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कविवर बूचराज जिनि ममता छोडी तिनि पाया भव पारो । पाया सुतिनि भव पास निश्चे संगु जड़ मक्काजिगरे । सेरह प्रकारि हि सुद्ध चारितु, घऱ्या दिडु अप्पर मुणे । बहु गति तणा सहि दुख माजहि, मुकति पंथ लमंतिया ।। तिसु साथि जड नड संगु कीजे, सुरणु चेतन गुण चंतिया ॥१३४।। चेतन सुण निरगुण जड सिउ संगति कोज । बसु जड परसादिहि मोखह सुखु क्लिसोज । जड सहइ परीसह काट करमह भारो । जिसु जड न सखाई तुिसु उरवारु न पारो ।। उरथारु पारु न होइ किछुह रिदुइय काइ गदावहे । इंदिया सुख्खु न मोस्त होवह फिरि समनि पछितावहो । सुरलोइ चकवति उच्च पदवी भोगतइ भोग्या घणा । तिसु साथि जड नित संगु की सुण चेतन निरगुरणा ॥१३॥
दुख नरकि जि दीठे ते इव हीयह संभाले । इसु जड़क संगते चेतन मापनु थाले । परतापि विष बेली सीच्यह क्या फलु होए । मधु विद कए सुख तिन्ह लगि आपुन खोए 11 ननु खोइ प्रापणु राखि दिटु करि नीर समकतु निश्चलो। अब लग मंदिरि कालु पावकु धम्मु का लाभे जलो ॥ धनु पुत्त मित्त, कलत्त काया, अंति नहु कोइ सखा । संभलहु इव चेतन पियारे, नरकि जे दीठे मुखा ॥१३६।। जह पुहपु तह मधु बह गोरसु तह घीउ । जह काठ भनि तह बह पुदगल तह जीउ ॥ मति मुगध सि भूली हंढहि घरु घर वारो । पाखंडी जगु इक है, सकहि न पाप उतारे ।। ते सकहि बापुन तारि मूरिख, सकति काया खोवहे । चारितु लेकरि विषय पोषहि पंक उरि मल धोवेहे ॥ सिव सकति सदा सलगनु जुगि जुमि मरमु नहु कि नहीं लषो। संभल इव चेतन पियारे पुहषु जह तह होइ मषो ॥१३७।।