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संतोष जयतिलकु
परजीय कुसील जु कटु करें, रण मक्कि भितु न सं वमवत्त्, समीर धाइ लगं, कुरविंद जि दुबहु सजिडु गय देण सनो, परमा सुख पाय पूरि घटं
राजा संतोष कर भाक्रमरण
बहु जुज्भिय सूर पचारि घणे, उ६ दीसहि लुटत मज्रिणे । किय दिनु रसातलि वीरवरा किय तज्जि गए अलु मुषिक धरा ॥ १०५ ॥
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धरं ।
बागय पाटि दिगं ||१०३।। आइ निसंक भलो |
साइजु दिउ
वह झाडि पिछोडि कियादव ।। १०४ ॥
८३
मन दंसण कंद रहुतु जहा इकि भज्जि पट्टिय जाइ तहा । यहु पंतु संतोष राइ चडया, दलु दिउ लोभिहि तु पश्या ।। १०६ ।।
रड
लोभि दिउ पछि दलु जाम,
तब धुणियउ सी कर सुज्झिर नगर ! जणु घेरिउ लहरि विषु, कच कचाइ उठि धाइ लग्गड ।। करइ सु अकरण प्राकत, किंविन बुझद पह जैस चरण प्रति उछल, तकि भड भंनद भट्ट ॥ १०७ ॥
गाथा
रोसा इणु र हरियं धरियं मन मभि रुद तिनि ध्यानो । मुक्कव चित्ति न मानो, प्रज्ञानो लोभु गज्जेइ || १०८ || रंगिनका छंडु
लोभु उठिच अपणु गज्जि, मंडि3 वलुनि लाजि । चडि दुस साजि रोसिहि भरे, सिरि णिड कपटु छ । विषय खडगु कितु, दमु फरियलितु |
संमुह धरे गुण दसमंद ठार लगु ॥ जाइ रोक्यों सूर मगु ।
देह बहुउ पसग्गु जगत अरे ।
से चडि लोभ विकटु, धूत धूरत नटु | संतवर प्रारणह षटु पौरिपु करि ।। १०६ ।। खिए उठ भणिय जुडि, विणिहि चालइ मुडि । खिर गयजेब गुडि लागद्द उठे, खिणु रहइ गगनु छार ||