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________________ मयरराजुज्झ मडिरूल दीठा नया फिरि विचारघउ पखि । सुभ बाणी सुणीय सवह मुखि । राउ नपरु विषमउं दलु बलु अति । इंद नरिंद करहिं जिसु की थुति ॥२०॥ सृणु सुणहो तू मोह भुवपत्ति, मई दीठा नयर तणी यह गमि । स्वामि विवेकु उसिड प्रति चाडइ, तुम्हं ऊपरि गम्वइ दिउ हाडइ ।। २६ । दोहा जब पच्चारित करदि तिनि, तब मनि मच्छरु वाधु । डानि षड्या जणु वानरा, चूतडि बीछू खाघु ।।३०।। तन्त्र अहंकार कीयउ तह, लीयउ बेगि बुलाइ । खबरि करहु सब सपण कहु. सभा जुडो जिपा ॥३१॥ मोह राजा को सभा रोसु प्राय: साथि तिसु झूट, मरु सोक संतापु तह, संकलपु विकलपु प्रायड । पावति चिता सहितु, दुखु कलेसु को ध्यायउ । कलहू प्रदेसा छन्दमु तह, समसरु बलगा जाइ । अंसी राजा मोह की समा सुब्बी सभ भाई ॥३२।। वोहा करिवि सभा तब मोह भड, इव चितइ मन माहि । जब लगु जीवह विवेकु इहु., तब लगु सुख हम नाहि ॥३३।। सात मोहहि बयण सुणीयइ, सुत मनमथु उहियज, सिरु निवाइ करि जोडि जंप 1 दावानल जिउ जलिङ, थरहराइ करि कोउ कपिउ । रहहिकि कुजर बापुडे, जितु वनि केहरि गधि । आजु नित्ति विवेक सुतु गहि ले ग्राउ बंधि । ३४॥ १. तब अहंकारन को सिनि क प्रति २. अबरु समसा सवलु गरजाये ग प्रति ३. बहु ग प्रति
SR No.090252
Book TitleKavivar Boochraj Evam Unke Samklin Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year
Total Pages315
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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