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कविवर बूचराज
खिरिणह पयालि आइ, खिरिण मचलोड प्राइ । पउह हठे वा चरत न जाणं कोइ व्यापइ सकल लोइ। भनेक रूपिहि होइ. जाइ संचरं ।। पैसे पडिउ लोभ विकटु धूतइ पुरत नटु । संतवइ प्राणह षटु पौरिषु कर ।।११।। जिनि समि जिय लिवलाइ घाले ततबुधि छाइ । राखे ए वह काइ, देखत नडे । यह दीसइ ज परवथु, देसु सैनु राजु गथु । जाण्या करि पाप तमु लालषि पडे ।। जांफी लहरि अनंत परि, धोरह सागर सरि । सकह कवण तरि। हियउध, असे चडिउ, लोभ बिकटु, धूतउ धूरत नटु । संतवा प्राणह षटु पौरिषु करि ॥१११ जैसी करिणय पावक होइ, तिसहि न जाएइ कोइ । पडि सिण संगि होइ, फि कि न करें। तिसु तणिय विविहिरंग, कोण जाणे केते ढंग ।
आगम लंग बिलंग खिणि हि फिरें । बहु अनतप सार जाल, कर इक लोल पलाल । मूल पेड पत्त हाल, देइ उबर ।
से चहिउ लोभ विकटु, धूतइ धूरत नटु । संतवैइ प्राणह षटु पोरिषु करि ॥११२।।
षट्पदु लोभ विकटु करि कपटु अमिटु, रोसाइण चलियउ । लपटि दवटि नटि कुघटि झपाट झटि इव जगु नडियउ ।। धरणि खंडि ब्रह्म डि गगति पयालिहि धावइ । मीन कुरंग पतंग भिंग, मातंग सतावइ । जो इंद मुरिगद फणिद सुरचंद सूर संमुह प्रडइ । उह लडइ मुडइ खिणु गडबडाइ, ख्रिण सुट्टि समुह जुडइ ।। ११३।।
मडिल्ल जव सुलोभि इत्तर बलु कीयउ,
अधिक कष्टु तिन्ह जीयह दीपउ ।