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कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि
जी ही सति चंद्रमति तनी, मरिवि तुरंगु जाय अपनी । सो सखिर महिषनो हो, सो मिथला पुरि वाछौ भयो ।।५०१।। अंत काल प्रापर सुनि काण, तिनि आरते तजि तिजे पराण । रुपि निखनि तुमारी राव, ताकै उदर अवतरथी भाइ ।।५०२।। राज पुरोघर घरिहे सोइ, पुण्ण पुरिषु तेरै घर होइ । तेरौ पिता कर्म को लयौं, चंडमारि देवी सो भयो ।।५०३३॥ सील निहाण तुमारी मार, सो मरि जोगी उपन्यो आइ । जसवंधुरु प्रवनी को राउ, राइ जसोष तनौ जो ताउ ।।५०४।। सो सुहझारणा चसौ तजि मोहू, जिनवर धम्म तनी लहि वोह । देसु कलिंग राउ भगदंतु, कुद लसा भामिनि को कंतु |३५०५।। घण कण कंचण दीमे भन्यो, जसवंवरु तनरुह अवतन्यो। नामु सुदत्त राज गुण गेहू, सो मुनिवर हो पायो एहू ॥५०६।। राय जसोध तनो सुपहाण, मंत्री राज गह परधारण ! पायु अंत सुमिरि परमठि, सा जाने गोवरधन सेठि ।।५०७।। मारिदत्त जो बूझो मोहि, सब समुझई पयासो तोहि । प्रवधि गयण जान्यो परमानु, मैं भास्यो भव भवण कहाणु ।।५.०८।। तुव पुर पंच वार फिरि गयौ, तो सौ राइण घरसनु भयो ।
काल लवधि जब पावै राइ, तब ही सुभ गति जीउ लहाइ ।।५०६।। मारिवत द्वारा वीक्षा
मारिदत्त तपु लयो बिचारि, पंष मूठि सिर केस उपारि । जोगी सु गुर तन पग परधी, सब पाषंड भाउ परिवरची ॥५१॥ भने दिसंबर मो तपु देहु, दया गेह मत विरमु करेहू ।।
चवे सुगुरु मुनि भैरोनंद, कोलागम स्यणायर चंद ।।५११।। सुदत्त का भैरवानन्द को उपदेश
दिन बाईस तुमारी प्रायु, वैगि धर्म को कहि उपाउ । तव जोगी मन लाग्यो चेतु, चित यो प्रायु जीव को हैत ।।५१२।। परिहरि षानु पानु सबु भोगु, लै सन्यासु दियौ दिढ जोगु । बारह अनुपेया मन भाइ, सुर्घ दुतीय सुर उपन्यो जाई ॥५१३।। ठौड़ी भई देखि कर जोरि, सा मि नरक मो जात बहोरि । मो वीराधि वीर तप देह, भव सायर बूढत गहि लेह ।।५१४।।