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कविवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि
कहै कृपणु नित्त ि
परिणतो जिवणार म्रा दुख रचतो न टोली । इरिण परियां तो अछि रहिरु सगली मति बोली । भि छोयो हरी सिंह पीटै ले दुवै कर । अति सा कृपण कसूनी सून सफोदर सासु जद ||२५||
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तव मरतो जाणि करि सवल परियश मिलि आयो । बंधन पुत्त कलन्त मांत कहि कहि समभावहि । ज्यो आगे हुई गुखी खरचि ले सुकृत सबली । ते बल्हो घरो बताव षाइजो जीवं पालो । कुल कहि रह्या सर्व बोलतही कृपरण कोपु लगाउ करण | घर सारि प्राइमरी कहें भांति कंत कर मर
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कहैं कृप करि शेसु काइ मिलि सूनोवाही । थोर न बूर्भ सार पोरे धनु लीयो चाहे । जीवंतां अरु मुवह कोण धरण मुझे ले सक्कइ । के ले पालो साथि कैर धणु घरती थकं । स्कादि प्रा भवरह जनमि तुहि न बताउ परिउ धणु । सुणि यात उठि बंषक मया ति पहुते पटल दिसु ||२७||
अरांती |
तयह मरतो कहे ल िमारणइ माई परिवरणु पुत मेरू राखौ तु पांसी । बादन प्रति ससही देखि दुष्ट घणा उपाई । मांग ग्रामं गिरती काजि तु गालि दिवाई | एहु चोर गांरी प्रागि यो मे राखी करि जतनु तुझ गिगुमा सिलज्जुनि लछि इ
॥२६३
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लच्छ करे कृपण झूठ हो कमे न बोलो । जु को चला दुइ देइ गैल त्यानी तसु वालो । प्रथम चलगा मुझ एतु देव-देहरे भिजे | जे जति पसिद्ध दाशु चउसंघहि दिज्जै
ये चल दुवै ते मंजिया ताहि विली क्यों चली । भूखमारि जाय तू हो रही बहुडी न संगि थारे चलो ॥२६४१