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१६८ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि नेमिकुमार का प्रश्न-.
नेमी भने हरि सुनहु विराम, जीव कहाए बहुत अपार । कोन काज ए घेरियो, कारनु कषनु सुनौ वटवीर ।
बहुत चिता मो भईय सरीर, सांचउ वयनु प्रगासियो । नारायण का उत्तर
भनहि नाराइनु सुना कूवार, जीनर सोइ होद संधार । वह ज्योनार रचाइचीयौ, यथिए जीउ मह लईहि काज 1
भोजन कराह तुम्हारे काज, नेमि कुवर जिन वदि हो ।।१२।। मेमिकुमार का वैराग्य
भयो विरागी सुनत हरि वयनु, प्रसौ व्योह कर अन काबनु । कंकन मुकर जु परिहरे, झाडी प्रर्य भंडार मु राजु । जीव सइल मुफराळ माजु, ध्याहु छोडि तपु सुगपो । रथ त उतरि घले बन मोरि, कर कंकन सव डारे टोरि । नेमि कुवर जिन यदि हो ।।१३।। जानिउ सयल ससार प्रासार, छोडि वाले सब राजू भंडाम । वित वैराग जु दिद धरी, गो गिरनरि सिपिरि पर वीरु । चौधा जो साहस पीर, भुवनु सानु देखियो । उत्तिम ठाऊजु प्रासनु देहि, लोभु मानु जे दुरि फरेहि । निहायल मनु करि सोश रहै, पंचम महानत संजमु घरं । कष्ट सरीर बहुत विधि करै, सीस सुमति जिहि जिय घसी। नेमि कुवर जिन बंदि हो ।।१४।। जोग जुगति सौं ध्यान कराइ, चो में गमनु कि वारियौ । मनु इन्द्र पंची निगहे, कर्म तारासु परम पदु लहे । नेमि कवर जिन बंदि हौं ॥१५॥ नेमि कुवर गिरनयरिहि, जादौ सगल विलखित भए । कन्हर मनु यानंद भए, उग्रसेनि दुख करहि अपारु 1 कियो हमारी सुव भयो प्रासरु, नेमिक वर जिन वदिष्ठौ ॥१६॥
राजुल का विलाप
राजुस देवी तवि सुधि लही, दासी बात जाइ तब कही। नेमि सुनौ गिरि सो गए. सुनत वासु मुछिय जाइ ।