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कविवर बूचराज
ए कोट पड़े लोभिहि भमाहि, संचहि सु अन्नु ले घरणि माहि । ले वनरसु हंढ लोभि रत्त. मखिकासु मधु संचई बहुत ॥३१॥ ते कियन पब्जिय लोभह मझारि, धनु संचहि से धरणी भडारि । जे दानि धम्मि नहु देहि खादि, शेखंत न उठि हाथ हाडि जाहि ॥३२॥
माया जहि ह्त्य झाडिकि वणं, घनु संचहि सुलहि करिबि मंडारे । तरहि व संसारे, मनु बुद्धि ऐ रसी आह ॥३३॥
वसइ जिन्ह मनि इसिय नित बुद्धि, घनु विवाहि अकि जगु, सुगुर वचन चितिहि न मावद। मे मे मे करइ सुणत धम्म सिरि सूलु प्रायद ।। अप्पणु चित्त न रंजही जणु रंजाबहि लोइ । लोभि वियापे जेइ नर तिन्ह मति मंसी होइ ।।३४।।
गाथा तिन्ह होइ इसिय मत्त, चित्तं प्रय मलिन मुहुर मुहि बाणी । दिदहि पुन म पावो, वसकियो लोभि ते पुरिष ।।३५।।
मडिल्ल इसउ लोमुकाया गढ अंतरि, रयरिण दिवस संतवह निरंतरि । करइ ढीठु प्रप्पणु वलु मंडद, लज्या न्यानु सीलु कुल खंडइ ॥३६॥
को माया मानु परचंड, तिन्ह मज्झिहि राउ यहु इसु सहाह तिन्निउ उपज्जहि । यहु तिष तिष विष्फुरद, उइतेय बलु प्रषिकु सज्जहि ।। यहु बहु महि कारणू करणु, अव घट घाट फिरंतु । एक लोम विण वसि किए, चौगय जीउ ममंतु ॥३७॥ जासु तीवद प्रीति अप्रीति, ते जग माहि जारिग यह, जारिणउ रागु तिनि प्रीसि नारि । मप्रीति हु दोष हब, हू कलाप परगट पसारि ॥ प्रज्ञा फेरी आपणी, घटि घटि रहे समाइ । इन्ह दहु वसि करि ना सके, ता जीउ न रकि हि बाद ॥३८।।