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कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि
राग आसावरी
दोहा :- संजम प्रोहरिण ना चडे भए अनंत संसारि । स्वामी पारे उत्तरे हमि थके उरवारे ।। छंदु ॥
हम थाके उरबारि स्वामी पारेगए । समकतु संवलो नाहते नरदीन भये ॥ ते भये दीन जहीन समकति मणि जिणवर ते खड़े । गति चारि चउरासिम लख महि जनमु करि ते रूले ॥ बहु वारि दरसनु भया स्वामी षम्भु पालि न सकिया । तुम्हि पारि पहुते वीर जिरणवर प्रसे पतणि बकिया ॥१॥
इक्क लग्न माहि देखे कष्ट वहो । प्रासत वेदन घोर सहारे कवण कहो ॥ कहु को सहारह घोर वेदन ता६ तावा पावहे । करि लोड् थंभसि अग्गिने आणि अंगि लगावहे || यरगत भेयरण डंड मुद्गर तनु पहारे सल्लिया ।
दुख कष्ट देखे गुणहु स्वामी नर माहि इकलिया ||२||
सेव्या कुगुरु कुदेउ पड़ियाक धम्म ते ।
पुदगल प्रवत्तिन काल कीती बहुत श्रुते ।
श्रुति बहल कीती सुरहु जीयड़े आठ कम्मिहि तु नया । वलु करि डिगाया पंच श्रुतिहि एवं मिध्यातिहि पडघा || नित चघो मान गयंदि मय मति तत्त, चित्ति न वेद्दिया । पडिया कुद्धम्मिहि सुनहु जीवडे कुगुरु हेते सेविया || ३ ||
हम चातिगह पियास दरिसन नीर विणा । श्रतनिसाम बुझाउ सरवनि सरस घणा ॥ घण सरस सरवनि करुणा भवह पारु लघाव हो । दुख जरा जन्म मरण केरे तिन्हह वेगि छुडाव हो ॥ कर जोडि 'बच्चा' भइ सेवगु मेटि जिण अंतरि तम । तुम्ह नीर दरसण वाभु स्वामी त्रिसात्र बालिग हम ||४||
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