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कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि
जिनवर जपत मरन जो होइ, याते भलो न भायर कोइ । सो किम भायर दीजे छाडि, हो सन्यासु रही मन माहि ॥६५॥
गाथा
मुणि भोगेन दचं सन्नासे गय पानं
जस्स सरीरं पिवीतु नव परणं । तन्नगय कि गयं तस्स ||८६।।
दा
बोर सिरावमह्यो, भायर बहिनि मोनु तब गह्यो । गहि कर किंकर चाले घीठ, मारिदत्त कारज मन इठ ||६॥
चंडमारि देवी का वर्णन --
एहु चले देवी के धान, जीव जुअल जहे बंधे मान । बाजहि वाजे समिको दुनो, नाचहि जोगी अरु जोगिती ||६८ || वाजहितुर भयान भेरि जनो जम् त्रिभुवनु मारे घेरि । जह देवी बैठी त्रिगराल, मंड पुछ यो महिष की बाल ||६|| हाथ त्रिसूलु सिंह प्रारुही, मुंडनु को करि काठो गुही । वरदे दंत जीह वाहिरी, वारवार मुखु वा परौ ||६|| अरुण नयन सिर सूधे वार, जानहूवरं श्रगितिकी ज्वाल | afre उबटनों जाके अंग, श्रास पास बिढि रहे भुजंग ||११|| आमिषु भषे उठ नरकाव, महू नस केले परी जाइ । करि कटाप जय देवी हसो, पेषतं गर्भुनारिको से २
जीव भषण को अति प्रातुरी, जनी जम रूप आणि श्रवतरी । पेषत परी भिहावन ठोस्, नीको कहा तासु महि श्री ||३||
श्लोक
भयभीत सदा कुर्य नियोपलभक्षिती । निश्विनी जीववातिश्चेदृशी कस्म भये प्रिया ॥ ६४ ॥
साधु साध्वी की सुन्दरता का वर्णन
जह योगी राजा नर ओर, कुमरु कुमारि सकोमल अंग, नर वेमन पेो श्रवलोक, अमर पुरंदरु को ससि सुरु,
गहि किंकर लाए तहि ठौरा । केसरि चंप कुमुम सभ रंग ||१५|| मनुव जुवलु इह्नि रूपन होइ । क्रिम प्रनंगु मानिनि मनचुरू ॥ ६६ ॥२