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संदरजाति
संकुडइ मुडइ बढलु करा, वगजेंउ रहइ लिव ध्यान साइ । ठग जेंव उगो लिय सीसि पाइ, परचित्त विस्वास विविह भाइ ।।१७।। मंजार जेउ प्रासण बहुत, सो कर जु करणउ नाहि जुस्त ।
जे वे सजेंव करि विवि ताल, मति यावह सुख दे वृद्धवाल ॥१८॥ लोभ का साम्राज्य
प्रापणे न प्रौसरि जाइ चुषिक, तम जें रहद तलि दीव लुपिक । जय देखइ डिगतह जोति सासु, तब पसरि करइ अपरशु प्रगासु ॥१६॥ जो करइ कुमति तव भण विचार, जिस सागर जिउ लहरी अपार । इकि घहि इविक उत्तरिवि जाहि, वल्लु पाट धडइ नित होय माहि ।।२०।। परपचु कर जहर जगत्त, पर पप्पु न देखइ सत्त मित्त । खिण ही प्रयासि खिरण ही पयालि, लिण ही नित मंडलि रंग ताति ।।२१।। जिव तेल बुद जल माहि पड़ाइ, सा पसरि रहे भाजनह छाइ । तिव लोमु फरह राई सचारु, प्रगटावै अगि में रह विथारु ।।२२।। जो अघट घाट दुघट फिराइ, जो लगड व संगत पाइ । इकि सणि लोभि लग्गिय कुरंग, देहि जीउ माइ पारधि निसंग ।।२३।। पत्तग नयण लोभिहि मुलाहि, कंचण रसि दीपग महि पढाहि । इक बारिण लोभि मधुकर ममंति, तनु केवई कंटइ वेषियति ।।२४|| जिह लोभि मछ जल महि फिराहि, ते लग्गि पणव अप्पण गमहि । रसि काम लोभि गयबर भमंति, मद मंषसि वष बंधन सहति ।।२५॥ इक इक्का इंदिय तणे सुक्ख, तिन लोभि दिखाए विविह दुख । पंच इदिय लोभिहि तिन रखुत्त, करि जनम मरण ते नर विगुत्त ।।२।। जगमसि तपी जोगी प्रचंड, से लोभी भमाए भमहि खंड । इंद्राधिदेव वह लोम मत्ति, ते बंधहि मन महि मणुवगत्ति ॥२७॥ चक्क महिय हुइ इक्क छत्ति, सुर पदइ वंयहि सदा चित्ति । राइ रागो रावत मंडलीय, इनि लोभि वसी के के न कोय ॥२८॥ वरण मज्झि मुनीसर जे वसहि, सिव रयणी लोमु तिन हिय माहि । कि लोभि सरिंग पर भूमि जाहि, पर करहि सेव जीउ जीउ भणाहि ।।२९॥ सफुलीणो निकुलीगह दुवारि, लेहि लोम डिगाए करु पसारि । वसि लोभि न सुणही घम्मु कानि, निसि दिवसि फिरहि भारत्त ध्यानि ॥३०॥