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________________ कविवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि गयी है | मयण जुज्झ में जिस प्रकार ऋषभदेव नायक एवं फामदेव प्रतिनायक है उसी प्रकार प्रस्तुत काव्य में संतोष नायक एवं लोम प्रतिनायक है । ऐसा सगता से कि कवि प्रात्मिक षिकारों की वास्तविकता को पाठकों के सामने प्रस्तुत करके उन्हें मात्मिक गुणों की पोर लगाना चाहता था तथा मात्मिक गुणों की महत्ता को रूपक काव्यों के माध्यम से प्रकट करना उसको अधिक रुचिकर प्रतीत होता था। प्रस्तुत रूपक काव्य में १२३ पद्य हैं जो साटिक, रड, गाथा एपद, दोहा, पडी छंद, मडिल्ल, चंदाइण छन्द, गीतिका छन्द, तोटक छन्द, रंगिका छन्द, जैसे छन्दों में विभक्त है । छोटे से काव्य में विभिन्न ११ छन्दों का प्रयोग फवि के छन्द गानी बोर तो का: साल का है साथ ही में सत्कालीन पाठकों की रुचि का भी हमें बोष कराता है कि पाठक ऐसे काव्यों का संगीत के माध्यम से सुनना अधिक पसन्द करते थे। इसके अतिरिक्त उस समय सगुण भक्ति के गुणानुवाद से भी पाठक गए ऊब मुके थे इसलिए भी वे मध्यात्म की मोर झक रहे थे। प्रस्तुत काव्य की संक्षिप्त कथा निम्न प्रकार है। मंगलाचरण के पश्चात् कथि लिखता है कि भगवान महावीर का समवमरण पावापुरी में आता है। भगवान की जब दिव्य ध्वनि नहीं खिरती तब इन्द्र गौतम ऋषि के पास जाला है और कहता है कि महावीर ने तो मौन धारण कर रखा है इसलिए "काल्यं द्रव्य षटक नव पद सहितं ' प्रादि पद्य का अर्थ कौन समझा सकता है ? तब गोतम तत्काल इन्द्र के साथ जाने को तैयार हो जाते हैं। जब वे दोनों महावीर के समवसरण में स्थित मानस्तम्भ के पास पहुंचते हैं तो मानस्तम्भ को देखते ही गौतम का मान द्रवित हो जाता है । देखंत मानथंभो गलिमउ तिसु मानु मनह मज्झमे। हूचउ सरल पणामो पुछ गोइमु चित्ति सदेहो ॥१०॥ गौतम ने भगवान महावीर से पूछा कि स्वामी, यह जीव संसार में लोभ के वशीभूत रहता है तो उसके बचने के क्या उपाय हैं ? क्योंकि लोभ के कारण ही मानव प्राणिवध करता है, लोभ के कारण ही वह झूठ बोलता है। लोभ से ही वह दूसरों के दृष्य ग्रहण करता है। सब परिग्रहों के संग्रह में भी लोभ ही कारण है। जिस प्रकार तेल की बूद पानी में फैल जाती है उसी प्रकार यह लोभ भी फैलता रहता है । एक इन्म्यि के वश में प्राने से यह प्राणी इतने दुःख पाता है तो पांच इन्द्रियों के वशीभूत होने पर उसकी क्या दशा होगी, यह वह स्वयं जान सकता है । लोमी मनूष्य' उस कीड़े के समान है जो मधु का संचय ही करता है उसका उपयोग नहीं करता है। क्रोध, मान, माया तथा लोभ इन मारो में लोभ ही प्रमुख है।
SR No.090252
Book TitleKavivar Boochraj Evam Unke Samklin Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year
Total Pages315
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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