________________
बुचराज के गीत
"
गीत
निस नित्त नबली देहडी नित्त नित्त अब कम्मु । नित्त नित श्रावत कुन प्रमल. निल मित्त मासु जाप ! नित्त नित्त न माणसु जम्मु लाभइ, नित्त नित्त न वांछित पावइ । मित्त नित्त न प्ररि जु खेतु लभ, नित्त न सुभ मति प्रावये। नित्त नित्त न सुभ गुरु होइ ईसण, धम्मु जो जंपद इहि । तो चेतना करि चेतन संभालउ, मराव जम्म न नित्त नित्तो ।।१।।
जा लगु खिसियन जोवना. जा लग जरा न जणावे । जा सगु तनु न संकोचिये, जा लगु रोग न प्रार्थ । भावह न जा लगु रोगु अंगह, तेजु नहु जब लगु खलइ । जब लग न मति अति भई भिभल, जाम बल इन्द्री मिल्यो । जब लग न बिछुने प्राण प्राकम ताम तन पसरी गुणो । जब्च लग न चेतनु चढिउ पासण, जाम खिलियन जोवणो ॥२॥
राजु दुबारह झल्लरी, अहि निसि सबद सुणाने । सुभ असुभ दिनु जो घटइ, बहुड़ि न सो फिरि पावइ । ग्रावइ न सो फिरि घटइ ओ दिनु पाउ इणि परि छीज्जा । पौरसह सम्माइक्कु प्रत संजमु खिरण विलम्ब न कीजिए । पंच परमेष्ठी सदा प्रगमन, हियइ निज्ज समिकितु घरह । खिए खिम चिताधइ, चेत चेतन राजद्वारह झल्लरी ।।३।।
जो सरवनि निज भाखियो यो उत्तिम्म धम्मु पालहु । थावर जंगम जे जिया से सम्मदिष्टि निहालउ । निहालि ते समदिष्टि जीवा, नंत न्यानि ये कह्या । षट् द्रव्य अर पंचस्तिकामा, घृत घटवत भरि रह्यो । इम भगइ चूचा व्रत उत्तिम तीनि रतन प्रकासिया । सुख लहउ भंछित सदा पाल घरमु सरवनि मासिया ॥४||
गुढका संख्या मन्दिर वधीचन्द जी शास्त्र भण्डार–वेष्टन संख्या ६७१ ।