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कविवर ठक्कुरसी
सीमंधर स्तवन
श्री सीमंधर जिन पब बंदी, मवि नेत्र चकोरभिनंदो | पुंडरीकणी पूर्व विदेहो, अतिशयवंत सहा प्रभु रे हो । रे हैं ज परमातशय जुत प्रभु समवसुति महिमंडणी । तिलोक विजयी मोह रिपु वस्तु काम बल सह भंजणो । परमेठि परमारष प्रकाशक, पाप नाथ दिगंबरी । भव जलधि पोतक पास मोचक, नमहु जिन सीमंधरो ॥१॥
मंडण थार्ज ।
सह युग्मंधर जिनराजे, साकेता तिलोक जनात्रिप बंधी, मोहारि विजय अभिनंद्यो । अभिनंदियों जगवेक स्वामी, मोक्ष गामी नीर जो । पंचसँ धनुष प्रमाण देहो, मान माय विहंडणो । सत्वादि बेदी कोष भेदी, भव्य पूज्य परंपरो । दिन नाथ कोटि प्रमाथि शोभी, जयज जिम युग्मं
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पछि दिशि बाहु मुनीको, विजयार्ध पूरी शिरि सीसो । निमितामर नरकणि लोको, विनि वारि तज न भय भोको । न शोक मारण सौख्य कारण, जनम मरण जरा हरो । रत्नत्रय विराजित, सुष जेवण गुणधरो । वर अचर लोक प्रतीत नागत, वर्तमान सु गोचरों । उत्पादन प्रौष्य येक ग्याता, जयहु बाहु जिनेस्वरों ||३||
परमारथ
|| लीखंत ठाकुरसी ||
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