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कविवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि
पंच मंगल धुपाइये, यह तजि कुवरि निधारी मोह । दीक्षा घरऊ मोहि व्रत देउ, नेमि पर जिन वंदिहीं ॥३६॥
ल संजम व्रत ध्यानु धराहि, जो परजानि से हारि कराइ । अग्य गुनु गहि निर्मली, इहि विधि कर्म दसन सौ करे । राजल नेमी चलत नित घरं । नेलि कवर जिन वैदिह ।।४।।
मेमि वह राजमती नारि, दुह संजम लियौ पति गिरनरि । तीनि भुवन बसु मंडियो, अरु तिन उपजो केवल ग्यानु । सुरनि सहित सुरपति अकुल्यानु, करन महोछो आयो इन्द्र । पूजा नित सेवा कराइ, पंच सक्द तल रसी बजाइ । कलस प्रठोसर धरियो पाई, करि मारतो घर बुजवंदियो। समोसरमु स्वामी को कियो, सुर मर केतिक पाईयो। गन गंधर्व बीद्याधर जछि, जादौ सयलति राई संषि । नेमि कुवर वंदिहौं ।।४।।
बनी इन्द्र तवही तिनि कियो, सुनतई न जग मन भयो। शीव निदा नदि ते भाऐ, ज स यदु तिल लोकह भए । जे जसवर तिहु लोकह भए, पंचम गति सीढत सुभयो । नेमि घर जिन वंदिहीं ॥४२॥
प्रशस्ति--
श्रावगु सिरीमलु पर जसवंत, निह जिय धर्म धरंत । चरु नलम भवि वंधती, पुत्र एक ताके घर भयो। जनमत नाज चतुर तिनि लियो, जैन धर्म दिनु जीयह घरी। नेमि चरितु ताके मन रहै. सुनि पुरानु उस्मानी कहै । नेमि कुवर जिम वंदिहौं ।।४।।
माधि देसु सुख सयल मिधान, गढ़ गोपाचलु उतिम ठानु । एक सोवन की लेका जिसि, तावह राउ सबल पर वीर । मुववल भाप जु साहस धोरु, मान सिधु जग जानिय । ताके राजु सुखी सब लोगु, गज समान करहि सब भोगु । जैन धर्म बहु विधि चलं, श्रावग दिन जु करे षट् कर्म । निहर्च चितु लाहि जिन धर्म, नेमि अवर जिन बंदिही ।।४४ ।।