________________
२. बावनी
ओंकार प्राकार रहित प्रविगति अपरस्पर अलख पजोनी संभ, सृष्टिकरता विश्वम्भर । वट घट अन्तर वस, तासु चीन्हरु नहि कोई । जल यति सुरगि पर्याालि, जिहां देखो तिहुँ सोई । जोगिन्द सिद्ध मुनिवर जिके, प्रबल महातप सयो । छीहल्ल कह भस पुरुष को, किण ही अन्त न लद्धयरे ॥१॥
नाद श्रवण घ्यावन्त, तजइ मृग प्राण ततविण । इन्द्री परस गयन्द वास अलि मरह विचष्षण । रसना स्त्राव बिलग्गि, मीन as देषम्या | सोमण लुबुध पतंग, पहड़ पावक पेषन्ता । मृग मीन मंबर कुंजर पतंग, ए सब विणसर इक्क रसि । छील कर रे लोइया, इन्दी राय अप वसि ||२||
मृग बन मज्झि चरति डरिउ पारधी पिक्खि तिहि । जब पाछिउ पुनि चल्यो, वधिक रोपिय फंद तिहि । दिसि दाहिणी सु स्वान सिंह ज्यु सनमुष धावै । वाम प्रगति परजलिय, तासु मय जाग न पावें । छीहल्ल गमण ' दिसि नहीं, चित चिंता चित हरण । हा हा देव संकट परयौ, तुझ बिन प्रवर न को सरण ||३||
}
सबल पवन उतपन्न, भगिनि उडि कंद दहे सन । ततषिण धन बरसंत तेज दावानल गौ तब । दिसि दाहिणी जु स्वान, पेषि जंबुक को घाउ | जब जान्यो मृत जात, चित्त पारधी रिसायज । तारांत धनुष गुरण तुट्टिगो, दिसि च्यारउ मुगती भई । छोहल न को मारवि सके, जिहि रषण हारा दई || ४ ||
१. अमचिन्त २. खाए