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संतोषजयतिलकु
सा णाहु सीलु सुपहिरि अंगिहि कुतु रतनत्रय कियं । घलहलह हत्थि विवेक असिवर, छत्त सिरि समकतु झिं । इक पदम पर तह सुकल लेस्या चवर दाहि निसिदिणो । इव मेलि दलु संतोषु राजा लोभ सिर मंडइ रणो ।।७।।
षट्पदु मंडिउ रणु तिनि सुभटि सनु समु अच्पण सजिउ । भाव खेतु तह रचित तुरु सुत भागमु बज्जिज ॥ पच्चारयो ध्यातमु पयड पप्परसू दल भंतरि । सूर हिय गह गहहिं धसहि काइर चित्त तरि 11 उतु दिसि सु लोमु छलु तक्क चैवलु परिषु णियतणि तुलह । संतोषु गरुव मेरह सरिसु इसुकि पवण भयणिण खलई ॥५०॥
गाथा
किं खलिहै भय पवणं, गरुवउ संतोषु मेर सरि भटलं । पवरंगु सधनु गाजवि, गं अंधणि सूर बहु जुडियं ।।६।।
तोटक छंदु रए अंगणि जुट्टिय सूर नरा, तहि वजह भेरि गहीर सर । तह वोलि उ लोभु प्रचंड भहो, हुणि जाइ संसोष फ्यालि दडो ॥२।। फिदु लोभ न बोलह राव करे, हुण कालु पाया है तुम्ह सिरे ।
तई मूढ सतायउ सयल वणो, जह जाहिन छोडन तय खिणो ||३|| युद्ध स्थल
जह लोभुतहा थिरु लखियहो, दरि सेवा उम्भाउ लोउ सहो । जिब इट्टिय चित्ति संतोषु करि, ते दीमहि भिष्य भयंति परे ।।४।। जह लोभु तहा कहु कत्य सुखो, निसि वासुरि जीउ सहत दुखो । सयतोषु जहा सह जोतिउसो, पय वंदहि इंद नरिंद तिसो ।।५।। सयतोष निवारहु गठन चित्त', हज च्यापि रह्या जगु मंडि पिते । हउ आदि अनादि जुगादि जुगे, सहि जीयसि जीयहि मुह्य. लगे ।।८।। सूण लोभ न कीबइ राडि घणी, सव पित्तिउ पाड तुम्ह तणी। हउ तुज्झ विदारउ न्यानि खगे, सहि जीय पलायड मुक्ति मगे ।। ५७॥