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कविवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि
भोतन साठी ज्यु तप विनही अवगुन मुझ सु
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देखिइ केली तर वर्ष,
बालंभ उलटा हु रह्या, परउप
नयन कुबइ मद चारि । कस कर रह्या भरतार ||३६||
इस विद के कारणइ धन बहु दारू कीय चित्त का चेतन द्वाहत्या, गया पीपरा लेय जीव ॥४१॥
विरह लगाई
माता योवन फाग रिति, परम पीयारा दूरि । रलीन पूरी जीयकी, मरउ विसूरि विसूरि ॥४२॥
सुनारिन की व्यथा -
छारी खाद ||४०||
हीरा भीतर र रहु, कम वर्गेश सोस । बहरी हुआ बालहा, विहरद किसका दोस ||४३||
मोस ब्युरा विरह का कला कलालन नारि । दुख सरीर मह, सो तु धाखि सुनारि ॥ ४४ ॥
इहु
होया अंगीट्टी मूसि जिय, कोयला कीया देह का
टंका कलिया दुख का मासा मांसा न भूकीया,
कहर सुनारी पंचमी, अंग अपना दाह हू त बुडी विरह मद, पाउ नाही पाहू ||४५॥ मदन सुतार मभंग । मिल्या सवेइ सुहाग १४६ || रेती न देइ बीर । सोध्या सब सरीर ॥४७॥
विहरह रूप बुराइया, सूना हुभ्रा मुझ जीव ।
किस हइ पुकारू जाइ कह, अब घरि नाहीं पीव ॥४८॥
तन तोले कंटज घरी देखी किस किस जाइ ।
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विरा कुंड सुनार ज्यूड, घडी फिराय पिराइ ॥ ४६ ॥
खोटी वेदन विरह को, मेरो हीयरो माहि । निसि दिन काथा कलमलद, नो सुख धूपनि छह ॥५०॥१
छील वयरी विरह की घडी न पाया सुख हम पंच तुम्हें सउ का अपना अपना दुख ||५१३
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