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________________ २०४ कविवर चराज एवं उनके समकालीन कवि जिम एवि हल जाहि प्रभु जानि, तेम हमारी धर्म कहानि । जहि आनंदु करत जिय वात, तिहि किम राय हमारी बात ||११०॥ जीव मुवल जह वधे बराक, देविहि बलि पूजा कताक । ताहि ठाकर धरा हरि कौनु, ताते राय रहे गहि भोनु ।।११।। मारिदत्त मति निरमल भई, मानहु उरि ठगौरी गई । गत पुर्रषुह इंदर राम, मार हाजि रहा ॥११॥ जोगी चक्र जुस्यो हो घनी, बरन्यौ लोगु सयलु प्रापनौ। सयल लोक मुनिवर मुहू पेषि, राषे अन कुचित्र के लेषि ॥११३।। मन राउ सुनि बाल जईस, जो परि तेरो मनह नरोस । तो पप डेहि कथा मापनी, सौ बीत्ती पैषी सुनो ॥११४।। सुन्दर जती सयलु महु भासि, ओ अनुभई सुनी गुरपासि । जोनि सुनौ सौनि सुनौ एह, जो न सुने तसु की फेह ।।११।। मासिकु दे वोल्यो रिषि राज, जान्यो राइ तनौ सुभ भाउ | निसुनि देव दिढ मन यिरकान, पभरणमि अपनी कथा पहान ॥११६।। वस्तु बंधु ता अभयसुरुचि राय बयनेणा। आहासइ कुमर गुरु, सु हमवाणि सुकुमाल गत्तउ । जो सुह मग्ग पयासयक, घम्म कहं तर एहू । नि सुनहू सुपज विचित्र कहा चंत सुनं तह दह ।।११७।। भासे अपनी कथा कुमारू, जामन तिनु कंचनु एक सारु । सुनि महिमा निणि माननहार, भोग पुरंदर राजकुमार ||११८।। अवन्ती देश एवं उज्जयिनी नगरी देसु अवती नयरि उनि, भोगभूमि सम सुष की सैन 1 बन उपवन सरवर कुच वाइ, पेषत अमर बिलंवहि माइ ।।११।। दल फल सघन कुसुम रस वास, कलप विरष सम पुजवहि प्रास । मठ मंदिर सतपर्ण प्रवास, एक समान यस चौपास ।।१२०।। सुरह रस मद्यर सुर समलोगा, धन कम कंचन विलसहि भोगा । धरण परि छत्तीसौ कुरी, जनकु सु धनपति निज रमि धरी ।।१२।। जसोहु राजा एवं चन्द्रमती रानो तहि पुरि नरवे नाम जसोहू. नियमन इंद्रहि लाथै पोह। चंद्रमती राणी सप्ति वणि, मद गज गमनि एण समनयरिए ||१२२।।
SR No.090252
Book TitleKavivar Boochraj Evam Unke Samklin Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year
Total Pages315
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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