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कविवर बूचराज
अंग ग्यारह चौदह पुन्छ, विषारे प्रगट सम्व, मिथ्याती सुणत गब्क, मनि गलियं । जिसु वारिणय सकल फ्यि, पितिहि हरपु किय, संतोषे उतिम जिय, वरमु बढे । असे गोइम बिमल मति, जिणवच पारि चिति । छेगिय लोगह मिति, सहि : ::
षट्पदु चबिउ सुपदि गोहमु लवधि तप वलि मति गजित । खपत हुबहु सासरिण हि सयनु प्राममु मतु सज्जिउ ।। हिंसारहि हय वरतु सुभटु पारितु वलि जुद्दिउ । हाकि विमल मति वाणि कुमत दल बरलि दहिउ ।। बंधित प्रचंड दुद्धरु सुमनु जिनि जगु सगल उ धुत्तिया । जय तिल मिलिउ संतोष कहु, लोभतु सह् इव जित्तियउ ।। ११९
गाथा जव जित्त दुसह लोह, कीयउ तब रित्त मझि पानंदे । हव निकंट रज्जो गह गायिउ राउ संतोषु ।।१२।। संतोषुह जय सिलउ जपिउ, हिसार नयर मंझ मे। जे सुरपहि भविय इक्क नि, ते पावहि कछिय सुक्ख ।।१२१॥ संवति पनरह इक्याण, मवि सिय पक्खि पंचमी दिवसे । सुक्कवारि स्याति पुणे, जेड तह जारिग वंभ पामेण ।।१२२॥
पढहि जे के सुद्ध भाएहि, जे सिक्खहि सुद्ध लिखाव, सुद्ध ध्यानि जे मुहि मनु धरि । ते उतिम नारि नर प्रमर मुक्त भोगवहि बङ्गपरि ।। यह संतोषह अयतिल उ जंपिउ बल्हि सभाइ । मंगलु चौविह संघ कह, करइ वीर जिणराइ ।।१२।।
इति संतोष जयतिलकु समाप्ता ।।ध।।
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