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________________ १९४ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि बोलचाल की भाषा में काव्य रचना का मुख्य उद्देश्य होने के कारण उपमा एवं भनुप्रास अलंकारों के अतिरिक्त अन्य प्रसंकारों का प्रधिक प्रयोग नहीं हो सका है। शैली काव्य की वर्णन शैली बहुत सुन्दर एवं प्रवाहक है । कवि ने कथा की प्रत्येक घटना को बहुत ही सुन्दर शब्दों में निबद्ध किया है। कवि के वर्णन इतने सजीव होते हैं कि पाठक पता-पढ़ता माश्चर्यचकित होकर कवि के काय निर्माण की प्रशंसा करने लगता है। गनी एवं दासी में पर पुरुष के प्रसंग में जब वाद-विवाद होने लगता है तो पढ़ने में बड़ा प्रानन्द आता है । यहां उसका एक उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है--- वासी सुदरि जोवनु गजधनु, पेषिन कोज गन्छ । संबरु सीलनु छाडिये, प्रवास विनसौ सन्नु ॥२०२।। सुनि फुल्लार विद मुख जोति, छानहि रयनु गहहि किम पोति । तहि हंसु किम संवहि कागु, भूलो भई खिलावहि नागु ।। रामो परि जब मयनु सतावे वीर, तू न सखी जनहि पर पीर । मन भावतो चढे चित प्राणि, सोई सखी अमर बर आनि ॥२१६॥ इस प्रकार यशोवर चौपई कथानक, भाषा एवं शैली की दृष्टि से १६ वीं शताब्दि का एक महत्वपूर्ण हिन्दी काव्य है । प्रस्तुत काव्य अभी तक प्रकाशित है और उसका प्रथम बार प्रकाशन किया जा रहा है। राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों में काय की एकमात्र पाण्डुलिपि जयपुर के दि. जैन बड़ा तेरहपंथी मन्दिर के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित हैं 1 प्रस्तुस पाण्डुलिपि संवत् १९३० मंगसिर सुदी ११ रविवार के दिन समाप्त हुई थी ऐसा उसकी लेखक-प्रशस्ति में उल्लेख है । पाण्डुलिपि सुन्दर एवं शुद्ध है लेकिन उसमें लिपि संबन के अतिरिक्त लिपिकार का परिचय नहीं दिया गया है । पाण्डुलिपि के ४३ पृष्ठ है जो १०X४० इञ्च अन्य प्राकार के हैं। BJ0 २. राजस्थान के जैम शास्त्र भण्डारों को ग्रन्थ सूची भाग-चतुर्थ-पृ०
SR No.090252
Book TitleKavivar Boochraj Evam Unke Samklin Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year
Total Pages315
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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