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कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि
दिहि देखि प्रहल्या इदो, तनु विकल गई मति मंदो। दिठि देखि तिलोत्तम मूल्यो, तप तपिउ विधाता खोल्यो। ए लोयण संवट झूठा, वरज्या नहि होइ अपूठा । ज्यो वरज ज्यो रस वाया, रंगु देखें पापणु भाया । लोयगह दोस को नाहि, मन प्रेरै देखण जाही । जे नयण दुबै बसि राल, सो हरति परति सुख चाख ॥४॥
बोहा
बेग पवन मन सारिखो, सदा रहे भय भीतु । बपीक बाग मास्यौ हिरण, कानि सुणतो गीतु ।।
छंद
सौ गीत सुणती कान, मृग खली रह्यो हैराने । घणु चि बघीक सरि हरिणयौ, रसि वीघौ घाउ न गिणिगी। इह नाद सुरांतो सांपो, विल छोषि नीसर्यो प्रायो । पापी घडियालि खिलायो, फिर फिर दिनि दुख्य दिखायौ । कीदुरि नाद नर लागै, जोगी हइ भिष्या मांग। वाइडहि न ते समझाया, फिर जांहि घण। धरि आया । इह नादु तणौ रस असो, जगि महा विषम विसु जैसो । बह नावि जिके भरि भिलिया, ते नर त्रियवेगिन मिलिया । इह नाइल रवि रातो, मृम गिम्यो रही जीत जाती। मृग भाव उपाव विचारो, तो सणणउ नानु निवारे ५५५ ।
दोहा
अलि गजु मीन पतंग, मृग एके कहि दुख दीघ । जाइति भो भी दुख सहै, जिहि वसि पंच न किद्ध ।
छंद
जिह पसि पंच न किरिया, खल इन्द्री अवगुण भरिया । तिहि जप तप संजम खोयो, सतु सुकृत सलिल समोयो ।
१. सिय वंगिन