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कविवर ठक्कुरसी
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घर फोर पाडे बाटा, निति करै कपट घण घार । मुखि भूठ सांच नहि बोल, घर छोरि दिसावर डोन्ने । कुल अब नौर नजि लेखे, मूरख जहि तहि मिलि भेलं । वह रसना रस के दीर, नर कुम फूण फर्म न कीए । रसना रस विष प्रकारो, बसि होइ न मोरण मारी । जिहि बहुर विष वसि फीयो, तिहि मुनिष जनम फत सोयों ॥२॥
प्रारण इन्द्रिय
दोहा
कमल पहठो भ्रमर यिनि, घाण गधि रस राहु । रणि पसी सो संकुच्यो, मीसरि सक्या न मूढ ।।
छंब
अति प्राण गंधि रस रूढो, सो नीसरि सक्यो न मूहो । मनि चितरपरिण सवायो, रस लेस्यों मजि पचायो । जव उगैलो रवि विमलो, सरवर विकस लो कमलो । नीसरिया तव इह छोडे, रस लेस्यों प्राइ बहधे । चितवत ही गज मायो, दिनकर जगवा न पायो। जलि पंसि सरवर पोयो, नीसरत कमल खुमि लीयो । गहि सुडि पाय तलि पंप्यो, मलि मार्यो पर हर कंप्यो । इस गंध विर्ष छ भारी, मनि देखह क्यो न विषारी। इह मंच विर्ष वसि हुवो, अलि महसु अस्वटी मूवो 1 मलि मरण करण दिति दीजे, तर गंध लोभ नाहि कीजे ॥३॥
चल इन्द्रिय
रोहा
नेहु अपगलु तेल तमु राही वचन सुरंग । रूप जोति परतिय दिर्व, पहिति पुरुष पतंग ।।
पडहिति पुरुष पतंगो, दुख दीवै दह इति अंगो। पहि मोह सहा जीष पाख, दिटि चिन मुरख राखे । दिति देखि कर नर चोरी, दिठि देखित के पर गोरी। विठि वेक्षि कर मर पायो, दिठि दीपा संतापो ।