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कविवर बूचराज पंच प्रमाद निवारि, छोडि पोडणु अक्काइहि । पंच सत्ति भय ठाणु, मह मद पडि सभा पहिं । अवमुन नव विधि आपहा मिश्या दस विधि परहरहु । रिषि व रहि , इ अ:गु र उवरहु ॥१५४।। इकु वसि करि पातमउ, विनि यावर तेस पालहु । आरहन्छु तर धरण दिदि, ते समिय निहालहु । पंचइ चार चरहु दश्व छह विद्धि न लिज्जहु । सुत सत्त नय जाणि, मातु प्रहसमें गहिज्जह । नव कम दहि दिळु राखीयई, दस लक्षण धम्महम्महु । जिण भास इव मुनिवर सुणह, गति न चारि इणि परिभमह ॥१५५।। सुमाइ पंच तिय गुत्त पंचह वयारित परि । संजमु सत्त. दह भेय, भेय बारह सपु प्राचरि । पद्धिमा हुइ वस सहहु, सहस पाइस परीसह । भावण भाइ पचीस, पापु सुत्त तजि नव वीसह । तेतीस मसाइण घल्लियहि, जिण चौवीसइ थुति करहु । अट्ठाईस पगय मडु मोहु जिरणु, इय सुसाय सिवपुरि सहहु ।। १५६।। दिन्नु देसण एह जिणराई बह गणहरू संघ जाह। भव्य जिय संवेउ प्राय: किष सित्थु चौबिहहि । तित्यंकर तव नाउ पापउ, नामु गोतु फुरिण वेधही । माउ सेसजि ति, तेखिउ करि सिवरि गयउ । सुख भोगवद पनंत ॥१५७।।
षट्पबु
जह न जरा न मरणु जत्थ पुणि व्याधि न वेयण 1 जह न देहन न नेह जोति मइ तह ठइ घेयरण । जह ठछ सुक्ख धनंत न्यान दंसण अवलोवहि । कास्लु विणासह सयलु सिद्ध पुरिण कालहि खोहि । जिसु बरणु न गंधु न रसु फरसु, सबदु न जिस किसाही लहो। धूवराजु कहै श्री रिसह जिणु सुथिरु होइ तह ठा रह्यो ।१५।।