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कविवर बूच राज एवं उनके समकालीन कवि
धन्य ति नर सलाहिजे, जे हि परकज्जु संवारण । भीर सहै तन झापु, सामि संकट्ट उवारण । कंधो घर कुल मज्झि, समा सिंगार सुलवत्रण । विनयवंत बड-चित्त, अवनि उपगार विचष्षण । माचार सहित प्रति हित्त सौ, धरम नेम पाल धणो । पर तहणि पेडिष लीहल कहै, सोल न घडइ प्रापणौ ।।५।।
प्रयनि भमर महि कोई, सिख साधक अरु मुनिवर । गण गंधर्व मनुष्य, जिष्य किन्नर मसुरासुर । पन्नग पावक उदधि, भार तरुवर प्रष्टादस । ध्रुव नषित्र ससि सुर, नन्त सब वर्षे काल बस । प्रस्ताव पिडित रे नर चतुर, तां लगि कीजद कंच कर । तिहु मुवन मज्झि छोहल कहा, सदा एक कीरति प्रमर ॥६॥ प्रावति जाचक पेखि, द्वार सम घेहु मूह नर 1 मिष्ट वयण बुल्लियाई, विनय कोजइ बहु प्रादर । दिन दस अवसर पेखि, वित्त विलसिय सुजस लगि । षिण रीती षिरण भरी, रहिटी घटी सारिस लगि । चिरकाल दसा निहचल नहीं, जिमि ऊगई तिमि आथमण । पलटिय दसा छी हल कहा, बहुरी बात पुच्छे कवण ।।७।।
इन्दी पंघिय प्रध्यि, सकति जब लगि घट निर्मल । जरा जंजीरी दुरि, घोण न हुने पायुबल । तज लगि भल पण, दान-पुण्य करि ले बिचष्षण । जब जम पहुँचद प्राइ, सबै भूलिहा ततष्षिण । टीहल कहइ पाबक प्रवल, जिमि घर पुर पट्टण सहइ । तिणि काल कूप जो सुद्दियइ, सो उद्यम किमि निरवहा ।।८।। ईस ललाटई मझि, मेह कीयो सु निरन्तर । चहु दिसि सुरसरि सहित, वास तसु कीजइ अन्तर ।
१. आधार २. ध्र मब प्रह ३. संपति बार बार