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________________ २१२ कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि जान मि वंमु गेड फुलुठानु, जोबनु रूपु तेजु गुन मानु । रूषु कुरुपु हेतु अनहेतु, पोष प्रपोच किष्क पर सेतु ॥२१४।। परि जब मयन सतावे वीर, तु नही सषी जान हि पर पीर । मन भाव सौ चढे चित प्राणि, सोई सषी पमर वर जानि ॥२१॥ श्लोक वयो नवं रूपमती बरम्यं कुलोन्नतिश्चेति सुबुद्धि रेषा । यस्य प्रसन्नी भगवान्मनोभू, स एव देवो सषि सुन्दरीनां ।।२१६।। जो तू मो भाति सुमोड़, तो तु साथ हमारे होइ । जब रानी पमन कर जोरि, बोल सषी बहुरि मुषु मोरि ।।२१७।। बोहरा रानी जे प्रचलन घनहि, जानत भष जुजि खाहि । दिवस वारि के पाव मो, संमूले चलि जाहि ।।२१८॥ जे पर पुरिसहि राहि धनी, ते गति पति काहि मापनी । तू सिन देत न मानहि दापु, पिन सुषु जनम जनम को पापु ॥२१॥ रानी निनि भई अनमनी, मोरी बात सषी अवगनी । मैं तू जानी सषी सुजानि, तो मै करी तुम्हारी कानि ||२२०।। तो हि कहार ते सौ परी, जोहाँ कहाँ मु करि राबरी । विहिना लिप्यो न भेट्यौ जाइ, मन मो सषी परी पछिताहि ॥२२१|| रानी एवं वासी का कूबा के पास प्रस्थान-- बरज कवनु भमारग जाति, तव उनि बली संग मुसिकाति । वोऊ जनी चली मरगाइ, मंदे देति सुहाए पाइ ।।२२२।। चमकति पलीजु मोही राग, जनुकु सुहरिणि विखोही चाग । चलत पाउ पाहन सो षग्यो, नेवर धुनि सुनि राजा जशो ।।२२३!! प्रमिय महादे पेषी जात, चितयो कहा चली अधरात ।। बढ्यो कोपु राय के अंग, हाथ परगु ले चाल्यो संग ।।२२४।। छूकतु लुकतु पाई थिर देतु, नारी तनी कनमुवा लेतु । अमिय महादे चंपक माल, सोह दुसवार पहती तहि काल ॥२२५६ दोने जहि कपाट पर दारु, जाग्यो सुनि नेवर झुनका । भने रिसानी को तुम चली, तारे फिरे प्रद' निसि गली ।।२२६।।
SR No.090252
Book TitleKavivar Boochraj Evam Unke Samklin Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year
Total Pages315
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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