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कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि
जाकै पग्नि सील सहाश। नीर निधि यलु थाइ। धके पायो स्यास सम सिंघ हुष आह । नाक मानु देहि स्ठा राइ । अंगुण ति लेहि छाह। विषम सुविसु अंगि प्रभी हुइ पार। जाकी जगतु भली कहाइ । लाग हि न घाख्या घाइ। कुग्रह कुर्संग वसु कछु न बसाइ । ताक भेदु पाया व जाइ। सुखी यति दीसे ज्यादा चंपावती पास प्रभ तणे पसाइ ॥११॥
पास तणं सुपसाइ पाइ पणमंति माइ परि | पास तणे सुपसा थाइ चक्कवह रिद्धि परि । पास तणे सुपसाह समा सिव सुखु लहि । पास तासु पणमंति मंगि पालस कुन कीजै । ठकुरसी कह मलिवास सुरिए । हमि इहु पायो भेदु श्च । जगि जं जं सुवक संपर्ज। तं तं पास पसाज सब ।।१२।।
॥ इति पार्श्वनाथ स्तवन समाप्त ॥