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कविवर बूचराज जमदगनि वे स्वामी तू टालिउ तिन्हा चित्त , छोडि तपु गेहकितु । आपु खोइन, इंदु यिषप अधिक व्यापउ पहिल्या टालीयन प्रापु । गोतमी दिय सरापु, भगत इमं जिन संकापति डिगाइ । प्राणिय सीय चुराइ, घाल्या रावणु घाइ कर जियो । अश्या घरी मदन रात्रि पहिरि सिह ४७॥ जिणि सन्यासी जतीय सार, जंगम सिर जटा धार । जोगीय मंडित छार धलिम रसे, जिन मरज भगववेस । विहंधी लुमित केस, काली पोस दरवेस कि कि नगसे । जख्य राकस गंधव गुरु, सुभट सबल नर पसुष पंखिय धर कित्तिय थुणो । अइया अइया रे मदन राइ दुसुद्ध लागा बाह । चलिय सूर पलाइ गहियावितरणो ॥४८॥ कि के जैन के सेवणहार ते तो कोते भिष्टचार । भोगिय सुख अपार संसार तणो । उहि देसत भये अंध पडिय करम फंछ । किये कुगत बंध जनम घणो । जैसे वैभदत्त चस्कवति काम भोग फरि थिति । गयउ नरक गति सतमि शुरणो । अश्या अदया रे मदन राह दुसहु लागो ध्याइ । चलिय सूर पलाइ गह्यिाविषयो ।।४।। जिनि कुड रिषि ताडि, सीयउ सुभट पाडि । सिखर हु दिया राडि तपु तजिगं । लीए सबल सुसर अंगि रहिउ तिय रंगि । विषय विषय संगि सुम्न भजियां । धीर चरण सेवक नितु इंदिय लोलप चित्त । सेरिणकु नरय पत्तु सुख निषणो । पइया अश्या रे मदन राइ दुसह लागी म्याइ । चलिय सूर पलाइ गहवितणो ॥५०॥ इक अबुह संजम रूपि, अलिय मदन भूप । दीनीय संसार कूप देसण भट्ट । नित करहिसि परपंचु अनेकह जीव बंचु । तजि मान लेहि कंचु अप्पणु हटे ।