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नेमिश्वर को उरगानो
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होइ विथा प्रति पिय के नेह, वाउ सरीर सहाबानी । तपती अधिक पिय बुम बिनु होय, हंस उडत न राखे कोई । निसि वासर गुन तुम्हेरी, सातल पवन तुम्हारे कंत । सुनत हहि सुखु होइ तुरन्त, नेमि कु घर जिन बंदिहाँ ।।३।। ए षट् रितु को सके सह्मारि, उपज दुषु तुमहि सम्हारि । ययौं फरियहु मनु राषि है, रहि है पास तुम्हारे देव । करि, चरन कमल नित सेव, नेमि कुंबर जिन दिहीं ॥३४॥ जादो राइ भने सुनि वैन, सवनु करहु कंत भरि जल नैन । हम मनु संजमु दिदु धरै, तुम प्रति गाहु कत करी बहूत । राजु कर हु धर सखिनि संजुत्त, नेमि कुबर जिन बंदिहाँ ।। ३५।। सब सुमि राजुल चिलखी होई, तुम विनु स्वामी गैहै कोइ । साथ सहित संजमु धरौ, अरु भावक अत कर उपवास । और सर्व छाडौ हम प्रास, कष्ट बहु विधि ही सही। कर दया मो ये उपदेसु, ज्यो सिरिए संसार असेसु । नेमि कुवर जिन बदिहौं ॥३६॥
यह सुनि दौले त्रिभुवन नाथ, धर्म सनेह रहै हम पास ! मनु निहचल करि रायो, सुनह कुघरि संसार असारु । भव राग्यरु जल गहीर प्रपार, धतुर्गति गमनु निवारियो । जीव छी चौरासी जाति, सह वहुत दुषु अंन मन भाति । भ्रमतनि धेनु न पाइएँ, रहट माल ज्यों यह जीव फिरै । रूप भनेक घहत विधि कर, नेमि कुवर जिन वंदिहीं ॥३७॥
अब सपिकिंतु धारियो दि चितु, मोख मुगति जो लह्ह तुरन्त । परु परिहरि मुनि सुन्दरी. चेतनि सुन्दरी सम फरह गुन जासु । ध्यानु धमह जानी दीनो तात, मिथ्या मोहवि परिहरौ । पंच परम गुरु जघु पाह, जीव दमा जीवटु तय राह । नेमि कुवर जिन वंदिहीं ॥३८।। पालउ पाठ मूल गुन सारु, सात विसन तजि तिरि संसार । वर प्रनोबत दिन करहु, अरु ग्यारह प्रतिमा जिय धरी। श्रेपन क्रिया करि भव तिरी, मुन प्रस्थान चौदह चढौ । ए श्रावक व्रत कोहि सारु, जिहि त कुवरि तिरी संसारु ।