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________________ ७० कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि राजुल की पुनः चिता करना मारगु जो करे संदेह. नेन भरे जनु भावो मेह । कंत कवन गुन परिहरी, गढी होइ सो चलति तुरन्त । दुद्धरु दुषु दियो भो कंत, तुम विनु को ममु धीरवै । जगु अध्यारो मेरे जान, अोर न देषो तुमहि समान । नेमि फुवर जिन बंदि हौं ॥२१।। अरब कारन कर बहुतु, वर्नन जाइ तासु गुन रूपु । रुदनु करत मारगु गई, तुम विनु जन्म जु वाहायो । पुर्व जन्म विछोही नारि, पाप पराचित हम किए। पंथ अकेली चलति अनाह, प्रसो तुमहि न बुभिर नाह । हमहि छांहि गिरि तुम गये, पिय विनु सुदरि करबि काद। रहे समीप तिहार नाह, नेमि कबर जिन बंदि हौं ।२२।। गिरिनार पर राजुल का पहुंचना करति विष्षा गई सो नारि, पहजी जाइ सिपिरि गिरनरि । चरन लागि सो वीनर्व, कर जोरै सो बात कहाइ । दासी वर मो जानो राइ, सेवा वह दिन दिन करौं । नेमिकुमार से निवेदन हम परिय कवन तुम काज, छांडो च्याहु माई मो लाज । तुम गिरनैरिहि पाइयो, दोसु कवन पीय लागो मोहि । सो कहि स्वामी पुछु तोहि, नेमि कुवर जिन ववि हों ।।१३॥ मेमिनाथ का उत्तर नेमि भने सुनि राज कुवारि, हमि संजम लियो चदि गिरनारि । राज रोति सब परिहरि, ह्य गय विभव छत्र धन राजु । परियन व्याहु नही मो काजु, जीव दया प्रतिपालिहो । यहु संसार जु साइरु भव भवनु, बहुरिउ भ्रमि भ्रमि दुई कौनु । नेमि कुवर बिन बंदि हो ॥२४॥ अब तुम कुवरि वहु घर जाह, कंकन बंधो कर विवाह । हम गाँहि नु करि बावरी, राजधिया तु प्रति सुकुमाल ।
SR No.090252
Book TitleKavivar Boochraj Evam Unke Samklin Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year
Total Pages315
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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