________________
संतोषजयतिलकु सब जिणउ नमतु लै चिति गज्जिउ, राउ संतोषु इनह परि सज्जिर ।।११४॥
रंगिका संद इव साजिउ संतोष राउ, हुबल धम्म सहाउ, उठिउ मनिहि भाउ आनंदु भयं । गुण उत्तिम मिलिउ माग्गु, हूबउ जोग पहारण, भाय सुकले झाणु, तिमए गयं ॥ जोति दिप केवल कल, मिटिय पटल मल, हृदय कवल बल थियित दे । यमे गोदम विमलमति, जिण बच धारि चिति, छंदिय लोभह थिति चडित पदे ॥११॥ तनिक पचु संजमु धारि, सतु दह परकारि, तेरह विधि सहारि, चारितु लियं । तपु द्वादस भेदह जाणि, प्रापण अंगिहि मारिण, बैठउ गुणह आणि, उदोसु कियं ॥ तम कुमतु गइउ दुसि, धोलिउ जगतु जसि, जैसेउ पुनिउ ससि, निसि सरदे । पैसे गोहम विमल मति, जिणबच धारि चिति, छेदिय लोभह थिति, पविउ पदे ॥११६।। जिन वंचिय सकल दुटु, परम पापनिघट्ट, करत जीयह कंठ, रयणि दिणो । जगि हो तिय जिन्हहि माण, देतिय नमुति जारण, नरय तणिय ठाण, भोगत घणे ।। उद पावत नरीहि जेइ, खडगु समुह लेइ, सुपनिन दीसे तेइ प्रवर के दे। असे गोइम विमल मति, जिणवच धारि चिति,
छेदिय लोभहि थिति, चडित पदे ।।११७।। लोभ पर विजय
देव दही वाजिय घरण, सुर मुनि गहगरण, मिलिय अविकजण, हुँबर लियं ।