लोभ न कीबइ राडि घणी, सव पित्तिउ पाड तुम्ह तणी। हउ तुज्झ विदारउ न्यानि खगे, सहि जीय पलायड मुक्ति मगे ।। ५७॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ कविवर बूचराज हउ लोभु अचलु महा सुभटो, अगु मै सहु जितिउ वंधि पटो। सभि सूर निवारउ तेजु मले, मह जित्तइ कोण समत्थु कले ।।८।। तइ प्रत्यि सतायउ लोगु घणा, इव देखहु पौरिषु मुझ तरणा । करि राडर खंड विहंड बनी, तर जेवर पाडउ मुढ बडी ।।६।। सुणि इत्तउ कोपिउ लोमु मने, सब कुछ उठायउ वंमि तन । सा आया सूरु उठाइ करो, ससिराइहि छेदिउ तासु मिरो |६०॥ तव बीडउ लीयउ मानि भडे, उठि चल्लित समुह गाँज गुर्डे । वस्तु कीयउ मद्दवि मप्पु घणा, खुर खोजु गवायउ तासु तणा ।।६१|| इस दृषकर छोहु सुजोडि प्रणी, मनि संक न माना और तणी। तथ उद्धि महाव्रत लम्गु वले, खिरण मजिझ सु घाल्यो छोह दले ॥१२॥ भडु जट्ठिउ मोहु प्रचंडु गजे, वलु पोरिष भाषणु संनु सजे । तव देखि विशेफ षड्या अटलं, दह वट्ट किया सुइ भज्जि वलं ||६|| वह माय महाकरि रूप चली, मह अम्गइ सूरउ कतणु चली। ढुक्कि पौरषु प्रजवि सीरि किया, तिसु जोति जयप्पतु वेगि लिया ।।४।। जव माय पडी रण मज्झि खले, तव प्राइय कंक गति वले । तव उट्ठि खिमा जव घाउ बिया, तिनि वेगिहि प्राणनि नासु किया ॥६५।। अय ज्ञानु चल्या उठि घोर मते, तिसु सोचन माइया कंपि पिते । उहू प्रावत हाक्या गानि जवं, गय प्राण पडया धर घूमि सवं 11६६॥ मिठपातु सदा सहि जीय रिपो, रुद रूपि घड्या सुइसज्जि प्रपो । समक्कतु ह्या उठि जोद्धि मणी, धरि धूलि मिल्या दिय चूर घणी ।।६७।। फम्म असि सज्जि चडे विषमं, जणु छायउ अंदरु रेणु भयं । तमु भानु प्रमासिउ जाम दिसे, गय पाटि दिगंतरि मज्झि धुसे ॥१८॥ ज़गु ज्यापि रह्या सत्रु प्रासरयं, तिनि पौरिषु धोठिइता करयं । जब संवरु गजिउ घोरि घटं, उहु झाडि पिछोडि किया दवटं ||१६| रसि रागिहि धुत्तउ लोड सहो, रण अंगाणि लग्गउ मडि गहो । वयरागु गुधायउ सज्जि करे, इस जुझि विताङमो दुह, अरे ॥१०॥ यह दोषु जु छिद गहति परं, रण अंगण हक्क उडाहि सिरं । इठि ध्यानिय मुक्किय अग्गि घणं, खिण मज्झ जलायउ दोषु तिरणं ॥१०॥ कुमतिहि कुमारगि सयनु नउधा, गय मे गजंतउ पार जुडपा। खिए मत्त परकय सिंत्र परे, तिसु हाफसु रणव पयट्ट. धरे ।।१०।। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतोष जयतिलकु परजीय कुसील जु कटु करें, रण मक्कि भितु न सं वमवत्त्, समीर धाइ लगं, कुरविंद जि दुबहु सजिडु गय देण सनो, परमा सुख पाय पूरि घटं राजा संतोष कर भाक्रमरण बहु जुज्भिय सूर पचारि घणे, उ६ दीसहि लुटत मज्रिणे । किय दिनु रसातलि वीरवरा किय तज्जि गए अलु मुषिक धरा ॥ १०५ ॥ - धरं । बागय पाटि दिगं ||१०३।। आइ निसंक भलो | साइजु दिउ वह झाडि पिछोडि कियादव ।। १०४ ॥ ८३ मन दंसण कंद रहुतु जहा इकि भज्जि पट्टिय जाइ तहा । यहु पंतु संतोष राइ चडया, दलु दिउ लोभिहि तु पश्या ।। १०६ ।। रड लोभि दिउ पछि दलु जाम, तब धुणियउ सी कर सुज्झिर नगर ! जणु घेरिउ लहरि विषु, कच कचाइ उठि धाइ लग्गड ।। करइ सु अकरण प्राकत, किंविन बुझद पह जैस चरण प्रति उछल, तकि भड भंनद भट्ट ॥ १०७ ॥ गाथा रोसा इणु र हरियं धरियं मन मभि रुद तिनि ध्यानो । मुक्कव चित्ति न मानो, प्रज्ञानो लोभु गज्जेइ || १०८ || रंगिनका छंडु लोभु उठिच अपणु गज्जि, मंडि3 वलुनि लाजि । चडि दुस साजि रोसिहि भरे, सिरि णिड कपटु छ । विषय खडगु कितु, दमु फरियलितु | संमुह धरे गुण दसमंद ठार लगु ॥ जाइ रोक्यों सूर मगु । देह बहुउ पसग्गु जगत अरे । से चडि लोभ विकटु, धूत धूरत नटु | संतवर प्रारणह षटु पौरिपु करि ।। १०६ ।। खिए उठ भणिय जुडि, विणिहि चालइ मुडि । खिर गयजेब गुडि लागद्द उठे, खिणु रहइ गगनु छार || Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द४ कविवर बूचराज खिरिणह पयालि आइ, खिरिण मचलोड प्राइ । पउह हठे वा चरत न जाणं कोइ व्यापइ सकल लोइ। भनेक रूपिहि होइ. जाइ संचरं ।। पैसे पडिउ लोभ विकटु धूतइ पुरत नटु । संतवइ प्राणह षटु पौरिषु कर ।।११।। जिनि समि जिय लिवलाइ घाले ततबुधि छाइ । राखे ए वह काइ, देखत नडे । यह दीसइ ज परवथु, देसु सैनु राजु गथु । जाण्या करि पाप तमु लालषि पडे ।। जांफी लहरि अनंत परि, धोरह सागर सरि । सकह कवण तरि। हियउध, असे चडिउ, लोभ बिकटु, धूतउ धूरत नटु । संतवा प्राणह षटु पौरिषु करि ॥१११ जैसी करिणय पावक होइ, तिसहि न जाएइ कोइ । पडि सिण संगि होइ, फि कि न करें। तिसु तणिय विविहिरंग, कोण जाणे केते ढंग । आगम लंग बिलंग खिणि हि फिरें । बहु अनतप सार जाल, कर इक लोल पलाल । मूल पेड पत्त हाल, देइ उबर । से चहिउ लोभ विकटु, धूतइ धूरत नटु । संतवैइ प्राणह षटु पोरिषु करि ॥११२।। षट्पदु लोभ विकटु करि कपटु अमिटु, रोसाइण चलियउ । लपटि दवटि नटि कुघटि झपाट झटि इव जगु नडियउ ।। धरणि खंडि ब्रह्म डि गगति पयालिहि धावइ । मीन कुरंग पतंग भिंग, मातंग सतावइ । जो इंद मुरिगद फणिद सुरचंद सूर संमुह प्रडइ । उह लडइ मुडइ खिणु गडबडाइ, ख्रिण सुट्टि समुह जुडइ ।। ११३।। मडिल्ल जव सुलोभि इत्तर बलु कीयउ, अधिक कष्टु तिन्ह जीयह दीपउ । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतोषजयतिलकु सब जिणउ नमतु लै चिति गज्जिउ, राउ संतोषु इनह परि सज्जिर ।।११४॥ रंगिका संद इव साजिउ संतोष राउ, हुबल धम्म सहाउ, उठिउ मनिहि भाउ आनंदु भयं । गुण उत्तिम मिलिउ माग्गु, हूबउ जोग पहारण, भाय सुकले झाणु, तिमए गयं ॥ जोति दिप केवल कल, मिटिय पटल मल, हृदय कवल बल थियित दे । यमे गोदम विमलमति, जिण बच धारि चिति, छंदिय लोभह थिति चडित पदे ॥११॥ तनिक पचु संजमु धारि, सतु दह परकारि, तेरह विधि सहारि, चारितु लियं । तपु द्वादस भेदह जाणि, प्रापण अंगिहि मारिण, बैठउ गुणह आणि, उदोसु कियं ॥ तम कुमतु गइउ दुसि, धोलिउ जगतु जसि, जैसेउ पुनिउ ससि, निसि सरदे । पैसे गोहम विमल मति, जिणबच धारि चिति, छेदिय लोभह थिति, पविउ पदे ॥११६।। जिन वंचिय सकल दुटु, परम पापनिघट्ट, करत जीयह कंठ, रयणि दिणो । जगि हो तिय जिन्हहि माण, देतिय नमुति जारण, नरय तणिय ठाण, भोगत घणे ।। उद पावत नरीहि जेइ, खडगु समुह लेइ, सुपनिन दीसे तेइ प्रवर के दे। असे गोइम विमल मति, जिणवच धारि चिति, छेदिय लोभहि थिति, चडित पदे ।।११७।। लोभ पर विजय देव दही वाजिय घरण, सुर मुनि गहगरण, मिलिय अविकजण, हुँबर लियं । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ कविवर बूचराज अंग ग्यारह चौदह पुन्छ, विषारे प्रगट सम्व, मिथ्याती सुणत गब्क, मनि गलियं । जिसु वारिणय सकल फ्यि, पितिहि हरपु किय, संतोषे उतिम जिय, वरमु बढे । असे गोइम बिमल मति, जिणवच पारि चिति । छेगिय लोगह मिति, सहि : :: षट्पदु चबिउ सुपदि गोहमु लवधि तप वलि मति गजित । खपत हुबहु सासरिण हि सयनु प्राममु मतु सज्जिउ ।। हिंसारहि हय वरतु सुभटु पारितु वलि जुद्दिउ । हाकि विमल मति वाणि कुमत दल बरलि दहिउ ।। बंधित प्रचंड दुद्धरु सुमनु जिनि जगु सगल उ धुत्तिया । जय तिल मिलिउ संतोष कहु, लोभतु सह् इव जित्तियउ ।। ११९ गाथा जव जित्त दुसह लोह, कीयउ तब रित्त मझि पानंदे । हव निकंट रज्जो गह गायिउ राउ संतोषु ।।१२।। संतोषुह जय सिलउ जपिउ, हिसार नयर मंझ मे। जे सुरपहि भविय इक्क नि, ते पावहि कछिय सुक्ख ।।१२१॥ संवति पनरह इक्याण, मवि सिय पक्खि पंचमी दिवसे । सुक्कवारि स्याति पुणे, जेड तह जारिग वंभ पामेण ।।१२२॥ पढहि जे के सुद्ध भाएहि, जे सिक्खहि सुद्ध लिखाव, सुद्ध ध्यानि जे मुहि मनु धरि । ते उतिम नारि नर प्रमर मुक्त भोगवहि बङ्गपरि ।। यह संतोषह अयतिल उ जंपिउ बल्हि सभाइ । मंगलु चौविह संघ कह, करइ वीर जिणराइ ।।१२।। इति संतोष जयतिलकु समाप्ता ।।ध।। 000 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमीस्वर का बारहमासा राग वउहंसु सामन भास ए रुति सावणे सावरिण नेमि जिण गवसो न कोज वे | सुणि सारेगा भाष दुसह तनु खिणु खिरणु छोन वे । छीजति वाढ़ी विरह व्यापित घुरइ घए मइ मंतिया । सालर सरि रड रडहि निसि भरि रयरिण विज्जु खिवंतिया । सुर गोपि यह सुह वसुल मंडित मोर कुहकहि बरिण परिण। बिनति राजुल सुणहु नेमि जिण गवळ नां करु सावणे ।।१।। भाद्रपद मास ए भरि भाइवरं भादवि मारग जल हरे छाए वे । कोर परभूए परमुइं पंथी हरि न जु लाये वे । नहु जु लाइ को पर भूमि पंधी किसू सनेहा जंप वे । सरपंच तनि मनमथ दीद्रिय कर लजि निसि कंपयो । बंग चडिय तर पिरि देख पावस मनि प्रनन्दु उपाइया । घरि भाउ नेमि जिरण चडिउ भाद्दउ मग्ग जलहर छाइया ।।२।। मासोज मास ससि सोहाए सोहै ससिहरु प्रासूचा मासे वे । जल निरमल निरमन जल सरि काल वेगासे । विगसंति सरि सरि कवल कोमल भवर रुणु झुणकार है। मयमंतु मनमथु तनि विमापइ किवसु चित्त सहार हे । देखन्ति सेज अकेलि कामिणि मखह नहु होले इसे । घरि प्राइ नेमि जिणंद स्वामी प्रासूर्य सोह ससि ।।३।। कात्तिक भात इनु कातेगे कातिय मागमु को साथ पाले थे । परि मंडपे मंसपि राजुल मग्गो मेहोल वे। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज मग्गो निहाले देवि राजुल नवरण दह दिसि धायए । ' सर रसहि सारस रमरिण भिन्नि दुसहु विरहु जगवए । कि बरहज तुब विरण प्रेम लुद्धिय तरुणि जोवरिंग वालए । वाहुडहु नेमि जिरण चन्त्रिक कातिगु कियउ प्रागम पाए ।।४।। मार्गशीर्ष मास .. ए इतु मंधेरे मंधिरियहु जीउ तरसए मेरा वे । तुझ कारणे कारणि महु तनु तर ए घणेरा वे । सन तपइ तिन्ह गरि जनह कारणि जीउ जिग गुणि सीणयो। जिसु पास अधिक उसास मेलड रहइ चितु उडीगयो । संभलहि समितिय के पियारे देखियह उनिगम रितो। तरसंति यहु मनु नेमि तुब विणू मंगि मंगिहरि रितो ॥५॥ पोस मास ए इतु पोहे हे पोहे मोउ सतावाए चाली वै । नब पल्लव पल्लक नवषरण सो परजाली । परजालि नववरण रच्यो सकोइय,पडइ हिमु भाति दारणो। वर खरिण ते मनि किंवमु धीरउ जिन्ह न रोज सहारणो। प्रथ दीह रमणि सतुछ वासुर किपर घिर दवितरणे। नेमिनाथ आउ सभालि को गुण सी३ पोहेहि प्रतिषणो ॥६॥ माघ मास ए इतु माघे हि माघिहि नेमि दया करे पाऊ ये । तनि मंगल मैमल जेंउ पुरै पस राक वे । अगरउ मइगल जेन गज्जइ कुलह अंक सिरक्खको । अगाह इसही विरह यण तोहि विरणु किसु प्रक्खयो । क्या तवरि प्रवगुरणु त विसारौं लिखिम भूज पक्षावहो । कर दया नेमि जिणंद स्वामी माघि इन परि मावहो ॥७॥ फाल्गुण मास " ए यहु फागुणो फागुण निरगुणु माहो पियारे में । जिनि तरवरे तरपर झारिए कीए खइ खारेवे । खइ खारढोलर किए तरवर पवणु मयिलि झोलइ। उरि लाइ कर निसि गणउ तारे निद नहु प्रावह स्त्रियो। रि आउ नेमि जिरणंद स्वामी चडिउ फागुण निरगुणो ।। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमीस्वर का बारहमासा बैत्र मास एश्तु चैतेहे चैतिहि नय मोरी घणराए वे । नव कलियहो कलियहि भवर मणक्कियडे पाए थे। पइ भवर नव कलियहि भरसक्के नबह पल्लव न सरे । नव चूष मंजरि पिकय लुद्धिय करहि धुनि पंचम सरे । झल्लियउ मलय सुगंध परमलु दक्खिरिणहि पिय सरिय । दरसाइ दरसणु नेमि स्वामी चत्ति नब नर मौलिया | पशाख मास-- ए यहु आइयडा अब दुसहु सखी वइसाम्लो वे । अइवह सेवा इसिजाइ सनेहा माखोरे । भाखो सनेह। जाई वाइस धन्नु नीरु न भावए । दुइ नमरण पावस करहि निसिदिनु चितु भरि भरि भाव ए। फुट्टउ न जे बल्लम वियोनिहि ह्यिा दुनि बजहि घड्या। पइसाखु तुव विणु सुणहु सखिए दुसछु अति धारणु षड्या ।।१०।। जेठ मास एइत जयेहे बेठिहि लव प्रनल झख वाबवे । दिनि दिनकरो दिन कार' दिवसि रयणि सतावे । ससि तव निसि परजल दिन रवि नोह सरि सकियषण । तड़यडह घर तडफडइ जसचर मिलिय अहि बंदण वरण। चच्चउ सिहं दुफ पूरहि मजलु अमु अधिक दहावए । बिललंति राजुलि फिरहु नेपि जिप लूब जेठिहि बाबए ।।११।। प्राषाढ मास एएत पाहे पाढिहि नेमि न आईयवा पाय थे । मनु लागाडा लागा मनुवइ रोग हमारा वे । ममु लाइ इव वइरागि रजमति लियज संबमु तखिये । अष्टौ भवतर नेहु निरजरि सहइ नव तेरह तणे । तिसु तरुणि काला गाउ माहा सिद्धि जिनिवर माइया । पाषान चडिया भए बूचा नेमि पजउ न आईया ॥१२॥ ___11 इति कारहमासा समाप्ता 11 000 १. गुटका-वि० जन मन्दिर नायबी बी । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतन पुद्गल धमाल प्रस्तुत धमाल की पाण्डुलिपि दि जैन मन्दिर नागदी, वदी के उसी गुट के में है जिसमें बूचराज के अन्य पाठों का संग्रह है। यह धमाल पत्र संख्या २२ से ४४ तक है । इसके लिपिकर्ता पांडे देववासु हैं। लिपि सुन्दर एवं शुद्ध है। धमाल की पाण्डुलिपियां कामां एवं अजमेर के भट्टारकीय भण्डार में भी है लेकिन वे उपलब्ध नहीं हो सकी इसलिए बूदी वाली प्रति के आधार पर ही महां पाठ दिया जा रागु वीपा मंगलाचरण जिनि दीपगु घटि न्यानु करि, रज दीट्टी दश चारि । कवि 'मन्ह पति' सुस्वामि के, रणबउ चलण सिरु धारि ॥१॥ दीपगु इकु सरवनि जगि, जिनि दीपा संसारि । जासु उदह सा भागिया, मिथ्या तिमय अध्यारु ।।२।। 'जिण सासण महि दीवडा, वह पया नवकार । मासु पसाए तुम्हि तिरहसागर यहु संसारु ॥३।। भविया 'अरहंतु दीवडा, के दीपगु सिन्तु । के दीपगु निरग्रंथ' गुरु, जिस गुणि लहिउ न अंतु ||४|| जैन धम्मु जिनि उद्धरघा, जुगला धम्मु निवारि । सो रिसहेता पदिय इ, तारं भव संसारि ॥५॥ धेयन गुणवंत जडस्यो, संगु न कीजे । जड़ गलइरु पूरइ, तिव तिव वूख सहीज ॥६॥ . जा संगु दुहेला, विस भमिया संसारी । जिनि ममता छोटी, लिन पाया भवपार ॥७॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतन पुदगल घमाल जिस ससरायह तणा, मलिया मयण होउ । 'अजिसनाथ' पय पणमिमहि पावद कम छेउ | घेथन सुणु निरगुरण जड, सिद्ध संगति की जइ । इस अह परसादिहि, मोखह सुखु बिलसीजै ।।६।। जड़ सहइ परीसह काट करमह भागे । जिसु जड न सरवाई, तिसु उरकार न पारो ।।१०॥ तनु साध्या मोखिहि गया, कीया करमह अत । संभव स्वामी दय, जि जसजससु । चेयण गुणवंता जड़ायो संगु न कीजं ॥११॥ भौगति तरि सिउपरि गया, सरि सायस प्रथाह । सोहउ ध्याक हियर धरि, 'प्रभिनन्दनु' जिणणाहु ।। यण सुणु निरगुरण जड सिउ संगति कीजइ ।।१२।। बहुस घुणह पवाणु सनु, मेघरायह परि बंदु । नामु लित पातिग ह्यडहि, वंदहु सुमति जिणंद ।। चैयण गुणः ॥१३॥ चारित चरि मोनिहि गया, माया मोह निवारि । 'पदमपह' जिण पद कचल, नवउ सदा सिझधारि ॥ पण सुरगु० ॥१४।। जिसु मुस्खू दोटे भवणा, गुट करमह फासु । सो बंदहु तारण तरण, स्वामी देउ 'सुपासु' || चेयण गुण ॥१५॥ जिसु लमंणि ससिहरु, 'अहइ राप' महसेगह तनु । चंदप्पड जिणु पाठमा, संघ सयल सुपसन्नु ।। चेपणा सुण ॥१६॥ चौदह रजु सह लोउ, जिन दीठा घटि अबलोइ । "पुहपि जिसरु" पमियइ, पुनरपि जनमु न हो ॥ चेयण गुण ।'१७|| राइ दिनह तनु कुलि कबलु, मुकति रिउरि हारु । "सियल जिागेसरु" ध्याईये, बंछित सुख दातारु ।। चेयण सुग्गु० ॥१८॥ अस्सी घुणह पवारण तनु, कंचरण चन्नु सरीरु । हउ पणउ "श्रीयांस जिणु", स्वामी गुणिहि गही ।। चेयण गुण ॥१६॥ "बसुसेगाह" परि अवतारया, छेद्या जिन भव कंदु । "वासुपुर" जिणु वंदिया, जिसु बंदइ सुर इंदु ।। चेयण सुगु० ।।२०।। साहिए परीसह मोंखिहि गया, मगरण महाभड मोडि । "विमल जिणेंसर" विमलमति', हउ पणज कर मोडि ।। चेयण गुणः ।।२१॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज माठ कम्म जिनि निरजरे, चितवइ रागि घरेइ । मन करण "श्री अनंत जिरगु", भवियह वंचित देह ।। चेयण सुरगु० ।।२२।। संवरु करि जो गुण पडया, मलिया मयण ह मानु | "धम्मनाथ" धम्मह मिला, हो पणवउ धरि ध्यानु ।। चेयरण गुण ॥२३।। गळि हथिनापुरि भक्तरबा. दिपई अंगु कणकति । सो संघह मंगलु करइ, “संति करण जिणु" संति ।। यण सुरण ।।२४।। जासु धनुष पर तीस तनु, कुखि श्रीमति अवतार । सो तुम्हापहि खिउ करइ, सबरहु "कुथु" कुवारो ।। चेपण गुण ॥२५।। जो राटा सिव ररिणमिर, सतह कम्म निलेड । प्रारति मंजगा "अरह जिरगु", अजिय सु पदु हम देइ ।। चेयण सुरण ॥२६॥ कुभ नरिवह राइ तनु, मियलापुरि अवतारु । "मल्लि जिरणसरु" पविपइ, आवागवणु निवारो ॥ धेयए गुण ||२७|| राजगिरिहि मढि अवतरया, सोहइ कज्जल वन्नु । "मुरिण सुग्वज जिणु" श्रीसमा, संघ सयल सुपसनो ।। चेयण सुण ॥२८।। जिमका नाउ जपंति यह, छीजई कम्म कलेसु । विजयराइ घरि मवतरघा, सब रह "नमि सु जिरणेसो" । चेयण गुण ॥२६॥ चल्या सु नव भव नेह, तजि पसु वचन मु विचारि। वंद स्वामी "नेमि जिणु", जो सीझइ गिरनारि ।। चेयण सुणु: ।।३०॥ प्राव भोगि जिन सउ वरिस, कीया मुकति सिउ साथु । सकल मूरति हज बंदिसिउ, स्वामी "पारसनाथ" ॥ चेयण गुण ।।३१॥ करि करुणा सुरण वीनती, तिमुवरण तारण देव । "बोर जिरणेसर" देहि मुझ, जनमि जनमि पद सेव ।। त्रेयण सुग्गु० ॥३२।। परहंत सिद्धह चार अह. पर अवाह्या पणमेहि 1 सव्वं साह जे नमहि, ते संसार तरेहि ।। चेयरण गुण ।।३३॥ पंच प्रमिष्ठी 'वरूह कपि' ए पणमो धरि भाउ । घेतन पुद्गल दहूक, सावु शिवा सुणावो । चेयण सुरगु० ।।३४॥ यह जड खिणिहिं विघसिरणी, ता सिर संगु निघारु । चेतन सेती पिरति करु, जिउ पावहि भव पारो ।। चेयण गुण ।।३।। बार बारु तुम्ह सिउ कहउ, किता क्रु पूछहि का। जिमु जर ते तू गुणि चल्या, तासि पिरतिम तोडि ।। चेयण सुणु ॥३६॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतन पुद्गल धमाल बहुत्ती जूनिह हाइ करि, ले नरकह महि देइ । यसी जड यह मीत सूणि, मूड विलास करेइ ॥ चेयण गुण ॥३७॥ सहीह परीसह पीसदुद, काट करमह भारु । तिसु सिउ मूढ नविरमीय, तार भव संसार । पेयश सुरा ॥३॥ जिनि कारि जाणी प्रापणी, निश्चै वूडा सोइ । सीरु पड्या विसहरि भुखे ताते क्या फलु होइ ।। चेयरण गुण ॥३६।। चेतनु नेतनि चालइ, फहउत माने रोसु । आपे वोलत सो फिर, जाहि लगावा दोसु । चेयरण सुगु० ॥४॥ जेम्पतीना हेतु करि, सिडूवा गहि रे घाट । कांजी पहिमा दूध महि. हूचा सु, बारह वाट | चेयण गुण ॥४१॥ अह रस भोयण विविहि परि, जो जानित सीवेइ ।। इंदी होवहि परबडी, तउ पर धम्मु चलेइ ॥ चेयरस सुण ॥४२॥ सुगह पियारे बीनती, देखहु चिति अवलोइ। चीजु जु कलिरि वीजीये, ताते क्या फलु होइ ।। चेयण गुणः ।।४।। चोवीस परिपहु पर तज, पंह जोग घरेइ । जड परसादिहि गुणि चई, सिव पुरि सुख भूधए । चेयण सुणु० ॥४४।। इसु जर तणा विसासु करि, जो मन भया निसंकु। काले- पासि पट्ठियह, निश्च चडइ कलंकु ॥ चेयण गुण ॥४५।। खाजे पीजे विलसियाद, फरइत दीजे दान । यहु लाहा संसार का, भावं जाणु न जाणो ।। घेयण सुणु० ॥४६।। मूरखु मूलु न चेतई, लाहै रह्या लुभाई । प्रषा वाट जेवी, पाछ वाछा खाइ ।। चेयण गुण ।।४।। पछवना पाले सदा, उत्तिम पहु परवाणु । प्रकरि जा विमु संग्रही, तो वन वद जाणु ।। चेयण सुणु ॥४८॥ इस भरोसे जे रहे, चेते नाही जागि । डूचे तारू वापुडे, भेजह पूछडि लागि ॥ धेयण गुण ॥४६।। १. दूष । २. कोयला। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪ कविवर वृचराज पंचे इंदी दंडि करि थापा प्राप्पु जोइ । जिन पावहि तिरवाण पहुजन हो । सु०॥५०॥ क्या जेहंदी बसि कोई, क्या साध्या अप्पार । इकु परमथुन जारिया, किउ पार्क निश्वासु || वेयण गुण० ॥ ५१ ॥ विणू करमह काटे छापणे जो नर को सीध | ताकि सेण नरक महि, अज दुख भूषेए || बेयरण सुरगु० ॥५२॥ क्या जे सेाकु नरक महि, बहु बहु दुख भूचंतु । भव्व जीयहम हि सो गया, निश्र्च एव सीमंतो || चेयण गुण ० ।। ५३ ।। काया राखहु जतनु करि, चड्डू जेंव गुण ठारिण । विशु मन जमिह भविमणहु, गया न को निरवाणि ।। चयण सुगु० ॥ ५४ ॥ हरतु परंतु दोनच गया, नाउर वास न पा । जिनकरि जाणी श्रापणी से हूबे काली घार || चेयण गुण ० ।। ५५| जिउ वैसंदरु कटु महि, तिल महि तेलु भिजें । आदि अनादि हि जाणियं चेतन पुद्गल एव || चेयण सु० ।। ५६ ।। लेहि संदरु कट्ट तजि, लेहि तेल वलि राडि । चेत हि चेतनु मेलिये, पुदगलु परहर बालि || चयण गुण० ॥५७॥ वालत्तण की वालही, गुणहि न पूर्ज कोई | परम पदु होइ || फेयरण सुरगु० ॥५८६ कतिहि जाढ़ | सा काया किव निदिये, जिस काया कर जलु मंजुली, जतनु उत्तिमु विरता नित रहै मूरिखु इमु पतियाए || चेयरण गुर० ॥५६ मनका सत्रु को करइ, चितु कसि करइ न कोइ । सिखरहु जब खडे, तबरु विगुचरिंग होइ || चेयरा सुरगु० || ६० सिखर मूलि न खब हुई, जिण सासरण श्राधारु । सूलि ऊपरि सोझिया, चोरि जया नवकारु || चेय गुण ० ।। ६१ ।। उइ साधण परिणाम उद, कालभि उद यावोर । इव साध फिराह सहि डोलते, सदि सी थे चोर || चेयण सुरसु० ||६२ || साधुन डोल भूमि हरि, जिसु महि ज्ञानु रतन्तु । तेरह विधि चारितु घरं पुद्गल जागा प्रन्नु || ये गुण ० ॥ ६३॥ पुद्गलु अन्तु न जागियहु, देखहु मनि विपाइ । किरिया संजता च, जा पुद्गल होइ सखाए || पण सुरगु० || ६४ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतन पुद्गल धमाल जिरा पूजा सम्मत गुरु, साहामी सिउनेछु । इन्ह सेठांतिहि सीजीये, नाही मचिरजु एहु || पण गु० ।। ६५ ।। जिसु संगि हलंतह जम्मु गया, एको सुखु नहु लाघु । लोभी जीउ पतंग जिउ, फिर फिर मूरख दाधो || बेयरण सुपु० ॥६६॥ डाइणि मंतु प्रफीम रसु, सिंखिन छोडर जाइ | को को कवणुन मोहिया, काया ढवली लाइ || जेवण गुण० ।। ६७ ।। जो जो ढवली लाइया, सोडविया गवाए । वधु पिटारे पालियां, लिनिक्या कीया उपगारो || वेयण सुर० ||६६।। जोखिकाया व करहि द्वंदी रहणु न जाइ । तजि तपु संसारिहि रूलहि, पार्टी लोक हँसाए || चेयण गुण० || ६ || से तप तिहि कतु किव सलाह, जिन्ह जोध्या संसार । सस, मित, सम करि जाणिया, साध्या संजम भारो ।। चेयण सुम्पु० ॥७०॥ पहिला श्राप देख कसि, लेहि संजमु भाष । जे ता देखहि श्रोडरमा तेता पाव पसारो ॥ चेयण गुरण० ॥ ७१ ॥ मला कतिहि मीत सुणि, जे हुइ वृरंहा जाणि । तो भी भला न छोडिये, उत्तमु यह परवाणु || नेयण सुरसु ॥७२॥ भला भला सहु को कहै, मरमु न जाएं कोई | काया खोई मीतरे, भला न किसही होए || चेमण गुण ० ॥७३॥ धरिया चम्मिहि छाइ हाडद केरा पंजरी, बहु नरकहि सो पूरिया, मूरिख रहिउ लुभाए || चेयस सुसु ॥७४॥ C जिम तर आपण खूप सहि, अवरह छांह कराइ | ति इसु काया संगते, जीयडा मोखिहि जाए || चेवण गुण० ३३७ काया नीचु कुसंगडा, सदर सरि जोइ । साता पकड़े अलिमरे, सोलह काला होइ || चेयरा सुगु० || ७६ जिसु विष्णु खिषु इकु ना सरें, भाव लिये जिसु लागि । जे घर पुर पट्टण दहै, काइ सराइहि चेनहि, पुद्गलु घालहि गडि । खेतु विसो अविरमा सरु, ता घरि कीजइ आगि || चेयण गुरण |তৱ।। जिसुकी सगती वाडी || चेपण सुरसु०॥७८॥ वेस्वाने कसु भरगु, पर जल उपरि कार । इसासु पुद्गल मीत सुरिए, विहहत होइ न वार || चेया गुरुगु० ॥७६ ** Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ कविवर बुचराज जिउ ससि मंडणू रथरिका दिनका मंडणू भाणु । तिम चेतन का मंडणा, यहु पुदगलु तूं जणि ॥ चेया सुसु ॥८०॥ जीउ पडइ जंना त्रि । कुटी जे घडियाल ।। चेयण गुरु ० ॥८१॥ पुदगलु बालइ राडि । जिसकी समती का डि || चेयण सुगु० ॥ ८२ ॥ काय कलेवर वीस सुहु, जतनु जिव जिव पाचै तु बडी, तिव तिथ प्रति कडदाइ || चेयण गुण ० ॥८३॥ कतिहि जाइ । जो परमलु हुई कुसम महि, सो किव कीर्ज अंगि पुदगल जीउ सलगनु तिव, इब भारथा" फूलु भर परमलु जीवइ, तिसु जाणं सह कोई हंसु चलई काया रहs, faवरु बरावर होइ || चेयण गुण | ६५| कहा सकति सिवाहरी सकति विनसिद्ध काई । पुद्गलु जीउ सलग तिक, वासु दुइ इकठाए || चेपण सुरगु० ॥६६॥ इसु काया के संगते, यहु हडे कचोला नीर कछु जल कहु निदइ जोडा, खेतु भिसोपविणा सरु, 1 काया संगिहि जीयडा, राख्या करमिहि बंधि । पडघा कपुर जुल्ह सामहि, गयवर वत्तणु गंधि ।। यण गुरु ||७|| कुंजर कुयू मादि दे, संगति तं न वंधिए, ............ ।। चेयण सुर० ॥ ६४ ॥ १ इस काया के संगते, जाण्या उत्तिम धम्भु । शुरख सा किव निदियं, किया सफलु जिनि जम्मु || देवण सुरु || अंसे मुद्गल सोम । जहा सुखी होइ जीय || वेषण गुण || काया तारद जी कहु, सतु संजमु व्रत धार । जिउ वेडी सगि उत्तरे, उमर लोहा पारि || चेवण सुरगु० | १६| १. ज वेणी पोहण तणी, इसा जारिए जिय चेतु । कोन तिरंता दीठु मह, करि काया सु हेतु || चेयण गुण ० ।।६१३ काया की निंदा करद्दि, प्रापुन देखहि जोइ । मि जिउ भोज कांबली, तिच तिउ भारी होइ ॥ चेवण सुरगु० ॥६२॥ इस भरोसे जे रहे, चेसे नाही जागि । झूठें तारु बाड़े, भेढह पूछड लागि ।। चेया गुण० ॥६३॥ यह पद्म पहिले ४६ संख्या पर भी मा गया है । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतन पुद्गल धमाल तेतीस सागर वरष सुर, जिसु पसाइ सुख दीठ । तिसु जड़ सिज इव राषिया, जिउ कापडा भजीट ।। चेयण सुण |१९४५ तेतीस सागर दुख नरक महि, ते भी वित्ति पितारि । इसु काया के एह गुण, रे जीम देखु सुहियह विचारि ॥ चेयण गुण ॥६IR तेतीस कोडा कोडि क्रम, पोत मोह निहाण। ते सहि काट तपु सहै, काया यहु परवाणु । यख सुणुः ॥६६॥ काया कहु मुकलाह करि, रह्मा निचिता सोइ । ते तपु डूबे लेइ करि, प्रजहू फिरहि निगोए । बेयण गुण ||७| जिय विण पुद्गल ना रहै, करिया प्रादि अनादि । छह खंड भोगे चक्कर्व, काया के परसादि ॥ चेयण सुण ॥६॥ देव नरय तियंजच महि, अरु माणस गति चारि । जिसुका घाल्या सूफिर्या, तिस सिउ हौस निवारि ॥ चेयरण गुण ।।६६ तुझ कारण वहु दुख सहै, इनि काया गुणवंति । चेतन ए उपगार तुझ, छोडि चला इसु ग्रंति ॥ चेयण सुणु० ॥१००।। कासु पुकारउ किसु कहर, हीप भीतर हाह ।। ने गुण होहि गोरी, तउव न छार्ड ताहु ।। चेयरग मुरण ।।१०।। मानु महतु लोगी कुजसु, अरु वडि माकलि माहि । पंच रतन अिसु संगते, चेतन तू रुल हाहि ॥ चेयण सुणु० ॥१०२।। भला कहा जगु मुसे सै, भगलु करे नट जेउ । जड के संगिहि दिठु मैं, घणा बुद्धता एव ॥ चेयण गुण ॥१०३।। माणिकु भीता अति पडा, जा कंचणु तुम्ह पाहि । ता लगु सोमा चेतनहि, जा लगु पुदगल माहि ।। चेयण सुगा० ॥१०४॥ यहुनि कलमलु जीवडा, मुकति सरूपी प्राथि ।। मापा मापु विचिया, इसु काया के साथि ।। चेयष गुणः ।।१०।। मोती उपना सीप महि, विदिमा पाच लोइ । तिउ जिउ काया संगते, सिउपरि वासा होइ ।। चेयण सुरण ।।१०६।। अव लगु मोती सीए महि, तव लगु समु गुण जाई। अव लगु जीयडा संगि अड, तब लगु दुख सहाय ।। चेयण गुण ॥१०॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ कविवर बूचराज रे चेतन तू ताबला. जा जड तुम्ह संगि ब्रोड् ! जे मद् भाजनि गूजरी, खीर कहै सवु कोए ।। चेयण सुशुः ॥१०८।। चेतन हुँ नित ज्ञान मह. यहु नित अशुचि सरीर । घालि गवाया कुंभ महि, गंगा केरा नीरु ।। चेषण गुणः ॥१०॥ उतु अमि न्यानु प्रराधिया, कीया वरतु प्रभंगु । तिसु पुनिहि ले पाईवा, इसु काया सिउ संगु ।। चेयरम सुणु० ११०।। सा जड़ मूढ न सोचिय, जिमु फलु फूलु न पानु । सो सोना क्या फूफिय, जोरु कटावै कानु ।। पेयण गुणा ।।१११॥ जोवन्नु लछि सरीरु सुख, अरु कुलवंती नारि । सुरगु इच्छाई पाईया, जिन्ह के एसो चारो ॥ चेयण सुगु० ॥११२।। तू सात धातु नींदहि सदा, चितमहि करहि बिसेषु । तिन्ह साथि हिग नित मरी, रे जिय संभलि देखु ।। चेयण गुण ॥११३।। आहार मैथुना नींद जड, ए चारि जीय साथि। तेसहि सलाका आदि दे, इन्ह विपु कोइ न आथि ।। चेयण सुरण ॥११४।। ए चारिउ संगिताम लगु, जा जीउ करमह माहि । छोडि करम जीउ मोखि गया, इनहु नेग जाहि ।। शेयण गुण ॥११५। कालु पंच मारुद, यहु, चित्त न किसही ठाइ । इंदी सुतु न मोखु हुइ, दोनउ खोहि काए । चेपण सुगा ।।११६।। कालु पंचमा क्या कर, जिन्ह समकतु आधार । जदि कदि बोह पुन्यात्मा, निश्च पाहि पार ।। चेयण गुण ॥११७।। राजु करता जे मुवा, ते भी राजु कराहि । भीख भमंता जे मुवा, ते भीखडीय भमाहि ॥ चेयण मुणु० ।।११।। तपु करि पावइ राज "दु, राजहु नरकुभि होइ । जिनि सुइ प्रसुह निवारिया, सो वंद्या तिहु लोए ॥ चेयरण गुण ॥११६।। काइ पिछोडहि थोथि कहु, जिकु कणु ए कुन होइ । जो रयणायर सटु महि, मसका चडइ न तोए || चेयरण सृणु० ॥१२०॥ कणुता इकु सरवनि जमि, अबरु सौ रुपरालु । जिसु रोवत चौगय तणा, तूट माया जालु ।। यण गुण ।।१२।। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतन पुद्गल धमाल है चेतन काइ तड़प्फडहि, कूष्ठा करहि पसारु । जितु फलि सकहि न पहूचि करि, तिसुकी हवस निवारो।। चेयण सुगु ।।१२२ । काया किसियन प्रापणी, देखह चिति अवलोह। कूकरि चंकी पूछडी, सा किम सीधी होइ ॥ चेयक गुण ॥१२३।। भोगहि भोग जि इंदपरि, भूपति सेवहि वारि । काया भीतरि प्राइकरि, सुख पाया संसारि ।। चेयण सुणु० ॥१२४॥ यह सुजु घिध पविणासस, दिनु दिनु छीजतु जाए। जो जल सिखरहु खहरें, सो किउ सिम्बरि पाए ।। चेया गुण. १५१२५।। यस संजमु मसिनर प्रणी, तिसु ऊपरि पगु देहि । रे जीय मूह न जाणड़ी, इव कह फिर सी झेइ ।। चेयगा सण ।।१२६५ भसिवर लार्ग तिन्हु कहु, जे विषया सुखि रत्त । साधि संजमु हुन पान में, ते सुर लोइ पहतो ॥ चेयण गुण ॥१२७।। इसु काया परसादते, चेतन सोभा होई। पंचह महि वाडिमा घट, भला कहै सवु कोइ ।। चेयण मुणु० ॥१२८|| भला कहा जगु मुस, भगलु कर नट जउ । जड़ के संगिहि दी8. मह, घणा बूडता एव ।। त्रेयण गुण • 1|१२६।। बहुता जूनि भमंति यह, लही मुनिष की रेह । तिस सिउ मैसी पिरति करु, जिउ सिल ऊपरि रेह ।। चेयण सुण० ।।१३०॥ सिलभि विसै रेहरािउ, देहमि खिरण महि जाइ । तिसु सिख निश्चल पिरति करु, जोले दुख छोडाइ ।। चैयण गुण ।।१३१॥ दुक्खहु मूलिन छूटइ, पडिया आरति झाणि । काया खोवा पापणी, किउ पहुचे निरवाणि ।। चेयष सुणु ॥१३२।। उद्दिमु साहसु धीरु वलु, बुद्धि पराकमु जाणि ।। ए छह जिनि मनि दिदु किया, ते पहुंचा निरवारिण ।।१३३॥ चेयन गुणवते जडसिउ संगु न कीजे । जड गलइरु पूरै, तिव तिव पूछ सही हैं। जह संगु दुहेला विरू भमिया संसारो ॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज जिनि ममता छोडी तिनि पाया भव पारो । पाया सुतिनि भव पास निश्चे संगु जड़ मक्काजिगरे । सेरह प्रकारि हि सुद्ध चारितु, घऱ्या दिडु अप्पर मुणे । बहु गति तणा सहि दुख माजहि, मुकति पंथ लमंतिया ।। तिसु साथि जड नड संगु कीजे, सुरणु चेतन गुण चंतिया ॥१३४।। चेतन सुण निरगुण जड सिउ संगति कोज । बसु जड परसादिहि मोखह सुखु क्लिसोज । जड सहइ परीसह काट करमह भारो । जिसु जड न सखाई तुिसु उरवारु न पारो ।। उरथारु पारु न होइ किछुह रिदुइय काइ गदावहे । इंदिया सुख्खु न मोस्त होवह फिरि समनि पछितावहो । सुरलोइ चकवति उच्च पदवी भोगतइ भोग्या घणा । तिसु साथि जड नित संगु की सुण चेतन निरगुरणा ॥१३॥ दुख नरकि जि दीठे ते इव हीयह संभाले । इसु जड़क संगते चेतन मापनु थाले । परतापि विष बेली सीच्यह क्या फलु होए । मधु विद कए सुख तिन्ह लगि आपुन खोए 11 ननु खोइ प्रापणु राखि दिटु करि नीर समकतु निश्चलो। अब लग मंदिरि कालु पावकु धम्मु का लाभे जलो ॥ धनु पुत्त मित्त, कलत्त काया, अंति नहु कोइ सखा । संभलहु इव चेतन पियारे, नरकि जे दीठे मुखा ॥१३६।। जह पुहपु तह मधु बह गोरसु तह घीउ । जह काठ भनि तह बह पुदगल तह जीउ ॥ मति मुगध सि भूली हंढहि घरु घर वारो । पाखंडी जगु इक है, सकहि न पाप उतारे ।। ते सकहि बापुन तारि मूरिख, सकति काया खोवहे । चारितु लेकरि विषय पोषहि पंक उरि मल धोवेहे ॥ सिव सकति सदा सलगनु जुगि जुमि मरमु नहु कि नहीं लषो। संभल इव चेतन पियारे पुहषु जह तह होइ मषो ॥१३७।। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतन पुद्गल धमाल जिय मुकति सरूपी तू निकल मलु राया । इस के संगते भमिया करमि ममाया घडि कवल जिवा गुरिए तजि कद्दम संसारो । मजि जिरण गुण ही तेरा यह विवहारो ॥ विवहार यह तुझ जागि जीयडे करहु इंदिय संवरो निरजरहु वंधण कर्म केरे जान तनि दुक्कावरो ॥ जे वचन श्री जिण वौरि भासे तरह नित घारह हीया । इस मणइ 'दूध' सदा निम्मलु मुकति सरूपी जीया ॥ १३८॥ ॥ इति चेतन पुद्गल धमाल समाप्त ॥ १०१ 000 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ५. कविवर बूचराज ¦ नेमिनाथ बसंतु प्रमृत, अमुल उमजरं निमि जिण गढ़ गिरनारे । म्हारे मनि मधुकर तुह व संजम कुसुम मझारे । सखीय वसंत सहावी दीस सोरठ देसो कोहल कुकं मधुर सरे । सावणह प्रवेसो विबलसिरी महमसे भवरा रुणुझुणकारे । गावद्दि गीत सुरासुर गंधप गढ गिरनारी । विजय पठहु जसु बाजइ श्रागम अविचल तालो 1 निमि जिण कीरति विलासिणि नवइ सुखन्द छंदवालो | श्रभय भंडार उघाड्य पड़इ संजम सिंगारो । अट्ठारह सहि प्रसोल सहिलडा सरिसउ नेमि कंवारो । त्यात कुसुम मह शत्रुद् चारित चंदन चंगे । मुक्रेति रमणि रंग रातउ निर्मि जिगु खेलइ फागो । सरस तंबोल समाणाइ रालइ रंग उगालो । समदविजय राह साडिलउ अपुर देस विसालो । नव रस रसियउ निमि जिगु नव रसु रहितु रसालो । सिद्धि विलासिणि भोल यो समदविजय रद्द बालो । नेमि छपल त्रिभुवण छलिउ मलियो मालणि मायो । राजन देखत दिन्तरमे संजम सिरिय सुजाणो । जणु जागे तब्य सोबच जागय सुते लोग । मोह किवाड प्रजलं प्रनमखु नयण संजोग I प्रहारो | लियारो । निरमल चौरो । होइ सरीरो सरस बड़े गुण माड़ बुरि चुरि कर जाण पराइ जगु झगडइ सिवदेको कुंड इन्द्र में हाइज पहिरिज नेमि गंधोदकु बंदिजं निर्मल चंदन कपूर कुकु चसि परविर्ज अमल कमल सालि पूजि जे भव भव भंजण वीरो । दवणव मरयड सेवती सद्दद्दल पाडल मालो । मतह मनोरथ पुरखइ प्रभु पूज जड् त्रिकालो । सावल धीरो । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथ बसंतु नव नेवज रस गोरस पुज्जि जे त्रिभुवण माही । जनम जीवन फलु लाभइ रे निति सन होइ उछाहो ।। भारत्यो प्रभु कीजइ विमल कपूर प्रजाले । प्रभर मुकति मगु दोसई मोह महातमु जाले । कुस्नागुरु घुप धूपिजइ जिन तनु सहजि सुधासो । अमर रमणि रंगि रमिजइ पाइजह शिवपुर वासो । नव नारिंग कबली फल पुज्जि ज त्रिभुवरण देवो । जनम जीवन फलु लाभइ होइ संसारह छेवो । काचीय कलीन विहसइ घोरा वाज । भूलउ भवरा रुम झुण चंचल छपल सहाउ । भमरु कमल रस रसियउ केतुकि कुसुम लुभाइ । वंधण वेदु मूरिख सहइ राह बंध न सुहाद । साजन छयल तिस लहि जाहि नित नवल वसंतु । सवम नवल परि विहसइ जाह नित रमणि हसन्तु । रामाइण रंगि रातउ भार परहि तु पमाणु । परमाहृषि पंथि भूलउ किउ पावहि गुण ठासो । अशली डाल डलामल पण खाधा फल खाये । बाम्हवि घरवण सूबडउ सखीपण बंधणा जाप । मूलसंघ मुखमंडण पदम नन्ति सुपसाह । बील्ह वसंतु जि गावइ से सुषि रलीय कराह ।। ।। इति नेमिनाय बसंतु समाप्तो ।। B Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज हंडारणा गीत रंशाणा दंगणा मेरे जीवडा, टंडाणा टंडाणाये । इहि संसारे दुख मंगरे, क्या गुण देखि लुभाणावे ।। जिनि उगि ठनिया प्रनादि कालहि, भी तिन्ह जोगु परयाणावे । पडचा कुमारगि मिथ्या सेवहि, मेटहि जिणि की प्राणावें ।। पाप करहि पर जीव सतारी, होसी मरका ठाणावे वाग। केती बारह रंकु कहाया, कित्ती बारह राणावे ॥ समइ समइ सुह प्रसुह जो बांध, लागो होइ सतारणावे । बच्च लेप वह खोली नाही, लवहि प्रवर प्रयाणावे ॥ ए वह भवि वि बहुति भीतरि, बांध्या करमह धाणावे । तेरह विधि से पालि न सकिया, चारितु परि कृपाणावे ।। केवल भाषित धरम अनुपमु, सो तुम चिति न सुहाणावे । ले संजम ते जीति न सक्या, सीखे मनमथ वाणावे ।। राग दोष दोइ पइरी तेरै, देहि न सियपुरि जाणावे | माठ महामद गज जिम गरजे, तिन मिलि क्रिया निताणाये ।। मात पिता सुत सजन सरीरी, यह सबु लोगि विडाणावे । चयरिण पंखि जिम तरवर वास, दस दिस दिवसि उमणावे ।। जम्मण मरण सहे दुख भनता, तो नहुवउ सयाणाये । केते पुरिस निपुसिक लिमिहि, के ते नाम पराणाये ।। नट जिम भेष कीये वहतेरे, तिन्हको कहद प्रवाणावे । प्रापरणु पर कारणि करि मारंभु, तू पीडहि षट प्राणावे ।। मोह मान माया लोभ संगहि, नितिहि रहै भरमाणावे । चेतनु राव निबल तइ कीयो, मनु मंत्री सिउ लागावे ।। विषग्रह स्वारथ पर जिय वचहि, करि करि बुधि विनाणाधे । छोडि समाधि महारस (मानुपम, मधुर बिंदु लपटाणावे ।। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टंडारणा गीत पाइ जरा जब गढ में पैसे जोवन करई पाणावे । मौसर गुण तूटहि जिक धाराष घण पीई पछिताणावे ॥ करि उद्दिमु भप्पणु वलु मडै, भोगहु प्रमर बिमाणावे । पाथव दि मही निज संवरु, कारहु करम पुराणावे ।। पाखिहि मासि नीरस भोया, ले करि सेब जाणावे । समकति प्रोहणि दस विधि पूरहुँ निम्मन धम्म किराणावे ।। सुद्ध सरूप सहजि लिव निशिदिन, झावउ अंतरि झाणावे । जंपति 'दूचा' जिम तुम्हि पावहु, वेछित सुख निखाणावे ।। सुख निर्वाण निर्भय कारणं, सिव रमणी मस्तकि तिलयं । प्रात्मप्रतिबुद्ध जमि कषि सुद्ध, बत्तीसरे गुण पद निलयं ।। 11 इति टडाणा गीत समाप्सा ।। 00 १. गुटका वि० जन मन्दिर नागवी की। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज भवनकीति गीत प्रावि बद्धार सुणहु सहेली, यछु मनु पदुमनु विधसइ जिमकलीए । गोदि पनंद नित कोटिहि सारिहि, मुह गुरु सुह गुरु वेदहि सुकरि रलीए ।। करि रली बन्दह सखी सूह गुरु लवधि गोहम सम सरै । जसू देखि दरसरणु टलहि भवदुख, होइ नित नवनिधि घर ।। कपूर चन्दन अगर केसरि प्राणि भाचन भावए । श्रीभुवनकीति चरण प्रणमोहू, सखी माज बद्धावहो ॥१॥ तेरह विधि चारित प्रतिपालइ, दिनकर दिनकर जिम तपि सोहए । सर्वशि भासिउ धर्म सुगाबै वाणी हो वाणी भव मनु मोहइए । मोहन्ति पाणी सदा भवि मुनु अन्य प्रामम भासए । षट् द्रम्य प्रक पञ्चास्तिकाया सप्ततत्व पयासए ।। बावीस परिसह सहइ अंगिह गरुष मति नित गुणनिधो । श्रीभुवनकीति चरण पण मि सु पारितु तनु तेरह विधो ।।स। मूलगुणाहं पठाइसइ धारइए मोहए मोहु महाभडु ताडियो ए । रतिपति तिणु दंतिहि महिउ पुणु कोवहुए कोवडुकरि तिहि रालीयो ए ।। रालियो जिमि कोवंड करिहि बनउ करि इम बोलाइ । गुर सियलि मेरह जिउ पजंगमु पक्षण भइ क्रिम डोलए । जो पंच विषय विरतु चित्तिहि किया खिउ कम्मह तरण । श्रीमुवनकीति चरण प्रणमइ घरइ अठाइस मूलगुणु ॥३॥ दस लाक्षरण धर्म निजु धारि कु संजमु भूसरणु जिसु वनिए । सत्रु मित्रु जो सम किरि देखई गुरमिरगंधु महामनीए ॥ निरगंथु गुरु मद अ परिहरि सवय जिय प्रतिपालए । मिथ्यात तम निण दिन म जैणधर्म उप्रास्लए ।। तेरेनवतहं प्रखल चित्तहं कियउ सकयो जम्मु । श्रीमुधनकीर्ति चरण पणमउ धरइ दशलक्षिण धम् ।।४।। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुवनकोति गोत १०७ Ig गावहि ए कामरिण मधुर सरे प्रति मधुर सरि गावति कामा । जिरा मन्दिर हो प्रष्ट प्रकार हि करहि पूजा कुमाल चढावहि " बूचराज रंग श्री रत्नोति पाटि योसह गुगे । श्री भुवनकीति आसीरवादहि संधु कलियो सुरतरो | ॥ इति श्राचार्य श्रीभुवनकीर्ति गीत || 0 0 2 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज पार्श्वनाथ गीत जाग सलोनडी ए सुण एक बाता। पाव पिणेद सिवां एह मन राता।। राता यहु मन चरण जिणवर वामादेवी नंदनो। एक मुकगनाथ तो, पु' का हर गावस । जिन कमठ बल तप तेज हारमो, मन धर्मासि धरवणीए । कवि बल्ह परस जिवंद बंदौ, जाम रयण सलौनीए ॥१॥ कुकम चंदन सबल करोग, नसर माल मले कुसम ठवीजे । कूसम ठचीजे हार गुथित, म्हाण पूज करावइए । एक जगत गुरु जगनाथ बंदी, पुण्य का फल पाए । चिन अष्ट कर्म विदार क्षय करि, मन धरघाति घरवणीए । कवि बल्ह परस जितेंद्र वंदो, सबलि चंदन कीजिए ॥२॥ त्रिभुवणं तारण मुक्त नरेसो, सप्त फणतो णिकरे रहीया सेसी। रहीया सेसो सात फरिण, अंत किंवही न पाइया । ध्यारिणबइ कोडी झिरद, निझकरि पुरुष डिळ चित लाइया । घरि पुत्त संपद लेह लक्ष्मी, दुरति निकंदना । कवि बल्ह परस जिणंद बंदह, स्याम त्रिभुवन चंदना ||३|| जन्म वनारसे उसपते जासो, अलिवर विषम गढोलिय निबासो। लिया निवास थान प्रसकर, संघ प्रावह बहु पुरे । एक अंग मंडित कनक कुडल, श्रवन मुख होरे जल्छे । दह पंच सहस बद तरेसठ, माघ सुदि तिथि वारसी । कवि वल्ह परस जिणेंद वंदो जन्म लिया बनारसी ॥४॥ ॥ इति पार्श्वनाथ गीत समाप्तो । 000 १. प्रस्तुत पार्श्वनाथ गीत अभी एक गुटके में उपलग्ध हुमा है। गुटका आमेर .. शास्त्र भण्डार में २६२ संख्या वाला है। इसमें पाश्यनाथ की स्तुति की गयी है। यह गीत संवत् १५६३ माघ सुदी १२ को लिखा गया था। कवि की अब तक उपलब्ध कृतियो में यह प्राचीनतम कृति है । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बूचराज के गीत राग बासु ए सखी मेरा मन घपलू यस दिसे ध्याये वेहा । ए बलु पहियडा लोभ रसे खिणु सुभ घ्याने ना पावै वेहा ।। मागे न खिए सुभ ध्यानि लोभी पंच संगिहि रात वो । मोह्यिा इनि ठगि मोहि पुरति विषु अमी करि जातको । मिगोद नर यह सहे बहु दुख किमो भ्रमणु घणेर वो । दस दिसिहि घ्यावं हरि न रहई सखी मनु मेरो ॥१॥ एहउ बरजे रही हरि न सुणे अबरु चरै दिन रपणे वेहा । ए यहु मातडा पाठमई ततु न चाहीयमा नयणे वेहा । चाहीया तत्त न न्यान नयणि हि सुमति चिति न धारिया । मिथ्याति पडिया नाद कालि ह जनमु एवइ हारिया । मुल्लिया तितु भष मझि सागरि धून ते जाण्या सही । सो प्रचर चर इन सुगइ कहिया वरजिहा तिसुकी रही ।।२।। एति तु निगुण सिवा चेतनो क्या धुलि रहिउ लुभाए बेहा । ए निरंजनो पटल प्रजनि राख्या पुरतं छाए वेहा । छाइया धूरति पटल अंजनि राउ त्रिभुवन केरउ । दुख रोग सोग विजोग पंजरि किया आइ बसेरउ । मप्पणउ वस्तु तजि हुवउ परवसि लछि धरि कायर जिव । घुल रह्या निसि दिनु सगुण चेतनु निगुण तिसुनारी सिवा ॥३॥ ए रपणत्तउ वर तो भजो सुण सुरण जीम हमारे बेहा । ए सरवनि धम्मो पालिनि जो प्रोगुण मिटहि तुम्हारे वेवा । तुम मेहि बवगुण जीय संभाल धम्मो जो सरवनि कह्मा । मनि वचनि काया जिन्हिहि पाल्या सासुता सुख तिन्ही लह्मा। दुस्ख जरा जम्मण मरण केरे अव भागा भवो । इवराज कवि मंजु गाय म्हारे दरतु यहु रयणतउ ।।४।। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० १० कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि राग धनाक्षरी सुणिय पधानु मेरे जीयवे, की सुभ ध्यानि न भावहि । साचा धम्मु न पालिया फिरि फिरिता गति धायहि || फिरिफिरि गति ध्याया सुख न पाया ढाए उतपंदा | इन्ह विषया संगिपिया कुछ गिहि काला प्रापुरि चंदा || सुह प्रमुह कमह किसुह समइ तू जाणहि भाषु कमावही । सुणिय पधानु मेरे जीयबे की सुभ ध्यानि न प्रावहि || १ || टेर सुभिया पंकज तलका सुरु जिउ नहु बंधण छोड मोहनी सत्तार कोडा कोड़िये I मालिया सश्या न वंरण छोडिये ।। उडिया लोई करें कलाप रे । र रसणिहि चाख्या मूलू न राख्या कीए गते हि बसेरे ॥ ठमि गिया लोभे नढि मोहे जडिया घाल्या श्राप खुभिया पंकज मोहनी सत्तिरि बोडिवे । ||२|| कोडा कोडिवे संपत्ति सजन सरीरि सुत पेखि न भुल्ला सभायवे । खेवट फेरी ना चजिउ मिले सजोगिहि आइये || मिलिया संजोग इन्हही लोगिहि पुम्वहि पुन कमाये । यहु रत्नु चितामणि कबडी कारण खोउ न मूढ प्रयाणे ॥ परंगु सनेह यहु सुखु एह मधुविदु रस सायवे । संपति सजन सरीरि सुतः पेखि न मुल्ला सभाइये ||३|| X श्रहंन देउ निरगंथ गुरु जिनि यहु निजु करि जाग्रीया तिन्ह जमरणु सहला गयान दुरगति दुखु टाल्या सीयलु जंपति 'बूबा कहइ सरवनि जीति परहंतु देउ निरगंथ गुरु केवल X केवल भाषित धम्मजी | कीया सफलु तिन्ह जम्मुजी || ग्रला जिनही समकतु जाता । पाल्या मिथ्या जालि न फाल्या ।। सुर्मात मानहु भरमु जी । भाषित धम्मजी ||४|| X Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ बुधराज के गीत राग घनाक्षरी पट मेरी का चोला लालो लोग ग मोती का हारुवे लालो । परि पटंवर कामिनी लालो, तो सती किया सिंगारु वे लालो ॥ सिंगारु करि जिग्ए भवणि माई, रहसु वहु मन महि धरणा । सभ ईछ पूनी भया भग्नंदु देखि दरसनु तुम्ह तणा || कपूर बंदनि अगरि केसरि अंगि चरबी मेलया 1 सिरि संति जिरावर करहु पूजा पहिर पाटम चोलया ||१|| राइ चंवा अरु केवढा लालो मालवी मारवा जावे लालो | कुद मच द अरु वडा लालो, सेवती बहु महकाइ के सालो ।। महाडु ती C पद हामी । सुनल सोवन कवल कवियरु नव निवली प्रति घणी ॥ ले आउ मालणि गुथि नवसरू देखि विग होयडा | माला चहोडं सौसि जिणवर राइ चंगा केवडा ||२|| पंच कलस भरि निरमल लालो, स्वामी न्हृषणु करेहि बे लालो । भावहो कामिनी भावना लालो, पुत्र लणा फलु लेहि वे लालो । फलु लेहि भवियण पुन केरा, करि महोछा भावहो । नारिंग तुरी जु जभीर नेवजु आणि सीमि आरती लेकर फिर श्रागे गहिर शब्द यजाय हो । सिरि संत जिरावर चरण कोर्ज पंच फलस भराव हो ||३३| चडाव हो || गहु हृथिनापुरु वंदियै लालो, जिन्न, स्वामी अवतारु वे लालो । सफलु जनमु यहु जाशियं लालो, तेय मुकत दातारु वे लालो ।। मुकति दाता नयणि दीठा रोगु सोगु निकंदणो । अबतार अचला देवि कुक्षिहि राइ विससेण नंदणी || जगदीस तू सुण मण धूचा' जनम दुखु वालिद हरो । सिरि संति जिणवरु देउ तूठा धातु गढ़ि हथिनापुरो ||४|| X x X १११ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर पुनराक एवं उनके सम्माली यामि पद रागु गौडो रंग हो रंग हो रंगु करि जिणवर घ्याईये । रंग हो रंग होई सुरंगसिज मनु लाईये ।। लाईयें यह मनुरंग इस सिंउ प्रवरु रंगु पतगिया । घुलि रहइ जिउ मंजीठ कपड़े तेव जिण चतुरंगिया ।। जिय खगनु वस्तक रंगु तिवलगु इसहि कानर गाव हो । कषि 'वल्ह' लालचु छोड़ झूठा रंगि जिवर घ्याव हो ॥१॥ रंग हो रंग हो पंच महावत पालियै । रंग हो रंग हो सुख अनंत निहालिय ।। निहालियहि सुख अनंत जीयर्ड पाठ मद जिनि खिउ करे । पंचिदिया दिनु लिया समकतु करम बंधण निरजरे ।। श्य विषय विषयर नारि परधनु देखि व चित्त न टाल हो । 'कवि बल्ह लालचु छोरि झूठा रंगि पच व्रत पाल हो ॥शा रंग हो रंग हो दिख करि सीयलु राखीये । रंग हो रंग हो रान बचन मनि भाखीये ॥ भाखियै निज गुर ज्ञान वाणि राग रोसु निवार हो । परहरहु मिथ्या करहू संवरु होयइ समकतु धार हो ।। बाईस प्रीसह सहहु अनुदिनु देहसिउ मंडहु वसो । 'कवि वल्ह' लालचु छोडि झूठा रंगु दिडु करि सीयलो ।।३।। रंग हो रंग हो मुकति रवणी मनु लाईयै । रंग हो रंग हो भव संसारि न पाइये ।। प्राइये मह संसारि सागरि जीय बहु दुखु पाइये । जिसु बासु चहुगति फिरचा लोड सोइ मारगु ध्याय ।। तिभुवणह तारण देउ भरहुत तासु गुण नित्रु गाइयं । 'कवि वल्ह' लालबु छोडि झूठा मुकति सिउ रंगु लाश्य ।।४॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ चराज के गीत रागुदीपु न जाणो तिसु बेल को ने चेतनु रह्या लुभाई वे लाल । चित हमारी राजे परहरी मे सुद्ध तरि निवलाह वे लाल || अंतरि लिवलागी प्रारति भागी जाण्या थुलु निराला | लोका अवलोक सभे जिनि दीपे हूवा सहजि उजाला || निरमलु रसु पीवे जुग जुग जीवे जोतिहि जोति समाइये । न जाण्यो लिए गेल को वेतन के लाल ४१|| जिथी रूपन गंधरसो पयासु तिथि जाइ दे लाल । सरगुण विधानि गुण सिवावे किती हेति सभाइ बे लाल || किती सज्झाए चित्ति चाए आपनई सुखि थीए । रंग महि नित छे कहि न गछइ अमिय महारस पीए || जग जाइ सो उह सभु जो उनमनि रच्यो मनु लाइवे । जिथी रूपुन गंधर सोवे पया मुतिथी तु जावे लाल ||२|| घालता की वालहीये हो रती ते नालि वे लाल । दुख सुख किसी भोगवे वे संगि प्रनादी कालि दे लाल || संगि नादी काले विषी वाले जोवन देंगे वारे । जे जे सुखभाणे भाषी भारणे ते वचित्ति चितारे ॥ हम साथि विरच्या अवरे रच्या साकि न वाचा पालिये । वालत्तण की बालही वे हो रत्ती त नालि वे लाल ||३| जोया सोई सोहु बावे क्या अखाते नालिये लाल । पाली दरि जे बस रोवे जिवसर प्रदरि पालिने लाल || सर मंदरि पाले देख्नु निहाले प्रागमि ध्यातमि कहिया । जो परम निरंज सब दुख मंजस्यु हष जोगी सरि लहिया ॥ जंपति 'बूचा' गरु तरियं सागर सी बुद्धि संभालिवै । जोया सोई सौ हुवावे क्या खा नालि बे लाल || ४ || X X X ११३ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि १४ रागु सहर वाले बलिवेह मावे मनु माया धुलि रात्ताचे । वाले वलि वेह्र मात्रै रहइ पाठ मदि मात्तावे॥ माद हहै नाता परम् न जाता जो सरवति हि भास्या। धन पुत्त कलत्ता मित्ता हित्ता देखत हिये विगस्वा ॥ सा विसरीके व नरकि जा भोगी वेदन दुसहु प्रसाता । करुणा कस्तारि कहे जन 'चा''................." वाले वलिवेहु मावे मनु माया धुलि रातावे ॥१॥ वाले बलिवेह मावे सवल मिथ्यातिहि मोद्यावे। वाले वलिवेहु मावे पंच ठगिहि मिलि दोह्यावे । ठगि पंचिहि दोहा ते नहु जोहा साया समकतु सारो। चौगति हीयतह कष्ट सहतह मलि न लद्धा पारो॥ पागम सिद्ध'तह वचन मुगतह ते नहु चितु प3 वोह्मा। करुणा करुतारु कहै जन 'वधा'। वाले वलिवेहु मावे सवल मिथ्यातहि मोह्या वे ॥२॥ वाले वलिबेहु मारे जी लोहा पारसु पर सवे । वाले वलि हु. मावे तातु कंचरण दरसचे ॥ हर कंचरण दरस संगति सरस मुड सरउ पिछाणं । सह अंदर भीतरु एको हावै ता परमारथु सड जाणं ।। मानन्द रूपी नित रहद निरंतरि कबलु हिय महि हरस । करुणा करुतारुक कहइ जन 'बूचा' । वाले वलिखेहु माने जी लोहा पारस परसैदे ॥३॥ वाले वलिवेहु मावे सेबहु तिहुवरण राया वे । वाले वलिवेहु भावे जिनि सांचा मग दिखाया वे ।। जिनि भग्गु दिखाया लिय मनु लाया तिसु मन्यामहि रहिये । पविहटु अविनासी जोति प्रकाशी थानु मुकति जिय नहिय ।। भौउ भाग्गउ संसारह प्रति घोरह पुनरपि जनमनु पाया। करुणा करतारु कह्इ जनु 'दूचा' । वाले वलिबेहु भावे सेक्हु तिढुवण रायावे ।।४।। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बूचराज के गोत ११५ ११५ रागु विहागडा ए मेरै अंगणे वाचवा वासो चवे कोवल कलिवावा । ए मइ गुथि पहचा दा नवसर सो नव सरकरि मने रलिया वा ॥ मनि रलिय करि गुथ्यास नवसर जिणह पून रचाहे । सा सुता सुख तिच मिलहि वंछित जमु न चौगय पावहे ।। जिस देखि दरसण र रहि भव दुख भाउ उपजै स्विण स्त्रिणो । जि अदिजिण काररिण नि पाया राइचंवा मंगरो ।।१।। र तेरे चरणो वा चरणे वा चरण मेरा मनो मोह्यावा । ए कुछ लोयरणे वा पनदोसो भनदोसो जम्मो जोह्यावा ।। जोह्मासु जा मुख देव केरा प्रथरु महु सेवन किसो । जिनि पाठ मद निरजरे वलु कार हीयइ गुण वसिया तिसो ।। चंधिया तूं इन करमि करिनिहि भबिउ बनम घणेरिया । मोद्या सु इन त्रित प्रादि जिथवर चलणि इन दुइ तेरिया ॥२॥ पिरलिइ नेहडी कीजै वेसा कीजे जिणवर भाषीया । ए षटु कायहा बा जाणी वा सो वाणी तिन्ह दिरणे राखीवा ।। तिन्ह राखि दिद्ध दे अभइन्हा परि करि नहि संइकु स्विषु । जिम जाणि वेयणा किया निय तण तिम सुक्यण पर तिा ।। इकु रदह समकति सदा निश्चल जिम सुमनु न छीजए । हम कहत मादि जिणंद स्वामी पिरतिन्हा परि कीजए ।।३।। ए चंद निरमली वा बाणी वा सो वाणी भवियह पारो वा । र व्रत बारहा वा धारी वा सो परि तरहसाए सारोवा ।। सइसारु सागर तराष्ट्र जिम जय पंचमह बय दिढ़ रहो। धाईस प्रीसह सहहु दुग्गम तेइ पहि निसि सहो । सव्व ईछ पुनीय भगइ 'वुचा' जनमु सफला आणिया । चलस्यास मनु मुरिंग प्रादि जिणबर चद निरमली वाणीया ।।४।। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ १६ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि राग आसावरी दोहा :- संजम प्रोहरिण ना चडे भए अनंत संसारि । स्वामी पारे उत्तरे हमि थके उरवारे ।। छंदु ॥ हम थाके उरबारि स्वामी पारेगए । समकतु संवलो नाहते नरदीन भये ॥ ते भये दीन जहीन समकति मणि जिणवर ते खड़े । गति चारि चउरासिम लख महि जनमु करि ते रूले ॥ बहु वारि दरसनु भया स्वामी षम्भु पालि न सकिया । तुम्हि पारि पहुते वीर जिरणवर प्रसे पतणि बकिया ॥१॥ इक्क लग्न माहि देखे कष्ट वहो । प्रासत वेदन घोर सहारे कवण कहो ॥ कहु को सहारह घोर वेदन ता६ तावा पावहे । करि लोड् थंभसि अग्गिने आणि अंगि लगावहे || यरगत भेयरण डंड मुद्गर तनु पहारे सल्लिया । दुख कष्ट देखे गुणहु स्वामी नर माहि इकलिया ||२|| सेव्या कुगुरु कुदेउ पड़ियाक धम्म ते । पुदगल प्रवत्तिन काल कीती बहुत श्रुते । श्रुति बहल कीती सुरहु जीयड़े आठ कम्मिहि तु नया । वलु करि डिगाया पंच श्रुतिहि एवं मिध्यातिहि पडघा || नित चघो मान गयंदि मय मति तत्त, चित्ति न वेद्दिया । पडिया कुद्धम्मिहि सुनहु जीवडे कुगुरु हेते सेविया || ३ || हम चातिगह पियास दरिसन नीर विणा । श्रतनिसाम बुझाउ सरवनि सरस घणा ॥ घण सरस सरवनि करुणा भवह पारु लघाव हो । दुख जरा जन्म मरण केरे तिन्हह वेगि छुडाव हो ॥ कर जोडि 'बच्चा' भइ सेवगु मेटि जिण अंतरि तम । तुम्ह नीर दरसण वाभु स्वामी त्रिसात्र बालिग हम ||४|| X X X Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुचराज के गीत " गीत निस नित्त नबली देहडी नित्त नित्त अब कम्मु । नित्त नित श्रावत कुन प्रमल. निल मित्त मासु जाप ! नित्त नित्त न माणसु जम्मु लाभइ, नित्त नित्त न वांछित पावइ । मित्त नित्त न प्ररि जु खेतु लभ, नित्त न सुभ मति प्रावये। नित्त नित्त न सुभ गुरु होइ ईसण, धम्मु जो जंपद इहि । तो चेतना करि चेतन संभालउ, मराव जम्म न नित्त नित्तो ।।१।। जा लगु खिसियन जोवना. जा लग जरा न जणावे । जा सगु तनु न संकोचिये, जा लगु रोग न प्रार्थ । भावह न जा लगु रोगु अंगह, तेजु नहु जब लगु खलइ । जब लग न मति अति भई भिभल, जाम बल इन्द्री मिल्यो । जब लग न बिछुने प्राण प्राकम ताम तन पसरी गुणो । जब्च लग न चेतनु चढिउ पासण, जाम खिलियन जोवणो ॥२॥ राजु दुबारह झल्लरी, अहि निसि सबद सुणाने । सुभ असुभ दिनु जो घटइ, बहुड़ि न सो फिरि पावइ । ग्रावइ न सो फिरि घटइ ओ दिनु पाउ इणि परि छीज्जा । पौरसह सम्माइक्कु प्रत संजमु खिरण विलम्ब न कीजिए । पंच परमेष्ठी सदा प्रगमन, हियइ निज्ज समिकितु घरह । खिए खिम चिताधइ, चेत चेतन राजद्वारह झल्लरी ।।३।। जो सरवनि निज भाखियो यो उत्तिम्म धम्मु पालहु । थावर जंगम जे जिया से सम्मदिष्टि निहालउ । निहालि ते समदिष्टि जीवा, नंत न्यानि ये कह्या । षट् द्रव्य अर पंचस्तिकामा, घृत घटवत भरि रह्यो । इम भगइ चूचा व्रत उत्तिम तीनि रतन प्रकासिया । सुख लहउ भंछित सदा पाल घरमु सरवनि मासिया ॥४|| गुढका संख्या मन्दिर वधीचन्द जी शास्त्र भण्डार–वेष्टन संख्या ६७१ । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ १८ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि गीत मनुषि लिया कवल विगस्सेवा । ए जिणु देखीया पापः परणसेवा || राहि पाप पणासे जनम मेरे देव दरसनु जोइया । सयल नंछित इछ पुत्रिय भावहा पति गोइया ॥ यह महिय अगि नमाइ सुंदरि रोरु कसमलु मिल्लिया । श्री वीर जिगर भवणि श्राई सखी तनु मनु खिल्लिमा ॥१॥ माजु दिनु धनो र ि सुहाइवा I थाई तउरगि जिगह मंदरि देव गुरगुवहु गाइया । संसारि सफला नमु किया धम्मसि मनु लाइया || सिद्धथराइ नरिव नंदनु दिवs प्रति उज्जल तनी । श्री महावीर जिखंदु स्वामी दिवस भाजु जाण्या घनी || २ || ए गुथि मालले माल लिवाईया ! एमइ भाव सिवा जिए चड़ाईया || डाइ जिसिरि माल कुसमह, महमनिहि भावन भाईया | कप्पूरि चंदनि गरि केसरि जिगह पूज रचाईया || त्रिभुजा नाथु अनायु स्वामी मुकति पंथ उजालण े । श्री वीर जिणवर भवा लाई माल गुंथी मालणं ||३|| सिव अनंत सुखादेण दाता रावे 1 रचिउ हमारावे ॥ एनु म्ह बलणि मनो हम रचित मनु तुम्छ पद पंकज जरा मरण निवारहो । वाल व किछु करछु करुणा भवह सागरु ताच्हो || X यूचराज कवि षहूर्गात निवारण श्री महावीय जिणंदु पणविद अनंत X सिद्धरवणी रातवो । सिव सुख दातवो || ४ || X Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुचराज के गीत ११६ १६ गीत धम्मो दुग्गय हरणो, करणो सह धम्म मंगल मुलं । जे भास्यो जिण वीरो, सो धम्मो नरह पालोह ।।१।। निसो सुकुल विनु सीलु भणिज्ज, अपु तिमो विण गुणह धुणिजे । जिसो सु दीख बिग पत्तह तरु, मिसो सु जिण धम्मह बिगा जगि नरु । हेमु तिसो वली विनु जाप्पहु, पत्य हीरा जिउ काबु बखाणह । नर्क बिना जैसे दीस दिनु, जती जोगु जिसौ चारित विनु ।।२।। चारित विनू जती तपी विन मतव, जोई विनु जो ध्यान है । पया बिनु सिद्धि बुद्धि विन पंडिय, विनू सिंह जोवाक्हे । मन वितु जिउ भुह भूह घिनु भोगी, कतपीमु बिनु खिमा थुण । जिग सासण वचन इव भास्यो, इसोसु बरु जिणषम्म विना ॥३।। सपीयरु विन रैगि दिवस विनु दिनीयम, घिन परिमल जे सिम भरणे । विनु तेय सुरंग जलह विनु सरक्षर, विनु घातिक रुष बाघु घणं । पिक वि तम् सूड विगा गयवरु, जिउ दल विणणे संतरणं । जिण सासण वचन इत्र भास्यो, इसोसु नरु जिण धम्म विना ॥४॥ छत्तह विण इंक गुण विण जिउ घण, कंठह विगा जे धुणहि गीयं 1 कर दिरा जिउ ताल वेस विण लावण, विगु लम्जु जे कुलतीयं । लखी विण लोन सुरह बिगा वीरहि जिउ दल विरण पंसं तिरणं । वण विरग जिउ सिंघ मोर विरण गिरधर, हंस विरण जिउ मानसर ।।५।। विस विनु जिउ उरग, लूण विण भोयरण, जिसो सुविण केवे भवर । मंती विरण् नृपति सोम विरण पटणि सुक बल्हइ वसचुमणं । जिसी रंणि विनु जोति, तिसो चकवी विण दिनीयरु । जिसी दीप विण रणि तिसी विणि ने वरि ॥६॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि विरणु रुजि भोयम् जिसा वन्धरसि तिसी कहाणी । जिसा भाव विण भगति तिसो मोती विषु पाणी । तसो जु चीजु कल ख योगि रही संप वा घातिउ । कवि कहे वल्हे रे युह्मणह जिण सासरण विगुजम इव ॥७॥ लिखितं कल्याण संवत् १६४८ वरष कातग वदि प्रमावस्या । 017 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छोहल १६ - माताब्दी के अन्तिम चरण के जैन कवियों में छीहल सबसे अधिक चचित कवि रहे हैं। रापचन्द्र शुक्ल के हिन्दी साहित्य के इतिहास से लेकर सभी इतिहासकारों ने किसी न किसी रूप छोहल का नामोल्लेख अवश्य किया है । छोहल राजस्थानी कवि होने के कारण राजस्थानी विद्वानों ने भी अपने अपने इतिहास में उनकी रचनाओं का परिचय दिया है । सर्वप्रथम रामचन्द्र शुक्ल ने छीहल का उल्लेख करते हुए लिखा है कि "ये राजपुताने के प्रोर के थे । संवत् १५७५ में उन्होंने पञ्च सहेली नाम की एक छोटी सी पुस्तक दोहों में राजस्यानो मिली भाषा में बनाई जो कविता की दृष्टि से अच्छी नहीं कही जा सकती । इसमें पांच सखियों को विरह वेदमा का वर्णन है । इनकी लिखी बावनी भी है जिसमें ५२ दोहे हैं। उदाहरण के रूप में उन्होंने पञ्च सहेली के प्रथम दो एवं अन्तिम एक पद्म भो उद्शत किया है ।। डा. रामकुमार वर्मा ने अपने "हिन्दी साहित्य का पालोचनात्मक इतिहास" में कवि की पञ्च सहेली गीत के परिचय के साथ ही उनके सम्बन्ध में प्रपना अभिमस लिखा है कि "इनका कविता काल संवत् १५७५ माना जाता है। इनको पञ्च सहेसी नामक रचना प्रसिद्ध है। भाषा पर राजस्थानी प्रभाव यथेष्ट है क्योंकि ते स्वयं राजपुताने के निवासी थे । रचना में वियोग शृगार का वर्णन ही प्रधान है। मिश्रबन्धु विनोद में वीइल का वर्णन रामचन्द्र शुक्ल एवं रामकुमार वर्मा के परिचय के आधार पर किया गया है। क्योंकि उद्धरण भी शुक्ल वाला ही दिया गया है। में लिखते हैं कि इन्होंने संवत् १५७५ में पञ्च सहेली नामक पुस्तक बनाई जिसमें पांच अबलाओं की विरह वेदना का वर्णन है और फिर उनके संयोग का भी कथन है। इनकी भाषा राजपुताने ढरे की है और इनकी कविता में -- - -- १. हिन्दी साहित्य का इतिहास-पृष्ठ १९८ । २. रामकुमार वर्मा-हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास पृष्ठ ५४४ । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि अन्न भी है। इनकी रचना जान पड़ता कि ये मारवाड़ की तरफ के रहने बाले थे क्योंकि उन्होंने तालाबों प्रादि का वन बड़े प्रेम से किया है । १२२ डा० शिवप्रसाद सिंह ने अपनी पुस्तक "सूर पूर्व ब्रज भाषा और उसका साहित्य" में छील का सबसे अच्छा मूल्यांकन प्रस्तुत किया है ।" यही नहीं उन्होंने रामचन्द्र शुक्ल एवं डा० रामकुमार वर्मा के मत का उल्लेख करते हुए कवि के सम्बन्ध में निम्न प्रकार अपने विचार लिखे हैं- "आचार्य शुक्ल ने छीहल के बारे में बड़ी निर्ममता के साथ लिखा, संवत् १५७५ में इन्होंने पञ्च सहेली नाम की एक छोटी सी पुस्तक दोहों में राजस्थानी मिली भाषा में बनाई जो कविता की दृष्टि से छ नहीं कही जा सकती। इनकी लिखी एक बावनी भी है जिसमें ५२ दोहे हैं । पञ्च सहेली को बुरी रचना कहने की बात समझ में पा सकती है क्योंकि इसे रवि भिनता मान सकते हैं । किन्तु बावती के बारे में इतने निःसंदिग्ध भाव से विचार किया यह ठीक नहीं है। बावनी ५२ दोहों की एक छोटी रचना नहीं है बल्कि इसमें अत्यन्त उच्चकोटि के ५३ छप्पय अन्य हैं । डा० रामकुमार वर्मा ने छील की पञ्च सहेली का ही जिक्र किया है। वर्मा जी ने श्रीहल की कविता की श्रेष्ठतानिकृष्टता पर कोई विचार नहीं दिया किन्तु उन्होंने पञ्च सहेली की वास्तविकता का सही विवरण दिया है ।" इसके पश्चात् 'राजस्थानी साहित्य का इतिहास' पुस्तक में डा० हीरालाल महेश्वरी ने छीद्दल कवि का राजस्थानी कवियों में उल्लेखनीय स्थान स्वीकार करते हुए उनकी पञ्च सहेली और बावनी को काव्यत्व से भरपूर एवं बोलचाल की राजस्थानी में बहुत ही धनूठी रचनाएं मानी हैं। इसके पश्चात् और भी विद्वानों ने खीहल के बार में विवेचन किया है। डा० प्रेमसागर जैन ने छोहल को सामर्थ्यवान कवि माना है । तथा उनकी बार रचनाओं का परिचय एवं बावनी का नामोल्लेख किया है । लेकिन जैन विद्वानों में डा० कामता प्रसाद, डा० नेमीचन्द शास्त्री आदि ने छोहल जैसे उच्व कवि का कहीं उल्लेख नहीं किया है । जन्म परिचय छील राजस्थानी कवि थे । वे राजस्थान के किस प्रदेश के रहने वाले थे १. मियबन्धु विनोद - पृ० १४३ । २. ३. ४. सूर पूर्व ब्रजभाषा और उसका साहित्य, पृ० १६८ । राजस्थानी भाषा और साहित्य पृ० २५५-५८ । हिन्दी जन भक्ति काव्य और कवि पृ० १०१-१०६ । - Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छील १२३ इसके बारे में उन्होंने स्वयं ने कोई परिचय नहीं दिया है । लेकिन पञ्च सहेली गीत में कवि ने जिस प्रकार कुए पर पानी भरने के लिए माने वाली पांच विरहिणी स्त्रियों का चित्र प्रस्तुत किया है । उनके परस्पर की वार्तालाप को काध्यबद्ध किया है । उससे ऐसा लगता है कि कवि शोखावाटी प्रदेश के किसी भाग के थे जो ढूढाइ प्रदेश की सीमा को भी छूता था । बावनी में दिये गए परिचय के अनुसार वे अग्रवाल धे सपा दियाद जेनसाय में उसामा द्वारा थे। कवि ने 'लघुलि' में जिस प्रकार जिन धर्म की महत्ता का वर्णन किया है उससे स्पष्ट है कि ये दिगम्बर अनुयायी श्रामक थे। डा० शिवप्रसाद सिंह ने लिखा है कि कवि के जैन होने का कहीं उल्लेख नहीं मिलता। इससे प्रतीत होता है कि उन्होंने कवि का लघु गीत नहीं देखा । पंथी गीत का भाव नहीं समझा । पिता का नाम नाथू जी नल्हिग वंश के थे। इससे अधिक परिचय अभी तक नहीं मिल सका है। खोज जारी है मौर हो सकता है किसी अन्य सामग्री के उपलब्ध होने पर कवि के सम्बन्ध में पूरा परिचय ही प्राप्त हो जाये । सखीहल रसिक कवि थे। जब उन्होंने पञ्च सहेली गीत की रचना की थी लो लगता है वे युवावस्था में थे। और किसी के विरह में उबे हुए थे । कघि पानी भरमे के लिए कुए पर जाते होंगे प्रोर उन्होंने वहां जो कुछ सुना अथवा देखा उसे छन्दोबद्ध कर दिया। मालिन, छीपन, सोनारिन, तम्बोलिन, मादि जाति की युवतियां वहाँ पानी भरने आती होंगी। जब उसने उनसे अपने अपने विरह की याप्त मुनायी तो कवि ने उसे छन्दोबस कर दिया। कवि की अब तक ७ रचनाएं उपलब्ध हो चुकी हैं । यद्यपि बावनी को छोड़कर सभी लघु रचनाएं हैं। किन्तु छोटी होने पर भी ये काव्यमय हैं तथा कवि की काव्य-शक्ति को प्रस्तुत करने वाली हैं । सात रचनाओं के नाम मिम्न प्रकार हैं १. पञ्च सहेली गीत २. बावनी ३. पंथी गीत ४. लघु वेली ५. आत्म प्रतिबोध जयमाल १. श्री जिनवर की सेवा कीधी रे मन मूरन आपणा ||१|| २. पूर पूर्व ब्रज भाषा और उसका साहित्य-पृ० १६८ । ३. माल्हिग वंसि नाथू सुतनु अगरवास कुल प्रगट रवि । बावनी घसुषा विस्तरी कवि कंकण मोहल कमि ॥५३।। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ कविवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि ६. उदर गीत ७. येराग्य गीत १. पञ्च सहेली गीत यह राजस्थानी भाषा की कृति है। डा. रामकुमार वर्मा ने इसके सम्बन्ध में लिखा है कि इसमें पाच तरुणी स्त्रियों ने मालिन, छीपन, सोनारिन, तम्बोलिन, प्रोषित पतिका नायिका के रूप में अपने प्रियतमों के विरह में, अपने करण आवेगों का वर्णन अपने पति के व्यवसाय से सम्बध बने वाली नम्तनों का उल्लेश पोट तत्सम्बन्धी उपमानों और कपकों के सहारे किया है। डा. शिवप्रसाद सिंह ने पञ्च सहेली को १६ वीं शती का अनुपम शृगार काव्य माना है। साथ में यह भी लिखा है कि इस प्रकार का विरद् वर्णन उपमानों की इतनी स्वाभाविकता और ताजगी मन्यत्र मिला दुर्लभ है ।" पञ्च सहेली में पांच विभिन्न जाति की स्त्रियों के विरह की कहानी कही गई है । ये स्त्रियां किसी उच्च जाति की न होकर मालिन, तम्बोलिन, छीपन, कलालिन एवं सुनारिन हैं जिनके पति विदेश गये हुए हैं। उनके विरह में वे सभी स्त्रियां समान रूप से व्यथित हैं। कवि ने यह बतलाने का प्रयास किया है कि पति वियोग में प्रोषित पति का कितनी क्षीणकाम म्लान मुख हो जाती हैं । उनके प्रांखों में कज्जल, मुख में पान नहीं होता। गले में हार भी नहीं पहना जाता और केश भी सूखे-सूखे लगते हैं । वह हमेशा अनमनी रहती है । तथा लम्बे श्वास लेती है । उनके प्रघरोष्ठ सूख जाते हैं तथा मुख कुम्हला जाता है। छीहल कवि जिस किसी नगर के रहने वाले थे, वह सुन्दर था तथा स्वर्गलोक के समान था । वहां विशाल महल थे। स्थान-स्थान पर सरोवर थे तथा कुए और बावड़ियों से युक्त था । नगर में सभी ३६ जातियां रहती थीं। लोगों में बहुत चतुरता थी। वे अनेक विद्यानों को जानते थे। तथा वे एक-दूसरे का सम्मान करते थे । नगर की स्त्रियां रूपवती एवं रंभा के समान लावण्यवती थी। नये नये घस्त्राभूषण पहिन कर वे सरोवर पर पानी भरने जाती थी। एक दिन इसी प्रकार नगर की कुछ ने बयोवना स्त्रिया वस्त्राभूषणों से अलंकृत होकर सीवर के पास पाईं। उस समय बसन्त था। इसलिए उनमें और भी मादकता थी । उनमें से कुछ गीत गा रही थीं। कुछ भूलना झूल रही थी तथा एक-दूसरे से हास परिहास कर रही १. हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास - पृ० ४४८ । २. सूर पूर्व बज भाषा और उसका साहित्य-पृ० १७० । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छोहल १२५ थी। लेकिन उनमें पांच सहेलियां ऐसी भी थीं जो न नाचती थी, न गाती थी और न हसती थी। कवि के शब्दों में उनकी दशा निम्न प्रकार थी तिन महि पंच सहेलियां नाना गावइ न इसाइ । ना मुख बोलई बोल... ...............""| नयनह काजल ना बीड, ना गलि पहिम्दो हार । मुख तम्बोल न खाईया, ना फछु किया सिंगार ॥१०॥ रूखे केस ना न्हाईया, मइले कप्पच तास । बिलखी पइसी उनमनी, लांबे लेहि उसास ।।११ सुन्दरियों ने जब उन्हें उदास देखा तो उसका कारण जानना चाहा क्योंकि साथ की सहेलियों ने कहा कि वे यौवनवती हैं उनकी देह भी रूप बाली है। फिर इतनी उदासी का क्या कारण है । यह सुनकर उन्होंने मधुर स्वर से अपना-अपना सच्चा दुख निम्न प्रकार कहा उन्होने कहा कि वे एक ही घर की प्रथवा जाति की नहीं अपितु मालिन, तम्बोलिन, छीपन, फलालिन एवं सुनारिन जाति की है । लेकिन विरह का कारण सब का समान है। इसलिए एक-एक में अपने दुख का कारण कहना बारम्भ कियासर्वप्रथम मालिन जाति की योवना स्त्री ने कहा कि उसका पति उसे छोड़कर परदेश पला गया है। जिसके विरह से वह प्रत्यधिक दुःखी है । उसका एक दिन एक वर्ष के बराबर ध्यतीत होता है। यौवनावस्था में पतिदेव परदेश चले गये हैं 1 रात्रि दिन आँखों में से प्रांसू बहते रहते हैं। कमल के समान मुख कुम्हला गया है । सारा बाग सूख गया है। शरीर रूपी वृक्ष पर फूल लगने लगे हैं तथा दोनों नारंगियां रस से प्रोतप्रोत हैं लेकिन अब वे बिरह से सूखने लगी हैं क्योंकि वन को सींचने वाला माली परदेश गया हुआ है ।। पहिली बोली मासनी मुझको दुख अनन्त । बालाइ यौवन छाँहि कह, बल्यु दिसाउरि कंत ।।१७।। निस दिन बहपई पचाल ज्यु, नयनह नीर अपार । विरहउ माली दुक्ख का सूभर भरपा शिवार ।।१८।। कमल बदन कुमलाईया, सूकी सुख बनर । वायू पीयारइ एक खिन, बरस बराबरि जाइ ।।१६।। तन तरवर फल लागिया दुइ नारिंग रसपूरि । सूखन लगा विरह झल, सौचन हारा दूरि ॥२०।। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बेचराज एवं उनके समकालीन कवि दूसरी विरहिणी तम्बोलिन थी । वह पति के विरह में इतनी दुर्बल हो गयी थी कि घोली मात्र से ही पूरा शरीर उक जाता था। वह हाथ मरोड़ती, सिर धुनती पोर पुकारती । उसका कोमल शरीर जलता । मन में चिन्ता छाये रहती पौर प्रांखों से प्रश्न धारा कभी रुकती ही नहीं । जब से उसके पिया बिछुड़े तब से ही के गुल का सरोदर हरप माग--. हाथ मरोरउ सिर घुन, किस सउ करू' पुकार । तन दाई मन कलमसइ, नयन न संडह धार ।।२५।। पान झडे सब सुख के, बेल गई तमि सुबिक । दूरि रति बसंत की, गया पियारा मुविक ॥२६।। हीयरा भीतर पइसि करि, विरह लगाइ मागि। प्रीय पानी दिनि ना बुझवाइ, बलीसि सबली लागि ॥२७॥ छीपन मांखों में आंसू भर कर कहने लगी कि उसके विरह का दु:ख बही जानती है, दूसरा कोई नहीं जानता । तन रूपी कपड़े को दुख रूपी कतरनी से यह दर्जी (प्रियतम) एक साय तो काटता नहीं है और प्रतिदिन दह को काटता रहता है। विरह ने उसके शरीर को जला कर रख दिया है। उसका सारा रस जला कर उसको नीरस कर दिया है। तन कपड़ा दुक्ख कतरनी दरजी बिरहा एह । पूरा ब्योंत न व्योतई. दिन दिम कारह देह ॥३२॥ दुःख का तागा वीटीया सार सुई कर लेइ । चीनजि बंघ पविफ्राम फरि, नान्हा बरवीया देई ।।३३।। विरहइ गोरी पति दही, देह मजीठ सुरंग । रस लिया प्रबटाइ कइ, बाकस कीया अंग ।।३४॥ चौथी कलालिन थी। वह कहने लगी कि उसका शरीर तो भट्टी की तरह जल रहा है । प्रांखों में से मांसू घरस रहे हैं जो मानों अर्क बन रहा है । उसका भरतार बिना प्रवगुन के ही उसको कस रहा है। एक तो फागुन का महिना फिर यौवनावस्था, लेकिन उसका प्रियतम इस समय बाहर गमा हुमा है इसलिए उसकी याद कर करके यह मर रही है। मी तन माटी ज्यू तपा, नयन चुबह मद धारि । बिन ही प्रयगुन मुझ सू, कस्करि रहा भरतार ।।३।। माता योवन फाग रिति, परम पियारा दूरि । रली न पूजे जीव की, मरउ विसूरि विसूरि ।।४२।। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छीहल १२७ पांचवी विरहिणी मुनारिन थी। वह तो विरह रूपी समुद्र में इतनी डूब गई थी कि उसका थाह पाना ही वहिन था ! उसके रंगों को गरम पी सुनार ने हृदय रूपी अंगीठी पर जला जलाकर कोयला कर दिया था। उसके बिरह ने तो उसका रूप ही चुरा लिया जिससे उसका सारा शरीर सूना हो गया । हूँ तउ वूडी विरह मह, पाउ' नाहीं थाह ।।४५॥ हीया अंगीठी मसि जिय, मदन सूनार प्रभंग । कोसला कीया देह का मिल्या सवेह सुहाग ||४६।। इस प्रकार पांचों विरहिणी स्त्रियों से छोहल कवि ने जब उनके विरह दुःख का वर्णन सुना तो संभवतः वे भी दुःखी हो गये। मन्त में कवि को भी कहना पड़ा कि विरहावस्था ही दुःखावस्था है । जिसमें पल भर को सुख नहीं मिलता । छोहल धयरी विरह की बडी न पाया सुख । हम पंचइ तुम्हस कहा, अपना अपना दुःख ।।५।। कुछ दिनों पश्चात् फिर ये पांचों मिली। वर्षा ऋतु प्रारम्भ होने के साथसाथ उनके पति भी परदेस से वापिस आ गये थे । इसलिए वे हंसने लगीं, गाने लगीं। उस दिन वे पूरे शृंगार में धीं 1 छीहल ने जब उन्हें हंसते हुए देखा तो उन्होंने फिर उन स्त्रियों से पूछा -- विहसी गावहि रहिसमू कीया सइ सिंगार । तब उन पंच सहेलिया, पूछी दुजी बार ॥५४॥ मइ तुम्ह ग्रामन दुमनी देवी थी उत्तबार । अब हू देखू विहसती, मोसत कह उ विचार ।।५।। उनका साई प्रा गया था । वियोगिन बसन्त ऋतु जा चुकी थी। मिलन की वर्षा ऋतु आ गई थी । मालिन के सुन्न रूपी पुष्प को पति ने मधुकर बनकर सूब पो लिया था। तम्बोलिन ने चोली खोल कर अपार योवन भरी देह को निकाला और अपने पति के साथ बहुत प्रकार में रंग किया। प्रांखों से आंख मिली और अपूर्व सुख का अनुभव किया । मालिन का मुख फूल ज्यां बहत विगास करेइ । प्रेम सहित गुजार करि, पीय मभुकर सलेश ।।५८॥ चोली खोल तम्बोलनी कादया गात्र अपार । रंग कीमा बहु प्रीयसु, नयन मिलाई सार ॥५६।। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ कविवर बूचराज एवं उनके सशकालीन कवि रचना काल पञ्च सहेली गीत का रचना काल संवत् १५७५ फागुण सुदि पूर्णिमा है । उस दिन होली थी और कवि भी होली के उन्मुक्त मानन्द में ऐसी सरस रचना लिखने में सफल हुए थे। इसलिए स्वयं ने लिखा है कि उसने अपने मन के मधुर भाषों से इस रचना को निबद्ध किया है। मीठे मन के भावते, कीया सरस बखाण । प्रण जाण्या गुरिख हसइ, रीझइ चतुर सुजाण ।। ६७।। भाषा धीहल राजस्थानी कवि हैं । उनको कृतियों की भाषा के सम्बन्ध में वा शिवप्रसाद सिंह ने लिखा है कि कवि की कुछ पाण्डुलिपियां प्रजभाषा के निकट है जबकि कुछ पर राजस्थानी प्रभाव ज्यादा है। मामेर शास्त्र भण्डार वाली पाण्डुलिपि को उन्होंने राजस्थानी प्रभावित कहा है। लेकिन अन्त में वे यही निष्कर्ष निकालते हैं कि पप सहेली गीत की भाषा राजस्थानी मिथित प्रजभाषा है 11 अनूप संस्कृत लाइब्रेरी में इसकी चार प्रतियां हैं जिनमें तीन का नाम मो "पञ्च सहेली री बात" दिया हुआ है। इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रतिलिपिकार इसे राजस्थानी भाषा की कृति मान कर चलते थे। से कृति की अधिकांश शब्दावली राजस्थानी भाषा की है । न्हाईया (११) प्रवालीयां (१२) बालीयां (१३) अल्यु (१७) कुमलाईया (१६) चंपाकेरी (२२) वीघा (२९) प्रादि शब्द एवं क्रिया पद समी राजस्थानी भाषा के हैं। पञ्च सहेली गीत एक लोकप्रिय कृति रही है। राजस्थान के कितने ही शास्त्र भण्डारों में इसकी प्रतियां संग्रहीत है । १. दि० जैन शास्त्र भण्डार मन्दिर ठोलियान – गुटका संख्या ६७ । २. भट्टारकी शास्त्र भण्डार अजमेर - गुटका संख्या १३८ । ३. शास्त्र भण्डार दि० जैन मन्दिर चौधरियों का मालपुरा (टोंक) -- गुटका संख्या ११ ।। ४, ममूप संस्कृत लाइब्रेरी केटलाग राजस्थानी सेक्सन न० ७८ छंद सं०६६ पत्र १९-२२ लिपि काल सं० १७१८ । नं. १४२ पृ० ७६-७७ । १. पूर पूर्व बजभाषा और उसका साहित्य-पृ० १७०-७१ । २. बही । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छीहल RE ६. प्रनूप संस्कृत लाइब्र ेरी के लाग राजस्थानी सेक्सम नं० २१७ - अन्त में संस्कृत श्लोक भी दिये हुए हैं ७. " . नं० ७७ पत्र सं० ६८ - १०२ लिपिकाल संवत् १७४६ । मूल्यांकन पञ्च सहेली गीत राजस्थानी भाषा को एक महत्वपूर्ण कृति है । इसमें श्रृंगार रस का बहुत ही सूक्ष्म तथा मार्मिक वर्णन हुआ है। वियोग श्रृंगार में विरहिणी नायिकाओं के अनुभावों का चित्रण उन्हीं के शब्दों में इतना संबेद्य और अनुभूतिपरक है कि कोई भी सहृदय विरह की इस दंशकारी वेदना से व्याकुल हुए बिना नहीं रहता। कवि ने उसमें वियोग तथा संयोग दोनों का ही चित्रण कर के साहित्य में एक नयी परम्परा को जन्म दिया है। उन्हीं पांचों स्त्रियों की संयोग में मनोभावों की दशा एकदम बदल जाती है। एक सम्बोलिन की मनोदशा वर्णन में तो कवि ने सब सीमाओं को लांघ दिया है। वास्तव में विरह में भर मिलन में यौवना स्त्री की क्या दशा रहती है कवि ने इसका बहुत ही सूक्ष्म हृदयग्राही वर्षान करके पाठकों की पाश्चयं चकित कर दिया है । भाषा एवं शैला दोनों दृष्टियों से भी पञ्च सहेली गीत एक उत्कृष्ट रचना है। राजस्थानी भाषा साहित्य में इस लघु काव्य को एक महत्त्वपूर्ण स्थान मिलना चाहिये । २. बावनी छीस कवि की यह दूसरी बड़ी रचना है जिसमें कवि ने कितने ही विषयों को छुआ है । प्रो० कृष्णनारायण प्रसाद 'मागध' के शब्दों मे बावनी में वरित नीति और उपदेश के विषय हैं तो प्राचीन पर प्रस्तुतीकरण की मौलिकता, प्रतिपादन की विशदता एवं दृष्टान्त चयन की सूक्ष्मता सर्वत्र विद्यमान है । कवि संस्कृत के सुभाषितों एवं नीतियों का ऋणी है । पर उनके अनुवादन अनुधावन मात्र नहीं है । 2 प्रस्तुत कृति भाषा एवं भाव दोनों के परिपाक का उत्तम उदाहरण है । यद्यपि नीत्ति और उपदेशात्मक विषयों का वर्णन बावनी का मुख्य विषय है फिर भी कवि कभी भी काव्य से दूर नहीं हुआ। उसने प्रपने विषय को नये ढंग एवं नये भावों के साथ अभिव्यक्त किया है १. सूर पूर्व ब्रजभाषा और उसका साहित्य - पृ० ३०७ १ २. मरुभारती वर्ष १५ अंक २० ६ 4 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि जैन विद्वानों ने बावनी संज्ञक काव्य लिखने में भारम्भ से ही रुचि दिखाई है। ये बाधनियां किसी एक विषय पर आधारित न होकर विषिष विषयों का वर्णन करती हैं। बावनी लिखने वाले कवियों में डूगरसी, बनारसीयास, जिनहर्ष, दयासागर, ब्र० मारणक, मतिशेखर, हेमराज आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। अन कवि न तो अपने पौराणिक कथानकों में ही बंधे रहे और न उन्होंने सामन्ती के चित्रण में जन सामान्य को मुलाया। जैन काव्य में विराग और कष्ट सहिष्णता पर बहत बल दिया गया है । यह भी सत्य है कि इस प्रकार सदाचरण के नीरस उपदेश काव्य को उचित महत्त्व नहीं देते किन्तु यह केवल एक पक्ष है। अपने अध्यात्म जीवन को महत्त्व देते हुए तथा पारलौकिक सुखों के लिए प्रति सचेष्टा दिखाते हुए भी बैन कवि उन लोगों को नहीं मुला सका जिनके बीच वह जन्म लेता है । उसके मन में अपने पास-पास के लोगों के सुखी जीवन के लिए भपूर्व सदिच्छा भरी हुई है । वह सृष्टि की सारी सम्पत्ति जनता के द्वार पर जुदा देना चाहता है।' बावनी का एक-एक छप्पय नीति के रत्न है जो अपनी प्रभा से उभासित प्रौर प्रकाशित हैं | कवि ने बड़ी सम्यता से मर्यादा, नीति और न्याय के पक्ष का समर्थन करते हुए पारियों और महाशिमों की हम भी है। अगल का स्वभाव प्रस्तुत किया है तथा उसमें मानव को अच्छे कार्य करने की प्रेरणा दी है। प्रस्तुत नावनी का हिन्दी की बावनियों में महत्त्वपूर्ण स्थान है। आचार्य शुक्ल ने यद्यपि इसमें ५२ दोहे होना लिखा है पर इसमें ५३ छप्पय छन्द हैं जो मोम से प्रारम्भ होकर नगराक्षर क्रम से निबद्ध हैं। कम निर्वाह के लिये ओ, को, क्ष, वणं छोड़ दिये गये हैं तथा ड, एवं न के स्थान पर न का तथा ऋ, ऋ, ल, ल, य, व, श, के स्थान पर क्रमशः रि, री, लि, ली, ज, भो, म, का प्रयोग किया गया है । कई अन्य कवियों द्वारा रचित बानियों में भी वर्णमाला का यह परिवर्तित रूप पछ क्रम के लिये प्रयुक्त हुन्मा है। बावनी के मारम्भिक पांच पदों में मादि अक्षरों के द्वारा ॐ नमः सिद्ध' बनता है जो कवि के जन होने का द्योतक है। बावनी का प्रथम पद्य मंगलाचरण के रूप में तथा अन्तिम पद्य में कवि ने बावनी का रचना काल एवं स्वयं का परिचय दिया है। इसके शेष छन्द नीति एवं अपदेश परक हैं । कवि ने बावनी में विषय का प्रथवा नोति एवं उपदेशों का कोई क्रम नहीं रखा है किन्तु जैसा भी उसे रुविकर प्रतीत हुमा उसी का वर्णन कर दिया । १. सूर पूर्व ब्रज भाषा और साहित्य-पृ० २८१ । २. मय भारती वर्ष १५ अंक-२ पृ०६ । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छोहल विषय प्रतिपादन प्रारम्भ में पांच इन्द्रियों के विषयों में यह जीव किस प्रकार उलझा रहता है और अपने मन को प्रस्थिर पर लेता है। हाथो स्पर्शन इन्द्री के वशीभूत होकर, हरिण श्रवण इन्द्री के कारण अपनी जान गंवा देता है। यही नहीं रसना इन्द्री के कारण मछलियर्या जाल में जाती हैं. भावनांग भी साल में फंसकर अपने जीवन का अन्त कर लेते हैं माद श्रवण धावन्त तजइ मृग प्राण ततष्षिण । इन्द्री परस गयन्द बास अलि मरह वियषण । रसना स्वाद विलग्गि मीन बझा देखन्ता । लोयण लुबुध पतंग पडह पावक पेषन्ता । मृग मीन भंवर कुजर पतंग, ए सब विणासह इक्क रसि । छोहल कह रे लोइया, इन्दी राखउ प्रष्प वन्ति ।।२।। कबि ने. समस्त जगत को स्वार्यमय बतलाया है। मनुष्य जगत् में आता है और कुछ जीवन के पश्चात् वापिस चला जाता है। यह सब उसी तरह है जैसे फलों से लदे वृक्ष पर पक्षी प्राकर बैठ जाते हैं और फल समाप्त होने तथा पत्ते भड़ने पर सब उड़ जाते हैं । उसी तरह मनुष्य जगत् से स्वार्थ के लिए प्रथवा धन के लिए मित्रता बांयसा है और वे मिल जाने के पश्चात उसे वह मुला बैठता है। छाया तरुवर पिष्धि प्राइ, वह बस विहंगम । जब लगि फल सम्पन्न रहे, तब लगि इक संगम । बिहवसि परि अवघ्य, पत्त फल झरै निरन्तर । खिरण इक तथ्य न रहा, र्जाहि जडि दूर दिसतर । छोहल कहे दुम पंखि जिम महि मित्र तणु दव लगि । पर फज्ज न कोक वल्ल हो, अप्प सुधारष सयल जगि ।।२६|| मनुष्य को थोड़े-थोड़े ही सही लेकिन कुछ अच्छे कार्य करने चाहिए । दूसरों के हित के लिए विनयपूर्वक घन दिन भर देते रहना चाहिए अर्थात् भलाई एवं दान के लिए कोई समय निश्चित नहीं होता। कवि कहता है कि जब तक शरीर में स्वास है तब तक अपने ही हाथों से अपनी सम्पत्ति का उपयोग कर लेना चाहिए क्योंकि मरने के पश्चात् वह उसके लिए वेकार है। कवि ने बीसल राजा को उपमा यी है जो १९ करोड़ का धन जोड़ कर छोड़ गया और इसका जीवन पर्यन्त भोग और दान किसी में भी उपयोग नहीं किया। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ कविवर बूजराज एवं उनके समकालीन कवि यौरो थौरो माहि, समय कछु मुकृति कीजइ । विनय सहित करि हित्त, वित्त सारं दिन दीजए । जब लगि सांस सरीर मुट विल सहु निज हत्यहि । मुवा पर्छ लंपटी, लच्छी लग्गै नहिं सत्यहि । छीहल कहद वीसल नृपति संचि कोडि उगणीस दख्ख । लाहौ न लियो भोगवि, करि अंतकाल गौ छोडि सत्र ।।३६ मनुष्य जीवन भर भविष्य की कल्पना करता रहता है और मृत्यु की ओर जरा भी सचेत नहीं रहता लेकिन जब मृत्यु पाती है तो उसकी सब आशाएँ धरी की धरी रह जाती हैं और वह कुछ भी नहीं कर सकता। जिस प्रकार मधुकर कमल पुष्प में बन्द होने के पश्चात् सुखद प्रातःकाल की कल्पना करता है लेकिन उसे यह पता नहीं कि उसके पूर्व ही कोई हाथी माकर उसकी जीवन लीला समाप्त कर सकता है इसलिए भविष्य की प्राशामों की कल्पना छोड़कर वर्तमान में अच्छे कार्य कर लेना चाहिए भ्रमर इक्क निसि भ्रम, परी पंकज के संपुटि । मन महि मंद प्रास, रयरिग खिण मांहि जाइ बदि । करि हैं जलज विकास, सूर परभाति उदय जब । मधुकर मन चितव, मुक्त हैव हैं बन्धन तब । छीहल द्विरद ताही समय, सर संपत्तउ दस बसि । अलि कमल पत्र पुरिण सहित, निमिय माहि सो गयो ग्रसि ।।४३।। इस प्रकार पूरी बावनी सुभाषितों एवं उपदेशात्मक पद्यों से भरी पड़ी है। उसका प्रत्येक पद्य स्मरणीय है तथा मानव को विपत्ति से बना कर सुकृत की ओर लगाने वाला है। सभी सुभाषित सम्प्रदाय भावनाओं से दूर फिन्तु मानवता तथा विश्व मेवा का पाठ पढ़ाने वाले हैं। मानब को राग, द्वेष, काम, क्रोध, मान एवं माया के चक्कर से बचाने वाले हैं। यही नहीं जगत का वास्तविक स्वरूप को भी प्रस्तुत करने वाले हैं। कवि ने इन पद्यो में अधिक से अधिक भावों को भरने का प्रयास किया है। इसलिए कवि को प्रस्तुत बावनी हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा की सुन्दरतम कृतियों में से है। भाषा भाषा की दृष्टि से बावनी राजस्थानी भाषा की कृति है। इसमें अपम्रश शब्दों की जो भरमार है वे इसके राजस्थानी रूप को ही व्यक्त करने वाले हैं । डा शिवप्रसाद सिंह ने बावनी को अजभाषा के विकास की कड़ी के रूप में माना है Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छीहल जो सूरदास के ब्रजभाषा का परिवर्ती रूप है लेकिन बावनी में व्रज का हो नहीं अपभ्रंश एवं राजस्थानी का भी परिस्कृत रूप देखा जा सकता है । रचना काल श्रीहन क गल गज्जि करि, जो जल उहरिदेइ धन । चातक नौर ते परि पिये, ना तो पियासो तर्ज तन ||३४|| बावनी की रचना संवत् १५८४ I सर कार्तिक सुदी प्रष्टमी गुरुवार के दिन सम्पन्न हुई थी । कवि ने अपने श्री गुरु का नाम लेकर रचना प्रारम्भ की थी मोर की कृपा से उसकी यह रचना सानन्द समाप्त हुई थी । चंद्ररासी अगला सड़ जु पनरह् समच्छर । सुकुल पष्मास कार्ति गुरुस ! हृदय उपनी बुद्धि नाम श्री गुरु को लीन्हो | सारद व पसाद कवित सपूरण कीन्हो । कवि का परिचय पुत्र था । कहलाता था बाबनी के अन्तिम पद्य में कवि ने अपना परिचय दिया है। वह नाथू का अग्रवाल जैन जाति में उत्पन्न हुआ था तथा उसका वंश नाहिंग । ११३ नासिसि नाथू सुतनु अगरवाल कुल प्रगट रहि । बावन्नी वसुषा विस्तरी, कवि कंकरण छीहरुल कवि ||५३ ।। बावनी अपने समय में लोकप्रिय कृति रही है तथा उसका संग्रह गुटकों में मिलता है जिससे पता चलता है कि पाठक इसे चाद से पढ़ा करते थे। अब तक राजस्थान के जैन ग्रंथागारों में बावनी की निम्न पाण्डुलिपियो उपलब्ध हो चुकी हैं१. शास्त्र भण्डार दि० जैन मन्दिर गुटका संख्या १४० लेखन काल सं० १७१६ (इसमें २२ से ५३ तक के पद्य है) लूणकरणजी पांडे, जयपुर २. शास्त्र भण्डार दि० जैन मन्दिर होलियान ३. भट्टारकीय शास्त्र भण्डार अजमेर गुटका संख्या ३५ (इसमें ५३ पद्म है) ४. उक्त कृतियों के अतिरिक्त, अनूप संस्कृत लायब्रेरी बीकानेर तथा अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर में भी बावनियों की पाण्डुलिपियां मिलती हैं ।' १. सूर पूर्व ब्रज भाषा और उसका साहित्य ० ३७७ ॥ गुटका संख्या १२५ (इसमें ५० पद्म हैं। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ कविवर बूधराज एवं उनके समकालीन कवि इस प्रकार बावनी राजस्थानी भाषा की एक उत्कृष्ट रचना है जिसको पाण्डुलिपियो राजस्थान के और भी भण्डारों में उपलब्ध हो सकती हैं। वैराग्य गीत मानव को जीवन में अच्छे कार्य करने के लिए प्रेरणा स्वरूप है । बचपन, यौवन एवं वृद्धावस्था तीनों ही ऐसे ही निकल जाते हैं पोर जर मृत्यु पाती है तो यह मनुष्य हाय मलने लगता है इसलिए अच्छे कार्य तो जितना जल्दी हो कर लेना चाहिए । यही गीत का सार है जिसको कहने के लिए कवि ने प्रस्तुत गीत निबद्ध किया है। उदर गीत में कवि कहता है कि सारा जीवन यदि उदर पूर्ति में होमलतीत कर दिया और अगले जन्म के लिए कुछ नहीं किया तो यह मनुष्य जीवन धारण करना ही व्यर्थं जावेगा । कवि की भावना है कि प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में ऐसा कोई सुकृत कार्य प्रवश्य करले जिससे उसका भावी जीवन भी सुधर जाये । इस प्रकार छोहल कवि की कृत्तियां राजस्थानी काव्यों में उल्लेखनीय कृतियो है। सभी कृतियां जन कल्याण की भावना से लिखी हुई हैं। इनमें शिक्षा है, उपदेश है, नीति और धर्म का पुट है तथा लौकिक एवं माध्यात्मिक दोनों की कहानी प्रस्तुत की गयी है। 000 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. पद सहेली गीत मगर वर्णन देखा नगर सुहायणा, अधिक सुचंगा थान | नाउ चगेरी परगट, जन सुर लोक सुजान ।।१।। ट्ठाइ मिदिर सत खिने, सो नइ लिहिया लेहु । . छोहल तन की उपमा कहत न आवइ छेहउ ।।२।। ट्ठाइ हाइ सरवर पेखीया, सू सर भरे निवाण । हाइ कूवा बावरी, सोहइ फटक समान ॥३॥ पबन छतीसी तिहां बसाइ, अप्ति चतुराई लोक ।। गुम विद्या रस पागला, जानइ परिमल लोग ।।४।। तिहा ठइ नारी पेखीयइ, रंभा केड निहारि । रूप कंत ते आगली, प्रबर नहीं संसार ॥५। पहरि सभाया प्राभरण, पर दस्यण के चीर ।। बहुत सहेली साथि मिलि, पाई सरवर तीर ।।६।। चीचा चंदन थाल भरि, परिमल पहप प्रनंत । खंड बीडी पान की, खेलहु सखी बसंत ।।७।। केइ गावइ मधुर धुनि, केइ देवहि रास । केइ हीडोलइ होडती, इह चिघि करइ विलास ।।८।। तिन मोह पंच सहेलियो, नाचइ मावहि ना हसइ । ना मुखि बोलइ बोल""""" """""||६|| नयनह काजल ना दीउ, ना गलि पहिन्दी हार । मुन्न तंबोल न खाईया, ना कछु कीया सिंगार ||१०॥ रूले केस ना म्हाईया, महले कप्पड तास । बिलखी बाइसी उनमनी, लबि लेहि उसास ॥११॥ सूके महर प्रणाली यां, अति कुमलाणा मुख । तउ मई बूझी जाइ कह, तुम्ह काहउ फेतउ दुख ॥१२।। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ कविवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि दीसय योवन बालिया, रूप दीपती देह | मोस कहउ विचार, जाति तुम्हरी केह ॥१३॥ तर कमि सच प्राखीया, मीठा बोल प्रवार | ना वह मारी जाति की छील्स सुनहु विचार ।। १४ । मालन श्रर तंबोलनी, श्रीजी छीपनि नारि । चरबी जाति कलालनी, पंचमी सुनारि ।। १५ ।। माति कही हम तम्ह सउ, अब सुनि दुख हमार | तुम्ह तउ सुगना आदमी, महउ विराणी सार ।। १६७ मालिन की विरह व्यथा- पहिली बोली मालनी, बाइयोन छंडि कइ निस दिन बहर पवालज्यु, विरहउ माली दुक्ख का कमल बदन कुमलाईया, वा पीया र एक पिन, मुहं कु दुख अनंत | चल्यु दिसाउरि कंत ॥ १७॥ तन तरवर फल लग्गीया, दुइ नारिंग रस पूरि । सूकन लागा विरह फल, सींचन हारा दूरि ||२०|| नयन नीर अपार । सुभर भरा किनार ।। १८ ।। सूकी सूख वनराई | वरस बरावरि जाइ ॥ १९ ॥ मन बाड़ी गुण फूलडा, प्रीय नित लेता बास । स ह यानकि रात दिन, पीइ विरह उदास ॥२१॥ चंपा के पंखडी, गुध्या नव सर हार ज हु पहिरज पीच विन लाइ अंग प्रगार ॥२२॥ तम्बोलिन की विरह व्यथा मालनि अपना दुःख का विवरा कला विश्वार सब तू वेदन अपनी काखि तंबोलन नार ||२३|| · जी कहइ तंबोलनी, सुनि चतुराई बात । विरहइ मार्या पीव विन, चोली भीहरि गात ॥२४॥ हाथ मरोरख सिर बन्यु, किस स कह पोकार । जती राहा बालहा, करइ न हम विस भार ।। २५।। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच सहेली गीत पान झढे सब रूख के, वेल गई तनि सुस्कि। भरि रति बसंत की, यया पीयरा मुनिक ॥२६॥ हीयरा भीतर पदसि करि, विरह लमाई आगि । प्रीय पानी विनि ना बूझवइ, बलीसि सबली लापी ॥२७॥ तन बाली विरहउ दहइ, परीया दुक्ख असेसि । ए दिन दुरि क भरइ, छाया प्रीय परदेसि ॥२८॥ जब यी बालम बीछुड्या, नाठा सरिवरि सुख । छोहल मो तन विरह का, नित्त नवेला दुख ।।२।। कहउ संबोलनि माप दुक्ख, अव कहि छीपन एह । पीव पलंतह तुझसङ, विरहइ कीया छेह ॥३०॥ छीपन का विरह पराम श्रीजी छीपनि आखीया, भरि दुछ लोचन नीर । दूजा कोइ न जानही, मेरा जीय की पीर ।।३१।। तन कपहा दुक्ख कतरनी, दरी बिरहा एह । पूरा व्योत न ब्योतइ दिन दिन काट देह ॥३१॥ दुक्ख का तागा बाटीमा, सार सुई कर लेछ । चीनजि बंधइ प्रवि काम करि, नान्हा वस्नीया देइ ॥३३॥ विइहए गोरी प्रतिदही, देह मजीठ सुरंग । रस लोया प्रबटाइ कई, बाकस कीया अंग ॥३४॥ माड मरोरी निघोरि कइ, खार दिया दुस्न अंति । पह हमारे जीव कहुँ, मइ न करी इहु न ति ॥३५॥ सूख नाठा दुख संचरघा, देही करि दहि कार । विरहाइ कीया कंत दनि, इम अम्ह सु उपमार ।। ३६।। कलालिन का विरह छीपनि कहया विचार करि, प्रपना सुख दुख रोइ । प्रबाह कलालनि भाखि तु', विरह पाई सोइ ।।३।। चउयी दुख सरीर का, लागी कहन कलालि । हीपरह श्रीयका प्रेम की, नित खटूकइ भालि ॥३८।। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ कविवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि भोतन साठी ज्यु तप विनही अवगुन मुझ सु # देखिइ केली तर वर्ष, बालंभ उलटा हु रह्या, परउप नयन कुबइ मद चारि । कस कर रह्या भरतार ||३६|| इस विद के कारणइ धन बहु दारू कीय चित्त का चेतन द्वाहत्या, गया पीपरा लेय जीव ॥४१॥ विरह लगाई माता योवन फाग रिति, परम पीयारा दूरि । रलीन पूरी जीयकी, मरउ विसूरि विसूरि ॥४२॥ सुनारिन की व्यथा - छारी खाद ||४०|| हीरा भीतर र रहु, कम वर्गेश सोस । बहरी हुआ बालहा, विहरद किसका दोस ||४३|| मोस ब्युरा विरह का कला कलालन नारि । दुख सरीर मह, सो तु धाखि सुनारि ॥ ४४ ॥ इहु होया अंगीट्टी मूसि जिय, कोयला कीया देह का टंका कलिया दुख का मासा मांसा न भूकीया, कहर सुनारी पंचमी, अंग अपना दाह हू त बुडी विरह मद, पाउ नाही पाहू ||४५॥ मदन सुतार मभंग । मिल्या सवेइ सुहाग १४६ || रेती न देइ बीर । सोध्या सब सरीर ॥४७॥ विहरह रूप बुराइया, सूना हुभ्रा मुझ जीव । किस हइ पुकारू जाइ कह, अब घरि नाहीं पीव ॥४८॥ तन तोले कंटज घरी देखी किस किस जाइ । 1. विरा कुंड सुनार ज्यूड, घडी फिराय पिराइ ॥ ४६ ॥ खोटी वेदन विरह को, मेरो हीयरो माहि । निसि दिन काथा कलमलद, नो सुख धूपनि छह ॥५०॥१ छील वयरी विरह की घडी न पाया सुख हम पंच तुम्हें सउ का अपना अपना दुख ||५१३ 1 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच सहेली गीत कहि करि पंचउ पखीयो, अपने दुख का छह 1 बाहुरि यइ दूजी मिली, जबह धडूक्या मेह ।।५।। मुई नीली धन पूवरि, गनिहि चमकी बीज। बहुत सखी के झूड मई, खेलन प्राइ तीज ।।५।। विहसी गावइ हि रहिस, कीया सह संगार । तब उन पंघ सहेलीयां, पूछी दूजी वार ॥५४॥ छोहल का पांचों स्त्रियों से पुनर्मिलन मई तुम्ह प्रामन दूमनी, देखी थी उतबार । प्रब हु देख्नु विहसती, मोस कहउ विचार ||५५11 छीहल हम तर तुम्ह स', कहती हइ सत्तभाइ ! सांई प्राया रहससु, ए दिन सुख माहि जाइ ॥५६।।। गया वसंत वियोग मइ, पर धुप काला मास । पावस रिति पीय मावीया, पूगी मन की प्रास ।।५७।। मालनि का मुख फूल ज्यउं, बढ़त विगास करेइ । प्रेम सहित गुजार करि, पीय मधुकर सलेइ ।।५८।। चोली खोल तंबोलनी, काठ्या मात्र अपार । रंग कीया बहु प्रीयसु, नयन मिलाई सार १५६।। छीपनि कर वधाईयां, जउ सब प्राए दिनु । प्रति रंगिराती प्रीयसु, ज्यउ कापड मजीठ ।।६।। योवन बाला लटकती, रसि कसि भरी कलालि । हसि हसि लागइ प्रीय गलि, करि करि बहुतो प्रालि ।।६१।। मालनि तिलक दीपाईया, कीया सिंगार अनूप । पाया पीय सुनारि का, चढ्या पवगणा रूप ॥६२।। पी माया सुख संपज्या, पूगी सबह जगोस । तब वह पंचइ कामिनी, लागी दयन असीस ।।१३।। हुउ वारी तेरे बोलफु', जहि वरणवी सुदाइ । छीहल हम जग माहि रही, रह्या हमारा नाव ॥६४।। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.४० कवियर बुबराज एवं उनके समकालीन कवि afte मंदिर धन्न दिन, घनस पावस एह धन्न वल्लभ परि आईया, धनस चुद्रा मेह ||६५ || निल दिन जाइ आनंद म, विलसह बहु विध भोग | छोहल्ल पंचइ कामिनी आई पीय संजोग ||६६ ॥ मोठे मन के भावते, कीया सरस वखाण | अण जाण्या मूरिख हसर, रोझइ चतुरसुजाण ॥ ६७ ॥ संवत् पर पचह्नुत्तरह, निम फागुण मास । पंच सहेली वरणदी, कवि छीद्दल्ल परमास ।।६८६ ॥ इति पंच सहेली गीत सम्पूर्ण ॥ लिख्यतं परोपकाराय || श्री रस्तु ॥ 00 गुटका संख्या ६६ । पत्र संख्या ११-१२ । शास्त्र भण्डार दि० जैन मन्दिर लूणकरणजी पांडे, जयपुर । N Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. बावनी ओंकार प्राकार रहित प्रविगति अपरस्पर अलख पजोनी संभ, सृष्टिकरता विश्वम्भर । वट घट अन्तर वस, तासु चीन्हरु नहि कोई । जल यति सुरगि पर्याालि, जिहां देखो तिहुँ सोई । जोगिन्द सिद्ध मुनिवर जिके, प्रबल महातप सयो । छीहल्ल कह भस पुरुष को, किण ही अन्त न लद्धयरे ॥१॥ नाद श्रवण घ्यावन्त, तजइ मृग प्राण ततविण । इन्द्री परस गयन्द वास अलि मरह विचष्षण । रसना स्त्राव बिलग्गि, मीन as देषम्या | सोमण लुबुध पतंग, पहड़ पावक पेषन्ता । मृग मीन मंबर कुंजर पतंग, ए सब विणसर इक्क रसि । छील कर रे लोइया, इन्दी राय अप वसि ||२|| मृग बन मज्झि चरति डरिउ पारधी पिक्खि तिहि । जब पाछिउ पुनि चल्यो, वधिक रोपिय फंद तिहि । दिसि दाहिणी सु स्वान सिंह ज्यु सनमुष धावै । वाम प्रगति परजलिय, तासु मय जाग न पावें । छीहल्ल गमण ' दिसि नहीं, चित चिंता चित हरण । हा हा देव संकट परयौ, तुझ बिन प्रवर न को सरण ||३|| } सबल पवन उतपन्न, भगिनि उडि कंद दहे सन । ततषिण धन बरसंत तेज दावानल गौ तब । दिसि दाहिणी जु स्वान, पेषि जंबुक को घाउ | जब जान्यो मृत जात, चित्त पारधी रिसायज । तारांत धनुष गुरण तुट्टिगो, दिसि च्यारउ मुगती भई । छोहल न को मारवि सके, जिहि रषण हारा दई || ४ || १. अमचिन्त २. खाए Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूच राज एवं उनके समकालीन कवि धन्य ति नर सलाहिजे, जे हि परकज्जु संवारण । भीर सहै तन झापु, सामि संकट्ट उवारण । कंधो घर कुल मज्झि, समा सिंगार सुलवत्रण । विनयवंत बड-चित्त, अवनि उपगार विचष्षण । माचार सहित प्रति हित्त सौ, धरम नेम पाल धणो । पर तहणि पेडिष लीहल कहै, सोल न घडइ प्रापणौ ।।५।। प्रयनि भमर महि कोई, सिख साधक अरु मुनिवर । गण गंधर्व मनुष्य, जिष्य किन्नर मसुरासुर । पन्नग पावक उदधि, भार तरुवर प्रष्टादस । ध्रुव नषित्र ससि सुर, नन्त सब वर्षे काल बस । प्रस्ताव पिडित रे नर चतुर, तां लगि कीजद कंच कर । तिहु मुवन मज्झि छोहल कहा, सदा एक कीरति प्रमर ॥६॥ प्रावति जाचक पेखि, द्वार सम घेहु मूह नर 1 मिष्ट वयण बुल्लियाई, विनय कोजइ बहु प्रादर । दिन दस अवसर पेखि, वित्त विलसिय सुजस लगि । षिण रीती षिरण भरी, रहिटी घटी सारिस लगि । चिरकाल दसा निहचल नहीं, जिमि ऊगई तिमि आथमण । पलटिय दसा छी हल कहा, बहुरी बात पुच्छे कवण ।।७।। इन्दी पंघिय प्रध्यि, सकति जब लगि घट निर्मल । जरा जंजीरी दुरि, घोण न हुने पायुबल । तज लगि भल पण, दान-पुण्य करि ले बिचष्षण । जब जम पहुँचद प्राइ, सबै भूलिहा ततष्षिण । टीहल कहइ पाबक प्रवल, जिमि घर पुर पट्टण सहइ । तिणि काल कूप जो सुद्दियइ, सो उद्यम किमि निरवहा ।।८।। ईस ललाटई मझि, मेह कीयो सु निरन्तर । चहु दिसि सुरसरि सहित, वास तसु कीजइ अन्तर । १. आधार २. ध्र मब प्रह ३. संपति बार बार Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावनी १४३ पावक प्रवल समीपि, रहइ रखवाल रयरिए दिन । प्रतिहार विसहर बलिष्ट, सोवइ नहि इकु छिन । अति जतन छीहल कहै, हर मस्तक हिमकर रहा । पूर्व लेख चूक नहीं, तऊ राहु ससि को ग्रहइ ।।६।। उदरि मजिम यस मासु, पिड पाइय- बहुत दुख । उर्घ होइ दुइ चरण, रमणि दिन रहद प्रधोमुख । गरम अवस्था अधिक जाणि. चिंता चित चित्त । जो छुटो इहि बार, बहुरि करही निज सूकुत । बोलइ जु बोल संकट पहइ, बहुरि जन्म जग महिं भयो । लागी जु बाउ छोहत जिन: सर्व मृद बीस र सयौ । ऊसरि फागुष मास, मेह बरसइ घोरकरि । विधवा पतिव्रत तमो, रूप जोबण आनन परि । कवियण गुण विस्तार, नपति अविवेकी भागे । सुपनन्तर की लच्छि, हाथ प्राव नहि जागे । करवाल कृपण कायर करह, सुग्न गेह दीपक ज्यु' । कवि छोहल पकारम एह सव, विनय जु कीज्ये नीच स्यु ।।११।। रितु ग्रीषम रवि किरण, प्रबल प्रांग इ निरन्तर । पावक सलिल समूह, पथर झिल्लर धारा घर । सीतकाल सीतल तुषार, दूरन्तर टाल्यउ । पत्त सही दुखत्य, अधिक मित्तप्पण पाल्यउ । रे रे पलास छोहल कहे, कि कि जीवन तुझ तयो । फुल्लयो पत्त अब मूढ लजि, ए मजुत्त कोधौ धौ ।।१२।। रीति होइ सो भर, भरी खिण इक व ढालं । राई मेर समाणि, मेर जड सहित उचाले । उदधि सोषि धल कर, यहि जल पूरि रहै अति । भूपति मंगावइ भीख, रंक कू थप छत्रपति । सब विधि समर्थ भजन घडन, कवि घोहम इमि उच्चरं । इक निमिष माहि करसा, पुरुष करण पर सोई करै ।।१।। १. देखिये २. सुनि मेह दीपक ज्यु Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवियर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि लिषा तपाइ परमाणि, राम लवण बनवासी । सीय निसाघर हरी, भई द्रोपदि पुनि बासी । कुती सुन वैराट गेह, सेवक होइ रहिया । नीर भयो हरिचंद, नीच घर बह दुख सहिया । प्रापदा पनी परिग्रह तजि, भ्रमे इकेलउ नृपति नल। छोहल कहह सुर नर असुर, कर्म रेष न्यापर सकल ॥१४॥ लीन्ह कुदाली हत्थ प्रथम, पोदिया रोस करि । करि रातम आस्व, घालि पाणियर गूरण भरि । देकरि लत्त प्रहार, मूल गहि चक्क चढायो । girineerfex.fii. R पर यधिक मुकायो । दोन्हीं जु अगिनि छी हल कहइ, कुभ कहा हां सहित' सब । पर तहरिण भाइ टकराहणो, ए दुख सालाइ मोहि अब ॥१५॥ ए जु पयोहर जुगल, अनस उरि मजिक चपना। प्रति उन्नत भति कठिन, कनक घट जेम रवत्रा । कहिं छील षिण इनक, दृष्टि देषतां चतुर नर । परणि पडइ मुरझाइ, पोर उपजत चित अन्तर । विधना विचित्र विधि चित्त करि, ता लगि कोन्हउ कृष्णमुख । होय श्याम बदन तिह नर तणो, जो पर हृदय देइ दुख ॥१६॥ ए ए तू मराज, न्याइ गरुवत्तण तेरो । प्रथम विहंगम लच्छ, आज तह लीयो बसेरी। फल भुज रस पिमे, अदर संतोषइ काया । दुष्प सहै तन अप्प, करछ अबरन कूछाया । उपकार लग छीद्दल कहइ, धनि धनि तू तरुवर सुयण । संचइ जिमि संपह उदधि पर, कज्जि न प्रावै से कृपण ।।१७।। अमृत जिमि सुरसाल, चवति धुनि वदन सुहाई। पंषिन मंहि परसिद्ध, लहैं सो अधिक बड़ाई । अब वृक्ष मंहि बसर, ग्रसइ निमल फल सोई । ये गुण कोकिल अंग, पेषि बंदहि नहिं कोई । १. भन्य। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावनी १४५ पापिष्ट नीच जन सुती, करम सदा ऋमि मल मुगति । छोहल्ल ताहि पूजह जगत, करम तरखी विपरीत गति ।।१८|| महनिस मज्छ मल्छ, कमछ जस मजिम रहे नित। मौन सहित बफ धन, रहे लवलीन इक्क चित । कदर गुफा निवास, भसम मानहो चढावइ । पवन महारी सर्प, मंग माबरी मुडावह । इनि मांहि कहउ किण पद लह्यो, कहा जोग साँचै जुगति । छोहल कहे निष्फल सबै, भाव बिना न हुबै मुगति ।।१६।। कबहू सिर परि छत्र, चयि सुरुषासन धावइ । कबहू केलो भ्रम, पाइ पाणही न पावइ । कबहिं पठारह भष्ष, कर भोजन मन बचित । कहि न षलु संपजइ, पुधा पीडित कलप षिस । लभ न कबहू तृण सध्यारो, कहि रमइ तिय भाव रसि । बहु भाइ छंद छीहल कहर, नर चित नस्पद देव बसी ॥२०॥ खतिय रणि मज्जनो, विप्प माचार विहीणौ । तपीये जीति का अंगि, रहै चित लालच क्षीणो। तीय जु मति निलंज्ज, लज्ज तजि घरि घरि डोला । सभा मांहि मुषि देखि, साषि जउ कूड़ी बोलइ । सबक स्वामी द्रोह करि, संग रहइ न इक षिण । छीहल कहइ सो परिहरि, नृपति होइ बिवेक बिण ।।२१।। गरब न कर गुणहीन, प्ररे कंचन के गिरवर । तो समीपि पाषाण, पथ्थि सरुवर ते तरुवर । किये न अप्प पमान, वृषा गुरुवत्तए तेरउ । मलयाचस सलहिज, सुजस तस संगति केरउ । कटु तिक्त कुटिल परिमल रहित, तरू अनंत चे बन भया । श्री पंड संगि छीहल कहइ, ते समस्त चंदन भया ।।२२।। घरी घरी नप द्वार, एह घडियाल बज्ज । कहै पुकारि पुकारि, माउ षिणही लिए छौज्ज । १. गहि Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि संपत्ति ‘सांस सरीर, सदा नर नाहीं निसचल । पुराण पत्र पंतत खुद जल लव जिमि चंचल । इमि जानि जगत जातो, सकल चित चेती रे मूड नर । कवर जु तो छोहल कहर. दीजिए दाहिण उच्चकर ।।२३।। ग्यान जप्त सूकूलीण, पुरुष जो हो धनहीनां । विषम अवस्था पाइ, वयप नहीं भाष दीनां । नीच करम नहिं करइ, रोरु जो अधिक सतावइ 1 वरि मरिजो अंग दे, निमिष सो नाक न नावइ । छीहल कहै मृगपति सदा, - मृग प्रामिष्ष भषन करें | जो बहुत विवस संपण परे, तऊ न केहरि तृण वरं ॥२४॥ चत मास बनराइ, फलाह फुल्लहि तस्वर सहि । तो क्यों दोस बसन्त, पत्त होवद करीर नहु । दिवस उलूक ज्यु अंध, ततो रवि को नहिं अवगुण । चातक नीर न लहह, नस्थि दूषण बरसत पण । दुष सुष दईव जो निर्मयो, लिषि ललाटा सोइ सहइ । विषमाद न करि रे मूळ नर, कम बोष छीहल कहा ॥२५॥ छाया तरुवर पिष्पि, आइ वह दसै विहंगम । जब नगि फल सम्पन्न, रहैं तब लगि इक संगम । विहवसि परि अवध्य, पत्त फल झर निरन्तर । षिण इक तथ्य न रहइ, जांहि उडि दूर दिसंतर। छोहल कहै द्रम पंषि जिम, महि मित्त तण भव्य लगि । पर कज्ज न कोऊ वल्ल हो, मप सुवारय सयल जगि ।।२६।। जलज बीज जल मज्झि, तरूणि सप्पसि किहि कारण। मो मन इच्छा एह, अमरवल्ली विस्तारए । सु'दरि इहि संसार, किया कोइ किरत न जाणइ । जे गुण लषउ करोरि, सुतौ अवगुण करि मानद । प्रबला प्रयानि इक सिष सुनि, जो फुल्ल उल्लास भरी। छीहल कहे एक कमल, तब करि है तुम वदन सरि ॥२७॥ १. ता किम २. वरणतरपिसि Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '] बावनी मी लंक पदमिणी, सेजि नहीं रमी सुरति रस अरियण सिवर धार, त्रास कीन्हे न अप्प बस ! सृज्जरा फ़ज्ज संसार दब्ब दोनों न सुपत्तह बोरे पण चहत, चाव पिष्षियों न चित्तह । कर्यो न सुकृत के करम मन, कलि अवसर छोहल्ल भनि । उद्यान afree fafe मालती, तिमि नर जनम प्रविधि गिनि ||३६|| निरमल चित्त पविप्त, सदा अच्छे उत्तम मति । जो उच्च बसइ कुठाइ, तासु नहि भिदे कुसंगति । तिह समीप सठ बहुत, मिलिब जो करइ कुलच्छण । सुभ सुभाव आपणो तक मुक्कड़ न विजच्छण । श्रीखंड संग जिम रयरिण दिन, अहि प्रसंधि बेयौ रहे । तषि सुबास सीतल मलय, विष न होय छील कहै ||२६|| टले न पुब्ब निबद्ध, मित्त मत दीनौ भवे । जब आयु घटे, पिनक तब कोइ न रा । विनय न करि धनकाज, मूढ जन जन के मार्ग | गुरूवत्तन मम हारि, लोभ लिषमी कै लागे । आवं अक्सर मनपार थी, जेम मीचु तिम जानि धन 1 खीहल्ल कहे द्रिढ संग्रहो, मान न मुक्कों निज रतन ||३०|| ठाकुर मित्त जु जाणि मूढ हरषद जे चित्त । निज तिय तगड विसास, करइ जिय महि जे मित्तह । सरप सुनार रू पारस रस के प्रीति लगाबहि | वेस्या अपणी आणि डयल के छन्द उछाह बिरवंत बार इन कहूं नहीं, मूरिख़ नर जे रूचिया | छोहल्ला कहर संसार मंहि ते नर अति विचिया ॥ ३१ ॥ डरइ दादुर सद्द, बांह घाले केहरि गलि । ase कुंड नीर तिरे नद जाइ अर्थामि जल । मरइ फूल के भार, सीस धरि पर्वत ढाल | कंपई कंदरि देखि, पकरि धरि कु जर राल | १४७ सदरी देखि संसदा, विषहर को बल वद ग्रहइ । छीहल सुकवि जंप दया, तिरिय चरित्र को नदि लहद्द ||३२|| Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४5 कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि दोलि कुभ जे प्रमी, सोद पूरंति सुरा जसि । कसतूरी परिहरइ, नोच संग्रहइ कधू पलि । कंचरण पीतलि तणो, जहाँ कोइ भेद न जाण । तरूवर अंब उपारि, अरंड रोपे तिहि पाएँ । गुण छोडि निगुण जड़ मानिये, जस तजि अपजस संचिर्य । सो थान सुकवि छीहल कहै, दूरन्तर ही बंचिये ।।३३।। पिसि वासर जिय आस, बस उन बदन केरी । चंचु न बोरइ प्रवर, ठांउ नदि तिथ्य घनेरी । आदर विण घर सलिल, पिष्षि परिहर इ ततच्छण । सरवर निर्भर कूध, सीस नाव न विचच्छरण । धीहल्ल कहा गल गज्मि करि, जो जल उहरि देइ धन । चातक नीर ते परि पिय, न तो पियासौ तजे तन ॥३४॥ तरू की फुहर्कत, कार ऊंची मदहो। कोमल फल सजि मूह, जाइ नालेर बट्टो । छुधा प्रबल तनि भइ, ससन कंह ठुकज दिन्नी । प्रासा भद निरास, चंचु विधना हर लिन्नी । मति होए पंषि छहल कहइ, सिर धुनि रोवह भरि नयण । सुक जेम सु नर पछिताद हैं, जे होइहि संतोष बिरण ॥३५॥ थौरी थौरो माहि, समय कछु सुकुति कीजइ । विनय सहित करि हित्त, वित्त सारं दिन दीजह । जब लगि ससि सरीर, सुद चिलसह निज हस्थहि । मुवा पढ़ लंपटी, लस्छि लग नहिं सत्यहि । छोहल कहइ वीसल नृपति, संचि कोडि उगणीस दश्च । लाहो न लियो भोगब्बि करि, अंतकाल गो शांडि सम्व ॥३६।। दरखु गाडि जिन परहि, धरो किछु काम न आषद । दिलसि न लाहो लेइ, सु तो पाछे पछलावइ । नर नरिंद नर मुनि, संचि संपइ जे मूवा । ते वसुधा मैं बहुरि, जनमि सुकर के हूवा । धमकाज अधोमुष दसन सिउ, घरणि विदारहि रमणि दिन । छोहल्ल कहा सोचत फिर, कहून पावहिं पुण्य विण ।।३७।। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावनी १४६ ललाटहि मनायो. तुम्मद वात पिसार । सो न मिट सुनि मूढ झंप दीजइ रयणायर । रचि करि कोडि उपाय, सकल संसारहि बाबइ। पौरुष जाणि विनाणि किय कछु पधिक न पावह । छोहल्ल कहै जहं जहं फिरइ कर्म बंध तह तह लहै । पिष्षौ यह कूध समुद्र महं घट प्रमाणि जल संग्रहै ।।३।। नीच सरिस नहीं प्रीति, बैर कीजहन प्रबस करि । मध्य भाई माझिय, संग छांडिय दूरंतरि । हित प्रथवा प्रनहित, चित पितकै बुरि मति । निसचय सुख की हानि, दुष्ष उपज पहूं गति । छोहल कहै पिष्षहु प्रगट, कर अंगारहि कोड धरं । दामें निबद्ध तातो लिप, सीरी कारी कर करें ।।३।। पत्त सुतौ पति तुच्छ काज नहिं प्राव कत्थह । फल वाकस रसहीण, छांह निदीम कियथ्थह । साषा कंटक कोटि, लेई पंषी न बसेरउ । श्रीहल गुणियन महइ, कोन गुण वरणो तेरउ । र रे बबुलनि लच्छरण निलज, पापी परहु न उपगर । जो देहि फूल फल प्रवर तरू, तिनह की ररुषा करं ॥४०॥ फिर चउरासी लष्ष, जोणि लद्धी मानुष जम । सो निसफल न गंवाइ, मूढ कीजद सुकृत क्रम । कनक कचोली मज्झि. मूढ भरि छारिन नाखिसि । कल्पवृक्ष उष्वेलि, मूढ एण्डम रषिसि । वायस्सि उडाबण कारणी, चितामरिण क्यों रासिय । यीहल कहै पीयूष सौं, नाक पांव पषालिये ।।४।। बसुधा विश्वामित्र, सरिस चे तपिय गरिहा । संपति ते भोगव, रहै बनर्षटहि बैठा । लोभ मोह परिहर, किया इन्द्री पंचे बस । तणि वदन निरपंत, तेइ पुनि परस् काम रस । पाहार करहि षटरस सहित, पंचामृत जुगति सिम । छीहरूल कहै तिहि पुरुष को, इन्द्री निग्रह होइ किम ॥४२॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि अमर इक्क निसि अम, परौ पंकज के संपुटि । मन मंहि मई मास, रयणि षिण मांहि जाइ घटि । करि है जलज विकास, सूर परभाति उदय जब । मधुकर मन चितव, मुक्त ह है बन्धन तब । छीहल द्विरद ताही सम्म पार पत्तउ पाइन भरि । अलि कमल पत्र पुडइणि सहित, निमिष माहिौ गर्यो मसि ॥४३॥ मगि चलहु कुलहि, जेणि विकसै मुख सज्जन । होइ न जस की हारिण, पिष्षि करि हंसइ न दुज्जन । जप तप सजम नेम, धर्म प्राचार न मुक्कइ । परमपर निज एन. क्रिया प्रापती न चुक्कई । पर तरुणि पाप अपवाद परि दूरन्तर ही परिहरउ । मन वचन काय छील कई, पर उपकारहि चित परत ।१४४।। जब लगि सस्वर राइ, फुल्लि करि फलिय विवह परि । तब लगि कंटक कोटि, रहै बहु दिसा येहि करि । पषी पासा लुद्ध, ब्रिष्ष तक्कवि जो भावद्ध । फस पुनि हश्य न बढे, छांछ विश्राम न पावाद । द्रोहल्ल कहे हो ग्रंब सुणि, यह अवगुण संपति थिय । तो सदा काल निरफल फलो, जिहि सुम्न छांह बिलंबिय ।।४५॥ रे रे दीपक नीच, लष्ष अवगुण तुझ अंगह । पत्तहि करइ कुपत्त, प्रकृति सुभाव मलिन रंगह । बत्तिय गुण निरदहण, तल सनेह घटायन । जिहि थानक तू हो, तिहां कालिमा लगावन । छीहल्ल कहै वासर समय, मान न लम्भ इक्क चुप । जो सहस किरण रवि अध्यवइ, तो जग जोव तुज्झ मुष ॥४६ ।। लछण ससि कहं दीन्ह, कीन्ह यति पार उदधि जल । सफल एरण्ड धतुर मागवल्ली सो नीफल । परिमल बिग्णु सोवन, बास कस्तूरी विविध परि । गुरिगयत संपत्ति हीण, बहुत लच्छीय कूपण धरि । १. मन Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5: : १. ब्रेस २. ३ विलसि बावनी तिय तरुण are] विवा पराज, सज्जन सरिस वियोग दुष । इत्तनं ठाम श्रीहल्ल मह, कियो विवेक न विधि पुरुष ||४७|| भोको सज्जन प्रीति, भवर पुनि छाया बद्दल | वासी सरिष सनेह, अवर वरषइ जु मोस जल । सरवरि छीलरि पानि, सगिनि तृरा केरज तपन 1 विह सरिस मड वाउ, पिषि गब्बहु जिनि प्रप्पन | का पुरुष बोल वेस्याविसन, एता अंत न निरवहै । बिस्वास करत ते हीण मति, सांधि वयण बीद्दल कहै ||४८ ॥ ससि उगवनि जो कंबल मज्झि मकरंद दियो जिहि । विकसित चित उल्हास, बास केतकी लई तिहि कुंभस्थल गय मय प्रवाह अस्यो कदलो वन सरस सुगन्धजु पुहुप विसि पुज्जइय रली मन । खीहल्ल विवि चारा, जिद्दि रितु मानी अप्पन स । सो भ्रमर प्रबहि विधि पुरुष दसि अफ्क करीरह्रि दिन गर्म ४९॥ : बल दुज्जन मुष विवर, मज्झि निवसहि जे कुंषचन । तेई सरप समान होइ लागहि घटि सज्जन । सोबइ सकल सरीर, लरि भावइ जोवंत | मूली बंद गारूडो, गिर्न नहि तंत न मंतई । उपचार एक बहल कहै, सुणिय विवध्य उत्तमा ! विप दोष निवारण कारणं, निज औषध साधउ बिमा ॥५०॥ समय जु सीत वितीत, भृया वस्तर बहु पाए । बीण बुधा घटि गई, वृथा पंचामृत षाए । वृथा सुरति संभोग, रयण के अंत जु कीजइ । वृषा सलिल सीतल सु सासु, बिण तृषा जु पीजइ । चातक कपोत जलचर मुए, वृथा मेघ बहु जल दए । सो दान वृया छोहल कहै, जो दीजद भवसर गए ।३५१११ जम जे सापन १४१ 1 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि हरु धनवंत भालसी, ताहि उद्यमी पम्प । क्रोधवंत अति चपल तऊ थिरता जय जम्पई । पत्त कुपत्तन लेखइ, कहर तसु इच्छाचारी । sts बोलण असमध्य ताहि गुरु वत्तन भारी । श्रीवन्त लच्छ अवगुण सहित माहि लोग करि गुण ब छील है संसार महि संपत्ति को सहू को नंबइ ।।५२ || " चरासी मगला सह जु पनरहू संवनपुर । सुकुल पब्ष अष्टमी मास कालिंग गुरुवासर । हृदय उपनी बुद्धि नाम श्री गुरु को लीन्हो | सारद तराइ पसाइ, कवित संपूरण कीन्हो | नाल्डिंग बंस सिनाघू सुतन, अगरवाल कुल प्रगट रवि । बावन्नी वसुधा विस्तरी, कवि कंकरण छोहल्ल कवि ||५३ || इलि छील कृत बावनी संपूर्ण समाप्त | संवत १७१६ लिखितं पाडे वीरू लिस्यापितं व्यास हरिराम महला मध्ये । राज श्री स्योसिंघ जी राज्ये संवत १७१६ का वर्षे मिती वैसाख सुदी ५ शनिसरवार || शुभं भवतु ॥ 000 १. शास्त्र भण्डार वि० जैन मन्दिर लूणकरसा जो पांडे जयपुर गुटका संख्या १४० । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. पंथी गीत इक पंथी पंथ चलती, बन सिंहनि माह पछुतो । भूलो कबट यह दिसि घावं, वह मारग कहियत पावे | पावे न मारग विषम वन में, फिरे भ्रमि भटकंत हो। देखियो तहा सांमहाँ धावत, सौ रौद्र रूप प्रचंड सुंडा, भयभीत होड़ कंपिया लागो, पथिक वित्त अंतरि डर्यो || १ || गरुव गज दंड फेरें मयत हो । रिस भर्ती सा देश सुपं, पूहि कुंजर लागो । जीव के हरि प्रातुर घायो, भागे कूप हृतौ त्रिछायो । त्रिण यो कूप जुहु तो प्रागे, बिचि वेलि छवि रह्यो । तिहि माहि पथिक पड्यो अजानत भेद भोंदू ना लह्यो । हि गही प्रवife आकारणि, और कछु न पाइयो । कुचडो एक सरकनी केरो, पहत हायें भाइयों ||२|| तब सरकन दिढ करि गहियौ, भूलत दारण दुख सहियो । सिर ऊपरि गदी गयंदा, दिसि व्यार्थी चारि फुर्णियो । बहु दिसि हि वारि फुरिषद न्यौसी, बंधे करि बैठे जहां । तलि मुख पसारि विरह्यौ भजिगर, प्रसन के कारण तहां । सित प्रसित देखिया मूषक, जड लगे सरकन तली । संकट पढ्यो अब नहि उबरण करें चिता चिते घणी ॥३॥ कुवा ठग इक विरख बहे रौ, तहां छाती लग्यो महुके रौ । नहि हसती हलाई डाली, मोखी अगनित उडी बिसाली | मोखी बिसाली डिवि अगनित, लगि उडी हि नर तरौं । उपसर्ग अंगि करं घरी तास को सिमे मधुकण पहर ऊपरि पडत रस या बिन्दु के सुखि लागी लोभी, सबै दुख बोसरि गयो || ४ || संख्या गिरणे । रसना लियो । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि मधु बिन्दु जु सुख संसारो, दुख बरणत लहु वनयारी। जीव जाणों पथिक समानो, अग्यान निवड उद्यानो । उद्यान घन अग्यान गिनिजे, जम भयानक कुंजरो । भव संभ का चारो गति हि अतिमि निरंदरो! अजिगर सु एह निगोद बोयम, भखत जगत न धापये । दं पक्ष उज्जजल किसन मूपक्र, प्रायु खिण खिण का पये |||| संसार को यह व्यवहारो, चित्त घेत हु क्यों न गवारौ। मोह निद्रा में जे सूता, ते प्राणी अंति बिगता । प्राणी विगूसा बहुत ले जिनि, परम ब्रह्म विसारीयो । भ्रमि भूलि इंद्री तरी रसिनर, जनम वृथा गंगाइयो । बहुकाल जाना जोनि दुख, दीरव सह्या छोहल कहै । करि धर्म जिन भाषित जुगति स्यो, त्यों मुकति पदवी लहे ॥६॥ ।। इति पंथी गीत समाप्ता ।। 0E Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ ४. वेलि गीत रे मन काहे कू भूलि रहे विषया धन भारी । इह ममता मैं भूलि रहे मति कुणा तुहारी । मति कुण तुहारी देखी विषारी, प्रति प्रधिक दुख पावो । विस इक मृग तिसना जल देखत, वहुडि म प्यास बुझायो । गृह सरीर संपति सुत बंधी, एते मिरि किरि जाग्या । श्री जिणवर की सेव न कोधी, रे मन मूरिख ममारणा ॥१॥ बह जुरणी मैं भ्रमता माणस जन्म मु पायो । है। देवन कू दुर्लभ सो त वादि गवामी । कत बादि भवायो मुह सुढाले, काहे पाव परवाले। काय उलागि कारिणि कर थे, यंतामणि कांद रास । इक्कु जिनबर सेव बिना सब झूठा, ज्यो सुपना की माया। वृथा जन्म खाय माणस ज, बहुजूणी भाम भाया ।।२।। जतिम धम्म है जीव दया, सो दिनु करि गहिए । मरहंत ध्यानु धरिज्यो सत्त, संजमस्यो रहिये । रहिये संजमस्यो परधन पर रमणी पर निदा पर हरिये । पर उपमार सार है प्राणी, बहुत जतन स्यौं करिये। जब लग हंस अमित काया मैं, कुछ सुकृत उपायो भाछ । मति कालि तुहि मरती देला, हो हो धर्म सहाइ ॥३॥ कलि विष कोट विणासै. जिनवर नाम जु लीया । मै घट निर्मल नाही, का तपु तीरथ कीया । का सप तीरथ कीया, जै पर दोह न छाडे । लंपट इंद्री लघु मिथ्या प्रमु, जनमु प्रापरणी भांडे । छोहल कहै गुणो मन बोरे, सीख सीयाणी करिये । चितवत परम ब्रह्म के ताई, भव सायर कूतिरिये ॥४॥ ॥ इति वेलि मीत समाप्त ।। 000 १. कषण (ख प्रति) २. खिशु सुख (ख प्रसि) ३. प (म प्रति) ४. पृथा न खोइ जनम मारगस का (स प्रति) ५. ब्रह्म स्पो रहिये जिव भय दुतर तिरिये ( प्रसि) Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूच राज एवं उनके समकालीन कवि ५. वैराग्य गीत ऊपर उदक मैं दश मास रह्यो, पडिवि धोमुखि बहु संकटु सह्यो । कह सहित संकटु उदर अंतरि, चितवं चिता घगी। ऊबरो अबकी बार जेहों, भगति करिस्यों जिण तणी । ए बोल संकट पडं बोले, बहुडी जगि जामण भयो । संसार का जम भूवालि लागी, मूड तव वीसरि गयो ॥१॥ बालक विकह प्रचेत...''''भक्षि अमक्षि ण कछु अंतरु लहै । लहै ना भक्षि अभक्षि अंतर, लाल मुखि अरिल चुदै । पडइ लोट परणि उपरु, रोइ करि अमृत पिवाद । तनु मूत विष्टा रहै वोयो, सुकृत ना कायौ कियो । वीसरयो जिन भक्ति प्राणी, बाल पणो ह्यो हा गयो ।।२।। जोवनि मातो नर बहु दिशि भव, परधन परतीय परि मनु रचे । रचे परधनु देखि परताय, चित्त आइल राखए । छां पनीफल सेव जिनकी. विषय विष फल भाखए । काम माया मोह व्याप्यो प्रमत हम विसार । पूजइन जिएवर स्वामि क्वरो, अधिरथा जोबन गालए ।।३।। जरा बुढापा वरी पाइयो सुधि बुधि नाडो तब पछिताइयो। पछिताझ्यो तव सुद्धि नाढी, सयण जगतु न बूझए । जियन कारणि करै लालच नयन जगत न सूझए । मनु कह छोहल सुरसहि रे मन भरमि भूलो कार फिरै । करि सेव जिणवर मति सेती, जो भव समुद दूतरू तिरं ॥४॥ गुटका संख्या ६५, पाटोदी का मन्दिर जयपुर । 000 १. श्रवण संबद न बूझए । २. अन कहा छोहल सुलो २ नर श्रमि भूलि काई फिर । करि भगति जिनको सुगति स्यो त्यो मुति लीलब बदौ ।।४।। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. गीत राग सोरठा संसार छार विकार परहरि, सुमरि श्री जिण माण। रे जीव जगत सुपनो जाणि ॥१॥ एक रंक सारो सहर जाध्यो, सुतौ दम तलि आणि ! जाणिक कह भूगल पोढ्यो, छत्र पारी सोक । खवासी विजणा वहालि ढोले, सेक रही कहि खोखि । एक प्राणि रंभा पाव चुबै, वहौ विधि प्राव भेट । ए साही में जागि तो ठीकरी सिर हेठि 1 रे जीव अगत सुपनो जाण ॥२॥ एक बांझ के परि तुवर बागा, जाणिक जनम्यो बाल । बुलाइ पण्डित बुझ जोशी होसी वह भूपाल । मेरो पुत्र कुमाइसी त्रिया बहस बंधी प्रास । ए साही में जाणि देखे सौ नाखिया रानिसास । रे जीव जगत सुपनो जाण ।।३।। एक निरपन जान हुवो धनवंत सो भी गमी पूरि। प्रर्थ दर्व बहुभरमा भण्ड़ा बयु निधि बाँधी मास । एता में ही जागि देखे नहीं कोडी पासि । रे जीव जगत सुपनो जाम ॥४॥ एक मूरिख जाने हो पण्डित मुखा चारधी वेद । माग प्रागम सबही सुझयो तीन भवन सन मोखि । एता में ही जागि देखे तो नहीं आखिर रेव । रे जीव जगत सुपनो जाण ॥५।। संसार सुपनो सर्व जाण्यो जाण्या क म होइ। कहै छीहल सुमरि जीवडा जिरण भज्या चलो होइ।। रे जीव जगत सुपनो जाण ।।६।। 000 १. गुटका संख्या , मात्र भण्डार वि. जैन मन्दिर गोधान जयपुर। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरुमल १६ वीं शताब्दि के मन्तिम चरण में होने वाले जितने हिन्दी जैन कवि अल्प ज्ञात हैं उनमें पतुरुमल अथवा चतुर कवि भी है। राजस्थान के जैन मयागारों में अभी तक ऐसे सैकड़ों कवि पोथियों में बन्द है जिन्होंने हिन्दी भाषा में कितनी हो सुन्दर रचनाएं लिखी थी और अपने युग में प्रसिद्धि प्राप्त की थी । लेकिन समय के अन्तराल ने ऐसे कवियों को पर्दे के पीछे धकेल दिया और फिर थे सामने माही नहीं सके । कुछ बड़े कवि तो फिर भी प्रकाश में मा गये और उनका प्रध्ययन होने लगा लेकिन कितने ही कवि जिन्होंने लधु रचनाएं लिखी, पद एवं सुभाषित लिखे तथा पुराणों के आधार पर वरित व रास लिखे, नावनी बारहमासा लिखे, ऐसे पचासों कवि भभी तक भी गुटकों में बाद हैं और उन्होंने हिन्दी की जो अमूल्य सेवाएं की थी बे अभी तक हमारे से ओझल हैं । जैन कवियों के हिन्दी में केवल चरित एवं रास संशक प्रबन्ध काव्य ही नहीं लिखे किन्तु साहित्य के विविध रूपों में अपनी कृतियों को प्रस्तुत करके हिन्दी के प्रचार प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया । उन्होंने स्तोत्र, पाठ, संग्रह, कथा, रासो, रास, पूजा, मंगल, जयमाल, प्रश्नोत्तरी, मंत्र, अष्टक, सार, समुच्चय, वर्णन, सुभाषित, चोपई, शुभमालिका, निशाणी, जकड़ी, ध्याहलो, बधाषा, विनती, पत्री, भारती, बोल, चरचा, विचार, बात, गीत, लीला, चरित्र, छंद, छप्पय, भावना, विनोद, काव्य, नाटक, प्रशस्ति, धमाल, चौहालिया, चौमासिथा, बारामासा, बटोई, वेलि, हिटोलणा, चूनडी, सज्झाय, बाराखडी, भक्ति, वन्दना, पच्चीसी, बत्तीसी, पचासा, बावनी, सतसई, सामायिक, सहस्रनाम, नामावली, गुरुवावली, स्तबन, संबोधन, एवं मोड़वो संज्ञक रचनायें निबद्ध करके अपने विशाल ज्ञान का परिचय दिया । S10 वासुदेवशरण अग्रवाल के शब्दों में इन विविध साहित्य रूपों में से किसका कम प्रारम्भ हुमा भोर किस प्रकार विकास पोर विस्तार हुमा यह Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरुमल १५६ शोध के लिए रोचक विषय है। इन सब की बहमूल्य सामग्री देश के जन मन्थागारों में उपलब्ध होती हैं । लेकिन साहित्य के उक्त विविध रूपों के अतिरिक्त प्रभी तक और भी बीसों रूप हैं जिनकी खोज एवं शोध मावश्यक है। प्रभी हमें साहित्य का एक रूम "उरगानो" प्राप्त हुपा है। जिसके रचयिता हैं कविवर चतुरुमल अथवा बतुरु ! कवि परिचय ___चतुरुमल १६ वीं शताब्दी के अन्तिम चरण के कवि थे। यद्यपि इनकी अभी तक प्रधिक रचनाएं उपलब्ध नहीं हो सकी है लेकिन फिर भी उपलब्ध कृतियों के आधार पर कवि धीमाल जाति के थावक थे । दि. जैन धर्मानुयायी थे तथा गोपाचल ग्यालियर के रहने वाले थे 12 कवि के पिता का नाम जसवंत था । अपने पिता के वे इकलौते पुत्र थे । कवि ने अपने परिचय में लिखा है कि जन्म लेते ही उसका नाम बतुस रख दिया गया। कवि की शिक्षा दीक्षा कहां तक हुई इसको तो विशेष सूचना प्राप्त नहीं है किन्तु नेमिपुराण सबसे पधिक प्रिय था और उसी के आधार पर उसने 'नेमीश्बर का उरगानो' काव्य की रचना की थी। क्योंकि उसने अनेक पुराणों को सुना था तथा स्वाध्याय की थी लेकिन हरिवंश पुराण में उसका सबसे अधिक आकर्षण हुमा । उस समय वहां पदल पण्डित रहते थे। वे साहसी एवं धैर्यवान थे। उन्हीं के पास कवि ने पुराणों का अध्ययन किया था। और उसी अध्ययन के नाधार पर प्रस्तुत कृति की रचना की थी। रचनाएँ कवि ने हिन्दी में कब से लिखना प्रारम्भ किया इसको तो अभी खोज होना शेष है लेकिन संवत् १५६९. में उसने गोपाचन गढ में भाकर के गीतों की रचना १. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों को ग्रन्थ सूची--भाग चतुर्थ पृ० ४ । २. मधि बेसु सुख सयल निधान, गहु गोपाचलु उत्तिम थानु ।।४४।। श्रावग सिरमलु बरु जसवंत निहध जिय धर्म परत । पर चल नधि वंदती, पुत्र एक ताके घर भयो । जनमत नाम चतुरु तिनी लियो, जनधर्म विदु जीवह धरी ।।४३।। सुनि पुरानु हरिमंस गम्हीर, पंडित धवलु जु साहस धरि । तिनिस तरया मिनु रचि कियो, कलि केवलि को त्रिभुवन सार ॥२॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि प्रारम्भ की थी। अभी तक हमें कवि के चार गीत उपलब्ध हो सके हैं प्रोर चारों ही एक गुटके में संग्रहीत हैं। कवि की सबसे बड़ी रचना "नेमीश्वर को उरगनो" है। इस को कवि ने ग्वालियर में संवत् १५७१ में भादवा बुद्दी पंचमी सोमवार को समाप्त की थी। उस दिन रेवती नक्षत्र था। इसमें ४५ पद्य है। तथा नेमिनाथ एवं राजुल के विवाह की घटना का प्रमुखतः वर्णन है। उक्त रचनामों के अतिरिक्त कवि ने और कौन कौन सी कृतियां निबद्ध की इसका अभी पता नहीं चल पाया है लेकिन यदि मध्य प्रदेश के शास्त्र भण्हारों में लोज की जाये तो संभवतः कवि की और भी रचनायें उपलब्ध हो सकती हैं । कवि ने ग्वालियर के तोमर शासक महाराजा मानसिंह के शासन का प्रयश्म उल्लेख किया है तथा ग्वालियर को स्वर्ण लंका जैसा बतलाया है 1 महाराजा मानसिंह को उस समय चारों छोर कीति फैली हुई थी तथा अपनी मुजाओं के बल से वह जग विख्यात हो चुका था । ग्वालियर में उस समय जैन धर्म का प्रभाव चारों मोर व्याप्त था। थावकगण अपने षट्कर्मों का पालन करते थे तथा उनमें धर्म के प्रति अपार श्रद्धा थी। कवि के कुछ समय पूर्व ही अपभ्रंश के महाकवि रइबू हो चुके थे जिन्होंने अपभ्रश में कितने ही विशालकाय काश्यों की रचना की थी । रइधू ने जिस प्रकार ग्वालियर का, यहां के श्रावकों का, तोमर वंशी राजामों का बणन किया है लगता है वालियर दुर्ग का वही ठाट बाट कवि षतुरुमल के समय में भी व्याप्त था। क्षेकिन चतुरु ने न रइयू का नामोल्लेख किया मोर न नगर के साहित्यिक वातावरण का ही परिचय दिया। कवि के जिन रचनामों की अब तक उपलब्धि हुई है उनका परिचय निम्न प्रकार है१. गीत-(ना जानो हो को को परे ढीलरीया कत जाई) १. चत्रु श्रीमाल वासुदेव बगी। गति गारि की आइ फोपो गढ मर संवत् १५६६ को । गुटका - शास्त्र भण्डार वि० जम मन्दिर बड़ा तेरहपंथियों का, जयपुर । वेष्टन संख्या २४८७ । २. संवतु पन्द्रहस वो गर्न, गुन गुनुहतरि ता उपरि भवे । भाधौ पति तिथि पंचमी धार, सोम न पित्त रेक्ती मास । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरुमल १६१ पह लघु गीत है जो पद रूप में है। जिसमें मानव को भगवान की पूजा मादि करके निर्माण मार्ग पर बढ़ते जाने को कहा गया है। पद को अन्तिम पंक्ति में "संसारह श्रावग कुलि सारु भमई चघुश्रावगु श्रीमार" कह कर अपना परिचय दिया है । दूसरा गोत-इस गीत का शीर्षक है 'गाडी के गवार की'। यह भी प्राध्यात्मिक पद है जिसमें दसधर्म को जीवन में उतारने तथा मातों व्यसनों को स्यागने की प्रेरणा दी गई है । पद का भन्तिम चरण इस प्रकार है ___ "श्रावग गुणड्ड विचार, चतुरु यो गावहिरो" तीसरा गीत-इस गीत का शौर्षक है "पाईति बाबा वारी के जईयो" यह भी उपदेशात्मक पद है जिसमें थावक को मानव जीवन को सफल बनाने का अनुरोध किया गया है। कवि ने पद के अन्त में "भनई चतुरु श्रीमार" से अपने नाम का उल्लेख किया है । ४. कोष गीत-यह भी समु गीत है जिसमें कंप, जान, शायः पीरले की निन्दा करके उन्हें छोड़ने का उपदेश दिया गया है। इसमें चार प्रन्तरे हैं। मान कषाय का पद निम्न प्रकार है मानु न कीज जोईपरा, तिसु मानहि हो मानहि जीयग दुख सहे। अप्पु सराहे हो भलो, पुणि परु को हो पर की गित करई । पर कई निशा नित्त प्रानी, इसोइ मन गरवं खगै । हउ रूप घतृरु सुजानु सुदरू. ईसोप भनी मद भरे । महमेव करि करि कर्म बंधी, लाख चौरासी महि फिरै। ईम जानि जियरा मानु परिहरि, मानु चहु दुखह करी ।।२।। ५. नेमस्पर का उरगानो प्रस्तुत कृति कवि की सबसे बड़ी कृति है। अब तक काव्य के जितने भी नाम पाये हैं उनमे 'उरगानी संज्ञक रचना प्रथम बार प्राप्त हुई है। 'उरगानों' का प्रथं स्वयं फदि ने 'गुन विस्त' मात गुणों को विस्तार से कहने वाले काष्य को उरगानो कहा है। इसमें नेमिनाथ के जीवन की विवाह के लिए तोरण द्वार को छोड़कर वैराग्य धारण करने की घटना का वर्णन किया गया है । उरगानी की कथा का सक्षिप्त सार निम्न प्रकार है मंगलाचरण के पश्चात् उरमानो नारायण श्रीकृष्ण के पराक्रम की प्रशंसा से प्रारम्भ होला है जिसमें कहा गया है कि द्वारिका में ५६ कोटि यादव निवास करते थे जो सब प्रकार से सुखी एवं सम्पन्न थे । नारायण श्रीकृष्ण ने जरासंध पर Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि विजय प्राप्त करके शंखनाद के साथ द्वारिका पहुचे। एक दिन पूरी राज्य सभा जुड़ी हुई थी। विविष खेल हो रहे थे । राजा एवं रानी दोनों ही प्रसन्न थे। उसी संपय नेमिकुमार आए । सभी ने उनका आरती उतार कर स्वागत किया । नारायण श्रीकृष्ण ने सभी सभासदों को नेमिनाथ का परिचय दिया तथा कहा कि वर्तमान समय में नेमिनाथ से बढ़कर कोई साहसी एवं धैर्यवान है। बलभद्र ने नेमिनाय के बारे में और भी जानना चाहा । श्रीकृष्ण जी ने नेमिनाथ का चित्र लिया तथा राजा उग्रसेन के पास गये और उनसे नेमिनाथ के लिये राजुल को मांग लिया। उन्होंने कहा कि हम सब यादव नेमिनाथ की बारत में बायेंगे। उग्रसेन ने अत्यधिक प्रसन्न होकर राजुल से नेमिनाय के विवाह की स्वीकृति दे दी। लेकिन साथ में उन्होंने चुपचाप ही कुछ पशुओं को एकत्रित करने के लिए कह दिया । कुछ समय के पश्चात् नेमिनाथ बारात लेकर वहां पहधे । उन्होंने वहाँ चारों ओर देखा प्रौर पशुषों को एकत्रित करने का कारण जानना चाहा । लेकिन जब उन्हें मालूम पड़ा कि ये सब बरातियों के लिए प्राये हैं तो उन्हें एकदम वैराग्य हो गया और विवाह कंकण तोड़कर तथा रथ को छोड़कर गिरनार पर्वत पर बा चढ़े। नेमिनाथ के वैराग्य से राजुल के माता पिता एवं परिजनों सबको दुःश हुमा और वे विलाप करने लगे। जब राजुल को उनके वैराग्य लेने का पता चला तो वह मुछित हो गई । वह कभी उठती कभी बैठती और कभी चिल्लाती। वह अपने पिता के पास जाकर रुदन करने लगी। पिता ने सारा दोष श्रीकृष्ण जी पर साल दिया । लेकिन उसने राजुल से यह भी कहा कि उसका विवाह किसी दूसरे राप्रकुमार से कर दिया आवेगा जो नेमि के समान ही रूपदान एवं घंयंत्रान होगा। तथा विधाओं का प्रागार होगा। राजुल को पिता के शब्द सुनकर प्रत्यधिक दुःख हुमा । पौर नेमिनाथ के अतिरिक्त दूसरे किसी से भी बात नहीं करने के लिए कहा । राजुल भी नेमि के पीछे-पीछे शिखर पर जा चढ़ी और ने मि से ही उसे छोड़कर चले पाने का कारण जानना चाहा । नेमिनाथ ने स्वयं के लिए संयम लेने की बात कही तथा राज्य, हाथी, घोड़ा एवं अन्य सभी परिग्रह छोडमे की बात कही। लेकिन उन्होंने राजुल से वापिस घर जाकर विवाह करने के लिए कहा क्योंकि तपस्वी जीवन अत्यधिक कठिन जीवन है। इसमें साथ-साथ बहना परित्याज्य है। राजुस ने नेमि को छोड़कर घर लौटने से इन्कार कर दिया और कहा कि चाहे उसके प्राण ही क्यों न चले जायें वह तो उन्हीं के चरणों में रहेगी। घर जाकर क्या करेगी। इसके बाद राजुन ने दो-दो महिनों को लेकर बारह महिनों में होने वाले ऋतु जन्य संकट का वर्णन किया तथा कहा कि ऐसे दिन में उनको छोड़कर कैसे जा सकती हैं । यह तो उनहीं की सेवा करेगी । राजुल ने कहा सावन भादों में Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरूमल सो घनघोर वर्षा होगी । बिजली चमकेगी तथा मयूर एवं पपीहा की रट लगेगी। ऐसे दिनों में वह नेमि को छोड़कर कैसे जावेगी । मासोज एवं कार्तिक मास में परब चत होगी । सरोवर एवं नदियों में स्वच्छ जल भरा होगा । प्रकाश में चन्द्रमा भी निर्मल हो जावेगा । चारों पोर गीत एवं नस्य होंगे ऐसी ऋतु में नेमि बिना वह कैसे रह सकेगी। मंगसिर एवं पोष में खूब सर्दी पड़ेगी। शरीर में काम रूपी अग्नि जलेगी। घर घर में सभी मस्ती में रहेंगे लेकिन नेमि के बिना वह किस घर में रहेगी पोर उसका हृदय पत्ते के समान कंपित होता रहेगा। एक मोर काली रात्रि फिर बर्फ का गिरना । लेकिन उसका मन तो पिया के बिना ही तरसता रहेगा। प्रघन पुषु प्रति सीत भपात, जादौ विपु व्यापे मंसाफ । काम पगिनि बहु पर जलु, घर घर सुख कर सब कोई । तुम दिन, इमहि कहा हैई. किन पाती । निसि प्रध्यारी पस्तु तुमार, काम लहरि अति हो पपार । यह मनु सरसे पीउ बिना, सब संसार कर प्रति भोग । राजल रट कर पोय सोगु, नेमि कुबर जिन वन्विहो ।।३०।। माष मोर फाल्गुण ऋतु में तो बसन्त की बहार रहेगी । सभी बसन्त का भानन्य लेंगे । कामनिया अपने प्रियतम के साथ विलास करेंगी। वे अपने प्रगों में चन्दन का लेप करेंगी तथा माथे पर तिलक भी करेंगो । घर घर बन्दनवार होंगी। राजुल भी ऐसी ऋतु में अपने पिया के साथ परिहास करना चाहती है तथा दिन में अपने कंत की सेवा करना चाहेगी । चत्र पोर वैशाख में सभी धनस्पतिया खिल जावेंगी। नन्दन वन के सभी पुष्प भी खिले होंगे । मौरे फलों का रस पीते होंगे । वन में कोयल कुह कुछ के प्रिय शाद सुनाई देगी । विरहिणी स्त्रियां अपने प्रिम के बिना तड़फती रहेंगी लेकिन यह स्वयं बिना नेमि के क्या करेगी। इसी तरह जेठ पोर पाषाक में गर्मी खूब पड़ेगी । सूर्य भी सपेगा । कुछ लोग पम्बन लगा कर गरीर को शीतल करेंगे । लू चलेगी। लेकिन उसे नो प्रिप के बिना और भी ऊष्णता सतावेगी। इसलिए वह रात्रि दिन नेमि पिया नाम की माला जप कर उनके शीतल वचनों को सुनती रहेगी । इस प्रकार राजुल बारह महिनों के विरह दुःख को नेमि के सामने रखती है और चाहती है कि विवाह न किया तो न सही किन्तु वह उनके घरणों में रहकर Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૪ sfoवर चराज एवं उनके समकालीन कवि ही उनकी सेवा करती रहे । यह कह कर वह रोने लगी और उसकी खों से अश्रुधारा बह चली । नेमि ने राजुल की बात सुनी। उन्होंने कहा कि वे तो वैरागी हो गये हैं संयम धारण कर लिया है इसलिए घब राजुल की सेवा कैसे स्वीकार कर सकते हैं । इसके अतिरिक्त उन्होंने राजुल से वापित भपने परिजनों में लौटने की सलाह दी । जिससे वह राज्य सुख मीरा जानने वाली थी. उसके फिर अनुनय विनय किया। रोगी और नेमि से उसे भी व्रत देने की प्रार्थना की। अन्त में नेमिनाथ को उसकी प्रार्थना को स्वीकार करना पडा और उसे धार्मिका की दीक्षा दे दी। इसके साथ ही नेमिनाथ ने आवश्यक व्रतों को पालने का उपदेश दिया । लेकिन इस प्रकार मीश्वर का उरगानो' एक शान्त रस प्रधान काव्य है जिसमें विरह मिलन की अद्भुत संरचना है। नेमि द्वारा तोरणद्वार पर भ्राकर वैराग्य धारण कर लेने की इतिहास में अकेली घटना है। फिर उनसे गजुल का घर वापिस लोटने के लिए अनुनय विनय पति के विरह में होने वाले कष्टों का वर्णन मौर वह भी आमने सामने जहां एक वैरागी हो और एक नयी नवेली बनी हुई उसी की दुल्हिन | भगवान शिव को तो पार्वती की तपस्या के सामने झुकना पड़ा लेकिन नेमिनाथ के वैराग्य को राजुल नहीं गा सकी। उसने भी नेमि से अधिक से अधिक माग्रह किया, रोई विलान किया, लेकिन वे कब अपने वैराग्य से वापिस लौटने वाले थे। अन्त में राजुल का हो संयम धारण करना पड़ा । भषा प्रस्तुत कृति व्रत्र भाषा की कृति हैं जिस पर राजस्थानी का प्रभाव है। अखारे (६), कोरि (४) प्रीतरे (७), कन्हरु (६), जीवहि (११), मोरि (१३) तोरि (१३), होइ है (१६) तिहारे (२२) प्रावि शब्दों का पर्याप्त प्रयोग हुआ है। ड और ट के स्थान पर र का प्रयोग किया गया है । रचना काल प्रस्तुत कृति संवत् १५७१ की रचना है। रचना समाप्ति के किन भाव बुदी पंचमी सोमवार था। रेवती नक्षत्र एवं लगन में चन्द्रमा था । ' १. संवतु पग्रह वो गनी गुन भादो व तिथि पंचमी पाठ लगुन भलो सुभ उपजी मति, गुनहतरि ता उपरिन । सोम नवि रेवती साथ | चन्द्र अन्म वलु पाइयो । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'चतुरुमल १६५ रचना स्थान 'नेमीश्वर का उरगानों' का रचना स्थान गोपाचल दुर्ग (ग्वालियर) रहा । उस समय वहां के शासक महाराजा मानसिंह थे जिनके सुशासन की कवि ने प्रशस्ति में प्रशंसा की है। महाराजा मानसिंह तोमर वंश नासक थे। बहरे जैन धर्म का पुरा प्रभाव व्याप्त का उसके मनुयायी सेवा, स्वाध्याय, संयम, तप और दान जैसे कार्यों का प्रति दिन पालन करते थे । पाण्डुलिपि माह युदी उरगानों की एकमात्र पाण्डुलिपि शास्त्र भण्डार वि० जैन मन्दिर तेरह थियान के एक गुटके में संग्रहीत है । पांडुलिपि संवत् १८२ समाप्त हुई थी । संगतीलेख वाला पन्तिम अंक १८२० से १५२६ के मध्य किसी समय लिखी गयी थी। प्रतिनिधि करने वाले ये प्राचार्य देवन्द्रकीर्ति थे जिन्होंने इसे अपने शिष्य के लिए लिखा था । १४ गुरुवार के दिन इसलिए यह पाण्डुलिपि नहीं है सं 000 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. नेमीश्वर को उरगानो अथ उरगानो लिखिलं नेमी कुंवर को मंगलाचरण प्रथम चलन जिन स्वामी जुहार, ज्यों भवसाय पावाहि पान | लह मुकति दुति दुति तिरी पंच परम गुर त्रिभुवन साथ । सुमिरत उपजे बुद्धि अपार, सारद मनाविक तोहि । गुरु गोतमु मो देव पसाउ, जो गुन गाउ जादु राह । जान् गुन दिन में मिले मित्र देवी कुवार | जाके नाम तिरे संसार, चतुर गति गमनु निवारियो । राजमति तजि जीव मिलाई, घडि गिरनंरि लियो तपु जाई नेमि कुवरु जिन मंदि हो || १ || 1 सुनि पुरानु हरिवंस गम्ही पंडित धबलु जु साहस बौर | तिनि मुस रनि जु रचि कियो, कलि केवल जो त्रिभुवन सारु ॥ सुनि भाषिय भव उतरे पा, नेमि कुंवर जिन वंदि हो ||२|| नारायण श्रीकृष्ण कर वन- वरती आदि जुट पसारु, जादी कुल इतनी क्योहारु । जो नाराइनु भोतरे पर जो जानो नेमि कुमा० । जाके नाम तिरै संसारु, नेमि कुवरु जिन बंदि हौ ||३|| . धन कौरि सु जादौ वीरु, रहइ द्वारिका सायर तीय । भोग माइ वतु विधि है, राजु करें हित सो पारवाद । वाह्य राय प्र भंडारा, नैमि कुंवर जिन वंदि हो ||४|| जीति जुरासिंधु संधु बजाई। पुनि द्वारिका पऊने जाइ । चक्र नाराइन कर चढे. करहि वीमा ए मंगलवार । पंच सवय वाद भनिवार, नेमि कुरु जिन वंदि हो ||५|| सभा पूरि हरि राज, वऊषा सयतु न सुझे ठाउ । होह अषारे पेथने, गनी राइ भइ मनोहारी । नाशइन आरते उतारी, नेमि कुंवर जिन मंदि हो || ६ || Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमीश्वर को उरगानो १६७ नेमोरयर का परिचय तब बसुदेव कहे सप्तभाव, यहु नेमीसुरु त्रिभुवन राउ । समद विच घर औतरे, छत्रु देहु यौं ज्यौं नर नाहा । वादि परन भारते कराड, नेमि कुवर जिन बंदि हो ।।७।। तव हरि भने सुनै वसदेउ, नेमि तिनो तुम जानो भेउ । सो कारन हम सो कही, विद्या बलु या पासन माहि । जोत्यो कहै जुरासिंधु ताहि. में वारो करि जानियो। तब हि कहै बलिभद्र कुमार, मो पहि सुनौ यांको व्योहार । गुपित रूप गुन मागरी, नेमि कुवरु यहु गश्वो वीरु । या समान नहि साहस धीरु, नेमि कुवर जिन बंदि हो ।।। जूत झा अनार के पास र राजत माह का प्रस्ताव सुनत प्रचं मी हरि मन भयो, पटतरी नेमी स्वर कोलियो । सब वलु आउत देखियो, बिलख वदन माहरी मन जाम । कर ही उपाउ त्रिसो ताम, दूतु तब हि तिन पाठपो । उग्रसेनि घिया राजकुमारि, राजुल देवी रूप कि पारि । देहुँ गइ कन्हरु भनौ, नेमि कुवर या व्याहै भाई । आदौ सयल साथ समुहाइ, नेमि कवर जिन वंदि हो ॥३॥ उग्रसेनि तब हरखिय गात, परियन बोलि कही तिनि. वात । सौज करो वहु अति धनि, जादौं भावहि स्यौ परिवार । कला हमारी रहे अपार, मनु नाराइन रंजियो । बधिक बूलाइ राइ यो कह्यो, वन मा जीउन एक रहै । सौ निग्रह तुम सौ करो, हिरन रोझ वह जीव भपार। आनहु षेरि न लावो वार, नेमि कुवर जिन बंदि हो ॥१०।। वारात छपन कोरि जो जादौ असमान, पहथे उग्रसेन के धान । पंच मवद वाजेहि धन, छायहु सुर गगन पाकासु । सुरपति सेसु डरौहि काविलास, तीनि भुवन मन फपियों। नेमि कुवर जोवहिं बहु पास, जीव देखि चितु कियो उदास । नेमि कुवर जिन वेदि हो ॥१२॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि नेमिकुमार का प्रश्न-. नेमी भने हरि सुनहु विराम, जीव कहाए बहुत अपार । कोन काज ए घेरियो, कारनु कषनु सुनौ वटवीर । बहुत चिता मो भईय सरीर, सांचउ वयनु प्रगासियो । नारायण का उत्तर भनहि नाराइनु सुना कूवार, जीनर सोइ होद संधार । वह ज्योनार रचाइचीयौ, यथिए जीउ मह लईहि काज 1 भोजन कराह तुम्हारे काज, नेमि कुवर जिन वदि हो ।।१२।। मेमिकुमार का वैराग्य भयो विरागी सुनत हरि वयनु, प्रसौ व्योह कर अन काबनु । कंकन मुकर जु परिहरे, झाडी प्रर्य भंडार मु राजु । जीव सइल मुफराळ माजु, ध्याहु छोडि तपु सुगपो । रथ त उतरि घले बन मोरि, कर कंकन सव डारे टोरि । नेमि कुवर जिन यदि हो ।।१३।। जानिउ सयल ससार प्रासार, छोडि वाले सब राजू भंडाम । वित वैराग जु दिद धरी, गो गिरनरि सिपिरि पर वीरु । चौधा जो साहस पीर, भुवनु सानु देखियो । उत्तिम ठाऊजु प्रासनु देहि, लोभु मानु जे दुरि फरेहि । निहायल मनु करि सोश रहै, पंचम महानत संजमु घरं । कष्ट सरीर बहुत विधि करै, सीस सुमति जिहि जिय घसी। नेमि कुवर जिन बंदि हो ।।१४।। जोग जुगति सौं ध्यान कराइ, चो में गमनु कि वारियौ । मनु इन्द्र पंची निगहे, कर्म तारासु परम पदु लहे । नेमि कवर जिन बंदि हौं ॥१५॥ नेमि कुवर गिरनयरिहि, जादौ सगल विलखित भए । कन्हर मनु यानंद भए, उग्रसेनि दुख करहि अपारु 1 कियो हमारी सुव भयो प्रासरु, नेमिक वर जिन वदिष्ठौ ॥१६॥ राजुल का विलाप राजुस देवी तवि सुधि लही, दासी बात जाइ तब कही। नेमि सुनौ गिरि सो गए. सुनत वासु मुछिय जाइ । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिश्वर को उरगानो १६६ कौन पाप हम कीन माइ, खिन सिन मुरछि भौ परिजाइ । पिन पिन उठि जोबइ चढ़ नास, परीय थियो । मा को मनु मेरी धीरव, कोनु वहोरै नेमि कुवारु । कोयहु जाइ कर उपगारु, नेमि कुचर जिन बंदि हौं ।।१७।। राजुल का अपने पिता के पास जाना— तव उठि कुवरि पिता पहि जाहि, वात करत वे षरीय लजाइ । नेमि सुने मिरि पो गये, कहउ पिता तुम जानउ भेउ । फोनु यहोरे जावो देव, गबहु भरि चिरु न संहासे । सुनत वात सो मुरही जाइ, व्याह छांडि संगम लिया । उनि वैराग कियो किहि काज, छांडिज छत्र संघानु राजु । नेमि कुवर जिन बंदि हो ।।१।। उग्रसेन का उत्तर उनमेनि यो कहि विचार, यह सब जाने का मुरारि । जिन ए जी विराईयो, देखि तिन्हहि मन भी बरामी । वोछउ कुवरि तुम्हारो भाग, कन्हर कुरम कमाइयो । लेन गये हम करि मनोहारि, जादौ सयल रहे पचिहार । दूसरे राजकुमार के साथ विवाह का प्रस्ताव दे दिड संजमु ले रहे, अवहि कवरि हम करिहै काजु । ब्याह तुम्हारा होइ है माजु, वन पोलो ले भाइ हैं। अति सरूप सो राजकुवार, चौदह विद्या गुनहनि धानु । नेमि कुवर जिन वंदि हौं ।।१६।। राजुल का उत्तर-- यह सुनि राजुल उठी रिसाइ, ऐसौ बोलु कहै कतराइ । व्याछ जनम पोरै करो, एही जनम मो नेमि भरतारु । उग्रसेनि सौ सयु संसारु, चढि गिरिनयरिहि जासीउ । उहि साथ ही संजमु धरी, सहक परीसहि सेवा करी । कर्म कुचित सव टारिहै, प्रह नित र पिया के साथ । नेमि कुघर जिन वंदि हौं ।।२।। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि राजुल की पुनः चिता करना मारगु जो करे संदेह. नेन भरे जनु भावो मेह । कंत कवन गुन परिहरी, गढी होइ सो चलति तुरन्त । दुद्धरु दुषु दियो भो कंत, तुम विनु को ममु धीरवै । जगु अध्यारो मेरे जान, अोर न देषो तुमहि समान । नेमि फुवर जिन बंदि हौं ॥२१।। अरब कारन कर बहुतु, वर्नन जाइ तासु गुन रूपु । रुदनु करत मारगु गई, तुम विनु जन्म जु वाहायो । पुर्व जन्म विछोही नारि, पाप पराचित हम किए। पंथ अकेली चलति अनाह, प्रसो तुमहि न बुभिर नाह । हमहि छांहि गिरि तुम गये, पिय विनु सुदरि करबि काद। रहे समीप तिहार नाह, नेमि कबर जिन बंदि हौं ।२२।। गिरिनार पर राजुल का पहुंचना करति विष्षा गई सो नारि, पहजी जाइ सिपिरि गिरनरि । चरन लागि सो वीनर्व, कर जोरै सो बात कहाइ । दासी वर मो जानो राइ, सेवा वह दिन दिन करौं । नेमिकुमार से निवेदन हम परिय कवन तुम काज, छांडो च्याहु माई मो लाज । तुम गिरनैरिहि पाइयो, दोसु कवन पीय लागो मोहि । सो कहि स्वामी पुछु तोहि, नेमि कुवर जिन ववि हों ।।१३॥ मेमिनाथ का उत्तर नेमि भने सुनि राज कुवारि, हमि संजम लियो चदि गिरनारि । राज रोति सब परिहरि, ह्य गय विभव छत्र धन राजु । परियन व्याहु नही मो काजु, जीव दया प्रतिपालिहो । यहु संसार जु साइरु भव भवनु, बहुरिउ भ्रमि भ्रमि दुई कौनु । नेमि कुवर बिन बंदि हो ॥२४॥ अब तुम कुवरि वहु घर जाह, कंकन बंधो कर विवाह । हम गाँहि नु करि बावरी, राजधिया तु प्रति सुकुमाल । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिश्वर को उरगानो १७१ भोग विलास करो तुम वाल, तपु न करि सके सुन्दरि । हम जोगी दि जोगु पराइ, ध्यान जुगति सौं कष्ट सहाइ । हम तुम सायु न बुझिय, जाऊ करि हम छाडी प्राय । करहु बहु विधि भोग विलास, नेमि वा जिन बंदि हौं । राजुल एवं नेमिकुमार का उत्तर प्रत्युत्तर राजुल भने सुनौह जदु राइ, तुम ाँ छोडि परै हम जाइ । पापु कौन हम को पर, तुम जु कहो हम सौं घर जाम । जीब कह तु हो तजौ परान, घरन कमल दिन सेई है । धरु करि हो तुम नामु प्रधार, सिदि महिमन उतर पर नेमि फुपर जिन वंदि हौं ।॥२६॥ तव हि कुवर ते उत्तर दयो, घर को भरु तुम्हारे लेह । वन ह अकेली तपु करो, हम वह कष्ट सहै चितु साइ। तुम हि कुवरि सही कत पाइ, नेमि कुवर जिन बंखि हौं ॥२६।। उग्रसेनि धिध चतुर सुजान, कुवर सुनहु यो उत्तर ठानि । पास रही सेवा करो, जाउ घरें हो कसे रहो । गरुवो दुख बहु तू क्यों सही, खंडर तु मान को हाषि है। बारह महिनों का विर वर्णन, सावन भावों सावन भादो वर्षा काल, नीरु अपबलु वहुत प्रसराल । मेघ घटा अति नऊ नई, लह लह वीमुरी चमकति राति । तव कर रयनि समारे कंति, परदेसी चितु वह भर 1 दादुर भोर र दिन रैनि, पपीहा पिज़ पिउ करें। को झील करोउ म है नेत्र, तुम विन को जिउ राषिहे कंत । नेमि कुवर जिन वदिहौं ।।२।। पासोज कातिक कातिक पवार सरद स्तुि होइ, नरि हुलासु कर सवु कोई । निर्मल नीर सुहावनो, पिसि निर्मल ससि प्रति सोहति । भरि जति नैन सम्हारै कसि, विरह व्यथा प्रति ऊपजे । गीत नाव सुनि में पहुं पास, हम तुम बिनु पिय परी भमास । नेमि कुबर जिन बंदिही ।।२६।। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ मंगसिर पोष - अघन पुषु प्रति सीत प्रपा, जादो विषु व्याप संसार | काम अगिनि च पर जलु, घर घर सुख करें सब कोई । तुम बिन हमहि कहा घर होइ, हिरदो कंप पात ज्यौं । निसि अंध्यारी परंतु तुना, काम लरि अति होइ अपार । यहु मनु तर पीच विना, सत्रु संसार करें प्रति भोग राजुल र करं प्रीय सोगु. नेमि कुंवर जिन चंदिहों ||३०|| माघ फाल्गुन कविवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि माघ पवनु फागुन रितु होइ, रितु वसंत खेल सब कोई । कंत सतंवर कामिनी, दिन दिन रागु करे असरें । संजोग सिंगारु बहुत विधि करे, फागुण फागु सुहावनी । सो सरिसु कर दिनु खेल गावहि गीत करे पिय मेलु । परि मेरि उासी, हॅत्र, सवनि सिर उई सहु । चोवा चन्दन अमर कपूरु. तिलकु करें कर सुन्दरी । घर घर बांधे बन्धन बार, पंच सबद बाजही अनि प्रार । पिय परिहसु राजुल करें, दिन दिन तुम्ह ही सारे कंत । राखि सके को हरा उड़ात, नेमि कुवर जिन वंदिनीं ॥ ३१ ॥ चैत्र वंशाख --- J चेतु सुहाओ अरु वैशाख वनस्पती सब भई इलासु । भार अठारह मोरियों, सब फुले नन्दन वन फूल । वासु सुगंध भर रस भुमि, फलहिते अमृत फल घनं । वन कोयल कुह कह सुर करहि मह यह मोर सुहावने । विरहिनि म म्हारे कंत, पिय विनु जनमु अकारथ जंत । नि निरासी क्या गर्म, हमहि पिया जनि करहु निरास । बीसर रैनि सुम्हारी भास, नेमि कुंवर जिन बंदि हौं ||३२|| " जेठ भाषाठ जेठु प्रषालु गरम रितु होइ नाम परे व्याप सब कोई तपा त तनुं प्रति तर्प, पेम अगिनि तन है सरी । लुवल हि र सघन परही सीतल जतन ते सयल करही । श्रीखंड घसि तनु मंडहि, प्ररु वीच गरम पमी जं देह । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिश्वर को उरगानो १७३ होइ विथा प्रति पिय के नेह, वाउ सरीर सहाबानी । तपती अधिक पिय बुम बिनु होय, हंस उडत न राखे कोई । निसि वासर गुन तुम्हेरी, सातल पवन तुम्हारे कंत । सुनत हहि सुखु होइ तुरन्त, नेमि कु घर जिन बंदिहाँ ।।३।। ए षट् रितु को सके सह्मारि, उपज दुषु तुमहि सम्हारि । ययौं फरियहु मनु राषि है, रहि है पास तुम्हारे देव । करि, चरन कमल नित सेव, नेमि कुंबर जिन दिहीं ॥३४॥ जादो राइ भने सुनि वैन, सवनु करहु कंत भरि जल नैन । हम मनु संजमु दिदु धरै, तुम प्रति गाहु कत करी बहूत । राजु कर हु धर सखिनि संजुत्त, नेमि कुबर जिन बंदिहाँ ।। ३५।। सब सुमि राजुल चिलखी होई, तुम विनु स्वामी गैहै कोइ । साथ सहित संजमु धरौ, अरु भावक अत कर उपवास । और सर्व छाडौ हम प्रास, कष्ट बहु विधि ही सही। कर दया मो ये उपदेसु, ज्यो सिरिए संसार असेसु । नेमि कुवर जिन बदिहौं ॥३६॥ यह सुनि दौले त्रिभुवन नाथ, धर्म सनेह रहै हम पास ! मनु निहचल करि रायो, सुनह कुघरि संसार असारु । भव राग्यरु जल गहीर प्रपार, धतुर्गति गमनु निवारियो । जीव छी चौरासी जाति, सह वहुत दुषु अंन मन भाति । भ्रमतनि धेनु न पाइएँ, रहट माल ज्यों यह जीव फिरै । रूप भनेक घहत विधि कर, नेमि कुवर जिन वंदिहीं ॥३७॥ अब सपिकिंतु धारियो दि चितु, मोख मुगति जो लह्ह तुरन्त । परु परिहरि मुनि सुन्दरी. चेतनि सुन्दरी सम फरह गुन जासु । ध्यानु धमह जानी दीनो तात, मिथ्या मोहवि परिहरौ । पंच परम गुरु जघु पाह, जीव दमा जीवटु तय राह । नेमि कुवर जिन वंदिहीं ॥३८।। पालउ पाठ मूल गुन सारु, सात विसन तजि तिरि संसार । वर प्रनोबत दिन करहु, अरु ग्यारह प्रतिमा जिय धरी। श्रेपन क्रिया करि भव तिरी, मुन प्रस्थान चौदह चढौ । ए श्रावक व्रत कोहि सारु, जिहि त कुवरि तिरी संसारु । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ कविवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि पंच मंगल धुपाइये, यह तजि कुवरि निधारी मोह । दीक्षा घरऊ मोहि व्रत देउ, नेमि पर जिन वंदिहीं ॥३६॥ ल संजम व्रत ध्यानु धराहि, जो परजानि से हारि कराइ । अग्य गुनु गहि निर्मली, इहि विधि कर्म दसन सौ करे । राजल नेमी चलत नित घरं । नेलि कवर जिन वैदिह ।।४।। मेमि वह राजमती नारि, दुह संजम लियौ पति गिरनरि । तीनि भुवन बसु मंडियो, अरु तिन उपजो केवल ग्यानु । सुरनि सहित सुरपति अकुल्यानु, करन महोछो आयो इन्द्र । पूजा नित सेवा कराइ, पंच सक्द तल रसी बजाइ । कलस प्रठोसर धरियो पाई, करि मारतो घर बुजवंदियो। समोसरमु स्वामी को कियो, सुर मर केतिक पाईयो। गन गंधर्व बीद्याधर जछि, जादौ सयलति राई संषि । नेमि कुवर वंदिहौं ।।४।। बनी इन्द्र तवही तिनि कियो, सुनतई न जग मन भयो। शीव निदा नदि ते भाऐ, ज स यदु तिल लोकह भए । जे जसवर तिहु लोकह भए, पंचम गति सीढत सुभयो । नेमि घर जिन वंदिहीं ॥४२॥ प्रशस्ति-- श्रावगु सिरीमलु पर जसवंत, निह जिय धर्म धरंत । चरु नलम भवि वंधती, पुत्र एक ताके घर भयो। जनमत नाज चतुर तिनि लियो, जैन धर्म दिनु जीयह घरी। नेमि चरितु ताके मन रहै. सुनि पुरानु उस्मानी कहै । नेमि कुवर जिम वंदिहौं ।।४।। माधि देसु सुख सयल मिधान, गढ़ गोपाचलु उतिम ठानु । एक सोवन की लेका जिसि, तावह राउ सबल पर वीर । मुववल भाप जु साहस धोरु, मान सिधु जग जानिय । ताके राजु सुखी सब लोगु, गज समान करहि सब भोगु । जैन धर्म बहु विधि चलं, श्रावग दिन जु करे षट् कर्म । निहर्च चितु लाहि जिन धर्म, नेमि अवर जिन बंदिही ।।४४ ।। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिश्वर को उरगानो १७५ संवतु पग्नहस बो गर्न, गुन गनुहरि ता उपरि भने । भादौ वदि तिथि पंचमी वार, सोम नपितु रेवती मास । लमन भलो सुभ उपजी मती, चन्द जन्म वलु पाइयो । चतुरु भने भखी सयलनि वासु. मुनिय सुनत जिय करहि न हासु । लछि उपसमै दुषि हीनु, म स्वामी को कियो बखानु । पळत सुनत जा उपज्य ग्यानु, मन निहाचल करि जिय धरऊ । राजमती जिन संजमु लियो, नेमि कुवर नेमि सयल वीनयो । नेमि कुवर नेमि जिन बंदिहौं ।।४।। ॥ इति नेमिसुर को उरगानी समाप्त ।। संवत् १८२"वर्ष सव माह वदी १४ व सेरो गुरु । लीखीतं श्री देवेन्द्रकीति पापरब सीमा के मंत्र । 000 २. गीत (गारि) [१] ना जानो हो को को चेरै ढोलरीया कस जाई ।। मन चेतह हो प्रमुका सघई सुबहु विचारु ।। मन ।। पषु गति प्रवकत भ्रमह, संसारु, घर परविणु सत् प्रयो है जारु । जगतारनु जिन नामु अपारु, जीवक्ष्या विनु धरम्मु ण सारु ।। मन ।। जिनवर पूजा रबह करि भाउ, आठ दश्व लैई पूजा साह || मन ।। पर परम गुरु जाय जपाहु, समिकतु निपलु पितह वराह ।। मन ।। भवति जिलभु पंचम गति जाड, संसारह श्राधग कलि सारु ।। मन।। भनई च श्रावगु श्रीमारु, मन चेतहु हो अमुका सघई सुणगु विचार ।। [२] गाडी के गड़बार को पइया घर कहिगै ।। इहि मायति ।। गनधर गोतम स्वामी, सुमिरि जिणु वंदहुगे । भष संसारु पारु, भविक गण ऊतरहिन् । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि घोग गवरणु निवारि, मुकति सिरी सी जैगी । सुम्ह लईय भाविक जन लेह, कहा भव की जंगी । श्रावग कुलि मक्ताक, वहरि पर लीग । धर्म दया जग साम, सनिह यैको जैगे । दस लखरिण जिन घम्म, दिनह किन कोगे । सातो विसन नीवारि, फर्म क्यो की जंगे । सिजि मिच्यातु अपार, सुमति जी घरि जैगी। क्रोधु मान मदु लोभु न मया को जैगी । परु परिहरि भव दूरि कवन सुस्तु पावहिर्ग । परमात्मा मन ध्यानु परिवि चितु लावहिगो । जाते तिरिह तुरंत संसारु मोख पद पायहिगे । घाबग सुरण विचार, चतुरु यों गामि ।। [३] माइ तिवा यावारी के जईयो । वावा वारी क्यो जत्यो, भवियण वंदद करि जोरि । जिनदर घलन जुहारी, च में ममनु निवारि । भः ससारह तारे, संभल जीय अजाणा । माया मोह मुलाना, यह मिथ्यातु भरीई । श्रावग कुलि कत प्रायो, महल जन्म गवायो। अतिम कुलि कत अवतरीया, सात विसन मद भरिया । मोह महा मद राच्यो, मूलगुना नरु जाणं । ईन्द्री पाचो सुख मानो, प्राई तिवा बावारी के जइयो । भवीयह साख चौरासी, बंध्यौ मोह की परिख । जिणवर चलन बुहारी, भावागमनु निवारी। यह त्रीय लोकु भमाई, सबै देय हारे । को भव पार उतारी, जीव दया नरु पारे । सिवपुरि गमनु निवार, प्राई तिवा वावारी के अईयो । भोजन राति कराई, यस संसार भमाही । चौविधि दानु न दीण, सुधो भाउ न कोएं। मिथ्या मोह भुलाया, जिनवर धम्मु न जाण्यो। लहियो श्रावग कुलि जन्म. करि दिन जिणवर धम्म । ज्यो जीय लहे सुख ठाऊ, तो घरि निहलु भाऊ । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरुमल के गीत १७७ आस्मा ध्यानु करीज, सहि पंचम गति लीजै । श्रावग सुणहु विचारू, भनई चतुरु श्रीमारु ॥ क्रोध गीत [४] कोष क्रोध न की जीवरा, फछु उपसमु हो । हर हि पर: का बहि, प्रो. गिति सवारी । तब अप्पो हो अप्पो तापई पस्तव । परतवं अप्पा गुननि जारई, क्रोध होयरा जव धरै । सुमति करनरण बोसरई, ईही सील संजमु स अविरया । जब सुरिस मन संचरैई, इम जानि जिवाला गहहि उपसमु। गोधु ख्रिणमत काई करे, क्रोध न कीज जीवरा ॥१॥ मान मान न कीजै जोईवर।। तिसु मानहि हो मानहि जीयरा दुखु सहै । प्राणु सराहै हो भलो, पुरिण फर की हो पा की णित करई । परु कर निद्रा नित प्रानी, इसोइ मन गरवं खरी । हउ रूप चतुरु सुजानु संदर ईसोप भर्न मद मरे । पहमेव करि करि कर्म बंधी, लाख चौरासी महि फिरें । इम जानि जियरा मानु परिहरि, मानु बहु दुखह करी ।।२।। माया माया परिहरि जीवडा, जोक सुगहि हो सुहि पावह सुख घनौ । माया कपट जे चलहि ते पावहि हो पानहि दुख दालिदु धनौ । दुख तनोऊ दालिदु मरिक जीवरा, कर्म फेरै कडो लई। घर घरह भीतरि आनु प्रानी वयन पर बोलए । परपंषु करि करि तबई पर कहु कपटु सबु माया तनो। इम जानि जीवडा तिहि माया, जीऊ सुपाबई सुख घनौ ।।३।। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ कविवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि सोम लोमु न कीजई जीवरा, तिसु लोभहि हो लोभहि लाग्यो पापु धनौ । तिनु पापहि हो पापहि जीया दुखु सहेई । दुखु सम्हा जीउयरा लोभ काहन लोभ कहुडीउ तरफरई । ईहु लोभ कारम जीऊ पतिगा, देखत इंदियजा परई । संकलप विकलप भोऊ जियडा, लोमु दंछ चित परई। इम भनई व मनि निरानि अवियल, सोगिन मत कोई करै ।।४।। ॥ इति क्रोध गीत समाप्त ।। वे सभी चारों पद शास्त्र भण्डार दि. जैन बड़ा मन्दिर तेरहपंथियान अयपुर के गुटके में संग्रहीत हैं। 00 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ गारवदास गारवदास विक्रमीय १६ वीं शताब्दि के चतुर्थ पाद के कवि थे उनके सम्बन्ध में सर्वप्रथम मिश्रबन्धु विनोद में एक उल्लेख मिलता है जिसमें एक पंक्ति में कवि का नाम, ग्रन्थ नाम, रचना काल एवं रचना स्थान का नाम दिया हुआ है । लेकिन उसमें गारवदास के स्थान पर गौरवदास तथा रचना संवत् १५८१ के स्थान पर संवत् १५८० दिया हुआ है। मिश्रबन्धु के परिचय के पश्चात् भी हिन्दी विद्वानों के लिए गारवदास अज्ञात एवं उपेक्षित से रहे । सन् १९४८-४९ में जब मैंने राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थ-सूची बनाने का कार्य प्रारम्भ किया तो जयपुर के ही दि० जैन बड़ा मन्दिर तेरह पंथियान में इसकी एक पाण्डुलिपि प्राप्त हुई जिसका उल्लेख ग्रन्थ-सूची के चतुर्थ भाग में पृष्ठ संख्या १६१ २३१३ संख्या पर किया गया। लेकिन उस समय भी कवि के महत्व को प्रकाश में नहीं लाया जा सका और इसके पश्चात् भी कवि एवं उनका काव्य विद्वानों से मोझल ही बने रहे । श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाश्य दूसरे पुष्प के संवत् १५६० से १६०० तक होने वाले कवियों के सम्बन्ध में जब निर्णय लेने से पूर्व पारवदास एवं उनकी रचना यशोधर पति को देखा गया तो हिन्दी की महत्वपूर्ण कृति होने के कारण कविवर वृचराज के साथ गारवदास को भी सम्मिलित किया गया । गारवदास हिन्दी कवि थे लेकिन वे प्राकृत एवं संस्कृत के भी यच्छे विद्वान् थे । यद्यपि अभी तक उनकी एक ही काव्य कृति यमोवर चरित्र उपलब्ध हो सकी है लेकिन बही एक कृति उनकी विद्वता की परख के लिए पर्याप्त है। वैसे कवि की ओर भी रचनायें हो सकती हैं लेकिन जब तक उत्तर प्रदेश के प्रमुख भण्डारों की खोज पूर्ण न हो जाये तब तक इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता । कवि परिचय कविवर गारवदास उत्तर प्रदेश के रहने वाले थे। उनका ग्राम या फफोतूपुर Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि (फोंदु) जिसमें आवकों की यच्छी वस्ती थी। वे प्रति दिन भ्रष्ट द्रव्य से जिन पूजा करते थे। उनके पिता का नाम राम था। कवि पर सरस्वती की पूर्ण कृपा थी । इसलिए उनका वाक्य ही काव्य बन जाता था। पुराणों को सुनने में कवि को विशेष रुचि थी। एक बार कवि को नगकै नई के निवासी साह धेनु के पास जाने का काम पड़ा । जब येषु धावा ने गारवदास के वचनामृत का पान किया तो वह प्रसन्न हो गये और हाथ जोड़कर कहने लगे कि यदि यशोधर कथा को काव्य बद्ध कर सको तो उसका जीवन सफल माना जावेगा । येघु श्रीमन्त ने यह भी कहा कि जिस प्रकार कवि ने इस कथा को अपने गुरु से सुनी है उससे भी अधिक सुन्दर रूप से उसको वह चाहता है । कथा कवित्त बंघ चौपाई छन्द में होनी चाहिए। इस प्रकार प्रस्तुत काव्य रचने की प्रेरणा कवि को फफोंदु निवासी धेनु से प्राप्त हुई थी। कवि ने यशोधर चरित्र की रचना संवत् १५८९ भादवा शुक्ला १२ वृहस्पतिवार को समाप्त की थी। रचना समाप्ति के समय कवि सम्भवतः पते श्राश्रयदाता के पास ही थे । प्राश्रयदाता ܘܟܐ उत्तर प्रदेश में गंगा और यमुना के बीच में कैलई नाम की नगरी थीं। उसको देवतागण भी सुख और शान्ति की नगरी मानते थे । यहाँ ३६ जातियों की १. २. ३. राम सुतनु कवि गारववासु सरसुति भई प्रसन्नी जासु । चत फफोतपुर सुभ होर श्रावग बहुत गुणी जहि और ||३३२|| वसुविह पूज जिनेस्वर एहानु ले प्रभारु दिन सुनहि पुरा ||५३३|| धु सर्न कवि गारवदासु, निमुनि वचनु चित भयो हुलासु । द्वे कर जोरि भरी गुन गेहू, सफल जनम मेरो करि ले ||१८|| सलिल कथा जसहर की भासि, जिम गुरु पास सुनी तुम रासि । जो बहु आदिकविसुर भए, अरघ कठोर वरित रचनए ||१६|| संवत् पन्द्रह से इकअसी, भावी सुकिल श्रवस द्वावसि ।।५३३|| सुर गुरुवारु करण तिथि भली पूरी क्या भई निरमसी । जसहर कथा कही सब भासि, सिरवलौ भाव परम गुर पासि । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गारवदास १८१ ओ सभी सम्पन्न थी। प्रभवचन्द वहाँ का शासक था जो अतीव सुन्दर एवं पूर्ण चन्द्रमा के समान था । प्रजा में सुख एवं शान्ति व्याप्त धी तथा किसी को कोई भी दुःख नहीं था । उस नगरी में श्रावकों की घनी बस्ती पी। उसी में पद्मावती पुरवाल जाति थी जो जैन धर्मानुयायी थी। उसी में साह कान्हर थे और उनके सुपुत्र थे भारग साहु । वे यशस्वी श्रावक थे। उन्होंने चार गांव बसाये थे जिनके नाम थे जसरानो, गोय, असपुर भौर सौहारु । इनके घसाने से उसकी कीर्ति चारों मोर फैल गयी। सुलतान भी उसके कार्य से प्रसन्न था। उसकी धर्म पत्ति का नाम था देवलदे। उसके उदर से तीन सन्तान हुई जिनके नाम थे मेघु, जनकु एवं घेघु साह । थेषु साह बहुत ही स्वाध्यायी श्रावक थे। एक रार पत्रु साह ने संघ सहित पाईनाथ की यात्रा भी की थी पौर वापिस पाने पर उसने नगर में सबको भोजन कराया। कुछ समय पश्चात् उसको पुत्र रत्न की प्राप्ति भी हुई । येषु सेठ दानशील भी थे और लोगों को भक्तिपूर्वक दान देते थे। बे रात्रि को जागरण करवाते थे जिससे धावकों में जिनेन्द्र भक्ति का प्रचार हो । १. मंग अमुन विच अंतर वेलि, सुख समूह सुरमानहि केलि । नयरो फैसई जनु मुरपुरी, निवसै धनी छसीसौ कुरौ ।।५२२॥ २. अभयचन्दु जह राः निसंकु, अनु कुलु पोडस कला मयंकु ।। परजा दुखी न वीस कोई, धर घर वधि वधाक होइ ।।५२३।। श्रावग बहुत बसहि जहि पाम, जनु आसिकी दीनो सियराम । पोमावे पुरवर सुखसोल, सुर समान घर मानहि कील ।।५२४।। सा कम्हर सुतु भारग सात मिनि धनुष रंनि लियो जसलाहु । जस रानो परनु सुभ ठोरु, गौछ महापुरु दूजो और ॥५२५।। मनगरु प्रेतपुरु पर सौहार, चारयो गाँध बसावन हात । जासु नाम पड़वा मुरिताम, राज काज जागो सुरिताण ॥५२६।। तासुमारि देवलदे नाम, जिम ससिहर रोहिनि रसिकाम । सोलु महातहि लीनो पोषि, नंदन तोनि यसरे कोवि ॥५२७।। मेघु मेघु परसूअस रासि, अनुकु सु र ससि सुक्र भकासि । जेठौ थेघ साह सुपहाणु, जासु नाम में ठयो पुरा ।।५२८|| ५. पुन्न हेतु जानै उपमारु, जिनवर अगिन करावण हा । बलत मोठि ले चाल्यो साथ, करी जात सिरी हारसनाथ 11५२६॥ खरचि बहुतु धनु रावन थान, घर पायो रियो भोपण दारण । ताको पुत्र रत्नु अवतरघौ, रयनायस गण वीस भरयौ ।। ५३०।। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि यशोधर चरित की कथा को समस्त जैन समाज में पर्याप्त लोकप्रियता प्राप्त है । यही कारण है कि इस कथा पर भ्राधारित चरित्र, चरित, रास एवं चौपई प्रादि संज्ञक काव्य कितने ही जैन कवियों ने निबद्ध किये हैं तथा हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा में ही नहीं किन्तु प्राकृत, अपभ्रंश एवं संस्कृत में भी यशोधर के जीवन पर कितने ही काव्य मिलते हैं । १८२ यशोधर के जीवन से सम्बन्धित स्वतन्त्र रचना का उल्लेख सर्वप्रथम प्राचार्य उद्योतन सूरि (७७९ ई०) ने अपनी कुवलय माला कहा में प्रभंजन कवि के किसी यशोधर चरित का उल्लेख किया है। लेकिन उक्त कृति भभी तक अनुपलब्ध है । इसके पश्चात् महाकवि हरिषेण ने अपने बृहत्कथाकोष (६३२ ई०) में यशोधर के जीवन से सम्बन्धित एक स्वतन्त्र आख्यान लिखा है इसलिए अभी तक उपलब्ध रचनाथों में हम इसे यशोधर के जीवन पर आधारित प्रथम भाख्यान मान सकते हैं । लेकिन १० वीं ११ वीं शताब्दि के साथ ही यशोधर के प्रस्थान ने जैन समाज में बहुत ही लोकप्रियता प्राप्त की और एक के पश्चात् दूसरे कवि ने इस पर अपनी लेखनी चलाकर उसे और भी लोकप्रिय बनाने में पूर्ण योग दिया। राजस्थान के जन भण्डारों में यशोषर के जीवन पर आधारित निबद्ध कितने ही काव्य उपलब्ध होते हैं। इन काव्यों के नाम निम्न प्रकार हैं अपभ्रंश महाकवि पुष्पदन्त रहनु संस्कृत १. जसहरऋरिज ३. यशस्तिलक चम्पू ४. यशोषर चरित्र यशोधर चरित्र ५. ६. ७. ८. £. १०. ११. १२. " यशोधर कथा शोर चरित्र " "3 "1 1 " अ० सोमदेव सूरि वादिराज भट्टारक सकलकीर्ति आचार्य सोमकीति भट्टारक विजयी वि बासवसेन पद्मनाभ कायस्थ पद्मराज पूर्णदेव ज्ञानकीति १० वीं शताब्दि १५ वीं शताब्धि संवत् १०१६ ११ वीं शताब्दि १५. वीं शताब्दि सवत् १५३६ १५ वीं शताब्दि सं० १६५६ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गारवदास १८३ १३. यशोधर चरित्र श्रुतसागर क्षमाकल्याए १५ वीं शताब्दि सं १८३६ .लिन्यो राजस्थानी देवेन्द्र १५. यशोधर रास ब्रह्म जिनदास १६०. ० प्रथम वरण) १६. भट्टारक सोमकीर्ति " (चतुर्थं चरण) १७. यशोधर चरित सं० १६८३ १८. ॥ परिहानन्द सं० १६७० १६. यशोधर रास जिनहर्ष सं० १७४७ यशोधर चौपई प्युशालबन्द सं० १७८१ २१. अजयराज सं० १७६२ २२. यशोधर रास लोहट १८ वीं शताब्दि २३. यशोधर चरित्र मनसुखसागर सं० १९७८ २४. यशोधर रास सोमदत्त मूरि २५. , पन्नालाल सं० १९३२ इस प्रकार यशोधर के जीवन से सम्बन्धित राजस्थान के जैन ग्रन्थागारों में . २५ कृतियां प्राप्त हो चुकी हैं और अभी और भी कृतियां मिलने की सम्भावना है । उक्त सूची के आधार पर यह कहा जा सकता है कि गारवदास द्वारा यशोधर की कथा को काव्य रूप देने के पूर्व महाकवि पुष्पदन्त एवं रइधू ने अपना में, प्राचार्य सोमदेव सूरि, वादिराज, भट्टारक सकलकीति, भट्टारक सोमकीर्ति एवं विजयकोत्ति ने संस्कृत में तथा ब्रह्म जिनदास, भट्टारक सोमकीति में राजस्थानी भाषा में यशोघर के जीवन पर काव्य कृतियां निबद्ध की हैं। यद्यपि कवि मारवदास ने वादिराज के यशोधर चरित्र को अपने काव्य का मुख्य भाधार बनाया था लेकिन उसने यशोधर से सम्बन्धित रचनामों को भी अवश्य देखा होगा लेकिन स्वयं कवि ने इसका कोई उल्लेख नहीं किया है। मारवदास का यशोघर चरित ५३७ छन्दों का काव्य है । बह न सगरें में विभक्त है और न सन्धियों में । प्रारम्भ से अन्त तक कथा बिना किसी विराम के धारा प्रवाह चलती है और समाप्त होने पर ही विराम लेती है। इससे पता चलता है कि अधिकांश जैन कवियों ने कान्य रचना की जो शैली अपनायी थी उसका गारवदास ने भी प्रनुसरण किया । प्रस्तुत कृति यद्यपि हिन्दी भाषा की कृति है लेकिन कषि ने उसमें बीच-बीच में संस्कृत के श्लोकों एवं प्राकृत गायामों का प्रयोग Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि करके न केवल अपनी भाषा विद्वता का परिचय दिया है लेकिन काम प्रध्ययन में थकने वाले पाठकों के लिए विराम तथा संस्कृत प्राकृत भाषा भाषी पाठकों के लिए नयी सामग्री उपस्थित की है। १६ वीं शताब्दि में यह भी एक काव्य रचना की पद्धति थी । भट्टारक ज्ञान भूषण (संवत् १५६०) ने भी 'मादीपदर फाग' में इसी शैली की रचना की है जो गारवदास के ही समकालीन कवि थे। यशोधर चरित की कथा का सार निम्न प्रकार है जम्बू द्वीप के भरतक्षेत्र में राजगृही नगरी थी। जो सुन्दरता तथा वन उपवन एवं महलों को दृष्टि से प्रसिद्ध थी। वहां के राजा का नाम मारिदत्त था। राजा मारिदत्त की युवावस्था थी इसलिए उसकी सुन्दरता देखती ही बनती थी। कला एवं संगीत का दीया । एक दिन म लगाया हा योगा उसके नगर में पाया । योगी के बड़ी बड़ी जटायें थी तथा वह मम के नशे में धुत्त हो रहा था। गौरवर्ण था। उसका नाम था भैरवानन्द । नगर में जब भैरवानन्द की तान्त्रिक एवं मान्त्रिक की दृष्टि से चारों ओर प्रशंसा होने लगी तो राजा ने भी उसे अपने महल में मिलने के लिए बुला लिया । मरवानन्द के महल में प्राने पर राजा ने उसका विनय पूर्वक सम्मान किया । राजा की भक्ति से वह बहुत प्रसन्न हुमा और कोई भी इष्ट वस्तु मांगने के लिए कहा। राजा ने अमर होने, एक छत्र राज्य चलाने सथा विमान में चलने की इच्छा प्रकट की। भैरवानन्द ने राजा की प्रार्थना को पूर्ण करने का आश्वासन दिया लेकिन उसने चंडमारि देवी के मन्दिर में बलिदान के लिए सभी प्रकार के जीवों को लाने तथा एक मानव युगल का भी बलिदान करने के लिए कहा । राजा तो विद्या के लिए अन्धा हो चुका था इसलिए उसने तत्काल अपने अनुसरों को भादेश पालने के लिए कहा । उसके सेवफ चारों भोर दौड़ गये तथा सभी प्रकार के पाशु पक्षियों को लाकर उपस्थित कर दिया। लेकिन मानव युगल खोजने पर भी नहीं मिला। कुछ ही समय पश्चात् वन में अनेक मुनियों के साथ सुदत्त मुनि का भागमन हुआ। वह वन खिल उठा | चारों ओर पुष्पों पर भ्रमर गुजार करने लगे एव कोयल कुहु कुहु करने लगी। मुनि ने उसी वन में ठहरने का विचार कर लिया । लेकिन वह वन मंधों का भी निवास स्थान था जहां वे केलि किया करते थे इसलिए सूधसाचार्य को वह वन समाधि के उपयुक्त नहीं लगा । वह अपने संघ सहित श्मशान भूमि पर चले गये। प्राचार्य ने एक युवा मुनि एवं साध्वी को नगर में माहार के लिए जाने को कहा । वे दोनों भाई बहिन थे। दोनों प्रत्यधिक कमनीय शरीर के थे तथा बत्तीस लक्षणों वाले थे। इतने में ही राजा के सेवकों की दृष्टि Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गारवदास १८५ उन दोनों पर पड़ी । उनको प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा और वे दोनों को बहामारि देवी के मन्दिर में ले गये 1 ___ मन्दिर का दृश्य विकराल था । चामें मोर पशु पक्षियों की मुडियो, मस्थियां एवं उनका रक्त बिखरा हुआ था . कार दुर्गन्ध में हर वरण समभिक भयानक था 1 भाई ने बहन को शरीर से मोह छोड़ने तथा आत्म स्थित होने के लिए समझाया। साथ ही में साधु संस्था के महत्व को भी समझाया । जब राजा ने अत्यधिक सुन्दर उस मानव युगल को देखा तो वह भी उनके रूप लावण्य को देखकर प्राश्चयं करने लगा। उसने उन दोनों से दीक्षा लेने का कारण जानना चाहा तथा बाल्यावस्था में ही तपस्वी बनने का कारण पूछा। राजा का वचन सुनकर अभयकुमार ने हंसकर निम्न प्रकार अपनी जीवन गाथा कही अवन्ती देश को उज्जयिनी राजधानी थी। वह नगर स्वर्ग के समान सुन्दर था। चारों भोर फलों से लदे वृक्ष तथा मन्दिर एवं महलों से युक्त थी । वहां के नागरिक भी देवता के समान थे । नगर में सभी जातियां रहती थीं । यहां के राजा का नाम यशोधु था तमा चन्द्रमती उसकी रानी थी। वह शरीर से कोमल तथा गजगामिनि थी । न्यायपूर्वक शासन करते हुए जब उन्हें बहुत दिन बीत गए तो उन्हें एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम मशोषर रखा गया । बालक बड़ा सुन्दर एवं होनहार लगता था। पाठ वर्ष का होने पर उसे घट शाला में पढ़ने भेजा गमा । विद्यालय जाने के उपलक्ष में लड्डू बांटे गये तथा गणेश एक सरस्वती की पूजा की गयी । पशोधर ने थोड़े ही दिनों में तर्कशास्त्र, व्याकरण शास्त्र, पुराण प्रादि ग्रन्थ तथा अश्च, हाथी आदि वाहनों की सवारी सीख ली। पढ़ लिखकर वह पुनः मातापिता के पास गया। इससे दोनों बड़े पानन्दित हुए । यशोधर का विवाह कर दिया गया। एक दिन राजा यशोधु सभा में विराजमान थे कि उन्होने अपने सिर में एक श्वेत केश देख लिया इससे उन्हें बराग्य हो गया और अपना राज्य कार्य यशोधर को सौंपकर स्वयं लपस्वी बनने के लिए वन में चल दिये। __यशोधर बड़ी कुशलता पूर्वक राज्य कार्य करने लगा। उसकी महारानी का नाम अमृता धा को देबी के समान थी। कुछ काल उपरान्त एक कुमार उत्पन्न हमा जिसका नाम यशोमती रखा गया । यशोधर ने अपने राजकुमार को शासन का भार सौंप स्वयं अपनी रानी पमृता के साथ पानन्द से रहने लगा । यशोधर को अमृता के बिना कुछ भी प्रच्छा नहीं लगता थ।। अमृता के महल के नीचे ही एक कुबड़ा रहता था जो दुर्गन्धयुक्त शरीर वाला, अत्यधिक विरूप था लेकिन वह संगीत का बहुत ही जानकार था । रानी ने जब उसका संगीत सुना तो वह उस पर Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि मासक्त हो गयी और उसके बिना अपना जीवन व्यर्थ समझने लगो | प्रधं रात्रि को पय राजा यशोधर उसके पास सो रहा था तो वह उसको सोता हपा छोड़कर अपनी एक सेविका के साथ उस क बड़े के पास चल दी। कधि ने रानी अमृता एवं दासी को बहुत ही सुन्दर वार्ता प्रस्तुत की है साथ में संगीत विद्या का भी राग रागनियों के साथ अच्छा वर्णन किया है। जाती हुई रानी के नुपुर की आवाज सुनकर राजा को चेत हो गया। जब उसने रानी को प्रचं रात्रि में कहीं जाते हुए देखा तो एक बार तो उसे अपनी प्रांखों पर विश्वास नहीं हुमा। लेकिन उसे पलंग पर नहीं पाकर वह भी हाथ में तलवार लेकर रानी के पीछे-पीछे दवे पांव से चल दिया। रानी ने कुबड़े को जाकर जगाया पौर उसके चरणों को छूना । कुबड़े ने उसे गारी निकाली फिर भी रानी एवं उसकी दासी हंसती रही और उसकी मनुहार करती रही। रानी ने उस कुबहे के गले लग कर कहा कि वह उसके बिना नहीं रह सकती। लेकिन वे दोनों ऐसे लगे जमे हंस के साथ कोवा। रानी ने कबड़े के पांव दबाये तथा सभी तरह से उसकी सेवा की। यह देखकर राजा से नहीं रहा गया और उसने तलवार निकाल ली । लेकिन उसने विचार किया कि स्त्रियों पर तलवार घलाना कायरत। कहलाती है तथा कुबड़ा जो दिन भर झूठन वाकर पेट भरता रहता है उसे मारने से तो उल्टा उसे अपयश ही हाथ लगेगा । यह सोचकर राजा ने तलवार वापिस रख ली। वहां से राजा यशोधर अपने हृदय को बच के समान करके पालकी में बैठ कर चित्रशाला चला गया। रानी तो काम विह्वला थी इमलिये बड़े के साथ काम क्रीड़ा करके वापिस महलों में प्रा गयी। प्रब वह राजा को जहरीली नागिन के समान लगने लगी। जिसके साथ क्रीडा करने में राजा मानन्द की अनुमति करता था वह पब विषवेलि लगने लगी। राजा को रानी की लीला देखकर जगत् से उदासीनता हो गयी । प्राप्तःकाल हुमा। उसकी माता चन्द्रमती भगवान की पूजा करके हाथ में मासिका लेकर राजा के पाम आयो । राजा द्वारा माता के चरण हने पर उसने आशीर्वाद दिया। राजा ने अपनी माता से कहा कि उसने पाज रात्रि को जैसा सपना देखा है उससे लगता है उसके राज्य का शीघ्र विनाश होने वाला है। इसलिए उसके बराम्य पारण करने का भाव है। लेकिन माता ने कहा कि तपस्वी बनना कायरता है । जो राजा स्वप्न से ही डरता है वह युद्ध भूमि में कैसे जा सकता है । इसलिए राजकाज करते हुए ही देवी देवतामों को बलि चढ़ा कर उनको प्रसन्न कर लेना चाहिए जिससे सारे विघ्न दूर हो सकें। नगर के बाहर कंधारण देवी है उसको बलि चढ़ाने से सब विघ्न दूर हो सकते हैं । लेकिन Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गारवदास १८७ राजा ने ऐसे किसी भी कार्य को करने का प्रतिवाद किया मोर हिंसा से कभी शान्ति नहीं मिल सकती, ऐसा अपना मन्तव्य प्रकट किया। जीव घात ओ उपज धम्म, तो को अवरु पाप को कम्मु । जे ते लख चौरासी खाणि, ते सन कुटमु माइ तू जागि । रानी चन्द्रमती के विशेष आग्रह पर राजा यशोधर देवी के मन्दिर में गया और यह भाव रखते हुए कि वह मानों जीवित कुकुट है, पाटे के कुकुट की रचना करवाकर उसो का देवी के प्रागे बलिदान कर दिया। इससे राजा को जीव हिसा का दोष तो लग ही गया। देवी के मन्दिर में से राजा अपने महल में आया और प्रपना सम्पूर्ण राजपाट अपने लड़के को देकर स्वयं वन में तपस्या करने के लिए जाने का निश्चय किया । राजा मारतस ने जब यह कथा सुनी तो उसने भी फर्मगति की विचित्रता पर पाश्चर्य प्रकट किया। जव रानी अमृता ने यशोधर के तप लेने की बात सुनी तो वह भविष्य की माशंका के भय से परने लगी। इसलिए वह भी राजा के पास गयी और उसी के साथ दीक्षा लेने की बात कही । राजा ने पहले तो उसके वचनों पर विश्वास ही नहीं किया लेकिन रानी राजा को मनाने में सफल हो गयी और उसने साथ-साय तप लेने की स्वीकृति प्रदान कर दी। बालम बिनु किम भामिनी, किम भामिनी बिनु गेहु । दान बिहीनी जेम घरु, सील बिहीनो देह ।।२८८॥ राजा की स्वीकृति पाकर रानी वापिस अपने महल में चली गई । वहां वह अपने भोजनशाला में गयी। उसने बहुत से विषयुक्त लहु बनाये और उनमें से कुछ लड्. लेकर वह वन में गयी जहां राजा यशोधर एवं चन्द्रमती बैठे हुए थे । अमृता ने दोनों को विषयुक्त लड्डू खिला दिये । लहु, खाने के बाद पहिले चन्द्रमती मर गयी प्रौर थोड़ी देर बाद राजा भी वैद्य-वैध करता हुमा तड़फने लगा। रानी प्रमृता को इससे बहुत डर लगा और उसने केश मुडाकर साध्वी का भेष धारण कर लिया और अपने पति को घसीट कर मार दिया। फिर वह जोर-जोर से रोने लगी। रानी का रोना सुनकर उसका लड़का यहां माया और पिता को मरा हुमा देखकर मुंह फाड़कर चिल्लाने लगा, साथ ही में दूसरे लोग भी रोने लगे तथा रानी को सास्वना देने लगे। उन्होंने संसार का विविध स्वरूप बताया और सन्तोष धारण करने की प्रार्थना की। सब लोग राजा यशोधर एवं चन्द्रमती को प्रमशान ले गये पौर उनका दाह संस्कार किया। यहीं से यशोधर एवं रानी चन्द्रमती के भवों का वर्णन प्रारम्भ होता है। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि राजा यशोधर मर कर उज्जैनी में ही मोर हग्रा और चन्द्रमती श्वान हुई । श्वान का अन्य जीवों के साथ स्नेह हो गया और बहू मन्दिर के बाहर रहने लगा । एक दिन एक शिकारी बहुत से पक्षियों को पकड़ कर वहां लाया । उनमें एक मोर बहुत ही सुन्दर था । शिकारी ने उसको मन्दिर में छोड़ दिया। यहां वह बहुत ही कौतुक दिखाने लगा। वह कभी कभी वहां नाचता रहता था । एक दिन घनघोर पावस का दिन था । मोर मन्दिर के शिखर पर चढ़ गया उसको बहां पूर्व भव का स्मरण हो प्राया। वह सब लोगों को जान गया। उसने अपनी चित्रशालाएँ देखी । अपनी नीली गर्दन को देखकर दुःख हुआ तो अपने आप अपनी चोंय से घाव करके मर गया । चन्द्रमती मर कर कुत्ता हुई जिसको शिकारी ने महाराज को भेंट में दिया । वह कुत्ता जो माता का जीव था, उसने मोर की गर्दन पकड़ कर मार डाला : उस समय राजा जो चौपड़ खेल रहा था, उसे छुड़ाने के लिए दौड़ा लेकिन कुत्ते ने उसे नहीं छोड़ा। राजा ने कुत को मार डाला । इस प्रकार दोनों ने साथ ही प्राए त्यागे । श्वान मर कर फिर मोर हो गया और बह कुत्ता मर कर कृष्ण सर्प हया । मयूर एवं सपं में स्वाभाविक बर होता है इसलिए उसने देखते ही सपं का काम तमाम कर दिया । इनके पश्चात् भोर मर कर बड़ी मछली हुमा तथा उस सर्प ने मगर की योनि प्राप्त की। उज्जैनी में एक दिन एक सुन्दरी स्नान के लिए प्रायी, जब वह स्नान में तल्लीन यी उस मगर ने उसे निगल लिया । तत्काल घीपर को बुलाया गया और उसने जाल डालकर उस मगर को पकड़ लिया तथा उसे लाठियों, घूसों एवं लातों से मार दिया। उसके बाद वह मर कर बकरी हो गयी । कुछ दिनों बाद मछली भी पकड़ में भा गयी। मरने के बाद वह भी पुन: बकरा बन गयो । एक दिन जब बकग एवं बकरी स्नेहासिक्त थे तब उनके मालिक द्वारा वह बकरा लादियों से मार दिया गया। लेकिन उसने पुन: बकरे के रूप में जन्म लिया । कुछ समय बाद बकरी एक टांग काट दी गयी और धीरे-धीरे वह मृत्यु को प्राप्त हुई। फिर वह मर कर भैसा हो गयी। और उसके पश्चात् दोनों का जीव मृत्यु को प्राप्त कर मुर्गा मुर्गी के रूप में पैदा हुआ। एक दिन राजा को मुर्गा मुर्गी की लड़ाई देखने की इच्छा हुई लेकिन वह उनकी सुन्दरता से इतना प्रभावित हुना कि उसने उन्हें बन में छोड़ देने का मादेश दिया। वहीं पर जैन मुनि मुदत्त का आगमन हुमा । रानी ने उनसे धर्म कथा का श्रयण किया । सुबत्ताचार्य ने अहिंसा को जीवन में उतारने पर बल दिया। साथ ही में उसने यशोधर एवं चन्द्रमती की कथा कही जिन्होंने प्राटे का मुर्ण मारने से सात जन्मों तक अनेक कष्ट सहे । राजा यशोमति ने एक दिन दोनों मुर्गा मुर्गी को मार डाला । लेकिन उन दोनों का जीव ही रानी के गर्भ में कुमार एवं कुमारी के रूप में अवतरित हुए । राजकुमार का नाम अभयरुचि Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० कविवर बूच राज एवं उनके समकालीन कवि उसी के विकृत बर्णन में भी वह अपनी योग्यता प्रस्तुत करता है। जहां एक पोर वह प्रकृति वर्णन में पाठकों का मन मोहता है तो दूसरी पोर घटना विशेष का वर्णन करके पाठकों के हृदय को द्रवित कर बैठता है। कथा के एक प्रमुख पात्र हैं भावानन्द जिनके कारण ही साम कथा स्रोत बहता है। उसी मैरवा नन्द का जब कषि वर्णन करने लगता है तो वह स्वयं भैरवानन्द बनकर लिखने लगता है। उसकी दीर्घ अटाएँ हैं । शरीर पर भस्म रमा रखी है तथा कानों में मुद्रिका पहिन रखी है। भंग चढ़ा रखी है जिससे आंखें एवं मुम्न लाल प्रतीत होता है। रंग से वह गोरे हैं और पूणिमा के चन्द्रमा के समान सुन्दर लगते हैं। भस्म चढ़ाई मुद्राकान, मनही बूझ कई कहान । धौरह जटा पाप नग, नया धुलाव बंदन रंग । गौर वरण मनी पून्यो बंदु, प्रगट्यो नाम भैरबानन्दु ॥३१॥ कवि श्मशान का वर्णन करने में और भी चतुरता प्रकट करता है । मुनि अपने संघ के साथ श्मशान में जाकर विराजते हैं। एक ओर प्रमशान की भयानकता तो दूसरी पोर निग्रंथ मुनियों का वहीं ध्यानस्थ होना-किसना उत्तम संयोग है-- श्मशान का वर्णन करते हुए कवि लिखता है संग सहित मुनि गयो मसान, मरे लोग डहिहि जहि यान । मुड र दीसहि बहु पगे, कृमि कोसा लवि गघि घृण भरे ॥६०|| जंबुक सान गघि घर काग, व्यंतर भूत खपरिहा लाग ।। डाइनि रिवहि रुधिरु भरि चुरू, सूकै तरु वरि वास उरू ||६१॥ चिता बहुत पजनहि वो पास, घूमानलु ममि रह्यो प्रकास । नयननु देखत फट हियो, वैवस भवनु जनकु विहि कि यो ।।६२॥ इसी तरह कधि के देवी के वर्णन में वीभत्स रस के दर्शन होते हैं । उसके हाथ में विसूल है तथा वह सिंह पर मारुन है। गले में मुठ माला पहिने हुए है तथा उसकी जीभ बाहर निकले हुए है । प्रांखें लाल हो रही हैं। ऐसा लगता है मानों अग्नि की ज्वाला उसके शरीर से ही निकल रही हो । उस देवी का पूरा शरीर ही रुधिर से सना हुमा था तथा पूरे शरीर में सर्प होल रहे थे । ऐसे भयानक स्थान पर भी जब साघु पाते हैं तो उन्हें देखकर सभी नत. मस्तक हो जाते हैं । राजा मारिदत्त ने जब अभयरुचि भौर प्रभय मति को वहां देखा तो वह उनकी सुन्दरता पर मुग्ध हो गया Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गारवदास १६१ को हरिहरु संकर धरणेसु, के दीसे बिघाघर भेसु । मरु सरुगका एह कुमारि, सुरि नरि किन्तरि को उनहारि ।।६।। यह रंभा कि पुरंदरि सत्री, रोहिनि कप कवन विहि रचि । सीता तारकि मंदोदरी, को दमयन्ती जोवन भरी ।।६६) प्रस्तुत काव्य में कितने ही ऐसे प्रसंग हैं जिनसे तत्कालीन सामाजिक एवं माथिक दशा का भी पता चलता है । उस समय जब बालक माद वर्ष का हो जाता या तो उसे पढ़ने के लिए चटशाला में भेज दिया करते थे । राजा यशोधर को भी उसी तरह पाठशाला भेजा गपा था। गुरु के पास पढ़ने जाने पर ची गुड़ के लड्डू बना कर बांदा करते थे तथा सरस्वती की विनयपूर्वक पूजा की जाती थी पतन हेत सोप्यो चटसार, घिय गुरा लाड़ किये कसार । पूजि विनायगु जिन सरस्वती जासु पसाइ होइ बहुमती ।।१३।। भाउ भक्ति गुरु तनी पयामि, पाटी लिख लीनी ता पासि । पढ्यो तरकु व्याकरण पुराण, हय गय वाहन प्रावध ठान ।।१३२ राजा खुवासस्था पाते ही अपना राज्य अपने पुत्र को देकर स्वयं पात्मा साधना में लीन हो जाते थे । महाराजा यशोवर के पिता ने भी जब अपना एक श्वेत केश देखा तो उन्हें वैराग्य हो गया और राज्य कार्य अपने पुत्र को सौंप कर स्वयं तपस्या करने वन में चले गये। मवर बहुत बैठे नरनाथ, पेष्यो मुह दर्पनु सं हाथ । अवलो एक कनेपुता केसु, मन वैराग्यो ताम नरेसु ॥१४॥ राउ असोधर थाप्यो राज, मापनु पत्यो परम तप काज । लोनो दीक्ष परम गुरु पास, तषु करि मुयो गयो सुर पास ।।१४४।। पूरी कथा में कितनी बार उतार-चढ़ाव पाते हैं। प्रारम्भ में मरवानन्द के प्रवेश से नगर में हिंसा एवं बलि देने की प्रवृत्ति बढ़ती है तथा देवी देवतामों को प्रसन्न करके उनसे इच्छित वरदान मांगने की प्रवृत्ति की प्रोर हमारी कहानी प्रागे बढ़ती है । यह बलि पशु पक्षी तक ही सीमित नहीं रहती किन्तु अपने स्वार्थ पूति के लिए मानव युगल की भो बलि देने में तरस नहीं आता। लेकिन जब अभयरुचि एवं प्रभयमति के रूप में मानव युगल देवी के मन्दिर में प्रवेश करते हैं तो कथा दुसरी मोर धूमने लगती है। उसका कारण बनता है राजा की उनके पूर्व जीवन को जानने की उत्सुकता । अभयरुचि बड़े शान्त भाव से अपने पूर्व भवों की कहानी कहने लगते हैं। राजा यशोधर के जीवन तक Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EX कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि प्रस्तुत काव्य की कथा बड़े रोचक ढंग से पागे बढ़ती है। पाठक बड़े धैर्य से उसे सुनते हैं । लेकिन महारानी प्रमिय देवी एवं कोढी का प्रेमालाप उन्हें उत्सुकता एवं प्राश्चर्य में डालने वाला सिद्ध होता है। नारी कहो तक गिर सकती है, बोखा दे सकती है और पति तक को विष दे सकती है, जैसी घटनाएँ एक के बाद एक घटती रहती है मोर पाठक आश्चर्यचकित होकर सुनता रहता है । यशोधर एवं चन्द्रमती के आगे की कहा, उनका कार विशेष. संसार के स्वरूप के साथ कर्मों की विचित्रता को बतलाने वाला है । यशोधर एवं चन्द्रमती सात भव तक एक दूसरे के प्राणों को लेने वाले बनते हैं । उनके सात भवों की कहानी को पाठक मानों पवास रोककर सुनता है और जब उसे अभ्यरुचि एवं श्रभयमति के रूप में पाता है तो उसे कुछ आश्वस्त होने का अवसर मिलता है। राजा मारित कभी भय विह्वल होता है तो कभी भयाक्रान्त होकर सभा स्थल से ही भागने का प्रयास करता है क्योंकि उसे ऐसा लगता है कि मानों वह उसी के जीवन की कहानी हो । काव्य का प्रन्त सुखान्त है। संकड़ों जीवों की बलि करने वाला स्वयं भैरवानन्द अपने पापों का प्रायश्चित करना चाहता है। और जब उसे अपनी माथु के २२ दिन ही क्षेष जान पड़ते हैं तो वह कठोर साधना में लीन हो जाता है और मर कर स्वर्ग प्राप्त करता है। इसी तरह राजा मारिदत्त भी सब कुछ छोड़कर प्रायश्वित के रूप में साधु मार्ग अपनाता है। यही नहीं स्वयं देवी को भी प्रवृत्ति बदल जाती है और वह हिंसा के स्थान पर अहिंसा का आश्रय लेती है । पहिले उसका मन्दिर जहां रक्त एवं चिल्लाहट से जाता है। प्रभवरुचि अभयमति एवं भाषायें के अनुसार स्वगं लक्ष्मी प्राप्त करते हैं । युक्त या वहां सुदत सभी हिंसा का साम्राज्य हो प्रपनी-अपनी तप साधना इस प्रकार यशोधर चौपई एक ग्रतीव सजीव काव्य है जिसको प्रत्येक चौपाई एवं वोहा रोचकता को लिए हुए है। सचमुच १६ वीं शताब्धि के अन्तिम चरण में ऐसी सरस रचना हिन्दी साहित्य की प्रनुपम उपलब्धि है। क्योंकि यह वह समय था जब देश में सामान्यजन में भक्ति की ओर तथा अध्यात्म की प्रोर झुकाव हो रहा था। मुसलिम युग होने के कारण चारों घोर युद्ध एवं मारकाट मची रहती थी इसलिए मनुष्य को ऐसे काव्य पढ़कर कुछ सीखने को मिलता था । कवि ने काव्य समाप्ति पर निम्न मंगल कामना की है सलु संघु वं सुख पूरु, जब लगि गंग जलधि ससि सूरु || ५३५ | ० Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गारवदास मेघमाल बरसें मसरार, बोष बधाए मंगलवार । नि सुनि विवसमन लावन खोरि, हीनु भाषिक सो लीजदु जोरि ।।५३६ ।। कवि ने अन्तिम पद्य में अपनी रचना के प्रचार प्रसार पर भी जोर दिया है तथा लिखा है कि जो भी उसकी प्रतिलिपि करेगा, करवायेगा तथा उसे भौरों को सुनावेगा उसे मपार सुख होगा। जन्म एवं एख सम्पत्ति मिलेगी | 1 भाषा भाषा की दृष्टि से यशोधर चौपई ब्रज भाषा की कृति है । गारवदास फफोदपुर (फफोंदू) के निवासी होने के कारण ब्रज प्रदेश से उनका अधिक सम्बन्ध था। साथ हो में वे ब्रज भाषा की मधुरता एवं कोमलता से भी परिचित थे । इसलिए अपनी रचना में सीधे सादे ब्रज शब्दों का प्रयोग किया हैं । नीचे दो उदाहरण दिये जा रहे हैं (१) (3) छन्व १६३ १. यशोधर चौपई अपने नाम के अनुसार चोपई प्रधान रचना है। कवि के समय पई छन्द ब्रज भाषा का लाडला छन्द था तथा जन साधारण भी चीपई छन्द की रचनाओं को ही अधिक पसन्द करता था। चौपई छन्द के प्रतिरिक्त कवि दोहा, दोहरा, वस्तुबन्ध एवं साटकु छन्द का भी प्रयोग किया है। चोपई छन्द के पश्चात् दोहा छन्द का सबसे अधिक प्रयोग हुआ है तथा दो वस्तुवन्ध एवं एक साटकु छन्द का भी प्रयोग करके कवि ने अपने छन्द ज्ञान का परिचय दिया है। इन छन्दों के अतिरिक्त कवि ने अपने पांडित्य प्रदर्शन के लिए संस्कृत के श्लोकों, प्राकृत गाथाओं" का भी यत्र तत्र प्रयोग किया है। इससे मालूम पड़ता है कि उस समय जन साधारण की संस्कृत के प्रति भी प्रभिरुचि थी । अलंकार २. सोहि कहा एते सौ परी जो हाँ कही सुन्दरि रावरी । विहिना लिख्यो न मेट्यो जाई, मन मरे सखी खरी पछिताहि ।।२२२|| एक नारि की नंदनु भयो, जसहर पास बघया गयो ।। १४५ ।। अलंकारों के प्रयोग को मोर ऋषि ने विशेष ध्यान नहीं दिया। सीधी-सादी परं गुणं लिलि बेई लिखाई, अरु सा गुण वरिण अनु कवि कहे, पुत्र ८६ वीं पद्म प्राकृत गाथा का है । मूरिख सो कहो सिचाइ । जनसु सुख सम्पति लहे ।। ५३७॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि बोलचाल की भाषा में काव्य रचना का मुख्य उद्देश्य होने के कारण उपमा एवं भनुप्रास अलंकारों के अतिरिक्त अन्य प्रसंकारों का प्रधिक प्रयोग नहीं हो सका है। शैली काव्य की वर्णन शैली बहुत सुन्दर एवं प्रवाहक है । कवि ने कथा की प्रत्येक घटना को बहुत ही सुन्दर शब्दों में निबद्ध किया है। कवि के वर्णन इतने सजीव होते हैं कि पाठक पता-पढ़ता माश्चर्यचकित होकर कवि के काय निर्माण की प्रशंसा करने लगता है। गनी एवं दासी में पर पुरुष के प्रसंग में जब वाद-विवाद होने लगता है तो पढ़ने में बड़ा प्रानन्द आता है । यहां उसका एक उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है--- वासी सुदरि जोवनु गजधनु, पेषिन कोज गन्छ । संबरु सीलनु छाडिये, प्रवास विनसौ सन्नु ॥२०२।। सुनि फुल्लार विद मुख जोति, छानहि रयनु गहहि किम पोति । तहि हंसु किम संवहि कागु, भूलो भई खिलावहि नागु ।। रामो परि जब मयनु सतावे वीर, तू न सखी जनहि पर पीर । मन भावतो चढे चित प्राणि, सोई सखी अमर बर आनि ॥२१६॥ इस प्रकार यशोवर चौपई कथानक, भाषा एवं शैली की दृष्टि से १६ वीं शताब्दि का एक महत्वपूर्ण हिन्दी काव्य है । प्रस्तुत काव्य अभी तक प्रकाशित है और उसका प्रथम बार प्रकाशन किया जा रहा है। राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों में काय की एकमात्र पाण्डुलिपि जयपुर के दि. जैन बड़ा तेरहपंथी मन्दिर के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित हैं 1 प्रस्तुस पाण्डुलिपि संवत् १९३० मंगसिर सुदी ११ रविवार के दिन समाप्त हुई थी ऐसा उसकी लेखक-प्रशस्ति में उल्लेख है । पाण्डुलिपि सुन्दर एवं शुद्ध है लेकिन उसमें लिपि संबन के अतिरिक्त लिपिकार का परिचय नहीं दिया गया है । पाण्डुलिपि के ४३ पृष्ठ है जो १०X४० इञ्च अन्य प्राकार के हैं। BJ0 २. राजस्थान के जैम शास्त्र भण्डारों को ग्रन्थ सूची भाग-चतुर्थ-पृ० Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ॐ नमः ॥ अत्र यशोधर चौपई लिखते ॥ मंगलाचरण यशोधर चौपई — जय जिनवरु विमलु श्रहंतु मुमहंतु सिव कंतबर | श्रमर एरायण रणिम्यर वंदिउ । उवसमिय फलूसरइ तिजय बंधु दधम्म दिउ ।। दोहा पण विवि पंच पमेदि गुरु श्ररकमि पुन पवित्त | शिसुणहु भब्य विचित्त कह जसह तनय चरित् ॥ १॥ फुनि परमि सामिरिण भारहि, जासु पसाद सुबुधि मइ लही 1 चंद्रवदणि मृस गर्याणि विसाल, बबलंवर प्रारुही मराल ||२|| अविरल विमल भास रस खापि वीणा दंड सुमंडिय पाणि । छह दरसनिमाणी बहुभाई, सरसे सामिणि हो हाई ॥३३॥ पणविधि भाव सम्मु गुरु सूरि, भासमि सुकह सुयण सुषु पुरि । गुर गूगुर चंदन तिल तेल, जल चंदन चरु पुष्करण एल ||४|| बेत्रपाल सुभु करहु दयाल | दिनु कारण प्रगटहि बहु भेद ||५ ॥ मुल रय दिनु विवहि पापु । बोलत बुरो पराई कहै ||६|| पुत्रमि पडिम जासु के भाल, लाजे दुरिजन ता कहि परछेद, जे पर खुपसुखु मारण हि आपु वगज्यो देनिहुराई है, श्लोक मुहपद्मजलाकारं वाचा सोतल संजुतं । हृदमं कर्त्तरि संयुक्त त्रिविधि दुज्जंनलक्षणं ॥ ७ ॥ न विना परवादेसु दुज्जंनो रमतोजस. । स्थान सर्व्वरसं भोक्त श्रमेषं वितृना नप्पते ॥८॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KAR कविवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि तिनको नाम न लीजे मोर दान पुण्य को परे कठोर ! ते सबहीन दूरि परिहरी तिन प्रपतनु कोतातिन करी ॥६॥ करत निहोरो परे उदास । जोवह दोजह जान ||१०|| भलो ना कछु निपज तिन पास तिनके बचन कौ जहि का श्रं नवन्ति सफला वृक्षाः नवन्ति सजनाः जनाः । सुक्ककाष्टं च मूर्ख च न रणवंति भजंतिजः ||११|| जिनके वयतु न निकसे पोषा, निसि दिनु करहि दया पर शेचा । जे पर को वितर्वाह उपगारु, निम्मंलु सुजसु भ्रम्यो संसार ||१२|| श्लोक ते कलिम पंचानन सीहा, तिन श्रुति करनि केम इक जीह । तिन सबहिनु सौ विनो पयासि, मो पर दया करहु गुण रासि ||१३| बोहा जे परभीर समुद्धरण, पर घर करण समत्य | ते विहि पुरिसा अमरु करि, हरियो जोरि विहृत्य || १४ || पडु महीमति उत्तम बंधु, पदमावती वंस धवल जस माश्रयदाता का परिचय - निय कुल मान सरोवर हंसु । रासि, तागुस सयल सर्क को भासि ।।१५।। भारग सुतनु येघु गुनगेह, जिनवर पय श्रंबुरुह दुरेहु | फीनें बहुत संतोष विहान, पिणिमन्त्र विच सौदान ॥ १६ ॥ निसि दिनु करें गुणी को मानु, धम्मु छाडि चित धन भानु । मग केलई निवसे सोइ, जहि श्रावग निवर्स बहु लोइ ।।१७।। येघु सतँ कवि गारवदासु, निसुनि चयनुचित भयो हुलासु । है कर जोरि भर्ती गुरण गेहू, सफलु जन्म मेरी करि लेहू ॥ १८ ॥ सलिल कथा जसहर की मासि, जिम गुरु पास सुनी तुम रासि । जे बहू आदि कंविसुर भए, प्ररथ कढोर वरित रचे नए ।।१६।। तासु छाह ले मौसरे भासि, कवितु चोपही वंष पयासि । गार भने निसुनि कुल सूर, परिधान विवस प्रास रसपूर ||२०|| कवि द्वारा अपनी लघुता प्रकट करना--- पढयौन में व्याकरण पुराण, छंद भाइ प्रक्षर को ज्ञाता । जो दुधि विनु कछु कीजे जोरि, तो बुधजन इसि लावहि पोरि ||२१|| Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोधर चौपई २६७ तो कहमि तिनके पालामि, वाह धम्मु जाइ तमु भागि । बार बार पनविधि जिन राउ, सरसै सामि तिसु मुर पसाउ ॥२२॥ गाथा पजिय पागम सुत्त मंतिम तित्थयर चीर समसरणं । गरिए गोयमेण भपियं, णिमुनिम सिरिसेणि एन कह बिमलं ॥२३।। वीरवानि सूनि गोयम मनी, प्रगटी कथा जसोधर तनी 1 सुनि श्रेषिक प्रगटी कलिमाह, मारव भने तासु की छाह ।।२।। कथा का प्रारम्भ---- जंबूदीपू सुदंसनु मेर, लवनोदधि वेठयों चहुफेर । भरह षेतु दाहिनि दिसि घस, पेषत मनु सुर बेको लस ॥२५॥ रायगेह पाटन सुभ ठौर, जा सम महियलि मयर ण मोर । पंच वरण मनि दीस पच्यो, सोमहि तनौ तिलह विहि न्यौ ।।२६।। मारिदत राजा--- चारि परि सतषने प्रवासा, बन उपधन सरबर 'पोपासा । तहि पुर मारिपत्त महिपाल, सूरज तेजु दुवउ रसानु |॥२७॥ जौवनवंसु राजमव भस्यो, अति प्रचंडु महियलि अवतरयो । सपिनि नाम गेह बर पारि, प्रति सरूप रंभा उनहारि ।।२८।। कोक कला संगीत निवास, घेवहि अगर कुसम रसवास । ता समेतु मान बहु भोयु, निसुनह पवरू कथा को योगु ॥२६।। भैरवामन्त का आगमन योगी एकु तहा प्रवधूतु. राज गेह पुर माह पहूतु । भस्म बनाइ मुद्रा कान, अनही वझे कहै कहान |॥३०॥ दोरह जटा चढ़ाए भंग, नयन घुला वंदन रंग । गौर वरण मनी पून्यो चंदु. प्रगट्यो नाम भैरवानंदु ।।३।। काहू जाय राइ सौ कहो, जोगी एकु नगर मौ रह्यो । संत्र मंत्र जान बहुमाइ, जोगी गुन गरुवो सुनि राइ ।।३२॥ राजा भन जाह ता पासि, ले प्राबह बह विनउ पयासि । जो किंकर नरवे पठायो, पवन वे जोपहु गयो ।।३३।। पमनै स्वामी करहु पसाउ, अंग चला जुला राज । प्राईवर सो जोगी चल्यो, कोतिग सोग नगर को मिल्यो ।।३४।। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि योगहि पेपि रामगोपाल पक्षी। करु उचाइ तिनि दई घसीसा, हूजी राजु तुम्हारे सीसा ||३५|| श्लोक पुष्पमतप्रमालोके श्री सुरतरंगिनी । तावत् भित्रसमं जीव, मरित्तो नराधिपः ॥ ३६॥ श्राशीर्वाद - जब भार वीथ्यो कुरता, जवहि कंसु नारायन हो, वर भुवनु जिसे महि भए, जुग मए ||३२|| हो तोकी सुनि तूठो राइ, मगि मांगि यो हियेइ समाई । भने महौ महि ग्रवतर्यो, जानमि सयलु महागुन भन्यौ ॥ ३७॥ व्यंतर भूत हमारे ईठ, रावनु रामु भिरत में दीठ । पेथ्यो भीमूह कारे देता ||३८|| पेषत जरासिंधु क्षो गयो । मो आगं प्यार पुण्य हमारी भयो सहाइ । देषत पापु हमारी गयो ॥४०॥ करहि अमर अरु चलमि दिवाना | इतने करम हमारी काजू ||४१|| साची जाको फुर्र न ज्ञानु । पुजवभि राय तुमारी प्रासा, होहि अमरु श्ररु चलहि प्रकासी ॥१४२॥ कर जोरि भन्यो तव राह, तो मो तेरी दरसनु भयो, जो तूस किमि मंगमि प्राणा, एक छत्र ज्यो प्रविचल राजू, पाखंडी बोलं परि ध्यानु मारि देवी का वर्णन- एक बचनु करि मेरो एहू, जैतो व वार्ता को गेहूँ | चमार देवी आप पनी, बहु विधि पूजा करिता तनी ||४३| जे ते जीव जुयल सब अनि नरवर अधिनि सुनि मुनषाणि । देवलि सब देवी के थाना, सिद्धवमि का निसुनि सिव जाना ||४४ तब सुनि राव मृढमति भयो, राजा राजु करत परिह । कु जर उवर रात्र ब्राह्मी ||४३|| गया तहा देवी को थान । किकर को दीनों उपदेसु ॥ ४६ ॥ योगी तनी कुमति प्रभु हुह्यौ की वहूतु योगी को मान योगी देवी भगतु नरेसु Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोधर चौपई देवी के लिए जीवों को पकड़ कर लाना इतनी करहू हमारी काजू, देविहि बलि अघ वाबहू प्राजु । राय वयनु सुनि धाए परे, वन मो जीव जाय पाकरे ।।४७|| हरिण रोझहू सूकर सिवसान, महिस्त मेस छेरे लवकाना । फुजर सीह बाघ फरिण नोरथा, लारी प्रादि गर्न को औरा ॥४८।। जेते जीव पिषे सब अंषि, लए तितर करि पसु पंषि । फुनि कर योरि पचासहि सेवा, हस नर युयल्लु न पायो देवा ।। ४६ सव नर वे प्रवरा निसो कही, मनुब युवलु विनु पूजा रहो । नेरी कायु सबारह एह, मनुव जुबलु गहि देवेहि देहूँ ।।५।। निसु दिनु रहे हिस मति भई, चंड कम्में कर्कश निहई । दस दिसि गए राय उपदेस, म विहार वन फिरहि असेस ।।५।। सुरत्त मुनि का बिहार--- निसुन१ भम्व फहंतह प्रानु, दया धर्म गुरपसील पहानु । तहि पयसरि सुक्त मुनि सूर, कर्म पडिष्यो कीनी चूरि ॥५२॥ मुद्रा नगन कमंडर हाथ, बहुत रिषीश्वर ताके साथ । भवंतु सदतु सो तीरथ तान, पेप्यो तिवनु केवल नान ||५३।। तिहि नयरी प्रायो मुनि नाह, जा सिवरमनि रमन को गाइ । भब्ब कुमु पडियोहन चंदु, नाय नरिंद पुरंदर बंदु ॥५४॥ लोक ताम मुनिवरु पत्त तव तत गुण जुत्त संजमतिलउ । कोह-लोह-मय-मोहवत्तउ, बहु मुनिवर परिवः । सील जलहि सिवरमनि रन्नड, तव कंम्मा सबै संवरण । भन्न सरोरुह मित्त , अंबरहीनु प्रनंग हरू निम्मल सुचरित, ।। ५५|| जहि णंदन वनु नरखें तनो, दल फल पल्लव दीस घनौ । जाहि वसंत फूली फुलाबाद, कोइल मधुरौ सादु कराइ ११५६।। भु चुमु संति पंवो सुक मोर, मुरकामिनि मोहै सुनि घोर । पत्र मासु सुदि णवलु वसंतु, गुजारे मधुकरु मम मनु ॥५७।। भने रिषीसुर वनु अवलोइ, इहि ठा मुनि थिरु ध्यानु न होइ । इहि पण केम जतोसुर बसै, निवसत मयनु भुजंगमु इस ॥५८।। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० कविवर बूच राज एवं उनके समकालीन कवि इक सोरण फूली फूल वादि, पेषत्त होइ महा तपु वादि । जहि निवसत मूसै मन चारु, नास तपो तनी तप घोर ॥५६॥ अहि वन गन गंधर्व निवास, विससहि सुर कामिनि रस वासु । निवसत होइ सील की हानि, मुनि वरु छाडि चल्यो मन बानि ॥६॥ श्मशान का दृश्य संग सहित मुनि गयौ मसान, मरे लोग उहिहि जहि बान । मुड रुंड दीसहि बहू परे, कृमि की लालवि गधि घृण भरे ॥६॥ जंबुकसान गघि अरु काम, ध्यंतर मूत अपरिहा लाग । डाइनि पिवहि मथिरु भरि चूरू, सूकै तर हि वास उह ।।६२।। चिता बहुत पजलाह बी पास. घुमानलु भाम रह्यो पकास । नयननु देषत फट हियो, वैवस भवनु जनक विहि कियो ।।६३॥ तहि ठा पेषि परासगु ठानु, संघ सहित मुनि हान""" अनुवयध्यर तामु के सम, चंपक्त. सुम सम कोमल अंग ।। ६४॥ सिनहि सकोसल मुनिवर प्रानि, पभम्पो सुगुरु सरस रस वानि । निसुनि अभयरुचि नाम कुमार, लेह भोजु तुम नयरि मझार ॥६५॥ अहिन भाई द्वारा नगर में भिक्षा के लिए जामा बालक तुम जो करहू उपासु, आरति उपजि होइ तप नासु । सुनि गुरु बयनु कहिनि मरू वीरु, चंद्र बदन सम कनक सरीम् ।।६६।। लेकर पुत्र चसे निरगंध, कुमर कुमारि मगर को पंथ । तहि अवसर जन राजा तने, टूनुस फिर जुवल बन घने ।।६७।। देवी बलि कारण भातुरे, दोऊ दृष्टि तासु को परे । पभन्यो कूकि सफनु भयो कायु, ए बलि पूजा दीये प्राइ॥६८।। लषरण बत्तीस कनक सम देह, पकरि चले देवी के गेह । जनौ रविचंद्र, राह पाकर्यो, अनी कुरंगु केसरि बसपर्यो ।।६६।। चिन्तन संजम कर शील निरमले, तिनहि परि जब किंकर चले । ता मन चित अभकुमार, जीवनु मरनु जासु एक सारु ।।७०॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोधर चौपई पेष्यो वहिनि बदनु अवलोइ, जान्यो मत जिय हरपति होई । पया Hit प्रमाक्ष धार, किम नुवरि संकुचहि सरीर ।।७१॥ मुह भयंक क्रिम होहि मलोन, ए किम करहि हपारी हीन । जो जिम सासन प्रागम कहो, हम गुम पास सुदृडुकरि गयो ।।७२॥ जीव हि कोई सके न मारि, काया थिरु न होइ संसारि । ताते मुनिवर करहि न सोहु, काया ऊपरि छाउहि मोह ।।७३।। पूरै पावन राष कोई, तिम प्रनषूद मरणु न होइ । बहिनु लियह संसार प्रसार, एकुइ धर्म उतारण हारु ।।०४॥ दोहा छिज्जउ भिज्झर क, वहिनु लिएहु सरीरू। अप्पा भावहि निम्मलक, जे पावहि भवतीरु ॥७॥ कम्मह केरौ भाव मुनि, देहु अवेयनु दम्व । जीव सहावै भिन्नु इट्टा बहिलि बुझहि सन्न् ।।७६।। अप्पा जानहि नानमऊ अन्नु परायउ भाउ | सो छडैपिम् भोयहि, निसावाहि अप्प सहाउ ॥७॥ अट्टह कम्मह वाहि रक, सयलह दोसह चिस । सन नान परित्रमऊ, भावहि वहिरिण निरुत्त ।।७।। पप्प अप्पु मुनंत्त. जिज, सम्माइट्टि हवेइ । सम्माइट्ठी जीच फुडु लहू कम्मे मुच्चेइ ।१७६ ।। समिक्रत रयनु न दीजै छाडि, हम सौ सुगुर कह्यो जो टाडि । बार वार किम कहिए वीर, सुदरि होह प्रहोस शरोर ।। ८०॥ भायर वचनु निसुनि सुकुमारि, सारद मयंक बयन जनहारि । तुम जानी भयमीत शरीर, तो मो सिष दीनी वर वीर ।।८।। ताते वीर तुम्हारौ न्याय, तुम जाणो भामनि परजाल । जानमि मरणु पहूच्यो पानि, इरपमि नही धीर गुण खानि ।।८।। को काको संसार प्रसारु, हिडित जीव लेतु अवताह । सो कूलि को जा लईन चौर, सो दुषु कोजु न साहौ सरीर ।।३।। जे हम सात भवंतर फिरे, ते किम वीर बेगि श्रीसरे । जिनवर धम्म सुगुरु को कह्यो, दई दई करि सो हम ल ह्यो ।।४।। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि जिनवर जपत मरन जो होइ, याते भलो न भायर कोइ । सो किम भायर दीजे छाडि, हो सन्यासु रही मन माहि ॥६५॥ गाथा मुणि भोगेन दचं सन्नासे गय पानं जस्स सरीरं पिवीतु नव परणं । तन्नगय कि गयं तस्स ||८६।। दा बोर सिरावमह्यो, भायर बहिनि मोनु तब गह्यो । गहि कर किंकर चाले घीठ, मारिदत्त कारज मन इठ ||६॥ चंडमारि देवी का वर्णन -- एहु चले देवी के धान, जीव जुअल जहे बंधे मान । बाजहि वाजे समिको दुनो, नाचहि जोगी अरु जोगिती ||६८ || वाजहितुर भयान भेरि जनो जम् त्रिभुवनु मारे घेरि । जह देवी बैठी त्रिगराल, मंड पुछ यो महिष की बाल ||६|| हाथ त्रिसूलु सिंह प्रारुही, मुंडनु को करि काठो गुही । वरदे दंत जीह वाहिरी, वारवार मुखु वा परौ ||६|| अरुण नयन सिर सूधे वार, जानहूवरं श्रगितिकी ज्वाल | afre उबटनों जाके अंग, श्रास पास बिढि रहे भुजंग ||११|| आमिषु भषे उठ नरकाव, महू नस केले परी जाइ । करि कटाप जय देवी हसो, पेषतं गर्भुनारिको से २ जीव भषण को अति प्रातुरी, जनी जम रूप आणि श्रवतरी । पेषत परी भिहावन ठोस्, नीको कहा तासु महि श्री ||३|| श्लोक भयभीत सदा कुर्य नियोपलभक्षिती । निश्विनी जीववातिश्चेदृशी कस्म भये प्रिया ॥ ६४ ॥ साधु साध्वी की सुन्दरता का वर्णन जह योगी राजा नर ओर, कुमरु कुमारि सकोमल अंग, नर वेमन पेो श्रवलोक, अमर पुरंदरु को ससि सुरु, गहि किंकर लाए तहि ठौरा । केसरि चंप कुमुम सभ रंग ||१५|| मनुव जुवलु इह्नि रूपन होइ । क्रिम प्रनंगु मानिनि मनचुरू ॥ ६६ ॥२ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोधर चौपई २०३ को हरि हरु संकर धरणेसु, के दीसे विद्याधर भेसु । प्रतिसुरुप का एह कुमारि, सुरि मरि किन्नरि को उनहारि ॥१७॥ यह रंभा कि पुरंदरि सची, रोहिनि रूप कवन विहि रखी। सीता तारा कि मंदोदरी, को दमयंती जोवन भरी ||८|| पोमावेसर सेवन देवि, नाग कुमारि रही तपु लेवि । के प्रमंगु जन्न संक्रर उह्मी, तब हो रति विधवा पनु लो ।।६।। ताको विरहू न सक्यो सहारि, तौ वालक तपु लियो विचारि । के यह देवी मानो होइ, मैरी चलि पूजा प्रपलोइ ॥१०॥ सुप्रसन्न हुइ भाइ एह, भेषु फेरि करि निरमल देह । कुसुमावलि वहिनि मो तनो, के ग्रह तासु कोषि की जनो ।।१०१।। पुत्री पुत्र तासु हो भयो, निसुन्यो तिन चालक तप लह्यो । पेषि रूपु मन वायो मोड, राजा तनो गयो गाँस कोहु ।।१२।। राजा द्वारा प्रान तव हसि नरवे बावामनो, सुदर पणि वात मापनी। देसु नयह कुलु माता वापु, सुदरि काम कौन तु पापु ।। १०३।। अति सरूप तुम दीसह कौन, कारण कवन रहे गहि मौन । किम वैराग भाव मन भयो, थालक वैस केम तपुलयो ॥१०४।। अभयकुमार का उधर राय वयनु सुनि अभय कुमार, भास बिमि दया गुणसार । आफुरतु वरते असमान, तह किम मेरी धम्म कहान ।।१०।। संठ पास जिम तरणि कटाय, वायस जेम छुहारि दाष । सोबत मार्ग जेम पुरानु, जिमविनु नेहहि कीचं भानु ।।१०६।। सरस कथा जिम मूरिष पास, कोनी जैसी किरपन मास । जिम पल को कीनो उपगास, जिम विनु भूषहि छरस महारु ।।१७।। वहिर प्रागै जैसो गीउ, जिम सीतज्जुर दोनो घीउ । माघ पिता बिनु जैसो भारि, जिम सिंगार पिया विनु नारि ।।१०८।। अंधहि पास निरतु जिम कियो, जिम धनु अनपायो पनदियों । ऊसर खेत कए जिम पानु, जैसे भाव भक्ति विनु दानु ॥१०६।। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ कविवर चराज एवं उनके समकालीन कवि जिम एवि हल जाहि प्रभु जानि, तेम हमारी धर्म कहानि । जहि आनंदु करत जिय वात, तिहि किम राय हमारी बात ||११०॥ जीव मुवल जह वधे बराक, देविहि बलि पूजा कताक । ताहि ठाकर धरा हरि कौनु, ताते राय रहे गहि भोनु ।।११।। मारिदत्त मति निरमल भई, मानहु उरि ठगौरी गई । गत पुर्रषुह इंदर राम, मार हाजि रहा ॥११॥ जोगी चक्र जुस्यो हो घनी, बरन्यौ लोगु सयलु प्रापनौ। सयल लोक मुनिवर मुहू पेषि, राषे अन कुचित्र के लेषि ॥११३।। मन राउ सुनि बाल जईस, जो परि तेरो मनह नरोस । तो पप डेहि कथा मापनी, सौ बीत्ती पैषी सुनो ॥११४।। सुन्दर जती सयलु महु भासि, ओ अनुभई सुनी गुरपासि । जोनि सुनौ सौनि सुनौ एह, जो न सुने तसु की फेह ।।११।। मासिकु दे वोल्यो रिषि राज, जान्यो राइ तनौ सुभ भाउ | निसुनि देव दिढ मन यिरकान, पभरणमि अपनी कथा पहान ॥११६।। वस्तु बंधु ता अभयसुरुचि राय बयनेणा। आहासइ कुमर गुरु, सु हमवाणि सुकुमाल गत्तउ । जो सुह मग्ग पयासयक, घम्म कहं तर एहू । नि सुनहू सुपज विचित्र कहा चंत सुनं तह दह ।।११७।। भासे अपनी कथा कुमारू, जामन तिनु कंचनु एक सारु । सुनि महिमा निणि माननहार, भोग पुरंदर राजकुमार ||११८।। अवन्ती देश एवं उज्जयिनी नगरी देसु अवती नयरि उनि, भोगभूमि सम सुष की सैन 1 बन उपवन सरवर कुच वाइ, पेषत अमर बिलंवहि माइ ।।११।। दल फल सघन कुसुम रस वास, कलप विरष सम पुजवहि प्रास । मठ मंदिर सतपर्ण प्रवास, एक समान यस चौपास ।।१२०।। सुरह रस मद्यर सुर समलोगा, धन कम कंचन विलसहि भोगा । धरण परि छत्तीसौ कुरी, जनकु सु धनपति निज रमि धरी ।।१२।। जसोहु राजा एवं चन्द्रमती रानो तहि पुरि नरवे नाम जसोहू. नियमन इंद्रहि लाथै पोह। चंद्रमती राणी सप्ति वणि, मद गज गमनि एण समनयरिए ||१२२।। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोधर चौपई कोमल तन कुच कठिन उत्तंग, जनु लेक कुछ किये सुरंग 1 चीना हंस स सम वानि अतेवर सयत्र हमि पानि ।। १२३ ।। राजु करत पालत नय नीति, इहि विधि गये बहूत दिन वीति । पुत्र बेसि जिनि लीनी पोषि नंदनु भयो तासु की को ि।। १२४ ।। पुत्र का जन्म अध्ययन निसुनि राय नंदनु अवतरौ कोलाहल बंदीजन कियो, यशोहर नाम रखना - षाड्‌यो रहसभाव सुष भन्यो । दीनो दानु उल्हास्यो हियो ।। १२५ ।। श्लोक पुत्रय मोरन नित्त्वा विवाहो सुभसंज्ञका इष्ट- सजन मेला संसारोक- महासुषं ।। १२६४ पारु ज्यारे सुजस को खाणि जसहरु नासु धइह जानि । बाल विनोद नारि मनु हरे, निसु दिनु वादे कर संचरे ।।१२७।। माठ वर बीते सुष माहि, बालक माइ पिता की छाहि नयण पेषि रंज्यो परिवार, सूरतेय सम राजकुमारु ॥१२८॥ पन त सोच्यो टसार, घिय गुरा लाडू किये कसार । पूजि विनायगु जिन सरस्वती, जासु पसाइ हो६ बहूमती ।। १२६॥ भाउ भक्ति गुर तनी पयासि पाटी लिपि लीनी ता पासि । पढ्यो तर व्याकरण पुराण, हय गय वाहन मात्रठान ।। १३०|| 7 २०५ पढि गुने सयलु पिता पहुं गयो, सिर चुंबनु करि अंको लयो । पुत्र सुषु उपयोगात, फुनि माता पहु पठ्यो तात ॥१३१॥ चंद्रमती मंटो एम परघो पुत्रहि देषि हियों सुष भरघी । पर्वत विद्या गुण खानि सफलु जनमु माता तहि मानि ।। १३२ ।। जेसी मारमिता कोसाहू, पभने जननि भ्रमरु चित्र होऊ 1 पषि तरुनु नंदन नर नाहू, बंस बेलि हित ठयो विवाह ।। १३३ ।। कुमारि पंचसे रायनु तनी, एक एक अछरि समगती । कुसुमयन तन कट कोधु चमकत चौकुल गावति चौधु ।। १३४ ।। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०E कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि नयन काट शोमा सुकमारि पानी गरम जी बुलवाई। भयो विवाह जसोधर पनी, मुयन कुटम सुपु उपन्पो छनौ ।।१३५॥ अमिय महादेवी पटराणि, पेषत रुपु मनग की हानि । नयन वयन कुष षरी अन्नप, मानदु रवी पुरंदरिं रूप ॥१३६।। भूल्यो कुमरू मोगत सुसंग, विक्रुरत छाहू पर दुहु अंग । एक दिवस जसहर को ताउ, समा सहित मुस्थित महिाउ ।।१३७।। अन्नर बहूत बैठे नरनाथ, पेख्यो मुह दर्णनु लं हाथ । धवली एक कनपुता केमु, मन जैराग्यो ताम नरेसु ॥१३८|| मानहु कहनु पुकार कान, एर वुहार फेसहि दान । करिहै बुरी बुडापो हाल, दृष्टि पतनु परु हाल खाल ॥१३॥ लोक जरामुष्टिप्रहारेण कुबजो भवति मानव:, गत जीवन मानिक्यो निरीक्षति पदे पदे ।।१४।। जब लगि देह न व्यापे व्याधि, तब लगि लेमि परम पद साधि । विरकत भाउ राउ मन भयो, राजु गेहु तिन जो तजि दयो ।। १४१।। विरक्तम्य तृणं राज्यं, सूरस्य मरणं तृणं । ब्रह्मचारी तृणं नारी, ब्रह्मकानी जगस्त्रियं ।।१४२।। राउ जसोपर थाप्यो राज, प्रानु चल्यो परम तप काज । लीनो पोक्ष परम गुरफास, तपु करि मुयो मयो सुरपास ॥१४३॥ महाराजा यशोधर का शासन महियलि राजु जसोधरु करे, हरि सम राजनीति यौहरै । नयरि उजनी स्वर्ग समान, करै राजु जसहरू तनि थान ॥१४४।। पुत्र सन्म - अमिय महादेवी सुरतिरी, बहुत विवस मानि निसिरी । एक नारिको वनु भयो, जसहर पास वया गयौ ।।१४।। तहि सवु क्रूटमु महामुख भयो, मनो जिन जननि देव अवतर्यो । वाढचों कुमरु रूप गुण सार, घरयो जसोमति नाम कुमार ॥१४६। कियो जसोमति तनो विवाहु, सुवन अनंदु दुबन उर लाहु । के जुगराजु पट्ट वैसारि, मंगल घोष कलस सिर टारि ।।१४७।। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोधर चौपई २०७ जन से वग सब सौपे वाह, आपनु मोग कर घर माह । कबहू सभा बैठे माइ, निसुदिनु पिय भोगवत बिहाइ ||१४८॥ सुनि संपे निवास नुनरासि, नारि चरितुही कहमि पयासि । मारिदस सुनि देषिरू कानु, जसहर सजा सनी कहानु ।।१४६।। तहि अवसरि सुखमी दिन एक, जसहर राउ राज को टेक । सभा उठी दिनयर अंथयो, रानी तनी बुलायो गयो ।।१५०।। ता महल्यो बोले सिरु नाइ, रारिलहि तुम बिनु न सुहाइ । चाहइ बाट तुम्हारी नाह, जिम जलहर विनु वारि साह ।।१५१५॥ तिम तुम विनु रानो कलमलो. जोवनु सफ्लु देव जवचलो। निसुनि बयनु तव सरवे हस, रानी पुनि चित ताक वस ।।१२।। जेसो भवर उमाह्यो वास, युग रति रंग रवण की प्रास । चल्यो राज रानी के गेह. जेम हंसु झुसिनि के नेह ॥१५३ ॥ दोहा मशोधर एवं समृता का प्रम एक हिराबै सुख नहीं, जो न दौवराचंति । मालुप्ति मन मधुकर बसे, मधुकर न मालु ति ।।१५४१६ चौपई चंपक मला अरु शसिरेह, दोऊ सषी कनक सम देह । दोऊ अयल चतुर परबीन, जोवन साम कटि पीन ।।१५।। अमिय माहादे तनो षवासि, निसु दिनु निवसहि रानी पासि । राय तनोक रूप कस्यो प्राइ, चित्र साल ले गई बताइ ।।१५६॥ राउ पेषि रानी विहसाइ, पालिक ते उरि अकुलाई। राय विहसि कर पंची चोर, उपर्यो रानी तनो पारीर ॥१५७।। सावै टारि जना विहिगढयो, मानहु कनकु प्रगनि ते कढयो । किस करीन्या बैनीरुरो, जनुकु गरुड में नागिनि दुई ॥१५८।। विहिससि दंत पंक्ति ऊजरी, जनो धन मौ कौधो वीजुरी । चंचल नयन मरोरति अंगु, जनु कुरंगि विछोहै संगु ।। १५३।। हाव भाव बिभ्रम सबिलास, रुलु घुलति मधुकर रस वास । रम्यो सुरतु सुषु उपज्यो गात, सोयो राज भई पर रात ॥१६०॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि कुबड़े द्वारा संगीत प्रदर्शन मारिदत्त यह निसुनहि मान, नादु पर्यो रानी के कान । हरित माल निबसे कूवरी, गयो होश जगद् नरी ॥१६ परी सुकंठी नावे गीउ, सो निसि दिनु पहरावे जीउ । राग छत्तीस मुनै बहु भेय, अलहि मुर कामिनि सुनि नेय ।।१६२॥ प्रथम रागु भैरो परभात, सुदरि निमुनि उल्हासी गात । ललित भैरवी कोनी रागि, जनुकू बिरह वन दीनी पागि ।।१६३) रामकरी मूवरी सूठान, निसुनत भयन हई जनौकान । प्रासासै धूमिलवे भाउ, सुनि गज गामिनि भयो समाउ ।।१६४॥ गौरी परी सुहाई नाद, चन्द्रवदनि मोही सुनि सादु। करि गंधारु सुकोमल भाष, भामिनि भूलि गई भभिलाष ।।१६।। माला कोश जब निसुन्यो वाल, नियतन मयन शलाए शाल । मार जैतसिरी की छाई, जो सुभटनु मीठो रण माइ ।।१६६३ टोडि हि वरारी सो संनु, कामनि बिरह मरोस्यो अंगु । भोव परासो अवर अडान, महिलहि परयों विरह रसु कान ।।१६७।। करि कामोद ठकराई रामू, वनिताह परचो मयान पुर दागु। सुनि हि दोल नारि कर मरी, मंक्षिस दृछि अंम जनों परी ॥१६॥ करि कल्यान अबरु कानरो, गहिनि कान सुहाई षरो। केदारो कोनी अपरात, मृगलोचनो पसीजी गाठ ।। १६६॥ रामु विभास भवरु वडहंसु, कोनो जब हरि मारको फंमु । कुविज कळूह राई गुजरी, कीनी राम सिया जब हरी ।।१७०।। गगु विरावरु अरु बंगाला, सिरियहि तई कुसम की माला । दीपकु बडौरान जब करे, जासु तेज उठि दीपकु बरे ।। १७१।। कियो वषार बधु सरुमेलि, सीचि मयन बिरह की कलि । विहागरी सूहे सौ जोरि, जनु सुजान रमुलियो निचोरि ॥१७२।। मेघ रागु जब लियो नवाजि, परसै रिमिहिमि जलहरु गाजि। जवर प्रलाप गौड मलार, विनुही वादर पर फुसार ।।१७३।। फ्नासिरी मार अह जेज, राणिहि रह्यो न भावे सेज । करी मलाई मध माधई, पंच मुनि सुनत मूरछि गई ।।१७४) Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोधर चीपई गौरा सारगु सारंग नाट जनकु सुहई मयन को साट । जो देसी मिल बहु भाइ, सुनत महेरे हरितु भुलाइ १७ रागु वसंतु कुवरौ करें, जो मधुमास भवर गुंजरें । लागी लात सोरठी तनी सुनि कनकंनि काम मरहनी || १७६ ।। सिरासु सुति दी रानी अंगु काम सर ह्यो, भुज पंजर तेसो तीसरी, सरद पटल ते जनी ससि रेल, निकरी एम सकुविकरि देह ॥ १७८॥ जो जान 1 जसहरु राजा बिसहरू भयो । १७७॥1 ज्यो घनते निक्सी वीजुरी | फुणि भरगाइ घरची सुद्द पाउ, हर सो जिनि जा राउ । चंपक माला लीनी बोलि, द्वार कपाट दिये तहि खोलि ।। १७९ ॥ रानी एवं वासी करे वार्ता -- रानी बात कहै बरगाइ, तो ते मेरो काजु सिराइ । गंध कला राजिनि करचो, सा त्रिनु जीव जाऊ नीकस्यो ||१०|| जी तू सखी सुजानी पापु, तो खोषहि मेरो तन तापु । निसुनत रागु वहुत दिन भए, ते सबि पाछे जुग वरिगए ।।१८१ ।। अब ले प्राणु हमारी राषि । सोई सिष भविमो सिष राइ ।। १८२ ॥ करति निहोरी तोसी भाषि, तासु चरण ले मोहि दिवाइ, ऐसौ बचनु भन्यो तब बाल, तव तन सकुवि चंपक माल । हा हा भनि गोली घर थ्रु कि, सुन्दरि बचनु भन्यो किम चूंकि ॥१८३॥ कूबड़ का वन फुटि अंगु सबु वाको गयो । मानछु काटि चोर्यो मूडु १११८४॥ पाइ शिवाई मुहू उधो, निसि दिनु रहे लीदि महु परयो । कीरा परे विधि को मूलु श्रनुदिनु माथे व्यापै सुलु ||१८५ ।। उलटि पटल अधिनु के रहे, परे कुजणे व्याधि के गढ़े । पुठो साध रहे हर हृषु, महियलि सहे नरक को दूषु ।। १६६ ।। चहु कूबरी दईको हयों, जैसी जस्पो दावा को डूडु, २०६ लाठी लाल मुठी का सहै, रानो कवनु अनि धिन कहे । माथे कौवा मारहि बोट, सो विहि रच्यो पाप को मौट २१८७॥ इसे न कबहु नीको कहै, परचो हदी रोवतु रहो। परो अलष निकु वायस दीठि करिहा सो मिलि माई पीठि ।। १८१३ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि हो रानी किम वरनो तासु, मुहू पेष तिहु पर उपासु । आहि मुनत दुपु उपज कान, सुंदरि कहहि तामु पहूजान ॥१८॥ वात नु हासी झूटी मोहि, भमिनि पनि सदो किम तोहि । तो पिउ रमत भई अधरात, तो न तो रति उपजो गात ।। १६॥ रानी वचन सुनि वचनु रानी कलमली, पभने त सिष दीनी भली । क्यनु एकु मेरो निसु नेह, चंपक माला कानु थिरु देह ।। १६१।। गोत नाद वेधिये सुजानु, निसुनि हरिन फुनि देइ परानू । अह जो वालकु रोवतु होइ, निसुनत रहे गोद महू सोई ।।१६२॥ होइ कौविजौ उस्यो मुजंग, निसुनि गीतु विषु रहै न अंग । चतुर सुजान जिते नर नारि, जे आनहि सुनि मूड गारि ॥१६॥ श्लोक सुषणिसुखनिधानं दुनितानां विनोदः । श्रवण हृदयहारो मन्मथस्याग्रदूतः । प्रति चतुर सुगम्पो वल्लभो कामिनीनां । जयसि जगति नादो पंचमो भाति वेदः ।।१४।। राग तने गुण जानहि माइ, मो मूरिष सौ कहा इसाइ । जानहि तू न हमारी भीर, पालुं जिम भेदिये न नीर ।।१६५!! किमि मुह मोरि हसै घर वसी, मेरी मरण तुहारी हसी । आमि सनी तेरी बलिहारू, इतनी करि मेरो उपगारू ।। १६६।। चंपक माला का उत्तर-- चंपक माल कहै विचारि, जानी निगु सत होली नारि । रानी केम भइ बावरी, को सुनि सीतु कि व्यंतर धरी ।।१९७|| वोहरा हा सुर सुदरि सम सरिस, फेम पयासहि एह । सतो न बल्ल? परिहर, अवरु कर नहि नेहू ।। १६॥ भामे निप्र सदृश परिषवस, केम समप्पाहि देह । सौल नबल्ली वल्लरी, जालि कर किम ह ||१६|| Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोधर चौपई सुंदरि जोवनु जान दे, मद जो जाइत जाउ । सीलु महंगा मति दरौ, श्रानह जनम सहाइ ॥ २००॥ सुंदरि जोवनु राजु श्रनु, पेषिन किज्जै गब्बु । संवर सीलुन छांडिये श्रवसि विनस्से सम्व् ॥ २०१ सुनि फुल्लार बिंद मुख जोति, छाडहि रयनु गहि क्रिम पोति । राजहि हंसु क्रिम सेवहि कामु भूलो भई बिलाबहि नागु || २०२ | सुरपति खाडि रमहि किम भूतु । रानी क्रेम करहि धरु मंडु || २०३॥ श्रनतु तजि पीवहि विष मृतु, छाडि ईष किम गोबहि श्रंड, 3 सील रयतु तिलोक पहानु, सीलु नारिमंडल गुन ठानु । सोभू संजम भाव कहि, फोरि दहै डीकामनु देहि || २०४ || माता-पिता ससुरु अरु सासु, पेषि बिचारि स कुलु वासु । राउ भवा तनु घर सूनु, चौक चढो बाटहि क्रिम चूनु || २०५ ।। ग्ररु तू एक विचारहि मापु, करत कुम्म्मं न दुरि पापु । नीर बिस्तरै ||२०६ ॥ कर तारुण सहै । ता बही कान दुबन के परे, जैसे तेल अरु जी केम फेम दुरि रहे, तो पा व्याप रोग योग तन रोर, फुनि नरकादि स दुष घोर ।। १०७ ।। पर तू सामिनि पेषि विचारि, यह अपजस चलिहे जुग चारि । मेरे कहत राषि मनु पंचि, लिय तुल कारण रयनु मन छेत्रि ।। २०८ | तू मातुरी करहि किस एह जाहि रमनप्पो छाहि गेह । काहि जिया तस से की बाल, नारि मरण बुबि भई प्रकाल || २०६॥ णिसुन पे करत कुपाट, तो महिषो दिगडावे राउ | तो सुन्दर मरिये दुष देषि, मै सिष सामिनि दई विशोषि ।।२१०|| जिम माष चंदनु परिहरे, विगधि अमेध जाइ रति करें । वहि कुवरी राजा छाडि, सेलु पाइ धो धरिये गाडि || २११|| ताकै जीवन दीजं ऊक, वयण बेह भरु जीवत्त थूक । तपत तासु भग दीजं डाहू, सा यो छाडि बरे परना ।।२१२ ।। रामो का उत्तर सी बचनु सुनि बिलषी वाल, जरो रबि किरणि पुष्फक्री माल 1 कुंद इसनि बोलें पहू नारि, काज आफ्नो करि म नुहारि ।। २१३ ॥ २११ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि जान मि वंमु गेड फुलुठानु, जोबनु रूपु तेजु गुन मानु । रूषु कुरुपु हेतु अनहेतु, पोष प्रपोच किष्क पर सेतु ॥२१४।। परि जब मयन सतावे वीर, तु नही सषी जान हि पर पीर । मन भाव सौ चढे चित प्राणि, सोई सषी पमर वर जानि ॥२१॥ श्लोक वयो नवं रूपमती बरम्यं कुलोन्नतिश्चेति सुबुद्धि रेषा । यस्य प्रसन्नी भगवान्मनोभू, स एव देवो सषि सुन्दरीनां ।।२१६।। जो तू मो भाति सुमोड़, तो तु साथ हमारे होइ । जब रानी पमन कर जोरि, बोल सषी बहुरि मुषु मोरि ।।२१७।। बोहरा रानी जे प्रचलन घनहि, जानत भष जुजि खाहि । दिवस वारि के पाव मो, संमूले चलि जाहि ।।२१८॥ जे पर पुरिसहि राहि धनी, ते गति पति काहि मापनी । तू सिन देत न मानहि दापु, पिन सुषु जनम जनम को पापु ॥२१॥ रानी निनि भई अनमनी, मोरी बात सषी अवगनी । मैं तू जानी सषी सुजानि, तो मै करी तुम्हारी कानि ||२२०।। तो हि कहार ते सौ परी, जोहाँ कहाँ मु करि राबरी । विहिना लिप्यो न भेट्यौ जाइ, मन मो सषी परी पछिताहि ॥२२१|| रानी एवं वासी का कूबा के पास प्रस्थान-- बरज कवनु भमारग जाति, तव उनि बली संग मुसिकाति । वोऊ जनी चली मरगाइ, मंदे देति सुहाए पाइ ।।२२२।। चमकति पलीजु मोही राग, जनुकु सुहरिणि विखोही चाग । चलत पाउ पाहन सो षग्यो, नेवर धुनि सुनि राजा जशो ।।२२३!! प्रमिय महादे पेषी जात, चितयो कहा चली अधरात ।। बढ्यो कोपु राय के अंग, हाथ परगु ले चाल्यो संग ।।२२४।। छूकतु लुकतु पाई थिर देतु, नारी तनी कनमुवा लेतु । अमिय महादे चंपक माल, सोह दुसवार पहती तहि काल ॥२२५६ दोने जहि कपाट पर दारु, जाग्यो सुनि नेवर झुनका । भने रिसानी को तुम चली, तारे फिरे प्रद' निसि गली ।।२२६।। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोधर चौपई उत्तर दियो तासु सुदरि, एक ससि रेषा है दूसरी । मौर मूड को प्रावे पान, गन् गावो राजा के थाण ।। २२७ । जानि बुझि तू उहि रिसाइ, मानो तो लागी व ढबाइ। चली नारि यह उत्तर कीयो, उसही छेव राय पर दीयो ।।२२८।। कूवई के पास पहुंचना जासु रमा की राणि हि पास, हिनि गई कूवरा पास । नाइ जगायो परप नु लागि, अति रिस भर्यो उठउ सो जागि १२२६॥ तिनि दासी भनि दीनी गारि, सुन्दरि विहसि करी मनुहारि । जो जसु भावे सो ससुईट, सत्य पाषानो जग महु दीर्छ । जो जाने जस्य मुखे, सो तस्य पायर कुणए । फलियो दषह विडवो, कावो निवाहलि दुपए ।।२३०।। दोहा सेजह छडित वालहा वा कारण निसि जगि । कंठ लागि दोऊ रहे भावरि बुरी व जग्गि ।।२३।। रानी का विनय रहि न सको तुझ विनु, सकमि न तोहि बुलाइ । पंजरु गहि राजा रखो, ज्यो तो उवरि पाइ ।।२३२॥ रानी गई तासु के संग, मनो स्वान विटारी गंग । गरुड नारि मनु मानी माग, हंसिनि जनुकु भागई काग ।।२३३।। जुनुकु पुरंदरि सेई भूत, जनु ससि रेह राह ग्रह सूत । सोहिनि जनुकु सुडह को संक, रानी रही कूवरा लंड ।।२३४|| प्रापुनु पेषि राउ पर जर्यो, जनो ध्योगिभ हुसासन परयो । काहि षडग एह घाल घाउ, फुणि चित चेसि चमक्यो राउ ॥२३५५ ॥ इह तिघ निंद दुष्ट गत लाज, णीचक बुधि कर अकाज । भलितरासिरिण विण अविचार, साहसु करतन लागे वार ॥२३६।। उत्तिमु छाडि नीचु संग्रहो, मनमहु प्रकरु अब मुह कहै । पापिणो के किम हरमि पराण, मारण कही न वेद पुराण ॥२३७।। फपुरिसु एहु कूवरौ राडा, दोबरु वुरी पोठि को हाहु । मठो पाइ पेट दिन भर, पाइन चलाहि लीदि मौ पर ।।२३।। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ sfaवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि श्लोक दालिग्री व रोमिनो मूर्खः दयादान विवजितः । क्षरण ग्राही कलंकी व जीवितोपमृतोषि च ॥ २३६॥ ताक पुरिसहि कमि किम घाउ, रह्यौ बिचारि अवरण को राज । दोऊ हृणत परताकी हाहि बहू राउ एह मन जाणि ॥ २४०॥ राजा गशोधर का वापस जाना- चित्रसाल पालिक परिगयो, कारस्णु करें राज मन कुरि, राणी काम भूत को गही उगमातिउरपति डर लई, जा गाडर विजराई मे मलिए सही पोटी दे। कुणि पिय भुज पंजर संचरी, नामिरिण जणकु महाविष भरी || २४३।। करती राज सरस रस केलि सो यत्रभई महाविस केलि । यह दुषु वह सुषु वर कोनु, पापिति दियो धाइ जनु लोनु || २४४॥ श्लोक नृमतं न विषं किंचित् एषां मुक्ता वरांगणां । सेवामृतमयो रक्ता बिरक्ता विश्वल्लरी ॥२४५॥ जनकु बज्र की ह्यो । विडिउ परिहस अगिरिण दई लण पूरि ।। २४१ ॥ रमि कुबरों चली गुण रही। पेषि स्वानस्यारि बन दई ।। २४२॥ चौपई मणि लागी केम परेस अनु राषि सिनि भिहा वण भेस अपत निलज्ज पापकी पुरी, डाइ जग्गकु सुदी गहि जुरी || २४६|| बोहा सहि गारने मन चितवे पेषिति नारि चरित्र | देहू महातरु प्रभु तणो, दुष महाचल सिस, ॥ २४७॥ हाहा एह भणछु जगि कासु कहि जर भासि । अपजस लाज पयासरणौ पावकु कम्महू रासि ॥२४८ ही कोहनलु तिय चरिउ देह वनंतरि लग्गु । चित्त, विहंगमु मु तनो उडिवि व दिहि मम् ॥ २४६ ॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोधर चौपई हर जामि मो वाल हिय याहि विवालह पोउ । पंजर मुक सम्मपि कहू, अण्ण मन जीउ !॥२५॥ चौपई राजा यशोधर द्वारा चितन तहि अवसर चितइ मन राउ, अव फुरिण भयो मरण को दाउ । छाडिम राजु गेहु धनु भोगु, माणिणि कुटमु सरस रस भोगु ॥२५१।। तपु करि सहमि परीसह घोर, भवभय भवनु निवारमि भोर । पिनु तप नही कर्म को पातु, तारे गएणत भयो परमात ॥२५२।। तंव चूल वासे रवि उयो, अंबर तारागण लुकि गयो । तोरसि चकवा मिले प्रशंदि, सूर राइ मनौ काटो बंदि ।।२५३।। पंच सबद वाजे दरबार, बंभण पढहि बेद झुणकार । जसहरु सभा वठ्यो प्राइ, णिसि दीठो वैरा गुण जाइ ॥२५४।। चन्द्रमती रानी का प्रारमन तहि अबसरि चन्द्रमती राणी, पूजि फिश्न प्रासिकु ले पाणि । आई जहा जसोधरु राव, मोह कम्सु वऊ परभाउ ।।२५५।। आसिकु दयो गह के हाथ, पभण्यो विरु जीवहि नरणाय । माता चरण परघौ तब राउ, आई माता कियो पसाउ ।।२५६।। यशोधर द्वारा स्वप्न बर्णन भरणे राउ माता णिसूरणेह, भासमि मुपिणु कानु थिरू देह । अंसो सुपि दोड़ सिसि प्राजु, मानहु भवसि बिनास राजु ।।२५७।। वितंक एकु महा परचेड्डु, किस्न अंग कर लीनै दंडु । चित्रसाल अंवर ले परयो, सो मैभीतु पेषि हो डौ ।।२५८।। णिसिपरु भणे राइ संघरौ, स्यौ परिवारण गरुष्यो करो। जो तपु करहित छाडमि माजु, ना तरु प्रबसि विनासे राजू ॥२५६।। मेरौ वषन राइ प्रतिपालि, जीतव ईछु लेह तप कालि । मै भास्यो तप करमि विहाण, तब सुरु गयो आपने थान ॥२६॥ हो तपु करमि माह ससि मती, जासु पसाइ काटमि भवति । कलमलि माइ बचनु तब भन्यो, जिनवर तनौ धम्मु अवगन्यौ ।।२६१।। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि २१६ चन्द्रमती द्वारा शिक्षा ऐसो वचनु सण सुब मुह काढि, याहू तेर चवगनो यादि । सर्पिषि भीलु ण होहि, कुटमु मृयनु सब लाग्यो तोहि ।। २६२ ॥ जं सुपिहि डर वरवीर, संगर केम सहि सुन मोर डर हीन दीनु कुक्षि रंकु, तू कुल मंडनु राउ निसंकु ॥ २६३ ॥ देविनि के दिन भारे पूत, महियल में मवमाते भूत । भवहि रैनि जोगिण के ठाट, मढ मंदिर व तोररिए घाट || २६४ ॥ मोहु रथणि जाई बर रात । ढाको बलि पूजा करि घनी ।। २६५।। सुव हि साची वात, कंचारिण देवी तो तनी, हमे देवी को हुन पूज कराह । भास्यो दिय वर तर्न पुराण, जिनबर मुण शिष्यो कारण ।। २६६॥० हो इकु सर सुभु राजु प्रषंह, कंचाईणि राषौ मुब द । पिलुणि वचनु बोले महिराउ, हा किमि मूळ अम्मी जिय चाय ॥ २६७॥ राजा द्वारा हिंसा का प्रतिरोध जव घात छौ उवजे धम्मू, लोको अवरु पाप को कम्भुं । जे ते लब चौरासी षाणि ते सब कुटमु माइ तू जारि ।।२६८ ।। सो भवंतरुगह्योग मा जीव घातु जो कोइ करें, सो पशु धातु करण किमि जाह । हिच णरक माइ सो परं ।।२६६।। लोक नास्ति महत्परो देवो दम्मो नास्ति दया विना । सपः परम निरग्रन्थो, एतत्सम्यक्त लक्षणं ॥२७०॥ चन्द्रमती द्वारा अनिष्ट निवारण का उपाय चन्द्रमती बोली विद्धति होरा दंतपंति झलकति । एकु वचनु सुव मेरो पारि देवी तनी ण पूजा टारि ।। २७९ ।। जैसे कुसरा मार्गे छू हो६, दुषु ण कुक्कूट करवां हि एकु. कुणि तू तप लीजह सुकुमार, मान्यौ बचनु चन्द्रमति तनी, दालिंद्र रग व्याप कोइ । देवहि देह वोइ दुष घेऊ ।। २७२ || वलि पूजा करि अबकी बार । माता भाउ पयास्यो पनी ।।२७३ ।। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोधर चौपई २१७ वरण कूकुरु को नौ सुसि टारि, पेषि रहसू मान्यी परिवार । करत कुभाउ या राजा रथी, ले करि दीपु कुवामहु पस्यो ।।२७४।। जाणि बुझि कोज जिय घात, कवण निधार पर कहि जात । गो गांव मे गेह. : मेरी अपनी अलि लेय ।।२७५।। हपौ प्रचेतु रहसु मन माणि, अनु कुसु संची महा दुषाणि । चन्द्रमी बोली तहि थाणि, थोरै भलो हमारी माणि ।।२७६।। तू कुलदेवी कुल की वारि, रण रावर तु लेह उवारि । बहुत भगति करि रह्सी देह, फुणि नंदणस्यो पाली गेह ।।२७७।। जसहर जस में कुमर हकारि, कलस ढारि आसन सारी। दीनी राजु पटु दलु देसु, पापुनु वरण तप चल्यो नरेसु ॥२७८|| तहि ठा मारदत्त सुवि राइ, कम तली गति कहण न जाई । अमिय महादेवी ससि वयणि, सरस कंजदल दीरह रायणि ।।२७६।। भूलोही न कुषि जकं हेत, जसहरु राउ सुन्यौ तपु लेतु । अकुलानी विह लंघल गई, जिम मच बेलि पवन की हुई ॥२८॥ जो ण होइ थिरु एको घरी, दिनु ग्रंथव तप र कर मरी । सुनी न पेपी जो अनववी, कंतहि सैन फेम तपु सदी ।।२८१।। यह फुणि मानौ कछु विचारु, जिहि ते दीक्षा लेइ भतारु । आणमि राजा भया उदास, देषी रमणि कूवरे पास ।।२८२।। रामी अमृता को प्रार्थना पेषत मानु राइ को मल्यो, ताते कंतु लन तपु चल्यो । जो राजा फिरि माई राजु, मेरी सकल दिनासै काजू ॥२८३३॥ ऐसौ जानि डिभ मनभरी, चंचल प्राइ राह पग गरी । नयन कमल भरि छाड्यौ नीरु, बिरह वाण घन घुम्यो सरीर ।।२८४।। भरणं नाह हो तेरी दासि, साई मोदि तजहि का पासि । मो तजि किम लप लेह भत्तार, तो चिनु प्राण जाहि सुपियार ॥२०५।। दोहरा वालम जोवनु कुसुम धनु, केम चल दबलाइ । सरस बचन विनु जसह रहि, ता विनु केम वुझाइ ॥२६॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ कविवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि बालम तुव महवाल ह्उ, तो बिनु एह प्रकछ । के जरि वरि माटी भली, कैर तुमारं स ।। २८७॥ बालम तुम विनु रूवरी, सोता कि जगह जसु वालम विनु क्रिम मामिति किम भामिनि विनुगेछु । दान विहीनौ जैम घर सील बिहीनों देहु ।।२८६।। चौपई लहिमलि भारी होइ । धीरी घरं या कोइ ||२६|| रानी भर्न जोरि परि मो बचनु एकु प्रभु देह, दियवर भएहि वेद की श्रादि, ताते एहु बचनु प्रतिपालि, फुरिए हाथ, हो तपु करमि तुमारे साथ । भोजनु करहि हमारे गेह ||२०|| वलि विषानु भोजन वितु वादि । तुम हम तपु लीवौ कालि || २६१ ॥ रानी बनु मोहि प्रभु रह्यो, मानहु मोह निसार गह्यो । जनु पडि ढलना मेले सीस, भूली सर्व पाछिलो रीस ||२२|| रानी चरितु स्यणि जो रयो, भाई मो सुपिनु हो भयो । भरम मुलानो ठगि सो लयो, मांग्यों बचतु नारि कहूं दयी ।। २९३ ॥ रूपरि रवण कथा पिलुरोह में कचनु कर्म की रेह । मानी राइ नारि की वात, भामिनि रोम हुलासी गात || २६४ | रानी द्वारा जहर के लड्डू बनाना एवं राजा को खिलाना तब राणी प्रपनं घर गई, बोली सबी रसोइ ई लडू किये बहुत बिसु घालि, कछूकु तं वन दीनो पालि ||२५|| हीन बात किस बरामि और लोपि सोधि करि दोनो ठौर सहरु चन्द्रमती सु पहारिण, दोक जैव न बैठे प्राण || २६६ ॥ भोजन करत उठी तनु कापि । P लाडू भाति परोसे चापि ताकी उपमा दी कौन, जुर जाड़े जहू तृम्यो अंगु नसणी टूटि जीभ लहराण, चन्द्रमती के विकसे प्राण || २६८ : | भूमि चालु सौ लाग्यो हौन ||२७|| भयो नयन काशनि को मंगु दुवै करि राजा, अमिय महा दे की ज्यौ डस्यो । जौ राजा को जीवन होइ, तो प्रभु मारे मोहि विगो ||२६|| Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोधर चौपई २१६ पापिरिण भई मापने भेस, सिर मुकराइ दिये तिनि केस । परि जरक सी दीनौ दंत, णिधिण यो मापनी कंतु ।।३००॥ जसवं नंदनु भायौ घाइ, पितहि पषि रहो मुह वाइ। विषस लोग समुझावहि तासु, जाणि राइ जग मौ को कासु ।।३०१॥ मादि मनादि भए अरु गए, जाने कवनु कितिक निरमए । पाप पुण्य है चलहि सघात, करण काहू दीस जात ।।३०२।। सुपुरिसु किम रोवे मुह घाइ, लघुता होइ दुवन विहसा । साग्यो तोहि घरणि घरु बंधु, जस में राज धुरा धरि कंधु ॥३०३।। प्रमिय महादै मौको धाह, मोकाको करि वाले नाह । सो फुरिण प्रमु समुझाइ राषि, जस में राइ स कोयलु भाषि ।।३०४।। माता जाणि न धिरु संसार, परजि रहायो सव परिवार । जराहरू राउ चन्द्रमति पाए. अश्मी करि ले गए मसान ॥३८५11 श्लोक मर्थी गृहानिवत्तते, मसानेषु च बांधवः । सरीराग्निसंजुक्त' च पुन-पापं समं सजेत् ।।३०६।। चौपई किरिया करि नैन्हाह सरीर, कुसुल दियो चूर भरि नीस 1 कीनी सयल मरे की रीति, भासो कथा गई जिम वोति ।।३०७।। वस्तुबंधु देस अयवरु प्रभयरह रणाम पाहासई गुण गहिरु मारिपत्त पर । सुनि भवंतरि कामाह विचित्र पाव पुन फल निमुनि । यंतर जानंतहू असहर रिणवद कुरु भयो प्रचेउ । संसारं हि हिडियउ पाहासमि भष भेज ॥३०॥ चौपई पभणइ कवि परण विधि परमेस मारग सुतण थेघ उपदेस । णिसुबहु भख सुदि करि कारण, जसहर राजा तना कहानु ॥३०६।। जस में राज उज्जैनी कर, उपमा आपु इन्द्र की धरै। कुसुमावलि कसम सर बेलि, ता समान मान सुष केलि ।।३१०॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि यशोधर का मोर एवं चन्द्रमती का कुत्तर होना - कुकुरु यो अवेयनु प्रापु, जसहर जानत कोनौ पाए । बर कवनु महा ममु घोरु, जसहरु राव भयो मरि मोरु ।। ३११ ।। चन्द्रमती मरि कुकरु भइ, परमति रमति माधुनु रई । एक दिवस विहि सर मधुजारिए, जस बैंडोंचड दीनों आणि ।। ३१२ ॥ रवानु पेषि मन उपज्यो भाउ, जो लायो लहू कोयो पसाउ बहुत गहे ।।३१३|| मिहिनु बंध्या मंदिर फुरिंग जस में प्रवलोय मोरु, प्रति सुरुपु गुण कहत न ऊरु | सोल मेल्यौ मंदिर माह, कोतिगु बहूत करे सो ताह || ३१४ || " नेवर धुनि सुनि विसं फराह, राणिनु बेलत विवसु विहाइ । एक दिवस पावस घनघोर मंदिर सिबिर गर्यो चढि मोरु || ३१५॥ तहि भव सुमरि नु मन जारिए, समलु लोग पेष्यौ पहिचारिण । चित्रसाल पेषी अपनी अक्लोइ कुचिज कस्यो धनी ॥१३१६ ।। लो लगी यन उपज्यो बोहु, तिनहू परणि बड्यो करि कोहू । कियो चरण चंचू को घाउ, तहि पापिनि गहि तोस्थी पाउ || ३१७॥ मारिदत्त ले भन्यो परानु गर्यो तहां बयो स्वानु । तहि कुकर माता के जीब, पकरि स्वानु मुटु तोरी गीत ।। ३१८ ।। सारि पास बेलतु ही राऊ धायी तिनहि बुडावन घाउ । छा नही स्वानु रिस लयो, राह स्वान सिरु मंदिर रह्यो ।। ३१६॥ काला सर्प एवं मोर होना freet साथ हू को जीव, मुयो स्वान दुजो हरिगीव । सिहियो बरु स्वानु करि मर्यो, किन्नु मुजंगु छाइ भवत ।।३२० ॥ जाही भयाँ सोजि मरि मोर, पाव कम्मंभव भव तन करु । तिरिए फुरिए बैरु पुगरणों सरचौ देषत दीद्धि नागु संघरचौ ॥३२१॥ नृत्यांगना दोऊ परे तल की भेट, ते भषि दोऊ दीनं पेट | गोहिन परी विधाता इसि मरि भुजंगु जल उपनी भूमि ॥ ३२२ ॥ " श्रम कर्म सो कोनी पीनु, सो जाहो मरि उपज्यो मौनु । एयरे उनी जस में तनी नाचरिण हर तिलोतम बनी ।।३२३।। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोधर चौप चंचल डोल विलोल बिसाल कुच कंचुकी वनी कसि अंग, कनि मेला बंधी तानि, जनकु ऋण वरण ससिहर मुष जोति, पेषत मुनि रति पति तर होलि । कोमल जनक पुष्प की माल || ३२४|१ फाटे तर कि भ्रमत बहू मंग | सुगडी विधाता आणि ॥३२३|| बंदन नागिनि घारही धुनि सुनि मुलहि हंस ।।३२६ ॥ धगनित जाने कला विताना अवसर करि जलाइ न्हान 1 कोला करे सविनुम्यौ मिली, विषय सुसुयार सो गिली ।।३२७|| बहुत कुसुम ले बैनी गुद्दी, जनु साल पषावज बीना बंस, नेवर हाहा वादु नगर मौ भयो, सुसुमान नाचनि गिलि गयो । रिपसुनि राज प्रायौ नदि सीर, जावि जोग दुह भर्गो सरीर ॥३२८॥ जीवर वोलि पलायो जारु, पक सूसि मेलि मुहगारु । ला पकरि बाहिरी सुमि मारी लात ला मुह घुसि ||३२| र कवतु महादुष पाणि, दुष दिषराये नरक समानि । सहिए सोजि सहावे दई, तिस पुरि सो मरि मेरी भई ।। ३३०| दिवस जब गए बितीत । मह्यो गुष गारी घालि ।। ३३१|| मारिदत्त सुनि भय भयभीति क चीत्र न ल कम् पहू अलि, मोनू बाघ लात मुठी कनु हो, सुर गुर पहू दुष जाइ न गन्यो । रोड़ो भणितिनि दोनों ठोउ, जस में ताको कियो विगोज 11३३२०० पिता मरिवि जो उपज्यो भीनु, खोइ नाइ पिता के दीनु । सेदीवर भासहि वेव मूढण लहहि धम्मं को भेदु ||३३३|| जीवण जाइ कर्म वस परसो री तनै गर्भं प्रव्रत । जव तिरजंच वडेरी भयो, मातहि रखत ज हयो १२३३४ || आपु वा सो उपन्यौ प्रापु मारिदत्त को मेटै पाउ | पूरे दिवस भए जव पेट, एक दिवस प्रभु गर्यो घवेट ||३३५|| तिहि दिन राजहि भई न घास, वाण णी देगे घरजात | sat उदर वो करावालु, ताको काढिकिय प्रतिपालु ||३३६|| दिय बाह्यगा बर भन्यो पजनी जानु, बडौ भयो डोलें परुषातु 1 तिहि अवसर हु धरि भाऊ गरे जस में राउ ||३३७ ॥ हरिण रो सकर हरि ससे, मारे जीव बहूत कण वसे 1 विश्वर भरणहि शिसुरिए प्रभु साधु, जलहूर राजा तनौ सराछु ||३३=। २२१ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि पाजि पिता तनौ दिनु एड, तासु नाम बहु भोजन देहु । झूठी वहतु अमिष की रासि, सोर सुधा बहू छेरे पासि ॥३३६।। निरमलु दोकु अजोनी जानु, लहै सुरगु सुप आज तास । तिनके कहत अजाघर मारिण, दिलु करि मंदिर बाध्यौ तानि ॥३४०।। प्रमिय महादेवी को गेह, वोकु क्षुधा तृस व्याप्यो देह । ताल वेस पयासी धनी, तहि अजाभव सुमरी यापनी ।।३४१।। देख्यो कुटमु दासि भरु घासु, मारिदत्त हुषु कहिये कासु । सवु मंदिरु पेप्यो पक्षपोइ, तब पछिताने कछू न होइ ।।३४२।। हो तिग्जंतु पुकारी कासु, कोइ देइ नपान्यो घासु । रूपिनि णाहनि श्र निएं घरी, अमीय महादे दीठित परी ॥३४३!! तहि अवसरि राबर को हासि, पापिनि रानी तनी षबासि । जोवन तहण कनक सममाप्त, कहति चली पापु समहु वात ।।३४४।। दासि एक पभने तनु मेरि, करि कटाषु मुह नाक सकोरि। रावर विगधि कहा रमि रही, अवर भने तुम बात न लही ।।३४५।। मरमु न जान हि कष्ट्य गवारी, राजा स्याव जलयो मारि । जसहर चन्द्रमती दिनु आजु, होइ बहुत भोजन को सात्रु ।।३४६।। सरमौ मासु गधि साची एहा, अमिय महादेवी के गेहा । मवर दासी वोली अरगाई, कहमि वात परि कहण न जाइ ||३४७।। निसि दिन सेवा जाकी कीज, सषी तासु किमि वरी कहीज । पादै तुम्ह देही मारि, सुनैत सामि निडारै मारि ॥३५॥ तऊ कहमि जो कहण न बोगु, प्रमिय महादे वा यो रोगु । चितु ६ भोजण मारी णाहु, फुनि कूकरी रयो करि गाह । १३४६।। घाइ भमिछु डाइनि अवतरि, पापिनि कुष्ट व्याधि सरि परी। दुष्ट कर्म सो मारी चूरि, ताकी विगघि रही भरि पूरि ।।३५०।। दामी तनी वयनु सुनि कान, मै घरतन पेष्यो तहि थान । तब बैठी देषी सोनारि, कोढिणे बिधना करी बिचारि ॥३१॥ पायो बेगि मापनो कियो, सो बयो तिसो नुनि लयो । मो गृषु भयो नारि अवलोई, जिमि निधन धनु पाए होइ ।।३५२।। मारिक्त निसुनिहि धरि भाष, काटिउ एकु प्रझाको पाउ । तीनि पाइसी बपुरा रह्यो, छुटै नही कर्म दिढ़ गयौ ॥३५३|| Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोधर चौपई २२३ कथा सुघोजिल निसुनहु प्राण, ग्रेरी जो प्रभु मारी बाण । सो मरि देस महिषु भवतरचौ, प्रति प्रचंडु बल दीस भन्यो ।।३५४।। ता परि वणिक कठारी घालि, लादि चसामी मधुरी चालि। आगे सो उजैरिण नदि तीर, बलत पंथ को भई उमोर ।। ३५५१॥ को सहि पनि दि. य. ... न तु इणयो । तब थन वारण कोनी सोरु, पकरथी महिषु घालि गल रोरु ॥३५६।। राजा प्रागै बिइ सेव, हग्यो तुरंग तुमारी देव । सुणि रिसाइ बोल्यौ महिराउ, पाको करहु दुहेलो घाउ ।।३५७।। पाइ बांधित रखऊ मागि, तिम मारह जिम जाइ ण भागि । छेरे सङ्कुलै मारह एह, साद पिता भा जोक देहु ॥३५८।। फोर कारा एह पम तीनि, देक पितर जिम पावहि पाणि । छेरौ महिउ पगिनि सहि मरो, तंब चूल दोऊ भवतरे ।। ३५६।। तहि अवसरि कर लाठी घारू, जस में राय तनो फुटवारु । दोऊ लए मरमपम जाणि, तिणि राजहि दिपराए प्राणि ।। ३६०।। कुकर्कट जुगलु' अनुपम पेषि, गच्यो राप रंग मनु भेषि । बहुत मोहू सुष उपनो दीठि, निज कर तरसी तिनको पीठि ।।३६१॥ कोटवाल पभण सुनि राइ, जूझ पेषि मनु परी सिहाइ । भने राउ तल वर प्रतिरालि, देह कूरु पंजर ले घालि ॥३६२।। नंदन बन मेरै घर तीर, सै चलि तांव चूल वलवीर । गज गामिनि भामिनि मो तनी, ता सह कील कमि वन वनी ।।३६३।। तहि कोतिगु पेमि वन माह. सुफल कसुम तपवर उन छाह । निसुनि बचनु तलवरु सिर गाइ, कुक्कट लवण पहुच्यी जाइ ।। ३६४।। साटकु अंबनि वकयं व चंदनवन के किलि वल्लीहरं । दरकाणालि लवंन पूग कदली सेवि गुजर कामरं ।। जाती चंपक मालसी व कसुमं अकरादि देर । गायंती झुणि बीए किरज लंप भवणं साणरं ।।३६५।। कोटवालु घनु वनु अवलोइ, मन मोहनु सोहन फिरि सोइ । तहि अवसरि णिव मंदिर पास, जहि असोय तरुवरु घन सा ॥३६६।। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूच राज एवं उनके समकालीन कवि गगि दिरावर दोन भानु, सुहह दी तसवरू तरहान । कोटवार मन चिंत्यो सहा- इह निलज्जु बन भायौ कहा ॥३६७० पेषि गउ मन कोषु करेइ, याकी रिस मेरे सिर देइ । मुनिवरु वातानु लेमित चाटि, यावन से कमि निरघाटि ।।३६८" हिंभ भरमौ आयो मुनि , जगास की सरकार । मुनिबरु ति जग सरोग्ह सूर, धम्मं बुद्धि दीनी गुरण पूर ।।३६६।। मुनि मुनि बचन सुहडु भनि कहै, कहिये धम्मु कवनु को लहो । धर्म धनुषु सिव सूचे वाण, यहू भासिउदीचर परवाण ।। ३७०॥ मुनिवरु भने नि सुनि कुटवार, पभम धर्म तन, विनहार । कहिय मुकति भमर पद थान. सूस्खु प्रनतु को कहण समानु ।।६७१।। कहियै धम्मु अहिंसा भादि, जा दिनु हिडिउ प्रादि धनादि । मुनिवर बचन सुह दह सि परयों, मुनिकर कादि घच महू परयौ ॥३७२॥ कबनु जीव को दुस्खु सहाइ, मुख देह माटिहि मिलि जाइ । पवन हि पक्न मिलै मन जाणि, क्रिम मुनि भासहि झुट बधारिग ।।३७३।। कवन काज दुषु सहहि सरीरा शाह अंगतन पहिराह चीरा। वहनिए जीव लेइ अवतारू, विनु कण कुटहि काइ पियारु ।।३७४।। फुणि रिसि वोल्यो भणिसु सुरणेहा, भिन्न जीच करि जागहि देहा । सातै तमु करि काटहि पापु, जान्यो देव जीव गुन मापु ॥३७५।। जो परि पबन गयो मिलि यौन, दुष सुष मूत सहो तो कौन । भलो बुरी तो कीजई काइ, तलवरही गाव कहि किम वाइ ॥३७६॥ जो गुण मुनि वरु भासी पेषि, सो गुरगु तलवा मेटा दोषि । भणी सुभटु वरसण अंगु, मुनिवर भासि करै तिष भंगु ।। ३७७।। तल वर मुटु भरणे सच जोरि, सो संसो मुनि घाल सौरि । जितो वादु मुनि तलवर कोणु. सेतो किमि भासमि बुधि होनु ॥३७८।। तमवर तनो रह्यो मनु माणि, पादु नुपरो सु दिदु मुणि आणि । उपमा बहुत केमकरि भनौ, किम घटाइ मुस को लीपनो १३७६।। तलवर भरणे निसुनि गुरदेव, दै प्राइ सुकरभि किम सेव । भास स वनु सुभट करि एह, माउ भूल गुण दिछु करि लेह ।।३८०॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोधर चौपई २२५ जेसा वयवम भासहि वीरा, जासु पसाद तरहि भव तीरा । ए प्रतिपालि धर्म की रासि, प्रागम कहो प्रिनेसुर भासि ॥३८॥ फुणि भटु भणे जु तुम मुरिण दयो, सो मन बचन काय मै लयो । परि मेरै कुल मारग एक, मुनिवर निसुनि धर्म की टेक ॥३२॥ पिता अजायौ जो पर तातु, पायो चल्यो वंस बीय पातु । जसमै राय तनो कुटवारु, मार मि चोरु जारु वट पारू ॥३८३।। भास मि देव वयत परिवाहि, पालमि सयलू हिंसा छाडि। निपुनि धयनु मुनिवर हसि परयो, जान्यो प्रजहु मूढमति भरचौ ॥३८४।। निसुनि मुळ जिभ सि चिनु, लवर प गोगनरगिल मे । जिम मुह होए नयण पर एक, जिम बहु सून एक विनु अंक ।।३८६॥ धम्म पहिस धर्म की आदि, ता बिनु मूढ धम्म सव धादि । अरु तू कहहि मूठ निरमंस, आइ घली हमार बंस ॥३८६।। ताको उत्तर पभनो भाषि, पल कोट जो सातो साषि । कोइ बैदु मिल ल मूरी, परि सो कटु करै सम दूरी ।।३६७।। कहि कहि मूढ प्रापु गुण साश, पूर्व भलो किस हिये व्याधी । तंब चूल कीणि सुरहि वाता, जिम ए फिरे भयंतर साता ॥३८८।। सहे महा दुष नरक समाना, तिम तु सहि हे मूढ भयाना । तब पित अति वास मा भनी, कहि कहि सुगुरु कपा इण तनौ ।।३८६।। जय वर भने प्रमोघ रस वाणि, सुनि वर वीर कया थिरकाणि । जसहरु एक अचेयण धात, भवर्गात फिग्यौ भवंतर साप्त ।।१६॥ श्लोक धीमह उचनिनामनगरे सुरोजसोधो तृपः । पत्नी चन्द्रमती सुतो जसघर:, नारी चरित्रे मृता । संपत्तो सिहि स्वान जावह फणी जुग्मोपि अंभंवरः । छेली छागु स्ववीर्य छेल महिषो एवं पुनः कुक्कुटः ॥३६१।। इनके कहे भंवसर वीरा, तंव चूल पंजर तो तीरा । अव नर जनम् तनो अवतारु, दोऊ लहहि काटि दुहू भारु ।३३६२।। तलवर मेति प्रापु भतु लयो, जनु रवि किरण पेषि तुम गयो । निसुनी कपा मुनीसुर भनी, कुक्कुट भव सुपरी मापनी ॥३६॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि जान्यौ सयलु पाछिलो कियो, तब पछिताइ विसूरघो हियौ । पायो दुसहु महा गुण बोहु, जीव भषण को कियो निरोधु ॥३६४।। प्राई काल-लघि सुभ वरी, भव भय वेलि कटी दुष भरी । तंव चूल पंजर वन माहु, कीनो सव दुसुरुहु रीसाहू ॥३६५शा जस वैराउ रयणि वण गयो, राणि हि सहित सुरतु सुषु लयौ । कोक भाव रमि खरिंग सुजारिण, पंषि सवद सर मारे ताणि ॥३६६।। तंब चूल प्रारति तजि मरे, कुसुमावली गर्म औतरे। पायो धम्, सुगुरु उपदेस, पोतं परी सु किल सुभ लेस ।।३६७।। गुरु भव सायर तारण हारु, भव तरुवर कप्परण कुठारु । कीजहु भन्च सुगुरु को कह्यो, जासु पसाई असिम कुल लयो ॥३६८।। सिसु सारंग नयरिण ससि वयरिण, पिय सोमानि सुरत सुषु रयरिण । कुसुमावली सहित घरणाहु, गनो णरि मन भयो उछाहु ।।३६६ ।। पयड असा पति तग सहि दारु, दिन दिन गएँ जुण पाणु । जिनवर नो वर्ष परणट, पुन दोशनी पर राज !!४!! कुजर चालि सुहाई मंद, पंडरु वयनु सरद जनु चद । घुलहि रणयण जन जागी राति. मोरति अंगु वयण अरसाति ॥४०१।। कररुह भाण घरी जाई, कोमल अंघ जुमलु यहा। चंदन चंदु कुसुम रस वासु, सीयल सेज र वैज्यो तास ॥४०२॥ विरीषंडि पारे अपघाइ, सुन कहानी सखिनु वुलाइ । प्रमुकमेण पूजे दस भास, भयो जु पलु पूरी मन प्रास ॥४७३|| अभयरुचि का जन्म मंगलु भयो राय को गेह, सुह वेली सीची सुघ मैह । होरण दीण पूरै दै दानु, सुयरण लोग को कोनो मानु ।।४०४।। इकु राजा सुन जनम्यौ आनु, ताको सुपु को कहण समानु। कीनी प्रभो फुटमु रुचि भरघों, ताते नामु प्रभैरचि धरयो ।।४०५|| स्तर प्रभमति कंचन देहा, अति सरूप जनु ससि की रेहा ।। मारिदत्त मुनि कथा पहाणि, दुसह खरी फर्म गति जानि ।।४०६।। वलि जो जाति सवनुत दई, बहू हुती सो माता भई । नंदनु हुतो बसोमति राउ, सो फिरी भयो हमारो ताउ ॥४०७।। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोधर चौपई २२७ सबु संसारु विश्ववनु जारिण, राजा चेति धम्म पहिचाणि । वालक वढे पिता के गेह, निर्मल अंग सकोमल देह ॥४०८।। लषण वतीस कणक सम अंगु, जनहु अंग सहू भयो अनंगू । खेलत वाल कु देष्यो तात, मुद्रा पेपि भयो सुषु गात ।। ४०६।। फरिण सुन्दर देषी सुकुमाल, सय दल सदल णयण सुविसाल ।। पायकांकेलि वैलि सम अंगु, चितवस' जनु भयभीत कुरंगु ।।४१०॥ टूहु ऋषि पभर प.. देसिनु अ क " । मारिदत्त सुनि ग्रह धरि भाउ, पारधि चल्यो हमारी ताउ ।।४११॥ स्वान पमह लीने साय, कणक डोरु गहि अपने हाथ । पंपहुचरितु दई को आनि, ढाहिणि दिसि तव तरहाणु ।।४१२।। मुनि वर्शन बिरकत भाव मुक्ति मन छु, दीनं ध्यानु मुनी सुदीर्छ । पभण राउ कोप पातुरमो, नगिनु दी किम मेरी परयौ ॥४१३॥ निनु मलिनु प्रमंगलु एहु, दीयवरगिदु सदूवर देहु । सनमुख गिन रह्यो दै ध्यानु, या सम मो प्रसगुण नहि मानु ।।४१४।। याको मुषु देषत्त सबु जाइ, प्रण चीतीउ किम देष्मी आइ। अस मै चात पत्याई प्राण, भैट वुरेस्यो होइ मचाण ।।४१५।। सव कूकर मेले मुणि तीर, घ्याए धरम जिम लए समीर । मुनिवर नीरे मंडल जाद, समहुइ रहे सीसु धरि साइ ॥४१६।। गोवईन सेठ-- तव मन को पुन सक्यो सहारी, पायौ राउ काहि तरवारि। तहि अवसर गोवरधनु सेछि, जामन अटल पंच परमेठि १४१७१ वनि बरु अंतर कीनी माणि, जस में तनो परम हितु आनि । पभन तू जि प्रविन को राउ, मुनिपर बरि करहि किम घाउ ।।४१८॥ पणहि चरण वेमि तजि गाहू, मुनिबरु तेज पुज गनाए । धनिबर कमणु निसुनि महिपालु, भन मित्र किम जपहि पालू ।।४१६।। मुनि को आहिण पाजु उठार, यासिर फरमि पलय की मानू । तू मो सहू पाल गया कहही, मानहू मेरौ मरमु ए लहहि ।।४२०॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि निधो मुणि दिय घरह पुराण, इनके बचन न सुनियहि कारण । मेरे कूकुर राषे कोलि, अषय करज्यो कणफु सो सील ॥४२१॥ असो वचनु राइ जब भन्यौ, हा हा परिण वनिक सिरु धुन्यो । मरखें मूढ राज मद भरे, भूली बात कहहि वावरे ।।४२२।। मुनि के गुणों का वर्णन मुनिवर सम को पकरु पहाण, याको गुणनि सुणिहि दै कानि । मलिन देह अंतर मल हीनु, तिय ण संगु सिव भामिनि लीनु ।।४२३।। निधनु, परि पनाह न अतु, तीन रयण गही रह्यौ महंतु । रोस हीनु परिहन्यो अनंगु, जो रवि पर तम रहैं न अंगु ॥४२४।। षीण सरीर पतुल बल जाणि, को तप तेज कहै परवाणि । वयनु पेषि सुष उपई गात, प्रस गुण कर नरक बनु जात ।।४२५॥ यह कलिग नरवै सुपहानु, या समान राउ न होतउ प्रानु । तसकर कारण छाडिउ राजु, तजि प्रारंभु कियौ सप काजु ।।४२६।। अरु जे ते सावज वणवास, लगते रहहि सदा मुनि पास | ता ऊपर किम घालहि घाउ, किम के काज वढाबहि पाउ ।।४२७।। सुर नर खयर फनीसुर जिते, इणको सेव करहि सब तिती । माया मोहु ण व्याप सोकु, नान नयण सूझ तिर लोक ॥४२८॥ जिन विनु काम बढावहि पापु, पणवाहि चरण छाडि मन दापु । वनिवर तनी राव सुनि वात, त्यो परी सकषि करि गात ।।४२९।। रजा द्वारा मुनि भक्ति मन विचार करि उपसम भाउ, मुनिवर चरण परयो महिउ । रागु रोसु मरु जिन बसि फियो, धर्म वृद्धि भनि मासिषु वियो ।।४३०॥ दुजो घासु पापु षै जाउ, यह मेरी मासिक को भाउ । मुनिवर बन्दनु राउ सुनि काण, तब नरव लाग्यो पछितान ॥४३१।। इण षिनु एक न कीनी रोस, करु उचाइ मो दई भसीस । वा सम महिलि साधु ण मानु, इणि परु जान्यो प्रापु समानु ।।४३२।। मेरो जेम पराछितु जाइ, सीसु काटि ल पर समि पाइ । मुनिवरु भन्यौ निसुनि महिपाल, किम मन चिर्स मरनु अकाल ।।४३३।। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोधर चौपई २२६ काहि बोर केम सिम मापु, मासु प्रात कटि जाइए पापु । जिम परघातु पापु सिम जाणि, बचनु अडोलु हमारी मानि ||४३४।। जब यहु बचनु मुनीश्वर कहो, नरवे वेति चमकि चित रह्यो । सुनि कल्याण मिन गुण षामि, मम महू वात लाई किम जाणि ।।४३५१ वणिवक भी राय णिसुलेह, फितिक बात जो जानी एह । मई होइनी परतति बहे, मुनिया तिहू लोक की कह ॥४३॥ माता पिता पितर तो तन, जो खूभ, सो मुनि वरु भने । राजा तनो गर्व मलि गयो. बूझे चयनु भातुरी भयौ ॥४३७।। राजा द्वारा पूर्व भव जानने की इच्छा राज जसोधु पिता ससिमति, कहि मुनिवर तिनकी भवगती । जसहरू अभिय महादे सरिख, भए केम तिम संसो भानि ॥४३॥ मुनि द्वारा कथन--- सुनि मुनि बयण नारि मन पूरु, भास सुयण सरोरुह सूरु । च्यौरी को भई जिम वात, जैसे फिरे भवंतर सात ।।४३६॥ चन्नमती मरु तेरौ ताउ, कियो अचेपण कुक्कुट घाउ । ही तासु पाप के लए, अमकमारु प्रभमति भए ॥४०॥ सिरस कुसुम सम कोमल देह, ते दोऊ पलहि तुब गेह । भष्यो प्रमिषु सेयौ परषारू, अरु विसु द मारधी भरुतारू ।।४४१।। कोढिनि मई महा दुषमरी, पषम नरक जाह अवसरी । सो तू अमिय महादे जाणि, तेरी माय पाप की षाणि ।।४४२।। तो सो भवण भवति गति कही, जिम जिनि करी तेम तिरिए नही । यह संसार जीत्र करि भरयो, कर्म कुलाल कमठ वस परचौ ।।४४३।। भान गढ़ गई मुनि भानि, नर वै जलद पटल अमु जारिए । पुरिस सीह सुनि जस मै राह, बिनु जिन धर्महि सुषु र लहाइ ॥४४४।। भव व्यौरी निसुन्यो वरवीर, हा हा भनि घर हस्यो सरीर । चेतु लागि मुनिवर पग परयो, मन बिलषाइ हिगी गह परयो ।।४४५|| असू टूटहि कंपइ देह. जनु भर भादो दरसे मेहु । औ गहू पापुण घास पाइ, तब लगि तपुदै तिह वाराह ।।४४६।। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि तव पग परहि पुरंदर देव, पर चक्के स फ्याहि सेव । कहि कल्यान मित्र गुण गेह, सूरि सुदत्त वेगि तपु देहू ।।४४७१। सहि अवसरि प्रभु तनी षवासु, कुक्या जाह जह रणवासु । किम सिंगारु करहु वरणारि, योवन गयो भयो तप धारि ||४४८|| किम कसि कंचुकि पहिरहु अंग, बहुरि नाह मिलै रति रंग । क्रिम तण पहिरह दक्षिण पीर, किम मंबहु प्राभरण सरीर ।।४४६।। कुकुम रेह करहु क्रिम वानि, केम कसनि कटि बंधहू तानि । अरु किम बलहु समोरति देह, फिरिया नाहु भाव सगेत ।। ४५०|| अंजहू नयण केम सुहिणाल, वास सुगंध कुसुम की माल । अरु किम नेवर चलहु बजाइ, करि कटाणु किम मिल बहू भाई ।।४५१।। किम रचि बनी बंधुहु फूल, सेज रमहू किम कोमस तूल । किम कर वीन मावहु नारि, अरु किम बिसहु वयन पसारि ।।४५२॥ अरु किम चंदन चरपऊ अंगु, कंत कियो सजम सिरि संग । स कहुत जाइ बरो रहु णाऊ, सोतलु करहुँ बिरह तन दाऊ ।।४५३।। जो कल प्याऊ कर करतारु, तो पव कीव मिले भरतारु । चरण रतनो वरानु सुनि काण, सब रानी लागी प्रफुलाण ॥४५४।। अंतेवर बहू कीनो सोरु, जनु निसिव तकण पेध्यो चोरु । मधुकर मिले पयसा सुष वास, बिरजति तिनहि चली पिय पास ||४५५|| जिहि वन सबण पास, सुपियरु, तथु मागत देख्यो भरतार । बहुत भाति समुझायो नाहु, परि तप ऊपर तर्ज ण गाहु ।।४५६।। जौ प्रतिअसहै वह पयारि, सके होनु किम परतु टारि । तोरपो मोह कर्म को हेतु, हम फुणि सुण्यो पिता तपु लेतु ।।४५७।। रथ चद्धि वीरु बहिरण बन गए, किंकर बहुत साथ करि लए । दरसनु पेषि मुनिस र तनी, तब हम भी सुमरी प्रापणी ॥४५८।। कुसुमावली हमारी माछ, ताकी छोरि परे मुरझाइ। सोचि पवण जल चेयर लही, अपने मुह प्रग्नी मव कही ।।४५६।। वस्तबन्ध इस जि जसहरु चंद मै प्रम्हे पुणु गेह रहे । वितहि मरिबिद्रोविसिहि साण पत्तइ । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोधर चौपाई साउबए विलुहु जाहो कपि भय किन्तु गत जलयर छैली छागु प्रत्रु महि सुसटु र गलं । संव चूल तनु खंडितहि हम रण रहो प ४६० दो विहि कुक्कुटु· हयो प्रचेतु हिडिउ सात भवंतर सेतु । पुत्र माह दुष देषत फिरे, से हम वीरू बद्दिगि प्रवतरे ||४६१ || अव त धोऊ करहि भलेज, मनपरि एकु जिनेस्वर देव । afras भने सकोमल भास, णिसुनि कुमार वयनु भो पास ३४६२१० ले महातप से ताउ, तू बालक व पिता को पालि पुत्र ण करहि पिता की आए लानु रा भयौं परचंड, हाते राजु करहु दिन चारि राजु सकति करियो कुसुमावली अरजिका भई, बहुत मैं दिन चारि राजु घर करबौ फुनि महिराज कुमार कोनो तो निवड़े कुल केरी चालि ||४६३० तो रण काजु सी परवा । पिता वधनु यो वन षंडु ||४६४ || फुनि तपु लीजहू काजु विभारि । जस नारि सहू दिष्या लई । भाइ हि सो परिहरौ ।।४६६ तेज सुरु वनवास 1 गए सुदत्त सूरि मुनि पास, जो तप fear करि मागी दीषि, तब सुदत्त गुरु दीणी सोष ||४६७३१ तुम दोक बालक सुकुमाल, कोमल जिसे पऊ के नाल | पंचम महाव्रत दूमह घरे, ले तुम पास आहि किम घरे ||४६८ ।। ओग त्रिकाल देहि किम बीर, केम पसेसह सहहि सरीर | पाव मास किम सहहिउ पास, लहि कुमार किम सहहि पियास ।।४६६॥ जब लगि दोऊ समरय होऊ, अनुव्रत धरतु कुमर दलि कोहु । ससुर बचन सुनि कुमरु कुमारि लीनो तपु ग्राभरण उत्तारि ||४७० ॥ कीऊ लाहू जी मौ मानु, सुष दुष तिणडु मु एक समान । घोषहि श्रागम वारह अंग, निलि दिनु रहहि गुरु के संग || ४७१ || जिनवर वंदन तीरथ थान, संजम रावत पंच पराण । करत विहारकम् सुनि राइ, नयर सुमारी पहुचे भाइ ||४७२ ॥ गुरु उपदेश चले निश्थ, भोजन निर्मित नगर के पंथ । ga फिकर लेते वरी प्राण, महिलाए देवी के प्राण || ४७३ ।। २११ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि हम तु वैठो देख्यो राश, जनु ससि अंबरू उदो कराइ । तुम मतिगढ़ करि बूझी बात, मै सर कही भयो सुष गात ॥७॥ फेषी सुनि तई नुरु पासि, मारिवत्त तिम पयडी भासि । होनाको सजगदि , गगन, दुरा म । धु४ ॥ कबहु नियहि रण लान्यो चेतु, पो गति फिरथी भक्तर लेतु । मारिदत्त राजा सुपहाणु, निसुन्यो असहर तनो पुराण ।।४७६॥ मारिवत का पार्यों से भयभीत होमा--- चिमक्यौ राव पाप हर लयो, पिसु सौ उतरि स वनु को गयो । फार परचो जोगी भर राइ, देवी कहत विमन पक्षिताइ ।।४७७॥ मारिदत्त न सेवर दीरु, सयौ उसास नयण भरि नीर । निदि मपनौयो भासै बात, राषि राषि जब घर जगतात ॥४७८।। जरक परत राहि परचंग, भगति साबर तरण तरंड । दैतपु मोहि रिषी सुर काल, वार बार विनयो महिपाल H४७६) - दोहरा ताहि मुनि सूरि सुदत्त गुरु, जान्यो प्रवपि प्रमाण । नर के समय कमार लह, संबोहिउ तहि थान ॥४८०।। सुबत्त मुनि का वेयी के मन्दिर में आगमन निसुनहु कथा प्रपूरब मारण, मुनि पायर्या देवी को पान । मुद्रा पेषि अभ्यो राउ, प्रासनु छाडि करयो पणखाउ ॥४८॥ पाइनु प्रभाव परयो, पमसि कालु जोगी सुर करयो । देवी तनो ग गलि गयो, अपनी शानु सुहाउथ्यो ।॥४२॥ मुंड एंड सब कोनो दूरि, कीनो ने कनको पूरि। अंगनु चंदन राष्यो लोपि, पोया कु कुह पूरी सीपि ॥४८३॥ बहुत कुसुम तरु वंदन वार, भवर वास गुजरहि अपार । फेरि रुपु सन प्रति सुन्दर, रोहिणि अनकु सुग्य ते परि ॥४४॥ जीव जुमल सब दे नै मेलि, मंगनु पोसिउ माडे केलि । मारिदत्त पभण गुरनु रासि, मो सह देव भवंत मासि ॥४८॥ पभनहू स्वामि भव आपनी, गोवरधन अरु योगी तनी । राउ जसो चन्द्रमति राणि, देवी की भव कहत वषाणि ॥४६॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोधर चौपई २३३ पूर्व भवों के बारे में प्रश्न कुसूमावलि पर पास में राज. मेरी अरु जिम जननी ताउ । अरु जिम महिष तुरंग मुह्यो, अमिय महाद कुवज कुरौ ।।४६७।। सरमवको काको प्रवतरयो, भासि सुदत्त चोज रस भरयो । मारिवत्त सुनि भास सरि, संसी हरमि चित्त को दूरि ।।४८८।। सुदस मुनि द्वारा वर्णन गंधर्व देसु अरु पुरु गंधर्व, पेषत हरं अमर को गर्नु । तहि वैधवं राउ परचंडु, एक छत्र बुझे महिषंड ||४८६।। विझसिरी भामिनि गुण रेह, रामचंद घरि सीता अह । गंधर्व सेनु पुतिन जन्यौ, पति सुरुषु जनु सुरपति बन्यो ।।४६०|| गंधर्वा पुत्री मृग नयनि प्रति मुख जोसि चंदु बन रयरिण । मंत्री रामु नामु प्रमु तनो, राज मंत्र जो आने धनी ।।४६१।। प्रवला तासु कणक सम देह, पालक हरिण नयण ससि लेह । नंदन वेवि पयंड सरीर, नामु जितारि भोड वर वीर ॥४६२।। गंधर्वा सुव राजा तनी, सो जितारि व्याही तन बनी । सो देवर रमि चूरी पाप, दुसह जाणि मयन की ताप ॥४६३।। गंधर्व राजा पारघि गयौ, तहि बैराग भाव मन भयो। पुव वैधबंहि दीनी राजु, मापुनु किमो परम ताप काजु ।।४९४।। भतकाल करि सुव पर मोह, सो मरिण रव भयो जसोह । तहि जित सत्र पेषि रतनारि, करि वैरागु महा पुपारि ।।४६५।। जिनवर धर्म पालि गुन पाणि, राउ जसोधर उपन्यो आनि । गंधर्व वहिणि तनी सुनि वात, तपु करि सही परीषह गात ||४१६।। करि सन्नास काटि भव पापु, मारिदत्त सो जाएहि पाषु । गंधर्वा जिनि देवर रयो, समझी अम्त फाल तषु लयौ ।।४६७।। सो मारि अमिय महादे कई, रमि कूबरौ नरक सो गई।। भीवरमी भायर की तिरी, कुल कलंकु कीनो मति फिरी ॥४६मा सील मुजि अपजसु संग्रह्यो, पापी जन्म कुविज को लह्यो। मंत्री रामु रपन ससि लेह, तपु करि संबम सो सी देह ।।४६६) पयरु पयरि दोऊ प्रवतरे, नणी कहा महासुष भरे । जिनवरु पुजि धम्म पहिचाणि, सो जमैं कुसुमावलि जारिग १५००।। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि जी ही सति चंद्रमति तनी, मरिवि तुरंगु जाय अपनी । सो सखिर महिषनो हो, सो मिथला पुरि वाछौ भयो ।।५०१।। अंत काल प्रापर सुनि काण, तिनि आरते तजि तिजे पराण । रुपि निखनि तुमारी राव, ताकै उदर अवतरथी भाइ ।।५०२।। राज पुरोघर घरिहे सोइ, पुण्ण पुरिषु तेरै घर होइ । तेरौ पिता कर्म को लयौं, चंडमारि देवी सो भयो ।।५०३३॥ सील निहाण तुमारी मार, सो मरि जोगी उपन्यो आइ । जसवंधुरु प्रवनी को राउ, राइ जसोष तनौ जो ताउ ।।५०४।। सो सुहझारणा चसौ तजि मोहू, जिनवर धम्म तनी लहि वोह । देसु कलिंग राउ भगदंतु, कुद लसा भामिनि को कंतु |३५०५।। घण कण कंचण दीमे भन्यो, जसवंवरु तनरुह अवतन्यो। नामु सुदत्त राज गुण गेहू, सो मुनिवर हो पायो एहू ॥५०६।। राय जसोध तनो सुपहाण, मंत्री राज गह परधारण ! पायु अंत सुमिरि परमठि, सा जाने गोवरधन सेठि ।।५०७।। मारिदत्त जो बूझो मोहि, सब समुझई पयासो तोहि । प्रवधि गयण जान्यो परमानु, मैं भास्यो भव भवण कहाणु ।।५.०८।। तुव पुर पंच वार फिरि गयौ, तो सौ राइण घरसनु भयो । काल लवधि जब पावै राइ, तब ही सुभ गति जीउ लहाइ ।।५०६।। मारिवत द्वारा वीक्षा मारिदत्त तपु लयो बिचारि, पंष मूठि सिर केस उपारि । जोगी सु गुर तन पग परधी, सब पाषंड भाउ परिवरची ॥५१॥ भने दिसंबर मो तपु देहु, दया गेह मत विरमु करेहू ।। चवे सुगुरु मुनि भैरोनंद, कोलागम स्यणायर चंद ।।५११।। सुदत्त का भैरवानन्द को उपदेश दिन बाईस तुमारी प्रायु, वैगि धर्म को कहि उपाउ । तव जोगी मन लाग्यो चेतु, चित यो प्रायु जीव को हैत ।।५१२।। परिहरि षानु पानु सबु भोगु, लै सन्यासु दियौ दिढ जोगु । बारह अनुपेया मन भाइ, सुर्घ दुतीय सुर उपन्यो जाई ॥५१३।। ठौड़ी भई देखि कर जोरि, सा मि नरक मो जात बहोरि । मो वीराधि वीर तप देह, भव सायर बूढत गहि लेह ।।५१४।। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोधर चौपई कुसुमवान मानिति मन चूरू, भासं सुयण सरोरुह सूरु | तो कह पुरण जोगु सुर जारि, समिकत रयणु लेह दिनु घरि ।।५१५|| स्वयं देवी द्वारा अहिंसा धर्म पालन करना - परिहरि कुगति सुगति सुरि गई ।। ५१६३ भए बहुत नर समिकल घार | जीव घात को छह भाव, जे पूजहि तिन वरजि रहाउ । तजहि श्रापनी पहिली चालि, जिनवर तनी धम्मं प्रतिपालि ॥५१६।। जीव घातु तय देवी छाडि, प्रापतु फिरी नगर महू टाडि | जो मेरे मंडफ बलि दे ताके घर किन्नु देवी लेइ ||५१७१। नि सुनहू सर्व नगर नर पारिसिबजार । जो कहि है देवी वलि लेह, कुमरसि करिहो तार्क गेहू || ५१८६ ॥ मेरे नाम बजावै तूर, तार्क पेट उठे दिन सुरु | समिकत रयनु देवि ले रही, लय महाव्रतुश्रभय कुमार पदम सुर्य भगिनी भरु बीरु, मारिदत्त जस में भरु सेठि, रिपुदुद्धरु उपलदेव सूरि सुदत्त नाम सुषहाण, निर्देलिकमं खीनि भवगति, अनुकमेण पावहि सिव ठानु जसहर चन्तुि वरण सबु कह्यो, मंगलु करो जिनेसह बीर, निसुनहु नाम बाम् सुभ धातु, प्रय प्रशस्ति भए प्रमर सो सुद्ध सरीर ||५२जा ध्याइ घ्याइनु मन घरि परमेठि । सुकिल लेस सुर हर गम लेव ॥ ५२१ चढि संमेदि सिहिरि दें ध्यानु | सप्तम सुग्र सुष समूह दया धम्मं फुणि सुन नर मह्यो || ५२३।। निसुनत निर्मल होइ सरीरु | जिहि निवसत में ठौ पुरा ।। ५२४ ।। भयो सुर पति ।। ५२२ ।। को कहण समानु । गंग जमुन विच अंतर वेलि, सुष समूह सुर मानहि केलि । नगरि फैलाई जनु सुर पुरी, निवसे घनी छत्तीसी कुरी ।।५२५|| अभयचंदु तह राज निसंकृ, जनुकु सुषोडस कला मयंक 1 परजा दुखी न दीसे कोछ, घर घर वीध वषाऊ हो ||५२६|| श्रावण बहुत बसहि नहि गाम, जनु श्रासि को दोनों सिमराम । पोमावे पुर वर सुष सील, सुर समान घर मानहि कोल २५२७।२ सा कन्हर सुतु भारग साहू, जिनि धनुष रेषि लियो जसलाह । असरानी पटनु सुभ ठोक, गौड महापुरु जी भोरु ||५२८|| अगरु अंतपुर अरु सोहार, व्यारो गाव बसावन हारु । जासु नाम पडुवा मुरि तान, राज काज जान्यो सुरिता ||२६|| २३५ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि तासु नारि देवलदे नाम, जिम ससि हर रोहिनि रति काम । सोलु महा तहि लीनो पोषि, नंदन तीनि अवतरे कोषि ॥५३०।। मेघु मेषुपर सूजस रासि, जनु कुसु सुरु ससि सुकु पकासि । जेठो थेधु साहू सुयहाणु, जासु नाम में ठयौ पुराण ॥५३१॥ पुन्न हेतु जान उपगारु, जिनवर जगिन करावण हारू । बहुत गोठि ले चाल्यो साथ, करी जात सिरी पारस पाय ।।५३२।। षरचि बहतु धनु राव न थान, घर प्रायो दियो भोयरण दारण । ताको पुत्र रत्नु अक्तर्यो, रयनायरु गुण दीसे भर्यो ।।५३३॥ भाव भगति करि दोर्ज दानु कीजै भवन गुणी को मानु । जो कुटंबु वरणो विस्तरी, वाद कथा अपर दूसरी १५३४।। राम सुतनु कवि गारवदासु, सरसुति भई प्रसन्नी जासु । वसत फफोतू पुर सुभ ठौर, श्रावग बहुत गुणी जहि प्रोर ।। ५३५।। रचना काल वसुविह पूजिनि नेस्वर एहानु, ल प्रभारु दिन सुनहि पुरानु । संबतु पंवहस इकासी, भादौ सुकिल श्रवण द्वादसी ।।५३६।। सुर गुरुवारु करणु तिथि भली, पूरी कथा भई निरमली । जसहर क्रया कही सव भासि, सिष ले भाव परम गुरप।सि ।। ५३७।। वादिराज भासी गुर मूरि, तासु छाह पभनी मरि पूरि । सयल संघु नंदी सुष पूरु, जब लगि गंग जलधि ससि सुरु ।।५.३८।। मेघ माल बरस प्रसरार, बोध बधाए मंगलवार । निसुनिवि व सम तला यहू पोरि, हीनु अधिक सो लीजहु जोरि ॥५३६।। पद गुणं लिपि देई लिषाइ, अरू मूरिष सो कहो सिपाई । ता गुण वणि बहुतु कवि कहै, पुत्रु जनम् सुष संपति लहे ।।५४०।। इति जसीपर चौपई समाप्त: ।। संवत् १९३० मांगसर सुदि ११ बार दीतवार || OOD Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. कविवर ठक्कुरसी भक्ति कालीन कवियों में कविवर ठक्कुरसी का नाम उल्लेखनीय है । उनकी पन्द्रिय वेलि एवं कृपण छन्द बहु चर्चित कृतियां रही है। इनका परिचय प्रायः सभी विद्वानों ने अपने ग्रन्थों में देने का प्रयास किया है। लेकिन फिर भी जो स्थान इन्हें हिन्दी साहित्य के इतिहास में मिलना चाहिए था वह अभी तक नहीं मिल का है । इसके कई कारण हो सकते हैं सर्वप्रथ "जन हिन्दी साहित्य के इतिहास" में इनकी एक कृति कृपण चरित्र का परिचय दिया था । इसके पश्चात् डा० कामता प्रसाद जैन ने "हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास" नामक पुस्तक में कवि की कृपण चरित्र के अतिरिक्त पञ्चेन्द्रिय वेलि का भी परिचय उपलब्ध कराया था । . सन् १९४७ से ही राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थ सूचियों का कार्य प्रारम्भ होने से गुटकों से अन्य कवियों के साथ-साथ ठक्कुरसी की रचनाओं की भी उपलब्धि होने लगी और प्रथम भाग से लेकर पञ्चम भाग तक इसकी कृतियों का नामोल्लेख होता रहा इससे विद्वानों को कवि की रचनाओों का नामोहलेख हो नहीं किन्तु परिचय भी प्राप्त होता रहा। पं० परमानन्द जी शास्त्री बेहली का पहिले अनेकान्त में और फिर "तीर्थंकर महावीर स्मृति ग्रन्थ " में कवि पर एक विस्तृत लेख प्रकाशित हुआ है जिसमें उसकी ७ रचनाओं का विस्तृत परिचय भी दिया गया है। इससे कवि की भोर विद्वानों का ध्यान विशेष रूप से जाने लगा । इसी तरह और भी जैन विद्वान कवि के सम्बन्ध में लिखते रहे हैं। इतिहास में स्थान देने वालों में डा० प्रेमसागर जैन का नाम उल्लेखनीय है जिन्होंने 'हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि' में कषि के सम्बन्ध में सामान्य रूप से मूल्यांकन प्रस्तुत किया है । जैन विद्वानों के प्रतिरिक्त जनेतर विद्वानों में डा० शिवप्रसाद सिंह का नाम उल्लेखनीय है जिन्होंने "सूर पूर्व ब्रज भाषा और उसका साहित्य" में कवि की तीन Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ कविवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि रचनामों का परिचय देते हुए कवि की इन कृतियों को राजस्थानी एवं ब्रज भाषा मे प्रभावित कृतियां बतलायी । लेकिन इतना होने पर भी कवि को जो स्थान एवं सम्मान मिलना चाहिए या वह उसे प्राप्त नहीं हो सका। इसका प्रमुख कारण भी वही है जो अन्य कवियों के सम्बन्ध में कहा जाता है । ठाकुरसी राजस्थान के द्वाड क्षेत्र के कवि थे। इन्होंने स्वयं ने अपनी कृति "मेधमाला कहा में ढूढाइ शब्द का उल्लेख किया है और चम्भवती (चाटसू) को उस प्रदेश का नगर लिखा है ।1 कवि चम्पावती के रहने वाले थे । इनके पिता का नाम घेन्ह था । ये स्वयं भी कवि थे जिसका उल्लेख कवि ने अपनी कितनी ही रचनापों में किया है। बेल्ह कवि की पभी तक की रचनाएँ "बुद्धि प्रकाश एवं विशाल कौति गीत" उपलब्ध हो सकी है। दोनों ही रचनाएँ लघु रचनाएं हैं। ठयकुरसी को कविश्व वंश परम्परा से प्राप्त था। ये जाति से लण्डेलवाल दि. जैन थे | इनका गौत्र पहाडिया था । स्वयं कवि ने अपने आपको पहाडिया वंश शिरोमणि लिखा है । कवि की माता भी बड़ी धर्मात्मा थी। इसलिए पूरे घर के संस्कार धार्मिक विचारधारा वाले थे। ठक्कुरसी संभवत: व्यापार करते थे तथा राज्य सेवा में वे नहीं थे। यद्यपि कवि ने चम्पावती के शासक 'रामचन्द्र' के नाम का उल्लेख किया है लेकिन उससे ऐसा प्रतीत नहीं होता कि वे राज्य में किसी ऊ के पद पर काम करते हों । कवि का जन्म कब हुआ, उसकी बाल्यावस्था एवं युवावस्था कैसे बीती, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता है और न कयि ने स्वयं ने ही अपने जीवन के बारे में कुछ लिखा है । कधि का वैवाहिक जीवन कैसे रहा तथा कितनी सन्तानों का उन्हें सुख मिला ये सब प्रश्न मी अभी तक अनुत्तर ही हैं। लेकिन इतना अवश्य है कि इनके जमाने में चम्पायती पूर्णत: घन्य-धान्य पुर्ण थी। महाराजा रामचन्द्र का शासन था। तक्षकमढ (टोडारायसिंह) के शासक १. विष्णोक ढूढाहरु देस मज्झि, रणयरी चपावद प्ररिक सत्यि । सहि अस्थि पास जिराबर रिपकेउ, जो भव कणिहि तारण हसेउ ॥ मेघमाला कहा २. एपड पहाडिह वंस सिरोमणि, घेल्हा गुरु तमु तियबर परमिरिण । ताह तह कवि आफुरि सुन्दरि, यह कह किय संभव जिण मन्वार || Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर ठक्कुरसी २३६ ही चम्पावती के शासक थे। महाराज रामचन्द्र के शासन काल में लिखी हुई पचासों पाण्डुलिपियों राजस्थान के विभिन्न जैन ग्रन्यागारों में संग्रहीत है। ठक्कुरसी सम्पन्न थे । पंडित माल्हा प्रजमेरा कवि के समय में विशेष प्रसिद्धि प्राप्त श्रेष्ठी थे। कवि में और माल्हा अथवा मल्लिदास में विशेष मंत्री थी और कितनी ही रचनाओं को लिखने में मल्लिदास का विशेष माग्रह रहा था। लेकिन इमी चम्पावती में कुछ ऐसे श्रावग भी थे जो प्रत्यधिक कृपण थे और किञ्चित् भी पंसा धर्म कार्य में खर्च नहीं करते थे । कवि को इसीलिए 'कृपण छन्द' लिखना पड़ा जिसमें एक कृपण की एवं उसके कृपण मित्र की कहानी दी हुई है। सरकालीन समाज-कवि के समय के समाज को हम सम्पत्ति-शाली एवं ऐश्वर्य वाला समाज कह सकते हैं । कविवर ठक्कुरसी ने 'पार्वनाथ शकुन ससावीसी' में ढूढाइड प्रदेश एवं विशेषतः चम्पावती नगरी का जो वर्णन लिखा है उसके अनुसार चम्पावती व्यापार का केन्द्र थी तथा उसमें कोई भी व्यक्ति दुःखी नहीं दिखाई देता था । जैन समाज तो सम्पन्न समाज था। वहां समय-समय पर महोत्सव होते रहते थे। उस नगर में रहने वाले सभी भाग्यशाली होते थे ऐसी लोगों की धारणा थी । कृपण अन्य में भी एक स्थान पर वर्णन पाया है कि जब श्रावग गरण यात्रा से लौटते थे तो वापिस पाने की खुशी में बड़े लम्बे-लम्बे भोज होते थे । लोगों का खान-पान रहन-सहन अच्छा था । पान खाने की लोगों में कचि थी। लेकिन सम्पन्न समाज होने पर भी लोग पसनों में फसे रहते थे। यही कारण है कि कवि को सप्त व्यसन पर दो कृतियां लिखनी पड़ी थी। साधु गण---चम्पावती उस समय भद्रारकों का केन्द्र था और वहीं उनकी गादी था। प्रभाचन्द्र उस समय वहां भट्टारक थे। कवि ने उन्हें मुनि लिखा है पोर जब वे प्रवचन करते थे तो ऐसा लगता था कि मानों स्वयं गौतम गयाघर ही प्रवचन कर रहे हों। इन्हीं के शिष्य थे मुनि धर्मचन्द्र जो बाद में मडलाचार्य कहलाने लगे थे। कवि ठक्कुरसी ने धर्मचन्द मुनि के उपदेश से 'व्यसन प्रबन्ध' की लघु कृति की रचना की थी। १. जहा न को जगु कसा दुखिउ. जैन महोछा महमघण।। जहि विनि दिनि दोसन्ति, तहा वसहि जे घणु पर इजरण विवस कहंति । २ ससु मज्झि पहास सि वर मुरणीसु, सह संठित णं गोयमु मुखी । मेघमाला कहा ३. मुणि धर्मचन्न उपवेसु लह्यो, कवि ठकुरि विस्न प्रबंध कह्यौ । व्यसन प्रबन्ध Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि खण्डोलवाल समाज-कवि के समय में चम्पावतो में खण्डेलवाल दि० पैन समाज का अच्छा थोक था । पजमेरा, बाकलीवाल, पहाडिया, साह आदि गोत्रों के श्रावक परिवार प्रमुख रूप में थे। सभी थावक गए सम्पन्न थे । भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति विशेष श्रद्धा एवं मक्ति का केन्द्र थी । मूर्ति प्रतिशय युक्त थी। बादशाह इब्राहीम लोदी के धामण का भी उसी की भक्ति एवं स्तवन ने रक्षा की थी। स्वयं कवि भी भगवान पार्श्वनाथ के पूरे भक्त थे इसलिए जब कभी अवसर मिला कवि पाश्वनाथ के गीत गाने लमते थे । काव्य रचना कवि की अभी तक कोई बड़ी कृति देखने में नहीं पायी । मेघमाल कहा में अवश्य २९५ आवक ६ मा ११९ मा अन्य है। पाधि की ७ रचनाओं का परिचय पं. परमानन्द जी ने दिया था लेकिन शास्त्र भण्डारों की पोर खोज करने पर अब तक कवि की १५ रचनाएँ प्राप्त हो चुकी हैं। जिनके नाम निम्न प्रकार है... रचना संवत् १५७८ " , १५८० , १५८५ १. पार्श्वनाथ शकुन सत्तवीसी २. कृपण छन्द ३. मेघमाला कहा ४. पञ्चेन्द्रिय लि ५. सीमंधर स्तवन ६. नेमिराजमति देलि ७. चिन्तामणि जयमाल ८. जैन पउवीसी ६. शील भीत १०. पार्श्वमाय स्तवन ११. सप्त व्यसन षट पद १२. व्यसन प्रबन्ध १३. पाश्वनाथ स्तवन १४ ऋषभनाथ गीत १५. कवित्त उक्त १५ रचनामों में प्रथम ४ रचनाओं में रसना सैवत का उल्लेख किया गया है शेष सब रचना काल से शून्य है। उक्त रचनामों के प्राधार पर कदि का Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर ठाकुरसी साहित्यिक जीवन संवत् १५७५ से प्रारम्भ होकर संवत् १५६० तक चलता है । इन १५ वर्षों में कवि साहित्य निर्माण में लगे रहे और अपने पाठकों को नयी-नयी कृतियों से रसास्वादन कराते रहे। कवि के पूरे जीवन के सम्बन्ध में निश्चित तो कुछ नहीं कहा जा सकता है लेकिन ७० वर्ष की भायु भी यदि मान ली जावे तो कवि का समय संवत् १५२० ते १५० क का माना की सकता है | २४१ पञ्चेन्द्रिय बेलि में इन्होंने अपने प्रापको जति शब्द से सम्बोधित किया है इसका पर्थ यह है कि इन्होंने अपने अन्तिम वर्षों में साधु जीवन प्रपना लिया था । तथा भट्टारकों के संघ में ही अपना जीवन व्यतीत करने लगे थे । उक्त १५ रचनाओं में "मेघमाला कहा " के अतिरिक्त सभी लघु रचनायें हैं इसलिए मेरी तो ऐसी धारणा है कि कोच की अभी और भी बड़ी रचनायें मिलनी चाहिए क्योंकि बड़े कवि को छोटी-छोटी रचनामों से ही सन्चोष नहीं होता उसे तो अपनी काव्य प्रतिभा बड़ी रचना निबद्ध करने में ही दिखाने का अवसर मिलता है । 'मेघमाला कहा' एक मात्र अपभ्रंश रचना है शेष सब रचनायें राजस्थानी भाषा की रचना में कही जा सकती हैं। जिन पर ब्रज भाषा का भी प्रभाव दिखाई देता है । उक्त रचनाओं का सामान्य परिचय निम्न प्रकार है १. सीमंधर स्तवन इसमें विदेह क्षेत्र में शाश्वत विराजमान सीमंधर स्वामी का ३ छप्पय छन्दों में वर्णन किया गया है। रचना के अन्त में 'लिखितं ठाकुरसी' इस प्रकार उल्लेख किया हुआ है । भाषा एवं मावों की दृष्टि से स्तवन अच्छी कृति हैं। इसकी एक प्रति शास्त्र भण्डार दि० जैन मन्दिर गोधान जयपूर के ८१ सख्या वाले गुटके में ४५-४६ पृष्ठ पर अंकित है - २. नेभिराजमति वेलि जैन कवियों ने वेलि संज्ञक रचनायें लिखने में खूब रुचि ली है। हमारे स्वयं कवि ने एक साथ दो वेलियां लिखी हैं जिनमें राजमति बेलि प्रथम वेलि है। इसका दूसरा नाम नेमीश्वर बेलि भी है। इसमें नेमिनाथ घोर राजुल के विवाह प्रसंग से लेकर वैराग्य धारण करने एवं प्रन्स में निर्वारण प्राप्त करने तक की संक्षिप्त कमा दी हुई है। बसन्त ऋतु आती है पीर सब यादव वन विहार के लिए खले जाते हैं । इस अवसर पर नेमिनाथ के पूर्व पौरुष का सब को पता चल जाता है और उसके Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ कविवर बूचराज एवं उनके समकालोन कवि पीछे विवाद को लेकर अन्य घटनाएं घटती हैं। नेमिकुमार जल क्रीड़ा करके सरोवर से निकलते हैं और गीले कपड़े निचोड़ने के लिए रुक्मिणी से प्रार्थना करते हैं। लेकिन रुक्मिणी तो उनके बड़े भाई नारायण श्रीकृष्ण की पत्नी थी इसलिए वह कसे कपड़े निचोड़ती। उसने इतना कह दिया कि जो सारंग धनुष का देगा, पाञ्चजन्य शंख पूर देगा तथा नाग पोय्या पर चढ़ जावेगा, उसी के रुक्मिणी कपड़े धो सकती है । रुक्मिणी का इतना कहना था कि नेमिकुमार चल दिये अपना पौरुष दिखलाने प्रायुध शाला में। वहां जाकर पल भर में उन्होंने तीनों ही का? कर डाले । शंख पूरते ही यादवों में खलबली मच गई और स्वयं नारायण यहां पर पहचे । नेमिनाथ का बल एवं पौरुष देखकर सभी प्राश्चर्य चकित हो गये । अन्त में नेमिनाम को वैराग्य दिलाने की युक्ति निकाली गयी। विवाह का प्रस्ताब रखा गया । बारात चढी । तोरण द्वार के पास ही अनेक पशुओं को दिखलाया गया । नेमिनाथ के पूछने पर जब उन्हें मालूम चला कि ये सब बरातियों के लिए लाये गये हैं तो उन्हें संसार से विरक्ति हो गयी और तत्काल रथ से उतर कर कंकण तोड़ कर गिरनार पर जा चढे और मुनि दीक्षा घारण कर ली। राजुल के विलाप का क्या कहना । उसने नेमिनाथ को समझाया. प्रार्थना की. रोना रोया मामू बरमाये लेकिन सब व्यर्थ गया । अन्त में राजुल ने भी जनेश्वरी दीक्षा ले ली । प्रस्तुत कृति पद्धडिया छन्द के प्राधार पर लिखी गयी है। प्रारम्भ में २ दोहे हैं और फिर कडवक छन्द हैं। इस प्रकार पूरी वेलि में १० दोहे तथा ५ पद्धडिया छन्द हैं। सभी वर्णन रोचक एवं प्रभावोत्पादक हैं । भाषा बज है जिस पर राजस्थानी का प्रभाव है । जब राजुल के समक्ष दूसरे राजकुमार के साथ विवाह करने का प्रस्ताव उपस्थित किया गया तो राजुल ने दृढ़तापूर्वक निम्न शब्दों में विरोध किया पह रजमतीय प्रणेगा, जिग' विण वर बंषय मेरा ।।११॥ के परउ नेमिया भारी, सस्त्रि के तपु लेउ कुमारी । चदि गवरि को खरि वैसे, तजि सरगि नरगि को पैसे ।।१३।। तजि तीणि भवन को गई, किम अवरुनु वर्ग बस माई ।। नेमिफुमार की अपूर्व सुन्दरता, कमनीयता एवं रूप पर सभी मुग्ध थे। जब वे बसन्त क्रीड़ा के लिए जाने लगे तो उस समय की सुन्दरता का कवि के शब्दों में थर्णन देखिये कवि कहइ मुनिथ घण घणु, जसु परणइ एह मदाशु । इणि परितिय प्रणेक्क पयारा, बहु करिहिति काम विकारा । जिणु तष इण दिठि दे चोल, नाउमेह पवन मै डोले ।।५।। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर टक्कुरसी २४३ कषि ने रचना के अन्त में अपना परिचय निम्न प्रकार दिया हैकवि घेल्ह सतनु ठाकुरसी, किये नेमि सु जति मति सरसी । नर नारि जको रित गाये, जो चितै सो फल पावै ॥२०॥ नेमिराजमति वेलि की पाण्डुलिपियां राजस्थान के कितने ही भण्डारों में उपलब्ध होती हैं । जिनमें जयपुर, अजमेर के ग्रन्थागार भी हैं। ३. पञ्खेन्द्रिय वेलि पन्चेन्द्रिय वेलि कवि की बहुत ही चित कृति है। इसमें पांच इन्द्रियों की वासना एवं उनसे होने वाली विकृतियों पर अच्छा प्रकाश डाला है। प्रार अन्त में इन्द्रियों पर विजय पाने की कामना की गयी है। जिसने इन इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की वह अमर हो गया, निर्वाण पथ का पथिक बन गया लेकिन जो जीव इन्हीं धन्द्रियों की पूर्ति में लगा रहा उसका जीवन ही निकम्मा एवं निन्दनीय बन गया । इन्द्रियो पांच होती है-स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु एवं थोत्र । और इन पांच इन्द्रियों से पांच काम भर्थात् अभिलाषाएँ उत्पन्न होती हैं और वे हैं, स्पर्श, रस, गन्ध, रूप भोर शब्द । इन्द्रियों के इन पांच काम गुणों के वशीभूत होकर मन सांसारिक भोगों में उलझ जाता है और अपने सच्चे स्वरूप को भूला बैठता है । इसलिए सच्चा बीर वही है जिसने इन काम गुणों पर विजय प्राप्त की हो । कबीर ने भी सूरमा की यही परिभाषा की है-- कबीर सोह सूरमा, मन मों मांडे जूझ। पांचों इन्द्री एकडि के, दूर करे सब दूझ ।। कबीर ने फिर कहा कि जो मन रूपी मृग को नहीं मार सका बह जोवन में प्रभ्युदय एवं श्रेयस का भागी कदापि नहीं हो सकता। माया कसो कमान ज्यों, पांच तत्व कर धान । मारो तो मन मिट गया, नहीं सो मिथ्या जान ।। पञ्चेन्द्रिय बेलि कवि की संवतोल्लेख बाली अन्तिम कृति है अर्थात इसके पश्चात् उसकी कोई मन्य कृति नहीं मिलती जिसमें उसने रचना संवत दिया हो । इसलिए प्रस्तुत कृति उसके परिपक्व जीवन की अनुभूति का निष्कर्ष रूप है। कवि द्वारा यह सवत् १५८५ कार्तिक शुक्ला १३ को समाप्त की गयी थी। १. संवत्त पाहसर पिभ्यासे तेरसि मुबो कातिग मासे । निहि मनु इंद्री यसि कीया, सिहि हर सरपत जग जोया ।। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि ठक्फूरसी ने देलि के अन्त में अपने प्रोर अपने पिता के नाम का भी उल्लेख किया है तथा अपने आपको 'गुणबाम' विशेषण से सम्बोधित किया है । जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि कदि ठक्कुरसी की कीति उस समय आकाश को छ रही थी। विषय प्रतिपादन कवि ने एक-एक इन्द्रिय का स्वरूप उदाहरण देकर समझाया है। सबसे पहले यह स्पर्शन इन्द्रिय के लिए कहता है कि वन में स्वतन्त्र रहते हुए वृक्षों के पत्ते एवं फल खाते हुए स्पर्शन इन्द्रिय के वश में होकर ही हाथी जैसा जीव' मनुष्य के वा में हो जाता है और फिर अंकुशों को मार खाता रहता है। कामातुर होकर ' हाथी कागज की हथिनी के पीछे सब कुछ भूल जाता है। वन तरुवर फल खान, फिरि पय पीवतो सुछंद । परसण इंद्री प्रेरियो, जहु दुख सहै गयन्द । बहु दुख सहो गयंदो, तसु होइ गई मति मदो । कागज के कुजर काजे, पढि खाइन सक्यो न भाजे । कीचड़ में फंसने के पश्चात् मदोन्मत हाथी की जो दशा होती है उस पर कवि मानों आंसू बहाते हुए कहता है तहि सहीय षणी तिस भूखो, कवि कौन कहत स दुखो । रखवाला वलगड़ जाण्यो, वेसासि राय घरि प्राण्यो । वंध्यो पगि संकुलि घाले, तिज कियउन सकइ बाले । परसण प्रेरे दुख पायो, निति भकुस वायां पायो । कवि ने स्पर्शन इन्द्रिय के वशीभूत होने के कारण जिन-जिन महापुरुषों ने अपने जीवन को नष्ट कर दिया है उनके भी कुछ उदाहरण देकर इस इन्द्री की भयंकरता को समझाया है। मथुन के यशीभूत होने पर ही कीचक्र को जीवन से हाथ धोना पड़ा । रावण की सारी प्रतिष्ठा एवं रावणत्व पूल धूसरित हो गया । इसलिए जिस प्राणी ने स्पर्णन इन्द्रीय पर विजय प्राप्त की है उसी ने जीवन का असली फल चखा है। परसण रस कीचक पूरची, जहि भीम सिला तलि चूरयो । परसण रस रावण नाम, मारियड लंकेसुर राम । १. कवि धेरूह सुतनु गुणयामु, जगि प्रगट ठकुरसी नामु । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परसा रस संकट इति परख रस जे कविवर ठक्कुरसी राज्यो, तिथ आगे नट यो नाच्यों । थूता, वे नर सुर घणा विता | १|| दूसरी इन्द्रिय रसना है। मानव सुस्वादु बन जाता है पौर प्रपना हिताहित मुला बैठता है। अपनी मृत्यु का कारण वह स्वयं बन जाता है। जल में स्वच्छन्द विचरने वाली मछली भी रसनेन्द्रिय के कारण ही जाल में फंस कर अपने प्राण गंवा बैठती है केलि करंतो जनम जलि, गाल्यो लोभ दिखालि ! मीन मुनिष संसारि सरि, कादयों वीवर कालि । सरे काय बोरि काले, तिरिए गाल्यो लोभ दिखाले । मनौर गहीर पट्टी, दिठि जाइ नहीं जहि दीठो । २४५ कवि ने मानव रूपी मछली के रूपक द्वारा रसनेन्द्रिय के दुष्प्रभाव की विशद व्याख्या की है। उसके शब्दों में जन्म को जल, मनुष्य को मछली, संसार को सरिता और काल को घीवर के रूप में देखने में कितनी बचाता है। इसके पश्चात् कवि ने रसनेन्द्रिय के प्रभाव की जो सत्य तस्वीर प्रस्तुत की है वह कितनी सुन्दर है इह रसा रस कट वाल्यो यति आइ मुवं दुखसाल्यो । वह रसना रस के ताई, नर मु बाप गुरु भाई । घर फोडे पार्डे बाटां, निति करे कपट घरण घाट | मुख झूठ सांप सहिहि बोल, घरि छोष्ट दिसावर डोले । कवि के कथन में अनुभूति है और जीवन की जागती तस्वीर | रात दिन सुनते देखते, पढते हैं "इह रसना रस के ताई, नर मुलं बाप गुरु भाई ।" इस रसना इन्द्रिय के चक्कर में पड़कर इस मानव को झूठ कपट करना पड़ता है। अपने लहलहाते घर को उजाड़ना पड़ता है। झूठ का सहारा लेना पडता है तथा घरबार को छोड़ देश देशान्तर भटकना पड़ता है। मर्यादों को वह समाप्त कर देता है। के शब्दों में कितनी सच्ची अनुभूति है । है कि यदि मानव जीवन को सफल बनाना है तो प्राप्त करना श्रावश्यक है 1 यही नहीं छोटा-बड़ा, ऊँच-नीच, सब की यह सब रसना इन्द्रिय का चक्कर है । कवि अम्य में कवि ने यही प्रभिलाषा प्रकट की फिर रसना इन्द्रिय पर विजय रसना रस विग्री प्रकारौ वसि होइ न श्रीगण गारी । जिहि हर विषै वसि कीयो, तिहि मुनिष जमन फल लीयो । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूच राज एवं उनके समकालीन कवि हिन्दी के पन्य कपि । उना इदि का कार्य केवल हरि भजन माना है। सूरदास ने 'सोई रसना सो हरि गुण गान' लिख कर रसना इन्द्रिय के प्रमुख कर्तव्य की ओर संकेत किया है । कबीर ने प्रपनी पीडा यों व्यक्त की है --जी भाष्टिया छाला परचा राम पुकारि पुकारि। तीसरी इन्द्रिय है ब्राण ! इस वारण इन्द्रिय के वश में होकर भी प्राणी कभी-कभी अपने प्राण गबां बैठता है। प्राण इन्द्रिय की शक्ति बड़ी प्रबल है। बिउटी को शक्कर का ज्ञान हो जाता है तथा भौरे कमल को खोज निकालते है हम स्वयं भी अच्छी गन्ध मिलने पर प्रसन्न चित्त होकर आनन्द का अनुभव करने लगते हैं तथा दूषित गंध मिलने पर नाक पर रुमाल लगा लेते हैं, नाक भों सिकोड़ने लगते हैं तथा वहां से भागने का प्रयास करते हैं। कवि ने भ्रमर का बहुत सुन्दर उदाहरण दिया है। जिस तरह गघ लोलुपी भ्रमर कमल पराग का रस पान करता रहता है और वह कलि में से निकलना भी भूल जाता है। बन्द कमल में भी वह रंगीन स्वप्न लेने लगता है-"रात भर खूब रस पीऊगा, और प्रात:काल होते ही स्वच्छ सरोवर में कमल की कलियां विकसित होंगी मैं उसमें से निकल जाऊंगा।" एक अोर वह श्रमर सुनहरे स्वप्न ले रहा है तो दूसरी पोर एक हाथी जल पीने सरोवर में प्राता है और जल पीकर उस कमल को उखाड़ लेता है और पूरे कमल को ही ला जाता है। वारा भौंरा अपने प्राणों से हाथ धो बैठता है। कमल पछी समर दिनि, घ्राण गंधि रस रूढ । रैणि पडी सो संकुभयो, नीसरि सक्या न मूद ।। मति घाण गधि रस रूठो, सो नीसर सक्यो न मुलौं । मनि चित रयरिग समायो, रस लेपयी भजि प्रघायो । जब उगलो रवि विमलो, सरवर विकसै लो कमलो । नीसरि स्यौं तब इह छोडे, रस लेख्यौं आइ बहुडे 1 चितवत ही गज भायो, दिनकर उगदा न पायौ । बलि पसि सरवर पायो, नीस रस कमस युद्धि लीयो । गहि सुदि पाव तलि चल्यो, अलि मारौ यर हर कंप्यो । इहु गध विष छ भारी, मनि देखहु क्यो न विचारि । इड् गंध विर्ष वसि हवी, अलि अलु अखटी मुबो । अलि मरण करण दिठि दीजे, तउ गध लोम नहि कीजे ॥३॥ मन्न में कवि ने मानव को भ्रमर की मृत्यु से मिक्षा लेने को कहा है कि जो प्राणी इस संसार की गन्ध लेने में ही अपने मापको उसमें समर्पित कर देता है Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर ठक्चरसी २४७ उसकी भी भ्रमर के समान दशा होती है। आंखों का काम देखना है । इन नेत्रों द्वारा छप सौंदर्य को देखा आता है और यह मानव अपनी मांखों से रूप सौंदर्य को देखने का इतना भादि हो जाता है कि यह उसी देखने में अपना प्रापा खो बैठता है। ममानव रूप पर कितना मरता है, प्रांखों की चोरी करता है और दूसरों की स्त्री की ओर झांकता रहता है। कवि ने पहिल्या और तिलोत्तमा का उदाहरण देकर अपने कथन की पुष्टि की है। यही नहीं "लोषण संघट झूठा, वाग्या नहि होइ अपूठा" कह कर वा इन्द्रिय पर करारी नोट भी है। यही नही मागे कहा है कि मना करने पर भी वह नहीं मानता है। लेकिन पांचों इन्द्रियों का स्वामी तो मन है जब तक मन बश में नहीं होता तब तक धेचारी ये इन्द्रियां भी क्या करें । इसलिए इसी के प्रागे कवि ने कहा है कि लोयरणे दोस को नाहीं, मन मेरे देखन जाही। .. श्रोत्रेन्द्रिय का विषय है शब्द, उसकी मधुरता, कोमलता मोर प्रियता पर प्राण निछावर करना जीव का स्वभाव है। हरिण वधिक का गीत सुमकर प्राण घातक तीर से व्यथित हो प्राण को छोड़ देता है। सर्प जैसा विर्षला जन्तु संगीत की मीठी ध्वनि सुनकर बिल से निकल कर मनुष्य के अधीन हो जाता है। इसलिए कवि ने मानव को सचेत किया है कि वह हिरण की तरह मधुर नाद के वशवर्ती होकर अपने प्राणों का परित्याग न करे। _इस तरह ठक्करसी ने पञ्चेन्द्रिय वेलि में पांपों इन्द्रियों के विषयासक्त पांय प्रतीकों द्वारा मानव को सचेत रहने को कहा है। जो मानव इन पांचों इन्द्रियों के वशीभूत हो जाता है वह जल्दी ही अपनी जीवन लीला समाप्त कर बैठता है । अलि गज मीन पतंग मृग एके काहि दुख दीप । जाइति भो भी दुख सहै, जिहि वसि पंच न किद्ध । ठक्कुरसी कवि को अपनी कृति पर स्वाभिमान है इसलिए वह लिखता है करि वेलि सरस गुण गाया, चित चतुर मनुष समझाया। मन मुरिख संक उपाई, तिहि तराई' चित्ति न सुहाई ।। इस लि का दूसरा नाम गुरण वेलि भो है।' १. नेहप्रधग्गलु तेल ततु बाती वचन सुरंग । ___ रूप जोति परतिय विव, पहिति पुरुष पतंग ।। २. देखिए राजस्थान के अन शास्त्र भण्डारों को अन्य सूची भाग-२ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ कविवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि ४. चिन्तामणि जयमाल प्रस्तुत जयमाल १९ पद्यों की लघु कृति है जिसमें पार्श्वनाथ का स्तवन एवं उनकी भक्ति के प्रभाव से घटित घटनाओं का उल्लेख किया गया है । जिनेन्द्र स्वामी की भक्ति से मानव अथाह समुद्र को तैर कर पार कर सकता है, सूली फूलों की माला बन सकती है और न जाने क्या क्या विपक्षियों से वह बच सकता है । जयमाल की भाषा प्रपत्र मिश्रित हिन्दी है । कवि ने अन्त में घपना नामोल्लेख निम्न प्रकार किया है इह वर जयमाल गुरगढ़ विसाला, सेल्ह सतनु ठाकुर कहए । जो रु सिरिग सिरक्कइ दिरिए दिणि अक्खइ सो सुक्ष्मण बंछिउ लहए । प्रस्तुत जयमाल की प्रति जयपुर के गोधों के मन्दिर के शास्त्र भण्डार के ५१ वें गुटके में पृष्ठ २०२२ तत ५. कृपरण छन्द कविवर ठकुरसी का कृपरण छन्द लौकिक जीवन के आधार पर निबद्ध कृति है । छोहल कवि ने पंच सहेली गीत लिखकर जहाँ एक ओर पति वियोग एवं पति मिलन में नवयुवतियों की मनोदशा का चित्रण किया था वहाँ कवि ठक्कुरसी ने कृपण छन्द लिखकर उस व्यक्ति का चित्रण किया है जो उसके संघय में ही विश्वास करता है और उसका उपयोग जीवन के अन्तिम क्षण तक नहीं करता । कृपण छन् का नाम कहीं कृपण चरित्र भी मिलता है। यह कवि श्री संवत् १५८० के पोष मास में निबद्ध रचना है। रचना एकदम सरस, चिकर एवं प्रसाद गुण से भरपूर है। इसमें ३५ पद्य हैं। जो षट्पद छन्द में निबद्ध है । इस कृति की एक पाण्डुलिपि जयतुर और एक मट्टारकीय शास्त्र भण्डार अजमेर में संग्रहीत । प्रजमेर बाली पाण्डुलिपि में तो कृति का ही नाम कृपण षट्पद दिया हुआ है। कृति की संक्षिप्त कथा निम्न प्रकार है एक प्रसिद्ध कुपण व्यक्ति उसी नगर में अर्थात् चम्पावती में ही रहता था और वहीं कविवर ठक्कुरसी भी रहते थे। वह जितना अधिक कृष्ण था उसकी पत्नी उतनी ही अधिक उबार एवं विदुषी श्री । क्रिप एक परसिद्ध नयरि निवसति निलक्षणु । कही करम संजोग वासु धरि मारि विखण Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर ठक्कुरसी सारे नगर के निवासी इस जोड़ी को देखकर प्राश्चर्य में भर जाते थे क्योंकि स्त्री जितनी दानी, धर्मात्मा एवं विनयी थी उसका पति जतना हो कंजूस था। न स्वयं खर्च करता था और न अपनी पत्नी को खर्च करने देता था । इसी को लेकर दोनों में कलह होता रहता था । वह कृपण न गोठ करता, न मन्दिर जाता, यदि कोई उससे उभर मांगने आता तो वह गाली से बात करता, यही नहीं अपनी बहन, भुवा एवं भागाजियों को भी अपने घर पर नहीं बुलाता था। यदि कोई घर में बिना बुलाये ही प्रा जाता तो मुह छिपा कर बैठ जाता पा । घर में प्रांगण पर ही सो जाता । खटिया तो उसके घर पर थी ही नहीं तथा जो पी उसे भी बेच दी । घर पर छान बांध लो । जब पांधी चलती तो उसकी बड़ी दुर्दशा होती। वह सबसे पहिले उठता और दस कोस तक नंगे पांव ही धूम पाता । न स्वयं खाता और ने अपने पन्धिार वालों को साने देता । दिन भर झूठ बोलता रहता और झूठ लिखता, महता पोर झठी कमाई करता। अपनी इस पावत के कारण वह नगर में प्रसिद्ध था। नगर का राजा भी उसकी आदतों को जानता था। यह पान कभी नहीं खाना पोर न ही किसी को लिलाता था । न कभी सरस भोजन करता । न कभी नवीन कपड़े पहन कर शरीर को संवारता था । वह कभी सिर में तेल भी नहीं डालता पोर न मल-मल कर नहाता था । सेल तमाने में तो कभी जाता ही नहीं था। फदे न खाइ संबोल, सरसु भोजन नहीं भवखे । कदे न कपड़ा नरा पहिरि, काया मुख रकने । कदे न सिर में तेल हालि, मल मल कर न्हाव । फदे ने चन्दन परवं, अंग अबीर लगाव । पेषणो कदे देखे नहीं, श्रवण न सुहाई गीत रस ।।६।। उसकी पत्नी जब नगर की दूसरी स्त्रियों को अच्छा खाते-पीसे, अबढ़े वस्त्र पहिनते तथा पूजा-पाठ करते देखती तो वह अपने पति से भी वैसा ही करने को महती। इस पर दोनों में कलह हो जाती। इस पर वह अपने भाग्य को कोसती भोर पूर्व जन्म में किये हुए पापों को याद करती जिसके कारण उसे ऐसा कुपण पति मिला । यह याद करती कि क्या उसने कुदेव की पूजा की, पपया गुरु एवं साधुनों की निन्दा की, क्या झूट बोली या रात्रि में जोजन किया प्रथवा दया धर्म का पालन नहीं किया जो ऐसे कृपण पति से पाला पड़ा । ओ न स्वयं वरचे और न उसे ही खरचने दे। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि ज्यो देखे देवरं त्याह की वर नारी | तलि पहरचा पटकुला सव्य सोबन सिंगारी । एकिक पूज एक उभी गुण गावै । एक देहि तिथ दार एक शुभ भावन भाव । तिहि देखि भरणं हीयो हमें कवणु पापु दीयो दई । जहि पाप किए हो पापीग्रो कुपणु कंत घरि च हुई ॥६॥ एक दिन कृपण की पत्नी ने सुना कि गिरवार की यात्रा करने संघ जा रहा है तो उसने रात्रि में हाथ जोड़कर हँसते हुए पति से यात्रा संघ का उल्लेख किया और कहा कि लोग उसी गिरनार की यात्रा करने जा रहे हैं जहाँ नेमिनाथ ने राजुल को छोड़ दिया था और तपस्या की थी। वहाँ पर्वत चढ़ेंगे, पूजा-पाठ करेंगे तथा पशु एवं नरक गति के बंध से मुक्त होंगे । इसलिए हम दोनों को भी चलना चाहिए । इतना सुनते ही कृपण के ललाट पर सलवटें पड़ गयी और वह बोला कि क्या तू बावली हो गई है जो घन खरचने की तेरी बुद्धि हुई है । मैंने अपना धन न चोरी से कमाया है और न मुझे पड़ा हुया मिला है। दिन रात भूखा प्यासा मर कर उसे प्राप्त किया है। इसलिए भविष्य में उसे खरचने की कभी बात मत करना | 1 सीसि सलवदि त्रण यल्ली । कि नारि वचन सुणि कृपणि, कि तू हुई धण बावली, धरा थारी मति चल्ली । मैध लढ न पडयो, मै र धणु लियो न चोरी | मै धणु राजु फभाई श्रापु भाणियों ना जोरी / दिन राति नींद विरु भूख सहि, मंर उपाय दुख घणो । खरचि ना तो वाहुडि, वचनु धण तू आगं मत भणो ॥ १४ ॥ कूपस्य की पत्नी भी बड़ी विदुषी थी इसलिए उसने कहा कि नाथ, लक्ष्मी तो बिजली के समान चंचल है। जिसके पास टूट धन एवं नवनिधि थी वह भी साथ नहीं गयी। जिन्होंने केवल उसका संचय ही किया वे तो हार गये और जिन्होंने उसको खर्च किया उनका जीवन सफल हो गया । इसलिए यह यात्रा का अवसर नहीं चूकना चाहिए और कठोर मन करके यात्रा करनी चाहिए। क्योंकि न जाने किन शुभ परिणामों से अनन्त घन मिल जावे। इसके बाद पति पत्नी में खूब बादविवाद छिड़ जाता है । पत्नी कहती है कि सूम का कोई नाम ही नहीं लेता जब कि राजा करणं, भोज एवं विक्रमादित्य के सभी नाम वह नर धन्य है जिसने अपने घन का सदुपयोग पुण्य कार्यों की तो अवश्य होड़ करनी चाहिए | लेते हैं। बह फिर कहने लगी कि किया है। पाप की होड़ न करके पुण्य कार्य में धन लगाना अच्छी Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर ठक्कुरसी २५१ बात है । जिसने केवल धन का संचय ही किया पोर उसे स्व पर उपकार में नहीं लगाया वह तो अचेतन के समान है तथा सर्प के डसे हुए के समान है। पत्नी की बात सुनकर कृपण गुस्से में भर गया और उठ कर बाहर चला गया । बाहर जाने पर उसे उसका एक कृपण ही साथी मिल गया । साथी ने जम उसकी उदासी का कारण पूछा और कहने लगा कि क्या तुम्हारा धन राजा ने छीन लिया या घर में कोई चोर आ गया अथवा घर में कोई पाहुना प्रा गया या पल्लो ने सरस भोजन बनाया है। किल कारागुम्बा दिखता है। तबहि कृपण करि रोस, ससि घर वाहिरि चलीयो। ताम एकु सामहो मंतु पूरवलो मिलियो । कृपण कहे रे कृपण प्राजि तू दमण दिठो । कि तु रावलि गह्यो केम घरि घोर पइट्ठ। । प्राईयउ कि को घरि पाहुणो कीयो नर भोजन सरसि । किरिण काजि मीत रे प्राजिउ सु, मुख विनाण दीठो । कृषण ने कहा कि मित्र मुझे घर में पत्नी सताती है । यात्रा जाने के लिए घन खरचने के लिए कहती है जो मुझे अच्छी नहीं लगती। इसी कारण वह दुर्बल हो गया है और रात दिन भूख भी नहीं लगती। मेरा तो मरण भा गया । तुम्हारे सामने सब कुछ भेद की बात रस्त्र दी। उम दूसरे कृवरण मित्र ने कहा कि है कृपण तू मन में दुख न कर । पापिनी को पीहर भेज दे जिससे तुझे कुछ सुख मिले । कृपरा कहै रे मंत मुझ घरि नारी सतावे । जाति चालि धन खरीषु कहै जो मोहि न भावे। तिह कारणि दुष्कल रयत दिण भषण ण लगा। मंतु मरण पाइयो गुह्य प्रख्यो तू आगं । ता कृपणु कहै रे कृषण सुणी मीत मरण न माहि दुनु । पीहरि पठाइ वे पापिणी ज्या को दिणु तू होइ सुख ।।२०।1 इसके पश्चात् उस कृपण ने एक प्रादमी को बुलाया तथा एक झटा पत्र लिख दिया कि लेरे जेठे भाई के पुत्र हुआ हे प्रतः उसे बुलाया है । परनी पति के प्रपंच को जानते हुए भी पीहर चली गयी । कुछ महीनों पश्चात् यात्रा संघ वापिस लौट प्राया । इस खुशी में जगह-जगह ज्योनारें दी गयी, महोत्सव किये गये। जगह-जगह पूजा पाठ होने लगे। विविष Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ कविवर बूच राज एवं उनके समकालीन कवि दान दिये गये । बाजे बजे तथा लोगों में खूब पैसा कमाया। कृपण ने यह सब सुना तो उसे बहुत दुःस्त्र हुमा। कुछ समय पश्चात् वह बीमार पड़ गया । उसका पन्त समय समझ फर उसके परिवार वालों ने उसे थान पुण्य करने के लिए बहुत समझाया लेकिन उसके कुछ भी समझ में नहीं आया। उसने कहा कि चाहे वह मरे था जोये ज्यौनार कभी नहीं देगा । उसका धन कोन ले सकता है। उसने बड़े यस्ल से उसे कमाया है । प्रब वह मृत्यु के सम्मुख है इसलिए हे लक्ष्मी तू उसके साथ चल । लक्ष्मी ने इसका उत्तर निम्न प्रकार दिया लन्छि कहे रे कृपण झूठ हो कद न बोलो । शु को चलण दुइ देह गलत मारगी तसु चालों । प्रथम चलण मुझ एड्छ देव देहुरे ठविज्जे । दूजे जात पति? दाणु घाउसंघहि दिने । ये चलण दुवै त भजिया ताहि विहणी क्यों चली। भूख मारि जाय तू ही रही बहडि न सगि वारे चलो ।।२८|| लक्ष्मी ने कहा कि उसकी दो बाते हैं। एक तो वह देव मन्दिरों में रहती है। दूसरे यात्रा, प्रतिष्ठा, दान और चतुविध संघ के पोषणादि कार्य हैं जनमें तुने एक भी नहीं किया । अतः वह कृपण के साथ नहीं जा सकती । कुछ समय पश्चात् कृपण मर गया पोर मर कर नरक ८ गया। वहां उसे अनेक प्रकार के दुख सहन करने पड़े। इसलिए कवि ने निम्न निष्कर्ष के साथ कृपण छन्द की समाप्ति की है इसौ जाणि सह कोई, मरइण पूरिष धनु संन्यो । दान पुण्य उपगार दित धनु कि वे न खत्री। दान पुजे वह रासो असो पौष पाचं जगि जाणे । जिसड कपरणु इकु दानु तिसउ गुण कसु बखाण्यौ । कवि कह ठकुरसी घल्ह तरणु, मै परमत्थु विचार्यो । परशियो त्यहि उपज्यो जनमु ज्या पाच्यो तिह हारियो ।।३।। प्रस्तुन पाण्डुलिपि में ३५ छन्द हैं। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर ठक्कुरसी ६. पार्श्वनाथ शकुन सत्तावीसी प्रवीन थी । पार्श्वनाथ के कवि की सर्वतोल्लेख यह प्रथम कृति है जिसकी रचना संवत १५७८ मात्र शुक्ला २ के शुभ दिन चम्पावती में हुई थी। उस समय देहली पर बादशाह ग्राहीम लोदी का शासन था तथा चम्पावती महाराजा रामचन्द्र के सत्तावीसी एक स्तवनात्मक कृति है जिसमें चाकसू (चम्पावती) के मन्दिर में विराजमान पार्श्वनाथ की ही स्तुति की गयी है। इसमें २७ पद्य हैं । रचना साधारण होते हुए भी सुन्दर एवं प्रवाह युक्त है और सोलहवीं शती के मन्तिम चरण में हिन्दी भाषा के विकास को बतलाने वाली है । सत्तावीसी स्तवन परक कृति होने पर भी इतिहास के पुट को लिये हुए है। प्रस्तुत कृति में इब्राहीम लोदी के रणथम्भोर आक्रमण का उल्लेख है तथा यह कहा गया है कि बादशाह ने अपने प्रबल सैन्य के साथ रणथम्भोर किले पर जब प्राक्रमरण कर दिया तो उसकी सेना आस पास के क्षेत्र में भी उपद्रव मचाने लगी और वह चम्पावती तक था पहुँची । लोग गांवों को छोड़कर भागने लगे | 2 સ चम्पावती के निवासी भी भय से कांपने लगे तथा मना करने भी चारों श्रोर भागने लगे। लेकिन कुछ लोग नगर में ही रह गये और भगवान पार्श्वनाथ की स्तुति करने लगे । ऐसे नागरिकों में पं० मल्लिदास, कविवर ठक्कुरसी मादि प्रमुख ये सभी नागरिक पार्श्वनाथ की स्तुति, पूजा-पाठ करने लगे तथा वित्त से बचाने के लिए प्रार्थना करने लगे। भगवान पार्श्वनाथ की कृपा से शीघ्र ही भयंकर विपत्ति टल गयी। लोगों को अभय मिला। नगर में शान्ति हो गयी । चारों ओर पार्श्वनाथ १. घे नंवणु ठकुरसी नामु, जिरा पाथ पंकय भसतु । ते पास थुय किय सत्रो जबि, पंदररसय अट्ठतर । माह्मासि सि पखपुर अवि, पढहि गुरहि जे नारि नर । २. जवहि लिद्धड राणि संग्राम, रणथंभुवि दुरंग गव । जब इब्राहिमु साहि कोथिज, वलु बौली मो कलिज । बोलु कौलु सबु सेरा लोपिस, जिम लग उज्झलि हाइसि । मेद्य मृदु भय वज्जि, विगु चंपावती वेस सहि गया वह दिसि भज्जि । तेरा तुहु सिउ कहहि जगनाथ, मिथुरिण सिद्धि सुदरि रया । इहि निमित्त कउ किसउ कारण, भूत भविषित जा तुहू । तु समधु अगि सरण तारा उदाता उम्रवहु । जाइ भव देखइ गांव, जद्दन खहि पास प्रभु हो रहा मिट्ठाई ||२३|| Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ कविवर बूच राज एवं उनके समकालीन कवि की जय बोली जाने लगी। जो लोग नगर छोड़कर चले गये थे वे प्रधिक दुःखी हुए और जो नगर में ही रहे वे शान्तिपूर्वक रहे । एम जपिय करिवि थुम पूज, मल्लिदास पंडिय पमुह । सई हया सामी उचायउ, सुच्छ मूरति पनि तिलु । हूको जागि मागिरि सवारः इणि निदि ममित पालिहु । पूरि विहरी भराति जयवंत जगि पास तुह, जेव करी सूख संगति ॥२४॥ तास पर ते जिके पर अश्वनी भग्गा दिन रह्या । हवा मुम्बी ते घरा वास, जे भगा भंति करि । दुख पाया प्रस् रड्या ससि, अवरइ परत्या वह इसा । प्रभु पुरिवा समथु, प्रजजन जिस पतिसाइ मनु, मो नरु निगुरण मिरथु ॥२५॥ पाश्र्वनाथ 'सकुन सप्ताबीसी' पं० मल्लियास के आग्रह से रची गयी थी ।। मल्लिदारा ने ठक्कुरसी से पाश्यनाथ के मन्दिर में ही इस प्रकार के स्तवन लिखने की प्रार्थना की थी। कवि ने अपनी सर्वप्रथम अल्पज्ञता प्रकट की क्योंकि कहां भगवान पार्श्वनाथ के अनन्त गुण और कहां कवि का अल्पज्ञान 1 फिर भी कवि अपने मित्र के प्राग्रह को नहीं टाल सके और उन्होंने सत्तावीसी की रचना कर डाली। और अन्त में भी मल्लिदोस से सत्तावीसी पढ़ने के लिए प्राग्रह किया है। प्रस्तुत ससावीसी की पाण्डुलिपि वि० जैन मन्दिर पं० लूणकरण जी पांड्या के प्रशास्त्र भण्डार के एक गुटके में संग्रहीत है। लेकिन मुटके में एक पत्र कम होने से ५ से १४ वें पद्य तक नहीं है । सत्तावीसी की एक प्रति अजमेर के भट्टारकीय शास्त्र भण्डार में भी संग्रहीत है । ७. जैन चउवीसी जैन वीसी का उल्लेख पं० परमानन्द जी शास्त्री ने अपने लेख में किया है। यह स्तुति परक कृति है जिसमें २४ तीर्थकरों का स्तवन है । राजस्थान के शास्त्र भण्डारों में जैन चवीसी को कोई पाण्डुलिपि नहीं मिलती । .- ----- १. एक विक्सह पास जिए मेह मल्लिदास पंडिस कह । कुरसीह मणि कवि गुणम्गल गाहा गोय कवित कह । तह क्रियमय निसुरणी समकाल । इव श्रीपास जिव गुण कहि न किंतु हु भन्म । बहि कीया थे पाविए मन वंछित सुख सम्य ।।२।। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर ठक्कुरसी ८. मेघमाला कहा मेघमाला कहा की एक मात्र पाण्डुलिपि भट्टारकीय शास्त्र भण्डार मजमेर के एक गुटके में संग्रहीत है। इसकी उपलब्धि का श्रेय पं० परमानन्द जी शास्त्री देहली को है । २५५ मेवमाला यत करने का उस समय चम्पावती में बहुत प्रचार था । ठकुरसी ने अपने मित्र मल्लिदास हाथुष साहू नामक श्रेष्ठि के आग्रह एवं म० प्रभाचन्द्र के उपदेश से इस कहा की अपभ्रंश में रचना की थी। उस समय चम्पावती नगरी खण्डेलवाल दि० जैन समाज का केन्द्र घो तथा श्रजमेरा, पहाडिया, बाकलीवाल आदि गोत्रों के श्रावकों का प्रमुख रूप से निवास था। सभी धावकों में जंनाचार के प्रतिमास्या थी । कवि ने उस समय के कितने ही धावकों के नाम गिनाये हैं जिनमें जीरा, सोल्हा, पारस, नेमिदास, नाथूसि, मुल्लरण आदि के नाम उल्लेखनीय है । कवि दोषा पंडित का और नाम गिनाया है । मेघमाला व्रत भाद्रपद मास की प्रथम प्रतिपदा से प्रारम्भ होता है। इस दिन उपवास एवं दिन भर पूजत करती चाहिए। यह व्रत पांच वर्ष तक किया जाता है | इसके पश्चात् व्रत का उद्यापन करना चाहिए। यदि उद्यापन न कर सके तो इतने ही वर्ष व्रत का और पालन करना चाहिए । आदि भाग मेघमाला कहा की समाप्ति सावन शुक्ला ६ मंगलवार संवत १५५० के शुभ दिन हुई थी। पूरी कहा में ११५ कड़वक तथा २११ पद्म हैं। रचना अपन भाषा में निबद्ध है । मेघमाला कहा का आदि एवं अन्त भाग निम्न प्रकार है म चरिम जिरिंग विदय कं वि सुव सिद्धत्य विसिद्धयरो | कह कहमि रसाला वयघणमाला पर शिशा करिकथि || दिपक बुढाहड देस मज्झि, गयरी चंपावइ श्ररित्र सत्थि । सहि प्रस्थि पास जिणवरणिकेठ, जो भग कहि ताररपहसेउ । तसु मक्कि महाससि वर मुखीसु, सह संठिउ गं गोयमु मुलीसु । तह पुरउ गिट्टिय लोग सव्व, मिसुरांत षम्मु मणि गलिय- गब्ब । तह महिलदास वरिंग तर रुहेण सेव सुबत्त बिषयं सहेल । भो बेल्हाद ! सुरिण ठकुरसीह, कद्द कुलह मक्झि तुह लहरण लीह । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि तहु मेहमालय क पयासि इण कियइ केरा फलु लद्ध, भासि | इह कर लिय चिकि सहसति तु करि पढडिया बंध मिल । ता विहसि वि जंप घेल्हणंदु, जो धम्म कहा कणि अमंदु | मोमित्त ! म बुझि वायर न म गुणियउ गुणालु कोवद्दम दीठउ र रसालु । जो हर* जब तण तण दोसु, सो सब सुणियउ तिय सकोस । क कण बुषण सहि मज्भु, किहकार रंजायमि चित्त तुषभ ।। हियत्, कह कमि कम बुझा प्रत्यु | अन्तिम भाग - मंडी निरु लेखि सुत्तयं करी कह एह महा पवित्तयं । उरणग्गलं जंपय मत्त जंपिया, खमेव तं देवी मारही मया । ता माल्हा कुल-कमलु दिवायरु, अजमेराह वंसि मय सायय । विरणयं सज्जण जरामरण रंजणु दाणि दुहिया उल-भं जर || मयरद्धय सम सरिसु वि, परयरण पुरह मज्झि मह पुरि सुवि । जिण गुण म्हि पयमत्त वि. तोरण पंडिय कवियण चित्त वि वृच्छय वयण सयल परिपालगु, बंधव तिय सहयर सुयतालगु । एलीतिय मण रुहवल सोहरणु, मल्लिदास यात मग्गु मोह | तिपि सेवइ सुन्दरि यह कह सुरिण, सरिसु बउलीमउ सु दिढुं मणि । पुतोहात परमत्यें, कह सुणि वजली योसिर हस्यें ? पुरावि पहाडियाह वरवंसवि, लद्धोसयल गपरि सुपसंसदि । ओला नवल जिगभरों, ताल्हू वढलो यो विसं पुणु पारस तण वीरें, गहिउ सुबज जइ सहजस धीरें। पुणु वाकुलीयवाल सुविसालुवि, बालू वडी यो धरमालुदि । पुणु कह मुश्पिवि ठकुरसी संवरि मिस भावरा भाई मति । पुणु पासी गरि मुल्लणि लीयउ वड जीउ रिथ भय डुल्लएि । पुरणु कह सुणिवि मोहर गारिहि मवरहि भव्य यर णरणारहि । मेघमालावर चंगज महिय, इंछित फलु लहि सहि कवि करियल । चंपावतीव गरि शिवसंते, रामचन्वषहु रज्जु करते । हावसानु महति महते, पहाचन्द गुरु उवएसंते । परणवह सहजि सीवे प्रगल सावरण मामि जट लिय मंगल । पय पहाड़िए वंससिरोमरिण, घेल्हा गर तसु लिय वर घर मिरिण । तह तह कवि ठाकुर सुंदरि, यह कहि किय संभव जिन मंदिर | · Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर ठक्कुरसी २५७ पत्ता-जो पढह पढावाइ रिणयमणि भावई लेहाद विसईकरि लिहिये । तसु वय की यह फलु होइ विरिणम्मलु राम सुगरण गोयमु कहिये । वस्तुबंध-जेण सुदरि विगवा वयणरण कराविय एह कह । मेहमालवम विहि रवपिणाम पुए पुधि यह लिहावि करि । पयउ कज्जि पंडियह दिम्णिय मल्लाणंदु स महियलह सेवउ सेवज गुगह यहीरु । नंदउ तब लगु जउलइ, कहा मंगनदि नीरु ।।११।। ६. शील गीत यह एक छोटा-सा गीत है जिसमें ब्रह्मचर्य की महिमा बतलायी गयी है । प्रारम्भ में कुछ उदाहरण दिये गये हैं जिनमें विश्वामित्र एवं पाराशर ऋषियों के नाम विशेष रूप से मिमाये गये हैं जो ब्रह्मचर्य के परिपालन में खरे नहीं उतर सके । मन्त में इन्द्रियों पर विजय पाने पर जोर दिया गया है। मीत का दूसरा एवं मन्तिम पच निम्न प्रकार है सिंधु वसई गा मा मंस साहरि सोम: वार एक वरस में करह सिंघरणी सरि सुरति । पेषि परे वो पापु आसु मन मुइइ न मासुर । खाद्य संड पाषाण काम सेवा निसि वासर । भोय रिण बसेबु नहु ठकुरसी इहु विकार सब मन तणौ । सील रहि ते स्पंघ नर नहि यति पारापति सिरणी ॥२॥ १०. पार्श्वनाथ स्तवन प्रस्तुत स्तवन पं० मरिसदास के प्राह पर निबद्ध किया गया था। इसमें पंपावती (चाकसू) के पार्श्वनाथ प्रभु की स्तुति की गयी है। पूरा स्तवन १५ पद्यों में पूर्ण होता है। स्तवन प्रभावक ऐवं सुरुचिपूर्ण है। इसका अन्तिम छन्द निम्न प्रकार है पास तणं सुपसाइ, पार पणमंति प्राइ परि । पास तरी सुपसाई थाइ, पक्कवइ रिद्धि धरि । पास तणं सुपसाइ सग सिष सुख सहि । पास तासु पणमंसि अंगि प्रालस कुन किंजे । ठकुरसी कई मलिदास सुरिण हमि इहु पायो भेः इव । बगि जं जं संदरु संपर्ज, तं तं पास पसाउ सव ॥१२॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि ११. सप्त व्यसन षट्पद कविवर ठक्कुरसी की जिन ६ कृतियों की प्रथम बार उपलब्धि हुई है उनमें "सप्त ध्यसन षट्पद" प्रमुख कृति है। जिस प्रकार कवि ने पञ्चेन्द्रिय वेलि में पांच इन्द्रियों की प्रबलता, तथा उनके दमन पर जोर दिया गया है उसी प्रकार सप्त व्यसनों में पड़कर यह मानव किस प्रकार प्रपना रहित स्वयं ही कर बैठता है। व्यसन सास प्रकार के है जुवा खेलना, मांस खाना, मदिरा पीना, वेश्यागमन करना, शिकार खेलना, चोरी करना और परस्त्री सेवन करना । ये सातों ही आसन हेय हैं, त्याज्य हैं तथा भानव जीवन का विनाश करने वाले है। पार वन्दना के साथ षट्पद को प्रारम्भ किया है। कवि ने कहा है कि पार्श्व प्रभु के गुणों का तो स्वयं इन्द्र भी वगन करने में अब समर्थ नहीं है तो वह अस्प बुद्धि उनके गुणों का कमे वर्णन कर सकता है। कवि ने बड़ी ओजपूर्ण भाषा में अपनी लघुसा प्रकट की है पुहमि पट्टि मसि मेरु होहि भायण खर सागर । अषस मनोपम लेखि साख सुरतर गुण प्रागर । आपु दु करि लिहै, कह फणिराउ सहसमुख । लिहइ देवि सरसति लिहत पुरणु रहाई नही धुप । लेखरिण मसि मही न जश्वरइ, थक्कइ सरसइ इंच पूरिख । आयो नयोछु कहि ठकुरसी तवा जिरोसर पास गुणि ॥१॥ जुभा खेलना प्रथम ब्यसन है । जुमा खेलने में किश्चित् भी लाभ नहीं है। संसार जानता है कि पांचों पाण्डवों एवं नल राजा को जुमा खेलने के क्या फल भुगतने पड़े थे। उन्हें राज्य सम्पवा छोड़ने के साथ-साथ युद्ध का भी सामना करना पड़ा था। ध्रत क्रीड़ा करने से अनेक दुःख सहन करने पड़ते हैं । इसलिए जो मनुष्य प्रत क्रीड़ा के अवगुण जानते हुए भी इसे खेलता है वह तो बिना सींग के पशु है। सूब जुवाख्यो घणो लामु मुख किवई' न दीसइ । मतिहीणा मानइ लि मति चित्ति जगीस। जगु जाणइ दुखु सह्यो पंच पंडव नरवइ नलि । राज रिषि परहरी र सेविउ जूवा फलि । इह विसन संगि कहि ठकुरसी, फवणु न कवरण विगुत, बसु । इव जाणि जके जूवा रमते नर गिणिविण सीगु पसु ॥१॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कबिवर ठक्कुरसी २५९ दूसरा व्यसन है मांस खाना । जीभ के स्वाद के लिए जोड़ों की हत्या करना एवं करवाना दोनों ही महा पाप के कारण है। मांस में अनन्तामन्त जीवों की प्रतिक्षण उत्पत्ति होती रहती है इसलिए मांस खाना सर्वथा वर्जनीय है। मद्य पान तीसरा व्यसन है । मद्य पान से मनुष्य के गुण स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं। शराब के नशे में वह अपनी मां को भी स्त्री समझ लेता है । मद्य पान से वह दुःखों की भी सुर मान बैठता है। यादवों की द्वारिका मद्य पान से ही जल गयो थी । यह व्यसन कलह का मूल है तथा छत्र पौर धन दोनों को ही हान पहुंचाने वाला है एवं बुद्धि का विनाशक है। वर्तमान में मद्य पान के विरुद्ध जिस वातावरण की कल्पना की जा रही है, जैन धर्म प्रारम्भ से ही मद्य पान का विरोधी रहा है। मज्ज पिये गुण गसहि जीव जोग ज्याख्यो भणि । मज्जु पिये सम सरिस माइ महिला मण्यहि मणि । मग्न पिये वहु दुखु सुखु सुणहा मैथुन ६८ । मज्ज पिये जा जादव नरिद सकुंटब विगय खिव । भरण धम्म हारिण नर यह गमणु कलह मूल प्रवजस उतपत्ति । हारति जनमु हेला मगध मज्ज पिये जे विकलमति ।।३।। बेण्या गमन चतुर्थ व्यसन है जो प्रत्येक मानव के लिए रजनीय है। यह म्यसन धन, संपत्ति, प्रतिष्ठा एवं स्वास्थ्य सबको नष्ट करने वाला है । सेठ चाहदत की बर्बादी वेश्यागमन के कारण ही हुई थी। कालिदास जैसे महाकवि को वेश्यागमन के कारण मृत्यु का शिकार होना पड़ा था। इसलिए वेश्यागमन पूर्णत: मर्जनीय है। इसी तरह शिकार खेलना, चोरी करना एवं पर-स्त्री गमन करना वजनीय है तथा इन तीनों को व्यसनों में गिनाया है। ये तीनों ही व्यसन मनुष्य के विनाश के कारण हैं । शिकार खेलना महा पाप है। जिस कार्य में दूसरे की जान जाती हो पह कितना बड़ा पाप है इसे सभी जानते हैं। किसी के मनोविनोद के लिए अथवा जीभ की लालसा को शान्त करने के लिए दूसरे जीव का घात करना कितना निन्दनीय है। इन तीनों ही म्यसनों से कुल की कीति नष्ट हो जाती है और केवल अपयश ही हाय लगता है। रावण जैसे महाबली को सीता को चुराकर ले जाने के कारण कितना अपयश हाथ लगा जिसकी कोई समानता नहीं है । इसलिए ये तीनों ध्यसन ही निन्दनीय है वर्जमीय है एव पनेकों कष्टों का कारण है। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि कवि ने मन्तिम पत्र में सभी सातों व्यसनों को त्याग करने का उपदेश देते हुए उनके पवगुणों को उदाहरण देकर बतलाया है । जूच विसनि वन वासि भमिय पंडव नरबइ नलु । मंसि गयो वगराउ सुरा खोयो जादम कुलु । बेसा वणियर चारिदत्त पारषि सवं उनिउ । चोरी गउ सिउभूति वियु परती लंकाहिउ । इक्के विसनि का मुरती, नर ा न दुसहर । बाह अंगि अधिक मच्छहि बिसन, ताह तणी गति को कहा ।।१।। रचना की एकमात्र पाण्डुलिपि शास्त्र भण्डार दि० अंन मन्धि पांडे लूणकरण जी, जयपुर के गुटके में संग्रहीत है । १२. व्यसन प्रबन्ध कवि की यह दूसरी कृति है जिसमें सात व्यसनों की चर्चा की गयी है। उनके अवगुन बताये गये हैं और उन्हें छोड़ने का आग्रह किया गया है । प्रस्तुत प्रबन्ध मुनि धर्मचन्द्र के उपदेश से लिखी गयी थी। मुनि धर्मचन्द्र भट्टारक प्रभाचन्द्र के शिष्य थे और बाद में मंडलाचार्य बन गये थे। उन्होने राजस्थान में प्रतिष्ठा महोत्सवों के प्रायोजन में विशेष रुचि ली थी। मुरिण धर्मचन्द उपदेसु सह्यो, कवि ठकुरि विस्त प्रबंध को। पर हरई जको ए आणि गुण, सो वहा सरव सुख वंचित धरणं ॥1॥ सुणि सीख सयाणी मूढ मनं. तजि विस्न बुरा देहि दुख घणं ।। प्रबन्ध में केवल पाठ पद्य हैं तथा उनमें संक्षिप्त रूप से एक-एक व्यसन के अवगुणों का वर्णन किया गया है। सप्त व्यसनों के सम्बन्ध में दो-दो कृतियां मिबद्ध करने का अर्थ यह भी निकाला जा सकता है कि कवि के युग में समाज में अथवा नगर में सात व्यसनों में से कुछ व्यसनो का अधिक प्रचार हो । पोर उनको दूर करने के लिए कषि की पुनः प्रबन्ध लिखने की आवश्यकता पड़ी हो। __ मद्य पान के सम्बन्ध में कवि ने लिखा है कि मद्य पीने से माठ प्रकार के मनर्थ होते हैं। शराब पीने के पश्चात् वह माता एवं पत्नी का भेद मूल जाता है। मद्य पान से पता नहीं कौन-सा सुख मिलता है। मद्य पान से ही सारा यादव वंश समाप्तहुप्रा था। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर ठक्कुरसी २६१ जहि पीये पाठ पनर्थ कर, जननी महिला न विचार पुरै । तहि मञ्च पिये भगगु रुवणु सुखो, जहि जादम बसह दिएणु दुखो ॥३॥ १३. पार्श्वनाथ जयमाला यह जयमाला भी स्तवन के रूप में है। चम्पावती में पार्श्वनाथ स्वामी का मन्दिर था और उसमें जो पाश्वनाथ की प्रतिमा है उसी के स्स बन में प्रस्तुत जयमाल। लिखी गयी है। अयमाला में ग्यारह पद्य है। अन्तिम पद्य में कवि ने अपना और अपने पिता का नामोल्लेख किया है। जयमाला का अन्तिम पद्य निम्न प्रकार है इह वर बइमाला, पास जिए गुरण विसाला । पहहि जिगर एरी, तिणि संझा विचारी। कहा करि अनंदी, ठकुरसा घरह लन्दो । लहहिति सुख सारं, वंछियं बह पयारं ॥ १४. ऋषभदेव स्तवन यह मी लघु स्तवन है जिसमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की स्तुति की गयी है। स्तवन में केवल दो अन्तरे हैं । दूसरा अन्तरा निम्न प्रकार है इश्वाक वंस श्री रिसह जिणु, नाभि ता भम भव हरण । सब पहल प्रवर कहि ठकुरसी, तुह समथ तारण तरण ।। १५. कवित्त कविवर ठक्कुरमी ने सभी प्रकार के काव्य लिने हैं और वे सभी विषयों से प्रोतप्रोत हैं। प्रस्तुत कवित्त भी विविध विषय परक है और सम्भवतः कवि के मन्तिम जीवन की रचना है । कवित्त का अन्तिम पद्य निम्न प्रकार है जइरु वहिरह सुण्यो नहु गीतु, जई न दौट ससि अंधलइ । जइ न तरणि रसु संदि जाण्यो, जइ न भवर चंपइ रम्यो । जइ न घणक कर हीणि ताण्यौं, अइ किरिण नि गुणिनि लेखणी । कब्दि म कीयो मण्ण, कहि ठाकुर तउ गुणी गुण नांउ जासी सुरणु ॥६॥ इस प्रकार अभी तक ठक्कूरसी की १५ कृतियों की खोज की जा सकी है लेकिन नागौर, अजमेर, एवं अन्य स्थानों के गुटफों की विस्तृत छानबीन एवं खोज होने पर कवि को और भी रचनाओं की उपलब्धि की सम्भावना है । ठक्कुरसी प्रकृति प्रदत्त प्रतिमा सम्पन्न कवि थे इसलिए सम्भव है कोई महाकाव्य भी हाथ लग जावे। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि ___ कविवर ठक्कुरसी १६ वीं शताब्दि के द्वाड प्रदेश के प्रमुख कवि थे । उनकी रचनाओं के प्रध्ययन से ज्ञात होगा कि कवि ने या तो भक्ति परक रचनायें लिखी हैं या फिर समाज में से बुराइयों को मिटाने के लिए काय लिखे है । कवि का कृपण छन्द उन लोगों पर करारी सोट है जो केवल सम्पत्ति का संचय करना ही जानते हैं। उसका उपयोग करना अथवा त्याग करना नहीं जानते । कृपण छन्द जैसी रचना सारे हिन्दी साहित्य में बहुत कम मिलती हैं । इसी सरह पञ्चेन्द्रिय वेलि एवं 'सप्त व्यसन षट्पद' भी शिक्षाप्रद रचनायें हैं जिनको पढ़ने के पश्चात् कोई भी पाठक आत्म चिन्तन करने की ओर बढ़ता है। कुरसी का समय मुसलिम शासकों की धर्मान्धता का समय था लेकिन कवि ने समाज का अपनी रचनात्रों के माध्यम से जिस प्रकार पथ प्रदर्शन किया वह सर्वधा प्रशंसनीय है। ठक्करसी की रचनायें भाव, भाषा एवं शैली तीनों ही दृष्टियों से उत्तम रचनायें हैं उन्हें हिन्दी साहित्य के इतिहास में उचित स्थान मिलना चाहिये । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर ठक्कुरसी सीमंधर स्तवन श्री सीमंधर जिन पब बंदी, मवि नेत्र चकोरभिनंदो | पुंडरीकणी पूर्व विदेहो, अतिशयवंत सहा प्रभु रे हो । रे हैं ज परमातशय जुत प्रभु समवसुति महिमंडणी । तिलोक विजयी मोह रिपु वस्तु काम बल सह भंजणो । परमेठि परमारष प्रकाशक, पाप नाथ दिगंबरी । भव जलधि पोतक पास मोचक, नमहु जिन सीमंधरो ॥१॥ मंडण थार्ज । सह युग्मंधर जिनराजे, साकेता तिलोक जनात्रिप बंधी, मोहारि विजय अभिनंद्यो । अभिनंदियों जगवेक स्वामी, मोक्ष गामी नीर जो । पंचसँ धनुष प्रमाण देहो, मान माय विहंडणो । सत्वादि बेदी कोष भेदी, भव्य पूज्य परंपरो । दिन नाथ कोटि प्रमाथि शोभी, जयज जिम युग्मं ||२|| पछि दिशि बाहु मुनीको, विजयार्ध पूरी शिरि सीसो । निमितामर नरकणि लोको, विनि वारि तज न भय भोको । न शोक मारण सौख्य कारण, जनम मरण जरा हरो । रत्नत्रय विराजित, सुष जेवण गुणधरो । वर अचर लोक प्रतीत नागत, वर्तमान सु गोचरों । उत्पादन प्रौष्य येक ग्याता, जयहु बाहु जिनेस्वरों ||३|| परमारथ || लीखंत ठाकुरसी || r २६३ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ कविवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि नेमिराजमति वेलि सरसय सामिरिण पय जुयल, नमी जोड़ि कर दोइ । नेमकुमार राजमती जती कहूंउ, सुरगहु सब कोई ||१|| " आइ मास बसंत सि जन मन भयो प्रनंदु सब्वाइ वन कीला बल्या, मिलि द्वारिका नदि । मिलि द्वारिका नरिदो, वसुषो बलिभनु गोविदो । समदविजे दर्स दसारा, सिवदेस्यों ने मिकुषारा 1 सतिभामा खपिणि राही, जयवंती सरिस माही | ले सोलह सहम भगवाणी, चारबी घाली पटरानी । वाल्या दल वल रूप निधानो, पठदवर जुभानु सुभानो परधान परोहित मंत्री, मिलि चल्या सयल भह खित्री । हयगय रय जाण जाणा, मिल पाया जाम राणा ॥ मुखि कहै किता इक जोड़े, मिलि चलिया छप्पन कोडे । हल रज पसरी चौपासा नहु सू सूर अगासा । fe सुगड सह देसी, वन मिति मति मारे केसी । सिरि छत्र चमर दुइ पासा, सोहइ सिरि पडी पभाषा । बाना बाजे बहु भंते, बंदियण विरुद पभते । मनि धानंदु पत्रिकुं बहंता, हरि बिंदु वनिद्दि संपता ॥२३॥ रोहडा गीत नाद रस पेषणा, परिमल सुख संजोग : तर खाया वल्लीभवरा, फिरि फिरि मुंज्या भोग || ३ | जहि जहि केलि करंतु, वनिहीडी नेमिकुवारु । तहि तिथ वाही क्याममहि, लामी किराँति लार १४३ लागी फिरहित लारा, भरि जोवन रूप प्रमारा । कालीय जिणु दीठो चाहें, हलि व खिस्योरिन साहूँ । कवि रूप रथपरसि घाली, दखि एक कवि कहै कुंवर मा जाहे, तुझु रूपु किलो थिया । आजि उठ चाली । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर ठक्कुरसी २६५ किकि दिठि देखण को भाऊ, सिसु तजि जे पलियु विलाऊ । कवि कहइ सुतिय घण घणु, जसु परणई एह मवरण । इणि परितिय भरणेषक पयाग, बहु करिद्धिति काम विकारा । जिणु तव इन दिठि ३ बोले, ना मेरू पवन मै डोले । अव रेया नर नारे, रंगि रमाहिति बनह मझारे । वनि रमत हुवो अमु काया, अलि न्हाणि सरोवर माया । जस माह के लि की जैसी, कवि सकह कवरण कहि तैसी। दोहा जल विनोद करि नोसरचा, मन हरषी नरमारि । पहिरि वस्त्र पारभरण अंगि, प्रावहि नगर मझारि ॥शा सिबदे रूपिरिणस्यौ नहीं कहा रहो मुहु मोहि । नेमि कुवर कपहरणी, दैने बहु निचोहि ॥६॥ देने बहु निचोडे, तिन उत्तर दियो बहो । जो सारगु धाबदार्थ, ल संपु पंचावरण पावै । चडि नाग सेज जो सोवे, रूपिणि तसु वस्त्र निचो। सुणि ससिभामा कर जोडे, ले दोनो वस्तु निचोडे । तव सियदे तणई कुमारे, मनि निमष घड्यो महंकारे । वरजंता सहि रखवाला, प्रभु ऐठौं बाइधु सासा। भनि गिराईन क्यों रंगि रुती, चढि नाग सेज सिरि सूतौ । चरणांगुलि घणकु चढायो, नासिका संखु धरि वायो। सुरिण सवदु संस्खु जण कंम्मी, इह कहा हुवउ इम बंप्यो। सुरिण संख सबद हरि डोल्यो, बलिभद्र इम बोल्यो। महो माई विण ठौकाजो, पदि तदि यह लेसी राजो। को मोटो मंत्र उपाये, तपु ले घरि तजि वन जाये। तय कुडइ भनि ललियंगी, पायो उमसेशि चिय मंगी ।। वोहडा सुरनर जादा मिलि बल्या हाण नेमिकुमारि । पसु दीया गुवाडा भर्या, बंच्या ससुर दुवारि ॥७॥ हरण रोझ सूबर सुसा पुक्कारहिं सुइ चाहि । नेम कुभर र राषि करि, बूमो हाल यहि ॥६॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि रे सारथि ए प्राजे, पसु बघि घऱ्या किरिण काजे । तिणि जप्यो कृष्न पनाथी पसु जाति जके भनिभाया । पोषांबा भति बराती, पसु बांध दासह परभाती । सन नेमिकुमरु रथु छोडी, पसु मुफलाया वध तोहो । भयभीत जीव ले भागा, त्रिभुवनु गुरु चीतण लागा । इल्तु जीव विषई फउ घास्यो, ह जिहि जहि जोरणी घाल्यो । तिहि तिहि तिय पासि धायौ" इव शो तपु तप विचारे, ज्यों फिर न पडो संसारे । इम चीति र चल्यो कूमागे, प्रायो राक्षण परिवारो। अहो कवर कवणि तू वांधी, तप लेवा जोग उमायो। तपु तपिउ न वाले जाई, करि व्याह करहि समझाइ । जब प्रोटउ होहि कुमारि, तय लीजह तपु भवतारि। हसि नेमि कुवरु तव बोले, मुझ जनम मरण मन छोले । जइ पइ पहचई कालो, तव गिण ण दुतो वालो । जहि जहि जोषी हो जायो, तिहि तउ कुटंब उपायो । इह मोहु कवरण परिकोज, तिणि काजि माइ तपु लीजै। माइ बापु दुवै समझाव, परियण जण सयल समाव । विलबंतु साथु सत्रु छोडे, गो नेह निमष मै तोडे । माभरण ते वस्त्र उतारे, चदि लीयो सपु गिरनारे ॥ दोहडा सुणिय बात राजमति करि परिहरियो सिंगारु । पिड पिज करती तिह चली, जहिं पनि नेम कुवारु ।।६।। माह बाप बंघव सखी, समझावहि कहि भाउ । अबरु वरहि वरु भावतो, गयो नेमि तो जाउ ।।१०।। गयउनु दै पिड जाणी, उन कहहि सुवरु किरि प्राणी । जंपइ रजमतीय प्रणेरा, जिण विणु वर बंधव मेरा ।।११।। कइ बरउ नेमियर भारी, सखि के तपु लँउ कुमारी । चढि गैवरि को सरि वैसे, तमि सरगि नरगि को पैसे ।।१२।। तजि तीणि भवन को राई, फिम प्रवरुनु परो वरु माई । समझाइ राखि सवु साथी, तिहां चलीय जिहा पिउ नाथो ।।१३।। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर ठक्कुरसी तिय भाव अनेक दिखाया, तिणि तवइ न चित, हुलाया । नाउ घुर लाये वज्ज्र धर्म || १४ || भूली राजमती पनि विवै विलखी पति हिये निवास, तपु तपिउ तिहां पिउ' पास तपु तपिउ करी ऋिषि काया, रजमतीय अमर फल पाया ||१५|| राखियो वाषि मन घोरो, तप तजि मोहु मानु मदु रासा, अति तपिस नेमि अति घोरो । सहिया विषम परीक्षा ६।१६।। तिहठ कम्मं वलु धायो, प्ररु केवल लागु उपाय | मलबीत गई सब दूरे च समोसर रिधि पूरे ||१७|| फिरि देसु सयलु समझाया, नर तिरिय धरम पथ लाया झता हरित्रलतोसो, माथ्यो द्वारिका हि विरणासो ||१८|| जहि जहि मनिऊ मंति प्रतेरी अवसाणि बाद गिरणारे गये बूझता हरि तिहि केरी 1 मुकतिह्न दो भवपारे ।।१६।। जर जन मरण करि दूरे, हुब सिद्ध गुणहं परि पूरे । कषि ल्ह सुतन ठाकुरसी, फिये नेमि सुजति मति सरसी । नर नारि को नित गावं, जो चिते सो फल पावे ||२०| ॥ इति श्री नेमि राजमति वेलि जति ठाकुरसी कृतं समाप्त ॥ २६ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ बोहा छंब दोहा कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि पञ्चेन्द्रिय वेलि स्पर्शन इन्द्रिय वन तरुवर फल खातु फिरि, पय पीवतो सुछंद । परसरण इन्द्री प्रेरियों, बहु दुख सहे गयंद ॥ बहु दुख सही गयंदो, ससु होइ गई मति मंदो । कागज के कुंजर काजे, पडि खाउन सक्यो न भाजे । तहि सहिय धरणी तिस सुखो, कवि कौन कहत स दुखो । रखवाला वलगड़ जाण्यो, बेसा सिराय परि थाप्यो । बंध्यो पनि संकलि घाले, तिउ कियउन सक्छ थाले । परसणु और दुख पायो, निति अंकुस घावों घायौ । परसरण रस कीचकु पूर्वी, गछि भीम सिला तल चूर्यो । परक्षण रस रावण नाम, मारियउ लंकेसुर रामं । परसण रस संकर राज्यो, तिय भागे इहि परसा रस जे थूता, ते सुर रसना इन्द्रिय नट ज्यो नाच्यो । नर घणा विगूता ||१|| किलि करतो जनम जलि, गाल्यौ लोभ दिखालि । मीन मुनिष संसारि सरि, काढ्यो घीवर । कालि || १ भौंवरि सो काढ्यौ धोवरि काले, तिणि गाल्यो लोभ दिखाले । मछु नीर गद्दीर पहठी, दिठि जाइ नही जहि दीठो । इह रसणा रस कउ घाल्यो, यलि भाइ भुवं दुख साल्यौ । इह रखना रस तर भुसे माप गुरु भाई । तां Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर ठक्कुरसी २६६ घर फोर पाडे बाटा, निति करै कपट घण घार । मुखि भूठ सांच नहि बोल, घर छोरि दिसावर डोन्ने । कुल अब नौर नजि लेखे, मूरख जहि तहि मिलि भेलं । वह रसना रस के दीर, नर कुम फूण फर्म न कीए । रसना रस विष प्रकारो, बसि होइ न मोरण मारी । जिहि बहुर विष वसि फीयो, तिहि मुनिष जनम फत सोयों ॥२॥ प्रारण इन्द्रिय दोहा कमल पहठो भ्रमर यिनि, घाण गधि रस राहु । रणि पसी सो संकुच्यो, मीसरि सक्या न मूढ ।। छंब अति प्राण गंधि रस रूढो, सो नीसरि सक्यो न मूहो । मनि चितरपरिण सवायो, रस लेस्यों मजि पचायो । जव उगैलो रवि विमलो, सरवर विकस लो कमलो । नीसरिया तव इह छोडे, रस लेस्यों प्राइ बहधे । चितवत ही गज मायो, दिनकर जगवा न पायो। जलि पंसि सरवर पोयो, नीसरत कमल खुमि लीयो । गहि सुडि पाय तलि पंप्यो, मलि मार्यो पर हर कंप्यो । इस गंध विर्ष छ भारी, मनि देखह क्यो न विषारी। इह मंच विर्ष वसि हुवो, अलि महसु अस्वटी मूवो 1 मलि मरण करण दिति दीजे, तर गंध लोभ नाहि कीजे ॥३॥ चल इन्द्रिय रोहा नेहु अपगलु तेल तमु राही वचन सुरंग । रूप जोति परतिय दिर्व, पहिति पुरुष पतंग ।। पडहिति पुरुष पतंगो, दुख दीवै दह इति अंगो। पहि मोह सहा जीष पाख, दिटि चिन मुरख राखे । दिति देखि कर नर चोरी, दिठि देखित के पर गोरी। विठि वेक्षि कर मर पायो, दिठि दीपा संतापो । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि दिहि देखि प्रहल्या इदो, तनु विकल गई मति मंदो। दिठि देखि तिलोत्तम मूल्यो, तप तपिउ विधाता खोल्यो। ए लोयण संवट झूठा, वरज्या नहि होइ अपूठा । ज्यो वरज ज्यो रस वाया, रंगु देखें पापणु भाया । लोयगह दोस को नाहि, मन प्रेरै देखण जाही । जे नयण दुबै बसि राल, सो हरति परति सुख चाख ॥४॥ बोहा बेग पवन मन सारिखो, सदा रहे भय भीतु । बपीक बाग मास्यौ हिरण, कानि सुणतो गीतु ।। छंद सौ गीत सुणती कान, मृग खली रह्यो हैराने । घणु चि बघीक सरि हरिणयौ, रसि वीघौ घाउ न गिणिगी। इह नाद सुरांतो सांपो, विल छोषि नीसर्यो प्रायो । पापी घडियालि खिलायो, फिर फिर दिनि दुख्य दिखायौ । कीदुरि नाद नर लागै, जोगी हइ भिष्या मांग। वाइडहि न ते समझाया, फिर जांहि घण। धरि आया । इह नादु तणौ रस असो, जगि महा विषम विसु जैसो । बह नावि जिके भरि भिलिया, ते नर त्रियवेगिन मिलिया । इह नाइल रवि रातो, मृम गिम्यो रही जीत जाती। मृग भाव उपाव विचारो, तो सणणउ नानु निवारे ५५५ । दोहा अलि गजु मीन पतंग, मृग एके कहि दुख दीघ । जाइति भो भी दुख सहै, जिहि वसि पंच न किद्ध । छंद जिह पसि पंच न किरिया, खल इन्द्री अवगुण भरिया । तिहि जप तप संजम खोयो, सतु सुकृत सलिल समोयो । १. सिय वंगिन Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर ठक्कुरसी सब हृस्तु परंतु सत हारे, जिद्दि मंडी पंच पसारे । जिहि इंद्री पंच पसारया, तिहि मुनिष जनम जगि हार्यो । निल पंच व इक्क भंगे, लिर और और ही रंगे चक्षु चाहे रूप जु दीठो, रसना मख मखे सु मीठो । निति न्हाले घास तुमंगो, रूपाक्ष कमल निति श्रवण गीत रस हेरें, मन पापी पंचे प्रेरे । मन में करें कलेशो, इंद्रियान दीजें दोसो | कवि बेल्ह सुतनु गुरधाम, जगि प्रगट ठकुरसी नामु | करि वेल सरस गुण गाया, चित चतुर मनुष समुझाया । मन मूरित संक उपाइ तिहि तराइ चिति न सुहाई । नहि जंपो घणो पसारो, इह एक वचन छ सारो । संवत पंद्रहसरे विध्यासे, तेरसि सुदि कार्तिम मासे । मिहि मनु ईद्री दसि कीया, तिहि हरल परत जग जीया ॥ ६ ॥ ॥ इति पचेन्द्रिय वेति समाप्त ॥ २७१ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ after बुचराज एवं उनके समकालीन कवि चिन्तामरिण जयमाल ⋅ परविधि जिए पासड पूरण प्रासह दूरयि संसार मलु । चिन्तामणि जंतहु मरिंग सुमरन्तः समहुजेम संजय फलु ॥१॥ महारत गुंजा समादुष्णत्त सुखे सदुत्त कालु संकरण चित । हरो होइसो काणे जंबुमस े भरतासु चितामणे जंतु वित्तं ॥ २७ दिवं मूसलाया रदंतं पयडं मऊरिण करतो किए उच्च सु न लोस सिन्धुरो लगत्त, भरता चिंतामणे जंतुवि ॥३॥ विसे वासि मणि षोपतो, न भोय फूली कियो मंद गंजो ण लोम्याद चुन्यो फणी सम्पत्ति भरतासु चितामणे जंतु चित्त ॥४॥ समीरे सहाए मिली घूम झालं गदापेखि मंगं फुलिंग विसानं । roads या अग्गिए सीर सिक्तं भरतासु पितामरणे जंतु चित्तं ॥ ग तीसार वित्त भमंगेद्दारीयं, नथलं बलं मण्डलं सष्ण्विायं । दुई जरा दुदु खास पित भरतासु विताम जंतु चित्तं ॥६॥ I कुदेवा गहा डायणी भूमिपाल, कुसवर कुसन न लग्ग तिणित्तं मरी संकले देह रक्खो बिनाणे, गिक हरि तो नियंता येतं समुद्देर वह प्रवाहे अगम्मे, तह होइसो जाइगो पाइ जितं बरो वीढया बेड सूत्री दुहाला, लग्नंति घायं रथे दिष्णु सत्तं + दिनाह विसं कम्म बभ्ध बालं | भरतासु चितामसे जंतु विसं ॥७॥ णरासीसु वितं दिट्ठकुट्टा | भरतासु चिंतामणे जंतु वित्त | पड़यों को तिखो किए पुञ्च कम्मे । भरतासु चिंतामणे जंतु चित्तं ॥६॥ गलै घल्लिक सप्पु होइ फुल्ल माला । भरतासु चितामो जंतु चित्त ॥१०॥ सोही कुण्डबी गुणी हूँति भिन्ता । भरंतासु चितामणे जंतु वित्तं ॥ ११ ॥ । तिया रूप सीलम्यश्रा पुरा भत्ता, पुणो हुति मेहे श्रमाणं सुविस J इय वर जयमाला मुरगह विसासा बेल्ह सतनु ठाकुर कहए । जो साख सिणि सिक्ख दिए रिशि अक्सर सो सुहृमण विउ लहए ।। १२१४ ॥ इति चिंतामणि जयमाल समाप्ता ॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर ठक्कुरसी २७३ कृपण छन्द क्रिपघु एकु परसिद्ध नयर निसर्वति विलक्षण । कहो करम संजोग तासु धरि नारि विपक्षण । देखि देखि दुई की जोडि सवु जगु रहित तमासै । यहर पुरिष के याह दई फिम देइम मासे । व, र ति घी मतीमान पुन सुस्त ग्रील गति: षा देन खारण सरच कि, दुवं करहि दिनि कलहु प्रप्ति ।।१।। गुरस्यो गोठि न कर, देउ देहुगे न देखें । मागिन भूलि न देई, गाखि सुरिण रहै भलेखे । संगी भतीजी भुवा बहिण भाणिज्या न ज्याबइ । रहे रुसणो मारि पापु न्यौती जिव पावै । पाहुणो सगो पायो सुरणो रहइ छिपिउ मुख म राखि करि । जिब जातिवह परि नीसर, वो घणु संच्यो क्रिपण तर ।।२।। सूह परया संथरे, सोवै सलि तिणा बिछाये । सब घीषादवि काहि मोलि धरि तवं न ल्याव । ऊपरि जूडा छनि वर दश तणि जु वाधी । टूटि टूटि तिणि पहा बालि बाजे जब मांधी । सहि ढही भीति सेरी पड़ी देखि देखि देइ पालि नर । मारिज वर मीती बर्ड, तब न छावै कुपए घर ।।३।। सगला पहिला उठो माथि ते देइक भाइ । पगि नागो सिरि मार गाव दश फिर दिनाई । धरि भूखो परिवार बार तसु टग टग पाहै। जब पावै पापीयो नाजु तब प्रायु विशाह । लेइ सदा सोषि औगस्यो जहि मरघा हा विपति । ईम हा राति कूचरू क्रिपरणु सह को जाण नरु नृपति ।।४।। झूठ कपन नित साइ लेख लेखो नित झूठी। झठ सदा सह करै भूठ नहु होह पपूठौ । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि झूठी बोले साखि झूठे झगडे नित उपाय। महि तहि बात विसासि धूति धनु घर महि ल्याव । लोभ को लियो घेते न चिति जो कहिजे सोइ स्ववै । धन काजि झूठ बोल कृपणु मनुष जनम लाधो गर्व ।।५।। कदेन खाइ तंबोलु सरसु भोजन नहीं भक्दै । कदेन काप नवा पहिरि कापा सुख रक्खे । कदेन 'सिर में तेल मल मूरख म्हावं । कक्षेन चन्दन का अंग वीस या पेषगो कदे खं नहीं श्रवणु न सुहाए गीत रसु । घर घरणी कहे इम कंतस्यौ दई काइ दीन्हो न पसु ॥६।। सिरि बांध चीचरी रहइ तलि किए न गोटो । अंग उघाडी दुवै भगो पहरो गलि छोटो । पडहि जून सैवार कदे कापडा न धोये । हाय पाग सैर को मेनु मलि मुलिन न खोवे । पहरि वाया णीयर चरण तशी नीसत नहि उर्दु । रलायो सरि सरि तहि नणी गुण पढी कृपण पण दूबली ।।७।। ज्यो देख पहरंत खंत खरचंस मवर नर । बैठा सभा मझारि जाणि हासंति कुसम सर । देखि देख तह भोगु कृपण तिय कहे विचारी । ज्याहू, तणी एकंत पुणि पूरी तेगारीमइ । पुष्ब पाप कृत आपण कंतु कुमारण सभरि लक्षो। इकु कृपणु अरु करुषु कुपोलणो लाज मरो लक्खरण रह्यो ।।८।। ज्यो देखे देहुरे त्याह को वर नारी । तलि पहऱ्या' पटकूला सब सोचन सिंगारी। एकि करावं पूज एकि ऊर्चा गुण गावं । एक वेहि तिय दाणु एक शुभ भावन भावे । तिह देखि भरणे हीयो हरणे कवण पायु दीयो दई । जहि पाप किणहो पापीणी कृपणुकत थरि घरण हुई ॥६॥ मैं कुदेव पूया कैरू जिप चलण नवाया। के में पेष्या कुगुर साधु गुरु साति निद्यो । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर ठक्कुरसी के मै बोलो झूठ अवर दिछु दया न पाली । के में भोजन कियौ पति पत संधाए । स्वामी पुष आयु प्रायो उद, कृपण कंत पायो पड्यौ । तो दिन पाषु रिचण सुहै, अणही मिसि पावै लड्यो ।।१०।। इणीइ रीतिरहि कृपरिण धुति धणु घणी उपायो । ले सुणि पास वार गाडि पूर वाहरि मायो । क्यो कलतरि आपिया ताह के भेदे न मक्ख । क्योरि कर भरसाल स्योर नख मुनिषुन लो । परिवार पूत बंध जणह नीष कुनहु पतियइ कसु । यों सुमि सदा इन एकठो करि करि राख्यो भाप वसु ॥११॥ दुख मरती देहुरे तासु तिय जाइ सवारी । एकहि विणि गुन्जो संगालो गिगार रयण मम करि जोति कहिउ पिय सरिसु हसंती । सुगहि स्वामि महु एक सणी वीसी । नर नारि सबै कोक भरचा लीया परोहण घर जु धरि । बंदिस्यौ जाइ श्री नेमि मरु दडि सेरोतंबसिरि ॥१२॥ तती करि पिय मती घडहि दुवे गिरनारीय । बंदह नेमि जिरणंदु जेरिण तिय तजिय कुमारीय । दीप धूप फल लेइ पस मक्खत केशर | कुल गयंदी पहाइ पाइ पूजा परमेसर । अरु चड़हं दुबें सेतंजसिरि जनम जनम को नाइ मलु । सपजानजी पसु नर नरकि बहि अमर पदु परम फलु ।।१३।। नारि वचन सुरिण कृपरिण सीसि सलवटि घणपल्ली । कि तू हुई धण बावली कि पण पारी मति पल्ली । मैं घणु लद न पडो मेर घरम् लियो न पोरी । मै घणु राजु कमाइ भायु पाणियो ना जोरी । दिनि राति नौंद हिस भूख सहि मैर उपायो दुखि घरणों । खरचि वा तमो बाहुडि वचनु पण मू मागे मत भो ॥१४॥ कहै मारि सुणी कंत घपल विष्णु लज्यो लाछी भयो । नहु नव निद्धि मूकि तसु गैलरण लछी । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि अवर किता नर कहउ ज्याह संघीह त्याह हारयो । इम जाणि कंत प्रथ सहरण जिन मुकहि करि कठिण मनु । ज्यो । नमितु तणइ धरिइ इछयो होइ प्रनंत धरणु ।।१५।। कह कृपणु मुरिण मूष भेदु अणु लहइ न पायो। घन बिनु कोह न सगौ पूत परियण तिय बंधव । वन विणु पंडितु मीधु विधाषित मंजलि पीणो। षण विवि तिय हरिचंद राह देचा पुरि राग । ...... "||१६॥ नारि कहै सुरण कंत जर्फ दाता रहवा घर । करण भोज विक्कम अजो जो.............! नर सम सदा अपवित सम सामही प्रसीगो ! सूमन ले कोड नाउ तालसिरि दे सब कोणौ । दातारि कुपरिण यह अन्तरी लीज ज्यो क्यों लेहि फलु । नातरि धन गुण वजन जन भौन भरि अंजलि करि देहि बलु ।।१७।। कहा कृपण करि रोसु काई घण धीर ठापि संचाहि । मू पर जाता रहै हठ पापणी न छई। करहि पराई होस जाह घरि लछि अलेखे । अठि भेदु ना लहहि पाप घर दिसे न देखे। नित जठि बात अपिहि सयाणी ज्यांह चले मझ कंपणी। ते गलौ हाय जिह खरषि जे लछि पाई पापणी ॥१८॥ कहै नारि सुरिण कंत पनि सो जगती आयो । जहि नर करि प्रपणे वित्त विलुसियो एपायो। होर न कीज्य पापु पुण्य की छोर करता । होइसु जसु संसारि परति संचलो भरम्ता । परि हुई लछि पुणि पहिल के पोहण खर्चे प्रापरणो । ते नर अचेत त्या महीं दसिया संप सापिणी ॥१ तबाह कृपणु करि रोस हसि घर वाहिरि चलीयो । वाम एकु सामहो मंतु वरि मेली मिलियो । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर ठक्कुरसी कृपण कहै रे कृपणु आजि तू दूपण दिवो । कि तु रावलि गयो केम घर चोर पट्टो । पाइयज कि को घरि पाहुणो कीयो नर भोजन सरसि । किरिण काजि मीतरे माजि तुव मुख घिलोणु दीठो विसि ॥२०॥ कृपर कई रे मंत मुझ घरि नारि सताये । जाति चालि घर खरधि है सो मोहिण भाव । तिह कारणि दुव्वली रयण दिण भूखण लगइ । मंतु मरण माइयो प्रह्म प्रख्यो तू प्रागै । ता कृपण कहै रे कृपण सुणि मीत मरण न माहि दुखु । पीहरि पया पासो र भोलिद और गुरु २१ कृपण वचन सुणि कृपण हरिषु हीयो प्रति कीयो । पुरिष ले एक सस्त्रि लेखु झुठो लिखि दीयो । तिय आगे वाची छे तुझ जो जेठो भाइ । बुहि परि जायो पूय तु धरि धण कोकी बाई । तुटिमी प्रीति जै ना चलि सिसू नवो सुरण वापसी । जारपती पिउ परपंच घण पली नदि जासापहि ॥२२॥ तित संगु सामसौ साथि लीयो भड भारी। हय गय रह पालिका चरिवि चल्ली नरनारी । जंत जंत गिरनेर पह राजलु वर बंद्यो । साइ पत्रुण चडेवि पुष्य कृत्त पाप निकंछौ । पर दिट्ठ जीइ सेतसिरु गनह राख्यो कवरण वरण । मनुष जनम को फल लीयो फिरि फिरि बंद्या जिव भवए 11२३॥ ठाह ठाई ज्योणार कीय व्यापार महोच्छा । काइ ठाइ संग पूल दिठ चित्त किया णवेच्छा । ठाइ ठाइ मंगिणाई दाणू मुजसु उपापी । बाजत ढोल निशाण संग कुसलहं धरि प्रायो । इकु पुण्य उपायो पूरिस्पो ल्याया लोग असंख धनु । पा वात सुरण ज्यौ क्रिपरणु त्यो ते तसु पश्चिताइ मनु ।॥२४॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ कविवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि कहै कृपणु नित्त ि परिणतो जिवणार म्रा दुख रचतो न टोली । इरिण परियां तो अछि रहिरु सगली मति बोली । भि छोयो हरी सिंह पीटै ले दुवै कर । अति सा कृपण कसूनी सून सफोदर सासु जद ||२५|| . तव मरतो जाणि करि सवल परियश मिलि आयो । बंधन पुत्त कलन्त मांत कहि कहि समभावहि । ज्यो आगे हुई गुखी खरचि ले सुकृत सबली । ते बल्हो घरो बताव षाइजो जीवं पालो । कुल कहि रह्या सर्व बोलतही कृपरण कोपु लगाउ करण | घर सारि प्राइमरी कहें भांति कंत कर मर ||२६|| कहैं कृप करि शेसु काइ मिलि सूनोवाही । थोर न बूर्भ सार पोरे धनु लीयो चाहे । जीवंतां अरु मुवह कोण धरण मुझे ले सक्कइ । के ले पालो साथि कैर धणु घरती थकं । स्कादि प्रा भवरह जनमि तुहि न बताउ परिउ धणु । सुणि यात उठि बंषक मया ति पहुते पटल दिसु ||२७|| अरांती | तयह मरतो कहे ल िमारणइ माई परिवरणु पुत मेरू राखौ तु पांसी । बादन प्रति ससही देखि दुष्ट घणा उपाई । मांग ग्रामं गिरती काजि तु गालि दिवाई | एहु चोर गांरी प्रागि यो मे राखी करि जतनु तुझ गिगुमा सिलज्जुनि लछि इ ॥२६३ Www लच्छ करे कृपण झूठ हो कमे न बोलो । जु को चला दुइ देइ गैल त्यानी तसु वालो । प्रथम चलगा मुझ एतु देव-देहरे भिजे | जे जति पसिद्ध दाशु चउसंघहि दिज्जै ये चल दुवै ते मंजिया ताहि विली क्यों चली । भूखमारि जाय तू हो रही बहुडी न संगि थारे चलो ॥२६४१ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ कविवर ठक्कुरसी यौं ही करता कृपण..................."याकी । बोल न बोल्यो गयो सरण किकरण समझि ले सक्की । नाज".............."सयस धरा धरती छड्यो । गयो नरगि......."घट कृपणु सहा पंच परि दुख सहो । गाव में जेता नारी पुरिष भला हे मुदो समलाई को ।।३।। मूवो कृपण कुमीच लोग सगलाह मनि भायो । रहयो राति घर माहि कोइ बालिवा म आयो। सब रानि हि जगह पीस पुर वाहिरि राल्यो। पूरा हुवा णी काठ रहित तई प्रघ बाल्यो । घर नारि पूत बंषच खिल्या मनि हरिष्यात जुयो जुवो । पहरिस्पा खाइस्या खरचस्या भलो हुवो जइह मुवी ।।३१॥ कृपण गयो मरि नरगि तिहां दुख सह्यो प्रलेखे । रोव करै कलाप कर्ण कहै इम प्रक्ख । पत्त जारी मू जोग गेगा इव निरभ पाउ । जिती करो धरि लछि तिती पुणि मागि लाकं । हसि पहि असुर कुमार ससु मुनिष अनम बूझे कहा । तु मनसि बनमि पहिसे नरगि दुखु दाहणु लामं जहां ॥३२॥ क से पनु कूद्धि कपटि .. ...... परिपंच उपायो । न ते जो तप बिटु देव देहुरे लगायो । न ते करी गुर भगति न ते परिवार संतोष्यो। न ते मुषा भारिणजी ने तै पिरीजणु पेष्यो। न त कियो उपगारु अडि जो तू ने पाडो फिरौ । वो गवो पाप फल प्रापणो मत विलाप कारण करै ।।३३।। एक तल तेल में एक अंगि सूली बाम । एक पाणी मै पेलि एक काटा सिरी स्वाग 1 इफ काट कर चरण एक गहि पांव पछाडे । एक नदी में छोड़ बहुडि साई खणि गाई । इकि छेद सीर सिलु तिनु करिविराज्यो मिलि। आइणि सागर बंध दुख भोगवै मरहण पूरि प्रायु विरण 147 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि इमो जाणि सहु कोइ मरइ प पूरिष धनु संचयो । दान पुण्य उपगार दिस धनु किवन खंची। दान पुन यह रासो असो पोष पाच जानि जाणि । जिसउ करणु इकु दानु तिसउ गुण कामु बलाग्यो । कवि कह ठकुरसी लभणु मै परमस्थु विचार्यो । परभियो त्यहि उपायो जनमु जा याच्यो तिह हारियो ।।३।। ण छन्द समाप्त ।। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर ठक्कुरस्रो २८ शील गीत पारासरु अस विस्वमत्त रिषि रहत दुवइ नि । कंद मूल वणि खंत हुँत पति खीण महा तनि । ते तरुणी मुहू पेखि मयण पसि हुवा विकलमति । पछह जि सरस प्रहारु लिति तह तणी कबरण गति । परिवो जु एक मनहि जि के मनु इंची बसि रहा तहु । विंध्याचल गिरि सापर तरह त मइ मनिउ सम्य सह ।।१।। सिंधु यसह वन मझि मंस आरि यसो प्रति । वार एक वरस में करइ सिंघरणी सरि सुरती। पेखि परे वो पापु आसु मन मुडई न आसुर । खाह खंड पाषाण कामु सेवा निसि वासर | भोयरणु वसेखु नहु ठकुरसी इहु विकार सब मन तणो । सील रहहि ते स्पधं नर नहि पारामति गिणे ॥२॥ || इति शील गीत समाप्त ।। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि डामर्दहाथ स्तवन नुप मससेगह पुत्तो गुण जुत्तो प्रसुर कमठ मउ मसणो । वम्भादेउरि रहणो, वयणो भविरुख भयजस्म ॥१॥ फणि मंडियउ सीसो, ईसो तिल्लोक सोक दुख दुलखो। तन तेय घेण निजित, कोटी खर किरण मह दीप्ति ||२|| जसु सुरपति दासो, चित संसार वासो । सयल समे भासो, सत्त तच्चापपासो । किय मयरण विणासो, टु कमट्ठ नासो । जयउ सुपरपासो पत्त सासें निवासो ।।३।। गुणाण सख्वाण धरं निवास, न ध्यावहि जे नर पाय पास। कहत ये पुज्जे ताइ पास, करंति जे मिछ पहे विसास ॥४॥ जि कि करहि मूढ विज्ञासू । सुर्ण जाइ भोपाभास । खणाति खान जीवा करे हि विरणासु । जिकि कु गुर कुतिय वास । सेवं जाइ जेम दास । चंडी मुडी खेतपाल ध्यावे हि हयास । जि कि पत्तर मनावं मास । ग्रह गति बूझे कास । अवरह मिथ्यात पथ करहि सहास । ताको कहा थे पूजैइ मास । न ध्यावं ले प्रभ पास। चंपावती घानि सम गुणह निवास ॥५॥ सुखसिधामं प्रभ पास नाम । न सिंत जे वंखित सुख राम । तिदुखवंता ससि सूर गाम । मसुदरं गेह नरं निकाम ॥६॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर ठक्कुरसी २३ बिकि दीसहि नर निकाम । उपाइ न सनेमा पठ्या पर घर माह मेरे लिय घाम । परि नारीथ नेह विराम । अधिक करुय साम । नंदण निगुण भरिहहि निरनाम । जाकी कहीय न रहै माम । फिर पीली माम गाम । रोक जिसा रोग पून्या दीस देह शाम | तिह कोयत सही कुकामु । सकिउ न लेह नामु । चम्पावती पास भय सब सुख थामु । जगत प्रधार मणोपहारी। जि ध्यावहिं पासु सुचारु पारी । ति पावहि मानव सुख सारी ।। मनंत लछी गुणवंत नारि ॥८॥ जाक दीस गुणवंत नारि । रूपवंत सीलपारी। मंदरण नुपुणनी काजिसत मुरारी । जाक ह्य गय भहवारि । अन्न धन्न पूरी खारि। कीरति सुजसु जाके जाच्यो खण्ड पारि । जाक कहीयन प्राव हारि। पावै सुख भव पारि ।। दहन दुखी होइ जाकी रोग भारि । तिरिग ध्यायो सही संसारि । मनह जाणे विचारि। चंपावती पासु जगु मा अधारि । पंसाउ पास प्रम मे लहंति । कुसणु कुग्रह तसु कि करति । हवंति जीवा खलु ने नेहवंत । जलं पलं पग्नि सहाइ संत ॥१०॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PCX कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि जाकै पग्नि सील सहाश। नीर निधि यलु थाइ। धके पायो स्यास सम सिंघ हुष आह । नाक मानु देहि स्ठा राइ । अंगुण ति लेहि छाह। विषम सुविसु अंगि प्रभी हुइ पार। जाकी जगतु भली कहाइ । लाग हि न घाख्या घाइ। कुग्रह कुर्संग वसु कछु न बसाइ । ताक भेदु पाया व जाइ। सुखी यति दीसे ज्यादा चंपावती पास प्रभ तणे पसाइ ॥११॥ पास तणं सुपसाइ पाइ पणमंति माइ परि | पास तणे सुपसा थाइ चक्कवह रिद्धि परि । पास तणे सुपसाह समा सिव सुखु लहि । पास तासु पणमंति मंगि पालस कुन कीजै । ठकुरसी कह मलिवास सुरिए । हमि इहु पायो भेदु श्च । जगि जं जं सुवक संपर्ज। तं तं पास पसाज सब ।।१२।। ॥ इति पार्श्वनाथ स्तवन समाप्त ॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर ठक्कुरसी २८५ सप्त व्यसन षट्पद पुहामि पट्टि मसि मेरु, होहि भायण सर सागर । पघस अनोपम लेखि, साख सुरतर गुण प्रागर । प्रापु इंदु करि लिहै, कहै फगि राउ सहस मुख । लिहइ घेवि सरसति लिहत पुरण रहा नहीं खुष । लेखणि मसि मही न उम्बरह, थक्कइ सरिसइ ईद फुणि । प्रायो नवोडु कहि ठकुरसी, सबइ जिणेसरि पास गुरिण ।।१।। जुपा खेसना जूद जुवाख्या धणी लामु, मुरण किवाई नदीसह । मतिहीन मानई खेलि, मत पित्ति जगीसइ । मगु जागाइ दुखु सह्यो, पंच पंडव नरवइ जलि । रामरिधि परहरी, रमा सेविड जुवा फलि । इह विसन संगि कहि ठकुरसी, कवरणु न कवणु विगुत्त वसु । इन जाणि जके जूबा रमै, ते नर गिरिणवि सींगु पम् ।।२।। मांस खाना मुरिख मंस म भखह, तासु कारण किन गोवइ । जहि म्वाद कारण, काइ लषद मउ खोबड । फल प्रासस रस लुद्ध कूडू कीयो न मुणित मरिण । मान्मा उदर विदारि विष वा तापी इहलरिए । में गुण अनंत प्रामिष वहि कवि ठाकुर केता कहै । वगराउ अजज जंगलि मस्खणि नरइ मीच पण दुखु सह ।।३।। मदिरा पान करना मग्नु पिये गुण गलहि जीव जोगै ज्याख्यो भरिए । मशु पिये सम सरिस माइ महिला मण्णहि भरिण । मन्जु पिये बहु दुख सुखु सुरगहा मधुन इव । मज पिये जादव नरिद संकटु कवि गय खिव । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूघराज एवं उनके समकालीन कवि षण घम्म हाणि नरमह गमरमु कलह मूलु भवजस उपति । हारंति जनम हेलाइ मुगष, मज्जु पिये जे विकलमति ।।४।। देण्यागमन वेस्या वरिणयर चारुदत्त परमाणु परिखिउ । सुनया कोडि छत्तीस खद्ध तिन घडी न रखिज । प्रवर किता नर कह ज्याह दिट्ठउ दुखु दारण । गाह हरिवि कवि कालिदास मारिउ निको । तसु संग किये प्रतिषद बहि कुल कीरति छारह मिले । घनु जोचनु कीरति जाइ चलि ज्यों कायर दीठा किले ।।५।। शिकार खेलना पाधि पंचमु विसनु नरई पंचमि पहुचांवइ । जाणत: नर नीचु पेखि पसु मनह सिंहावइ । तिण चरनिरा पराधह सौ न नमनह विचारहि । तुरिय चढिवि वनिजाहि जीव जोवन मदि मारहि । सत्री प्रखत्र करि संग्रहहि पारघि पापु विसाहि बहु । ते सहहि दुखु कहि ठकुरसी ज्यौं धक्कवह सुर्वमु पहु ।।६।। चोरी करना चोरी करि सिवभूति बिधु संसारि विगुत्तउ । तिरिण उण्ड तिनि सहिय पुरावि मरि नरयह पतउ । पवर किता नर सहहि दुखु दारण चोरी संगि । इम जारिणवि परहरहु जिन रुलाया अवगुण अंगि । जपूतपु सनान संजमु सुकतु कल कीरति तीरथ परम् । तज सहल सबे कहि ठकुरसी जई न फुरद चोरी करम् ।।७।। परस्त्री सेवन परतीय परत विणासु सरव दुख दावा इह मवि । जातउ मा बंधु लोउ परहरा तवा नदि । प्रमट सुणो ससारि कपा कीचक्र अरु दहमुख । सीय दोव६ कारणइ जेम भुजिय दह दुख , Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर ठक्कुरसी २८७ यह भइ प्रकिति पुर्यो भवण परति वासु पायो नरह। सलहिये सुनरु कहि ठकुरसी जो परतीय रह रहइ १८) सप्त व्यसन जुवा विसन वनवासि भमिय पंडव नरवइ नलु । मंसि गयो वगराउ सुराखो यो जादम कुलु । वेसा वणियर चारिदत्त पारघि सर्वमुनिज । मोरी गउ सिउभूति वियु परती संकाहिउ । इफेक विसनि कहिं ठकुरसी नरह नीचु नरु दुइ सहइ । अहि अंगि अधिक माह बिसन ताह वली को फह ॥ ॥ इति सप्त विसन छपद ठकुरसी कृत समाप्तं ।। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि व्यसन प्रबन्ध जुवा फेरा फल प्रगट घरं, खिप होहि भिखारी पनी नरं । जिन खेलहु मूरिख हाणि कणी, किन सुरणीय कया पंडवह तणी। सुरिण सीख सयाणी मूढ मनं, तजि विस्न बुरा देहि दुख घर्ण ॥१॥ रसणा रसु स्वादु न राखि सके. पलु प्रासै मूढ़ न परतु तक। वगरीव तणी परि नरय मते, सहि से दुखु तव चेतिसी विते । सुणि सीख सयासी मूढ मनं, तजि विस्न बुरा देहि दुख घणं ॥२॥ जहि पीये भाट अनर्थ कर, जननी मष्ठिला न विचार फर । तहि मजिन पिये भरणु कवणु सुखो, जहि जादव वंसह दिया दुखो। सुरिग सीख सयापी मूढ मनं, तजि विस्त बुरा देहि दुख घणं ॥३॥ विहि वेसा सिरजी नरय घर, घण जोवन कीरति हाणि करं । बहि संग कियो वणि चारुदत्तो, रालियउगरो हद सेज सुते । सुणि सखि सयाणी मूढ मनं तजि, विस्न बुरा देहि दुख घणं ।। ४१५ जोवनि मदि मूरिख जाहि बन, पसु पारिघि मारहि मूह मनं । चकवइ सुवंभर तणीय परे, दुर्गति दुख देखहि मूढ मरे ॥ सुणि० ।।५।। सर रोहण सूली वध धणं, तहि चोरी किये कवण गुणं । प्रभ परयण पुरजण होइ रिपो, किन प्रगट सुण्यो सिवमूति विपो ।। सुणि० ।।६।। इह परतिय परत विणासु करै, इह रत सयल गुरिए दूरि हरै। परहरह जको सुणि रावण कथा, सो लहइ सरत्र सुख विणु अनिथा ।सृणिः ॥७॥ सुणि धर्मचन्द उपदेसु ल ह्यो, कवि ठाकुर विस्न प्रबंध कह्यो । परहरा जको ए जारिग गुरणं, सो लहइ सरव सुख बंछित घणं । सुणि सोख सारणी मूठ मनं, तजि विस्न बुरा देहि दुख घणं ।।८।। ॥ इति व्यसन प्रबन्ध समाप्तः ।। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ---. ....... . कविवर ठक्कुरसी २८६ पार्श्वनाथ जयमाला दाकण नयणारुणु नमविहरे, जिह गय घड भय भग। तह जिण गुण मरिण सुमरंतियहि, थिरूण पाहि उपसंगह। महा दिङ्ग दंत सपाणि पयंडू, चहू दिसि घालीय सूडा उंडु । नलग्गइ हथिगरु ता जासु, परंतह वित्ति चिता । पातु ॥१॥ रावणु देहु सु सह. करालु, दुरा रुण गेत जिसहि विझालु । सुस्याल समौ हरि होइन कासु, परंतह बित्ति चिप्तामणि पासु ।।२।। असु ठियज्माल समीर सहाय, चहू दिसि लग्ग न भगत बाय । न दुवकह नीडा सो जिहु वासु, धरंतह चित्ति चितामणि पासु ।।३॥ करेण छियो जसु जाइन अंगु, भरि विसि लच्छरि किण्ह मुगु । न लग्गा चूरि उसो जिदु रासु, परंतह चिसि चितामणि पासु ।।५।। तरंग सुमुठिय नीरि प्रमाह, भरिउ जल जति न लभह पाह ।। सुहोइ समूदु जिसउ थल वासु, घरंतह चित्ति चितामणि पासु ॥५॥ जिसण्णिय लेस मसिय सिरवाहि, भगंदर सूल जलोदर बाहि । तिरणासहि कोढ पमूह खय स्वास. घरंतह चित्ति चिंतामणि पासू ।।६।। कुसौण जिकु ग्रह कूर कुशेष, कुमित्त कुसज्जन कुप्रभ सेव । करति न ते भय दुख पमासु, धरंतह चित्ति पितामणि पासु ॥७॥ कही चिरू कम्मि किये अरि घधि, भरिउ तनु संकलि धल्लि निरपि । तहत गयो प्ररि करिवि निरासु. थरंतह चिसि चिंतामणि पासु ॥८॥ महा ठग घोर जि हाएणि दुद्र, दिनाइय कम्मरण मत मसुठ । नलगहि लील गमे दिन पासु, परंतह चित्ति बितामणि पासु ॥ लिया सुव बंधव सज्जन इट्ट, उपज्जीह चित्त, रम जिह दिट्ट ! मणं छिय सम्बइ पूरहि पासु, घरंतह चित्ति चित्तामणि पासु ॥१०॥ घत्ता इय घर बइमाला पास जिण गुण विसाला । पहहि जि णर परी, तिण्णि संझा विचारि । कहहि करि प्रनंदो, ठकुरसी पेल्ह नंदो। लहहि ति सुखसारं, वछियं बहु पयारं ॥११॥ ॥ इति पाश्वनाथ जयमाला समाप्तः ।। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० कविवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि ऋषभदेव स्तवन इक्कहि पुरि व्यकिय । दुखि देखि न सक्रिय । हक्कारिउ | पांडव पंच भमंत देश तहि कुंभारि रोवतं पुत्त तासु मरण बोसरइ जाइ श्राप रखिउ जर जगबंतु भोमि रणि राखिउ सुमरिउ । तिम कह ठकुरसी रिसह जिणु तुह निवसंत वित्त परि । जइ जाइन तिय न दोस दुख, तर्बार कहउ इब कासु फिरि ॥। १॥ सुह जग गुर जीतषी तुही बड वैदु विश्वत्रिषु । तुहु गरबो गारुडी सयल बिनुहरहि ततखिणु । तुह सिद्धक्षर मंतु तंतु तुही तिभवरणपति । तुहु संजीवन जड़ी सुही दाता महत गति । इश्वाक वंस श्री रिसह जिरणु, नाभि तस्णु भम भव हरणु । सब अहल अवय कहि ठकुरसी तुडु समरय तारण तरणु ||२|| , ॥ इति ऋषभदेव स्तवन समाप्तः ॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर ठक्कुरसी २६१ कवित्त किसस गरवं भईन भड रिद्धि नि ने ही सूहि किसी। किसी मंप्ति जसु बुद्धि मंदी किसी तुरंगमु बेग विणु । फिसो जति जसु वसिन इंदी किसौ वैदु जो ना लहो । देह व्याषि कर जोइ निगुणी किषण गुण विथरै किसौ कीसरु सोइ ।।१।। ज्यो ऋजणणी जरमणु गुणवंत षियगरुई होण वरु । पेखि पेखि मन में विसूरइ ज्यों सेव कुसेवा किया। होह दुमणु भासा ने पूरइ ज्यो पछितायो जरणा । अवसरि सुजसु न लिख कहि ठाकुर त्यो कवियण नर निगुरा गुण किद ।।२।। नर निर खर निकुलनि लज्जा निनेहीमी चरइ । निगुण सगुण अंतर न जाणं बोल सूक बहुली कहण । विनय वचनु होलि बिन जाणे कूचर कुसर कठोर प्रति । संपक सदासलौम कहि ठाकुर तह गुण कहहि ते कवि लहहि न सोम ॥३॥ सगुण सुबर सदा सद्धम साहमी सनहे कर। सुजसु संचि जे प्रजसु मूकै विना विच खिण बड चिता । बंस सुध बोल न चूर्फ पाप परमुह पर तणउ । परद्द करहि दुखु भनि तह जपु कहाहि मि कुरसी तेरु कवीसर धनि ।।४॥ कहा बहिरट करा रसुगीउ कहा कर ससि पंघलो । कहा कर नरु संतु नारी कहा कर कर हीण नरु । गुण सजुत्त को बडुकारी कहा कर चंपउ भवरू परिमस । परिमल पथि विसाल कहा करै त्यों निगुण नरु कधियण कव रसालु 11|| जद रूवहि रइ सुण्यो नहु गौतु, जद न दि ससि अंधलइ । जई न तहरिण रसु संदि जाण्यो, जइ न भवरू वंपइ रम्यो। जाद न घणकु करहीणि ताण्यो, जह किरिण निगुणि निलखरगो । कब्धि न की यो मम्णु कहि ठाकुर, तउ गुणी मण नाउ जासी सुणु ॥६॥ 11 इति कवित्त समाप्सः । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि पार्श्वनाथ सकुन सत्तावीसी असं धचलवि धवल गलिहार धवलासपु कमलु जसु 1 धवल हंस दाहरिण बइठ वीणा पुस्तक कर लिय । करइ विदुरज जोग तूटी तहि परमेसरि पय कमल । पण विवि निम्मल चित्ति पयडु करिसु चंगवती पास ना गुण कित्ति ॥ १ ॥ एक दिवस पास जिरा गेह महिलदार पंडिय कय । ठकुरसी सुरिंग कवि गुणाल गाहा गीय कवित कह तर किय मय निसुखी समग्गल इव श्री पास जिणंद गुण । बर कम्मा देवी जागी सुथला सोलह निसि ण जरा अ । तु सुवहो सइ अतुल वलु दयाल या कलकडु प्रमयो जाणि जगनाथु । करहि न किं तुहु भच्च जहि कीया ये पाषिए मन बंछित सुख राव || २ || ताम विसिमि कद्दू कवि एम निसृणि मित तसु गुरण कत । सरस्य द्वंदु घरिंदु थक्कच कवि माणस थम्हा सरिसु । लहा कवरण परि कहिवि सक्कड़, परिण तु वयशु न प्रवथ । मू मनि पुव्व जगीस बुषिसार तसु, गुण कहिसु जस कणि मंडिज सीसु || ३ || देस सयल मज्झि सुपधि । जसु पटतर मलंइतविहि । दुढि बुढाहटु नानु श्रखिठ । तह चंपावती वरु जयरु | जहान को जगु वसइ दुखिउ । जैन महोछा महम घण जहि दिनि दिनि दोसन्ति । तहा वस ते घष्णु पर हजरा दिवस कहति ॥४॥ तासु रायरी म... १. पाण्डुलिपि में छन्ब ५ से १४ तक नहीं है । | 1 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर ठक्कुरसी २६३ से गुणवित जिय परमाद । षटु वाहरि षटु भितरिहि । सविउ मुतपु मा दुसह दुसरु । मय अट्ठ परहरि कियो । तेरह विह पारित उबरु । छम्ह चेरु णय विहि चरिउ । दह सिंह पालिउ धम्मु । एम जिणेसर पास अभि। स्वयो पुब कित कम्मू ।।१५।। प्रा परीसह सहिय वाबीस, मरिट्ट कक्कर कणं । थुइ जिंदा सम भार भावण, गुण थाण गुणि बलिउ । नबो कम्मु नहु दिपा पावण, पम अोह पयार तव । सचि उति नीि नाम, पसुर नगर रह गरिद्धि माप दाम ॥१६॥ पित धिमाणिहि वैर संभलिउ । इल भाइ विल गाउ करण । घोर बीरु उसयु दुठज । जान पलिज ता जसुध । जल प्रसंखु बिम सत्त बुढउ । चिरुज बयारु बिसंभरिवि । सो रखिउ परणि । पल इबसमिउ पाचिउ । केवल गाणु जिरिषद ॥१७॥ तहि माविप सयल सूर मिलिवि, जय जय पभणत गिरि । नियवि तह सुरु कमछु णवउ, समोसरण सही साहिउ । बो दोस तजि गुरिण गरिदिउ, चश्तीस तिसय मंडियन । वसु पडिहारू संजोउ, अट्ट फम्मह रिणदिटु तिनि शान नयणि तिलोज १८॥ तवहि दरसिउ मागु कुमगु, बट बन्द सत्तासिन । तव पथय गुण भेउ प्रखिउ, संसार सागरि विषमि । पडत भव्य जनु सयलु रखिउ इम दोहंतउ सबल अगु। पुणु पत्तउ नियरिण, हूको सिंब, वसु गुण सहिउ साझप सुख निहाणी ।।१६।। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ कविवर वृचराज एवं उनके समकालीन कवि तासु जिगर तणउ पडि विषु । ग्रहघात पाल। णमइ । ins कल कल कालि चिषि । ता ता पतिसय सहितु । परत्या पुरण हि समर्थावि । पाणि जु मुति चंपावती । कृन वणि अ तासु परत्यो हउ कहीं । जो मह मह दिट्ठ ॥२०१ जबहि लिद्ध राणि संग्राम, रणथंभुवि दुरंग गढ़ | जय दत्राहिम साहि कोपिङ, बलु बोलो मोकलिउ । वोलु कौलु सषु तेसा लोविन, जब लग उज्झलि हाइमि मे मूहु भय वज्जि विणू चंपाबसी देस सहि गया दह दिसि भनि ।। २१ । F तिवहि कंपिउ सयल पुरु लोउ । कोहन कसु बरजिउ रहह । भज्जि दहइ विसि जाए लगउ । मिलिदि करी तब बीमती । पासलाइ सामी सु धनउ । सबरणा जोतिग बेवलो । चित्तु न मंडई भास । कालि पंचमी पास प्रभ । जगि तुव तणउ विसासु ॥२२॥ तेरा तुहु सिउ कहहि जगनाथ । निसुरिण सिद्धि सुंदरि रखा । इहि निर्मित कर किस कारण । भूत भविषित जारण बुद्ध । तहु समथु जगि तर उच्चावता उपय । हारगु । हि भव देखहि गाह्रौं । अरिन देखहि पास प्रभ होइ कि ||२३|| Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर ठक्कुरसी २६५ एम जंगवि करिवि धूय पूज, मल्लिदास पंडिय पमुह । सईहथा सामी उचायत, तुछ मूरति उची न सितु । हो जाणि सुर गिरि सवायज, इरिश विधि परतिउ वारतिहु । पूरिबि हरी भरांति जयवंतज, जगि पास तुहु जेण करी सुख सांति ।।२४।। तासु पर तेजि के गर भवनी भग्गा दिड रहा । हुधा सुखी से परा यार्स। जो भग्ग मंति करि । दुखि पाया अरु पड्या सांस । प्रवरइ परत्या चहु इसा । प्रभु पूरिवा समथु । प्रजउन जिसु पतिपाइ मनु । सो नर निगुरण निरषु ॥२५॥ इव जि सेवहि कुगुरु कुदेव, क तिथ जि मम करहि । ३वहि जि क पाखंडु मंडहि, धगष्ट धम्मु पावहि न ते । मुनिष अम्मु लउ ति मंडहि, सेवहि जिन चपावती । परत्या पूरण पासु, हरत परत जिउ हुइ सफलु छिन पुरइ ग्रास ॥२६॥ घेल्ह णंदणु ठकुरसी नाम: जिर पान पंकय भसलु तेण । पास युय किय सची जधि । पंदरासय अद्भुतरइ । माह मासि सिय परब दुजवि। . पाहहि गुणहि जे नारि नर । तहि मन पूरइ भास। इय जाणं विण नित्त तुहु । पढि पंडित मल्लिदास ।।२७।। ॥ इति श्री पाश्वनाथ सकन सत्तावीसी समाता ।। 000 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ महाकवि ब्रह्म रायमल्ल भ० त्रिभुवनकोत्ति पर मंगल आशीर्वाद एवं परम पूज्य एलाचार्य १०८ भो विद्यानन्द जी महाराज : समस्त हिन्दी जैन साहित्य को २० भाग में प्रकाशित करने की श्री महावीर अन्य अकादमी, जयपुर की योजना बहुत ही समयानुकूल है । इस योजना से बहुत से प्रज्ञात एवं प्रकाशित जैन ऋवि प्रकाश में पा सकेंगे । सम्पादन एवं मूल्यांकन की दृष्टि से अकादमी के प्रथम पुष्प 'महाकवि ब्रह्म रायमल्ल एवं भट्टारक त्रिभुवनकोत्ति" का बहुत सुन्दर प्रकाशन हुआ है। हमारा इस अकादमी को माशीर्वाद है । समाज द्वारा पकादमी को पूर्ण सहयोग साहित्य प्रेमियों को देना चाहिए, ऐसी हमारी सदभावना है। भाचार्य कल्प परम पूज्य १०८ श्री श्रुत सागर जी महाराज : श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी द्वारा अप्रकाशित साहित्य को प्रकाशित करने की योजना महत्वपूर्ण एवं उपयोगी है। हिन्दी भाषा की प्रभात एवं अप्रकाशित रचनामों को प्रकाश में लाने का जो कार्य प्रारम्भ किया है उसमें अकादमी एवं पदाधिकारी गणों को सफलता प्राप्त हो यही मगल आशीर्वाद है। OOD Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. . . , - - - - - ---". अनुक्रमणिका ___ ग्राम एवं नगर प्रजमेर ४३, २४३, २६१ प्रबन्ती १८५ मैतपुर १९१, २३२ उत्तरप्रदेश ७ उज्जयिनी १८५, २२५ कामा १५ गुजरात गोपाचल १७४ गौछ १८१, २१५ चम्पावती, घाटसू ११, १२, २३, २३८, २३९, २५३, २५५, २६२ चित्तोड़ नगर । अयपुर ११, १८, ३५, ४३, २४३ जसरानो १८१, २३५ बंटीप १९७ ढाड २६, २३९, २५५, २६२,२६२ घूधकनगर ३ नग कैलाई १८०, १६६, २३ नावा ८ पमान प्रवेश ७, ११, १५, पाटण ३ फकोदुपुर (फफोंदु) १६३, २३६ ददी १८, ३२, ३५ बीकानेर १० महाराष्ट्र महला १५२ रणथंभबि २५३, २६४ राजस्थान ३, ७, १० ११, १२, १८ रायमेह १९७ सौहार १८१, २३५ स्कंध नगर ५ हिसार ११, १२, १८, ८६ हस्तिनापुर १२ - कवि, विद्वान् एवं श्रावकगर प्रजब बेग भट्ट १ प्रमयचन्द १८१, २३५ इब्राहीम साह २५३, २६४ ईश्वर सूरि १, सदयभातु १ उसोतन सूरि १८२ कनीर १,३८ काधिल (साह) ११ कासलीवाल (0) १२ कुन्दकुन्धारार्य ११ केशव(महाराज) १ कृपाराम १ कृष्णनारायण प्रसाद १२६ माश्वास जन १, २, १७६. १६६, २५६ गोपीनाथ । गोस्वीमी विट्ठलदास १ पतुरुमल १, २, १५८, १५६, १६१, १५५, १७६, १७७ मुनि चन्द्रलाभ १ मारुचन्द्र १० Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि छीद्दल १. १२१, १२२, १२३, १२४, पं० परमानन्द शास्त्री २३७ १२८, १२६. १३१, १३२, १३३, पार्वचन्द्र मूरि १,. १३४, १४०, १४१ १४२, १४३, पूनो १ १४४, १४५, १४६, १४७, १४८, ० प्रभाचन्द्रदेव ११, १२, ३१, २५५ १४६, १५०, १५१, १५२, १५४, बा प्रेमसागर जैन २३७ १५५. १५६, १५७ बनारसीदास १३० जनकु १८१ बालचन्द्र १, ब्रह्म जिनदास २, १८३ Qचा, बूवराज १, २, १०, ११, १२, जिन हर्ष १३० १३, १८, २३, २४, २५,३०,३१, भ० ज्ञानभूषण १ २, १८४ ठक्कुरसी १, २, २३७, २३८, २४७, ८६,, १०१, १०५, १०७, २४८, २५३, २५५, २६१, २६२, १०८, ११४, ११५, ११६, ११७, २६७, २७१, २७२, २८०, २१, २८४, २८७, २८८, २८६, २६०, भक्तिलाम १० २१२ भारग साहु २३६ डूंगरसी १३० मुवनकोत्ति ११, ३१, १०७ थेघु साह १८१, १६६, २३६ मुल्लन २५५, २५६ पं० तोसण २५६ मनिशेखर १३० दयासागर १३० मंझन १ पांडे देवदासु ७७, ६० मलिक मोहम्मद जायसी ? देवलदे १५१ पं० मल्लिदास २५५, २५६, २८६, मुनि धर्मचन्द २८२ २९२, २६५ मुनि धर्मदास १, ४, ५ मान सिंह १७४ वाचक धर्मसमुद्र प्र० माणक १३० बेल्ह कवि २३८, २७१, २७२, २६५ मिश्रबन्धु विनोद १, ८, १२१, १७६ नरवाहन १ मेघु १८१ नाथूराम प्रेमी २३७ मेलिग १ ३ निपट निरंजन १ ब्रह्म यशोधर १, २, ८ नाथू १५२ महाकधि रइधू १६० नाथूसि २५५, २५६ भ० रलकीत्ति ११, ३१ पदम ४,५ उपाध्याय रत्नसमुद्र १ भ० पमन्दि २६ राजशील उपाध्याय ६ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका २६६ महाराज रामचन्द्र ११, २३६, २५६ रामदास ४, ५ रामचन्द्र शुक्ल १२१, १३० रामकुमार वर्मा १२१, १२२, १२४ लालदास १ बल्ह १३, २२, २५, ६६, ८६, १०, १०८, ११२, १२० वल्हव १३ वल्पनिक ण अग्रवाल १५८ भ- विजयकत्ति ७ वाचक विनयसमुद्र १० विमलमूति १, ३ बाचक विवेकसिंह शान्ति सूरि ८ भ० शुभचन्द्र १, २, ७ डा० शिवप्रसादसिंह १२२, १२३, १२४, १२५, १३२, २३७ स्योसिंह १५२ भ: सकलकत्ति ३१, १८२ सरो १२ सहजसुन्दर १, २,६ सिवमुख १ सुन्दर सूरि ३ भः सोमकीति ८, १५२, १८३ प्रष्टाह्निका गीत ७ आदीश्वर फाग १८४ मात्मप्रतिबोध जयमाल १२३ प्रात्म रागरास ६ आराम शोभा चौपई १० उत्तमकुमार चरित्र १० इलातीपुत्र सम्झाय ६ उदर गीत १२४, १३४ भदेव स्तवन २६१, २६० ऋषि दत्ताराम ६ ऋषभनाथ गीत २४० कुलध्वज कुमार ६ कवित्त २४०, २६१, २९२ कुवलयमाला १२ कृपण छन्द २३७, २३६, २४०, २४८, २७३,२८० सुरग रत्नाकर छन्द : गुणाकर पौपई ६ चिन्तामणि जयमाल २४०, २४८, २७२ चेतनपुद्गल धमाल १३, २४, २५, २८, ३१, ३६, ४१, ४२, ७०, ६० जिगदस चरित्र २ बन चवीसी २४०, २५४ टंडारणा गीत १३, ३० ४१ तत्वसार दूहा ७ दान छन्द ७ धर्मोपदेश श्रावकाचार ४,५ नेमि गीप्त ८,१३, ३१ नेमिनाथ छन्द ७, ८ नेमिपुराण १५६ नेमिनाथ वसन्तु १३, २६, ३२, ३६, ४१ नेमिराजमति वेलि २४०, २४१, २६४, हितकृष्ण गोस्वामी १ छ। 0 हीरालाल महेश्वरी १२२ हेमरश्न सूरि ३ हेमराज १३० होरिल साह ५ __ कृतियां अम्बह चौपई १० Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि नेमिश्वर वेलि 241 नेमिश्वर का उरगानो 156, 160, नेमिश्वर का बारहमासा 87 पञ्चसहेली गीत 121, 123, 124, 128, 126, 135 पदम परित्र 10 पमावती रास 10 पंथी गीत 123 पुण्यसार रास 3 प्रयम्न चरित्र 2 पञ्चेन्द्रिय वेलि 237, 240, 241, 268, 271 पंथी गीत 123, 153 पारवनाथ गीत 102 पार्श्वनाथ जयमाला 261 पार्श्वनाथ स्तवन 240, 283 पावनायसकुन ससावीसी 240, 253, 262, 295 प्रशस्ति संग्रह 12 बलिभद्र पौपई 8 बावनी 123, 124,132, 133, 141 बारहमासा नेमिश्वर का 1, 3, 23, 32, 36 42, 87 बुद्धिप्रकाश 238 भुवनकीत्ति गीत 13, 30, 106 मयजुज्झ 11, 12, 13, 14, 17, 18, 19, 22, 31, 36,42, 43, 45 मल्लिनाथ गीत 8 महावीर छन्द 7 मेघमाला कहा 238, 240. 241. 255 मृगावती चौपई 10 यशोधर परिब 150, 182, 183, 165 राजस्थान का जन्न साहित्य राजवात्तिक 12 राम सीता परिषद लघु वेलि 123, 155 ललितांग चरित्र विक्रम चरित्र चौपई विजयकीति छन्द 7 विशालकीति गीत 238, 236 वीर शासन में प्रभावक प्राचार्य 8 वैशम्य गीत 124, 134, 156 व्यसन प्रबन्ध 236, 240, 287 मशील गीत 240, 281 सज्झाय 1 संतोष जयतिलकु 11, 12, 13, 18, सम्यक्त्व कौमुदी 11 सप्सव्यसन षटपद 240, 285 सुदर्शनरास 3, 6 सुमित्रकुमार रास 1 सीमंधर स्तवन 240, 241, 263 हरिवंश पुराण 156 जाति एवं गोत्र प्रजमेरा 216, 240 खणेलवाल पहाडिया 238, 240 बाकलीवाल 240 साह 240