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कविवर बुचराज
यिति प्रथासिय लोउ प्रलोउ,
पुणु भासिय प्रथि जो, नत्यि हुति ते नरिथ भासिय । पुष्णिकारणि बहुविष पाहिजे, जी जिसीको सांसो तिहि मेलि दल सा सा गति भोगेइ ।। १४१ ।।
महारंभ पांरंभ करि परिग्गहु मिल पंच इंद्रिय वसि करहि मद मासि चितु लाबहि । इसे सुख के फल पाप न पुन विचारहि । सो नरु नर गेहि जा६ मशुच जम्मतंरु हारइ ॥ १४२॥
चहु माया केवलहि कपटु करि पर मनु रंजइ । प्रति कुडिहि श्रवगूढ़ करिनि छल परजीवह वंच | मुहि मीठा मनि मलिन पंच महि भला कहावइ । इन कम्पनि जारिंप जूनि तियजचह पावइ ।। १४३ ।।
भद्द प्रवृत्ति जे होंहि ध्यान आरति न चहुँ । अनुकंपा चिति करहि विनख रति मुखा भाषइ । पंचदह दह सरल प्रणामि, मनि न आणहि मछर गति । कहहि खरवन्ति पावहि सुगति राग संजम दहु पालहि ।। १४४ ।।
सावय धम्म जे लीग दिस समूह निहाल ।
विष्णु रुचि जे निजरहि वालयण तबु साधहि । इनु भाइ जितुराई काउ देवह एति बाषद्धि ।। १४५ ।। रड छंद
मण सबै चित्त परि भाउ,
निक समकित सदह, देउ इक प्ररहंत से बहु । आरंभ पारंभ बिनु, सुगुरु जाणि निग्रन्थ सेवहु । मासिउ धम्मु जु केवलिय, सो निश्च जागोज । तिन्ह बरत संजम नेमि तिन्ह, जिन्ह पहिला बिरु एहु ।।१४६ १
चूल पारण मम भखहू धूल कूडज मम भासहु । लु प्रकत्त मलेह देखि परतिय वितु तासहु । परिगहु विउ पमागू, भोगउपभोग संखेव 1 अनर्थवं विविमा, नमउहू सामाइकु सेबहु
१४७।।
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