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पंच सहेली गीत
पान झढे सब रूख के, वेल गई तनि सुस्कि।
भरि रति बसंत की, यया पीयरा मुनिक ॥२६॥ हीयरा भीतर पदसि करि, विरह लमाई आगि । प्रीय पानी विनि ना बूझवइ, बलीसि सबली लापी ॥२७॥ तन बाली विरहउ दहइ, परीया दुक्ख असेसि । ए दिन दुरि क भरइ, छाया प्रीय परदेसि ॥२८॥ जब यी बालम बीछुड्या, नाठा सरिवरि सुख । छोहल मो तन विरह का, नित्त नवेला दुख ।।२।। कहउ संबोलनि माप दुक्ख, अव कहि छीपन एह ।
पीव पलंतह तुझसङ, विरहइ कीया छेह ॥३०॥ छीपन का विरह पराम
श्रीजी छीपनि आखीया, भरि दुछ लोचन नीर । दूजा कोइ न जानही, मेरा जीय की पीर ।।३१।। तन कपहा दुक्ख कतरनी, दरी बिरहा एह । पूरा व्योत न ब्योतइ दिन दिन काट देह ॥३१॥ दुक्ख का तागा बाटीमा, सार सुई कर लेछ । चीनजि बंधइ प्रवि काम करि, नान्हा वस्नीया देइ ॥३३॥ विइहए गोरी प्रतिदही, देह मजीठ सुरंग । रस लोया प्रबटाइ कई, बाकस कीया अंग ॥३४॥ माड मरोरी निघोरि कइ, खार दिया दुस्न अंति । पह हमारे जीव कहुँ, मइ न करी इहु न ति ॥३५॥ सूख नाठा दुख संचरघा, देही करि दहि कार । विरहाइ कीया कंत दनि, इम अम्ह सु उपमार ।। ३६।।
कलालिन का विरह
छीपनि कहया विचार करि, प्रपना सुख दुख रोइ । प्रबाह कलालनि भाखि तु', विरह पाई सोइ ।।३।। चउयी दुख सरीर का, लागी कहन कलालि । हीपरह श्रीयका प्रेम की, नित खटूकइ भालि ॥३८।।