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कवियर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि
लिषा तपाइ परमाणि, राम लवण बनवासी । सीय निसाघर हरी, भई द्रोपदि पुनि बासी । कुती सुन वैराट गेह, सेवक होइ रहिया । नीर भयो हरिचंद, नीच घर बह दुख सहिया । प्रापदा पनी परिग्रह तजि, भ्रमे इकेलउ नृपति नल। छोहल कहह सुर नर असुर, कर्म रेष न्यापर सकल ॥१४॥ लीन्ह कुदाली हत्थ प्रथम, पोदिया रोस करि । करि रातम आस्व, घालि पाणियर गूरण भरि । देकरि लत्त प्रहार, मूल गहि चक्क चढायो । girineerfex.fii. R पर यधिक मुकायो । दोन्हीं जु अगिनि छी हल कहइ, कुभ कहा हां सहित' सब । पर तहरिण भाइ टकराहणो, ए दुख सालाइ मोहि अब ॥१५॥ ए जु पयोहर जुगल, अनस उरि मजिक चपना। प्रति उन्नत भति कठिन, कनक घट जेम रवत्रा । कहिं छील षिण इनक, दृष्टि देषतां चतुर नर । परणि पडइ मुरझाइ, पोर उपजत चित अन्तर । विधना विचित्र विधि चित्त करि, ता लगि कोन्हउ कृष्णमुख ।
होय श्याम बदन तिह नर तणो, जो पर हृदय देइ दुख ॥१६॥ ए ए तू मराज, न्याइ गरुवत्तण तेरो । प्रथम विहंगम लच्छ, आज तह लीयो बसेरी। फल भुज रस पिमे, अदर संतोषइ काया । दुष्प सहै तन अप्प, करछ अबरन कूछाया । उपकार लग छीद्दल कहइ, धनि धनि तू तरुवर सुयण । संचइ जिमि संपह उदधि पर, कज्जि न प्रावै से कृपण ।।१७।।
अमृत जिमि सुरसाल, चवति धुनि वदन सुहाई। पंषिन मंहि परसिद्ध, लहैं सो अधिक बड़ाई । अब वृक्ष मंहि बसर, ग्रसइ निमल फल सोई । ये गुण कोकिल अंग, पेषि बंदहि नहिं कोई ।
१. भन्य।