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________________ कविवर टक्कुरसी २४३ कषि ने रचना के अन्त में अपना परिचय निम्न प्रकार दिया हैकवि घेल्ह सतनु ठाकुरसी, किये नेमि सु जति मति सरसी । नर नारि जको रित गाये, जो चितै सो फल पावै ॥२०॥ नेमिराजमति वेलि की पाण्डुलिपियां राजस्थान के कितने ही भण्डारों में उपलब्ध होती हैं । जिनमें जयपुर, अजमेर के ग्रन्थागार भी हैं। ३. पञ्खेन्द्रिय वेलि पन्चेन्द्रिय वेलि कवि की बहुत ही चित कृति है। इसमें पांच इन्द्रियों की वासना एवं उनसे होने वाली विकृतियों पर अच्छा प्रकाश डाला है। प्रार अन्त में इन्द्रियों पर विजय पाने की कामना की गयी है। जिसने इन इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की वह अमर हो गया, निर्वाण पथ का पथिक बन गया लेकिन जो जीव इन्हीं धन्द्रियों की पूर्ति में लगा रहा उसका जीवन ही निकम्मा एवं निन्दनीय बन गया । इन्द्रियो पांच होती है-स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु एवं थोत्र । और इन पांच इन्द्रियों से पांच काम भर्थात् अभिलाषाएँ उत्पन्न होती हैं और वे हैं, स्पर्श, रस, गन्ध, रूप भोर शब्द । इन्द्रियों के इन पांच काम गुणों के वशीभूत होकर मन सांसारिक भोगों में उलझ जाता है और अपने सच्चे स्वरूप को भूला बैठता है । इसलिए सच्चा बीर वही है जिसने इन काम गुणों पर विजय प्राप्त की हो । कबीर ने भी सूरमा की यही परिभाषा की है-- कबीर सोह सूरमा, मन मों मांडे जूझ। पांचों इन्द्री एकडि के, दूर करे सब दूझ ।। कबीर ने फिर कहा कि जो मन रूपी मृग को नहीं मार सका बह जोवन में प्रभ्युदय एवं श्रेयस का भागी कदापि नहीं हो सकता। माया कसो कमान ज्यों, पांच तत्व कर धान । मारो तो मन मिट गया, नहीं सो मिथ्या जान ।। पञ्चेन्द्रिय बेलि कवि की संवतोल्लेख बाली अन्तिम कृति है अर्थात इसके पश्चात् उसकी कोई मन्य कृति नहीं मिलती जिसमें उसने रचना संवत दिया हो । इसलिए प्रस्तुत कृति उसके परिपक्व जीवन की अनुभूति का निष्कर्ष रूप है। कवि द्वारा यह सवत् १५८५ कार्तिक शुक्ला १३ को समाप्त की गयी थी। १. संवत्त पाहसर पिभ्यासे तेरसि मुबो कातिग मासे । निहि मनु इंद्री यसि कीया, सिहि हर सरपत जग जोया ।।
SR No.090252
Book TitleKavivar Boochraj Evam Unke Samklin Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year
Total Pages315
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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