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कविवर वृचराज
पंचे इंदी दंडि करि थापा प्राप्पु जोइ । जिन पावहि तिरवाण पहुजन
हो । सु०॥५०॥
क्या जेहंदी बसि कोई, क्या साध्या अप्पार । इकु परमथुन जारिया, किउ पार्क निश्वासु || वेयण गुण० ॥ ५१ ॥
विणू करमह काटे छापणे जो नर को सीध |
ताकि सेण नरक महि, अज दुख भूषेए || बेयरण सुरगु० ॥५२॥
क्या जे सेाकु नरक महि, बहु बहु दुख भूचंतु ।
भव्व जीयहम हि सो गया, निश्र्च एव सीमंतो || चेयण गुण ० ।। ५३ ।।
काया राखहु जतनु करि, चड्डू जेंव गुण ठारिण ।
विशु मन जमिह भविमणहु, गया न को निरवाणि ।। चयण सुगु० ॥ ५४ ॥
हरतु परंतु दोनच गया, नाउर वास न पा ।
जिनकरि जाणी श्रापणी से हूबे काली घार || चेयण गुण ० ।। ५५|
जिउ वैसंदरु कटु महि, तिल महि तेलु भिजें ।
आदि अनादि हि जाणियं चेतन पुद्गल एव || चेयण सु० ।। ५६ ।।
लेहि संदरु कट्ट तजि, लेहि तेल वलि राडि ।
चेत हि चेतनु मेलिये, पुदगलु परहर बालि || चयण गुण० ॥५७॥
वालत्तण की वालही, गुणहि न पूर्ज कोई |
परम पदु होइ || फेयरण सुरगु० ॥५८६ कतिहि जाढ़ |
सा काया किव निदिये, जिस काया कर जलु मंजुली, जतनु उत्तिमु विरता नित रहै मूरिखु इमु पतियाए || चेयरण गुर० ॥५६ मनका सत्रु को करइ, चितु कसि करइ न कोइ ।
सिखरहु जब खडे, तबरु विगुचरिंग होइ || चेयरा सुरगु० || ६०
सिखर मूलि न खब हुई, जिण सासरण श्राधारु ।
सूलि ऊपरि सोझिया, चोरि जया नवकारु || चेय गुण ० ।। ६१ ।।
उइ साधण परिणाम उद, कालभि उद यावोर ।
इव साध फिराह सहि डोलते, सदि सी थे चोर || चेयण सुरसु० ||६२ ||
साधुन डोल भूमि हरि, जिसु महि ज्ञानु रतन्तु ।
तेरह विधि चारितु घरं पुद्गल जागा प्रन्नु || ये गुण ० ॥ ६३॥ पुद्गलु अन्तु न जागियहु, देखहु मनि विपाइ ।
किरिया संजता च, जा पुद्गल होइ सखाए || पण सुरगु० || ६४