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यशोधर चौपई
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सबु संसारु विश्ववनु जारिण, राजा चेति धम्म पहिचाणि । वालक वढे पिता के गेह, निर्मल अंग सकोमल देह ॥४०८।। लषण वतीस कणक सम अंगु, जनहु अंग सहू भयो अनंगू । खेलत वाल कु देष्यो तात, मुद्रा पेपि भयो सुषु गात ।। ४०६।। फरिण सुन्दर देषी सुकुमाल, सय दल सदल णयण सुविसाल ।। पायकांकेलि वैलि सम अंगु, चितवस' जनु भयभीत कुरंगु ।।४१०॥ टूहु ऋषि पभर प.. देसिनु अ क " । मारिदत्त सुनि ग्रह धरि भाउ, पारधि चल्यो हमारी ताउ ।।४११॥ स्वान पमह लीने साय, कणक डोरु गहि अपने हाथ । पंपहुचरितु दई को आनि, ढाहिणि दिसि तव तरहाणु ।।४१२।।
मुनि वर्शन
बिरकत भाव मुक्ति मन छु, दीनं ध्यानु मुनी सुदीर्छ । पभण राउ कोप पातुरमो, नगिनु दी किम मेरी परयौ ॥४१३॥ निनु मलिनु प्रमंगलु एहु, दीयवरगिदु सदूवर देहु । सनमुख गिन रह्यो दै ध्यानु, या सम मो प्रसगुण नहि मानु ।।४१४।। याको मुषु देषत्त सबु जाइ, प्रण चीतीउ किम देष्मी आइ। अस मै चात पत्याई प्राण, भैट वुरेस्यो होइ मचाण ।।४१५।। सव कूकर मेले मुणि तीर, घ्याए धरम जिम लए समीर । मुनिवर नीरे मंडल जाद, समहुइ रहे सीसु धरि साइ ॥४१६।।
गोवईन सेठ--
तव मन को पुन सक्यो सहारी, पायौ राउ काहि तरवारि। तहि अवसर गोवरधनु सेछि, जामन अटल पंच परमेठि १४१७१ वनि बरु अंतर कीनी माणि, जस में तनो परम हितु आनि । पभन तू जि प्रविन को राउ, मुनिपर बरि करहि किम घाउ ।।४१८॥ पणहि चरण वेमि तजि गाहू, मुनिबरु तेज पुज गनाए । धनिबर कमणु निसुनि महिपालु, भन मित्र किम जपहि पालू ।।४१६।। मुनि को आहिण पाजु उठार, यासिर फरमि पलय की मानू । तू मो सहू पाल गया कहही, मानहू मेरौ मरमु ए लहहि ।।४२०॥