________________
मयरगजुज्झ
ते तो रहिय सुधि प्रारंभ सकिन बरतु ठभि । उवर भरहि रमि रंजिवि जिणो । अश्या प्रइया रे मदन राइ दुसह लागी घ्याइ। चलिय सूर फ्लाइ गहिदिसणो ११५१
__ षट्पव जिता सुभटु वलिवंडु जिन्हु गज सिंघ निवाइय । जीतज दैत्य प्रचंड लोइ जिन्ह कुमगिहि लाइम । जितउ देउ धलि लवधि पारि वहु रूप दिखालहि । जिलउ दुट्ठ तिजंच करिवि लचु बरणखंड आलहि । असपति गजपति नरपतिय भूपतिय भूरह्मि भरि । ते प्रच्छ लच्छ ल टा लय पटल मयण नृपति परपंचु करि ॥५२॥
जीतिये सहि कोयउ मनि हरषु । पुनपुरि। दिसि पलिड, तब विवेक आवंत सुगियो । चित्त तरि चितविउ फरिवि मंतुये रिसर मुणियउ । धम्मपुरिहि श्री आदि जिण सुरिणयउ परगट नाउ । तत्थ गए हउ उधरउ मदन गंवान द्वाउ ।।५३।1
गाथा
इच करस गुण मंतो, आयउ सुह ध्यान दूव रिसहेसु । विवेक बेगि चबहु बुल्लावइ देब सरबन्नि १५४।।
दोहर
चलिउ विवेक आनंदु फरि, धम्मपुरी सुपहत्त । परणाई संजमसिरि, सुखु भोगवह बहुत ॥५५॥ जब बिबेकु नाठउ सुण्या, चिप्तपद अनंगु प्रयाणु । भाग्या पीठि न धावहि, पुरुषहि इहु परवाणु ।।५६॥
पुष्पपरी । २. 'ग' प्रति में ५६ वे पद्य को दूसरी पंक्ति नहीं है ।