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कविवर बूचराज
संसारी जीव का वर्णन करते हुए कवि ने कहा है जो युवावस्था में विलासिता में फंसा रहता है, इन्द्रियों ने जिस पर विजय प्राप्त करली है जिसका जीवन इन्द्रियों की लालसा तथा कासना को पूर्ण करने में ही व्यतीत होता है । ऐसा मनुष्य संसारी कहलाने योग्य है उस मनुष्य को लौकिक जीवन के सुधारने में कभी सफलता नहीं मिलती ।
राग लीन जीवन महि रहे इन्द्री जिते परीसा सहै।
ता कह सिद्धि कदाचित होइ संसारी तिन जानहु सोई॥ पण्डित प्रथवा विधेको मनुष्य वही है जो पुन, मित्र, स्त्री, वन प्रादि पर अनुचित मोह नहीं करता है तथा उनके उपयोग के अनुसार ही उन पर मोह करता है-
पुत्र, मित्र नारी धन धानु, बंधु सरीर जु कुल असमान ।
अवरु प्रीय वस्तु अनुसरं ता पर राग न पण्डित करें।
वेश्यागमन मनुष्य के लिए अति भयंकर है । वह उसे कसंख्य मार्ग से विमुख कर देता है । इस जीवन को तो दुखमय बना ही देता है किन्तु पारलौकिक जीवन को भी दुख में डाल देता है। सच्चरित्र पुरुष वेश्या के पास जाते हुए डरते हैं। क्योंकि ध्यसनों में फंसाना ही उसका काम होता है
वेश्या संग धर्म को हरे, वेश्या संग नर्क को करें।
जाते होइ सुगति को मंगु, नहि ते तज नौ वेश्या संगु ।। मनुष्य जीयन बार-बार नहीं मिलता। जो इस जीवन का सदुपयोग नहीं करता उसको अन्त में पश्चाताप के सिवा कुछ नहीं मिलता । जैसे समुद्र में फेंके गये माणक को फिर से प्राप्त करना मुश्किल है उसी प्रकार मनुष्य जीबन दुर्लभ है । लेकिन प्राप्त हुए मानव जीवन को यर्थ खोना सबसे बड़ी मूर्खता है । वह मनुष्य उस मूर्ख के समान है जो हाथ में पाये हुए माणक को कौए को उड़ाने में फेंक देता है
समुद माइ मा शक गिरि जाइ, वूडत उछरत हाथ चहाइ । पुनु सो काग खडावन काज, राख्यो रतन मूल वे काज ।
तेम जीव भव सागर माहि, पायो मानुस जन्म मनाहि ।
श्रेष्ठ मनुष्यों की संगति ही जीवन को उन्नत करती है। कुसंगति से मनुष्य भ्यसनी बन जाता है। कुसंगति से गुणी-निगुणी, साघु प्रसाधु तथा धर्मात्मा पापी बन जाता है। यह उस दावानल के समान है जो हरे-भरे वन को जला कर राख कर देती है।