________________
कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि
घोग गवरणु निवारि, मुकति सिरी सी जैगी । सुम्ह लईय भाविक जन लेह, कहा भव की जंगी । श्रावग कुलि मक्ताक, वहरि पर लीग । धर्म दया जग साम, सनिह यैको जैगे । दस लखरिण जिन घम्म, दिनह किन कोगे । सातो विसन नीवारि, फर्म क्यो की जंगे । सिजि मिच्यातु अपार, सुमति जी घरि जैगी। क्रोधु मान मदु लोभु न मया को जैगी । परु परिहरि भव दूरि कवन सुस्तु पावहिर्ग । परमात्मा मन ध्यानु परिवि चितु लावहिगो । जाते तिरिह तुरंत संसारु मोख पद पायहिगे । घाबग सुरण विचार, चतुरु यों गामि ।।
[३] माइ तिवा यावारी के जईयो । वावा वारी क्यो जत्यो, भवियण वंदद करि जोरि । जिनदर घलन जुहारी, च में ममनु निवारि । भः ससारह तारे, संभल जीय अजाणा । माया मोह मुलाना, यह मिथ्यातु भरीई । श्रावग कुलि कत प्रायो, महल जन्म गवायो। अतिम कुलि कत अवतरीया, सात विसन मद भरिया । मोह महा मद राच्यो, मूलगुना नरु जाणं । ईन्द्री पाचो सुख मानो, प्राई तिवा बावारी के जइयो । भवीयह साख चौरासी, बंध्यौ मोह की परिख । जिणवर चलन बुहारी, भावागमनु निवारी। यह त्रीय लोकु भमाई, सबै देय हारे । को भव पार उतारी, जीव दया नरु पारे । सिवपुरि गमनु निवार, प्राई तिवा वावारी के अईयो । भोजन राति कराई, यस संसार भमाही । चौविधि दानु न दीण, सुधो भाउ न कोएं। मिथ्या मोह भुलाया, जिनवर धम्मु न जाण्यो। लहियो श्रावग कुलि जन्म. करि दिन जिणवर धम्म । ज्यो जीय लहे सुख ठाऊ, तो घरि निहलु भाऊ ।