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कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि
अवर किता नर कहउ ज्याह संघीह त्याह हारयो । इम जाणि कंत प्रथ सहरण जिन मुकहि करि कठिण मनु । ज्यो । नमितु तणइ धरिइ इछयो होइ प्रनंत धरणु ।।१५।।
कह कृपणु मुरिण मूष भेदु अणु लहइ न पायो। घन बिनु कोह न सगौ पूत परियण तिय बंधव । वन विणु पंडितु मीधु विधाषित मंजलि पीणो। षण विवि तिय हरिचंद राह देचा पुरि राग ।
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नारि कहै सुरण कंत जर्फ दाता रहवा घर । करण भोज विक्कम अजो जो.............! नर सम सदा अपवित सम सामही प्रसीगो ! सूमन ले कोड नाउ तालसिरि दे सब कोणौ । दातारि कुपरिण यह अन्तरी लीज ज्यो क्यों लेहि फलु । नातरि धन गुण वजन जन भौन भरि अंजलि करि देहि बलु ।।१७।।
कहा कृपण करि रोसु काई घण धीर ठापि संचाहि । मू पर जाता रहै हठ पापणी न छई। करहि पराई होस जाह घरि लछि अलेखे । अठि भेदु ना लहहि पाप घर दिसे न देखे। नित जठि बात अपिहि सयाणी ज्यांह चले मझ कंपणी। ते गलौ हाय जिह खरषि जे लछि पाई पापणी ॥१८॥
कहै नारि सुरिण कंत पनि सो जगती आयो । जहि नर करि प्रपणे वित्त विलुसियो एपायो। होर न कीज्य पापु पुण्य की छोर करता । होइसु जसु संसारि परति संचलो भरम्ता । परि हुई लछि पुणि पहिल के पोहण खर्चे प्रापरणो । ते नर अचेत त्या महीं दसिया संप सापिणी ॥१ तबाह कृपणु करि रोस हसि घर वाहिरि चलीयो । वाम एकु सामहो मंतु वरि मेली मिलियो ।