________________
१४5
कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि दोलि कुभ जे प्रमी, सोद पूरंति सुरा जसि । कसतूरी परिहरइ, नोच संग्रहइ कधू पलि । कंचरण पीतलि तणो, जहाँ कोइ भेद न जाण । तरूवर अंब उपारि, अरंड रोपे तिहि पाएँ । गुण छोडि निगुण जड़ मानिये, जस तजि अपजस संचिर्य । सो थान सुकवि छीहल कहै, दूरन्तर ही बंचिये ।।३३।।
पिसि वासर जिय आस, बस उन बदन केरी । चंचु न बोरइ प्रवर, ठांउ नदि तिथ्य घनेरी । आदर विण घर सलिल, पिष्षि परिहर इ ततच्छण । सरवर निर्भर कूध, सीस नाव न विचच्छरण । धीहल्ल कहा गल गज्मि करि, जो जल उहरि देइ धन । चातक नीर ते परि पिय, न तो पियासौ तजे तन ॥३४॥
तरू की फुहर्कत, कार ऊंची मदहो। कोमल फल सजि मूह, जाइ नालेर बट्टो । छुधा प्रबल तनि भइ, ससन कंह ठुकज दिन्नी । प्रासा भद निरास, चंचु विधना हर लिन्नी । मति होए पंषि छहल कहइ, सिर धुनि रोवह भरि नयण । सुक जेम सु नर पछिताद हैं, जे होइहि संतोष बिरण ॥३५॥ थौरी थौरो माहि, समय कछु सुकुति कीजइ । विनय सहित करि हित्त, वित्त सारं दिन दीजह । जब लगि ससि सरीर, सुद चिलसह निज हस्थहि । मुवा पढ़ लंपटी, लस्छि लग नहिं सत्यहि । छोहल कहइ वीसल नृपति, संचि कोडि उगणीस दश्च । लाहो न लियो भोगब्बि करि, अंतकाल गो शांडि सम्व ॥३६।।
दरखु गाडि जिन परहि, धरो किछु काम न आषद । दिलसि न लाहो लेइ, सु तो पाछे पछलावइ । नर नरिंद नर मुनि, संचि संपइ जे मूवा । ते वसुधा मैं बहुरि, जनमि सुकर के हूवा । धमकाज अधोमुष दसन सिउ, घरणि विदारहि रमणि दिन । छोहल्ल कहा सोचत फिर, कहून पावहिं पुण्य विण ।।३७।।