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कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि
हम तु वैठो देख्यो राश, जनु ससि अंबरू उदो कराइ । तुम मतिगढ़ करि बूझी बात, मै सर कही भयो सुष गात ॥७॥ फेषी सुनि तई नुरु पासि, मारिवत्त तिम पयडी भासि । होनाको सजगदि , गगन, दुरा म । धु४ ॥ कबहु नियहि रण लान्यो चेतु, पो गति फिरथी भक्तर लेतु ।
मारिदत्त राजा सुपहाणु, निसुन्यो असहर तनो पुराण ।।४७६॥ मारिवत का पार्यों से भयभीत होमा---
चिमक्यौ राव पाप हर लयो, पिसु सौ उतरि स वनु को गयो । फार परचो जोगी भर राइ, देवी कहत विमन पक्षिताइ ।।४७७॥ मारिदत्त न सेवर दीरु, सयौ उसास नयण भरि नीर । निदि मपनौयो भासै बात, राषि राषि जब घर जगतात ॥४७८।। जरक परत राहि परचंग, भगति साबर तरण तरंड । दैतपु मोहि रिषी सुर काल, वार बार विनयो महिपाल H४७६) -
दोहरा ताहि मुनि सूरि सुदत्त गुरु, जान्यो प्रवपि प्रमाण ।
नर के समय कमार लह, संबोहिउ तहि थान ॥४८०।। सुबत्त मुनि का वेयी के मन्दिर में आगमन
निसुनहु कथा प्रपूरब मारण, मुनि पायर्या देवी को पान । मुद्रा पेषि अभ्यो राउ, प्रासनु छाडि करयो पणखाउ ॥४८॥ पाइनु प्रभाव परयो, पमसि कालु जोगी सुर करयो । देवी तनो ग गलि गयो, अपनी शानु सुहाउथ्यो ।॥४२॥ मुंड एंड सब कोनो दूरि, कीनो ने कनको पूरि। अंगनु चंदन राष्यो लोपि, पोया कु कुह पूरी सीपि ॥४८३॥ बहुत कुसुम तरु वंदन वार, भवर वास गुजरहि अपार । फेरि रुपु सन प्रति सुन्दर, रोहिणि अनकु सुग्य ते परि ॥४४॥ जीव जुमल सब दे नै मेलि, मंगनु पोसिउ माडे केलि । मारिदत्त पभण गुरनु रासि, मो सह देव भवंत मासि ॥४८॥ पभनहू स्वामि भव आपनी, गोवरधन अरु योगी तनी । राउ जसो चन्द्रमति राणि, देवी की भव कहत वषाणि ॥४६॥