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३. पंथी गीत
इक पंथी पंथ चलती, बन सिंहनि माह पछुतो । भूलो कबट यह दिसि घावं, वह मारग कहियत पावे | पावे न मारग विषम वन में, फिरे भ्रमि भटकंत हो। देखियो तहा सांमहाँ धावत, सौ रौद्र रूप प्रचंड सुंडा, भयभीत होड़ कंपिया लागो, पथिक वित्त अंतरि डर्यो || १ ||
गरुव गज दंड फेरें
मयत हो । रिस भर्ती
सा देश सुपं, पूहि कुंजर लागो । जीव के हरि प्रातुर घायो, भागे कूप हृतौ त्रिछायो । त्रिण यो कूप जुहु तो प्रागे, बिचि वेलि छवि रह्यो । तिहि माहि पथिक पड्यो अजानत भेद भोंदू ना लह्यो । हि गही प्रवife आकारणि, और कछु न पाइयो । कुचडो एक सरकनी केरो, पहत हायें भाइयों ||२||
तब सरकन दिढ करि गहियौ, भूलत दारण दुख सहियो । सिर ऊपरि गदी गयंदा, दिसि व्यार्थी चारि फुर्णियो । बहु दिसि हि वारि फुरिषद न्यौसी, बंधे करि बैठे जहां । तलि मुख पसारि विरह्यौ भजिगर, प्रसन के कारण तहां । सित प्रसित देखिया मूषक, जड लगे सरकन तली । संकट पढ्यो अब नहि उबरण करें चिता चिते घणी ॥३॥
कुवा ठग इक विरख बहे रौ, तहां छाती लग्यो महुके रौ । नहि हसती हलाई डाली, मोखी अगनित उडी बिसाली | मोखी बिसाली डिवि अगनित, लगि उडी हि नर तरौं । उपसर्ग अंगि करं घरी तास को सिमे मधुकण पहर ऊपरि पडत रस या बिन्दु के सुखि लागी लोभी, सबै दुख बोसरि गयो || ४ ||
संख्या गिरणे ।
रसना लियो ।