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________________ बावनी १४३ पावक प्रवल समीपि, रहइ रखवाल रयरिए दिन । प्रतिहार विसहर बलिष्ट, सोवइ नहि इकु छिन । अति जतन छीहल कहै, हर मस्तक हिमकर रहा । पूर्व लेख चूक नहीं, तऊ राहु ससि को ग्रहइ ।।६।। उदरि मजिम यस मासु, पिड पाइय- बहुत दुख । उर्घ होइ दुइ चरण, रमणि दिन रहद प्रधोमुख । गरम अवस्था अधिक जाणि. चिंता चित चित्त । जो छुटो इहि बार, बहुरि करही निज सूकुत । बोलइ जु बोल संकट पहइ, बहुरि जन्म जग महिं भयो । लागी जु बाउ छोहत जिन: सर्व मृद बीस र सयौ । ऊसरि फागुष मास, मेह बरसइ घोरकरि । विधवा पतिव्रत तमो, रूप जोबण आनन परि । कवियण गुण विस्तार, नपति अविवेकी भागे । सुपनन्तर की लच्छि, हाथ प्राव नहि जागे । करवाल कृपण कायर करह, सुग्न गेह दीपक ज्यु' । कवि छोहल पकारम एह सव, विनय जु कीज्ये नीच स्यु ।।११।। रितु ग्रीषम रवि किरण, प्रबल प्रांग इ निरन्तर । पावक सलिल समूह, पथर झिल्लर धारा घर । सीतकाल सीतल तुषार, दूरन्तर टाल्यउ । पत्त सही दुखत्य, अधिक मित्तप्पण पाल्यउ । रे रे पलास छोहल कहे, कि कि जीवन तुझ तयो । फुल्लयो पत्त अब मूढ लजि, ए मजुत्त कोधौ धौ ।।१२।। रीति होइ सो भर, भरी खिण इक व ढालं । राई मेर समाणि, मेर जड सहित उचाले । उदधि सोषि धल कर, यहि जल पूरि रहै अति । भूपति मंगावइ भीख, रंक कू थप छत्रपति । सब विधि समर्थ भजन घडन, कवि घोहम इमि उच्चरं । इक निमिष माहि करसा, पुरुष करण पर सोई करै ।।१।। १. देखिये २. सुनि मेह दीपक ज्यु
SR No.090252
Book TitleKavivar Boochraj Evam Unke Samklin Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year
Total Pages315
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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