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________________ कविवर बुचराज पर मजबूर कर दिया । माया ने विवध रूप धारण कर लिया और यह समझा कि उससे लड़ने की किसी में शक्ति नहीं है । लेकिन आर्जव ने उसे सहज में ही जीत लिया । क्रोध को क्षमा से तथा मिथ्यात्व को सम्यकत्व से जीत लिया गया । आठ कर्मों के मी छोटे-छोटे प्रखर प्रहार को तप से जीतने में योद्धा थे उनकी एक भी नहीं अपने सभी साथियों को युद्ध भूमि में खेत हुआ देखकर माथा धुनने लगा | सफलता प्राप्त की अन्य जितने और उन्हें युद्ध भूमि में ही दिया। लो २२ दसवें गुणस्थान में चढ़े लोभ गरज कर अपने हाथी पर सवार हुभा । कपट का उसने छत्र लगाया तथा विषयों की तलवार को हाथ में ली । लेकिन सामने हुए तपस्वी विराजमान थे । लोभ पूरे विकट स्वभाव में था कभी वह बैठता. कभी वह उठता, कभी आकाश में और कभी पृथ्वी पर अपना जाल फैलाने लगता । वह अपने विभिन्न रूप धारण करता । लोभ का रूप ऐसी प्रश्न को करणी के समान लगने लगा जो क्षण भर में ही सारे जंगल को जला डालती है । लोभ का सामना करने के लिए संतोष आगे बढ़ा । दसवें गुणस्थान से आगे प्रशानान्धकार नष्ट हो गया और केवल ज्ञान धारण कर संतोष ने लोभ पर विजय प्राप्त प्रकार के तप को अपने में समाहित कर बढ़कर शुक्ल ध्यान में विचरने लगा। प्रकट हुग्रा । जिन वचनों को चित्त में की तेरह प्रकार के व्रतों को, बारह लिया । संतोष की विजय के उपरान्त देवगण दुदुभि बजाने लगे । ग्यारह अंग और चौदह पूर्व का ज्ञान प्रकट हो जाने से मिथ्यावियों का गवं गल गया और चारों घोर आत्मा की जय जयकार होने लगी । भाषा प्रस्तुत कृति को भाषा यद्यवि मरणजुज्भ से अधिक परिस्कृत है लेकिन फिर भी वह पत्र के प्रभाव से पूर्ण रूप से मुक्त नहीं हो सकी है । बीच-बीच में गाथाओं का प्रयोग हुआ है । शब्दों को उकारान्त बनाकर प्रयोग करने में कवि को अधिक रुचि दिखलायी देती है । कवि नाम १. कवि ने प्रस्तुत कृति में अपना नाम 'बहि' लिखकर रचना समाप्त की है । बहु संतोषहू जय तिलउ जंपद बल्हि सभा |
SR No.090252
Book TitleKavivar Boochraj Evam Unke Samklin Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year
Total Pages315
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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